कक्षा 10 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी – Loktantra Mein Satta Ki Sajhedari

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के लोकतांत्रिक राजनीति के पाठ एक लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी (Loktantra Mein Satta Ki Sajhedari) के सभी महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।
Loktantra Mein Satta Ki Sajhedari
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1.लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

इस अध्याय में यह जानने की कोशिश करेंगे कि सामाजिक विषमता के कारण लोकतंत्र में द्वंद्व में तत्त्व किस प्रकार अंर्तनिहित है? जातीय एवं सांप्रदायिक विविधता लोकतंत्र को किस प्रकार प्रभावित करता है? लिंग भेद के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवहार किस प्रकार परिवर्तित होता है ? किस तरह लोकतंत्र सारी सामाजिक विभिन्नताओं, अंतरों और असमानताओं के बीच सामंजस्य बैठाकर उनका सर्वमान्य समाधान देने की कोशिश करता है ?

लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद

लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोग ही शासन के केन्द्र बिन्दु होते हैं। लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें लोगों के लिए एवं लोगों के द्वारा ही शासन चलाया जाता है।

द्वन्द्ववाद का अर्थ- बातचीत या तर्क-वितर्क करना।

लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन के स्वरूप-लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभाजन अलग-अलग स्वरूप तथा भेदभाव के विरोध का अलग-अलग तरीके होते हैं।

क्षेत्रीय भावना के आधार पर सामाजिक बंटवारा और भेदभाव तथा विरोध और संघर्ष की शुरूआत होती हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता में उत्तर भारत के बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोगों के विरूद्ध हिंसात्मक व्यवहार इसका उदाहरण हैं। अमेरिका में नस्ल या रंग के आधार पर होता हैं और श्रीलंका में भाषा और क्षेत्र दोनों आधार पर होता हैं।

भारत में सामाजिक विभाजन भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर होता हैं।

सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पति व्यक्ति को समुदाय या जाति का चुनाव करना उसके बस की बात नही हैं। कोई व्यक्ति जन्म के कारण ही किसी समुदाय का सदस्य बन जाता हैं।

दलित परिवार में जन्म लेनेवाला बच्चा उस समुदाय का सदस्य हो जाता हैं। स्त्री पुरूष, काला, गोरा, लम्बा-नाटा आदि जन्म का परिणाम हैं।

सामाजिक विभाजन जन्म आधारित नही होते हैं। बल्कि कुछ हम अपने इच्छा से भी चुनते हैं। जैसे कोई व्यक्ति अपने इच्छा से धर्म परिवर्तन कर लेता हैं। कुछ व्यक्ति नास्तिक बन जाता हैं।

एक ही परिवार के कई लोग किसान, सरकारी सेवक, व्यापारी, वकील आदि पेशा अपनाते हैं। जिसके कारण उनका समुदाय अलग हो जाता हैं तथा समुदायां के हित साधना एक-दूसरे के विपरित भी हो सकती हैं।

सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में अंतर कोई आवश्यक नही हैं कि सभी सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का आधार होता हैं। संभव हो भिन्न समुदायों के विचार भिन्न हो सकते हैं। परन्तु हित सामान होगा जैसे मुंबई में मराठियों के हिंसा का शिकार व्यक्तियों की जातियाँ भिन्न थी, धर्म भिन्न होंगें, लिंग भिन्न हो सकता हैं। परन्तु उनका क्षेत्र एक ही था। वे सभी एक ही क्षेत्र उत्तर भारतीय थे। उनका हित समान था। वे सभी अपने व्यवसाय और पेशा में संलग्न थे। इस कारण सामाजिक विभिन्नता साजिक विभाजन का रूप नही ले पाता।

सामाजिक विभिन्नता का अर्थ हैं कि एक समुह के लोग अपने जाति, धर्म, भाषा, सभ्यता के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं।

सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में बहुत बड़ा अंतर हैं- सामाजिक विभाजन तब होता हैं जब कुछ सामाजिक अंतर दुसरी अनेक विभिन्नताओं सें ऊपर और बड़े हो जाते हैं। स्वर्णों और दलितो का अंतर एक सामाजिक विभाजन हैं। क्योंकि दलित सम्पूर्ण देश में आमतौर पर गरीब, वंचित एवं बेसहारा हैं और भेदभाव का शिकार है जबकि स्वर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं। अर्थात दलितों को यह महसुस होने लगता हैं कि वे दुसरे समुदाय के है। जब एक तरह का सामाजिक अंतर अन्य अंतरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसुस होने लगता है कि वे दुसरे समुदाय के हैं तो इससे सामाजिक विभाजन कि स्थिति पैदा होती है। अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अंतर सामाजिक विभाजन हैं।

सामाजिक विभाजन में जाति राजनीति में सामाजिक विभाजन के सकारात्मक और नाकारात्मक दोनों पहलू की महता है। जाति व्यवस्था राजनिति में कई तरह की भूमिका निभाती हैं।

एक तरफ राजनीति मे जातीय विभिन्नताएँ और असमानताएँ वंचित और कमजोर समुदायों के लिए अपनी बातें आगे बढ़ाने और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी माँगने की गुँजाइस भी पैदा करती हैं। तो दूसरी ओर सिर्फ जाति पर जोर देना नुकसानदेह होता हैं।

राजनिति में जाति

राजनीति में जातियों का अनेक पहलु होते हैं। जैसे-

  1. निर्वाचन के वक्त पार्टी उसी जाति के अभ्यर्थी को वोट देती है, जिसकी जातियों की संख्या अधिक होती है ताकि चुनाव जीतने के लिए जरूरी वोट उसे मिल सके।
  2. राजनीतिक पार्टीयाँ चुनाव जीतने के लिए जातिगत भावना भड़काने की कोशिश करता है।
  3. दलित और नीची जातियों का महत्त्व भी निर्वाचन के वक्त बढ़ जाता है।

चुनाव की जातियता में ह्रास की प्रवृति

राजनिति में यह धारणा बन जाती हैं कि चुनाव और कुछ नहीं बल्कि जातियों का खेल हैं। परन्तु ऐसी बात नहीं है। राजनीति में अनेक अवधारनाएँ भी महत्त्वपूर्ण होती हैं।

  1. निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया गया है कि उसमें मात्र एक जाति के मतदाता रहे। इसलिए चुनाव जीतने के लिए हर पार्टी एक या एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा हासिल करना चाहता है।
  2. ऐसा संभव नहीं होता है कि कोई पार्टी केवल एक ही जाति का वोट हासिल कर सत्ता में आ सकता है।
  3. अगर जातीय भावना स्थायी होता, तो जातीय गोलबंद पर सत्ता में आनेवाली पार्टी की कभी हार नहीं होती। क्षेत्रीय पार्टियाँ भले ही जातीय गुटों से संबंध बनाकर आ जाए, परन्तु अखिल भारतीय चेहरा पाने के लिए जाति विहिन, साम्प्रदायिकता के परे विचार रखना आवश्यक होगा।

ऊपर लिखे गए बातों से स्पष्ट होता है कि राजनीति में जाति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु दूसरे कारक भी असरदार होता है।

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सांप्रदायिकता

राजनीति में धर्म समस्या के रूप में निम्नलिखित कारणों से खड़ी हो जाती है-

  1. धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है।
  2. राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय विशिष्ठता के लिए की जाती है।
  3. राजनीति किसी धर्म विशेष दावे को स्पोर्ट करने लगती है।
  4. किसी धर्म विशेष के अनुयायी दूसरे धर्म के मानने वाले लागों के लिए मोर्चा खोल देता है। एक धर्म के विचारों का दूसरे धर्म से श्रेष्ठ माना जाने लगता है। जिससे दो धार्मिक समुदायों के बीच तनाव शुरू हो जाता है।

राजनीति में धर्म को इस तरह इस्तेमाल करना ही सांप्रदायिकता कहलाता है।

सांप्रायिकता की परिभाषा- जब हम यह कहने लगते हैं कि धर्म ही समुदाय का निर्माण करती है तो साम्प्रदायिक राजनीति जन्म लेती है और इस अवधारणा पर आधारित सोच ही सांप्रदायिकता है।

राजनीति में सांप्रदायिकता का स्वरूप-

  1. सांप्रदायिकता का सोच प्रायः अपने धार्मिक समुदाय का प्रमुख राजनीति में बरकरार रखना चाहता है। जो लोग बहुसंख्यक समुदाय के होते हैं उसकी कोशिश बहुसंख्यकवाद के रूप ले लेती है। जैसे श्रीलंका के सिंहलियों का बहुसंख्यकवाद। वहाँ की निर्वाचित सरकार ने सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए कई कदम उठाए। उदाहरण के लिए 1956 में सिंहली एकमात्र राजभाषा के रूप में घोषित करना, विश्वविद्यालय और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देना, बौद्ध धर्म के संरक्षण हेतु कई कदम उठाना आदि।
  2. सांप्रदायिकता के आधार पर राजनीति गोलबंदी सांप्रदायिकता का दूसरा रूप है। इसके लिए पवित्र प्रतीकों, धर्म गुरुओं और भावनात्मक अपील आदि का सहारा निर्वाचन के वक्त लिया जाता है। किसी खास धर्म के अनुयायियों से किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने की अपील कराई जाती है।
  3. सांप्रदायिकता का भयावह रूप तब देखते हैं, जब संप्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार होता है।

धर्मनिरपेक्ष शासन की अवधारणा

हमारे समाज में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना हेतु अनेक उपाय किये गए हैं-

  1. हमारे देश में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंगलैंड में इसाई धर्म का दर्जा मिला हुआ है, लेकिन इसके विपरित भारत का संविधान किसी भी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
  2. भारत के संविधान में प्रत्येक नागरिक को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वह अपने विश्वास से किसी भी धर्म को स्वीकार कर सकता है। प्रत्येक धर्म के मानने वालों को अपने धर्म का पालन करने अथवा शांतिपूर्ण ढ़ंग से प्रचार करने का अधिकार है।
  3. हमारे संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक घोषित है।

लैंगिक मसले और राजनीति

लैंगिक असमानता सामाजिक असमानता का एक महत्वपूर्ण रूप है। लैंगिक असमानता सामाजिक संरचना के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ता है।

लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में ही परिवार में यह भावना घर कर जाती है कि भविष्य में लड़कियों की मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण तक ही सीमित होती है। उनका काम खाना बनाना, कपड़ा साफ करना, सिलाई-कड़ाई करना तथा बच्चों का पालन-पोषण आदि है। अगर वहीं मर्द घर के अंदर इन सभी कार्यों को करता है, तो उस पर समाज में छीटाकसी की जाती है।

आधुनिक दौड़ में महिलाएँ जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। भारत कृषि प्रधान देश है और यहाँ के लोगों के आजीविका का मुख्य आधार कृषि है। किसान शब्द का जब उच्चारण किया जात है तो लोगों के दिमाग में पुरूष का चेहरा उभर कर आता है। जबकि सच्चाई यह है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पुरूषों की तुलना में कम नहीं है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं का योगदान बढ़ा हुआ है। इन बातों की पुष्टी निम्नलिखित आँकड़ों से होती है-

  1. कृषि कार्य क्षेत्र में महिलाओं की कुल भागीदारी 40 प्रतिशत है।
  2. कुल पुरूष कामगारों में 53 प्रतिशत पुरूष और महिला कामगारों में 73 प्रतिशत महिलाएँ कृषि क्षेत्र में है।
  3. ग्रामीण महिला कामगारों में 85 प्रतिशत महिला कृषि से जुड़ी हुई है।

भारत की कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कम नहीं है, परन्तु दुख की बात यह है कि कृषि क्षेत्र में शामिल महिलाओं को पुरूषों की तुलना में कम मजदूरी दिया जाता है।

मनुष्य जाति के आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में खासकर राजनीति में इनकी भूमिका ना के बराबर है।

पहले पुरुषों को ही सार्वजनिक मामलों में भागीदारी करने, वोट देने या सार्वजनिक पदों के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति थी। धीरे-धीरे राजनीति में मुद्दे उठे और महिलाओं को भी सार्वजनिक जीवन में अवसर प्राप्त होने लगा।

सर्वप्रथम इंगलैंड में 1918 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ। उसके बाद धीरे-धीरे अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त होने लगा। आज प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति को देखा जा सकता है।

यूरोपीय देशों में महिलाओं की भागीदारी सार्वजनिक तौर पर काफी ऊँचा है। भारत में अभी भी उतना संतोषजनक नहीं है। भारत का समाज अभी भी पुरुष-प्रधान है। औरतों के साथ कई तरह के भेद-भाव होते हैं।

महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व- औरतों के प्रति समाज में घटिया नजरिया के कारण ही महिला आंदोलन की शुरूआत होने लगी। महिला आंदोलन की मुख्य माँगों में इनकी सत्ता में भागीदारी सर्वोपरी माँग थी।

औरतों ने सोचना शुरू कर दिया कि जब तक महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नहीं होगी तब तक इस समस्या का निबटारा नहीं होगा।

भारत के लोकसभा में महिलाओं की संख्या 59 हो गई है जो कुल सीट का 11 प्रतिशत है। ग्रेट ब्रिटेन में 19.3 प्रतिशत तथा अमेरिका में 16.3 प्रतिशत महिला प्रतिनिधि है। विकसित देशों में भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी संतोषजनक नहीं है। राजनीति मे महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना लोकतंत्र के लिए शुभ होता है।

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कक्षा 10 हमारी अर्थव्‍यवस्‍था पाठ सात उपभोक्ता जागरण एवं संरक्षण – Upbhokta Jagran Evam Sanrakshan

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के अर्थशास्‍त्र के पाठ सात उपभोक्ता जागरण एवं संरक्षण (Upbhokta Jagran Evam Sanrakshan)’ के सभी महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Upbhokta Jagran Evam Sanrakshan
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Bihar Board Class 10 Economics पाठ सात उपभोक्ता जागरण एवं संरक्षण – Upbhokta Jagran Evam Sanrakshan

उपभोक्ता बाजार का महत्वपूर्ण अंग है। व्यक्ति जब वस्तुएँ एवं सेवाएँ अपने उपयोग के लिए खरीदता है तब वह उपभोक्ता कहलाता है।

उपभोक्ता जागरण

  • प्रत्येक व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह जिस वस्तु का उपभोक्ता है, उसके बारे में पूर्ण जानकारी लें, जैसे- वस्तु का गुण, मात्रा, वस्तु बनाने में लगा सामान और इससे होने वाले प्रभाव।
  • यदि उपभोक्ता किसी विशेष वस्तु का उपभोग करता है और सामान खराब निकलता है, तो वह अपने निकट के उपभोक्ता केन्द्र में शिकायत कर मुआवजा प्राप्त कर सकता है।

उपभोक्ता जागरूकता हेतु आकर्षक नारें-

  • सतर्क उपभोक्ता ही सुरक्षित उपभोक्ता है।
  • ग्राहक सावधान।
  • अपने अधिकारों को पहचानों।
  • जागो ग्राहक जागो।
  • उपभोक्ता के रूप में अपने अधिकारों की रक्षा करो।

वर्तमान में ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं हैं जहाँ उपभोक्तओं का शोषण नहीं हो रहा हो, चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या बैंकिग, चिकित्सा, दूरसंचार, डाक, खाद्य सामग्री या फिर भवन-निर्माण। सभी क्षेत्र में त्रुटि, लापारवाही और कालाबाजारी उपभोक्ता के लिए घातक सिद्ध हो रही है।

उपभोक्ता शोषण के मु़ख्य कारक

  • मिलावट की समस्या- महँगी वस्तुओं में दूसरी वस्तुएँ मिला कर उपभोक्ता का शोषण होता है।
  • कम तौलने द्वारा- वस्तुओं की माप में हेरा-फेरी करके भी उपभोक्ता को शोषण किया जाता है।
  • कम गुणववाली वस्तु- उपभोक्ता को धोखे से अच्छी वस्तु के स्थान पर कम गुण वाले वस्तु देकर शोषण करना।
  • ऊँची किमत द्वारा- ऊँची किमत वसुल करके भी उपभोक्तओं का शोषण किया जाता है।
  • डुप्लीकेट वस्तुएँ- सही कंपनी का डुप्लीकेट वस्तुएँ देकर भी उपभोक्ता का शोषण किया जाता है।

जागरूक उपभोक्ता के लक्षण

  • छात्र-छात्राओं को चाहिए कि वे जिन संस्थान में नामांकन करने के इच्छुक है उनकी राज्य सरकार, UGC से मान्यता प्राप्ती की जानकारी ले लें।
  • क्रेडिट कार्ड मिलते ही निर्धारित जगह में तुरंत हस्ताक्षर कर दें।
  • दवा सुरक्षित तथा लरइसेंस प्राप्त दवा विक्रेता से ही खरीदें।
  • यह सुनिश्चित करें कि आपको सही मात्रा में पेट्रोल मिल रहा हैं अथवा नहीं।
  • LPG गैस सिलिंडर की अंतिम तिथि का पता कर लें।
  • ISI तथा एकमार्क, हॉल-मार्क उत्पाद वस्तु पर देखें व सही परख करें।

उपभोकता संरक्षण एवं सरकार

सरकार ने उपभोकताओं की रक्षा के लिए समय-समय पर कदम उठाते हुए अनेक उपभोकता-कानून बनाए हैं इस कड़ी में सरकार के तरफ से सबसे महत्वपूर्ण कदम हैं- उपभोकता संरक्षण अधिनियम 1986 भारत सरकार ने इस अधिनियम को अपनाने में विश्व के विकसित देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में लागू उपभोकता संरक्षण अधिनियम एवं व्यवस्थाओं का गहराई से अध्ययन करने के पश्चात् अपनाया।

पाठ सात उपभोक्ता जागरण एवं संरक्षण – Upbhokta Jagran Evam Sanrakshan

उपभोकता संरक्षण अधिनियम 1986

उपभोकता संरक्षण अधिनियम के दायरे में सभी वस्तुओं, सेवाओं तथा व्यक्तियों, चाहे वह निजी क्षेत्र के हो या सार्वजनिक क्षेत्र के, उसको सामिल किया जाता हैं। इसके तहत उपभोकताओ को यह जानने का अधिकार प्राप्त है कि वह वस्तु या सेवा कि गुणवत्ता, परिमाण, क्षमता, शुद्धता, मानक और मुल्य के बारे में जानकारी प्राप्त कर सके।

  • उपभोकता संरक्षण अधिनियम आपको सशक्त बनाता है।
  • अपने निकट क्षेत्र के उपभोकता फोरम को जानने के लिए कम्प्यूटर पर लॉग-ऑन कर सकते हैं-
  • उपभेकता संगठन की वेबसाइट है- www.Cuts.international.org.
  • इस वेबसाइट में उपभोक्ता को जागरूक बनाने में विभिन्न प्रकार की सामग्री प्रकाशित करती हैं।
  • उपभोकता किसी भी टोलिफोन या मोबाइल से मुफ्त में उपभोक्ता संरक्षण संबंधी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
  • राष्ट्रीय उपभोक्ता हेल्पलाइन नं0- 1800-11-4000 शुल्क मुक्त 
  • स्वर्णाभूषणों पर बीआईएस हॉलमार्क हमेशा देखें
  • केवल ISI चिन्हित उत्पाद खरीदें
  • लगभग 1500 उत्पादों में चिन्ह ISI अंकित है, इसमें खास तौर पर ऐसे उत्पाद आते हैं जो सेहत को नुकसान पहुंचा सकते हैं तथा ISI जो उपभोक्ताओं की सुरक्षा करते हैं।
  • इसमें एलपीजी सिलिण्डर्स, बिजली उपकरण, सुरक्षा हेलमेट, खाद्य पदार्थ, रंग, सिमेंट, शिशु आहार तथा बबल गम जैसे उत्पाद शामिल हैं।

उपभोक्ता सांरक्षण अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत उपभोक्ता को कुछ अधिकार सुरक्षा का अधिकार प्रदान किए गए हैं।

  1. सुरक्षा का अधिकारः- उपभोक्ता का प्रथम अधिकार सुरक्षा का अधिकार है। उपभोकता को ऐसे वस्तुओं और सेवाओं से सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है जिससे उसके शरीर या संपिŸा को हानि हो सकती है जैसे- बिजली का आयरन विद्युत आपूर्ति की खराबी के कारण करंट मार देता है या एक डॉक्टर ऑपरेशन करते समय लापरवाही बरतता है जिसके कारण मरीज को खतरा या हानि हो सकती है।
  2. सुचना पाने का अधिकारः- उपभोकता को वे सभी आवश्यक सुचनाएँ प्राप्त करने का अधिकार है जिसके आधार पर वह वस्तुएँ या सेवाएँ खरीदने का निर्णय कर सकते हैं। जैसेः- पैकेट बंद सामान खरीदने पर उसका मुल्य इस्तेमाल करने की अवधि, गणवत्ता इत्यादि की सुचना प्राप्त करें।
  3. चुनाव या पसंद करने कर अधिकारः- उपभोक्ता अपने अधिकार के अंतर्गत विभिन्न निर्माताओं द्वारा निर्मित विभिन्न ब्रांड, किस्म, रूप, रंग, आकार तथा मूल्य की वस्तुओं में किसी भी वस्तु का चुनाव करने को स्वतंत्र है।
  4. सुनवाई का अधिकारः- उपभोक्ता को अपने हितों को प्रभावित करनेवाली सभी बातो को उपयुक्त मंचो के समक्ष प्रस्तुत करने कर अधिकार है। उपभोक्ता को अपने को मंचो के साथ जुड़कर अपने बातों को रखनी चाहिए।
  5. शिकायत निवारण या क्षतिपूर्ति का अधिकारः- यह अधिकार लोगों को आश्वासन प्रदान करता है कि क्रय की गयी वस्तु या सेवा उचित ढ़ंग की अगर नही निकली तो उन्हे मुआवजा दिया जएगा।
  6. उपभोकता शिक्षा का अधिकारः- उपभोकता शिक्षा का अधिकार के अर्न्तगत, किसी वस्तु के मूल्य, उसकी उपयोगिता, कोटी तथा सेवा की जानकारी एवं अधिकारों से ज्ञान प्राप्ती की सुविधा जैसी बातें आती है जिसके माध्यम से शिक्षित उपभोकता धोखाधड़ी, दगाबाजी से बचने के लिए स्वंय सबल, संरक्षित एवं शिक्षित हो सकते हैं और उचित न्याय के लिए खड़े हो सकते हैं

उपभोकता संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत उपभोक्ताओं को उनकी शिकायतां के निवारण के लिए व्यवस्था दी गई है जिसे तीन स्तरों पर स्थापित किया गया है-

  • राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आयोग
  • राज्य स्तर पर राज्य स्तरीय आयोग
  • जिला स्तर पर जिला मंच (फोरम)

उपभोक्ता संरक्षण हेतु सरकार द्वारा गठित न्यायिक प्रणाली

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में त्रिस्तरीय अर्द्धन्यायिक व्यवस्था है, जिसमें, जिला मंचों, राज्य आयोग एवं राष्ट्रीय आयोग  की स्थापना की गई है।
  • अगर उपभोक्ता राष्ट्रीय फोरम से संतुष्ट नहीं होता है तो वह आदेश के 30 दिनों के अंदर उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है। 

उपभोकता- शिकायत‘, क्या, कहाँ, कैसे?

इस समय देश में 582 जिला फोरम, 35 राज्य आयोग और एक राष्ट्रीय आयोग काम कर रहे हैं जिसके द्वारा दायर 24 लाख मामलो में 84% मामलों को निपटाया जा चुका है।

शिकायत क्या करें ?

यदि कोई उत्पादक या व्यापारी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में परिभाषित उपभोकता के अधिकारे के विरूद्ध कार्य करता है तब उपभोकता शिकायत दर्ज कर सकते हैं!

शिकायत कहाँ करें ?

यदि किसी व्यक्ति या सेवा का मूल्य 20 लाख से कम है तो वह शिकायत जिला फोरम में दर्ज करा सकते हैं।

शिकायत करने का तरीका

  • उपभोकता द्वारा शिकायत सादें कागज पर की जा सकती है जिसे दर्ज करने के लिए कोई शुल्क नही देना होता है साथ ही इसे व्यक्तिगत रूप से या डाक द्वारा भेजा जा सकता है।
  • पुनः अगर वस्तु व सेवा का मूल्य 20 लाख के ऊपर और 1 करोड़ के नीचे हो तो शिकायत राज्य आयोग के पास की जा सकती है और अगर किसी वस्तु या सेवा का मूल्य या क्षतिपूर्ति राशि 1 करोड़ से अधिक होने पर उपभोकता राष्ट्रीय अयोग में इसकी शिकायत कर सकता है।

शिकायत कैसे की जाए ?

  • शिकायत सादे कागज पर की जा सकती है।
  • शिकायत में निम्नलिखित विवरण होना चाहिए-
  • शिकायत कर्ताओं तथा विपरित पार्टी के नाम का विवरण तथा पता।
  • शिकायत से संबंधित तथ्य एवं यह सब कब और कहाँ हुआ।
  • शिकायत में उल्लिखित आरोपों के सर्मथन में दस्तावेज।
  • शिकायत पे शिकायतकर्ताओं अथवा उसके प्राधिकृत एजेंट के हस्ताक्षर होने चाहिए।
  • अपनी शिकायत भेजें ताकि इसका समाधान हो सके।

पाठ सात उपभोक्ता जागरण एवं संरक्षण – Upbhokta Jagran Evam Sanrakshan

आर्थिक शोषण एवं उसका निराकरण

  • विज्ञापन के चकाचौंध में अक्सर उपभोक्ता भ्रमित हो जाते हैं कि वे कौन से वस्तु खरीदें ताकि उनकी आवश्यकता की पूर्ति हो सकें। इस स्थिति में अक्सर उत्पादक अथवा व्यापारी बड़े पैमाने पर विभिन्न प्रकार से उपभोकताओं का शोषण करते हैं।
  • विश्व के अन्य देशों की तरह हमारे देश मे भी कुछ ऐसी संवैधानिक संस्थाओं कि स्थापना कि गई है जो उपभोक्ताओं के इस आर्थिक शोषण का निराकरण करती है।

दो संस्थाएँ महत्वपूर्ण है जो लोगों के जीवन और उपभोग के अधिकार को संरक्षण देती है।

  1. मानवाधिकार आयोग एवं
  2. सूचना आयोग

मानवाधिकार आयोग

  • हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर पर उच्चतम संस्था है, जो मानवीय अधिकारों की रक्षा और उनके अधिकार से संबंधित हितों के लिए सुरक्षा प्रदान करती है। इस संस्था को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कहते हैं।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का महत्व इस बात से बढ़ जाता है कि इसके अध्यक्ष भारत के उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त प्रधान न्यायाधाश होते हैं। इसी प्रकार देश के प्रत्येक राज्य में एक राज्य मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया है जो देश के नागरिकों के अधिकार और सुरक्षा संबंधी बातों को देखती है।
  • महिलाओं के ऊपर हुए अत्याचार अथवा शोषण संबंधी शिकायत के निराकरण करने के लिए देश के स्तर पर राष्ट्रीय महिला आयोग तथा राज्य महिला आयोग का गठन किया गया है।

सूचना आयोग

कोई भी उपभोक्ता अपनी अधिकारों की रक्षा तभी कर सकते हैं, जब उन्हें अपने उपभोग की वस्तुओं और सेवाओं के उत्पाद संबंधी सभी सूचना उपलब्ध हो।

उपभोक्ता के इस समस्या को दूर करने के लिए सरकार द्वारा देश के स्तर पर राष्ट्रीय सूचना आयोग और राज्य के स्तर पर राज्य सूचना आयोग का गठन किया गया है।

सूचना का अधिकार क्या है ?

सूचना का अधिकार आम आदमी को अधिकार संपन्न बनाने हेतु सरकार द्वारा महत्वपूर्ण कदम है।

सूचना के अधिकार का तात्पर्य है- कोई भी व्यक्ति अभिलेख, इमेल आदेश, दस्तावेज, नमूने और इलेक्ट्रॉनिक आँकड़े आदि के रूप में ऐसी प्रत्येक सूचना प्राप्त कर सकता है जिसकी उसे आवश्यकता है। जिसके लिए आवेदक संबंधित ‘लोक सूचना अधिकारी‘ के समक्ष आवेदन करेगा। जिसकी सूचना 30 दिनों में संबंधित व्यक्ति को सूचना उपलब्ध करवाया जायेगा।

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कक्षा 10 हमारी अर्थव्‍यवस्‍था पाठ छ: वैश्वीकरण – Vaishvikaran Economics

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Vaishvikaran Economics
Vaishvikaran Economics

Bihar Board Class 10 Economics पाठ छ: वैश्वीकरण – Globalization

बीसवीं शताब्दी के नौवें दशक से विश्व बाजार में एक युग की शुरूआत हुई है। जिसे वैश्वीकरण (Globalization) कहते हैं। वैश्वीकरण के अंतर्गत पूरी दुनिया का बाजार एक-दूसरे के लिए मुक्त हो गया है।

पहले मोटर साइकिल में राजदूत, एजडी तथा कार में फिएट तथा एम्बेस्डर ही चला करती थी। आज वैश्वीकरण के कारण छोटे-से शहरों की सड़कों पर भी नयी-नयी किस्म की गाड़ियाँ चलती है।

वैश्वीकरण क्या है ?

    वैश्वीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं का समन्वय या एकीकरण किया जाता है ताकि वस्तुओं एवं सेवाओं, प्रौद्योगिकी, पूँजी और श्रम या मानवीय पूँजी का भी निर्बांध प्रवाह हो सके। वैश्वीकरण के अंतर्गत पूँजी, वस्तु तथा प्रौद्योगिकी का निर्बाध रूप से एक देश से दूसरे देश में प्रवाह होता है।

निजीकरण- निजीकरण का अभिप्राय, निजी क्षेत्र द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से स्वामित्व प्राप्त करना तथा उनका प्रबंध करना है। आर्थिक सुधारों के अंर्तगत भारत सरकार ने सन् 1991 से निजीकरण की नीति अपनाई।

उदारीकरण- उदारीकरण का अर्थ सरकार द्वारा लगाए गए सभी अनावश्यक नियंत्रणों तथा प्रतिबंधों जैसे- लाइसेंस, कोटा आदि को हटाना है। आर्थिक सुधारों के अंर्तगत भारत सरकार ने 1991 से उदारीकरण की नीति अपनाई।

बहुराष्ट्रीय कंपनी- बहुराष्ट्रीय कंपनी वह है, जो एक से अधिक देशों में उत्पादन पर नियंत्रण व स्वामित्व रखती है। जैसे- फोर्ड मोटर्स, सैमसंग, कोका कोला, नोकिया, इंफोसिस, टाटा मोटर्स आदि।

वैश्वीकरण के पक्ष में तर्क

  1. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रोत्साहन
  2. प्रतियोगी शक्ति में वृद्धि
  3. नई-प्रौद्योगिकी के प्रयोग में सहायक
  4. अच्छी उपभोक्ता वस्तुओं की प्राप्ति
  5. नये बाजार तक पहुँच
  6. उत्पादन तथा उत्पादिता के स्तर को उन्नत करना
  7. बैंकिग तथा वित्तीय क्षेत्र में सुधार
  8. मानवीय पूँजी की क्षमता का विकास

बिहार में वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव

  1. कृषि एवं कृषि आधारित उद्योगों की उपेक्षा
  2. कुटीर एवं लघु उद्योगों पर विपरीत प्रभाव
  3. रोजगार पर विपरीत प्रभाव
  4. आधारभूत संरचना के कम विकास के कारण कम निवेश

आम आदमी पर वैश्वीकरण का अच्छा प्रभाव

  1. उपयोग के आधुनिक संसाधनों की उपलब्धता
  2. रोजगार की बढ़ी हुई संभावना
  3. आधुनिकतम तकनीक की उपलब्धता

आम आदमी पर वैश्वीकरण का बुरा प्रभाव

  1. बेराजगारी बढ़ने की आशंका
  2. उद्योग एवं व्यवसाय के क्षेत्र में बढ़ती हुई प्रतियोगिता
  3. श्रम संगठनों पर बुरा प्रभाव
  4. मध्यम एवं छोटे उत्पादकों की कठिनाई
  5. कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र का संकट

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कक्षा 10 हमारी अर्थव्‍यवस्‍था पाठ पाँच रोजगार एवं सेवाएँ – Rojgar Evam Sevayen

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इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के अर्थशास्‍त्र के पाठ पाँच रोजगार एवं सेवाएँ (Rojgar Evam Sevayen)’  के सभी महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।
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Bihar Board Class 10 Economics पाठ पाँच रोजगार एवं सेवाएँ – Rojgar Evam Sevayen

रोजगार का अर्थ देश के मानव संसाधन को ऐसे कार्यों में लगाना है जिससे देश की उत्पादकता बढ़े और सामान्य लोगों के लिए उसकी न्यूनतम आवश्यकाएँ रोटी, कपड़ा और मकान प्राप्त हो सकें।

बेरोजगार- ऐसे लोग जो काम करने के लायक होते हैं और जिन्हें उचित पारिश्रमिक पर काम नहीं मिलता है, उसे बेरोजगार कहते हैं।

आर्थिक विकास के मुख्य तीन क्षेत्र हैं-

  1. कृषि क्षेत्र- कृषि क्षेत्र पर कुल जनसंख्या का लगभग 67 प्रतिशत बोझ है।
  2. उद्योग क्षेत्र- रोजगार का दूसरा क्षेत्र उद्योग क्षेत्र है। इस क्षेत्र के माध्यम से रोजगार की प्राप्ति की जा रही है।
  3. सेवा क्षेत्र- सेवा क्षेत्र रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र है। इस क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन रोजगार के अवसर उपलब्ध हो रहे हैं।

सेवा क्षेत्र को सामान्यतः दो भागों में विभक्त किया गया है-

  1. सरकारी सेवा और 2. गैर सरकारी सेवा

सरकारी सेवा क्षेत्र- 1. सैन्य सेवा, 2. शिक्षा सेवा, 3. रेल सेवा, 4. बस सेवा, 5. वायुयान सेवा, 6. कृषि सेवा, 7. स्वास्थ्य सेवा, 8. अभियंत्रण सेवा, 9. वित्त सेवा, 10. बैंकिंग सेवा, 11. अन्य सरकारी सेवाएँ

गैर सरकारी सेवा- बैंकिंग सेवा, दूरसंचार सेवा, यातायात सेवा, स्वास्थ्य सेवा, स्वरोजगार सेवा, अन्य गैर सरकारी सेवाएँ

सेवा क्षेत्र के महत्व- सेवा एवं रोजगार एक ही तराजू के दो पलड़ों के समान हैं।

रोजगार सृजन के रूप में सेवा क्षेत्र की भूमिका- सेवा का क्षेत्र सरकारी हो या गैर सरकारी, दोनों ही परिस्थितियों में रोजगार पैदा करता है। सरकारी क्षेत्र के सहयोग से रोजगार सृजन निम्न सेवाओं के द्वारा किया जा रहा है- काम के बदले अनाज

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कक्षा 10 हमारी अर्थव्‍यवस्‍था पाठ चार हमारी वित्तीय संस्‍थाएँ – Hamari Vitiya Sansthayen

Hamari Vitiya Sansthayen
इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के अर्थशास्‍त्र के पाठ चार हमारी वित्तीय संस्‍थाएँ (Hamari Vitiya Sansthayen) के सभी महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।
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Bihar Board Class 10 Economics पाठ चार हमारी वित्तीय संस्‍थाएँ – Hamari Vitiya Sansthayen

वित्तीय संस्थाएँः- हमारी देश की वे संस्थाएँ जो आर्थिक विकास के लिए उधम एवं व्यवसाय के वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है एसी संस्थाओं को वित्तीय संस्था कहते हैं।

वित्तीय संस्थाएँ दो प्रकार की होती हैं- राष्ट्र स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ और राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ

सरकारी वित्तीय संस्थाएँः- सरकार द्वारा स्थापित एवं संपोषित वित्तीय संस्थाओ को सरकारी वित्तीय संस्थाएँ कहते हैं।

जैसे- स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक, इलाहाबाद बैंक इत्यादि।

राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ

इनके दो महत्वपूर्ण अंग हैंः-

  1. भारतीय मुद्रा बाजार
  2. भारतीय पूँजी बाजार

भारतीय मुद्रा बाजार को संगठित और असंगठित क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है। संगठित क्षेत्र में वाणिज्य बैंक, निजी क्षेत्र के बैंक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक एवं विदेशी बैंक शामिल किए जाते हैं जबकि असंगठित क्षेत्र में देशी बैंकर जिनमें गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ शामिल की जाती हैं।

देश की संगठित बैंकिंग प्रणाली निम्नलिखित तीन प्रकार की बैंकिंग व्यवस्था के रूप में कार्यशील है-

संगठित बैंकिंग प्रणली

  1. केंद्रिय बैंक- RBI देश का केन्द्रीय बैंक है। यह देश में शीर्ष बैंकिंग संस्था के रूप में कार्यरत है।
  2. वाणिज्य बैंक- वाणिज्य बैंक के द्वारा बैंकिंग एवं वित्तीय क्रियाओं का संचालन होता हैं।
  3. सहकारी बैंक- आपसी सहयोग एवं सद्भावना के आधार पर जो वित्तीय संस्थाएँ कार्यशील है उसे सहकारी बैंक कहते हैं, यधपि ये राज्य सरकारों के द्वारा संचालित होती हैं।

भारतीय पूँजी बाजारः- भारतीय पूँजी बाजार मुख्यतः दीर्घकालीन पूँजी उप्लब्ध कराती है।

भारतीय पूँजी बाजार मूलतः इन्ही चार वित्तीय संस्थानों पर आधारित है जिसके चलते राष्ट्र-स्तरीय सार्वजनिक विकास जैसे- सड़क, रेलवे, अस्पताल, शिक्षण संस्थान, विद्युत उत्पादन संयंत्र एवं बड़े-बड़े निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग संचालित किए जाते हैं।

वित्तीय संस्थाएँ किसी भी देश का मेरूदंड माना जाता है।

राज्य में मुख्यतः दो प्रकार की वित्तीय संस्थाएँ कार्यरत हैं-

राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ

  1. गैर संस्थागत वित्तीय संस्‍थाओं में निम्‍नलिखित वर्ग आते हैं-
  • महाजन           
  • सेठ साहुकार
  • व्यापारी                             
  • रिश्तेदार एवं अन्य
  1. संस्थागत वित्तीय संस्‍थाओं में निम्‍नलिखित वर्ग आते हैं-
  • सहकारी बैंक
  • प्राथमिक सहकारी समितिय
  • भूमि विकास बैंक
  • व्यवसायिक बैंक
  • क्षेत्रीय ग्रामिण बैंक
  • नार्वाड एवं अन्य
  1. सहकारी बैंकः- इनके माध्यम से बिहार के किसानों को अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण की सुविधा उप्लब्ध होती हैं। राज्य में 25 केंद्रीय सहकारी बैंक जिला स्तर पर तथा राज्य स्तर पर एक बिहार राज्य सहकारी बैंक कार्यरत हैं।
  2. प्राथमिक सहकारी समितियाँः- इनकी स्थापना कृषि क्षेत्र की अल्पकालीन ऋणों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए की गई है। एक गाँव अथवा क्षेत्र के कोई भी कम-से-कम दस व्यक्ति मिलकर एक प्राथमिक शाख समिति का निर्माण कर सकते हैं।
  3. भूमि विकास बैंकः- राज्य में किसानों को दीर्घकालीन ऋण प्रदान करने के लिए भूमि बंधक बैंक खोला गया था, जिसे अब भूमि विकास बैंक कहा जाता है।
  4. व्यावसायिक बैंकः- यह अधिक मात्रा में किसानों को ऋण प्रदान करते हैं। भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण 1969 ई. में हुआ था।
  5. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक- सीमांत एवं छोटे किसानों की जरूरतों को पूरा करने के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की स्थापना 1975 ई. में किया गया। देश में अभी 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक है।
  6. नाबार्ड- यह कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए सरकारी संस्थाओं, व्यावसायिक बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को वित्त की सुविधा प्रदान करता है। जो पुनः किसानों को यह सुविधा प्रदान करता है।

व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य-

  1. जमा राशि को स्वीकार करना- व्यावसायिक बैंकों का प्रमुख कार्य अपने ग्राहकों से जमा के रूप में मुद्रा प्राप्त करना है। लोग चोरी होने के भय से या ब्याज कमाने के उद्देश्य से बैंक में अपना आय का कुछ भाग जमा करते हैं।
  2. ऋण प्रदान करना- व्यावसायिक बैंकों का दूसरा महत्वपूर्ण काम लोगों को ऋण प्रदान करना है।
  3. समान्य उपयोगिता संबंधी कार्य- इसके अलावा व्यावसायिक बैंक अन्य बहुत से कार्य करते हैं, जिन्हें समान्य उपयोगिता संबंधी कार्य कहा जाता है।

जैसे- यात्री चेक एवं साख पत्र जारी करना- साख पत्र या यात्री चेक की मदद से व्यापारी विदेशों से भी आसानी से माल उधार ले सकते हैं।

लॉकर की सुविधा- लॉकर की सुविधा से ग्राहक बैंक में अपने सोने-चाँदी के जेवर तथा अन्य आवश्यक कागज पत्र सुरक्षित रख सकते हैं।

ATM और क्रेडिट कार्ड की सुविधा- ATM और क्रेडिट कार्ड की मदद से खाता धारक 24 घंटे रूपया निकाल सकते हैं।

व्यापारिक सूचनाएँ एवं आँकड़े एकत्रीकरण- बैंक आर्थिक स्थिति से परिचित होने के कारण व्यापार संबंधी सूचनाएं एवं आँकड़े एकत्रित करके अपने ग्राहकों को वित्तीय मामलों पर सलाह देते हैं।

  1. ऐजेंसी संबंधी कार्य- इसके अंतर्गत चेक, बिल और ड्राफ्ट का संकलन, ब्याज तथा लाभांश का संकलन तथा वितरण, ब्याज, ऋण की किस्त, बीमे की किस्त का भूगतान, प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय तथा ड्राफ्ट तथा डाक द्वारा कोष का हस्तांतरण आदि क्रियाएँ करती हैं।

स्वयं सहायता समुह- स्वयं सहायता समुह ग्रामीण क्षेत्रों में 15-20 व्यक्तिओं का एक अनौपचारिक समूह होता है जो अपनी बचत तथा बैंकों से लघु ऋण लेकर अपने सदस्यों के पारिवारिक जरूरतों को पूरा करते हैं और गाँवों का विकास करते हैं।

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कक्षा 10 हमारी अर्थव्‍यवस्‍था पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख – Mudra Bachat Aur Sakh

Mudra Bachat Aur Sakh

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के अर्थशास्‍त्र के पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख (Mudra Bachat Aur Sakh)’  के सभी महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Mudra Bachat Aur Sakh
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Bihar Board Class 10 Economics पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख – Mudra Bachat Aur Sakh

मुद्रा- मुद्रा पैसे या धन के उस रूप को कहते हैं जिससे दैनिक जीवन में क्रय और विक्रय होती है। इसमें सिक्के तथा कागज के नोट दोनों आते हैं।

अर्थशास्त्री मार्शल ने कहा है कि ‘आधुनिक युग की प्रगति का श्रेय मुद्रा को ही है।‘

मुद्रा का इतिहास

मुद्रा को आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। मुद्रा के विकास के इतिहास को मानव सभ्यता के विकास का इतिहास कहा जा सकता है। सभ्यता के प्रारंभिक अवस्था में जब मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थी तो वे अपनी जरूरत की वस्तुएँ स्वयं उत्पादित कर लिया करते थे। लेकिन लोगों की संख्या मं वृद्धि के साथ ही उनकी आवश्यताओं में भी वृद्धि होने लगी, जिसे पूर्ति करने में कठिनाई महसूस की जाने लगी। तब वे आपस में एक-दूसरे के द्वारा उत्पादित वस्तुओं के आदान-प्रदान से अपनी आवश्कताओं की पूर्ति करने लगे। जिसके कारण मुद्रा का विकास हुआ।

आज प्रायः मनुष्य किसी एक काम में ही अपना समय लगाता है। इससे जो आय प्राप्त होता है उससे अन्य वस्तुएँ प्राप्त कर लेता है। जिसके कारण आज विनिमय का महत्व बढ़ गया है।

विनिमय के स्वरूप- विनिमय के दो रूप है-

  1. वस्तु विनिमय प्रणाली तथा
  2. मौद्रिक विनिमय प्रणाली।

Bihar Board Class 10 Economics पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख – Mudra Bachat Aur Sakh

  1. वस्तु विनिमय प्रणाली- वस्तु विनिमय प्रणाली उस प्रणाली को कहा जाता है जिसमें एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का आदान-प्रदान होता है। जैसे- गेहूँ से चावल का बदलना, दूध से दही का बदलना, शब्जी से घी का बदलना आदि।

वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयाँ

  1. आवश्यकता के दोहरे संयोग का अभाव- आवश्यकता के दोहरे संयोग का मतलब है कि एक की जरूरत दूसरे से मेल खा जाए लेकिन ऐसा कभी संयोग ही होता था कि किसी की जरूरत किसी से मेल खा जाए। ऐसी स्थिति में कठिनाई होती थी।
  2. मूल्य के सामान्य मापक का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली में ऐसा कोई सर्वमान्य मापक नहीं था जिसकी सहायता से सभी प्रकार के वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य को ठीक प्रकार से मापा जा सके। जैसे- जैसे एक सेर चावल के बदले कितना तेल दिया जाए? एक गाय के बदले कितनी बकरियाँ दी जायें?
  3. मूल्य संचय का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली के द्वारा उत्पादित वस्तुओं के संचय की असुविधा थी। व्यवहार में व्यक्ति कुछ वस्तुओं का उत्पादन करता है जो शीघ्र नष्ट हो जाती है। ऐसी जल्दी नष्ट होने वाली वस्तुओं की संचय की असुविधा होती थी।
  4. सह-विभाजन का अभाव- कुछ वस्तुएँ ऐसी होती है, जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता है, यदि उनका विभाजन कर दिया जाए तो उनकी उपयोगिता नष्ट हो जाती है। जैसे एक गाय के बदले में तीन चार वस्तुएँ लेनी होती थी और वे वस्तुएँ अलग-अलग व्यक्तियों के पास थी। इस स्थिति में गाय के तीन चार टुकड़े नहीं किए जा सकते। ऐसी स्थिति में विनिमय का कार्य नहीं हो सकता है।
  5. भविष्य के भुगतान की कठिनाई- वस्तु विनिमय प्रणली में उधार लेने तथा देने में कठिनाई होती थी। जैसे कोई व्यक्ति किसी से दो वर्षों के लिए एक गाय उधार लेता है और इस अवधि के बीतने पर वह लौटा देता है। लेकिन दो वर्षों के अंदर उधार लेनेवाला व्यक्ति गाय के दूध पिया तथा उसके गोबर को जलावन के रूप में उपयोग किया। ऐसी स्थिति में उधार लेने वाले को मुनाफा होता था तथा उधार देनेवाले को घाटा होता था।
  6. मूल्य हस्तांतरण की समस्या- वस्तु विनिमय प्रणाली में मूल्य हस्तांतरण में कठिनाई होती थी। जैसे कोई व्यक्ति किसी स्थान को छोड़कर दूसरे जगह बसना चाहता। ऐसी स्थिति में उसको अपनी सम्पत्ति छोड़कर जाना पड़ता था, क्योंकि उसे बेचना कठिन था।
  7. मौद्रिक विनिमय प्रणाली- मुद्रा का विकास मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है। सुप्रसिद्ध विद्वान क्राउथर ने कहा था कि ‘ जिस तरह यंत्रशास्त्र में चक्र, विज्ञान में अग्नि और राजनीतिशास्त्र में मत का स्थान है, वही स्थान मानव के आर्थिक जीवन में मुद्रा का है।

            मौद्रिक विनिमय प्रणाली में पहले कोई व्यक्ति अपनी वस्तु या सेवा को बेचकर मुद्रा प्राप्त करता है और फिर उस मुद्रा से अपनी जरूरत की अन्य वस्तुएँ प्राप्त करता है।

मुद्रा के कार्य- मुद्रा के प्रमुख कार्य हैं-

  1. विनिमय का माध्यम,
  2. मुल्य का मापक,
  3. विलंबित भुगतान का मान,
  4. मूल्य का संचय,
  5. क्रय शक्ति का स्थानांनतरण और
  6. साख का आधार।

Bihar Board Class 10 Economics पाठ तीन मुद्रा, बचत और साख – Mudra Bachat Aur Sakh

मुद्रा का विकास

मुद्रा का क्रमिक विकास निम्नलिखित है-

  1. वस्तु विनिमय,
  2. वस्तु मुद्रा,
  3. धात्विक मुद्रा,
  4. सिक्के,
  5. पत्र मुद्रा और
  6. साख मुद्रा

मुद्रा का आर्थिक महत्व

आधुनिक आर्थिक व्यवस्था में मुद्रा का काफी महत्व है। यदि मुद्रा न होती तो विश्व के विभिन्न देशों में इतनी आर्थिक प्रगति कभी भी संभव नहीं होती। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था हो या समाजवादी अर्थव्यवस्था हो या मिश्रित अर्थव्यवस्था हो, सभी में मुद्रा आर्थिक विकास के मार्ग में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ट्रेस्कॉट ने कहा है कि ‘यदि मुद्रा हमारी अर्थव्यवस्था का हृदय नहीं तो रक्त-स्त्रोत तो अवश्य है।‘

मुद्रा से लाभ

  1. मुद्रा से उपभोक्ता को लाभ
  2. मुद्रा से उत्पादक को लाभ
  3. मुद्रा और साख
  4. वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों का निराकरण
  5. मुद्रा और पूँजी की तरलता
  6. मुद्रा और पूँजी की गतिशीलता
  7. मुद्रा और पूँजी निर्माण
  8. मुद्रा और बड़े पैमाने के उद्योग
  9. मुद्रा और आर्थिक प्रगति
  10. मुद्रा और सामाजिक कल्याण

बचत- आय तथा उपभोग में अंतर बचत कहलाता है।

बचत दो प्रकार का होता है-

  1. नगद बचत और
  2. वस्तु संचय

कुल आय का ऐसा अंश जो किसी भी प्रकार की वस्तु पर खर्च नहीं किया जाता है, उसे नगद बचत कहते हैं।

कुल आय का वह भाग जो टिकाऊ वस्तुओं पर खर्च किया जाता है उसे वस्तु संचय कहते है। इसे विनियोग कहा जाता है।

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साख क्या है?

साख का अर्थ है- विश्वास या भरोसा।

साख एक ऐसा विनिमय कार्य है जो एक निश्चित अवधि के बाद भुगतान करने के बाद पूरा हो जाता है।

साख के दो पक्ष होते हैं- 1. ऋणदाता और 2. ऋणी।

साख के आधार

साख के मुख्य आधार निम्नलिखित है-

  1. विश्वास, 2. चरित्र, 3. चुकाने की क्षमता, 4. पूँजी एवं संपत्ति, 5. ऋण की अवधि।

साख पत्र- साख पत्र का मतलब उन साधनों से है जिनका उपयोग साख मुद्रा के रूप में किया जाता है। साख पत्र के आधार पर साख या ऋण का आदान-प्रदान होता है। साख पत्र ठीक मुद्रा की तरह कार्य करते हैं।

साख पत्र कई प्रकार के होते हैं- 1. चेक, 2. विनिमय बिल, 3. बैंक ड्राफ्ट, 4. हुण्डी, 5. प्रतिज्ञा पत्र, 6. यात्री चेक, 7. पुस्तकीय साख तथा 8. साख प्रमाण पत्र।

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कक्षा 10 हमारी अर्थव्‍यवस्‍था पाठ दो राज्य एवं राष्ट्र की आय – Rajya Evam Rastra Ki Aay

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के अर्थशास्‍त्र के पाठ दो राज्य एवं राष्ट्र की आय (Rajya Evam Rastra Ki Aay) के सभी महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Rajya Evam Rastra Ki Aay
Rajya Evam Rastra Ki Aay

Bihar Board Class 10 Economics पाठ दो राज्य एवं राष्ट्र की आय – Rajya Evam Rastra Ki Aay

आयः- समाज का हर व्यक्ति अपने परिश्रम के द्वारा जो अर्जित करता है, वह अर्जित संपत्ति उसकी आय मानी जाती है। व्यक्ति को प्राप्त होनेवाला आय मौद्रिक के रूप में, अथवा वस्तुओं के रूप में भी हो सकता है।
अर्थात,
जब कोई व्यक्ति किसी प्रकार का शारीरीक अथवा मानसिक कार्य करता है और उस कार्यों के बदले में जो पारिश्रमिक मिलता है, उसे उस व्यक्ति की आय कहते हैं।
बिहार की आयः- सामान्यतः हम यह जानते हैं कि गरीबी गरीबी को जन्म देता है। इसी कथन को प्रसि़द्ध अर्थशास्त्री रैगनर नक्स ने गरीबी के कुचक्र के रूप में व्यक्त किया है।
भारत के सभी 28 राज्यों एवं 8 केन्द्र शासित प्रदेशों में सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय चडीगढ़ का है। गोवा में प्रति व्यक्ति आय 54,850 रूपये तथा दिल्ली में यह 50,565 रूपये बताई गई है और तीसरे स्थान पर इस बार हरियाणा ने पंजाब को पीछे छोड़ दिया है।
Bihar Board Class 10 Economics पाठ दो राज्य एवं राष्ट्र की आय – Rajya Evam Rastra Ki Aay
राष्ट्रीय आयः-  राष्ट्रीय आय का मतलब किसी देश में एक वर्ष में उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के कुल मूल्य से लगाया जाता है। वर्ष भर में किसी देश में अर्जित आय की कुल मात्रा को राष्ट्रीय आय कहा जाता हैं।
राष्ट्रीय आय की धारणा को हम निम्नलिखित आयामों के द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं।
राष्ट्रीय आय की धारणा-
1.सकल घरेलू उत्पाद
2.कुल या सकल राष्ट्रीय उत्पादन
3.शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन
सकल घरेलू उत्पादः- एक देश की सीमा के अन्दर किसी भी दी गई समयावधि, प्रायः एक वर्ष में उत्पादित समस्त अंतिम वस्तुओं तथा सेवाओं का कूल बाजार या मौद्रिक मूल्य, उस देश का सकल घरेलू उत्पाद कहा जाता है।
2.कुल या सकल राष्ट्रीय उत्पादनः- किसी देश में एक साल के अर्न्तगत जितनी वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन होता है उनके मौद्रिक मूल्य को कुल राष्ट्रीय उत्पादन कहते हैं। कुल राष्ट्रीय उत्पादन तथा सकल घरंलू उत्पादन में अंतर हैं। कुल राष्ट्रीय उत्पादन का पता लगाने के लिए सकल घरेलू उत्पादन में देशवासियों द्वारा विदेशों में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मुल्य को जोड़ दिया जाता है तथा विदेशियों द्वारा देश में उत्पादित वस्तुओं के मूल्य को घटा दिया जाता है।
3.शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादनः- कुल राष्ट्रीय उत्पादन को प्राप्त करने के लिए हमें कुछ खर्चा करना पड़ता है। अतः कुल राष्ट्रीय उत्पादन में से इन खर्चों को घटा देने से जो शेष बचता है वह शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन कहलाता हैं। कुल राष्ट्रीय उत्पादन में से कच्चा माल की कीमत पूँजी की घिसावट एवं मरम्मत पर किए गए व्यय, कर एवं बीमा का व्यय घटा देने से जो बचता है, उसे शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन कहते हैं।
Bihar Board Class 10 Economics पाठ दो राज्य एवं राष्ट्र की आय – Rajya Evam Rastra Ki Aay
भारत का राष्ट्रीय आय- ऐतिहासिक परिवेश
सबसे पहले भारत में 1868 ई0 में दादा भाई नौरोजी ने राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाया था। उस समय वे प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 20 रूपया बताया था।
1948-49 के लिए देश की कुल राष्ट्रीय आय 8,650 करोड़ थी तथा प्रति व्यक्ति आय 246.9 रुपया थी।
1954 में राष्ट्रीय आंकड़ों का संकलन करने के लिए सरकार ने केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन की स्थापना की। यह संस्था नियमित रूप से राष्ट्रीय आय के आँकड़े प्रकाशित करती है।
प्रति-व्यक्ति आय
राष्ट्रीय आय में देश की कुल जनसंख्या से भाग देने पर जो भागफल आता है उसे प्रति-व्यक्ति आय कहते हैं।
प्रतिव्यक्ति आय = राष्‍ट्रीय आय/कुल जनसंख्‍या
भारत का राष्ट्रीय आय काफी कम है तथा प्रति-व्यक्ति आय का स्तर भी बहुत नीचा है। विश्व विकास रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 में भारत की प्रति-व्यक्ति आय 950 डॉलर था। भारत की प्रति-व्यक्ति आय अमेरिका के प्रति-व्यक्ति आय का लगभग 1/48 है।
अमेरिका का प्रतिव्यक्ति आय 46,040 डॉलर है।
इंगलैंड का प्रतिव्यक्ति आय 42,740 डॉलर है।
बंग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय 870 डॉलर है।
राष्ट्रीय आय की गणना में कठिनाइयाँ
1.आँकड़े को एकत्र करने में कठिनाई
2.दोहरी गणना की सम्भावना
3.मूल्य मापने में कठिनाई
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विकास में राष्ट्रीय एवं प्रति-व्यक्ति आय का योगदान
किसी भी राष्ट्र की सम्पन्नता अथवा विपन्नता वहाँ के लोगों की प्रति-व्यक्ति आय या संयुक्त रूप से सभी व्यक्तियों के आय के योग जिसे राष्ट्रीय आय कहते हैं के माध्यम से जाना जाता है। राष्ट्रीय आय और प्रति-व्यक्ति आय ही राष्ट्र के आर्थिक विकास का सही मापदंड है। बिना उत्पाद को बढ़ाए लोगों की आय में वृद्धि नहीं हो सकती है और न ही आर्थिक विकास हो सकता है।
राष्ट्रीय आय एवं प्रति-व्यक्ति आय में परिवर्तन होने से इसका प्रभाव लोगों के जीवन-स्तर पर पड़ता है।
जिस अनुपात में राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है, यदि उसी अनुपात में यदि जनसंख्या में वृद्धि हो रही हो तो समाज का आर्थिक विकास नहीं बढ़ सकता है।
यदि राष्ट्रीय आय एवं प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धि होती है तो समाज के आर्थिक विकास में भी वृद्धि होगी तथा राष्ट्रीय आय एवं प्रति-व्यक्ति आय में कमी होने से समाज के आर्थिक विकास में भी कमी होगी।
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कक्षा 10 हमारी अर्थव्‍यवस्‍था पाठ एक अर्थव्‍यवस्‍था एवं इसके इतिहास – Arthvyavastha Evam Iske Vikas Ka Itihas

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Arthvyavastha Evam Iske Vikas Ka Itihas
Arthvyavastha Evam Iske Vikas Ka Itihas

1. अर्थव्यवस्था एवं इसके विकास का इतिहास

15 अगस्त, 1947 को मिली आजादी से पहले लगभग 200 वर्षो तक भारत अंग्रेजी शासन का गुलाम था। उस समय भारत को सोने की चिड़ियाँ कहा जाता था। लेकिन अंग्रेजी शासन ने सोने की इस चिड़ियाँ का भरपूर शोषण किया तथा जमकर लूटा, जिसके कारण भारत में आर्थिक विकास की गति मंद या नगण्य रही। अंग्रेजी शासन के 200 वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था में कोई विकास नही हुआ।
उपनिवेश जब कोई भी देश किसी बड़े समृ़द्धशाली राष्ट्र के शासन के अंतर्गत रहता है और उसके समस्त आर्थिक एवं व्यवसायिक कार्यों का निर्देशन एवं नियंत्रण शासक देश का होता है तो ऐसे शासित देश को शासक देश का उपनिवेश कहा जाता है। भारत करीब 200 वर्षों तक ब्रिटिश शासन का एक उपनिवेश था।
अर्थयवस्था का अर्थ
हमारी वे सभी क्रियाएँ, जिनसे हमें आय प्रप्त होती हैं, आर्थिक क्रियाएँ कहलाती हैं अर्थव्यवस्था एक ऐसा तंत्र या ढाँचा हैं जिसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाएँ सम्पादित कि जाती है, जैसे-कृषी, उद्योग, व्यापार बैंकिंग, बीमा, परिवहन तथा संचार आदि।
प्रत्येक अर्थव्यवस्था दो प्रमुख कार्य संपादित करती हैं-
1.लोगों की आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करती है।
2.लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करती हैं।
आर्थर लेविस के अनुसार अर्थवयवस्था का अर्थ किसी राष्ट्र के सम्पूर्ण व्यवहार से होता है जिसके आधार पर मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वह अपने संसाधनों का प्रयोग करता है।
ब्राउन के अनुसार अर्थव्यवस्था आजीविका अर्जन की एक प्रणाली है।
दूसरे शब्द में, अर्थव्यवस्था आर्थिक क्रियाओं का एक ऐसा संगठन है जिसके अन्तर्गत लोग कार्य करके अपनी आजीविका चलाते है।
अर्थव्यवस्था समाज की सभी आर्थिक क्रियाओं का योग है।
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अर्थव्यवस्था की संरचना या ढाँचा
अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की आर्थिक क्रियाएँ अथवा गतिविधियाँ सम्पादित की जाती हैं, इन क्रियाओं को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा जाता है-
1.प्राथमिक क्षेत्र
2.द्वितीयक क्षेत्र
3.तृतीयक क्षेत्र या सेवा क्षेत्र
4.प्राथमिक क्षेत्र- प्राथमिक क्षेत्र को कृषि क्षेत्र भी का जाता है। इसके अंर्तगत कृषि, पशुपालन, मछली पालन, जंगलो से वस्तुओं को प्राप्त करना जैसे व्यवसाय आते हैं।
5.द्वितीयक क्षेत्र- द्वितिय क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र भी कहा जाता हैं। इसके अंर्तगत खनिज व्यवसाय, निर्माण-कार्य, जीवनोपयोगी सेवाएँ, जैसे- गैस और बिजली आदि के उत्पादन आते हैं।
6.तृतीयक क्षेत्र या सेवा क्षेत्र- तृतीयक क्षेत्र को सेवा क्षेत्र भी कहा जाता है। इसके अंतर्गत बैंक एवं बीमा, परिवहन, संचार एवं व्यापार आदि क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। ये क्रियाएँ प्राथमिक एवं द्वितियक क्षेत्रों की क्रियाओं को सहायता प्रदान करती हैं। इसलिए इसे सेवा क्षेत्र कहा जाता हैं।
अर्थव्यवस्था के प्रकार
विश्व में निम्न तीन प्रकार की अर्थव्यवस्था पाई जाती हैं-
1.पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाः- पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था है जहाँ उत्पादन के साधनां का स्वामित्व एवं संचालन नीजी व्यक्तियों के पास होता है जो इसका उपयोग अपने निजी लाभ के लिए करते हैं। जैसेः-अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि।
2.समाजवादी अर्थव्यवस्थाः- समाजवादी अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था हैं जहाँ उत्पादन के साधनां का स्वामित्व एवं संचालन देश की सरकार के पास जाता है जिसका उपयोग सामाजिक कल्यान के लिए किया जाता है। चीन, क्युबा आदि देशों मे समाजवादी अर्थव्यवस्था हैं।
3.मिश्रत अर्थव्यवस्थाः- मिश्रत अर्थव्यवस्था पूँजीवादी तथा समाजवादी अर्थव्यवस्था
का मिश्रण है। मिश्रित अर्थव्यवस्था वह अर्थव्यवस्था है जहाँ उत्पादन के साधनों का स्वामित्व सरकार तथा निजीं व्यक्तियों के पास होता है।
अर्थव्यवस्था का विकास
अर्थव्यवस्था के विकास का एक लम्बा इतिहास है। अर्थव्यवस्था का विकास एक पौधां की विकास की तरह होता है। जिस तरह एक पौधे का क्रमशः विनाश होते जाता हैं और परिपक्वता कि स्थिति में उससे फल डाली आदि का उपयोग मानव हित में होता है। ठीक उसी तरह एक अर्थव्यवस्था का आदिम काल से अब तक विकस हुआ है। अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तन हम अर्थव्यवस्था के विकास कि कहानी कह सकते हैं।
भारत में योजना आयोग का गठन 15 मार्च 1950 को किया गया था। आयोग के अध्यक्ष पदेन भारत के प्रधानमंत्री होते हैं। समान्यतः काम- काज एक उपाध्यक्ष के देख-रेख में होता है। जिसकी सहायता के लिए आयोग के आठ सदस्य होते हैं।
राष्ट्रीय विकास परिषद् भारत में राष्ट्रीय विकास परिषद् का गठन 6 अगस्त 1952 को किया गया था। इसका गठन आर्थिक नियोजन हेतु राज्य सरकारों तथा योजना आयोग के बीच ताल-मेल तथा सहयोग का वातावरण बनाने के लिए किया गया था। राष्ट्रीय विकास परिषद् में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री इसके पदेन सदस्य होते हैं।
मौद्रिक विकास की संक्षिप्त कहानी
1.वस्तु विनिमय प्रणाली- वस्तु से वस्तु का लेन-देन
2.मौद्रिक प्रणाली- मुद्रा से वस्तु एवं सेवाओं का विनिमय
3.बैंकिग प्रणाली- बैंक के माध्यम से चेक के द्वारा विनियम के क्रिया का संपादन
4.कोर बैंकिग प्रणाली के अंतर्गत एक संकेत से एक व्यक्ति के खाते से दूर अवस्थित दूसरे व्यक्ति को उसी बैंक के माध्यम से पैसा का हस्तानांनतरण
5.ए.टी.एम प्रणाली- प्लास्टिक के एक छोटे से कार्ड पर अंकित सुक्ष्म संकेत के आधार पर कहीं भी तथा किसी भी समय निर्धारित बैंक के केन्द्र से पैसे निकालने की सुविधा।
6.डेबिट कार्ड- बैंक द्वारा दिया गया प्लास्टिक का कार्ड जिसके द्वारा बैंक में अपनी जमा राशि के पैसे का उपयोग करना।
7.क्रेडिट कार्ड- बैंक द्वारा जारी किया गया प्लास्टिक का एक कार्ड जिसके आधार पर उसके धारक द्वारा पैसे अथवा वस्तु प्राप्त कर लेना।
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आर्थिक विकास की माप एवं सूचकांक
राष्ट्रीय आय- आर्थिक विकास के एक प्रमुख सूचक राष्ट्रीय आय को माना जाता है। किसी देश में एक वर्ष की अवधि में उत्पादित सभी वस्तुओं एवं सेवाओं के मौद्रिक मूल्य के योग को राष्ट्रीय आय कहा जाता हैं। सामान्य तौर पर जिस देश का राष्ट्रिय आय अधिक होता है वह देश विकसित कहलाता हैं और जिस देश का राष्ट्रिय आय कम होता हैं। वह देश अविकसित कहलाता हैं।
प्रति व्यक्ति आयः- आर्थिक विकास की माप करने के लिए प्रति व्यक्ति आय को सबसे उचित सुचकांक माना जाता है। प्रति व्यक्ति आय देश मे रहते हुए व्यक्तियों कि औसत आय होती है। राष्ट्रीय आय देश कि कुल जनसंख्या से भाग देने पर जो भागफल आता हैं, वह प्रति व्यक्ति आय कहलाता है। फार्मूले के रूप में-
प्रतिव्यक्ति आय = राष्‍ट्रीय आय/कुल जनसंख्‍या
विश्व बैंक की विश्व विकास रिपोर्ट 2006 के अनुसार जिन देशों की 2004 में प्रतिव्यक्ति आय 453000 रूपये प्रतिवर्ष या इससे अधिक है, वह विकसित देश हैं और वे देश जिनकी प्रति व्‍यक्ति आय 37000 रूपये या इससे कम है उन्हें विकासशील देश कहा गया है। भारत विकासशील (निम्न आय वर्ग) वाले देश में आता है, क्योंकि 2004 के अनुसार भारत की प्रतिव्यक्ति वार्षिक आय 28000 रूपये थी।
2000-2003 के आंकड़े के अनुसार पंजाब के प्रतिव्यक्ति वार्षिक आय 26000, केरल की 22800 तथा बिहार की मात्र 5700 थी।
मानव विकास सूचकांक- यूएनडीपी द्वारा मानव विकास रिपोर्ट विभिन्न देशों की तुलना लोगों की शैक्षिक स्तर, उनकी स्वास्थ्य स्थिति और प्रति व्यक्ति आय के आधार पर करती है।
मानव विकास सूचकांक के तीन सूचक हैं-
1.जीवन आशा
2.शिक्षा प्राप्ति तथा
3.जीवन-स्तर।
2004 के लिए विभिन्न देशों की मानव विकास सूचकांक
2004 में 177 देशों के लिए मानव विकास सूचकांक की गणना की गई थी। जिसमें भारत का स्थान 126वां है। नार्वे का पहला स्थान तथा ऑस्ट्रेलिया का तीसरा स्थान है। इसका मतलब है कि भारत में मानव विकास मध्यम स्तर का है।
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बिहार के विकास की स्थिति
बिहार का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है। यही पर गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। महावीर ने शांति के संदेश यहीं से दिया था। चन्द्रगुप्त, अशोक, शेरशाह, गुरुगोविंद सिंह, बाबू कुँवर सिंह, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म बिहार से ही हुआ है। महात्मा गाँधी ने चम्पारण आंदोलन की शुरूआत यहीं से किया था। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति‘ का नारा इसी बिहार से दिया था, फिर भी बिहार काफी पिछे है। साधनों के मामले में धनी होते हुए भी बिहार की स्थिति दयनीय है। इसे पिछड़े राज्यों में गिना जाता है।
बिहार के पिछड़ेपन के कारण
1.तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या
2.आधारित संरचना का अभाव
3.कृषि पर निर्भरता
4.बाढ़ तथा सूखा से क्षति
5.औद्योगिक पिछड़ापन
6.गरीबी
7.खराब विधि व्यवस्था
8.कुशल प्रशासन का अभाव
बिहार के पिछड़ेपन को दूर करने के उपायः- आर्थिक विकास की गति को तेज करके ही बिहार की स्थिति में सुधार किया जा सकता हैं। पूर्व राष्ट्रपति डॉ00 पी0 जे0 अब्दूल कलाम ने कहा था कि बिहार के विकास के बिना भारत का विकास संभव नही है।
1.बिहार में पिछड़ेन को दूर करने के लिए निम्न उपाय किए जा सकते हैं।
2.जनसंख्या पर नियंत्रण- बिहार के पिछड़ेपन का मुख्‍य कारण जनसंख्‍या है। यहाँ जनसंख्‍या घनत्‍व भारत के सभी राज्‍यों में प्रथम स्थान पर है। जनसंख्‍या को नियंत्रण कर बिहार के पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है।
3.कृषि का तेजी से विकास- यहाँ ज्‍यादातर भागों में परम्‍परागत तरीके से ही खेती की जाती है। कृषि में आधुनिक तकनीक का इस्‍तेमाल कर कृषि का विकास किया जा सकता है।
4.बाढ़ पर नियंत्रण- बिहार के पिछड़ेपन का मुख्‍य कारण बाढ़ है। यहाँ प्रतिवर्ष बाढ़ आ जाते हैं। हमेशा उत्तर बिहार बाढ़ से ग्रस्‍त रहता है। इसके स्‍थाई निदान से बाढ़ पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
5.आधारिक संरचना का विकासः- बिहार में बिजली की काफी कमी है। अतः बिजली का उत्पादन बढ़ाया जाए। सड़क व्यवस्था में सुधार लाया जाए। शिक्षा एवं स्वास्थ सुविधाओं में सुधार लाया जाए जिससे विकास की प्रक्रिया और अधिक बढ़ सके।
उद्योगों का विकास- बिहार में उद्योगों का विकास कर इसके पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है।
6.गरीबी दूर करनाः- बिहार मे गरीबी का सबसे अधिक प्रभाव हैं। गरीबी रेखा के नीचे लगभग 42 प्रतिशत से भी अधिक लोग यहाँ जीवन-वसर कर रहें हैं। इनके लिए रोजगार की व्यवस्था की जाए स्व-रोजगार को बढ़ावा देने के लिए इन्हे प्रशिक्षण दिया जाता है।
7.शांत व्यवस्था की स्थापनाः- बिहार मे शांति की का माहौल कायम कर व्यक्तियों में विश्वास जगाया जा सकता है तथा आर्थिक विकास की गति को तेज किया जा सकता हैं।
8.स्वच्छ तथा इमानदार प्रशासनः- बिहार के आर्थिक विकास के लिए स्वच्छ, कुशल तथा इमानदार प्रशासन जरूरी हैं।
9.केन्द्र से अधिक मात्रा में संसाधनों का हस्तांतरण- भारत सरकार बिहार को आर्थिक सहायता तथा विशेष राज्‍य का दर्जा देकर इसके पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है।
देश के आर्थिक विकास में बिहार के विकास की भूमिकाः- बिहार देश का एक बड़ा राज्य हैं। भौगोलिक क्षेत्रफल तथा जनसंख्या दोनों ही दृष्टिकोण से बिहार का स्थान भारत में अपना एक अलग महत्व रखता हैं। इसलिए कहा जाता है की यदि भारत का विकास करना है तो बिहार का विकास करना आवश्यक हैं।  
बिहार देश का एक ऐसा राज्य है जहाँ अत्यधिक उर्वरक भूमि है। हिमालय से निकलने वाली नदियों में लगातार जल प्रवाह होता रहता है। यहाँ धरती के नीचे कम सतह पर ही जल प्राप्त हो जाते हैं। यदि बिहार की नदियों को परस्पर जोड़ कर जल संसाधन के उपयोग की योजना लागू कर दिया जाए तो उत्तरी बिहार को बाढ़ की विभीषिका से बचाया जा सकता है तथा दक्षिणी बिहार को सिंचाई की सुविधा द्वारा सूखे से बचाया जा सकता है।
देश के आर्थिक विकास के प्रत्येक क्षेत्र में बिहारीयों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। हाल के वर्षों में बिहार के विकास में गति आई है। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन ने बिहार का वर्तमान विकास दर 11.03 प्रतिशत माना है जो देश में गुजरात 11.5% के बाद दूसरा हैं। यदि देश और बिहार कंधा में कंधा मिलाकर विकास की क्रिया के वर्तमान दौर को कारगर करें तो इक्कीसवीं शताब्दी में आर्थिक दृष्टिकोण से भारत विश्व के अग्रणी देशों में आ जाएगा। अतः स्पस्ट है कि देश के आर्थिक विकास में बिहार के आर्थिक विकास की भूमिका महत्वपूर्ण हैं।
मूलभूत आवश्यकताएँ एवं विकास का संबंध
देश के नागरिकों के रहने के लिए मकान, खाने के लिए रोटी तथा शरीर ढ़कने के लिए कपड़ा उनकी न्यूनतम मूलभूत आवश्यकता है। देश की बढ़ती हुई जनसंख्या विकास के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा है। समुचित न्यायपूर्ण सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लोगों को खाने के लिए रोटी उप्लठब्ध हो सकता है। देश में रोजगार के द्वारा नागरिको को आय में वृद्धि की जा सकती है। जिससे उन्हें कपड़ा और मकान उपलब्ध होगा। देश के ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब मजदूरों के लिए राष्ट्रव्यापी रोजगार देने कि योजना बनाई गई है। यह योजना राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत शुरू कि गई है। इसे संक्षेप में नरेगा कहा जाता हैं। ग्रामीण रोजगार देने की इस स्कीम को विश्व का सबसे बड़ा रोजगार योजना माना जाता हैं।
गरीबी रेखाः- गरीबी को निर्धारित करने के लिए योजना आयोग द्वारा सीमांकन किया गया है। गरीबी-रेखा कैलोरी मापदंड पर आधारित है। ग्रामिण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रो में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन निर्धारित किया गया है। अर्थशास्त्र में गरीबी की माप की यह एक काल्पनिक रेखा है। इस रेखा के नीचे के लोगों को गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है। इसे संक्षेप में BPL भी कहा जाता है।

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