मृदा के प्रकार एवं वितरण

मृदा के प्रकार एवं वितरण :

मृदा निर्माण की प्रक्रिया के निर्धारक तŸव, उनके रंग-गठन, गहराई, आयु व रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर भारत की मृदा के छः प्रकार होते हैं।

  1. जलोढ़ मृदा

यह मृदा भारत में विस्तृत रूप में फैली हुई सर्वाधिक महŸवपूर्ण मृदा है। उत्तर भारत का मैदान पूर्ण रूप से जलोढ़ निर्मित है, जो हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी प्रणालियों सिंधु, गंगा और बह्मपुत्र द्वारा लाए गए जलोढ़ के निक्षेप से बना है।

कुल मिलाकर भारत के लगभग 6.4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर जलोढ़ मृदा फैली हुई है।

जलोढ़ मिट्टी का गठन बालू, सिल्ट एवं मृत्तिका के विभिन्न अनुपात से होता है। इसका रंग धुँधला से लेकर लालिमा लिये भूरे रंग का होता है।

ऐसी मृदाएँ पर्वतीय क्षेत्र में बने मैदानों में आमतौर पर मिलती हैं। आयु के आधार पर जलोढ़ मृदा के दो प्रकार हैं- पुराना एवं नवीन जलोढ़।

पुराने जलोढ़ में कंकड़ एवं बजरी की मात्रा अधिक होती है। इसे बांगर कहते हैं। यह ज्यादा उपजाऊ नहीं होते हैं।

बांगर की तुलना में नवीन जलोढ़ में महीन कण पाये जाते हैं, जिसे खादर कहा जाता है। खादर में बालू एवं मृत्तिका का मिश्रण होता है। ये काफी उपजाऊ होते हैं।

उत्तर बिहार में बालू प्रधान जलोढ़ को ‘दियारा भूमि‘ कहते हैं। यह मक्का की कृषि के लिए विश्व प्रसिद्ध है।

जलोढ़ मृदा में पोटाश, फास्फोरस और चूना जैसे तŸवों की प्रधानता होती है, जबकि नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी रहती है। यह मिट्टी गन्ना, चावल, गेहूँ, मक्का, दलहन जैसी फसलों के लिए उपयुक्त मानी जाती है।

अधिक उपजाऊ होने के कारण इस मिट्टी पर गहन कृषि की जाती है। जिसके कारण यहाँ जनसंख्या घनत्व अधिक होता है।

  1. काली मृदाः

इस मिट्टी का रंग काला होता है जो इसमें उपस्थित एल्युमीनियम एवं लौह यौगिक के कारण है। यह कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है। जिस कारण इसे ‘काली कपास मृदा‘ के नाम से भी जाना जाता है।

इस मिट्टी की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक होती है। यह मृदा कैल्शियम कोर्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूना जैसे पौष्टिक तŸवों से परिपूर्ण होती है। इसमें फास्फोरस की कमी होती है।

  1. लाल एवं पीली मृदा :

इस मृदा में लोहा के अंश होने के कारण लाल होता है। जलयोजन के पश्चात यह मृदा पीले रंग की हो जाती है। जैव पदार्थों की कमी के कारण यह मृदा जलोढ़ एवं काली मृदा की अपेक्षा कम उपजाऊ होती है। इस मृदा में सिंचाई की व्यवस्था कर चावल, ज्वार-बाजरा, मक्का, मूंगफली, तम्बाकू और फलों का उत्पादन किया जा सकता है।

  1. लैटेराइट मृदा :

इस प्रकार की मिट्टी का विकास उच्च तापमान एवं अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में हुआ है। इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा नगण्य होती है। यह मिट्टी कठोर होती है। अल्युमीनियम और लोहे के ऑक्साइड के कारण इसका रंग लाला होता है।

कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में मृदा संरक्षण तकनीक के सहारे चाय एवं कहवा का उत्पादन किया जाता है। तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और केरल में इस मृदा में काजू की खेती उपयुक्त मानी जाती है।

  1. मरूस्थलीय मृदा :

इस मृदा का रंग लाल या हल्का भूरा होता है। इस प्रकार की मृदा में वनस्पति और उर्वरक का अभाव पाया जाता है। किन्तु, सिंचाई की व्यवस्था कर कपास, चावल, गेहूँ का भी उत्पादन किया जा सकता है।

  1. पर्वतीय मृदा :

पर्वतीय मृदा प्रायः पर्वतीय और पहाड़ी क्षेत्रों में देखने को मिलती है। यह मृदा अम्लीय और ह्यूमस रहित होते हैं। इस मृदा पर ढ़ालानों पर फलों के बगान एवं नदी-घाटी में चावल एवं आलू का लगभग सभी क्षेत्रों में उत्पादन किया जाता है।

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