3. Bandhutva jati tatha varg | बंधुत्व, जाति तथा वर्ग

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 12 इतिहास का पाठ तीन बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (Bandhutva jati tatha varg) के सभी टॉपिकों के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगें, जो परीक्षा की दृष्टि से महत्‍वपूर्ण है। इस पाठ को पढ़ने के बाद इससे संबंधित एक भी प्रश्‍न नहीं छूटेगा।

Bandhutva jati tatha varg

3. बंधुत्व, जाति तथा वर्ग

महाभारत के बारे में
महाभारत दुनिया का सबसे बड़ा महाकाव्य है
महाभारत में एक लाख से अधिक श्लोक हैं
इसका पुराना नाम जय संहिता था। जय संहिता में 8800 श्‍लोक था। जय संहिता में ही जब और श्‍लोक जोड़ा गया, तो उसे महाभारत नाम रखा गया।
महाभारत के लेखक वेदव्‍यास हैं।
महाभारत के खंडों को पर्व कहा जाता है। इसमें कुल 18 पर्व है। जिसमें सबसे महत्‍वपूर्ण पर्व भीष्‍म पर्व है, जिसे गीता कहा जाता है।
यह भारत के सबसे समृद्ध ग्रंथों में से एक है
महाभारत की रचना 1000 वर्ष तक होती रही है। (लगभग 500 BC से)
महाभारत से उस समय के समाज की स्थिति तथा सामाजिक नियमों के बारे में जानकारी मिलती है।
महाभारत में शामिल कुछ कथाएं तो इस काल से पहले भी प्रचलित थी।
महाभारत में दो परिवारों के बीच हुए युद्ध का चित्रण है।
महाभारत मूल कथा के रचयिता भाट सारथी थे।
महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण की शुरूआत वी.एस .सुन्थाकर ने शुरू की।

महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण
समालोचना- अच्छी तरह से देखना, विश्लेषण करना।
(1) समीक्षा करना
(2) गुण-दोष की परख करना
(3) निरीक्षण करना
संस्कृत के विद्वान वी.एस .सुन्थाकर के नेतृत्व में 1919 में एक महत्वकांक्षी परियोजना की शुरुआत हुई।
इसमें अनेक विद्वानों ने मिलकर महाभारत ग्रंथ का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने की जिम्मेदारी उठाई।
इस परियोजना के लिए देश के विभिन्न भागों से विभिन्न लिपियों में लिखी गई महाभारत की संस्कृत पांडुलिपियों को इकठ्ठा किया गया।
पांडुलिपि में पाए गए श्लोकों का अध्ययन किया गया।
उन श्लोकों की तुलना का एक तरीका निकाला गया।
विद्वानों ने ऐसे श्लोकों को चुना जो लगभग सभी पांडुलिपि में उपलब्ध थे।
इनका प्रकाशन 13000 पेज में फैले अनेक ग्रंथ खंडों (Parts) में किया
इस परियोजना को पूरा करने में 47 साल लगे।
इस पूरी परियोजना के बाद दो बातें सामने आई।
पहली- उत्तर भारत में कश्मीर और नेपाल से लेकर दक्षिण भारत में केरल और तमिलनाडु तक सभी पांडुलिपियों में समानता देखने को मिली।
दूसरी- कुछ शताब्दियों के दौरान महाभारत के प्रेषण में कई क्षेत्रीय भिन्नता भी नजर आईं
इन प्रभेदों का संकलन मुख्य पाठ की टिप्पणी और परिशिष्ट के रूप में किया।
13000 पेज में से आधे से अधिक में इन्हीं प्रभेदों की जानकारी है।

Class 12th History Chapter 3 Bandhutva jati tatha varg Notes

बधुत्व एवं परिवार
परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था थी।
संस्कृत ग्रंथों में परिवार के लिए कुल शब्द का प्रयोग किया जाता है।
सभी परिवार एक जैसे नहीं होते।
विभिन्न परिवारों में सदस्यों की संख्या, एक दूसरे से उनका रिश्ता, क्रियाकलाप अलग-अलग हो सकती है।
एक ही परिवार के लोग भोजन तथा अन्य संसाधनों को आपस में बांट कर इस्तेमाल करते हैं।
लोग अपने परिवार में मिलजुल कर रहते थे।
परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा था इन्हें संबंधी कहा जाता है
इनके लिए जाति समूह शब्द का इस्तेमाल भी किया जाता है
कुछ परिवारों में चचेरे, मौसेरे भाई, बहनों
से भी खून का रिश्ता माना जाता है लेकिन सभी समाज में ऐसा नहीं था।

पितृवांशिक व्यवस्था
पितृवांशिक एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें समाज में पुरुष को अधिक महत्व दिया जाता है।
इस परंपरा में घर का मुखिया पुरुष होता है उसके पास अधिक शक्ति होती है।
इस व्यवस्था में पिता के बाद पुत्र को संपत्ति तथा शक्ति प्राप्त हो जाती है।

महाभारत
महाभारत का युद्ध कौरव और पांडव के बीच हुआ।
(i) कौरव  ( कुरु वंश )
(ii)पांडव  (कुरु वंश)
इनका एक जनपद पर शासन था।
इनके बीच भूमि और सत्ता को लेकर युद्ध हुआ।
इसमें पांडव जीत गए।
इनके उपरांत पित्रवांशिक उत्तराधिकार को घोषित किया गया।
पित्रवांशिक में पुत्र अपनी पिता की मृत्यु के बाद पिता की संपत्ति, संसाधन तथा सिंहासन पर अधिकार जमा सकते थे।
अधिकतर राजवंश पित्रवंशिकता प्रणाली को अपनाते थे।
यदि पुत्र ना हो तो भाई या अन्य बंधु-बांधव को भी उत्तराधिकारी बनाया जा सकता था।
कुछ विशेष परिस्थितियों में स्त्री को भी सत्ता दी जा सकती थी।

विवाह के नियम
विवाह 8 प्रकार के होते थे।
बहिर्विवाह पद्धति- गोत्र से बाहर विवाह करने की प्रथा।
अंतविवाह पद्धति- एक गोत्र एक कुल या एक जाति या एक ही स्थान में बसने वाले में विवाह।
बहुपति प्रथा- एक से अधिक पति होना।
बहुपत्नी प्रथा – एक से अधिक पत्नियां।
अपने गोत्र से बाहर विवाह करना सही माना जाता था।
पुत्री को पिता के संसाधनों (संपत्ति) पर अधिकार नहीं था।
कन्यादान अर्थात विवाह के समय कन्या को भेंट देना पिता का महत्वपूर्ण कर्तव्य माना जाता था।
धीरे धीरे नए नगरों का उद्भव शुरू हुआ। सामाजिक जीवन कठिन हो गया।
अब सामाजिक जीवन में परिवर्तन देखने को मिला। व्यापार बढ़ने लगा।
दूर-दराज से लोग आकर वस्तुओं की खरीद फरोख्त करने लगे।
एक दूसरे से मिलते थे इस प्रकार नया नगरीय परिवेश सामने आया।
लोगों द्वारा विचारों का आदान-प्रदान होने लगा।
समाज में विश्वासों और व्यवहारों में परिवर्तन आने लगे।
इन चुनौतियों के जवाब में ब्राह्मणों ने समाज के लिए आचार संहिता तैयार किए।
आचार संहिता में दिए गए नियमों का पालन ब्राह्मणों को तथा समाज को करना पड़ता था
इन नियमों का संकलन लगभग 500 BC से
धर्मसूत्र तथा धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया।
इनमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी।
मनुस्मृति का संकलन लगभग 200 BC से 200 AD के बीच हुआ।
धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र में विवाह के 8 प्रकार बताए गए है।
इनमें से पहले 4 प्रकार विवाह सही माने जाते हैं।
बाकियों को निंदित माना गया है
ऐसा माना जाता है कि निंदित विवाह पद्धति को वह लोग अपनाते थे जो ब्राह्मण नियमों को नहीं मानते थे।

स्त्री का गोत्र
गोत्र एक प्राचीन ब्राह्मण पद्धति है
इसका प्रचलन लगभग 1000 ईसा पूर्व के बाद हुआ।
इसके तहत लोगों को गोत्र में वर्गीकृत किया गया।
प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता था।
उस गोत्र के सदस्य को ऋषि का वंशज माना जाता था।

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गोत्र के दो महत्वपूर्ण नियम
(1) विवाह के बाद स्त्री को अपने पिता के गोत्र को बदल कर पति का गोत्र लगाना पड़ता था।
(2) एक गोत्र के सदस्य आपस में विवाह नहीं कर सकते थे।

क्या इन नियमों का अनुसरण सभी करते थे?
सातवाहन शासकों के अभिलेख का अध्ययन करने के बाद इतिहासकारों ने साबित किया कि यह शासक ब्राह्मण गोत्र व्यवस्था का पालन नहीं करते थे।
कुछ सातवाहन राजा बहुपत्नी प्रथा को मानते थे।
इन राजाओं की पत्नियों ने विवाह के बाद भी अपने पिता के गोत्र को अपनाया था।
जब इतिहासकारों ने सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली उनकी पत्नियों के नामों का विश्लेषण किया तो यह ज्ञात हुआ कि उनके नाम गौतम तथा वशिष्ठ गोत्रों से उद्भव थे।
जो कि उनके पिता का गोत्र था। इससे यह पता लगता है कि विवाह के बाद भी अपने पति के गोत्र को नहीं अपनाया।
कुछ रानियां एक ही गोत्र से थी जोकि बहिविवाह पद्धति के नियमों के खिलाफ था।
दक्षिण भारत में कुछ समुदायों में अंतर्विवाह पद्धति भी अपनाई गई थी।
इसके तहत बंधुओं में विवाह संबंध हो जाते थे। जैसे- चचेरे, ममेरे, भाई बहन।
इससे यह ज्ञात होता है कि उपमहाद्वीप के अलग-अलग भागों में नियमों को मानने में विभिन्नताएं थी।

समाज में भिन्नताएं ( विषमताएं )
समाज में वर्ण व्यवस्था थी। समाज चार वर्णों में विभाजित हुआ था।
1. ब्राह्मण
2. क्षत्रिय
3. वैश्य
4. शूद्र

धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों के अनुसार चारों वर्णों के लिए आदर्श जीविका के नियम बनाए हुए थे।  चारों वर्णों का कार्य नीचे दिए गए हैं—
(1) ब्राह्मण- अध्ययन करना, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना, दान देना और दान लेना।
(2) क्षत्रिय- शासन करना, युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना,न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना, दान-दक्षिणा देना।
(3) वैश्य- कृषि, पशुपालन, गौ-पालन, व्यापार, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना, दान देना।
(4) शूद्र – तीनो वर्णों की सेवा करना।
ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को दैवीय व्यवस्था मानते थे।
ब्राह्मण शासकों को यह उपदेश देते थे कि शासक इस व्यवस्था के नियमों का पालन राज्यों में करवाएं।
ब्राह्मणों ने लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है।

क्या सदैव क्षत्रिय ही राजा होते थे ?
शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय ही राजा हो सकते थे, लेकिन वास्तव में कई शासक ऐसे रहे हैं जो क्षत्रिय नहीं थे लेकिन फिर भी राजा थे।
उदाहरण– 1. चन्द्रगुप्त मौर्य-मौर्य वंश के संस्थापक।
बौद्ध गंथों में चन्‍द्रगुप्‍त मौर्य को ब्राह्मण माना गया है जबकि क्षत्रिय उन्‍हें निम्न कुल (निची जाति) के मानते हैं।
उदाहरण– 2. सुंग और कवण-मौर्य के उतराधिकारी ब्राह्मण थे।
उदाहरण– 3. शक शासक मध्य एशिया से आये थे। जिन्‍हें बर्बर कहा जाता था।
उदाहरण– 4. नंद वंश के संस्‍थापक महापद्मनंद शुद्र था।
उदाहरण– 5. सातवाहन शासक गौतमी पुत्त सिरी सातकर्नी ब्राह्मण था।
सातवाहन शासक स्वयं को अनूठा ब्राह्मण तथा क्षत्रियों का हनन करने वाला बताया।
सातवाहन खुद को ब्राह्मण बताते थे जबकि ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार राजा केवल क्षत्रिय ही बन सकता है।
यह 4 वर्णों की मर्यादा बनाए रखने का दावा करते थे।
लेकिन अंतर्विवाह पद्धति का भी पालन करते थे।
इस प्रकार यह साबित होता है कि सदैव क्षत्रिय ही राजा नहीं होते थे। जो राजनीतिक सत्ता का उपभोग कर सकता था।
जो व्यक्ति समर्थन और संसाधन जुटा सकता था। वह शासक बन सकता था।

जाति और सामाजिक गतिशीलता
ब्राह्मण का कार्य- अध्ययन करना, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना, दान देना और दान लेना।
क्षत्रिय- शासन करना, युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना ,न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना, दान दक्षिणा देना।
वैश्य- कृषि, पशुपालन, गौ-पालन, व्यापार, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना, दान देना।
शूद्र- तीनो वर्णों की सेवा।

जाति
जातियां जन्म पर आधारित होती थी।
वर्ण की संख्या चार थी। लेकिन जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं होती थी।
जब ब्राह्मण व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था) का कुछ नए समुदाय से आमना-सामना हुआ।
जिन्हें चार वर्णों की व्यवस्था में शामिल नहीं किया जा सकता था।
उन्हें जातियों में बांट दिया गया।
जैसे – निषाद (मल्‍लाह या नाविक), सुवर्णकार (सुनार)।
एक ही जाति के लोग जीविका के लिए एक ही जैसे कार्य करते थे।
भारतीय उपमहाद्वीप विविधताओं से भरा था।
यहां ऐसे समुदाय भी रहते थे जो ब्राह्मण व्यवस्था को नहीं मानते थे। संस्कृत साहित्य में ऐसे समुदायों को विचित्र, असभ्य, बर्बर, जंगली चित्रित किया जाता है।
उदाहरण– वन में बसने वाले लोग।
शिकार, कंद-मूल संग्रह करने वाले लोग।
निषाद वर्ग- एकलव्य भी इसी वर्ग का था।
यायावर (यायावर का अर्थ- घूम‍ने-फिरने वाले लोग, घुमक्‍कड़) और पशुपालकों को भी ऐसा ही समझा जाता था।
जो लोग संस्कृत भाषी नहीं थे।
उन्हें मलेच्छ कहकर हीन दृष्टि से देखा जाता था।

चार वर्णों के परे अधीनता
ब्राह्मण वर्ग ने कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था की सामाजिक प्रणाली से बाहर माना।
ब्राह्मणों ने समाज के कुछ वर्गों को अस्पृश्य घोषित किया।
ब्राह्मण मानते थे कुछ कर्म पवित्र होते हैं तथा कुछ कर्म दूषित होते हैं।
पवित्र- यज्ञ, अनुष्ठान, वेद अध्ययन इत्यादि
दूषित- चमड़े से संबंधित, शवों को उठाना, अंत्येष्टी।

चांडाल
मरे हुए जानवरों को छूने वाले को चांडाल कहा जाता था।
चांडालों को वर्ण व्यवस्था वाले समाज में सबसे निचले स्तर में रखा था।
ब्राह्मण चांडालों का छूना, देखना भी अपवित्र मानते थे।
चांडाल को गांव के बाहर रहना होता था।
यह लोग फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे।
मरे हुए लोगों के कपड़े तथा लोहे के आभूषण पहनते थे।
रात में गांव और नगर मे चलने की अनुमति नहीं थी।
मरे हुए लोगों का अंतिम संस्कार करना पड़ता था।
वधिक के रूप में काम करते थे।
चीनी बौद्ध भिक्षु – फ़ा-शिएन के अनुसार
अस्पृश्य लोगों को सड़क पर चलते हुए करताल बजाना पड़ता था।
जिससे अन्य लोगों ने देखने के दोष से बच जाएं।
चीनी यात्री शवैन त्सांग के अनुसार वधिक और सफाई करने वाले लोग शहर के बाहर रहते थे।

संपत्ति पर अधिकार
(i) लैंगिक आधार
(ii) वर्ण आधार
संपत्ति पर स्त्री तथा पुरुष के भिन्न अधिकार (लैंगिक आधार)
मनुसमिरिति के अनुसार—
पिता की जायदाद का माता पिता की मृत्यु के पश्चात सभी पुत्रों में समान रूप से बांटा जाना चाहिए, लेकिन ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था।
पिता की संपत्ति पर स्त्री हिस्सेदारी की मांग नहीं कर सकती थी।
विवाह के समय जो उपहार मिलते थे उन पर स्त्री का अधिकार होता था। इसे स्त्रीधन कहा जाता था।
इस पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता लेकिन मनुस्मृति के अनुसार स्त्रियों को अपने पति के आज्ञा के खिलाफ गुप्त रूप से धन संचय करने की विरुद्ध चेतावनी दी जाती है।
कुछ साक्ष्य प्रभावती गुप्त से संबंधित मिले हैं
जिससे पता लगता है कि प्रभावती गुप्त संसाधनों पर अधिकार रखती थी।
ऐसा कुछ परिवारों में हो सकता है
लेकिन सामान्यत जमीन, पशु और धन पर पुरुषों का नियंत्रण था।

Class 12th History Chapter 3 Bandhutva jati tatha varg Notes

वर्ण और संपत्ति के अधिकार
ब्राह्मण ग्रंथ के अनुसार संपत्ति पर अधिकार का एक और आधार वर्ण था।
शूद्रों के लिए एकमात्र जीविका का साधन था तीनों उच्च वर्ण की सेवा करना।
तीन उच्च वर्णो के पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रकार के कार्य को चुनने की संभावना थी।
समाज में ब्राह्मण और क्षत्रिय की स्थति अधिकतर समृद्ध थी।
ब्राह्मण ग्रंथों धर्म सूत्र और धर्म शास्त्र में वर्ण व्यवस्था को उचित बताया जाता है।
लेकिन बौद्ध धर्म में वर्ण व्यवस्था की आलोचना की गई है।
बौद्धों ने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को अस्वीकार किया है।

एक वैकल्पिक सामाजिक रूपरेखा संपत्ति में भागीदारी
समाज में सदैव वही व्यक्ति प्रतिष्ठित नहीं होता जिसके पास अधिक संपत्ति हो , बल्कि
ऐसा व्यक्ति जो दानशील हो, जो दयालु हो। उसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता था।
जो व्यक्ति स्वयं के लिए संपत्ति इकट्ठा करता है। वह घृणा का पात्र होता था।
प्राचीन तमिलकम(तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश का क्षेत्र) ऐसा क्षेत्र था जंहा ऐसे साहित्यिक लेख मिले है।
जिनमें इन आदेशों को संजोए गया है।
इस क्षेत्र में 2000 वर्ष पहले अनेक सरदारियां थी।
यह सरदार अपनी प्रशंसा गाने और लिखने वाले कवियों के आश्रयदाता होते थे।
तमिलकम- दक्षिण भारत का प्राचीन नाम तमिलकम है।

दक्षिण के राजा तथा सरदार
भारत के दक्षिण में कुछ सरदरियो का उदय हुआ।
तमिलकम – तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश , केरल
तमिलकम क्षेत्र में आता है।
उस क्षेत्र में चोल, चेर और पांडय जैसी सरदारी अतित्व में आई।
यह राज्य काफी समृद्ध थे।
तमिल भाषा में प्राप्त संगम साहित्य में सामाजिक और आर्थिक संबंधों का चित्रण है
धनी और निर्धन के बीच विषमता जरूर थी।
लेकिन समृद्ध लोगों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह मिल बांटकर अपने संसाधनों का उपयोग करेंगे।

एक सामाजिक अनुबंध
बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों ने समाज में फैली विषमता ( असामनता ) के लिए एक अलग अवधारणा दी।
सुत्तपिटक नामक ग्रंथ में एक मिथक का वर्णन है।
प्रारंभ में मानव पूरा विकसित नहीं थे वनस्पति जगत भी पूरा विकसित नहीं था
सभी जीव एक शांतिपूर्ण जगत में रहते थे
प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते थे जितनी एक समय के भोजन की आवश्यकता होती है
लेकिन धीरे-धीरे यह व्यवस्था समाप्त होने लगी।
मनुष्य लालची और कपटी हो गया, समाज में बुराइयां फैलने लगी।
ऐसे में लोगों ने विचार किया कि क्या हम कोई ऐसे मनुष्य को चुन सकते हैं। जो उचित बात पर क्रोधित हो, जो व्यक्ति ऐसे व्यक्तियों को सजा दे जो दूसरों को प्रताड़ित करते हैं।
ऐसे व्यक्तियों को समाज से निकाले जिन्हें निकालने की आवश्यकता है और उसे इस कार्य के बदले हम सभी मिलकर चावल का अंश देंगे।
सभी लोगों की सहमति से चुने जाने के कारण उसे महासम्मत की उपाधि प्राप्त होगी।
इससे यह पता लगता है कि राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था।
जनता राजा की इस सेवा के बदले उसे कर (TAX ) देती थी।
इससे यह प्रतीत होता है की मनुष्य स्वयं किसी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार थे। तो भविष्य में उसे बदल भी सकते थे।

साहित्यिक स्रोतों का इस्तेमाल- इतिहासकार और महाभारत
(1) इतिहासकारों द्वारा साहित्यिक स्रोतों के इस्तेमाल के समय कौन सी सावधानियां बरती जाती हैं ?
(2) इतिहासकार किसी ग्रंथ का विश्लेषण करते समय किन पहलुओं पर विचार करते हैं?
(1) ग्रंथ की भाषा
(2) ग्रंथ के प्रकार
(3) लेखक
(4) लेखक का दृष्टिकोण
(5) श्रोता
(6) रचना का काल
(7) रचना भूमि
इतिहासकार ग्रंथ की भाषा पर विशेष ध्यान देते हैं, कि ग्रंथ किस भाषा में लिखा गया है।
जैसे– पाली, प्राकृत अथवा तमिल- आम लोगों की भाषा।
संस्कृत- पुरोहित तथा खास वर्ग की भाषा।
इतिहासकार ग्रंथ के प्रकार पर ध्यान देते हैं, ग्रंथ कई प्रकार के हो सकते हैं।
जैसे- कथा ग्रंथ या मंत्र ग्रंथ
कथा- जिसे लोग पढ़ और सुन सकते थे।
मंत्र- अनुष्ठान के दौरान अनुष्ठानकर्ता द्वारा पढ़े और उच्चारित किए जाते थे।
इतिहासकार लेखकों का विशेष ध्यान रखते हैं।
किस ग्रंथ को किस लेखक ने लिखा है उस लेखक का दृष्टिकोण क्या है।
इतिहासकार ग्रंथ के श्रोताओं पर भी ध्यान देते हैं क्योंकि कोई भी ग्रंथ श्रोता की अभिरुचि को ध्यान में रखकर ही लिखा जाता है।
इतिहासकार ग्रंथ के काल का भी ध्यान रखते हैं कि वह ग्रंथ किस काल में लिखा गया है
उस समय की सामाजिक स्थिति क्या थी।
ग्रंथ की रचनाभूमि का भी ध्यान रखा जाता है कि ग्रंथ को किस स्थान पर लिखा गया है।
इन सारी बातों पर विशेष ध्यान रखकर विश्लेषण करने के बाद ही
इतिहासकार किसी ग्रंथ की विषयवस्तु का
इतिहास के पुनर्निर्माण में इस्तेमाल करते हैं।

भाषा एवं विषयवस्तु
महाभारत का जो पाठ हम इस्तेमाल कर रहे हैं।
वह संस्कृत भाषा में है।
महाभारत की संस्कृत भाषा वेदों और प्रशस्तिओं की संस्कृत भाषा से काफी सरल है।
इसकी भाषा सरल होने के कारण इसको व्यापक स्तर पर आसानी से समझा जाता था।
इतिहासकार महाभारत ग्रंथ की विषयवस्‍तु को दो मुख्‍य शीर्षकों- आख्‍यान और उपदेशात्‍मक के अंतर्गत रखते हैं। आख्‍यान में कहानी का संग्रह है और उपदेशात्‍मक में सामाजिक आचार-विचार के मानदंडों का चित्रण है।
ज्यादातर इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं की महाभारत ग्रंथ एक भाग में नाटकीय कथानक था।
इसमें उपदेशात्मक भाग बाद में जोड़े गए हैं

Class 12th History Chapter 3 Bandhutva jati tatha varg Notes

लेखक एक या अनेक और तिथियां
महाभारत की मूल कथा के रचयिता भाट सारथी थे इन्हें सूत कहा जाता था।
यह क्षत्रीय योद्धाओं के साथ युद्ध भूमि में जाते थे।
तथा उनकी विजयगाथा व उनकी उपलब्धियों के बारे में कविताएं लिखते थे।
इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप से ही होता था।
लेकिन पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व से ब्राह्मणों ने इस कथा परंपरा पर अपना अधिकार कर लिया और इसको लिखित रूप प्रदान किया।
लगभग 200 BC से 200 AD के बीच महाभारत के रचना काल का एक और चरण दिखा।
इस समय भगवान विष्णु की पूजा अधिक होने लगी थी।
श्री कृष्ण को विष्णु का रूप बताया जा रहा था।
बाद में लगभग 200 से 400 ईसवी AD के बीच मनुस्मृति से मिलते-जुलते उपदेशात्मक प्रकरण (Topic) महाभारत में जोड़े गए।
प्रारंभ में यह ग्रंथ 10000 श्लोकों से कम का था।
लेकिन धीरे धीरे इस में श्लोकों की संख्या बढ़ती गई और एक लाख श्लोक हो गए।
साहित्यिक परंपरा में महाभारत के रचयिता ऋषि व्यास को माना जाता है।

सदृश्यता की खोज
महाभारत में भी अन्य ग्रंथों की तरह युद्ध, वन, महल, बस्ती आदि का जीवंत चित्रण मौजूद है।
1951-52 में पुरातत्ववेता बी. बी. लाल ने मेरठ ( वर्तमान उत्तर प्रदेश ) के हस्तिनापुर गांव में उत्खनन काम किया।
ऐसा हो सकता है कि यह स्थान कुरुओं की राजधानी हस्तिनापुर हो सकती है।
जिसका वर्णन महाभारत में मिलता है।
बी. बी. लाल को क्षेत्र में आबादी के 5 स्तर के सबूत मिल गए।
बी. बी. लाल ने दूसरे स्तर पर मिलने वाले घरों के बारे के लिखा।
“जिस क्षेत्र का उत्खनन किया गया है वहां घरों को बनाने की कोई निश्चित परियोजना नहीं मिली लेकिन यहां पर मिट्टी की बनी दीवारे और कच्ची मिट्टी की बनी मिली है”
सरकंडे की छाप वाली मिट्टी के प्लास्टर की खोज की गई है।
इससे यह पता लगता है कि कुछ घरों की दीवारों सरकंडे (नरकट जैसा पौधा जो नदी-तालाब में पाया जाता है। इससे टोकरियाँ, पेटियाँ और नाव बनाए जाते हैं।) से बनाई गई थी।
और उसके ऊपर मिट्टी का प्लास्टर चढ़ा दिया गया।
घर कच्ची और कुछ पक्की ईंटों के बने थे।
घरों के गंदे पानी के निकास के लिए ईंटो के नाले बनाए गए थे।
कुँए के साक्ष्य भी मिले हैं, कुएं का प्रयोग होता था।
मल की निकासी वाले गर्त का प्रयोग होता था।
महाभारत ग्रंथ की सबसे चुनौतीपूर्ण कथा द्रोपदी से 5 पांडवों के विवाह की है।
इससे ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि उस समय बहुपति प्रथा रही होगी।
समय के साथ बहुपति प्रथा बाद में ब्राह्मणों में अमान्य हो गई।
लेकिन हिमालय क्षेत्र में यह प्रथा आज भी प्रचलन में है।
ऐसा माना जाता है कि उस समय स्त्रियों की कमी होने के कारण बहुपति प्रथा को अपनाया गया।

एक गतिशील ग्रंथ
महाभारत को एक गतिशील ग्रंथ कहा जाता है क्योंकि इसकी रचना हजार वर्ष तक होती रही है।
इसमें नए-नए प्रकरण (टॉपिक) जुड़ते चले गए।
महाभारत का विकास केवल संस्कृत पाठ के
साथ ही समाप्त नहीं हुआ।
बल्कि शताब्दियों से इस महाकाव्य के कई
भाग भिन्न-भिन्न भाषाओं में लिखे गए।
अनेक कहानियों को जिन का उद्भव एक विशेष क्षेत्र में हुआ। इस महाकाव्य में समाहित कर लिया गया।
इसके प्रसंगों को मूर्तिकला और चित्रों में भी दर्शाया गया।
इसमें नाटक और नृत्य कला के लिए भी विषय वस्तु प्रदान की गई है। Class 12th History Chapter 3 Bandhutva jati tatha varg Notes

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