bihar ki chitrakala class 9 hindi | बिहार की चित्रकला

bihar ki chitrakala class 9 hindi

Bihar Board Class 9 Chapter 4 बिहार की चित्रकला

पाठ का सारांश bihar ki chitrakala class 9 hindi

चित्रकला के विकास में बिहार का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यहाँ पारिवारिक, सामाजिक तथा धार्मिक आचारों के प्रसंग में विभिन्न प्रकार की चित्रकारियाँ होती रही है। मधुबनी की विश्वप्रसिद्ध चित्रकारी अपने मूल रूप में एक लोकचित्रकारी ही है। भोजपुरी, मगही, अंगिका तथा बज्जिका क्षेत्रों में विभिन्न पर्वों एवं उत्सवों में चित्रकारी एवं मूर्तिनिर्माण की परंपरा आज भी विद्यमान है। स्त्रियाँ दीवारों पर पशु, पक्षी, वृक्ष आदि के चित्र अंकित कर देती है, इसे भित्ति चित्र कहते हैं। इसी प्रकार विवाहादि के अवसर पर चौरेठा (चावल का आटा) तथा सिन्दूर के घोल से विभिन्न प्रकार के मंगल सूचक चित्र बनाये जाते हैं। लोक चित्रकार में रंगों की गुणवत्ता एवं विविधता ने मिथिला चित्रकारी को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई है। इन चित्रकारियों में नारी वर्ग का ही मुख्य योगदान रहा है। यहाँ रुमाल, तकिए के खोल, बिछावन की चादर आदि पर धागे से चित्र बनाने की परंपरा रही है।

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बिहार में चित्रकला का व्यापक विकास पटना शैली में हुआ है। इस शैली के अंतिम महत्त्वपूर्ण चित्रकार राधा मोहन प्रसाद का कहना है कि “बौद्ध धर्म के विकास के साथसाथ भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक नवीन तथा विकसित अध्याय का आरंभ होता है। इस युग में बिहार और उसकी राजधानी पाटलिपुत्र का स्थान सबसे अग्रगण्य हो उठता है। बिहार में मूर्तिकाला एवं चित्रकला का विकास मौर्यकाल तक हुआ। इस समय बुद्ध के उपदेश तथा उनकी जीवनी के विविध प्रसंगों को मंदिरों की भित्तियों तथा स्तूपों पर उकेरा जाता था। किन्तु बौद्ध धर्म के पतन के साथ-साथ चित्रकला का भी पतन होने लगा। औरंगजेब के शासनकाल में चित्रकार एवं मूर्तिकार अपनी जीविका के लिए देश के विभिन्न नगरों में चले गए। इन्होंने चित्रकारी नहीं छोड़ी। इनकी चित्रकारी में मूल दिल्ली वाली चित्रकारी की विशेषताएँ तथा स्थानीय प्रभाव से कुछ नवीन विशेषताएं भी उभरीं। इसी शैली को पटना शैली अथवा पटना कलम कहा गया। इस चित्र शैली का काल 1760 ई. से 1947 ई. तक माना जाता है। इस चित्रशैली के प्रमुख चित्रकार जयरामदास, शाक लाल, फकीरचंद लाल, पैशेजो, मिर्जा निसार मेंहदी, जयविन्द्र लाल, सोना कुमारी, महादेव लाल तथा ईश्वरी प्रसाद वर्मा आदि थे। महादेव लाल के शिष्य राधा मोहन तथा ईश्वरी प्रसाद के शिष्य दामोदर प्रसाद अम्बष्ठ ने गुरु परंपरा की इस शैली का निर्वाह किया। पटना कलम (शैली) के चित्रों में विषय के रूप में पशु पक्षी, प्राकृतिक दृश्य, किसान, लघु व्यवसायी, बढ़ई, लोहार, गरीब बाह्मण आदि के जीवन तथा कार्य हुआ करते थे। इन्हें स्थानीय जमीदारों का संरक्षण प्राप्त था। इनके चित्रों के मुख्य ग्राहक अंग्रेज व्यापारी एवं अधिकारी उनसे चित्र बनवाते थे। जिलाधिकारी डब्ल्यू. जी. आर्चर ने ईश्वरी प्रसाद वर्मा के बनाए 300 चित्र खरीदे थे। इन्होंने ही सर्वप्रथम मधुवनी चित्रकला से अन्तर्राष्ट्रीय जगत को परिचित कराया था। पटना शैली के चित्रों की मुख्य विशेषता यह थी कि इसमें बिहार के वर्ग विभाजित लोकजीवन का यथार्थ अंकन हुआ करती थी। ये चित्रकार अपने द्वारा निर्मित रंगों का उपयोग करते थे। इतना ही नहीं, ये पीले हाथ पेपर, जापानी कैंट पेपर अथवा स्वयं द्वारा निर्मित पेपर पर चित्र बनाने के साथ ही काँच, अभ्रक तथा हाथी दॉत पर भी चित्रकारी करते थे। बिहार परिवर्तनों का प्रदेश रहा है। यहाँ एक-से-एक महान चित्रकार होते रहे हैं। राधामोहन प्रसाद पटना चित्रशैली के ऐसे चित्रकार हुए, जिन्होंने भविष्य के कलात्मक विकास के लिए एक स्थायी और उर्वर भूमि तैयार कर दी। इन्होंने पटना में शिल्पकला महाविद्यालय की स्थापना कर पूरे राज्य में कलात्मक पुनर्जागरण की चेतना को व्यापक उभार प्रदान किया। उपेन्द्र महारथी जैसे महान कलाकार का पदार्पण हुआ। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय जगत में बिहार का नाम विभूसित किया तथा कला को विदेशी प्रभाव से मुक्त कर राष्ट्रीय चेतना, भारतीय धर्म, दर्शन तथा राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत चित्रकारी को प्रोत्साहित किया। दरभंगा निवास के दौरान ही मिथिला की चित्र-मूर्ति आदि लोक कलाओं के महत्त्व से लोगों को परिचित कराया।

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स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बिहार सरकार ने उपेन्द्र महारथी को उद्योग विभाग में डिजाइनर के पद पर नियुक्त किया। उनका डिजाइन किया हुआ राजगीर का शांति स्तूप उनकी राष्ट्रीयतामूलक कला-चेतना तथा कल्पनाशीलता का कालजयी प्रमाण है। इनकी कला-यात्रा में जापान की उस यात्रा का उल्लेखनीय महत्त्व माना जाता है जो उन्होंने वेणु शिल्प में विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए की थी। चित्रकारी, शिल्पकर्म, अध्ययन एवं शोध इनके व्यक्तित्व की चार विशेषताएँ थी। इन्होंने वेणुशिल्प पर एक पुस्तक भी लिखी। चित्रकार श्याम शर्मा के अनुसार बिहार में कलाकर्म और शिल्पधर्म का उन्नयन महारथी जी ने ही किया। राधामोहन बाबू के साथ पटना कलम का अंत माना जाता है। इनके बाद बिहार में कलाकर्म और शिल्पधर्म को जिन लोगों ने आगे बढ़ाया, उनमें श्याम शर्मा प्रमुख हैं। इन्होंने शिल्प महाविद्यालय लखनऊ के प्राध्यापक जयकृष्ण अग्रवाल की देख-रेख में छापाकला में विशेषता प्राप्त कर पटना आए और शिल्प महाविद्यालय, पटना में छापाकला के विशेषज्ञ के रूप में अध्यापन करने लगे। उन्होंने अपनी छापा कला से देखकर कैलिफोर्निया के कला-विभाग के प्रोफेसर ने पूछा-“क्या आप अपनी पुरानी, आकृतियों का प्रयोग करके अपने अतीत की संस्कृति को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं ?” तो उन्होंने उत्तर दिया-यह मेरी परंपरागत आकृतियाँ चासनी में पकी हुई गोली के समान हैं जो दर्शकों को अपने अतीत के बारे में सोचने को बाध्य करती है, पुनर्स्थापित करने के लिए नहीं।”

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