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BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 6 अंतर्राट्रीय संगठन

November 9, 2022 by Tabrej Alam Leave a Comment

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्याय 6
अंतर्राट्रीय संगठन

परिचय :

इस अध्याय में हम सोवियत संघ के बिखरने के बाद अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका के बारे में पढ़ेंगे। सुधार की प्रक्रियाओं और उनकी कठिनाइयों की एक मिसाल संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा-परिषद् में होने वाला बदलाव है। इस अध्याय का अंत इस सवाल से किया गया है कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ ऐसे विश्व में कोई भूमिका निभा सकता है जिसमें किसी एक महाशक्ति का दबदबा हो। इस अध्याय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कुछ अन्य अंतराष्ट्रीय  संगठनों की भी चर्चा की गई है।

हमें अंतर्राष्ट्रीय संगठन क्यों चाहिए ?

संयुक्त राष्ट्रसंघ को आज की दूनिया का सबसे महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संगठन माना जाता है। अमूमन ‘यू एन‘ कहे जाने वाले इस संगठन को विश्व भर के बहुत-से लोग एक अनिवार्य संगठन मानते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन युद्ध और शांति के मामलों में मदद करते हैं। यह देशों की सहायता करते हैं। ताकि हम सब की बेहतर जीवन-स्थितियाँ कायम हों। अंतर्राष्ट्रीय संगठन का निर्माण विभिन्न राज्य ही करते हैं। और यह अनेक मामलों के लिए जवाबदेह होते हैं। एक बार इनका निर्माण हो जाए तो ये समस्याओं को शांतिपूर्ण समाधान में सदस्य देशों की मदद करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन एक और तरिके से मददगार होते हैं। राष्ट्रों के सामने अक्सर कुछ काम ऐसे आ जाते हैं जिन्हें साथ मिलकर ही करना होता है। इसकी एक मिसाल तो बीमारी ही है। कुछ रोगों को तब ही खत्म किया जा सकता है जब वातारण में ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ने से तापमान बढ़ रहा है। इससे समुद्रतल की ऊँचाई बढ़ने का ख़तरा है। अंततः सबसे प्रभावकारी समाधान तो यही है कि वैश्विक तापवृद्धि को रोका जाए। सहयोग की जरूरत को पहचानना और सचमुच में सहयोग करना दो अलग-अलग बातें हैं। सहयोग में आने वाली लागत का भार कौन कितना उठाए, सहयोग से होने वाले लाभ का आपसी बँटवारा न्यायोचित ढंग से कैसे हो, इन बिंदुओं पर सभी देश हमेशा सहमत नहीं हैं।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना

24 अक्टूबर 1945 : संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना। 24 अक्टूबर संयुक्त राष्ट्रसंघ दिवस।

30 अक्टूबर 1945 : भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल। होते एक अंतराष्ट्रीय संगठन सहयोग करने के उपाय और सूचनाएँ जुटाने में मदद कर सकता है। ऐसा संगठन नियमों और नौकरशाही की एक रूपरेखा दे सकता है ताकि सदस्यों को यह विश्वास हो कि आने वाली लागत में सबकी समुचित साझेदारी होगी, लाभ का बँटवारा न्यायोचित होगा और कोई सदस्य एक बार समझौते में शामिल हो जाता है तो वह इस समझौते नियम और शर्तें का पालन करेगा।

संयुक्त राष्ट्रसंघ का विकास

पहले विश्वयुद्ध परिणामस्वरूप ‘लीग ऑव नेशंस‘ का जन्म हुआ। शुरूआती सफलताओं के बावजूद यह संगठन दूसरा विश्वयुद्ध (1939-45) न रोक सका। ‘लीग ऑव नेशंस‘ के उत्तरराधिकारी के रूप में संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद सन् 1945 में इसे स्थापित किया गया। 51 देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र पर दस्तख़त करने के साथ इस संगठन की स्थापना हो गई। संयुक्त राष्ट्रसंघ का उद्देश्य है अंतर्राष्ट्रीय झागड़ों को रोकना और राष्ट्रों के बीच सहयोग की राह दिखाना। 2011 तक संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देशों की संख्या 193 थी। इसमें लगभग सभी स्वतंत्र देश शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में हरेक सदस्य को एक वोट हासिल है। इसकी सुरक्षा परिषद में पाँच स्थायी सदस्य हैं। इनके नाम हैं – अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन। संयुक्त राष्ट्रसंघ का सबसे अधिक दिखने वाला सार्वजनिक चेहरा और उसका प्रधान प्रतिनिधि महासचिव होता है। वर्तमान महासचिव एंटोनियो गुटेरेस। वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के नौवें महासचिव हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की कई शाखाएँ और एजेंसियाँ हैं। सदस्य देशों के बीच युद्ध और शांति तथा वैर-विरोध पर आम सभा में भी चर्चा होती है और सुरक्षा परिषद् में भी। सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से निबटने के लिए कई एजेंसियाँ हैं जिनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन-WHO), संयुक्त राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम (यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम-UNDP), संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवधिकार आयोग (यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन  राइट्स कमिशन -UNHRC), संयुक्त राष्ट्रसंघ शरणार्थी उच्चायोग (यूनाइटेड नेशंस हाई कमिशन फॉर रिफ्यूजीज –UNHCR), संयक्त राष्ट्रसंघ बाल कोष (यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स फंड- UNICEF) और संयुक्त राष्ट्रसंघ शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, सोशल फंड कल्चरल आर्गनाइजेशन-UNESCO) शामिल हैं।

शीतयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार

संयुक्त राष्ट्रसंघ के सामने दो तरह के बुनियादी सुधारों का मसला है। एक तो यह कि इस संगठन की बनावट और इसकी प्रक्रियाओं में सुधार किया जाए। दूसरे, इस संगठन के न्यायाधिकार में आने वाले मुद्दों की समीक्षा की जाए। लगभग सभी देश सहमत हैं कि दोनों ही तरह के ये सुधार ज़रूरी हैं। बनावट और प्रक्रियाओं में सुधार के अंतर्गत सबसे बड़ी बहस सुरक्षा परिसद् के कामकाज को लेकर है। इससे जुड़ी हुई एक माँग यह है कि सुरक्षा परिषद् में स्थायी और अस्थायी सदस्यां की संख्या बढ़यी जाए ताकि समकालीन विश्व राजनीति की वास्तविकताओं की इस संगठन में बेहतर नुमाइंद्गी हो सके। ख़ास तौर से एशिया, अफ्रिका और दक्षिण अमरीका के ज्यादा देशां को सुरक्षा-परिषद् में सदस्यता देने की बात उठ रही है। इसके अतिरिक्त, अमरीका और पश्चिमी देश संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट से जुड़ी प्रक्रियाओं और इसके प्रशासन में सुधार चाहते हैं। कुछ देश और विशेषज्ञ चाहते हैं कि यह संगठ शांति और सुरक्षा से जुड़े मिशनों में ज़्यादा प्रभावकारी अथवा बड़ी भूमिका निभाए जबकि औरों की इच्छा है कि यह संगठन अपने को विकास तथा मानवीय भलाई के कामों (स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, जनसंख्या नियंत्रण, मानवाधिकार, लिंगगत न्याय और सामाजिक न्याय) तक सीमित रखे। संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना दूसरे विश्वयुद्ध के तत्काल बाद सन् 1945 में हुई थी।

1991 से आए बदलावों में से कुछ निम्नलिखित हैं-

सोवियत संघ बिखर गया।

अमरीका सबसे ज़्यादा ताकतवर है।

सोवियत संघ के उत्तराधिकारी राज्य रूस और अमरीका के बीच अब संबंध कहीं ज़्यादा सहयोगात्मक हैं।

चीन बड़ी तेजी से एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है भारत भी तेजी से इस दिशा में अग्रसर है। एशिया की अर्थव्यवस्था अप्रत्याशित दर से तरक्की कर रही है। अनेक नए देश संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल हुए हैं

विश्व के सामने चुनौतियों की एक पूरी नयी कड़ी (जनसंहार, गृहयुद्ध, जातीय संघर्ष, आतंकवाद, परमाण्विक प्रसार, जलवायु में बदलाव, पर्यावरण की हानि, कहामारी) मौजूइ है।

प्रक्रियाओं और ढाँचे में सुधार

सुधार होने चाहिए – इस सवाल पर व्यापक सहमति है लेकिन सुधार कैसे किया जाए का मसला कठिन है। इस पर सहमति कायम करना मुश्किल है।

सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में एक प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। प्रस्ताव में तीन मुख्य शिकायतों का जिक्र था-

सुरक्षा परिषद् अब राजनीतिक वास्ततिकताओं की नुमाइंदगी नहीं करती।

इसके फ़ैसलों पर पश्चिमी मूल्यों और हितों की छाप होती है और इन फै़सलों पर चंद देशों का दबदबा होता है।

सुरक्षा परिषद् में बराबर का प्रतिनिधित्व नहीं है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढाँचे में बदलाव की इन बढ़ती हुई माँगों के मद्देनज़र एक जनवरी 1997 को संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचित कोफी अन्नान ने जाँच शुरू करवाई कि सुधार कैसे कराए जाएँ।

इसके बाद के सालों में सुरक्षा परिषद् की स्थायी और अस्थायी सदस्यता के लिए मानदंड सुझाए गए। इनमें से कुछ निम्न्लिखित हैं। सुझाव आए कि एक नए सदस्य को –

बड़ी आर्थिक ताकत होना चाहिए।

बड़ी सैन्य ताकत होना चाहिए।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में ऐसे देश का योगदान ज़्यादा हो।

आबादी के लिहाज से बड़ा से बड़ा राष्ट्र हो।

ऐसा देश जो लोकतंत्र और मानवाधिकारों का सम्मान करता हो।

यह देश ऐसा हो कि अपने भूगोल, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के लिहाज से विश्व की विविधता की नुमाइंदगी करता हो।

विश्व बैंक

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सन् 1944 में विश्व बैंक की औपचारिक स्थापना हुई। इस बैंक की गतितिधियाँ प्रमुख रूप से विकासशील देशों से संबंधित हैं। यह बैंक मानवीय विकास (शिक्षा, स्वास्थ्य), कृषि और ग्रामीण विकास (सिंचाई, ग्रामीण संवाएँ), आधारभूत ढाँचा (सड़क, शहरी विकास, बिजली) के लिए काम करता है। यह अपने सदस्य-देशों को आसान ऋण ओर अनुदान देता है। ज्यादा गरीब देशों को ये अनुदान वापिस नहीं चुकाने पड़ते।

इन कसौटियों में दिक्कत है। सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के लिए किसी देश की अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी होनी चाहिए अथवा उसके पास कितनी बड़ी सैन्य-ताकत होनी चाहिए? कोई राष्ट्र संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में कितनी योगदान करे कि सुरक्षा परिषद् की सदस्यता हासिल कर सके? कोई देश विश्व में बड़ी भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा हो तो उसकी बड़ी जनसंख्या उसमें बाधक है या सहायक?

सवाल यह भी है कि प्रतिनिधित्व मसले को कैसे हल किया जाए? क्या भौगोलिक दृष्टि से बराबरी के प्रतिनिधित्व का यह अर्थ है कि एशिया, अफ्रिका, लातिनी अमरीका और कैरेबियाई क्षेत्र की एक-एक सीट सुरक्षा परिषद् में होनी चाहिए? एक प्रश्न यह भी है कि क्या महादेशों के बजाए क्षेत्र और उपक्षेत्र को प्रतिनिधित्व का आधार बनाया जाए। प्रतिनिधित्व  का मसला  भूगोल के आधार पर क्यों हल किया जाए?

इसी से जुड़ा एक मसला सदस्यता की प्रकृति को बदलने का था। मिसाल के तौर पर, कुछ का जार था कि पाँच स्थायी सदस्यों को दिया गया निषेधाधिकार (वीटो पावर) खत्म होना चाहिए। अतः यह संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए उचित या प्रासंगिक नहीं है।

सुरक्षा परिषद् में पाँच स्थायी और दस अस्थायी सदस्य हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में स्थिरता कायम करने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र में पाँच स्थायी सदस्यों को विशेष हैसियत दी गई। पाँच स्थायी सदस्यों को मुख्य फायदा था कि सुरक्षा-परिषद् में उनकी सदस्यता स्थायी होगी और उन्हें ‘वीटो‘ अधिक होगा। अस्थायी सदस्य दो वर्षो के लिए चुने जाते हैं

दो साल की अवधि तक अस्थायी सदस्य रहने के तत्काल बाद किसी देश को फिर से इस पद के लिए नहीं चुना जा सकता। अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन इस तरह से होता है कि विश्व के सभी महादेशों का प्रतिनिधित्व हो सके। अस्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार नहीं है। सुरक्षा-परिषद् में फैसला मतदान के जरिए होता है। हर सदस्य को एक वोट का अधिकार होता है। बहरहाल, स्थायी सदस्यों में से कोई एक अपने निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग कर सकता है और इस तरह वह किसी फैसले को रोक सकता है, भले ही अन्य स्थायी सदस्यों और सभी अस्थायी सदस्यों ने उस फैसले के पक्ष में मतदान किया हो।

निषेधाधिकार को समाप्त करने की मुहिम तो चली है लेकिन इस बात की भी समझ बनी है कि स्थायी सदस्य ऐसे सुधार के लिए शायद ही राजी होंगे। इस बात का खतरा है कि ‘वीटो‘ न हो तो सन् 1945  के समान इन ताकतवर देशों की दिलचस्पी संयुक्त राष्ट्रसंघ में न रहे; इससे बाहर रहकर वे अपनी रूचि के अनुसार काम करें और उनके जुड़ाव अथवा समर्थन के अभाव में यह संगठन प्रभावकारी न रह जाए।

संयुक्त राष्ट्रसंघ का न्यायाधिकार

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने जब अपने अस्तित्व के 60 साल पूरे किए तो इसके सभी सदस्य देशों के प्रमुख इस सालगिरह को मनाने के लिए 2005 के सितम्बर में इकट्ठे हुए।

 इस बैठक में शामिल नेताओं ने बदलते हुए परिवेश में संयुक्त राष्ट्रसंघ को ज्यादा प्रासंगिक बनाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने का फैसला किया –

शांति संस्थापक आयोग का गठन

यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को अत्याचारों से बचाने में असफल हो जाए तो विश्व-बिरादरी इसका उत्तरदायित्व ले – इस बात की स्वीकृति।

मानवाधिकार परिषद् की स्थापना (2006 के 19 जून से सक्रिय)।

सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवेलपमेंट गोल्स) को प्राप्त करने पर सहमति।

हर रूप-रीति के आतंकवाद की निंदा

एक लोकतंत्र-कोष का गठन

ट्रस्टीशिप काउंसिल (न्यासिता परिषद्) को समाप्त करने पर सहमति।

दुनिया में बहुत-से झगड़े चल रहे हैं। यह आयोग किसमें दखल दे? हर झगड़े में दखल देना क्या इस आयोग के लिए उचित अथवा संभव होगा?

अत्याचारों से निपटने में विश्व-बिरादरी की जिम्मेदारी क्या होगी? मानवाधिकार क्या है और इस बात को कौन तय करेगा कि किस स्तर का मानवाधिकार-उल्लंघन हो रहा है? मानवाधिकार-उल्लंघन की दशा में क्या कार्रवाई की जाए – इसे कौन तय करेगा? क्या आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा हो सकती है? संयुक्त राष्ट्रसंघ लोकतंत्र को देने में धन का इस्तमाल कैसे करेगा? ऐसे ही और भी सवाल किए जा सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार और भारत

भारत का मानना है कि बदले हुए विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ की मज़बूती और दृढ़ता ज़रूरी है। भारत इस बात का भी समर्थन करता है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ विभिन्न देशों के बीच सहयोग बढ़ाने और विकास को बढ़ावा देने में ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाए।

भारत की एक बड़ी चिंता सुरक्षा परिषद् की संरचना को लेकर है। सुरक्षा-परिषद् की सदस्य संख्या स्थिर रही है जबकि संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में सदस्यों की संख्या खूब बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्य संख्या सन् 1965 में 11 से बढ़ाकर 15 कर दी गई थी लेकिन स्थायी सदस्यों की संख्या स्थिर रही।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में ज़्यादातर विकासशील सदस्य-देश हैं। इस कारण, सुरक्षा परिषद् के फैसलों में उनकी भी सुनी जानी चाहिए, क्योंकि इन फैसलों का उन पर प्रभाव पड़ता है।

भारत सुरक्षा परिषद् के अस्थायी और स्थायी, दोनों ही तरह के सदस्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी का समर्थक है।

विश्व व्यापार संगठन 

विश्व व्यापार संगठन (वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन-WTO) – यह अंतर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक व्यापार के नियमों को तय करता है। इस संगठन की स्थापना सन् 1995 में हुई। यह संगठन ‘जेनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ‘ के उत्तराधिकारी के रूप में काम करता है जो दूसरे तिश्वयुद्ध के बाद अस्तित्व में आया था। इनके सदस्यों की संख्या 164 (29 जुलाई 2016 की स्थिति) है। हर फैसला सभी सदस्यों की सहमति से किया जाता है

भारत खुद भी पुनर्गठिन सुरक्षा-परिषद् में एक स्थायी सदस्य बनना चाहता है। भारत विश्व में सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है। भारत में विश्व की कुल-जनसंख्या का 1/5वाँ हिस्सा निवास करता है। इसके अतिरिक्त, भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांति बहाल करने के प्रयासों में भारत लंबे समय से ठोस भूमिका निभाता आ रहा है। सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी इसलिए भी उचित है क्योंकि वह तेजी से अंतर्राष्ट्रीय फलक पर आर्थिक-शक्ति बनकर उभर रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में नियमित रूप से अपना योगदान दिया है और यह कभी भी अपने भुगतान से चुका नहीं है। सुरक्षा परिषद् में इन्हीं महादेशों की नुमाइंदगी नहीं है। इन सरोकारों को देखते हुए भारत या किसी और देश के लिए निकअ भविष्य में संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बन पाना मुश्किल लगता है।

एक-ध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ

संयुक्त राष्ट्रसंघ एक-ध्रुवीय विश्व में जहाँ अमरीका सबसे ताकतवर देश है और उसका कोई गंभीर प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं – कारगर ढंग से काम कर पाएगा। क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका प्रभुत्व के विरूद्ध संतुलनकारी भूमिका निभा सकता है? क्या यह संगठन शेष विश्व और अमरीका को अपनी मनमानी करने से रोक सकता है?

अमरीका के ताकत पर आसानी से अंकुश नहीं लगाया जा सकता। पहली बात तो यह कि सोवियत संघ की गैर मौजूदगी में अब अमरीका एकमात्र महाशक्ति है। अपनी सैन्य और आर्थिक ताकत के बूते वह संयुक्त राष्ट्रसंघ या किसी अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठन की अनदेखी कर सकता है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के भीतर अमरीका का खास प्रभाव है। वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में सबसे ज़्यादा योगदान करने वाला देश है। अमरीका की वित्तीय ताकत बेजोड़ है। यह संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका भू-क्षेत्र में स्थित है और इस कारण भी अमरीका का प्रभाव इसमें बढ़ जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई नौकरशाह इसके नागरिक हैं। इसके अतिरिक्त, अगर अमरिका को लगे कि कोई प्रस्ताव उसके अथवा उसके साथी राष्ट्रों के हितों के अनुकूल नहीं है अथवा अमरिका को यह प्रस्ताव न जँचे तो अपने ‘वीटो‘ से वह उसे रोक सकता है। अपनी ताकत और निषेधाधिकार के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के चयन में भी अमरीका अपनी इस ताकत के बूते शेष विश्व में फूट डाल सकता है और डालता है, ताकि उसकी नीतियों का विरोध मंद पड़ जाए।

इस तरह संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका की ताकत पर अंकुश लगाने में ख़ास सक्षम नहीं। फिर भी, एकध्रुवीय विश्व में जहाँ अमरीकी ताकत का बोलबाला है – संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका और शेष विश्व के बीच विभिन्न मसलों पर बातचीत कायम कर सकता है और इस संगठन ने ऐसा किया भी है। अमरीकी नेता अक्सर संयुक्त राष्ट्रसंघ की आलोचना करते हैं लेकिन वे इस बात को समझते हैं कि झगड़ें और सामाजिक-आर्थिक विकास के मसले पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के जरिए 190 राष्ट्रों को एक साथ किया जा सकता है। जहाँ तक शेष विश्व की बात है तो उसके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ऐसा मंच है जहाँ अमरीकी रवैये और नीतियों पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। यह बात ठीक है कि वाशिंग्टन के विरूद्ध शेष विश्व शायद ही कभी एकजुट हो पाता है और अमरीका की ताकत पर अंकुश लगाना एक हद तक असंभव है, लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्रसंघ ही वह जगह है जहाँ अमरीका के किसी खास रवैये और नीति की आलोचना की सुनवाई हो और कोई बीच का रास्ता निकालने तथा रियायत देने की बात कही-सोची जा सके।

संयुक्त राष्ट्रसंघ में थोड़ी कमियाँ हैं लेकिन इसके बिना दुनिया और बदहाल होगी।

यह कल्पना करना कठिन है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे संगठन के बिना विश्व के सात अरब से भी ज़्यादा लोग कैसे रहेंगे। प्रौद्योगिक यह

एमनेस्टी इंटरनेशनल

एमनेस्टी इंटरनेशनल एक स्वयंसेवी संगठन है। यह पूरे विश्व में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाता है। यह संगठन मानवाधिकारों से जुड़ी रिपोर्ट तैयार और प्रकाशित करता है। सरकारों को ये अक्सर नागवार लगती हैं क्योंकि एमनेस्टी का ज़्यादा जोर सरकार द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार पर होता है। बहरहाल, ये रिपोर्ट मानवाधिकारों से संबंधित अनुसंधान और तरफदारी में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

हयूमन राइट्स वॉच

यह भी मानवाधिकारों की वकालत और उनसे सवंधित अनुसंधान करने वाला एक अंतर्राष्टीय स्वयंसेवी संगठन है। यह अमरीका का सबसे बड़ा अंतर्राष्टीय मानवाधिकार संगठन है। यह दुनिया भर के मीडिया का खींचता है। इसने बायदी सुरंगों पर रोक लगाने के लिए, बाल सैनिक का प्रयोग रोकने के लिए और अंतर्राष्ट्रीय दंड न्यायलय स्थापित करने के लिए अभियान चलाने में मदद की है।

सिद्ध कर रही है कि आने वाले दिनों में विश्व में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जाएगी। इसलिए, संयुक्त राष्ट्रसंघ का महत्त्व भी निरंतर बढ़ेगा। लोगों को और सरकारों को संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा दूसरे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के समर्थन और उपयोग के तरीके तलाशने होंगे – ऐसे तरीके जो उनके हितों और विश्व बिरादरी के हितों से व्यापक धरातल पर मेल खाते हों।

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