Humari Nind– हिंदी कक्षा 10 हमारी नींद

humari nind

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 9 (Humari Nind) “ हमारी नींद” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस कविता के कवि वीरेन डंगवाल है | इन्होंने मुजफ़्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल में शुरुआती शिक्षा प्राप्त करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम० ए० किया।

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9. हमारी नींद (Humari Nind)
लेखक परिचय
लेखक- वीरेन डंगवाल
जन्म- 5 अगस्त, 1947 ई०, टिहरी गढ़वाल जिला के कीर्तिनगर में (उŸारांचल)
मृत्यु- 28 सितम्बर, 2015 ई०

इन्होंने मुजफ़्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल में शुरुआती शिक्षा प्राप्त करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम० ए० किया।
प्रमुख रचनाएँ- विरेन डंगवाल का पहला कविता संग्रह ‘इसी दुनिया में‘ प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘दुष्चक्र में स्रष्टा‘। इन्होंने विभिन्न कवियों की कविताओं तथा आदिवासी लोक कविताओं का विशाल मात्रा में अनुवाद किया है।
कविता परिचय- प्रस्तुत कविता ‘हमारी नींद‘ को वीरेन डंगवाल की काव्य संकलन ‘दुष्चक्र में स्रष्टा‘ से लिया गया है। इसमें सुविधा भोगी आराम पसंद जीवन अथवा हमारी बेपरवाहीयां के बाहर विपरित परिस्थितियों से लगातार लड़ते-बढ़ते जानेवाले जीवन का चित्रण करती है।

9. हमारी नींद (Humari Nind)
मेरी निंद के दौरान
कुछ इंच बढ़ गये पेड़
कुछ सुत पौधे
अंकुर ने अपने नाम मात्र
कोमल सिंगो सें
धकेलना शुरू की
बीज की फुली हुई
छत, भीतर से।

कवि कहते हैं कि मनुष्य सुविधा भोगी बनकर आराम की नींद सोता है लेकिन प्रकृति विकास क्रम को अनवरत जारी रखती है। हमारे नींद के दौरान कुछ इंच पेड़ तथा कुछ सुत पौधे बढ़ जाते हैं। बीज अंकुरित होकर अपनी कोपलों को धकेलना शुरू कर देता है।

एक मक्खी का जीवन-क्रम पुरा हुआ
कई शिशु पैदा हुए, और उनमें से
कई तो मारे गए
दंगे, आगजनी और बमबारी में ।

कवि एक मक्खी के माध्यम से दीन-हीन लोगों के जीवन के दशा के विषय में कहता है कि उसके बच्चे दीनता के कारण या तो मर गये अथवा अत्याचारियों के कोप के शिकार हो गये, जो दंगे आगजनी और बमबारी में मारे गये।

गरीब बस्तीयों में भी
धमाके से हुआ देवी जागरण
लाउडस्पीकर पर।

पुनः कवि कहते हैं कि जहाँ झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले गरीब लोग हैं जो केवल किसी तरह से अपने पेट की आग शांत करने के अपेक्षा कुछ नहीं जानते हैं वहाँ भी विलासी लोग देवी जागरण तथा अन्य ढ़ोंगी कार्यक्रम की आड़ में लाउडस्पीकर बजवाकर ठगने का कार्य करते हैं।

याने साधन तो सभी जुटा लिए हैं अत्याचारियों ने
मगर जीवन हठिला फिर भी
बढ़ता ही जाता आगे
हमारी निंद के बावजूद

कवि कहते हैं कि अत्याचारी सूख-भोग के सारे साधन जमा करने के बावजूद अपने हठी स्वभाव के कारण अन्याय बंद करना नहीं चाहते। उनका जुल्म बढ़ता ही जा रहा है।

और लोग भी है, कई लोग हैं
अभी भी
जो भूले नहीं करना
साफ और मजबुत
इनकार।

कवि कहते हैं कि आज भी वैसे अनेक लोग हैं जो अपनी सुविधा का त्याग करना नहीं चाहते तो जनता अत्याचारियों के जुल्म का विरोध करने से इनकार करना नहीं भूलती।

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Ek Vriksh Ki Hatya– हिंदी कक्षा 10 एक वृक्ष की हत्या

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 8 (Ek Vriksh Ki Hatya) “एक वृक्ष की हत्या” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस कविता के कवि कुँवर नारायण है |इन्होंने कविता लिखने की शुरुआत सन् 1950 ई॰ के आस-पास की।

Ek vriksh ki hatya
Ek vriksh ki hatya

8. एक वृक्ष की हत्या (Ek Vriksh Ki Hatya)
कवि परिचय
कवि- कुँवर नारायण
जन्म- 19 सितम्बर, 1927 ई॰, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
मृत्यु- 15 नवम्बर, 2017 ई॰

इन्होंने कविता लिखने की शुरुआत सन् 1950 ई॰ के आस-पास की।

प्रमुख रचनाएँ- चक्रव्यूह, परिवेश : हम तुम, अपने सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों ( काव्य संग्रह ), आत्मजयी, आकारों के आस-पास ( कहानी संग्रह ), आज और आज से पहले, मेरे साक्षात्कार आदि।

पुरस्कार एवं सम्मान- साहित्य अकादमी पुरस्कार, कुमारन आशान पुरस्कार, व्यास सम्मान, प्रेमचंद पुरस्कार, लोहिया सम्मान, कबीर सम्मान आदि।
कविता परिचय- प्रस्तुत कविता में कवि ने एक वृक्ष के बहाने पर्यावरण, मनुष्य और सभ्यता के विनाश की अन्तर्व्यथा पर मार्मिक विचार प्रकट किया है।

8. एक वृक्ष की हत्या (Ek Vriksh Ki Hatya)

अबकी घर लौटा तो देखा वह नहीं था-
वहीं बूढ़ा चौकीदार वृक्ष
जो हमेशा मिलता था घर के दरवाजे पर तैनात।

कवि कहता है कि जब वह प्रदेश से घर लौटा तो अपने घर के सामने वाले पुराने पेड़ को न देखकर सोच में पड़ गया कि आखिर वह पेड़ गया कहाँ ? क्योंकि जब कभी घर आता था तो उस पेड़ को चौकीदार की तरह तैनात पाता था।

पुराने चमड़े का बना उसका शरीर
वही सख्त जान
झुर्रियांदार खुरदुरा तना मैलाकुचैला,
राइफिल-सी एक सूखी डाल,
एक पगड़ी फूलपत्तीदार,
पाँवों में फटापुराना जूता,
चरमराता लेकिन अक्खड़ बल-बूता

वह पेड़ अधिक दिनों के होने के कारण अपना हरापन खो चूका था। डालें सूख गई थीं, पत्ती झड़ गये थे। लेकिन पेड़ का उपरी भाग फूल-पत्ती से युक्त था जो पगड़ी के समान प्रतित हो रहा था। पेड़ पुराना होने के कारण उसका तना खुरदुरा था। हर विषम परिस्थितियों में वह पेड़ निर्भीक होकर बहादुर के समान वहाँ खड़ा रहता था।

धूप में बारिश में
गर्मी में सर्दी में
हमेशा चौकन्ना
अपनी खाकी वर्दी में

कवि कहता है कि वह बुढ़ा वृक्ष गर्मी, सर्दी तथा बरसात में हमेशा चौकीदार की तरह खाकी वर्दी में अर्थात् छाल नष्ट होने के कारण हल्के-पीले रंग का दिखाई पड़ता था।

दूर से ही ललकारता ‘‘ कौन ? ‘‘
मैं जवाब देता, ‘‘ दोस्त ! ‘‘
और पल भर को बैठ जाता
उसकी ठंढी छाँव में
दरअसल शुरू से ही था हमारे अन्देशों में
कहीं एक जानी दुश्मन  

कवि कहता है कि जब वह पेड़ के समीप पहुँचता था कि दूर से ही वह चौकिदार के समान सावधान करता था। तात्पर्य यह कि जैसे चौकिदार आनेवालों से जानकारी लेने के लिए पूछता है, वैसे ही वह पेड़ कवि से जानना चाहता है तब कवि अपने को उसका दोस्त कहते हुए उस पेड़ की शीतल छाया में बैठकर सोचने लगता है कि कहीं संवेदनहीन मानव स्वार्थपूर्ति के लिए इसे काट न दें।

कि घर को बचाना है लुटेरों से
शहर को बचाना है नादिरों से
देश को बचाना है देश के दुश्मनों से

कवि कहता है कि घर को बचाना है लुटेरों से, शहर को बचाना होगा हत्यारा से तथा देश को बचाना होगा देश के दुश्मनों से अर्थात् घर, शहर तथा देश तभी सुरक्षित रहेंगें, जब वृक्षों की रक्षा होगी।

बचाना है –
नदियों को नाला हो जाने से
हवा को धुँआ हो जाने से
खाने को जहर हो जाने से :
बचाना है – जंगल को मरूस्थल हो जाने से,
बचाना है – मनुष्य को जंगल हो जाने से।

कवि आगे कहता है कि नदियों को नाला बनने से, हवा को धुँआ बनने से तथा खाने को जहर बनने से बचाना होगा। इतना हि नहीं जंगल को मरूस्थल तथा मनुष्य को जंगल हो जाने से बचाना होगा। तात्पर्य यह कि पेड़-पौधों की रक्षा नहीं किया जायेगा तो मानव-सभ्यता नहीं बचेगा। इसलिए हम सब किसी मिलकर पर्यावरण को बचाना होगा। (Ek Vriksh Ki Hatya)

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Hiroshima– हिंदी कक्षा 10 हिरोशिमा class 10 Hindi

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ7 (Hiroshima) “ हिरोशिमा” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस कविता के कविसच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय‘ है | अज्ञेय का प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में घर पर हुई। उन्होंने मैट्रिक 1925 ई॰ में पंजाब विश्वविद्यालय से, इंटर 1927 ई॰ में मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से, बी॰ एससी॰ 1929 ई॰ में फोरमन कॉलेज, लाहौर से और एम॰ ए॰ (अंग्रेजी) लाहौर से किया।

Hiroshima
Hiroshima

7. हिरोशिमा (Hiroshima)
लेखक परिचय
लेखक- सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय‘
जन्म- 7 मार्च 1911 ई॰, कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)
मृत्यु- 4 अप्रैल 1987 ई॰
पिता- डॉ॰ हिरानन्द शास्त्री
माता- व्यंती देवी

अज्ञेय का प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में घर पर हुई। उन्होंने मैट्रिक 1925 ई॰ में पंजाब विश्वविद्यालय से, इंटर 1927 ई॰ में मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से, बी॰ एससी॰ 1929 ई॰ में फोरमन कॉलेज, लाहौर से और एम॰ ए॰ (अंग्रेजी) लाहौर से किया।

प्रमुख रचनाएँ- काव्यः- भग्नदूत, चिंता, इत्यलम, हरी घास पर छन भर, बावरा अहेरी, आँगन के पार द्वार, सदानीरा आदि। कहानीः- विपथगा, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप, छोड़ा हुआ रास्ता, लौटती पगडंडियाँ आदि। उपन्यासः- शेखरः एक जीवनी, नदी के द्विप, अपने अजनबी। यात्रा साहित्यः- अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली।

कविता परिचय– प्रस्तुत कविता में आधुनिक सभ्यता की मानवीय विभीषिका का चित्रण किया गया है। यह कविता ‘अज्ञेय‘ की ‘सदानीरा‘ कविता संग्रह से संकलित है।

7. हिरोशिमा (Hiroshima)
एक दिन सहसा
सुरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौकः
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से

कवि कहता है कि एक दिन सबेरे प्रकाश दिखाई पड़ा। यह प्रकाश क्षितिज से निकलते सूरज का नहीं, बल्कि शहर के मध्य में अमेरिका द्वारा गिराए गए बम का था। लोग गर्मी से जलने लगे। यह धूप की गर्मी नहीं थी। यह गर्मी बम विस्फोट से उत्सर्जित किरणों की थी। गर्मी फटी धरती की थी।

छायाएँ मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ी-वह सुरज
नहीं उगा था पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचो-बीच नगर के :
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टुटकर
बिखर गये हो
दशों दिशा में।

कवि कहता है कि मनुष्य की छायाएँ दिशाहिन हो गई। प्रकाश छिटने लगा, लेकिन यह प्रकाश सूर्य का नहीं, बल्कि मानव के नृशंसता का था, जिसमें मानवता झुलस रही थी। कवि कहता है कि यह नगर के मध्य में मृत्यु रूपी सूर्य के टुटे हुए अरे का प्रकाश था। अतः बम फटते हि विध्वंसक पदार्थ मौत बनकर दशों दिशाओं में नाचने लगे।

कुछ छन का वह उदय-अस्त
केवल एक प्रज्वलित छन की
दृश्य सोख लेने वाली दो पहरी
फिर ?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटी लंबी हो-हो कर :
मानव ही सब भाप हो गये।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं।
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।

कवि कहता है कि बम गिरने के बाद कुछ छन में ही विनाशलीला का दृश्य मन्द पड़ने लगा। दोपहर तक सारी लीला खत्म हो गई तथा मानव शरीर भाप बनकर वातावरण में मिल गया, परन्तु यह दुर्घटना आज भी झुलसे हुए पत्थरों और उजड़ी हुई सडकों पर के रूप में निशानी है।

मानव का रचा हुआ सुरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।

मानव के द्वारा बनाया गया बम मानव को ही भाप में बदलकर मिटा दिया। पत्थर पर लिखी हुई वह जलती छाया अर्थात् विकृत रूप मानव के नृशंसता का गवाह है।

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Jantantra ka janm– हिंदी कक्षा 10 जनतंत्र का जन्म Hindi class 10

 

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 6 (Jantantra ka janm) “ जनतंत्र का जन्म” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस कविता के कवि रामधारी सिंह दिनकर है | दिनकर जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव और उसके आस-पास हुई। 1928 ई0 में मोकामा घाट रेलवे हाई स्कुल से मैट्रिक और 1932 ई0 में पटना कॉलेज से इतिहास में बी॰ ए॰ ऑनर्स किया। 

Jantantra ka janm
Jantantra ka janm

6. जनतंत्र का जन्म (Jantantra ka janm)
लेखक परिचय
लेखक- रामधारी सिंह दिनकर
जन्म- 23 सितम्बर 1908 ई0 में सिमरिया,
बेगूसराय (बिहार)
मृत्यु- 24 अप्रैल 1974 ई0 में
पिता- रवि सिंह
माता- मनरूप देवी

दिनकर जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव और उसके आस-पास हुई। 1928 ई0 में मोकामा घाट रेलवे हाई स्कुल से मैट्रिक और 1932 ई0 में पटना कॉलेज से इतिहास में बी॰ ए॰ ऑनर्स किया। ये बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर एवं भागलपुर विश्वविद्यालय में कुलपति रहे।

प्रमुख रचनाएँ- प्रणभंग, रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरूक्षेत्र, रश्मिरथी, नीलकुसुम, उर्वशी, हारे को हरिनाम, अर्धनारीश्वर, संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की खोज आदि

कविता परिचय- प्रस्तुत कविता में जनतंत्र के उदय के बारे में दिया गया है। जनतंत्र के राजनीतिक और ऐतिहासिक अभिप्रायों को कविता में उजागर करते हुए कवि यहाँ एक नवीन भारत का कल्पना करता है जिसमें जनता ही स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ होने को है।

6. जनतंत्र का जन्म (Jantantra ka janm)

सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी।
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।।
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो।
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मुरतें वहीं,
जाड़े पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग-अंग में लगे साँप हो चुस रहे,
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहने वाली।
जनता ? हाँ, लंबी-बड़ी जीभ की वहीं कसम,
जनता सचमूच ही बड़ी वेदना सहती है।
सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?
है प्रश्न गुढ़ जनता इस पर क्या कहती है।
मानो जनता हो फुल जिसे एहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोंनो में।
अथवा, कोई दुधमुही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सिमीत हों चार खिलौनों में ।।
लेकिन, होता भूडोल, बवडंर उठते हैं
जनता तब कोपाकुल हो भृकुटी चढ़ाती है।
दो राह , समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिहांसन खाली करो, कि जनता आती है।।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है।
जनता की रोके, राह समय में ताव कहाँ ?
जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।।
अब्दो, शताब्दीयों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बिता, गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं।
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चिरते तिमिर का वक्ष उमड़ते आते हैं।
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा।
तैतिस कोटी-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है।
तैतिंस कोटी जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिए तुम किसे ढ़ुढ़ता है मुरख
मंदिरों, राजप्रसादों में, तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगें खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदंड बनने को है
धूसरता सोने में सिंगार सजाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो की जनता आती है।

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Bharatmata– हिंदी कक्षा 10 भारतमाता class 10 Hindi

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 5 (Bharatmata) “ भारतमाता” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस कविता के कवि सुमित्रानंदन पंत है | इसमें भारत के दुर्दशा का चित्रण किया गया है।

Bharatmata
Bharatmata

5. भारतमाता (Bharatmata)
लेखक परिचय
लेखक- सुमित्रानंदन पंत
जन्म- 20 मई 1900 ई०, अलमोड़ा जिला के कौसानी (उत्तराँचल)
मृत्यु- 28 दिसंबर 1977 ई०
पिता- गंगादत्त पंत
माता- सरस्वती देवी

पंत जी के माता का निधन इनके जन्म के छः घंटे के बाद हो गया, इसलिए इनका लालन-पालन प्रकृति के गोद में हुआ। इन्होंने प्राथमिक शिक्षा गाँव में तथा माध्यमिक शिक्षा बनारस में पाई। इन्होंने कुछ दिनों तक कालाकांकर जिले में रहने के बाद अपना सारा जीवन इलाहाबाद में बिताया।

प्रमुख रचनाएँ- उच्छवास, पल्लव, वीणा, ग्रंथि, गुंजन, युगांत, युगवानी, ग्राम्या, स्वर्णधूलि, स्वर्णकिरण, युगपथ, चिदंबरा तथा लोकायतन

कविता परिचय- प्रस्तुत कविता ‘भारतमाता‘ पंत जी की कविताओं का संग्रह ‘ग्राम्या‘ से संकलित है। इसमें भारत के दुर्दशा का चित्रण किया गया है।
5. भारतमाता (Bharatmata)

भारतमाता ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल-भरा मैला-सा आँचल
गंगा-यमुना में आँसू-जल
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी।

कवि पंत जी भारतीय ग्रामीणों की दुर्दशा का चित्र प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है। जहाँ खेत सदा हरे-भरे रहते हैं किंतु यहाँ के निवासी शोषण की चक्की में पिसकर मजबूर दिखाई देते हैं। गंगा-यमुना के जल उनकी व्यथा के प्रतिक हैं। सीधे-साधे किसान अपनी दयनीय दशा के कारण अपने दुर्भाग्य पर आँसु बहा रहे हैं और उदास हैं।

दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
अधरों में चिर नीरव रोदन,
युग-युग के तम से विषण्ण मन
वह अपने घर में
प्रवासिनी।

पंतजी भारतमाता के उन कर्मठ सपूत किसानों की दयनीय दशा एवं दुःखपूर्ण जीवन की करूण-कहानी प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि जमींदारों एवं सूदखोर साहूकारों के शोषण ने इन्हें अति गरीब, चेतनाशून्य बना दिया है। अपने मजबूरी के कारण अपने ऊपर हो रहे अन्याय को सिर झुकाए अपलक देखने को मजबूर हैं। वे अपनी अंदर की पीड़ा अन्दर-ही-अन्दर सहने को मजबूर हैं। सदियों की त्रासदी ने उनके जीवन को निराश बना दिया है। वे अपने घर में अपने अधिकारों से वंचित है।

तीस कोटि संतान नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्रजन,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
नत मस्तक
तरु-तल निवासिनी।

अंग्रेजी शासन की क्रुरता के कारण भारतमाता की तीस करोड़ संतान अर्द्धनग्न तथा अर्द्धपेट खाकर जीवन व्यतित करने को विवश हैं। इनमें प्रतिकार और विरोध करने की शक्ति नहीं है। वे मूर्ख, असभ्य, अशिक्षित, गरीब, पेड़ के नीचे गर्मी, वर्षा तथा जाड़ा का कष्ट सहन करते हैं।

स्वर्ण शस्य पर-पद-तल लंठित,
धरती-सा सहिष्णु मन कुंठित,
क्रंदन कंपित अधर मौन स्मित,
राहु ग्रसित
शरदेन्दु हासिनी।

कवि पंत जी कहते हैं कि जिनकी पकी फसल सोने के समान दिखाई पड़ती है, पराधीनता के कारण वे शोषण के शिकार हैं। वे उनके हर अपमान, शोषण, अत्याचार आदि को सहन करते हुए धरती के समान सहनशील बने हुए हैं। अर्थात् वे अपने जुल्मों का विरोध न करके चुपचाप सहन कर लेते हैं। वे क्रुर शासन से इतने भयभीत हैं कि खुलकर रो भी नहीं सकते। देशवासियों की ऐसी दुर्दशा और विवशता देखकर कवि दुःख से भर जाता है कि जिस देश के वीरों की गाथा संसार में शरदपूर्णिमा की चाँदनी के समान चमकती थी, आपसी शत्रुता के कारण आज ग्रहण लगा अंधकारमय है।

चिंतित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
आनन श्री छाया-शशि उपमित,
ज्ञान-मूढ़
गीता प्रकाशिनी।

कवि पंतजी कहते हैं कि अंग्रेजों के अत्याचार एवं शोषण से लोग उदास, निराश और हताश हैं, यानी वातावरण में घोर निराशा छायी हुई है। देशवासियों की ऐसी मन की स्थिति पर कवि आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि जिसके मुख की शोभा की उपमा चन्द्रमा से दी जाती थी, या फिर जहाँ गीता जैसे प्ररणादायी ग्रंथ की रचना हुई थी, उस देश के लोग अज्ञानता और मूर्खता के कारण गुलाम हैं।

सफल आज उसका तप संयम
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
हरती जन-मन-भय, भव-तम-भ्रम,
जग-जननी
जीवन-विकासिनी।

कवि सफलता पर आशा प्रकट करते हुए कहते हैं कि अहिंसा जैसे महान मंत्र का संदेश देकर लेगों के मन का भय, अज्ञान एवं भ्रम का हरण कर भारतमाता की स्वतंत्रता की प्राप्ति का संदेश दिया। (Bharatmata)

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Swadeshi– हिंदी कक्षा 10 स्वदेशी class 10 Hindi

Swadeshi

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 4 (Swadeshi) “ स्वदेशी” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के कवि बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन‘ है |यह काव्य और जीवन दोनों क्षेत्रों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को अपना आदर्श मानते थे। इन्होनें भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया था। 1874 ई0 में इन्होनें मिर्जापूर में रसिक समाज की स्थापना किया। ये साहित्य सम्मेलन के कलकŸा अधिवेशन के सभापति भी रहे। इनकी रचनाएँ ‘प्रेमघन सर्वस्व‘ में संगृहित हैं।

Swadeshi
Swadeshi

4. स्वदेशी (Swadeshi)
लेखक परिचय
लेखक- बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन‘
जन्म- 1 सितम्बर 1855 ई0 में मिर्जापुर (उŸार प्रदेश)
मृत्यु- 1922 ई0 में

यह काव्य और जीवन दोनों क्षेत्रों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को अपना आदर्श मानते थे।

इन्होनें भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया था। 1874 ई0 में इन्होनें मिर्जापूर में रसिक समाज की स्थापना किया। ये साहित्य सम्मेलन के कलकता अधिवेशन के सभापति भी रहे। इनकी रचनाएँ ‘प्रेमघन सर्वस्व‘ में संगृहित हैं।

प्रमुख रचनाएँ- भारत सौभाग्य तथा प्रयाग रामागमन इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। इन्होनें ‘जीर्ण जनपद‘ नामक नाटक लिखा जिसमें ग्रामीण जीवन का यर्थाथवादी चित्रण है।
कविता परिचय- प्रस्तुत कविता ‘स्वदेशी‘ प्रेमघन द्वारा लिखित रचनाएँ ‘प्रेमघन सर्वस्व‘ से संकलित है। इन दोहों में नवजागरण का स्वर मुखरित है। दोहों की विषय-वस्तु और काव्य वैभव कविता के स्वदेशी भाव को स्पष्ट करते हैं। कवि की चिंता आज के परिवेश में भी प्रासंगिक है।

सबै बिदेसी वस्तु नर, गति रति रीत लखात।
भारतीयता कछु न अब भारत म दरसात।।

कवि प्रेमघन कहते हैं कि पराधीनता के कारण सर्वत्र विदेशी वस्तुएँ ही दिखाई पड़ती हैं। लोगों के चाल-चलन तथा रीति-रिवाज बदल गए हैं। दुःख है कि लोगों में भारतीयता की भावना मर गई है। देश-प्रेम की भावना देश में कहीं भी दिखाई नहीं देती।

मनुज भारती देखि कोउ, सकत नहीं पहिचान।
मुसल्मान, हिंदू किधौं, कै हैं ये क्रिस्तान।।
पढ़ि विद्या परदेश की, बुद्धि विदेशी पाय।
चाल-चलन परदेश की, गई इन्हैं अति भाय।।

कवि कहता है कि अंग्रजी शासनकाल में हिंदु-मुसलमान दोनों के रहन-सहन, खान-पान, विद्या-व्यवसाय, चाल-चलन तथा आचरण बदल गए हैं। विदेशी भाषा पढ़ने के कारण अपनी संस्कृति, भाषा सबका त्याग कर विदेशी चाल-चलन अपना लिए हैं।

ठटे विदेशी ठाट सब, बन्यो देश विदेस।
सपनेहूँ जिनमें न कहुँ, भारतीयता लेस।।
बोलि सकत हिंदी नहीं, अब मिलि हिंदू लोग।
अंगरेजी भाखन करत, अंग्रेजी उपभोग।।

कवि ‘प्रेमघन‘ देश की दुर्दशा देखकर कहते हैं कि अंग्रेजी शासन के कारण भारतीयों का संस्कार विदेशी हो गया है। स्वदेशी वस्तुएँ नष्ट कर दी गई हैं। विदेशी वस्तुओं तथा भाषा के प्रचार के कारण कहीं भी भारतीयता के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। सभी अपनी सुख-सुविधा के प्राप्ति के लिए अंग्रजी भाषा का व्यवहार करते हैं।

अंगरेजी बाहन, बसन, वेष रीति औ नीति।
अंगरेजी रुचि, गृह, सकल, बस्तु देस विपरित।।
हिन्दुस्तानी नाम सुनि, अब ये सकुचि लजात।
भारतीय सब वस्तु ही, सों ये हाय घिनात।।

कवि ‘प्रेमघन‘ जी कहते हैं कि अंग्रेजी शासनकाल में भारतीयों की मनोदशा इतनी दूषित हो गई है कि वे भारतीय वस्तुओं का उपयोग करना छोड़ विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने लगे हैं। इनका हर कुछ विदेशी रंग में रंग चूका है। वे अपने को हिंदुस्तानी कहने में संकुचित महसुस करते हैं तथा स्वदेशी वस्तु देखकर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं।

देस नगर बानक बनो, सब अंगरेजी चाल।
हाटन मैं देखहु भरा, बसे अंगरेजी माल।।
जिनसों सम्हल सकत नहिं तनकी, धोती ढीली-ढीली।
देस प्रंबध करिहिंगे वे यह, कैसी खाम खयाली।।

कवि कहते हैं कि भारतीय हाट-बाजारों में अंग्रेजी भर दिए गये हैं। भारतीय इन वस्तुओं के व्यवसायी बन गए। देश में निर्मित वस्तुओं का लोप हो गया है। देश की कमान वैसे लोगों के हाथ में है, जों स्वयं ढुलमुल विचार के हैं, जिन्हें स्वयं पर भरोसा नहीं है।

दास-वृति की चाह चहूँ दिसि चारहु बरन बढ़ाली।
करत खुशामद झूठ प्रशंसा मानहुँ बने डफाली।।

कवि आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि ऐसे खोटे विचार वालों से देश की सुरक्षा का आशा करना कितना हास्यपद है। क्योंकि सभी जाति के लोग अपनी आजीविका के लिए खुशामद में झूठी प्रशंसा का ढोल पीटने लगे हैं।(Swadeshi)

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Ati Sudho Saneh Ko Marag Hai – हिंदी कक्षा 10 अति सूधो सनेह को मारग है

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 2 (Ati sudho saneh ko marag hai) “अति सूधो सनेह को मारग है” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के कवि घनानंद है | घनानंद तत्कालीन मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के यहाँ मीर मुंशी थे। प्रस्तुत पाठ में घनानंद के दो छंद संकलित है। प्रथम छंद में कवि ने प्रेम के सीधे, सरल और निश्छल मार्ग के विषय में बताया है। तो द्वितीय छंद में विरह वेदना से व्यथित अपने हृदय की पीड़ा को कलात्मक रंग से अभिव्यंजित किया है।

Ati sudho sneh ko marag gaya
Ati sudho sneh ko marag hai

3. पद
अति सूधो सनेह को मारग है
(Ati sudho saneh ko marag hai)

मो अँसुवानिहिं लै बरसौ
लेखक का नाम- घनानंद
जन्म- 1673 ई0
मृत्यु- 1739 ई0, मथुरा में

घनानंद तत्कालीन मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीले के यहाँ मीर मुंशी थे। ये अच्छे गायक और श्रेष्ठ कवि थे। कहा जाता है कि ये सुजान नामक नर्तकी से काफी प्रेम करते थे। विराग होने पर ये वृंदावन चले गये तथा वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित होकर काव्य रचना करने लगे।

1739 ई0 में नादिरशाह ने जब दिल्ली पर आक्रमण किया तब उसके सिपाहियों ने मथुरा एवं वृंदावन पर भी धावा बोल दिया। घनानंद को बादशाह का मीरमुंशी समझकर उन्हें सैनिकों ने मार डाला।
 रचनाएँ- सुजानसागर, विरहलीला, रसकेलि बल्ली।

कविता परिचय- प्रस्तुत पाठ में घनानंद के दो छंद संकलित है। प्रथम छंद में कवि ने प्रेम के सीधे, सरल और निश्छल मार्ग के विषय में बताया है। तो द्वितीय छंद में विरह वेदना से व्यथित अपने हृदय की पीड़ा को कलात्मक रंग से अभिव्यंजित किया है।

अति सूधो सनेह को मारग है
अति सूधो सनेह का मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झुझुकैं कपटी जे निसाँक नहीं।।

कवि घनानंद कहते हैं कि प्रेम का मार्ग अति सीधा और सुगम होता है जिसमें थोड़ा भी टेढ़ापन या धूर्तता नहीं होती है। उस पथ पर वहीं व्यक्ति चल सकता है जिसका हृदय निर्मल है तथा अपने आप को पूर्णतः समर्पित कर दिया है।

‘घनआनँद‘ प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तैं दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।।

कवि घनानंद कहते हैं- हे सज्जन लोगों ! सुनो, सगुण और निर्गुण से कोई तुलना नहीं है। तुमने तो ऐसा पाठ पढ़ा है कि मन भर लेते हो किन्तु छटाँक भर नहीं देते हो। अतः कवि का कहना है कि गोपियाँ कृष्ण-प्रेम में मस्त होने के कारण उधो की बातों पर ध्यान नहीं देती, बल्कि प्रेम की विशेषता पर प्रकाश डालती हुई कहती है कि भक्ति का मार्ग सुगम होता है, ज्ञान का मार्ग कठिन होता है।

मो अँसुवानिहिं लै बरसौ
परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि-नीर सुधा की समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ।।

कवि घनांनद कहते हैं कि दूसरे के उपकार के लिए शरीर धारण करके बादल के समान फिरा करो और दर्शन दो। समुद्र के जल को अमृत के

समान बना दो तथा सब प्रकार से अपनी सज्जनता का परिचय दो।
‘घनआनँद‘ जीवनदायक हौ कछू मेरियौ पीर हिएँ परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानिहिं लै बरसौ।।

कवि घनानंद का आग्रह है कि उनकी हार्दिक पीड़ा का अनुभव करते हुए उन्हें जीवन रस प्रदान करो, ताकि वह कभी भी अपनी प्रेमिका सुजान के आँगन में उपस्थित हो कर अपने प्रेमरूपी आँसु की वर्षा करें।

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Prem Ayani Shri Radhika– हिंदी कक्षा 10 प्रेम-अयनि श्री राधिका

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 3 (Prem Ayani Shri Radhika) “ प्रेम-अयनि श्री राधिका” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के कवि रसखान है | रसखान मूल रूप से मुसलमान थे, फिर भी इन्होंने जीवन भर कृष्णभक्ति का गान किया। कृष्ण के प्रति इनकी भक्ति देखकर गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। बाल्यावस्था से ही यह प्रेमी स्वभाव के थे। बाद में यहीं प्रेम ईश्वरीय प्रेम में बदल गया। ऐसी मान्यता है कि इन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर में साक्षात् कृष्ण के दर्शन हुए थे। इसी कृष्ण दर्शन से उत्प्रेरित हो कर ब्रजभूमि में रहने लगे और मृत्यु तक वहीं रहे।

prem ayani shree radhika
prem ayani shree radhika

 

2. प्रेम-अयनि श्री राधिका
(Prem Ayani Shri Radhika)
करील के कुजंन ऊपर वारौं
लेखक- रसखान
लेखक परिचय
पूरा नाम- सैय्यद इब्राहिम खान
जन्म- 1548 ई0, एक पठान परिवार
दिल्ली में
मृत्यु- 1628 ई0

रसखान मूल रूप से मुसलमान थे, फिर भी इन्होंने जीवन भर कृष्णभक्ति का गान किया। कृष्ण के प्रति इनकी भक्ति देखकर गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। बाल्यावस्था से ही यह प्रेमी स्वभाव के थे। बाद में यहीं प्रेम ईश्वरीय प्रेम में बदल गया। ऐसी मान्यता है कि इन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर में साक्षात् कृष्ण के दर्शन हुए थे। इसी कृष्ण दर्शन से उत्प्रेरित हो कर ब्रजभूमि में रहने लगे और मृत्यु तक वहीं रहे।

प्रमुख रचनाएँ- सुजान रसखान तथा प्रेमवाटिका

पाठ परिचय (Prem Ayani Shri Radhika)

प्रस्तुत पाठ में रसखान के दो पद संकलित है। प्रथम पद दोहे और सोरठा छंद में है जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेममय युगल रूप का अति हृदयहारी वर्णन है। इसमें राधा-कृष्ण के मनोहर रूप पर कवि के हृदय की आकर्षण व्यक्त हुई है जबकि दुसरे पद में कवि हर स्थिति में ब्रज में जीना चाहता है। इसमें ब्रज के प्रति कवि का भावपूर्ण समर्पण व्यक्त है।

प्रेम- अयनि श्री राधिका
प्रेम-अयनि श्री राधिका, प्रेम-बरन नँदनंद।
प्रेम-बाटिका के दोऊ, माली-मालिन-द्वन्द्व।।
मोहन छबि रसखानि लखि अब दृग अपने नाहिं।
अँचे आवत धनुस से छूटे सर से जाहिं।।

रसखान कवि कहते हैं कि राधा प्रेमस्वरूपा है तो श्रीकृष्ण प्रेमरूप है। ये दोनों प्रेमरूपी वाटिका के माली-मालिन के समान हैं। कवि ने जब से इन दोनों को देखा है, उनकी आँखें उन्हीं दोनों को देखती रहती है। क्षण भर के लिए आते हैं और जैसे धनुष से बाण छूटता है, उसी प्रकार आते-जाते रहते हैं।

मो मन मानिक लै गयो चितै चोर नँदनंद।
अब बे मन मैं का करूँ परी फेर के फंद।।
प्रीतम नन्दकिशोर, जा दिन तै नैननि लग्यौ।
मन पावन चितचोर, पलक ओट नहिं करि सकौं।

श्रीकृष्ण ने उसके मन को चुरा लिया है जिस कारण मन इच्छा रहित हो गए हैं। वह इस प्रेम के जाल में बुरी तरह फँस गए हैं। रसखान अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहते हैं कि जिस दिन से उनके दर्शन हुए हैं, उसने मन चुरा लिया है। हर क्षण कृष्ण एवं राधा के रूप सौन्दर्य को अपलक देखते रहते हैं।

करील के कुंजन ऊपर वारौं
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर की तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवोनिधि को सुख नन्द की गाइ चराई बिसारौं।।

कवि रसखान अपने हार्दिक अभिलाषा प्रकट करते हुए कहते हैं कि श्रीकृष्ण की लाठी और कंबल पर तीनों लोक के राज्य का त्याग कर दूँ। नंद बाबा की गाय चराने का अवसर मिल जाए तो आठों प्रकार की सिद्धियों तथा नव-निधियों के सुखों का त्याग करने में मुझे कष्ट महसूस नहीं होगा।

रसखानी कबौं इन आँखिन सौं ब्रज के बनबाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक रौ कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।।

कवि का कहना है कि जब से ब्रज के वनों, निकुंजों, तालाबों तथा करील के सघन कुँजों को अपनी आँखों से देखा हूँ, तब से इच्छा होती है कि ऐसे मनोहर निकुंजों की सुन्दरता के समक्ष करोड़ों सुनहरे महल तुच्छ प्रतीत होतें हैं अर्थात् ऐसे मूल्यवान् महलों को छोड़कर जहाँ कृष्ण रासलीला करते थे, वहीं निवास करूँ।

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Ram Nam Binu Birthe Jagi Janma – हिंदी कक्षा 10 राम नाम बिनु बिरथे जगि जन्मा

Ram Nam Binu Birthe Jagi Janma

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पद्य भाग के पाठ 1 (Ram Nam Binu Birthe Jagi Janma) “राम नाम बिनु बिरथे जगि जन्मा” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के कवि गुरु नानक है | इस पाठ में सच्चे हृदय से राम नाम अर्थात् ईश्वर का जप करने की सलाह दी गई है |

Ram Nam Binu Birthe Jagi Janma

(Ram Nam Binu Birthe Jagi Janma)

1. पद
राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा
(Ram Nam Binu Birthe Jagi Janma)
जो नर दुख में दुख नहीं माने
(Jo nar dukh me dukh nahi mane)
लेखक परिचय
जन्म- 15 अप्रैल 1469 ई0, नानकाना साहिब, पंजाब, पाकिस्तान
मृत्यु- 22 सितंबर 1539 ई0, करतारपुर
पिता- कालूचंद खत्री, माँ- तृप्ता

इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का काफी प्रयास किया, लेकिन इनका मन सांसारिक कार्य में नहीं रमा। इन्होंने हिन्दु-मुस्लिम दोनों को समान धार्मिक उपासना पर बल दिया तथा वर्णाश्रम व्यवस्था एवं कर्मकाण्ड के विरोध करके निर्गुण भक्ति का प्रचार किया।

‘सिख धर्म‘ के प्रवर्क गुरुनानक ने मक्का-मदीना तक की यात्रा की। इन्होंनें 1539 ई0 में वाहे गुरु कहते हुए भौतिक शरीर का त्याग कर दिया।

पाठ परिचय (Ram Nam Binu Birthe Jagi Janma)

इस पाठ में सच्चे हृदय से राम नाम अर्थात् ईश्वर का जप करने की सलाह दी गई है तो बाह्य आडंबर, पूजा-पाठ और कर्म-काण्ड की कड़ी आलोचना की गई है। सुख-दुख में हमेशा एकसमान रहने की सलाह दी गई है।

राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा
राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा।
बिखु खावै बिखु बोलै बिनु नावै निहफलु मटि भ्रमना ।।
पुसतक पाठ व्याकरण बखाणै संधिया करम निकाल करै।
बिनु गुरुसबद मुकति कहा प्राणी राम नाम बिनु अरुझि मरै।।

अर्थ – गुरु नानक कहते हैं कि जो राम के नाम का स्मरण नहीं करता है, उसका संसार में आना और मानव शरीर पाना व्यर्थ चला जाता है। बिना कुछ बोले बिष का पान करता है तथा मयारूपी मृगतृष्णा में भटकता हुआ मर जाता है अर्थात् राम का गुणगान न करके मायाजाल में फँसा रहता है। शास्त्र-पुराण की चर्चा करता है, सुबह, शाम एवं दोपहर तीनों समय संध्या बंदना करता है। नानक लोगों से कहता है कि गुरु (भगवान) का भजन किए बिना व्यक्ति को संसार से मुक्ति नहीं मिल सकती तथा सांसारिक मायाजाल में उलझकर रह जाना पड़ता है।

डंड कमंडल सिखा सूत धोती तीरथ गबनु अति भ्रमनु करै।
राम नाम बिनु सांति न आवै जपि हरि-हरि नाम सु पारि परै।।
जटा मुकुट तन भसम लगाई वसन छोड़ि तन मगन भया।।
गुरु परसादि राखिले जन कोउ हरिरस नामक झोलि पीया।

ऐसे प्राणी बाहरी दिखावा के लिए डंडा, कमंडल, शिखा, जनेऊ तथा गेरुआ वस्त्र धारण कर तीर्थ यात्रा करते रहते हैं, लकिन राम नाम का भजन किए बिना जीवन में शांति नहीं मिलती है। भगवान का नाम ले लेकर पैर पुजाते हैं। वे अपने को संत कहलाने के लिए जटा को मुकुट बनाकर, शरीर में राख लगाकर, वस्त्रों को त्यागकर नग्न हो जाते हैं। संसार में जितने जीव-जन्तु हैं, उन जीवों में जन्म लेते रहते हैं। इसलिए लेखक कहते हैं कि भगवान की कृपा को ध्यान में रखकर नानक ने राम का घोल पी लिया, ताकि असार संसार से मुक्ति मिल जाए।

जो नर दुख में दुख नहीं मानै
जो नर दुख में दुख नहीं मानै।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै।।
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना।
हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना।।
आसा मनसा सकल त्यागि कै जग तें रहै निरासा।

गुरु नानक कहते हैं कि जो मनुष्य दुख को दुख नहीं मानता है, जिसे सुख-सुविधा के प्रति कोई आसक्ति नहीं है और न ही किसी प्रकार का भय है, जो सोना को मिट्टी जैसा मानता है। जो किसी की निंदा से न तो घबड़ाता है और न ही प्रशंसा सुनकर गौरवान्वित होता है। जो लाभ, मोह एवं अभिमान से परे है। जो हर्ष एवं विषाद दोनों में एक-सा रहता है, जिसके लिए मान-अपमान दोनों बराबर हैं। जो आशा-तृष्णा से मुक्त होकर

सांसारिक विषय-वासनाओं से अनासक्त रहता है।
काम क्रोध जेहि परसे नाहिन तेहि घट ब्रह्म निवासा।।
गुरु कृपा जेहि नर पै कीन्हीं तिन्ह यह जुगति पिछानी।
नानक लीन भयो गोबिन्द सो ज्यों पानी संग पानी।।

जिसने काम-क्रोध को वश में कर लिया है, वैसे मनुष्य के हृदय में ब्रह्म का निवास होता है। अर्थात् जो मनुष्य राग-द्वेष, मान-अपमान, सुख-दुख, निंदा-स्तुति हर स्थिति में एक समान रहता है, वैसे मनुष्य के हृदय में ब्रह्म निवास करते हैं।

गुरु नानक का कहना है कि जिस मनुष्य पर ईश्वर की कृपा होती है, वह सांसारिक विषय-वासनाओं से स्वतः मुक्ति पा जाता है। इसीलिए नानक ईश्वर के चिंतन में लीन होकर उस प्रभु के साथ एकाकार हो गये। यानी आत्मा परमात्मा से मिल गई, जैसे पानी के साथ पानी मिलकर एकाकार हो जाता है।

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Siksha aur Sanskriti – हिंदी कक्षा 10 शिक्षा और संस्कृति

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पाठ 12 (Siksha aur Sanskriti) “शिक्षा और संस्कृति” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के लेखक महात्मा गाँधी है | इस पाठ में लेखक ने अच्छी शिक्षा और संस्कार के बारे में बताया है |

12. शिक्षा और संस्कृति (Siksha aur Sanskriti)
लेखक परिचय
लेखक का नाम- महात्मा गाँधी
जन्म-2 अक्टूबर, 1869 ई० पोरबंदर गुजरात
मृत्यु- 30 जनवरी, 1948 ई०, नई दिल्ली
पिता- करमचन्द गाँधी
माता- पुतली बाई

इन्होंने हाई स्कुल तक की शिक्षा स्थानीय स्कूलों में पाई तथा वकालत की पढ़ाई इंगलैंड से की। वहाँ से लौटने पर भारत में वकालत शुरू की। किंतु कुछ ही दिनों के बाद एक धनी व्यवसायी के मुकदमे के क्रम में दक्षिण अफ्रीका गए। वहाँ प्रवासी भारतीयों की दुर्दशा देखकर उनके उद्धार के लिए ’सत्याग्रह’ आंदोलन चलाया।

1915 ई० में भारत आए तो इन्होंने देशवासियों को पराधीनता से मुक्ति दिलाने के लिए अहिंसा आधारित सत्याग्रह करने का मंत्र दिया। फलस्वरूप अंग्रेजों को अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर यहाँ से जाना पड़ा। देश को 15 अगस्त, 1947 के दिन फिरंगियों से मुक्ति दिलाई। इनकी मृत्यु 30 जनवरी, 1948 ई० को गोली लगने से हुई।

रचनाएँ- गाँधी जी ने ’हिन्द स्वराज’ तथा ’सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ पुस्तकें लिखीं तथा हरिजन, यंग इंडिया आदि पत्रिकाओं का संपादन किया।

पाठ-परिचय- प्रस्तुत पाठ में शिक्षा और संस्कृति पर महात्मा गाँधी के विचार प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने नैतिक शिक्षा पर जोर दिया है।

पाठ का सारांश (Siksha aur Sanskriti)

प्रस्तुत पाठ ‘शिक्षा और संस्कृति’ (Siksha aur Sanskriti) महात्मा गाँधी द्वारा लिखा गया है। इसमें लेखक ने सच्ची दिशा एवं भारतीय संस्कृति की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। लेखक वैसी शिक्षा को सच्ची शिक्षा मानता है जिसमें प्रेम से घृणा को, सत्य से असत्य को तथा कष्ट सहन से हिंसा को जीतने की शक्ति हो। लेखक की राय में सच्ची शिक्षा का अर्थ अपनी इन्द्रीयों का ठीक-ठीक उपयोग करना आनी चाहिए।
लेखक ऐसी शिक्षा प्रारंभ करने के हिमायती हैं जिसमें तालीम के साथ-साथ उत्पादन करने की क्षमता प्राप्त हो सके।

लेखक ने चरित्र निर्माण को शिक्षा का ध्येय माना है। उनका तर्क है कि इससे साहस, बल, सदाचार तथा आत्मोत्सर्ग की शक्ति का विकास करने में मदद मिलेगी। वह साक्षरता से ज्यादा महत्वपूर्ण है। लेखक का यह भी कहना है कि यदि व्यक्ति चरित्र निर्माण करने में सफल हो जाता है, तो समाज अपना दायित्व स्वयं संभाल लेगा।

संस्कृति संबंधी विषय में उनका तर्क था कि संसार की किसी भाषाओं में, जो ज्ञान का भंडार भरा है, उसे अपनी ही भाषा में प्राप्त करें।
लेखक का यह भी मानना है कि किसी दूसरी संस्कृति को जानने से पहले अपनी संस्कृति का ज्ञान होना आवश्यक है। तभी दूसरों की संस्कृति समझना उचित होगा, क्योंकि हमारी संस्कृति इतनी समृद्ध है कि दुनिया में कोई भी संस्कृति इतनी समृद्ध नहीं है।

देश के भावी संस्कृति के बारे में लेखक का कहना है कि यदि दूसरी संस्कृति का बहिष्कार किया जाता है तो अपनी संस्कृति जिंदा नहीं रह पाती। हमारी संस्कृति की विशेषता है कि हमारे पूर्वज एक-दूसरे के साथ बड़ी आजादी के साथ मिल गए। हमलोग उसी मिलावट की उपज हैं।
लेखक की सलाह है कि साहित्य में रुचि रखने वाले हमारे युवा स्त्री-पुरूष संसार की हर भाषाओं को सिखें तथा अपनी विद्वता का लाभ भारत और संसार को सुबाष चन्द्र बोस तथा रविन्द्र नाथ टैगोर की तरह दें। किंतु अपनी भाषा तथा धर्म का त्याग न करें। हमारी संस्कृति विविध संस्कृतियों के सामंजस्य की प्रतिक है। इसमें प्रत्येक संस्कृति के लिए उचित स्थान सुरक्षित है।

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