कक्षा 12 राजनीतिक विज्ञान अध्‍याय 6 लोकतांत्रिक व्‍यवस्था का संकट | Loktantrik vyavastha ka sankat

अध्‍याय 6
लोकतांत्रिक व्‍यवस्था का संकट

आपातकाल की पृष्‍ठभूमि

इंदिरा गाँधी एक कदावर नेता के रूप में उभरी थीं और उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर थी। इस अवधि में न्‍यायपालिका और सरकार के आपसी रिश्‍तों में भी तनाव आए। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने सरकार की कई पहलकदमियों को संविधान के विरूद्ध माना। कांग्रेस पार्टी का मानना था कि अदालत का यह रवैया लोकतंत्र के सिद्धांतों और संसद की सर्वोच्‍चता के विरूद्ध है। कांग्रेस ने यह आरोप भी लगाया कि अदालत एक यथास्थितिवादी संस्‍था है और यह संस्‍था गरीबों को लाभ पहुँचाने वाले कल्‍याण-कार्यक्रमों को लागू करने की राह में रोड़े अटका रही है।

आर्थिक संदर्भ

1971 के चुनाव में कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। बहरहाल 1971-72 के बाद के सालों में भी देश की सामाजिक-आर्थिक देशों में खास सुधार नहीं हुआ। बांग्‍लादेश के संकट से भारत की अर्थव्‍यवस्‍था पर भारी बोझ पड़ा था। 80 लाख लोग पूर्वी पाकिस्‍तान की सीमा पार करके भारत आ गए थे। इसके बाद पाकिस्‍तान से युद्ध भी करना पड़ा। युद्ध के बाद अमरीका ने भारत को हर तरह की सहायता देना बंद कर दिया। इसी अवधि में अंतर्राष्‍ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना बढ़ोतरी हुई।

औद्योगिक विकास की दर बहुत कम थी और बेरोजगारी बहुत बढ़ गई थी 1972-73 के वर्ष में मानसुन असफल रहा। इससे कृषि की पैदावार में भारी गिरावट आई। खाद्यान्‍न का उत्‍पादन 8 प्रतिशत कम हो गया। आर्थिक स्थिति की बदहाली को लेकर पूरे देश में असंतोष का माहौल था। इस स्थिति में गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने बड़े कारगर तरीके से जन-विरोध की अगुवाई की। संसदीय राजनीति में विश्‍वास न रखने वाले कुछ मार्क्सवादी समूहों की सक्रियता भी इस अ‍वधि में बढ़ी। इन समूहों ने मौजूदा राजनीतिक प्रणाली और पूँजीवादी व्‍यवस्था को खत्‍म करने के लिए हथियार उठाया तथा राज्‍यविरोधी तकनीकों का सहारा लिया। ये समूह मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी (अब माओवादी) अथवा नक्सलवादी के नाम से जाने गए। ऐसे समूह पश्चिम बंगाल में सबसे ज्‍यादा सक्रिय थे।

गुजरात और बिहार के आंदोलन

गुजरात और बिहार दोनों ही राज्‍यों में कांग्रेस की सरकार थी। यहाँ के छात्र-आंदोलन ने इन दोनों प्रदेशों की राजनीति पर गहरा असर डाला। 1974 के जनवरी माह में गुजरात के छात्रों ने खाद्यान्‍न, खाद्य तेल तथा अन्‍य आवश्‍यक वस्‍तुओं की बढ़ती हुई कीमत तथा उच्‍च पदों पर जारी भ्रष्‍टाचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। ऐसे में गुजरात में राष्‍ट्रपति शासन लगा दिया गया। कांग्रेस (ओ) के प्रमुख नेता मोरारजी देसाई ने कहा कि अगर राज्‍य में नए सिरे से चुनाव नहीं करवाए गए तो मैं अनिश्चितकाली भूख-हड़ताल पर बैठ जाऊँगा। मोरारजी देसाई अपने कांग्रेस के दिनों में इंदिरा गाँधी के मुख्य विरोधी रहे थे। विपक्षी दलों द्वारा समर्थित छात्र-आंदोलन के गहरे दबाव में 1975 के जून में विधानसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस इस चुनाव में हार गई।

1974 के मार्च माह में बढ़ती हुई कीमतों, खाद्यान्‍न के अभाव, बेरोजगारी और भ्रष्‍ट्राचार के खिलाफ बिहार में छात्रों ने आंदोलन छेड़ दिया। छात्रों ने अपने अगुवाई के लिए जयप्रकाश नारायण को बुलावा भेजा था। जेपी ने छात्रों का निमंत्रण इस शर्त पर स्वीकार किया कि आंदोलन अहिंसक रहेगा और अपने को सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रखेगा। जयप्रकाश नारायन ने बिहार की कांग्रेस सरकार को बर्खास्‍त करने की माँग की। उन्‍होंने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दायरे में ‘सम्‍पूर्ण क्रांति’ का आव्‍हान किया ताकि उन्‍हीं के शब्‍दों में ‘सच्‍चे लोकतंत्र’ की स्‍थापना की जा सके। बिहार की सरकार के खिलाफ लगातार घेराव, बंद और हड़ताल का सिलसिला चल पड़ा। बहरहाल, सरकार ने इस्‍तीफा देने से इनकार कर दिया।

जयप्रकाश नारायण के नेतृत्‍व में चल रहे आंदोलन के साथ ही साथ रेलवे के कर्मचारियों ने भी एक राष्‍ट्रव्‍यापी हड़ताल का आव्‍हान किया।

नक्‍सलवादी आंदोलन

1975 में जेपी ने जनता के ‘संसद-मार्च’ का नेतृत्‍व किया। देश की राजधानी में अब तब इतनी बड़ी रैली नहीं हुई थी। जयप्रकाश नारायण को अब भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्‍ट पार्टी जैसे गैर-कांग्रेस दलों का समर्थन मिला। गुजरात और बिहार, दोनों ही राज्‍यों के आंदोलन को कांग्रेस विरोधी आंदोलन माना गया।

न्‍यायपालिका से संघर्ष

इस क्रम में तीन संवैधानिक म‍सले उठे थे: क्या संसद मौलिक अधिकारों में कटौती कर सकती है? सर्वोच्‍च न्‍यायालय का जवाब था कि संसद ऐसा नहीं कर सकती। दुसरा यह कि क्‍या संसद  संविधान में संशोधन करके संपत्ति के अधिकार में काट-छाँट कर सकती है? इस मसले पर भी सर्वोच्‍च न्यायालय का यही कहना था कि सरकार, संविधान में इस तरह संशोधन नहीं कर सक‍ती कि अधिकारों की कटौती हो जाए। तीसरे, संसद ने यह कहते हुए संविधान में संशोधन किया कि वह नीति-निर्देशक सिद्धांतों को प्रभावकारी बनाने के लिए मौलिक अधिकारों में कमी कर सकती है, लेकिन सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने इस प्रावधान को भी निरस्‍त कर दिया। इससे सरकार और न्‍यायपालिका के बीच संबंधों में तनाव आया।

1973 में केशवादनंद भारती के मुकदमे में सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा फैसला सुनाने के तुरंत बाद भारत के मुख्‍य न्‍यायाधीश का पद खाली हुआ। सर्वोच्‍च न्‍यायालय के सबसे वरिष्‍ठ न्‍यायाधीश को भारत का मुख्य न्‍यायाधीश बनाने की परिपाटी चली आ रही थी, लेकिन 1973 में सरकार ने तीन वरिष्‍ठ न्‍यायाधीशों की अनदेखी करके न्‍यायमूर्ति ए.एन. रे को मुख्‍य न्‍यायाधीश नियुक्‍त किया।

आपा‍तकाल की घोषणा

12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद उच्‍च न्यायालय के न्‍यायाधीश जगमोहन लाल सिंहा ने एक फैसला सुनाया। इस फैसले में उन्‍होंने लोकसभा के लिए इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैधानिक करार दिया। न्‍यामूर्ति ने यह फैसला समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा दायर एक चुनाव याचिका के मामले में सुनाया था। राजनारायण, इंदिरा गाँधी के खिलाफ 1971 में बतौर उम्‍मीदवार चुनाव में खड़े हुए थे। याचिका में इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को चुनौती देते हुए तर्क दिया गया था कि उन्‍होंने चुनाव-प्रचार में सरकारी कर्मचारियों की सेवाओं का इस्‍तेमाल किया था। उच्‍च न्‍यायालय के इस फैसले का मतलब यह था कि कानूनन अब इंदिरा गाँधी सांसद नहीं रहीं और अगर अगले छह महीने की अवधि में दोबारा सांसद निर्वाचित नहीं होतीं, तो प्रधानमंत्री के पद पर कायम नहीं रह स‍कतीं।24 जुन 1975 को सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने उच्‍च न्‍यायालय के इस फैसले पर आंशिक स्‍थगनादेश सुनाते हुए कहा कि जब तक इस फैसले को लेकर की गई अपील की सुनवाई नहीं होती तब तक इंदिरा गाँधी सांसद बनी रहेंगी; लेकिन वे लोकसभा की कार्रवाई में भाग नहीं ले सकती हैं। 

संकट और सरकार का फैसला

एक बड़े राजनीतिक संघर्ष के लिए अब मैदान तैयार हो चुका था। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में विपक्षी दलों ने इंदिरा गाँधी के इस्तीफा के लिए दबाव डाला। इन दलों ने 25 जून 1975 को दिल्‍ली के रामलीला मैदान में एक विशाल प्रदर्शण किया। जेपी ने सेना, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों का आव्‍हान किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें।

सरकार ने इन घटनाओं के मदेनजर जवाब में’आपातकाल’ की घोषणा कर दी। 25 जून 1975 के दिन सरकार ने घोषणा की कि देश में गड़बड़ी की आशंका है और इस तर्क के साथ उसने संविधान के अनुच्‍छेद 352 को लागू कर दिया। इस अनुच्‍छेद के अंतर्गत प्रावधान किया गया है कि बाहरी अथवा अंदरूनी गड़बड़ी  की आशंका होने पर सरकार आपातकाल लागू कर सकती है।

25 जून 1975 की रात में प्रधानमंत्री ने राष्‍ट्रपति फखरूदीन अली अहमद से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की। राष्‍ट्रपति ने तुरंत यह उद्घोषणा कर दी। आधी रात के बाद सभी बड़े अखबारों के दफ्तर की बिजली काट दी गई। तड़के सबेरे बड़े पैमाने पर विपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई।

परिणाम

सरकाल के इस फैसले से विरोध-आंदोलन एकबारगी रूक गया; हड़तालों पर रोक लगा दी गई। अनेक विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचारपत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना जरूरी है। इसे प्रेस सेंसरशिप के नाम से जाना जाता है। सामाजिक और सांप्रदायिक गड़बड़ी की आशंका के मदेनजर सरकार ने राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ (आरएसएस) और जमात-ए-इस्‍लामी पर प्रतिबंध लगा दिया। धरना, प्रदर्शन और हड़ताल की भी अनुमति नहीं थी।

सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्‍तेमाल किया। इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार इ‍सलिए नहीं किया जाता कि उन्‍होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को इस आशंका सके गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तारी किया गया। वे बंदी प्रत्‍यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे स‍कते थे।

‘इंडियन एक्‍सप्रेस’ और ‘स्‍टेट्समैन’ जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया। इंदिरा गाँधी के मामले में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के फैसले की पृष्‍ठभूमि में संविधान में संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, राष्‍ट्रपति और उपराष्‍ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौ‍ती नहीं दी जा सकती। आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वाँ संशोधन पारित हुआ। देश की विधायिका के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 साल करना।

आपातकाल के संदर्भ में विवाद

आपा‍तकाल भारतीय राजनीति का सर्वाधिक विवादास्‍पद प्रकरण है। शाह आयोग ने अपनी जाँच में पाया कि इस अवधि में बहुत सारी ‘अति’ हुई।

क्‍या ‘आपातकाल’ जरूरी थी?

आपा‍तकाल की घोषणा के कारण का उल्‍लेख करते हुए संविधान में बड़े सादे ढंग से ‘अंदरूनी गड़बड़ी’ जैसे शब्‍द का व्‍यवहार किया गया है। 1975 से पहले कभी भी ‘अंदरूनी गड़बड़ी’ को आधार बनाकर आपातकाल की घोषणा नही की गई थी। सरकार का मानना था कि बार-बार का धरना-प्रदर्शन और सामूहिक कार्रवाई लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।

सीपीआई (इसने आपातकाल के दौरान कांग्रेस को समर्थन देना जारी रखा था) का विश्‍वास था कि भारत की एकता के विरूद्ध अंतर्राष्‍ट्रीय साजिश की जा रही है। आपातकाल के बाद सीपीआई ने महसूस किया कि उसका मूल्‍यांकन गलत था और आपातकाल का समर्थन करना एक गलती थी।

दूसरी तरफ, आपातकाल के आलोचकों का तर्क था कि आजादी के आंदोलन से लेकर लगातार भारत में जन आंदोलन का एक सिलसिला रहा है। जेपी सहित विपक्ष के अन्‍य नेताओं का खयाल था कि लोकतंत्र में लोगों को सार्वजनिक तौर पर सरकार के विरोध का अधिकार होना चाहिए। बिहार और गुजरात में चले विरोध-आंदोलन ज्‍यादातर समय अहिंसक और शांतिपूर्ण रहे। देश के अंदरूनी मामलों की देख-रेख का जिम्‍मा गृह मंत्रालय का होता है। गृह मंत्रालय ने भी कानून व्‍यवस्‍था की बाबत कोई चिंता नहीं जतायी थी। आंदोलन अपनी हद से बाहर जा रहे थे, तो सरकार के पास अपनी रोजमर्रा की अमल में आने वाली इतनी शक्तियाँ थीं कि वह ऐसे आंदोलनों को हद में ला सकती थी। लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को ठप्‍प करके ‘आपातकाल’ लागू करने जैसे अतिचारी कदम उठाने की जरूरत कतई न थी।

आपातकाल के दौरान क्‍या-क्‍या हुआ?

सरकार ने कहा कि वह आपातकाल के जरिए कानून व्‍यवस्‍था को बहाल करना चाहती थी, कार्यकुशलता बढ़ाना चाहती थी और गरीबों के हित के कार्यक्रम लागू करना चाहती थी। इस उदेश्‍य से सरकार ने एक बीस-सूत्रीकार्यक्रम की घोषणा की और इसे लागू करने का अपना दृढ़ संकल्‍प दोहराया। सीब-सूत्री कार्यक्रम में भूमि-सुधार, भू-पुनर्वितरण, खेतिहर मजदूरों के पारिश्रमिक पर पुनर्विचार, प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति, आदि मसले शामिल थे। गरीब और ग्रामीण जनता को भी उम्‍मीद थी कि सरकारी कर्मचारीयों पर अनुशासन लागू करने के वायदे कर रही है, उन्‍हें अब कारगर तरीके से लागू किया जाएगा।

आपातकाल के आलोचकों ने ध्‍यान दिलाया है कि सरकार के ज्‍यादातर वायदे पूरे नहीं हुए। आलोचकों ने निवारक नजरबंदी के बड़े पैमाने के इस्‍तमाल पर भी सवाल उठाए। कुल 676 नेताओं की गिरफ्तारी हुई थी। शाह आयोग का आकलन था कि निवारक जनरबंदी के कानूनों के तहत लगभग एक लाख ग्‍यारह हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। प्रेस पर कई तरह की पाबंदी लगाई गई। इसमें कई पाबंदियाँ गैरकानूनी थीं। आपातकाल के दौरान पुलिस हिरासत में मौत और यातना की घटनाएँ घटीं। गरीब लोगों के मनमाने ढंग से एक जगह से उजाड़कर दूसरी जगह बसाने की भी घटनाएँ हुईं। जनसंख्‍या नियंत्रण के अति उत्‍साह में लोगों को अनिवार्य रूप से नसबंदी के लिए मजबूर किया गया।

आपातकाल के सबक

आपातकाल से एकबारगी भारतीय लोकतंत्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हो गईं।

दूसरे, आपा‍काल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्‍हें बाद में सुधार लिया गया। अब ‘अंदरूनी’ आपातकाल सिर्फ ‘सशस्‍त्र विद्रोह’ की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए यह भी जरूरी है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिमंडल राष्‍ट्रपति को लिखित में दे।

आपा‍तकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्‍यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई। आपातकाल के बाद नागरिक अधिकारों के कई संगठन वजूद में आए।

आपातकाल के बाद की राजनीति

जैसे ही आपातकाल खत्‍म हुआ और लोकसभा के चुनावों की घोषणा हुई, वैसे ही आपातकाल का सबसे जरूरी और कीमती सबक राजव्‍यवस्‍था ने सीख लिया। 1977 के चुनाव एक तरह से आपातकाल के अनुभवों के बारे में जनमत-संग्रह थे। विपक्ष ने ‘लोकतंत्र बचाओं’ के नारे पर चुनाव लड़ा। जनादेश निर्णायक तौर पर आपातकाल के विरूद्ध था।

लोकसभा के चुनाव-1977

18 महीने के आपातकाल के बाद 1977 के जनवरी माह में सरकार ने चुनाव कराने का फैसला किया। इसी के मुताबिक सभी नेताओं‍ और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल से रिहा कर दिया गया। 1977 के मार्च में चुनाव हुए। ऐसे में विपक्ष को चुनावी तैयारी का बड़ा कम समय मिला, लेकिन राजनीतिक बदलाव की गति बड़ी तेज थी। चुनाव के ऐन पहले इन पार्टियों न एकजुट होकर जनता पार्टी नाम से एक नया दल बनाया। नयी पार्टी ने जयप्रकाश नारायण का नेतृत्‍व स्‍वीकार किया। कांग्रेस के कुछ अन्‍य नेताओं ने जगजीवन राम के नेतृत्‍व में एक नयी पार्टी बनाई। इस पार्टी का नाम ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ था और बाद में यह पार्टी भी जनता पार्टी में शामिल हो गई।

हजारों लोगों की गिरफ्तारी और प्रेस की सेंसरशिप की पृष्‍टभूमि में जनमत कांग्रेस के विरूद्ध था। जनता पार्टी के गठन के कारण यह भी सुनिश्चित हो गया कि गैर-कांग्रेसी पार्टी वोट एक ही जगह पड़ेंगी। बात बिलकुल साफ थी कि कांग्रेस के लिए अब बड़ी मुश्किल आ पड़ी थी।

जनता सरकार

1977 के चुनावों के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार में कोई खास तालमेल नहीं था। चुनाव के बाद नेताओं के बीच प्रधानमंत्री के पद के लिए होड़ में मोररजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम शामिल थे। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। जनता पार्टी के पास किसी दिशा, नेतृत्‍व अथवा एक साझे कार्यक्रम का अभाव था। जनता पार्टी की सरकार कांग्रेस द्वारा अपनाई गई नीतियों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं ला सकी। जनता पार्टी बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्‍व वाली सरकार ने 18 माह में ही अपना बहुमत खो दिया। कांग्रेस पार्टी ने समर्थन पर दूसरी सरकार चरण सिंह के नेतृत्‍व में बनी। लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लेने का फैसला किया। इस वजह से चरणस सिंह की सरकार मात्र चार महीने तक सत्ता में रही।

1980 के जनवरी में लोकसभा के लिए नए सिरे से चुनाव हुए। इस चुनाव में जनता पार्टी बुरी तरह परास्त हुई। 1977 के चुनाव में उत्तर भारत में इस पार्टी को जबरदस्‍त सफलता मिली थी। इंदिरा गाँधी के नेतृत्‍व में कांग्रेस पार्टी ने 1980 के चुनाव में एक बार फिर 1971 के चुनावों वाली कहानी दुहराते हुए भारी सफलता हासिल की। कांग्रेस पार्टी को 353 सीटें मिलीं और वह सत्ता में आई।

विरासत

1969 से पहले तक कांग्रेस विविध विचारधारात्‍मक गतिमति के नेताओं और कार्यकर्ताओं को एक में समेटकर चलती थी। अपने बदले हुए स्‍वभाव में कांग्रेस ने स्‍वयं को विशेष विचारधारा से जोड़ा। उसने अपने को देश की एकमात्र समाजवादी और गरीबों की हिमायती पार्टी मताना शुरू किया। आपातकाल और इसके आसपास की अवधि को हम संवैधानिक संकट की अवधि के रूप में भी देख सकते हैं। संसद और न्‍यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को लेकर छिड़ा संवैधानिक संघर्ष भी आपा‍तकाल के मूल में था।

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