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10. Upniveshvad or dehat | उपनिवेशवाद और देहात

November 17, 2021 by Tabrej Alam Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 12 इतिहास का पाठ दस उपनिवेशवाद और देहात (Upniveshvad or dehat) के सभी टॉपिकों के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगें, जो परीक्षा की दृष्टि से महत्‍वपूर्ण है। इस पाठ को पढ़ने के बाद इससे संबंधित एक भी प्रश्‍न नहीं छूटेगा।

तिसरी किताब
10. उपनिवेशवाद और देहात

इस्तमरारी बंदोबस्त
1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त लागू कर दिया था।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी।
यह राशि प्रत्येक जमींदार को अदा करनी होती थीं।
अगर जमीदार अपनी निश्चित राशि नहीं चुका पाता। तो उससे राजस्व वसूल करने के लिए उसकी संपदा को नीलाम कर दिया जाता था।

बंगाल और वहां के जमींदार
सबसे पहले औपनिवेशिक शासन बंगाल में स्थापित किया गया था।
ईस्ट इंडिया कम्पनी व्यापार के लिए बंगाल में स्थापित की गई थी।
बंगाल में सबसे पहले ग्रामीण समाज को पुनर्व्यवस्थित किया गया तथा यहां भूमि संबंधी अधिकारों की नई व्यवस्था लागू की गई।
यहां एक नई राजस्व प्रणाली स्थापित करने का प्रयत्न किया गया।
Class 12th History Chapter 10 Upniveshvad or dehat Notes
बर्दवान में की गई एक नीलामी की घटना
1797 में बर्धवान में एक नीलामी की गई।
यह एक बड़ी सार्वजनिक घटना थी।
बर्दवान के राजा की भू-संपदाए बेची जा रही थी।
राजा- इस शब्‍द का इस्‍तेमाल शक्तिशाली जमींदारों के लिए किया जाता था।
बर्दवान के राजा ने राजस्व की राशि नहीं चुकाई थी।
इसलिए उनकी संपत्तियों को नीलाम किया जा रहा था।
नीलामी में बोली लगाने के लिए अनेक खरीदार आए थे और संपदा सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच दी गई।
लेकिन कलेक्टर को तुरंत ही इस सारी कहानी में एक अजीब पेंच दिखाई दिया।
ज्यादातर खरीदार राजा के अपने ही नौकर या एजेंट थे।
उन्होंने राजा की ओर से जमीन को खरीदा था।
नीलामी में 95% से अधिक फर्जी बिक्री थी
Class 12th History Chapter 10 Upniveshvad or dehat Notes
राजस्व अदा करने में आने वाली समस्याएं
अकेले बर्दवान राज के जमीनें ही ऐसी संपदाएं नहीं थी। जो 18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में बेची गई थी।
इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने के बाद लगभग 75% से अधिक जमींदारीयां हस्तांतरित कर दी गई थी।
अंग्रेज अधिकारी यह आशा कर रहे थे कि इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने के बाद वह सभी समस्याएं हल हो जाएंगी।
जो बंगाल की विजय के समय उनके सामने उपस्थित थी।
1770 के दशक तक आते-आते बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजरने लगी थी।
ऐसा बार-बार अकाल पड़ने के कारण हो रहा था।
खेती की पैदावार घट रही थी।
अधिकारी लोग ऐसा सोचते थे कि खेती व्यापार और राज्य के राजस्व संसाधन तभी विकसित किए जा सकेंगे। जब कृषि में निवेश को प्रोत्साहन दिया जाएगा।
ऐसा तभी किया जा सकेगा जब संपत्ति के अधिकार प्राप्त कर लिए जाएंगे।
और राजस्व की मांग की दरों को स्थाई रूप से तय किया जाएगा।
यदि राजस्व की मांग स्थाई रूप से निर्धारित कर दी गई तो कंपनी को नियमित राजस्व प्राप्त होगा।
अधिकारियों को ऐसा लग रहा था कि इस प्रक्रिया से छोटे किसान और धनी भू-स्वामियों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो जाएगा।
जिसके पास खेती में सुधार करने के लिए पूंजी भी होगी और उद्यम भी होगा।
ब्रिटिश शासन के पालन पोषण और प्रोत्साहन पाकर यह वर्ग कंपनी के प्रति वफादार भी रहेगा।
अब समस्या यह है कि कौन से व्यक्ति हैं जो कृषि सुधार करने के साथ-साथ राज्य को निर्धारित राजस्व अदा करने का ठेका ले सकेंगे।
कंपनी के अधिकारियों के बीच लंबा वाद विवाद चला इसके बाद यह फैसला लिया गया कि बंगाल के राजा और तालुकदार के साथ इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किया जाएगा।
अब उन्हें जमीदारों के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा।
उन्हें सदा के लिए एक निर्धारित राजस्व मांग को अदा करना था।
इस प्रकार जमीदार गांव में भूस्वामी नहीं था। बल्कि वह राज्य का संग्राहक था।
जमीदारों के नीचे अनेक गांव होते थे।
कभी-कभी जमीदारों के नीचे 400 तक गांव होते थे।
जमीदारों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह कंपनी को नियमित रूप से राजस्व राशि अदा करेगा।
यदि वह ऐसा करने में असफल हुआ तो उसकी संपदा को नीलाम कर दिया जाएगा।
Class 12th History Chapter 10 Upniveshvad or dehat Notes
राजस्व के भुगतान में जमींदार चूक क्यों करते थे ?
कंपनी को ऐसा लग रहा था की राजस्व की दर निश्चित करने से कंपनी को निश्चित आय प्राप्त होने लग जाएगी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
जमींदार अपनी राजस्व मांग को अदा करने में बराबर कोताही करते रहे।
जिससे उनकी बकाया रकम बढ़ती गई।

इसके पीछे कई कारण थे—
प्रारंभिक मांगे बहुत ऊंची थी।
यह ऊंची मांग 1790 के दशक में लागू की गई थी।
जब कृषि की उपज की कीमत बहुत कम थी।
जिससे किसानों के लिए जमींदार को उनकी राशि चुकाना मुश्किल था।
जब जमींदार को किसान राजस्व देगा ही नहीं तो जमींदार आगे कंपनी को राजस्व कैसे दे सकता था।
राजस्व निर्धारित था फसल अच्छी हो या खराब राजस्व ठीक समय पर देना जरूरी था।
सूर्यास्त विधि कानून के अनुसार निश्चित तारीख को सूर्य अस्त होने से पहले भुगतान जरूरी था।
इस्बंतमरारी बंदोबस्त ने जमींदार की शक्ति को किसान से राजस्व इकट्ठा करने और अपनी जमींदारी का प्रबंध करने तक ही सीमित कर दिया था।
कंपनी जमीदारों को नियंत्रित रखना चाहती थी उनकी स्वायत्तता को सीमित करना चाहती थी।
जमींदार की सैन्य टुकड़ियों को भी भंग कर दिया।
उनकी कचहरी को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर की देखरेख में रख दिया गया।
जमीदारों से स्थानीय न्याय और स्थानीय पुलिस की व्यवस्था करने की शक्ति छीन ली गई।
जमींदारों के अधिकार पूरी तरीके से सीमित कर दिए गए।
राजस्व इकट्ठा करने के समय जमींदार का एक अधिकारी जिसे अमला कहा जाता था।
वह गांव में आता था लेकिन राजस्व संग्रहण में कई समस्याएं आती थी।
कभी कभी खराब फसल और नीची कीमतों के कारण किसान के लिए राजस्व की राशि चुका पाना बहुत कठिन हो जाता था।
कभी-कभी किसान जान बूझकर भुगतान में देरी करते थे।
धनवान किसान और गांव के मुखिया-जोतदार और मंडल – जमीदार को परेशानी में देखकर बहुत खुश होते थे।क्योंकि जमींदार आसानी से उन पर अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकता था।
जमींदार बाकीदारों पर मुकदमा तो चला सकता था।
लेकिन कानूनी प्रक्रिया लंबी होती थी।
1798 में बर्दवान जिले में ही राजस्व भुगतान के लगभग 30,000 से अधिक मामले लंबित थे।
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जोतदारो का उदय
अठारहवीं शताब्दी के अंत में जहां एक तरफ जमींदार संकट की स्थिति से गुजर रहे थे।
वहीं दूसरी तरफ कुछ धनी किसानों के समूह गांव में अपने स्थिति मजबूत कर रहे थे।
इन्हें जोतदार कहा जाता था।
फ्रांसिस बुकानन ने जब उत्तरी बंगाल के दिनाजपुर जिले का सर्वेक्षण किया।
तब उसने धनी किसानों के इस वर्ग (जोतदार) के बारे में विवरण लिखा।
19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक जोतदार ने जमीन के बड़े-बड़े हिस्सों पर कभी-कभी तो कई हजार एकड़ में फैली जमीन अर्जित कर ली थी।
स्थानीय व्यापार और साहूकार के कारोबार पर भी जोतदार का नियंत्रण था।
जोतदारों द्वारा गरीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग किया जाता था।
इनकी जमीन का बड़ा हिस्सा बटाईदारों के माध्यम से जोता जाता था।
जो खुद अपने हल लाते, मेहनत करते और फसल के बाद उपज का आधा हिस्सा जोतदारों को दे देते थे।
गांव में जोतदारों की शक्ति जमीदारों की ताकत की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती थी।
जमींदार शहरी इलाकों में रहते थे लेकिन जोतदार गांव में ही रहते थे।
जोतदार का नियंत्रण ग्रामवासियों के काफी बड़े हिस्से पर था।
जमींदार द्वारा गांव की लगान को बढ़ाने के लिए किए जाने वाले प्रयास को वह विरोध करते थे।
जमीदारों को अपने कर्तव्य के पालन से भी रोकते थे।
जो किसान जोतदारों पर निर्भर थे उन्हें वे अपने पक्ष में एकजुट रहते थे।
जोतदार किसानों को जानबूझकर राजस्व ना जमा करने या देरी करने को कहते थे।
क्योंकि राजस्व का समय पर भुगतान ना करने से जमींदार के जमींदारी नीलाम की जाती थी।
ऐसे में जोतदार उन जमीनों को खुद खरीद लेते थे।
उत्तरी बंगाल में जोतदार सबसे अधिक शक्तिशाली थे।
धनी किसान और गांव के मुखिया लोग भी बंगाल के अन्य भागों में प्रभावशाली बन कर उभरे।
कुछ जगह पर इनको हवलदार कुछ स्थान पर गान्टीदार या मंडल कहा जाता था।
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जमींदार की ओर से प्रतिरोध
जमीदार किस प्रकार से अपने जमीदारी को नीलाम होने से बचाते थे ?
फर्जी बिक्री एक ऐसी तरकीब थी जिसे जमींदार अपनी जमींदारी बचा लेते थे।
उदाहरण – बर्दवान के राजा ने पहले तो अपनी जमींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता को दे दिया क्योंकि कंपनी स्त्रियों की संपत्ति को नहीं छीनती थी।
उसके बाद जमींदार की संपत्ति के नीलामी के समय अपने ही आदमियों से ऊंची बोली लगवा कर संपत्ति को खरीद लिया।
आगे चलकर उन्होंने खरीद की राशि देने से इनकार कर दिया।
फिर उनकी भू संपदा को दोबारा बेचना पड़ा।
एक बार फिर से जमींदार के एजेंटों ने जमीन खरीद लिया और पैसे देने से इनकार कर दिया।
एक बार फिर नीलामी करनी पड़ी।
जब बार-बार यही प्रक्रिया दोहराई गई तो ऐसे में किसी ने बोली नहीं लगाई।
अंत में कम दाम में जमींदार को ही बेचना पड़ा।
जब कोई बाहरी व्यक्ति नीलामी में कोई जमीन खरीद लेता था।
तब उन्हें हर मामले में उसका कब्जा नहीं मिलता था।
कभी-कभी तो पुराने जमींदार के लठयाल नए खरीदार के लोगों को मारपीट कर भगा देते थे।
पुराने रैयत बाहरी लोगों को जमीन में घुसने ही नहीं देते थे।
क्योंकि वह अपने आपको पुराने जमींदा से जुड़ा महसूस करते थे।
उसके प्रति वफादार रहते थे।
Class 12th History Chapter 10 Upniveshvad or dehat Notes
पांचवी रिपोर्ट
1813 में ब्रिटिश संसद में एक रिपोर्ट पेश की गई।
इस रिपोर्ट में भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन तथा क्रियाकलाप के विषय में जानकारी थी।
यह उन रिपोर्टों में से पांचवी रिपोर्ट थी।
जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन के बारे में थी।
अक्सर इसे पांचवी रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।
यह रिपोर्ट 1002 पन्नों की थी।
जिनमें जमीदार और रैयत की अर्जियां, अलग-अलग जिलों के कलेक्टर की रिपोर्ट, राजस्व विवरण से संबंधित सांख्यिकी तालिका और अधिकारियों द्वारा बंगाल और मद्रास के राजस्व तथा न्यायिक प्रशासन पर लिखित टिप्पणियां आदि शामिल की गई थी।
कंपनी ने 1760 के दशक के मध्य में जब से बंगाल में अपने आपको स्थापित किया था।
तभी से इंग्लैंड में उसके क्रियाकलापों पर बारीकी से नजर रखी जाने लगी थी।
उस पर चर्चा की जाती थी।
ब्रिटेन में ऐसे बहुत से समूह है जो भारत तथा चीन के साथ व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार का विरोध करते थे।
क्योंकि वहां निजी व्यापारियों की संख्या बढ़ती जा रही थी जो भारत के साथ होने वाले व्यापार में हिस्सा लेना चाहते थे।
क्योंकि ब्रिटेन के उद्योगपति, ब्रिटिश विनिर्माताओं के लिए भारत का बाजार खुलवाने के लिए उत्सुक थे।
कई राजनीतिक समूह का यह कहना था कि बंगाल पर मिली विजय का लाभ केवल ईस्ट इंडिया कंपनी को मिल रहा है पूरे ब्रिटेन को नहीं।
कंपनी के कुशासन और अव्यवस्थित प्रशासन के विषय में प्राप्त सूचना पर ब्रिटेन में बहस छिड़ गई।
कंपनी के अधिकारियों के लालच और भ्रष्टाचार की घटनाओं को ब्रिटेन के समाचार पत्रों में छापा जाता था।
इसके बाद ब्रिटिश संसद ने भारत में कंपनी के शासन को नियंत्रित करने के लिए 18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में कई अधिनियम पारित किए।
कंपनी को मजबूर किया गया कि वह भारत के प्रशासन के विषय में नियमित रूप से अपनी सारी रिपोर्ट भेजा करें।
और कंपनी के कामकाज की जांच करने के लिए कई समितियां भी बनाई गई।
पांचवी रिपोर्ट एक ऐसी ही रिपोर्ट है जो एक प्रवर समिति द्वारा तैयार की गई थी।
यह रिपोर्ट भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन के स्वरूप पर ब्रिटिश संसद में गंभीर बाद विवाद का आधार बनी।
पांचवी रिपोर्ट में उपलब्ध साक्ष्य बहुमूल्य है।
लेकिन फिर भी इस रिपोर्ट पर पूरा भरोसा नहीं किया जाना चाहिए।
क्योंकि यह जानना जरूरी है कि रिपोर्ट किसने और किस उद्देश्य से लिखे।
पांचवी रिपोर्ट लिखने वाले कंपनी के कुप्रशासन की आलोचना करने पर तुले हुए थे।
जमींदारी नीलाम होना, जमींदारी बचाने के लिए नए-नए हथकंडे अपनाना।
यह सभी बातें इस रिपोर्ट में थी.
Class 12th History Chapter 10 Upniveshvad or dehat Notes
कुदाल और हल
19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया था।
बुकानन ने इन पहाड़ियों को अभेद् बताया।
उसके अनुसार यह एक खतरनाक इलाका था।
यहां बहुत कम यात्री जाने की हिम्मत करते थे।
बुकानन जहां भी गया वहां उसके निवासियों के व्यवहार को शत्रुता पूर्ण पाया।
यह लोग कंपनी के अधिकारियों के प्रति आशंकित रहते थे।
और उनसे बातचीत करने को तैयार नहीं थे।
बुकानन जहां भी जाता वहां के बारे में अपनी डायरी में लिखता था।
जहां जहां उसने भ्रमण किया।
वहां के लोगों से मुलाकात की उनके रीति-रिवाज को देखा था।
राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहने वाले लोग पहाड़ी कहलाते थे।
यह जंगल की उपज से अपनी गुजर बसर करते थे।
पहाड़ी लोग झूम खेती करते थे।
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झूम खेती
यह जंगल के छोटे से हिस्से में झाड़ियों को काटकर और घास- फूस को जलाकर जमीन साफ कर लेते थे।
राख पोटाश से उपजाऊ बनी जमीन पर यह लोग तरह – तरह की दालें और ज्वार, बाजरा उगा लेते थे।
यह अपने कुदाल से जमीन को थोड़ा खुर्च लेते थे।
कुछ वर्षों तक उस जमीन पर खेती करते थे।
फिर उसे कुछ वर्षों के लिए परती छोड़कर नए इलाके में चले जाते थे।
जिससे यह जमीन अपनी खोई हुई उर्वरता दुबारा प्राप्त कर लेती थी।
उन जंगलों से पहाड़ी लोग खाने के लिए महुआ के फूल इकट्ठे करते थे।
बेचने के लिए रेशम के कोया (रेशम के कीड़े का कोश या घर) और राल (जंगलों में पाया जानेवाला एक प्रकार का सदाबहार पेड़) और काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियां इकट्ठी करते थे।
हरी घास वाला इलाका पशुओं के लिए चारागाह बन जाता था।
शिकार करने वाले, झूम खेती करने वाले, खाद्य बटोरने वाले, काठकोयला बनाने वाले, रेशम के कीड़े पालने वाले के रूप में पहाड़ी लोग की जिंदगी जंगल से घनिष्ठ रुप से जुडी थी।
वह इमली के पेड़ों के बीच बनी अपने झोपड़ियों में रहते थे।
आम के पेड़ के छांव में आराम करते थे।
पूरे प्रदेश को यह अपनी निजी भूमि मानते थे।
बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे।
इनके मुखिया समूह में एकता बनाए रखते थे।
आपसी लड़ाई झगड़े को निपटा लेते थे।
अन्य जनजातियों तथा मैदानी लोगों के साथ लड़ाई छिड़ने पर अपनी जनजाति का नेतृत्व करते थे।
यह पहाड़ी लोग अक्सर मैदानी इलाकों पर आक्रमण करते थे।
मैदानी इलाकों में किसान स्थाई कृषि करते थे।
पहाड़ी लोगो द्वारा आक्रमण ज्यादातर अभाव या अकाल के वर्षों में जीवित रखने के लिए किए जाते थे।
तथा यह हमले मैदान में बसे समुदायों को अपनी ताकत दिखाने के लिए भी किए जाते थे।
मैदानी इलाकों में रहने वाले जमींदारों को अक्सर पहाड़ी मुखियाओं को नियमित रूप से खिराज देकर उनसे शांति खरीदनी पड़ती थी।
इसी प्रकार व्यापारी लोग भी पहाड़ियों द्वारा नियंत्रित रास्तों का इस्तेमाल करने की अनुमति प्राप्त करने हेतु उन्हें कुछ पथकर दिया करते थे।
यह कर (tax) लेकर पहाड़ी मुखिया इन व्यापारियों की रक्षा करते थे।
अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में जब स्थाई कृषि के क्षेत्र की सीमा में विस्तार होने लगा था।
अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई सफाई के काम को प्रोत्साहन दिया।

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जमींदारों तथा जोतदारों ने परती भूमि को धान के खेतों में बदल दिया।
खेती के विस्तार से अंग्रेजों को लाभ था क्योंकि उन्हें राजस्व अधिक मिलता था।
वे जंगलों को उजाड़ मानते थे।
और जंगल में रहने वालों को असभ्य, बर्बर, उपद्रवी समझते थे।
जिन पर शासन करना उनके लिए कठिन था।
इसलिए अंग्रेजों ने यह महसूस किया कि जंगलों का सफाया कर के वहां स्थाई कृषि स्थापित करनी होगी और जंगली लोगों को पालतू व सभ्य बनाना होगा।
उनसे शिकार का काम छुड़वाना होगा, खेती का धंधा अपनाने के लिए उन्हें राजी करना होगा।
जैसे-जैसे स्थाई कृषि का विस्तार हुआ।
जंगल तथा चरागाह की जमीन कम होने लगी।
इससे पहाड़ी लोगों तथा स्थाई खेतीहरों के बीच झगड़ा तेज हो गया।
पहाड़ी लोग पहले से अधिक नियमित रूप से बसे हुए गांवों में हमला करने लगे।
गांव वालों के अनाज और पशु छीन झपट कर ले जाने लगे।
अंग्रेजों ने इन पर काबू करने का प्रयास किया परंतु असफल रहे।
1770 के दशक में अंग्रेज अधिकारियों ने पहाड़ी लोगों को मारने तथा इनका संहार करने की क्रूर अपना ली।
1780 के दशक में भागलपुर के कलेक्टर अगस्टस क्वींसलैंड ने शांति स्थापना की। नीति प्रस्तावित की।
इसके अनुसार पहाड़ी मुखिया को वार्षिक भत्ता दिया जाना था।
बदले में उन्हें अपने आदमियों का चाल चलन ठीक करने की जिम्मेदारी लेनी थी।
लेकिन बहुत से पहाड़ी मुखियाओं ने भत्ता लेने से मना कर दिया।
और जिन्होंने भत्ता लिया, वे अपने समुदाय में सत्ता खो बैठे।
जब शांति स्थापना के अभियान चलाए जा रहे थे।
तब पहाड़ी लोग अपने आप को सैन्यबलों से बचाने के लिए और बाहरी लोगों से लड़ाई
चालू रखने के लिए पहाड़ों के भीतरी भाग में चले गए।
इसी कारण जब 1810-11 में बुकानन ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी।
तो यह स्वाभाविक था कि पहाड़िया लोग बुकानन को संदेह और अविश्वास की नजर से देखते।
पहाड़ी लोग अंग्रेजों को एक ऐसी शक्ति के रूप में देखते थे।
जो जंगलों को नष्ट करके उनकी जीवन शैली को बदलना चाहते है।
Class 12th History Chapter 10 Upniveshvad or dehat Notes
पहाडी लोगों के लिए नया खतरा ?
उन्हीं दिनों एक नए खतरे की सूचनाएं मिलने लगी थी।
वह था संथाल लोगों का आगमन।
संथाल लोग वहां के जंगलों का सफाया करते हुए।
इमारती लकड़ी को काटते हुए, जमीन जोतते हुए और चावल तथा कपास उगाते हुए, उस इलाके में बड़ी संख्या से घुसे चले आ रहे थे।
संथाल लोगों ने निचली पहाड़ियों में अपना कब्ज़ा जमा लिया था।
इसलिए पहाड़ी लोगों को राजमहल की पहाड़ियों में और भीतर की ओर पीछे हटना पड़ा।
पहाड़िया लोग अपनी झूम खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे।
इसलिए यदि कुदाल को पहाड़ी जीवन का प्रतीक माना जाए।
तो हल को संथालो का प्रतीक माना जा सकता है।
कुदाल और हल की यह लड़ाई काफी लंबे समय तक चली।
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संथाल
संथालगुंजारिया जो कि राज महल श्रृंखलाओं का एक भाग था।
यहां संथाल लोग 1800 में आए थे।
इन्होंने यहा के जंगलों को काटकर खेती क्षेत्र को बढ़ाया था।
1810 में अंत में बुकानन गुंजारिया इलाके में आया।
उसने देखा कि आसपास की जमीन खेती के लिए अभी-अभी जुताई की गई थी।
वहां के भू-दृश्य को देखकर बुकानन अचंभित रह गया।
बुकानन ने लिखा कि मानव श्रम के समुचित प्रयोग से इस क्षेत्र की तो काया ही पलट गई।
उसने लिखा गूंजरिया में अभी-अभी कॉफी जुताई की गई है।
जिससे यह पता चलता है कि इसे कितने शानदार इलाके में बदला जा सकता है।
मैं सोचता हूं इसकी सुंदरता और समृद्धि विश्व के किसी भी क्षेत्र जैसी विकसित की जा सकती है।
यहां की जमीन चट्टानी है, लेकिन बहुत ही ज्यादा बढ़िया है।
बुकानन ने इतनी बढ़िया तंबाकू और सरसों और कहीं नहीं देखी।
बुकानन ने जब इस जमीन के बारे में पूछा तो उसे पता लगा कि संथाल लोग ने कृषि क्षेत्र की सीमाएं बढ़ाई है।
संथालों के आने से पहाड़ी लोगों को नीचे के ढालों पर भगा दिया, जंगलों का सफाया किया और फिर वहां बस गए।
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संथाल लोग राजमहल की पहाड़ियों में कैसे पहुंचे ?
संथाल 1780 के दशक के आसपास बंगाल में आने लगे थे।
जमींदार लोग खेती के लिए नई भूमि तैयार करने और खेती का विस्तार करने के लिए संथालों को भाड़े पर रखते थे।
ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें जंगल महालों में बसने का निमंत्रण दिया।
क्योंकि अंग्रेजों ने पहाड़ी लोगों को स्थाई कृषि के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास किया था।
जिसमें वह असफल रहे तो उनका ध्यान संथालों की ओर गया।
जहां एक ओर पहाड़ी लोग जंगल काटने के लिए तथा हल को हाथ लगाने के लिए तैयार नहीं थे।
पहाड़ी लोग उपद्रवी व्यवहार करते थे।
वहीं दूसरी तरफ संथाल आदर्श बाशिंदे प्रतीत हुए।
क्योंकि इन्हें जंगलों का सफाया करने में कोई हिचक नहीं थी।
यह लोग हल का प्रयोग भी करते थे।
स्थाई कृषि भी करते थे तथा भूमि को पूरी ताकत लगाकर जोतते थे।
संथालों को जमीन देकर राजमहल की तलहटी में बसने के लिए तैयार कर लिया गया।
1832 तक जमीन के काफी बड़े इलाके को दामिन– इ – कोह के रूप में सीमांकित कर दिया गया।
इसे संथालों की भूमि घोषित कर दिया गया।
संथालों को इस इलाके के भीतर रहना था, हल चलाकर खेती करनी थी और स्थाई किसान बनना था।
संथालों को दी जाने वाली भूमि के अनुदान पत्र में एक शर्त रखी गई थी।
संथालों को दी गई भूमि के कम से कम दसवें भाग को साफ करके पहले 10 वर्षों के भीतर जोतना था।
इस पूरे क्षेत्र का सर्वे किया गया और नक्शा तैयार किया गया।
इसके चारों ओर खंभे गाड़ कर इसकी सीमा निर्धारित कर दी गई।
दामिन–इ-कोह के सीमांकन के बाद संथालों की बस्तियां बड़ी तेजी से बढ़ने लगी।
संथालों के गांव की संख्या जो 1838 में 40 थी।
तेजी से बढ़कर 1851 में 1473 तक पहुंच गई।
इसी अवधि में संथालों की जनसंख्या भी 3000 से बढ़कर 82000 से भी अधिक हो गई।
जैसे-जैसे संथालों की वजह से खेती का विस्तार हुआ।
वैसे- वैसे कंपनी की तिजोरीयों में राजस्व की वृद्धि होने लगी।
जब संथाल राजमहल की पहाड़ियों पर बसे तो पहाड़ी लोगों के जीवन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा।
क्योंकि अब पहाड़ी लोगों को मजबूर होकर पहाड़ियों के भीतर की तरफ जाना पड़ा।
यहां इन्हें उपजाऊ भूमि नहीं मिल पा रही थी।
क्योंकि यह झूम खेती करते थे तो इसके लिए नई जमीन इनके पास नहीं थी।
जिस जमीन पर यह पहले खेती किया करते थे।
वह अब संथालों के हाथ में चली गई थी।

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ऐसे में इनका जीवन बुरी तरीके से प्रभावित हुआ।
और यह झूम खेती को आगे नहीं चला पाए।
पहाड़ी शिकारियों को भी समस्याओं का सामना करना पड़ा।
इसके विपरीत संथालों की जिंदगी पहले से अच्छी हो गई।
क्योंकि वह अपनी खानाबदोश जिंदगी को छोड़ चुके थे और एक जगह बस कर स्थाई कृषि कर रहे थे।
संथाल लोग बाजार के लिए कई तरह के वाणिज्यिक फसलों की खेती करने लगे थे और व्यापारियों तथा साहूकारों के साथ लेनदेन करने लगे थे।
संथालो ने जल्दी ही यह समझ लिया कि उन्होंने जिस भूमि पर खेती करनी शुरू की थी वह उनके हाथों से निकलती जा रही है।
संथालों ने जिस जमीन को साफ करके खेती शुरू की थी।
उस पर सरकार ने भारी कर लगा दिया।
साहूकार लोग भी ऊंची दर पर ब्याज लगा रहे थे।
जब कोई संथाल कर्ज अदा नहीं कर पाता तो ऐसे में उसकी जमीन पर कब्जा हो जाता था।
जमींदार लोग दामिन इलाके पर अपना नियंत्रण का दावा कर रहे थे।
1850 के दशक तक संथाल लोग ऐसा महसूस करने लगे थे।
कि अपने लिए एक आदर्श संसार का निर्माण करने के लिए जहां उनका अपना शासन हो।
जमींदार, साहूकार, औपनिवेशिक राज्य के विरुद्ध विद्रोह का समय आ गया है।
1855- 56 के संथाल विद्रोह के बाद संथाल परगना का निर्माण कर दिया गया।
जिसके लिए 5500 वर्गमील का क्षेत्र भागलपुर और बीरभूम जिलों में से लिया गया।
औपनिवेशिक राज्य को आशा थी कि संथालों के लिए नया परगना बनाने और उनसे कुछ विशेष कानून लागू करने से संथाल लोग संतुष्ट हो जाएंगे। Class 12th History Chapter 10 Upniveshvad or dehat Notes

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