अर्थ-व्यवस्था और आजीविका कक्षा 10 इतिहास – Arthvyavastha aur Ajivika

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के इतिहास (History ) के पाठ 6 (Arthvyavastha aur Ajivika) “अर्थ-व्यवस्था और आजीविका ” के बारे में जानेंगे । इस पाठ में अर्थ-व्यवस्था और आजीविका के बारे में बताया गया है ।

Arthvyavastha aur Ajivika
Arthvyavastha aur Ajivika

5.अर्थ-व्यवस्था और आजीविका (Arthvyavastha aur Ajivika)

अर्थ-व्यवस्था : यह उत्पादन, वितरण और खपत की एक सामाजिक व्यवस्था है।

आजीविका : कोई व्यक्ति जीवन के विभिन्न कालावधियों में जिस क्षेत्र में काम करता है या जो काम करता है, उसी को उसकी आजीविका या वृति या रोजगार कहते हैं।

औद्योगीकरण : औद्योगीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें उत्पादन मशीनों द्वारा कारखानों में होता है।

औद्योगीकरण के कारण

  • आवश्यकता आविष्कार की जननी
  • नये-नये मशीनों का आविष्कार
  • कोयले एवं लोहे की प्रचुरता
  • फैक्ट्री प्रणाली की शुरूआत
  • सस्ते श्रम की उपलब्धता
  • विशाल औपनिवेशक स्थिति

    1969 में रिचर्ड आर्कराइट ने सूत कातने की स्पिनिंग फ्रेम नामक एक मशीन बनाई जो जलशक्ति से चलती थी।  1770 में स्टैंडहील निवासी जेम्स हारग्रीब्ज ने सूत काटने की एक अलग मशीन ’स्पिनिंग जेनी’ बनाई। 1773 में लंकाशायर के जॉन के ने ’फ्लाइंग शट्ल’ का आविष्कार किया, जिसके कारण तेजी से जुलाहे काम करने लगे और धागे की माँग बढ़ गई। 1779 में सैम्यूल काम्पटन ने ’स्पिनिंग म्यूल’ बनाया, जिससे बारीक सूत काता जा सकता था। 1785 में एडमंड कार्टराइट ने वाष्प से चलने वाला ‘पावरलुम’ नामक करघा तैयार किया।1769 में जेम्स वॉट ने वाष्प इंजन बनाया। 1815 में हम्फ्रीडेवी ने खानों में काम करने के लिए ’सेफ्टी लैम्प’ का आविष्कार किया।

मजदूरों की आजीविका

औद्योगीकरण ने मजदूरों को शोषण किया। महिलाओं और बच्चों से भी 18-18 घंटे काम लिए जाते थे। . कारखानों ने मजदूरों को बेरोजगार बना दिया। औद्योगीकरण ने मजदूरों की आजीविका को इस तरह नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था कि उनके पास दैनिक उपभोग के पदार्थों को खरीदने के लिए धन नहीं था। अतः मजदूरों ने आंदोलन का रूख किया। भारत में मजदूरों की स्थिति को सुधारने के लिए 1881 में पहला ’फैक्ट्री एक्ट’ पारित हुआ। इसके द्वारा 7 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखाने में कार्य करने पर प्रतिबंध लगाया गया, 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों के काम का घंटा तय किया गया तथा महिलाओं के भी काम के घंटे तथा मजदूरी को निश्चित किया गया।

औद्योगीकरण का प्रभाव

1. नगरों का विकास। 2. कुटीर उद्योगों का पतन। 3. साम्राज्यवाद का विकास। 4. समाज में वर्ग विभाजन एवं बुजुआ वर्ग का उदय। 5. फैक्ट्री मजदूर वर्ग का जन्म। 6. स्लम पद्धति की शुरूआत।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मजदूरों की आजीविका

  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मजदूरों की आजीविका एवं उनके अधिकारों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने सन् 1948 ई. में न्यूनतम मजदूरी कानून पारित किया, जिसके द्वारा
  • कुछ उद्योगों में मजदूरी की दरें निश्चित की गई। ऽ मजदूरों की स्थिति में सुधार हेतु 1962 में केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय श्रम आयोग
  • स्थापित किया। इसके द्वारा मजदूरों को रोजगार उपब्ध कराया गया तथा उनकी मजदूरी को सुधारने का प्रयास किया गया। इस तरह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने उद्योग में लगे मजदूरों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कई कदम उठाये हैं, चूँकि औद्योगीकरण के दौर में पूँजीपतियों द्वारा उनका शोषण किया जाता था।
  • औद्योगीकरण ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया।

भारत में फैक्ट्रीयों की स्थापना

  • औद्योगीक उत्पादन से भारत में कुटीर उद्योग बन्द हो गये, लेकिन वस्त्र उद्योग के लिए बड़ी-बड़ी फैक्ट्रीयाँ देशी एवं विदेशी पूँजी लगाकर खोली।
  • सर्वप्रथम सूती कपड़े की मिल की नींव 1851 ई. में बम्बई में डाली गई। – 1854 से 1880 तक तीस कारखानों का निर्माण हुआ। – 1895 तक सूती कपड़ों के मिलों की संख्या उनचालिस हो गई। . 1914 तक 144 हो गई।

भारत में फैक्ट्रीयों की स्थापना

  • 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल हुकुम चंद ने स्‍थापित किया।
  • 1907 में जमशेद जी टाटा ने बिहार के साकची नामक स्थान पर टाटा आयरन एण्ड स्टील की स्थापना की।
  • भारत में कोयला उद्योग का प्रारंभ 1814 में हुआ।

कुटीर उद्योग का महत्व एवं उसकी उपयोगिता

    यद्यपि औद्योगीकरण की प्रक्रिया ने भारत के कुटीर उद्योग को काफी क्षति पहुंचाई, मजदूरों की आजीविका को प्रभावित किया, परन्तु इस विषम एवं विपरीत परिस्थिति में भी गाँवों एवं कस्बों में यह उद्योग पुष्पित एवं पल्लवित होता रहा तथा जन साधारण को लाभ पहुंचाता रहा । राष्ट्रीय आन्दोलन, विशेषकर स्वदेशी आन्दोलन के समय इस उद्योग की अग्रणी भूमिका रही। अतः इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता । महात्मा गाँधी ने कहा था कि लघु एवं कुटीर उद्योग भारतीय सामाजिक दशा के अनुकूल है। ये राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाहित करते हैं । कुटीर उद्योग उपभोक्ता वस्तुओं, अत्यधिक संख्या को रोजगार तथा राष्ट्रीय आय का अत्यधिक समान वितरण सुनिश्चित करते हैं । तीव्र औद्योगीकरण के प्रक्रिया में लघु उद्योगों ने सिद्ध किया कि वे बहुत तरीके से फायदेमन्द होते हैं।

    ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग भारत में हाथों से बनी हुई वस्तुओं को ज्यादा तरजीह देते । हाथों से बने महीन धागों के कपड़े, तसर सिल्क, बनारसी तथा बालुचेरी साड़ियाँ तथा बुने हुए बॉडर वाली साड़ियाँ एवं मद्रास की प्रसिद्ध लुगियों की मांग ब्रिटेन के उच्च वर्गों में अधिक थी । मशीनों द्वारा इसकी नकल नहीं की जा सकती थी और विशेष बात तो यह थी कि इस पर अकाल और बेरोजगारी का भी असर नहीं होता था क्योंकि यह महंगी होती थी और सिर्फ उच्च वर्ग के द्वारा विदेशों में उपयोग में लायी जाती थीं।

    सन् 1947 ई० में स्वंतत्रता प्राप्ति के बाद कुटीर उद्योग की उपयोगिता और उसके विकास हेतु भारत सरकार की नीतियों में परिवर्तन हुआ ।। 6 अप्रैल 1948 की औद्योगिक नीति के द्वारा लघु एवं कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन दिया गया । सन् 1952-53 ई. में पाँच बोर्ड बनाये गए, जी हथकरघा, सिल्क, खादी. नारियल की जटा तथा ग्रामीण उद्योग हेतु थे । सन् 1956 एवं 1977 ई० के औद्योगिक नीति में इनके प्रोत्साहन की बात कही गई । आगे चलकर 23 जुलाई 1980 को औद्योगिक नीति घोषणापत्र जारी किया गया, जिसमें कृषि आधारित उद्योगों की बात कही गयी एवं लघु उद्योगों की सीमा भी बढ़ायी गई ।

    इस तरह हम देखते हैं कि स्वंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने जहाँ एक तरफ कुटीर उद्योग को बढ़ावा दिया वही दूसरी तरफ औद्योगीकरण की प्रक्रिया भी आगे बढ़ने लगी। औद्योगीकरण ने, जिसकी शुरुआत एक आर्थिक प्रक्रिया के तहत हुई थी, भारत में राजनैतिक एवं सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया । सन् 1950 के बाद सम्पूर्ण विश्व में अग्रणी औद्योगिक शक्ति समझा जाने वाला ब्रिटेन अपने प्रथम स्थान से वंचित हो गया और अमेरिका एवं जर्मनी जैसे देश औद्योगिक विकास की दृष्टि से काफी आगे निकल गए।

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