BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

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अध्याय 8
पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

परिचय :

इस अध्याय में कुछ महत्त्वपूर्ण पर्यावरण-आंदोनों की तुलनात्मक चर्चा की गई है। हम साझी संपदा और ‘विश्व की साझी विरासत‘ जैसी धारणाओं के बारे में भी पढ़ेंगे।

संसाधनों की होड़ से जुड़ी वैश्विक राजनीति की एक संक्षिप्त चर्चा की गई है। दुनिया भर में कृषि-योग्य भूमि में अब कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो रही जबकि मौजूदा उपजाऊ जमीन के एक बड़े हिस्से की उर्वरता कम हो रही है। चारागहों के चारे खत्म होने को हैं और मत्स्य-भंडार घट रहा है। जलाशयों की जलराशि बड़ी तेजी से कम हुई है उसमें प्रदूषण बढ़ा है। इससे खाद्य- उत्पादन में कमी आ रही है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की मानव विकास रिपोर्ट (2016) के अनुसार विकासशील देशों की 66.3 करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता और यहाँ की दो अरब चालीस करोड़ आबादी साफ-सफाई की सुविधा से वंचित हैं। इस वजह से 30 लाख से ज़्यादा बच्चे हर साल मौत के शिकार होते हैं।

प्राकृतिक वन जलवायु को संतुलित रखने में मदद करते हैं, इनसे जलचक्र भी संतुलित बना रहता है लेकिन ऐसे वनों की कटाई हो रही है

धरती के ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही हैं। इससे पारिस्थितिकी तंत्र और मनुष्य के स्वास्थ्य पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है।

पुरे विश्व में समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण भी बढ़ रहा है। इन मसलों में अधिकांश ऐसे हैं कि किसी एक देश की सरकार इनका पूरा समाधान अकेले दम पर नहीं कर सकती। इस वजह से ये मसले विश्व-राजनीति का हिस्सा बन जाते हैं।

वैश्विक मामलों से सरोकार रखने वाले एक विद्वत् समूह ‘क्लब ऑव रोम‘ ने 1972 में ‘लिमिट्स टू ग्रोथ‘ शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की। यह पुस्तक दुनिया की बढ़ती जनसंख्या के  आलोक में प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के अंदेशे को बड़ी खूबी से बताती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं पर सम्मेलन कराये और इस विषय पर अध्ययन को बढ़ावा देना शुरू किया। तभी से पर्यावरण वैशिक राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण मसला बन गया।

1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केंद्रित एक सम्मेलन, ब्राजील के रिया डी जनेरियो में हुआ। पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) कहा जाता है। इस सम्मेलन में 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया। यानी उत्तरी गोलार्द्ध तथा गरीब और विकासशील देश यानी दक्षिणी गोलार्द्ध पर्यावरण के अलग-अलग अजेंडे के पैरोकार हैं। उत्तरी देशों की मुख्य चिंता ओज़ोन परत की छेद और वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वर्मिग) को लेकर थी। दक्षिण देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज़्यादा चिंतित थे।

रियो-सम्मेलन में जलवायु-परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के संबंध में कुछ नियमाचार निर्धारित हुए। इसमें ‘अजेंडा-21‘ के रूप में विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाए गए। सम्मलेन में इस बात पर सहमति बनी कि आर्थिक वृद्धि की तरीका ऐसा होना चाहिए कि इससे पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे। इसे ‘टिकाऊ विकास‘ का तरीका कहा गया।

विश्व की साझी संपदा की सुरक्षा

साझी संपदा उन संसाधनों को कहते हैं जिन पर किसी एक का नहीं बल्कि पुरे समुदाय का अधिकार होता है। संयुक्त परिवार का चूल्हा, चारागाह, मैदान, कुआँ या नदी साझी संपदा के उदाहरण हैं। इसी तरह विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभू क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं। इसीलिए उनका प्रबंधन साझे तौर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इन्हें ‘वैश्विक संपदा’ या मानवता की साझा विरासत‘ कहा जाता है। इसमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री तसह और बाहरी अंतरिक्ष शामिल हैं।

‘वैश्विक संपदा‘ की सुरक्षा के सवाल पर महत्त्वपूर्ण समझौते जैसे अंटार्कटिका संधि (1959), मांट्रियल न्यायाचार (प्रोटोकॉल 1987) और अंटार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचार (1991) हो चुके हैं।

एक सर्व-सामान्य पर्यावरणीय अजेंडा पर सहमति कायम करना मुश्मिल होता है। इस अर्थ में 1980 के दशक के मध्य में अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद की खोज एक आँख खोल देने वाली घटना है।

अंटार्कटिका पर किसका स्वामित्व है ?

अंटार्कटिका महादेशीय इलाका 1 करोड़ 40 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। विश्व के निर्जन क्षेत्र का 26 प्रतिशत हिस्सा इसी महादेश के अंतर्गत आता है। स्थलीय हिम का 90 प्रतिशत हिस्सा और धरती पर मौजूद स्वच्छ जल का 70 प्रतिशत हिस्सा इस महादेश में मौजूद है।

सीमित स्थलीय जीवन वाले इस महादेश का समुद्री पारिस्थितिकी-तंत्र अत्यंत उर्वर है जिसमें कुछ पादप (सुक्ष्म शैवाल, कवक और लाइकेन), समुद्री स्तनधारी जीव, मत्स्य तथा कठिन वातावरण में जीवनयापन के लिए अनुकूलित विभिन्न पक्षी शामिल हैं।

अंटार्कटिक प्रदेश विश्व की जलवायु को संतुलित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस महादेश की अंदरूनी हिमानी परत ग्रीन हाऊस गैस के जामव का महत्त्वपूर्ण सूचना-स्रोत है। साथ ही, इससे लाखां बरस जहले के वायुमंडलीय तापमान का पता किया जा सकता है।

विश्‍व के सबसे सुदूर ठंढ़े और झंझावाती महादेश अंटर्कटिका पर किसका स्वामित्व है? इसके बारे में दो दावे किये जाते हैं। कुछ देश जैसे – ब्रिटेन, अर्जेन्टीना, चिले, नार्वे, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ने अंटार्कटिक क्षेत्र पर अपने संप्रभु अधिकार का वैधानिक दावा किया। अन्य अधिकांश देशों ने इससे उलटा रूख अपनाया कि अंटार्कटिक प्रदेश विश्व की साझी संपदा है और यह किसी भी देश के क्षेत्राधिकार में शामिल नहीं है।

1959 के बाद इस इलाके में गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसंधान, मत्स्य आखेट और पर्यटन तक सीमित रही हैं।

साझी परंतु अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ

उत्तर के विकसित देश पर्यावरण के मसले पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस दशा में पर्यावरण आज मौजूद है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो। दक्षिण के विकासशील देशां का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को नुकसान अधिकांशतया विकसित देशां के औद्योगिक विकास से पहुँचा है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को ज़्यादा नुकसान पहुँचाया है तो उन्हें इस नुकसान की भरपाई की जिम्मेदारी भी ज़्यादा उठानी चाहिए। इसके अलावा, विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और ज़रूरी है कि उन पर वे प्रतिबंध न लगें जो विकसित देशों पर लगाये जाने हैं।

1992 में हुए पृथ्वी सम्मेलन में इस तर्क को मान लिया गया और इसे‘ साझी परंतु अलग-अलग जिम्मेदारियाँ का सिद्धांत कहा गया।

जलवायु के परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्रसंघ के नियमाचार यानी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC-1992) में भी कहा गया है कि इस संधि को स्वीकार करने वाले देश अपनी क्षमता के, अनुरून, पर्यावरण के अपक्षय में अपनी हिस्सेदारी के आधार पर साझी परंतु अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए पर्यावरण की सुरक्षा के प्रयास करेंगे।

ग्रीन हाऊस गेसों के उत्सर्जन में सबसे ज़्यादा हिस्सा विकसित देशों का है। विकासशील देशों का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम है। इस कारण चीन, भारत और अन्य बाध्यताओं से अलग रखा गया है। क्योटो-प्रोटोकॉल एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसके अतंर्गत औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और हाइड्रो-फ्लोरो कार्बन जैसी कुछ गैसों के बारे में माना जाता है कि वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में इनकी कोई-न-कोई भूमिका ज़रूर है। ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना में विश्व का तापमान बढ़ता है और धरती के जीवन के लिए यह बात बड़ी प्रलयंकारी साबित होगी। जापान के क्योटो में 1997 में इस प्रोटोकॉल पर सहमति बनी।

साझी संपदा

साझी संपदा का अर्थ होता है ऐसी संपदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का स्वामित्व हो। इसके पीछे मूल तर्क यह है कि ऐसी संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के संदर्भ में समुह के हर सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होंगे और समान उत्तरदायित्व निभाने होंगे। उदाहरण के लिए, राजकीय स्वामित्व वाली वन्यभूमि में पावन मानें जाने वाले वन-प्रांतर के वास्तविक प्रबंधन की पूरानी व्यवस्था साझी संपदा के रख-रखाव और उपभोग का ठीक-ठीक उदाहरण है। दक्षिण भारत के वन-प्रदेशों में विद्यमान पावन वन-प्रांतरों का प्रबंधन परंपरानुसार ग्रामीण समुदाय करता आ रहा हैं

पर्यावरण के मसले पर भारत का पक्ष

भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकॉल (1997) पर हस्ताक्षर किए और इसका अनुमोदन किया। भारत, चीन और अन्य विकासशील देशां को क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से छूट दी गई है क्योंकि औद्योगीकरण के दौर में ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के मामले में इनका कुछ ख़ास योगदान नहीं था। औद्योगीकरण को मौजूदा वैश्विक तापवृद्धि और जलवायु-परिवर्तन का जिम्मेदार माना जाता है। 2005 के जून में ग्रुप-8 के देशों की बैठक हुई। इसमें भारत ने ध्यान दिलाया कि विकासशील देशों में ग्रीन हाऊस गैसों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में नाममात्र है।

ग्रीनहाऊस गैसों के रिसाव की ऐतिहासिक और मौजूदा जवाबदेही ज़्यादातर विकसित देशों की है। ‘हाल में संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस (UNFCCC) के अंतर्गत चर्चा चली कि तेजी से औद्योगिक होते देश (जैसे ब्राजील, चीन और भारत) नियमाचार की बाध्यताओं का पालन करते हुए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करें। भारत इस बात के खिलाफ है।

भारत में 2030 तक कार्बन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बढ़ने के बावजूद विश्व के (सन् 2000) के औसत (33.8 टन प्रति व्यक्ति) के आधे से भी कम होगा। अनुमान है कि 2030 तक यह मात्रा बढ़कर 1.6 टन प्रतिव्यक्ति हो जाएगी।

भारत की सरकार विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए पर्यावरण से संबंधित वैश्विक प्रयासों में शिरकत कर रही है। भारत ने अपनी नेशनल ऑटो-फ्यूल पॉलिसी‘ के अंतर्गत वाहनों के लिए स्वच्छतर ईंधन अनिवार्य कर दिया है। 2001 में ऊर्जा-संरक्षण अधिनियम पारित हुआ।

हाल में प्राकृतिक गैस के आयात और स्वच्छ कोयले के उपयोग पर आधारित प्रौद्योगिकी को अपनाने की तरफ रूझान बढ़ा है। इससे पता चलता है कि भारत पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से ठोस कदम उठा रहो है।

पर्यावरण आंदोलन – एक या अनेक

आज पूरे विश्व में पर्यावरण आंदोलन सबसे ज़्यादा जीवंत, विविधतापूर्ण तथा ताकतवर सामाजिक आंदोलनों में शुमार किए जाते हैं।

इन आंदोलनों से नए विचार निकलते हैं। इन आंदोलनों ने हमें दृष्टि दी है कि वैयक्तिक और सामूहिक जीवन के लिए आगे के दिनों में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।

मौजूदा पर्यावरण आंदोलनों की एक मुख्य विशेषता उनकी विविधता है।

दक्षिणी देशों मसलन मैक्सिको, चिले, ब्राज़ील, मलेशिया, इंडोनेशिया, महादेशीय, अफ्रिका और भारत के वन-आंदोलनों पर बहुत दबाव है। तीन दशकों से पर्यावरण को लेकर सक्रियता का दौर जारी है। इसके बावजूद तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में वनों की कटाई खतरनाक गति से जारी है। पिछले दशक के विशालतम वनों का विनाश बढ़ा है।

खनिज उद्योग धरती के भीतर मौजूद संसाधनों को बाहर निकालता है, रसायनों का भरपूर उपयोग करता है; भूमि और जलमार्गे को प्रदूषित करता है और स्थानीय वनस्पतियाँ का विनाश करता है। इसके कारण जन-समुदायां को विस्थापित होना पड़ता है। कई बातों के साथ इन कारणों से विश्व के विभिन्न भागों में खनिज-उद्योग की आलोचना और विरोध हुआ है।

इसका एक अच्छा उदाहरण फिलीपिन्स है जहाँ कई समूहों और संगठनों ने एक साथ मिलकर एक ऑस्ट्रेलियाई बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘वेस्टर्न माइनिंग कारपोरेशन‘ के खिलाफ अभियान कलाचा।

कुछ आंदोलन बड़े बाँधों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। अब बाँध-विरोधी आंदोलन को नदियों को बचाने के आंदालनों के रूप में देखने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है

1980 के दशक के शुरूआती और मध्यवर्ता वर्षां में विश्व का पहला बाँध-विरोधी आंदोलन दक्षिणी गोलार्द्ध में चला। भारत में बाँध-विराधी और नदी हितैषी कुछ अग्रणी आंदोलन चल रहे हैं। इन आंदोलनों में नर्मदा आंदोलन सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध है।

संसाधनों की भू-राजनीति

‘‘किसे, क्या, कब, कहाँ और कैसे हासिल होता है‘‘ – ‘संसाधनों की भू-राजनीति‘ इन्हीं सवालों से जूझती है। यूरोपीय ताकतों के विश्वव्यापी प्रसार का एक मुख्य साधन और मकसद संसाधन रहे हैं।

संसाधनों से जुड़ी भू-राजनीति को पश्चिमी दुनिया ने ज़्यादातर व्यापारिक संबंध, युद्ध तथा ताकत के संदर्भ में सोच।

पूरे शीतयुद्ध के दौरान उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित देशों  ने इन संसाधनों की सतत् आपूर्ति के लिए कई तरह के कदम उठाये। इसके अंतर्गत संसाधन-दोहन के इलाकों तथा समुद्री परिवहन-मार्गों के इर्द-गिर्द सेना की तैनाती, महत्त्वपूर्ण संसाधनों का भंडारण, संसाधनों के उत्पादक देशों में मनपसंद सरकारों की बहाली तथा बहुराष्ट्रीय निगमों और अपने हितसाधक अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को समर्थन देना शामिल है। पश्चिमी देशों के राजनीतिक चिंतन का केंद्रीय सरोकार यह था कि संसाधनों तक पहुँच अबाध रूप से बनी रहे क्योंकि सोवियत संघ इसे खतरे में डाल सकता था।

वैश्विक रणनीति में तेल लगातार सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन बना हुआ है। बीसवीं सदी के अधिकांश समय में विश्व की अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर रही।

पेट्रोलियम का इतिहास युद्ध और संघिर्षों का भी इतिहास है। यह बात पश्चिम एशिया और मध्य एशिया में सबसे स्पष्ट रूप से नज़र आती है। पश्चिम एशिया, ख़ासकर खाड़ी-क्षेत्र विश्व के कुल तेल-उत्पादन का 30 प्रतिशत मुहैया कराता है। इस क्षेत्र में विश्व के ज्ञात तेल-भंडार का 64 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है

सऊदी अरब विश्व में सबसे बड़ा तेल-उत्पादक है। इराक का ज्ञात तेल-भंडार सऊदी अरब के बाद दूसरे नंबर पर है।  

संयुक्त राज्य अमरीका, युरोप, जापान तथा चीन और भारत में इस तेल की खपत होती है लेकिन ये देश इस इलाके से बहुत दूरी पर हैं।

विश्व-राजनीति के लिए पानी एक और विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में मौजूद नहीं है। इसी कारण हमारे जीवन में पेट्रोलियम पर आधारित उत्पादों की कड़ी अंतहीन है। टूथपेस्ट, पेसमेकर, पेंट, स्याही…। दुनिया को परिवहन के लिए जितनी ऊर्जा की ज़रूरत पड़ती है उसका 95 फीसदी पेट्रोलियम से ही पूरा होता है।

इसी जीवनदायी संसाधन को लेकर हिंसक संघर्ष होने की संभावना है और इसी को इंगित करने के लिए विश्व-राजनीति के कुछ विद्वानों ने ‘जलयुद्ध‘ शब्द गढ़ा है।

जलधारा के उद्गम से दूर बसा हुआ देश उद्गम के नजदीक बसे हुए देश द्वारा इस पर बाँध बनाने, इसके माध्यम से अत्यधिक सिंचाई करने या इसे प्रदूषित करने पर आपत्ति जताता है देशों के बीच स्वच्छ जल-संसाधनों को हथियाने या उनकी सुरक्षा करने के लिए हिंसक झड़पें हुई हैं। इसका एक उदाहरण है – 1950 और 1960 के दशक में इज़रायल, सीरिया तथा जार्डन के बीच हुआ संघर्ष।

फिलहाल तुर्की, सीरिय और इराक के बीच फरात नदी पर बाँध के निर्माण को लेकर एक-दूसरे से ठनी हुई है।

मूलवासी (Indigenous People) और उनके अधिकार

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 1982 में इनकी एक शुरूआती परिभाषा दी। इन्हें ऐसे लोगों का वंशज बताया गया जो किसी मौजूदा देश में बहुत दिनों से रहते चले आ रहे थे। फिर किसी दूसरी संस्कृति या जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश में आये और इन लोगों को अधीन बना लिया। किसी देश के ‘मूलवासी‘ आज भी उस देश की संस्थाओं के अनुरूप आचरण करने से ज़्यादा अपनी परंपरा, सांस्कृतिक रिवाज़ तथा अपने ख़ास सामाजिक, आर्थिक ढर्रे पर जीवन-यापन करना पसंद करते हैं।

भारत सहित विश्व के विभिन्न हिस्सों में मौजूद लगभग 30 करोड़ मूलवासियों फिलीपिन्स के कोरडिलेरा क्षेत्र में 20 लाख मूलवासी लोग रहते हैं। चिले में मापुशे नामक मूलवासियों की संख्या 10 लाख है।

बांग्लादेश के चटगांव पर्वतीय क्षेत्र में 6 लाख आदिवासी बसे हैं। उत्तर अमरीकी मूलवासियों की संख्या 3 लाख 50 हजार है। पनामा नहर के पूरब में कुना नामक मूलवासी 50 हज़ार की तादाद में हैं और उत्तरी सोवियत में ऐसे लोगों की आबादी 10 लाख है। दूसरे सामाजिक आंदोलनों की तरह मूलवासी भी अपने संघर्ष, अजेंडा और अधिकारों की आवाज़ उठाते हैं।

मूलवासियों के निवास वाले स्थान मध्य और दक्षिण अमरीका, अफ्रिका, दक्षिणपूर्व एशिया तथा भारत में है जहाँ इन्हें आदिवासी या जनजाति कहा जाता है। 

सरकारों से इनकी माँग है कि इन्हें मूलवासी कौम के रूप में अपनी स्वतंत्र जहचान रखने वाला समुदाय माना जाए।

भारत में ‘मूलवासी‘ के लिए अनुसूचित जनजाति या आदिवासी शब्द प्रयोग किया जाता है। ये कुल जनसंख्या का आठ प्रतिशत हैं। कुछेक घुमन्तू जनजातियों को छोड़ दें तो भारत की अधिकांश आदिवासी जनता अपने जीवन-यापन के लिए खेती पर निर्भर हैं।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिहाज से इनको संवैधानिक सुरक्षा हासिल है लेकिन देश के विकास का इन्हें ज़्यादा लाभ नहीं मिल सका है। आजादी के बाद से विकास की बहुत सी परियाजनाएँ चलीं और परियाजनाओं से विस्थापित होने वालों में यह समुदाय सबसे बड़ा है।

1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के मूलवासियों के नेताओं के बीच संपर्क बढ़ा। 1975 में ‘वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इंडिजिनस पीपल‘ का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्रसंघ में सबसे पहले इस परिषद् को परामर्शदायी परिषद् का दर्जा दिया गया।

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