BSEB Class 6th Sanskrit Solutions Chapter 6 सुभाषितानि

Class 6th Sanskrit Text Book Solutions

षष्ठः पाठः
सुभाषितानि
(सुन्दर वचन)

पाठ-परिचय-  प्रस्तुत पाठ ’सुभाषितानि’ में महापुरूषों के अनुभवों को प्रकट किया गया है। ’सुभाषित’ का अर्थ सुन्दर वचन या कथन होता है। यह ’सु’ तथा भाषित दो शब्दों के योग से बना है। ’सु’ का अर्थ ’सुन्दर’ तथा ’सुभाषि’ का अर्थ ’कथन’ या वचन होता हैं। मानव जीवन अज्ञानता से पूर्ण होता है, इसलिए इन सुन्दर वचनों द्धारा व्यक्तियों को जीवन की सच्चाई को समझने की प्रेरणा दी गई हैं।

1. परोपकाराय सतां विभूतयः।

अर्थ- सज्जनों का धन दूसरों के उपकार के लिए होता है। तात्पर्य यह कि महापुरूष दूसरों के कल्याण के लिए धन अर्जित करते हैं। ऐसे लोग सदा दूसरों के कल्याण के लिए बेचैन रहते हैं। वे दूसरों को दुःखी देख करूणार्द्र हो जाते हैं। वे अपने लिए नही अपितु संसार के कल्याण के लिए देह धारण करते हैं।

2. उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।

अर्थ- ऊँचे विचारवालों के लिए संसार ही अपने परिवार जैसा होता है। तात्पर्य यह कि महापुरूष किसी के साथ कोई भेदवाभ नहीं करते। अपना-पराया अर्थात् यह मेरा है, वह दूसरे का, ऐसा निम्न विचार वाले लोग सोचते हैं। उदार विचार वाले सम्पूर्ण संसार के कल्याण के लिए व्यग्र रहते हैं। उनका उद्देश्य मानव-जाति का कल्याण होता है। इसीलिए वे सबको अपने भाई-बन्धु जैसा मानते हैं।

3. सुखार्थिनः कुतों विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्।

अर्थ- सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ तथा विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ मिलता हैं। तात्पर्य यह कि जो सुख का आकांक्षी है, उसे विद्या की प्राप्ति नहीं हो सकती है, क्योकि विद्या की प्राप्ति के लिए दिन-रात परिश्रम करना पड़ता हैं। इसी प्रकार जो विद्या प्राप्ति का आकांक्षी होता है, उसे सुख कहाँ, क्योकि उसे दिन-रात विद्या-प्राप्ति का धुन सवार रहता है।

4. सत्यं बूयात् प्रियं तूयात् न बूयात् सत्यमप्रियम्।

अर्थ- सत्य बोलें, लेकिन प्रिय बोलें, अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए, क्यो कि अप्रिय सत्य बोलने से सुनने वालों को कष्ट पहुँचता है। लोग ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करते हैं। इसिलिए सदा प्रिय सत्य ही बोलना चाहिए जो सबको अच्छा लगे।

5. सम्‍पंतौ च विपंतौ च महतामे‍करूपता

अर्थ- महान् लोग सुख-दुःख दोनों में एक समान रहते हैं। ऐसे लोग सुख देख न तो उतावले होते हैं और न दुःख देख अधीर ही होते हैं। जिस प्रकार सूर्य उगते एवं डूबते समय एक समान (लाल) रहता है, उसी प्रकार बडे़ लोगों का विचार या व्यवहार सदैव एक-सा रहता है, सुख में भी और दुःख में भी।

6. स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते।

अर्थ- राजा अपने देश में ही पूज्य होता है या आदर पाता है, लेकिन विद्वान की पूजा या आदर सभी जगह होता है। तात्पर्य यह कि राजा अपनी प्रभुता या सम्पन्नता, के कारण क्षेत्र विशेष में ही आदरणीय होता है, जबकि विद्वान् अपनी विद्वता (योग्यता) के कारण जहाँ जाता है, वहीं सबका आदरणीय हो जाता है। अर्थात् धन की अपेक्षा गुण (विद्या) का महत्व अधिक होता है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

अर्थ- सभी सुखी (प्रसन्न) तथा नीरोग हों। श्लोक के इस अंश में विश्व कल्याण की कामना की गई है कि संसार के सभी लोग सदा प्रसन्न तथा स्वस्थ रहें। इसी स्थिति में संसार में शांति एवं मानवता की स्थापना हो सकती है।

  1. न लोभेन समं दुःखं न सन्तोषात् परं सुखम्।

अर्थ- लोभ से बढ़कर कोई दुःख नहीं है तथा संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है। तात्पर्य यह कि लोभ के कारण व्यक्ति अनादर का पात्र हो जाता है, लोग उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं, जबकि संतोषी व्यक्ति का जीवन शांतिमय होता है। उसे हर कोई सम्मान की दृष्टि से देखता है, क्योंकि उसका स्वाभिमान कायम रहता है।

9. आत्मनः प्रतिकूलानि न परेषां समाचरेत्।

अर्थ- अपने से विपरीत आचरण दूसरों के लिए न करें। तात्पर्य यह कि जैसा किसी से स्वयं चाहते हैं, वैसा ही आचरण या व्यवहार उसे दूसरों के साथ भी करना चाहिए, क्योंकि ऐसा व्यवहार करने पर स्वयं के साथ-साथ दूसरे को भी शांन्ति मिलती है।

10. बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।

अर्थ- भूखा व्यक्ति क्या नहीं कर सकता ? अर्थात् वह सब कुछ कर सकता है। तात्पर्य कि जब कोई व्यक्ति भूखा होता है तो वह भूख की पीड़ा से व्यथित हो उठता है। फलतः अपने जीवन की रक्षा के लिए कोई भी कुकर्म करने को उद्यत हो जाता है। संसार में भूख मिटाने के लिए ही हर कोई परिश्रम करता है।

11. विद्या ददाति विनयम्।

अर्थ- विद्या से विनम्रता आती है। तात्पर्य यह कि जिसमें विद्या रूपी फल लग जाता है, वह फल से लदे डाली की भाँति झुक जाता है अर्थात वह विनम्र हो जाता है। विद्या की विशेषता है कि जो इसे ग्रहण कर लेता है, वह विद्यारूपी गुण के कारण विनयशील हो जाता है।

12. ज्ञानं भारः क्रियां विना।

अर्थ- आचरण के बिना ज्ञान व्यर्थ है। तात्पर्य यह कि कोई भी व्यक्ति किसी से आदर तभी पाता है, जब वह उसके साथ सद्व्यवहार करता है। ज्ञान स्थूल होता है। आचरण रूपी कसौटी पर ही ज्ञान की सच्चाई का पता चलता है।

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