कक्षा 12 भूगोल पाठ 9 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास | Bharat ke sandarbh me niyojan aur satat poshniya vikas class 12 Notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ नौ ‘भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास (Bharat ke sandarbh me niyojan aur satat poshniya vikas class 12th Notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

Bharat ke sandarbh me niyojan aur satat poshniya vikas

अध्याय 9
भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

केंद्र, राज्य तथा जिला स्तर पर योजनाओं को तैयार करने की जिम्मेदारी योजना आयोग की थी। परंतु जनवरी 1, 2015 को योजना आयोग का स्थान नीति आयोग ने ले लिया।

केंद्रीय तथा राज्य सरकारों को युक्तिगत तथा तकनीकी सलाह देने के लिए भारत के आर्थिक नीति निर्माण में राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से नीति आयोग स्थापित किया गया है।

केस अध्ययन-भरमौर क्षेत्र में समन्वित जनजातीय विकास कार्यक्रम

भरमौर जनजातीय क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले की दो तहसीलें, भरमौर और होती शामिल हैं। यह 21 नवंबर, 1975 से अधिसूचित जनजातीय क्षेत्र है। इस क्षेत्र में ‘गद्दी‘ जनजातीय समुदाय का आवास है। इस समुदाय की हिमालय क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचना है क्योंकि गद्दी लोग ऋतु-प्रवास करते हैं

भरमौर जनजातीय क्षेत्र में जलवायु कठोर है, आधारभूत संसाधन कम हैं और पर्यावरण भंगुर है। इन यह हिमाचल प्रदेश के आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे पिछड़े इलाकों में एक है।

1974 में पाँचवीं पंचर्षीय योजना के अंतर्गत जनजातीय उप-योजना प्रारंभ हुई और भरमौर को हिमाचल प्रदेश में पाँच में से एक समन्वित जनजातीय विकास परियोजना (आई.टी.डी.पी.) का दर्जा मिला। इस क्षेत्र विकास योजना का उद्देश्य गद्दियों के जीवन स्तर में सुधार करना और भरमौर तथा हिमाचल प्रदेश के अन्य भागों के बीच में विकास के स्तर में अंतर को कम करना है। इस योजना के अंतर्गत परिवहन तथा संचार, कृषि और इससे संबंधित क्रियाओं तथा सामाजिक व सामुदायिक सेवाओं के विकास को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई।

जनजातीय समन्वित विकास उपयोजना लागू होने से हुए सामाजिक लाभों में साक्षरता दर में तेजी से वृद्धि, लिंग अनुपात में सुधार और बाल-विवाह में कमी शामिल हैं। इस क्षत्र में स्त्री साक्षरता दर 1971 में 1.88 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 65 प्रतिशत हो गई।

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सतत पोषणीय विकास

साधारणतया ‘विकास‘ शब्द से अभिप्राय समाज विशेष की स्थिति और उसके द्वारा अनुभव किए गए परिवर्तन की प्रक्रिया से होता है।

विकास की संकल्पना गतिक है और इस संकल्पना का प्रादुर्भाव 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ है। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत विकास की संकल्पना आर्थिक वृद्धि की पर्याय थी जिसे सकल राष्ट्रीय उत्पाद, प्रति व्यक्ति आय और प्रति व्यक्ति उपभोग में समय के साथ बढ़ोतरी के रूप में मापा जाता है।

1960 के दशक के अंत में पश्चिमी दुनिया में पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर बढ़ती जागरूकता की सामान्य वृद्धि के कारण सतत पोषणीय धारणा का विकास हुआ। इससे पर्यावरण पर औद्योगिक विकास के अनापेक्षित प्रभावों के विषय में लोगों की चिंता प्रकट होती थी। 1968 में प्रकाशित एहरलिच की पुस्तक ‘द पापुलेशन बम‘ और 1972 में मीडोस और अन्य द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द लिमिट टू ग्रोथ‘ के प्रकाशन ने इस विषय पर लोगों और विशेषकर पर्यावरणविदों की चिंता और भी गहरी कर दी। इस घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विकास के एक नए माडल जिसे ‘सतत पोषणीय विकास‘ कहा जाता है, की शुरूआत हुई। पर्यावरणीय मुद्दों पर विश्व समुदाय की बढ़ती चिंता को ध्यान में रखकर संयुक्त संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘विश्व पर्यावरण और विकास आयोग‘ की स्थापना की जिसके प्रमुख नार्वे की प्रधान मंत्री गरो हरलेम ब्रंटलैंड थीं।

केस अध्ययन

इंदिरा गांधी नहर कमान क्षेत्र

इंदिरा गांधी नहर, जिसे पहले राजस्थान नहर के नाम से जाना जाता था, भारत में सबसे बड़े नहर तंत्रों में से एक है। यह नहर परियोजना 31 मार्च, 1958 को प्रारंभ हुई। यह नहर पंजाब में हरिके बाँध से निकलती है और राजस्थान के थार मरूस्थल (मरूस्थली) पाकिस्तान सीमा के समानांतर 40 कि.मी. की औसत दूरी पर बहती है। इस नहर तंत्र की कुल नियोजित लंबाई 9060 कि.मी. है कुल कमान क्षेत्र में से 70 प्रतिशत क्षेत्र प्रवाह नहर तंत्रों और शेष क्षेत्र लिफ्ट तंत्र द्वारा नहर का निर्माण कार्य दो चरणों में पूरा किया गया है। लिफ्ट नहर में ढाल के विपरीत प्रवाह के लिए जल को बार-बार मशीनों से ऊपर उठाया जाता है। नहरी सिंचाई के प्रसार से इस प्रदेश की कृषि अर्थव्यवस्था बोये गये क्षेत्र में विस्तार हुआ है और फसलों की सघनता में वृद्धि हुई है। पारंपरिक फसलों, चना, बाजरा और ग्वार का स्थान गेहूँ, कपास, मूँगफली और चावल

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सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देनो वाले उपाय

बहुत से विद्धानों ने इंदिरा गांधी नहर परियोजना की पारिस्थितिकीय पोषणता पर प्रश्न उठाए हैं। पिछले चार दशक में, जिस तरह से इस क्षेत्र में विकास हुआ है और इससे जिस तरह भौतिक पर्यावरण का निम्नीकरण हुआ है, ने विद्धानों के इस दृष्टिकोण को काफी हद तक सही ठहराया भी।

इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित सात उपायों में से पाँच उपाय पारिस्थतिकीय संतुलन पुनः स्थापित करने पर बल देते हैं। (1) पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है जल प्रबंधन नीति का कठोरता से कार्यान्वय करना।  

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कक्षा 12 भूगोल पाठ 8 निर्माण उद्योग | Nirman udyog class 12 notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ आठ ‘निर्माण उद्योग (Nirman udyog class 12 notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

Nirman udyog class 12 notes

अध्याय 8
निर्माण उद्योग

उद्योगों के प्रकार

आकार, पूँजी-निवेश और श्रमशक्ति के आधार पर उद्योगों को बृहत्, मध्यम, लघु और कुटीर उद्योग में वर्गीकृत किया गया है। स्वामित्व के आधार पर उद्योगों को (1) सार्वजनिक सेक्टर (2) व्यक्तिगत सेक्टर (3) मिश्रित और सहकारी सेक्टर में विभक्त किया गया है।

उद्योगों का वर्गीकरण उनके उत्पादों के उपयोग के आधार पर भी किया गया है, जैसे- (1) मूल पदार्थ उद्योग (2) पूँजीगत पदार्थ उद्योग (3) मध्यवर्ती पदार्थ उद्योग (4) उपभोक्ता पदार्थ उद्योग।

कच्चे माल के आधार पर वर्गीकरण इस प्रकार है- (1) कृषि-आधारित उद्योग (2) वन-आधारित उद्योग (3) खनिज-आधारित उद्योग (4) उद्योगों द्वारा निर्मित कच्चे माल पर आधारित उद्योग।

उद्योगों का दूसरा प्रचलित वर्गीकरण, निर्मित उत्पादकों की प्रकृति पर आधारित है। इस प्रकार 8 प्रकार के उद्योग हैं- (1) धातुकर्म उद्योग (2) यांत्रिक इंजीनियरी उद्योग (3) रासायनिक और संबद्ध उद्योग (4) वस्त्र उद्योग (5) खाद्य संसाधन उद्योग (6) विद्युत उत्पादन उद्योग (7) इलेक्ट्रॉनिक और (8) संचार उद्योग।

उद्योगों की स्थिति

उद्योगों की स्थिति कई  कारकों, जैसे-कच्चा माल की उपलब्धता शक्ति, बाजार, पूँजी, यातायात और श्रम इत्यादि द्वारा प्रभावित होती है।

आर्थिक दृष्टि से, निर्माण उद्योग को उस स्थान पर स्थापित करना चाहिए जहाँ उत्पादन मूल्य और निर्मित वस्तुओं को उपभोक्ताओं तक वितरण करने का मूल्य न्यूतम हो।

कच्चा माल

भार-ह्रास वाले कच्चे माल का उपयोग करने वाले उद्योग उन प्रदेशों में स्थापित किए जाते हैं जहाँ ये उपलब्ध होते हैं।

लोहा-इस्पात उद्योग में लोहा और कोयला दोनों ही भार ह्रास वाले कच्चे माल हैं। इसीलिए लोहा-इस्पात उद्योग की स्थिति के लिए अनुकूलतम स्थान कच्चा माल स्त्रोतों के निकट होना चाहिए। यही कारण है कि अधिकांश लोहा-इस्पात उद्योग या तो कोयला क्षेत्रों (बोकारों, दुर्गापुर आदि) के निकट स्थित हैं अथवा लौह अयस्क के स्त्रोतों (भद्रावती, भिलाई और राउरकेला) के निकट स्थित हैं।

शक्ति

शक्ति मशीनों के लिए गतिदायी बल प्रदान करती है और इसीलिए किसी भी उद्योग की स्थापना से पहले इसकी आपूर्ति सुनिश्चित कर ली जाती है। जैसे-एल्यूमिनियम और कृत्रिम नाइट्रोजन निर्माण उद्योग की स्थापना शक्ति स्त्रोत के निकट की जाती है क्योंकि ये अधिक शक्ति उपयोग करने वाले उद्योग हैं, जिन्हें विद्युत की बड़ी मात्रा की आवश्यकता होती है।

बाजार

बाजार, निर्मित उत्पादों के लिए निर्गम उपलब्ध कराती हैं। भारी मशीन, मशीन के औजार, भारी रसायनों की स्थापना उच्च माँग वाले क्षेत्रों के निकट की जाती है क्योंकि ये बाजार-अभिमुख होते हैं। सूती वस्त्र उद्योग में शुद्ध (जिसमें भार-ह्रास नहीं होता) कच्चे माल का उपयोग होता है और ये प्रायः बड़े नगरीय केंद्रों में स्थापित किए जाते हैं, उदाहरणार्थ-मुंबई, अहमदाबाद, सूरत आदि।

परिवहन

क्या आपने कभी मुंबई, चेन्नई, दिल्ली और कोलकाता के अंदर और उनके चारों उद्योगों के केंद्रीकरण के कारणों को जानने का प्रयास किया है? ऐसा इसलिए  हुआ कि ये प्रारंभ में ही परिवहन मार्गो को जोड़ने वाले केंद्र बिंदु बन गए। रेलवे लाइन बिछने के बाद ही उद्योगों को आंतरिक भागों में स्थानांतरित किया गया। सभी मुख्य उद्योग मुख्य रेल मार्गो पर स्थित हैं।

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श्रम

उद्योगों को कुशल श्रमिकों की आवश्यकता होती है। भारत में श्रम बहुत गतिशील है तथा जनसंख्या अधिक होने के कारण बड़ी संख्या में उपलब्ध है।

ऐतिहासिक कारक

क्या आपने कभी मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के औद्योगिक केंद्र के रूप में उभरने के कारणों के विषय में सोचा है? ये स्थान हमारे औपनिवेशिक अतीत द्वारा अत्यधिक प्रभावित थे। उपनिवेशीकरण के प्रारंभिक चरणों में निर्माण क्रियाओं को यूरोप के व्यापारियों द्वारा नव प्रोत्साहन दिया  गया। उपनिवेशवाद के उत्तरकालीन औद्योगिक चरण में, ब्रिटेन में निर्मित वस्तुओं से होड़ और उपनिवेशिक शक्ति की भेदमूलक नीति के कारण, इन निर्माण केंद्रों का तेजी से विकास हुआ।

औद्योगिक नीति

एक प्रजातांत्रिक देश होने के कारण भारत का उद्देश्य संतुलित प्रादेशिक विकास के साथ आर्थिक संवृद्धि लाना है। भिलाई और राउरकेला में लौह-स्पात उद्योग की स्थापना देश के पिछड़े जनजातीय क्षेत्रों के विकास के निर्णय पर आधारित थी।

मुख्य उद्योग

किसी भी देश के औद्योगिक विकास के लिए लौह-इस्पात उद्योग एक मूल आधार होता है। सूती वस्त्र उद्योग हमारे परंपरागत उद्योग में से एक है। चीनी उद्योग स्थानिक कच्चे माल पर आधारित है

लौह-इस्पात उद्योग

लौह इस्पात उद्योग के लिए लौह अयस्क और कोककारी कोयला के अतिरिक्त चूनापत्थर, डोलोमाइट, मैंगनीज और अग्निसहमृत्तिका आदि कच्चे माल की भी आवश्यकता होती है। ये सभी कच्चे माल स्थूल (भार ह्रास वाले) होते हैं। इसलिए लोहा-इस्पात उद्योग की सबसे अच्छी स्थिति कच्चे माल स्त्रोतों के निकट होती है।

एकीकृत इस्पात कारखाने

टाटा लौह-इस्पात कंपनी

टाटा लौह-इस्पात मुंबई-कोलकाता रेलवे मार्ग के बहुत निकट स्थित है। यहाँ के इस्पात के निर्यात के लिए सबसे नजदीक (लगभग 240 किलोमीटर दूर) पत्तन कोलकाता है।

भारतीय लोहा और इस्पात कंपनी

भारतीय लोहा और इस्पात कंपनी ने अपना पहला कारखाना हीरापुर में और दूसरा कुल्टी में स्थापित किया। 1937 में भारतीय लोहा और इस्पात कंपनी के साहचर्य से बंगाल स्टील कार्पोशन की स्थापना की गई, बर्नपुर (पश्चिम बंगाल) में लोहा और इस्पात के उत्पादन की दूसरी इकाई की स्थापना की गई।

विश्वेश्वरैया आयरन एंड स्टील वर्क्स

तीसरा एकीकृत इस्पात संयंत्र-विश्वेश्वरैया आयरन एंड स्टील वर्क्स-जो प्रारंभ में मैसूर लोहा और इस्पात वर्क्स के नाम से जाना जाता था, बाबाबूदन की पहाड़ियों के केमान गुंडी के लौह-अयस्क क्षेत्रों के निकट स्थित है। चूना पत्थर और मैंगनीज भी आसपास के क्षेत्रों में उपलब्ध है।

स्वतंत्रता के बाद, द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-57) में विदेशी सहयोग से तीन नए एकीकृत इस्पात संयंत्रों की स्थापना की गई। ये संयंत्र हैं-राउरकेला (ओडिशा), भिलाई (छत्तीसगढ़) और दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल)। 1973 में, इन संयंत्रों के प्रबंधन के लिए स्टील अथॉरिटी आफ इंडिया की स्थापना की गई।

राउरकेला इस्पात संयंत्र

राउरकेला इस्पात जर्मनी के सहयोग से 1959 में ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में स्थापित किया गया था

भिलाई इस्पात संयंत्र

भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना रूस के सहयोग से छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में की गई एवं 1959 में इसमें उत्पादन प्रारंभ हो गया।

दुर्गापुर इस्पात संयंत्र

दुर्गापुर इस्पात संयंत्र यूनाइटेड किंगडम की सरकार के सहयोग से पश्चिम बंगाल में स्थापित किया गया था और 1962 में उसमें उत्पादन प्रारंभ हो गया। यह  संयंत्र रानीगंज और झरिया कोयला पेटी में स्थित है और लौह अयस्क नोआमंडी (मानचित्र) से प्राप्त होता है।

बोकारो इस्पात संयंत्र

यह इस्पात संयंत्र रूस के सहयोग से 1964 में बोकारो में स्थापित किया गया था। इस संयंत्र की स्थापना परिवहन लागत न्यूनीकरण सिद्धांत के आधार पर की गई थी जिसके अनुसार बोकारो और राउरकेला संयुक्त रूप से राउरकेला प्रदेश से लौह अयस्क प्राप्त करते हैं और वापसी में मालगाड़ी के डिब्बे राउरकेला के लिए कोयला ले जाते हैं।

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सूती वस्त्र उद्योग

सूती वस्त्र उद्योग भारत के परंपरागत उद्योगों में से एक है। भारत संसार में उत्कृष्ट कोटि का मलमल, कैलिको, छींट और अन्य प्रकार के अच्छी गुणवत्ता वाले सूती कपड़ों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था।

1854 में, पहली आधुनिक सूती मिल की स्थापना मुंबई में की गई। सूती वस्त्र मिलों के लिए आवश्यक मशीनों का आयात इंग्लैंड से किया जा सकता था। 1947 तक भारत में मिलों की संख्या 423 तक पहुँच गई 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मुंबई और अहमदाबाद में पहली मिल की स्थापना के पश्चात् सूती वस्त्र उद्योग का तेजी से विस्तार हुआ।

वर्तमान में अहमदाबाद, भिवांडी, शोलापुर, कोल्हापुर, नागपुर, इंदौर और उज्जैन सूती वस्त्र उद्योग के मुख्य केंद्र हैं। महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु अग्रणी कपास उत्पादक राज्य हैं।

तमिलनाडु राज्य में सबसे अधिक मिलें हैं और उनमें से अधिकांश कपड़ा न बनाकर सूत का उत्पादन करती हैं। उत्तर प्रदेश में कानपुर सबसे बड़ा केंद्र है।

चीनी उद्योग

चीनी उद्योग देश का दूसरा सबसे अधिक महत्वपूर्ण कृषि-आधारित उद्योग है। भारत विश्व में गन्ना और चीनी दोनों का सबसे बड़ा उत्पादक देश है और यह विश्व के कुल चीनी उत्पादन का लगभग 8 प्रतिशत उत्पादन करता है। इसके अतिरिक्त गन्ने से खांडसारी और गुड़ भी तैयार किए जाते हैं। यह उद्योग 4 लाख से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष रूप से और एक बड़ी संख्या में किसानों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करता है।

आधुनिक आधार पर उद्योग का विकास 1903 में प्रारंभ हुआ जब बिहार में एक चीनी मिल की स्थापना की गई।

उद्योग की अवस्थिति

गन्ना एक भार-ह्रास वाली फसल है। चीनी और गन्ने का अनुपात 9 प्रतिशत से 12 प्रतिशत के बीच होता है जो इसकी गुणवत्ता पर निर्भर करता है।

गन्ने को खेत से काटने के 24 घंटे के अंदर ही पेरा जाय तो अधिक चीनी की मात्रा प्राप्त होती है। महाराष्ट्र देश में अग्रणी चीनी उत्पादक राज्य के रूप में विकसित हुआ और देश में कुल चीनी उत्पादन के एक-तिहाई से अधिक भाग का उत्पादन करता है। राज्य में 119 चीनी मिलें हैं चीनी उत्पादन में उत्तर प्रदेश का द्वितीय स्थान है। बिहार, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और गुजरात अन्य चीनी उत्पादक राज्य हैं।

पेट्रो-रसायन उद्योग

उद्योगों का यह वर्ग भारत में तेजी से विकसित हो रहा अपरिष्कृत पेट्रोल से कई प्रकार की वस्तुएँ तैयार की जाती हैं जो अनेक नए उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराती हैं, इन्हें सामूहिक रूप से पेट्रो-रसायन उद्योग के नाम से जाना जाता है। उद्योगों के इस वर्ग को चार उपवर्गों में विभाजित किया गया है- (1) पॉलीमर, (2) कृत्रिम रेशे, (3) इलैस्टोमर्स, (4) पृष्ठ संक्रियक

पटाखों के उद्योग औंरैया (उत्तर प्रदेश), जामनगर, गांधीनगर और हजीरा (गुजरात), नागोथाने, रत्नागिरी महाराष्ट्र, हल्दिया (पश्चिम बंगाल) और विशाखापट्नम (आंध्र प्रदेश) में भी स्थित हैं।

मुंबई, बरौनी, मेटूर पिम्परी और रिशरा में स्थित संयंत्र प्लास्टिक की वस्तुओं के मुख्य उत्पादक हैं। संश्लिष्ट तंतु का अपने मजबूती, टिकाऊपन, प्रक्षालनता, धोने पर न सिकुड़ने के गुणों के कारण इसका व्यापक रूप से प्रयोग कपड़ा बनाने के लिए किया जाता है।

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ज्ञान-आधारित उद्योग

भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग यहाँ की अर्थव्यवस्था में सबसे तेजी से विकसित हुए सेक्टरों में से एक हैं। भारत के सॉफ्टवेयर उद्योग को उत्तम उत्पाद उपलब्ध कराने में असाधारण प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी है। अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के या तो सॉफ्टवेयर विकास केंद्र अथवा अनुसंधान विकास केंद्र भारत में हैं।

भारत में उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण एवं औद्योगिक विकास

नई औद्योगिक नीति की घोषणा 1991 में की गई। इस नीति के मुख्य उद्देश्य थे-अब तक प्राप्त किए गए लाभ को बढ़ाना, इसमें विकृति अथवा कमियों को दूर करना, उत्पादकता और लाभकारी रोजगार में स्वपोषित वृद्धि को बनाए रखना और अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता प्राप्त करना।

इस नीति के अंतर्गत किए गए उपाय हैंः (1) औद्योगिक लाइसेंस व्यवस्था का समापन, (2) विदेशी तकनीकी का निःशुल्क प्रवेश, (3) विदेशी निवेश नीति, (4) पूँजी बाजार में अभिगम्यता, (5) खुला व्यापार, (6) प्रावस्थबद्ध निर्माण कार्यक्रम का उन्मूलन, (7) औद्योगिक अवस्थिति कार्यक्रम का उदारीकरण। नीति के तीन मुख्य लक्ष्य हैं-उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण। नई औद्योगिक नीति में, आर्थिक विकास का ऊँचा स्तर प्राप्त करने के लिए सीधा विदेशी सीधा निवेश घरेलू निवेश के पूरक के रूप में देखा गया है।

औद्योगिक नीति में उदारता, घरेलू और बहुराष्ट्रीय दोनों व्यक्तिगत पूँजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए, दिखाई गई।

वैश्वीकरण का अर्थ देश की अर्थव्यवस्था को संसार की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करना है।

भारत के औद्योगिक प्रदेश

देश में उद्योगों का वितरण समरूप नहीं है। देश के प्रमुख औद्योगिक प्रदेशों का सविस्तार विवरण आगे प्रस्तुत है

मुंबई-पुणे औद्योगिक प्रदेश

यह मुंबई-थाने से पुणे तथा नासिक और शोलापुर जिलों के संस्पर्शी क्षेत्रों तक विस्तृत है। इस प्रदेश का विकास मुंबई में सूती वस्त्र उद्योग की स्थापना के साथ प्रारंभ हुआ। मुंबई में कपास के पृष्ठ प्रदेश में स्थिति होने और नम जलवायु के कारण मुंबई में सूती वस्त्र उद्योग का विकास हुआ। 1869 में स्वेज नहर के खुलने के कारण मुंबई पत्तन के विकास को प्रोत्साहन मिला। मुंबई हाई पेट्रोलियम क्षेत्र और नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र की स्थापना ने इस प्रदेश को अतिरिक्त बल प्रदान किया।

हुगली औद्योगिक प्रदेश

हुगली नदी के किनारे बसा हुआ, यह प्रदेश उत्तर में बाँसबेरिया से दक्षिण में बिडलानगर तक लगभग 100 किलोमीटर में फैला है। उद्योगों का विकास पश्चिम में मेदनीपुर में भी हुआ है। कोलकाता-हावड़ा इस औद्योगिक प्रदेश के केंद्र हैं।

इसका विकास हुगली नदी पर पत्तन के बनने के बाद प्रारंभ से हुआ।

कोलकाता ने अंग्रेजी ब्रिटिश भारत की राजधानी (1773-1911) होने के कारण ब्रिटिश पूँजी को भी आकर्षित किया। 1855 में रिशरा में पहली जूट मिल की स्थापना ने इस प्रदेश के आधुनिक औद्योगिक समूहन के युग का प्रारंभ किया। जूट उद्योग का मुख्य केंद्रीकरण हावड़ा और भटपारा में है।

बेंगलूरू-चेन्नई औद्योगिक प्रदेश

यह प्रदेश स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अत्यधिक तीव्रता से औद्योगिक विकास का साक्षी है। कोयला क्षेत्रों से दूर होने के कारण इस प्रदेश का विकास पायकारा जलविधुत संयंत्र पर निर्भर करता है जो 1932 में बनाया गया था।

वायुयान (एच. ए. एल.), मशीन उपकरण, टेलीफोन और भारत इलेक्ट्रानिक्स इस प्रदेश के औद्योगिक स्तंभ हैं। टेक्सटाइल, रेल के डिब्बे, डीलन इंजन, रेडियों, हल्की अभियांत्रिकी वस्तुएँ, रबर का सामान, दवाएँ, एल्युमीनियम, शक्कर, सीमेंट, ग्लास, कागज, रसायन, फिल्म, सिगरेट, माचिस, चमड़े का सामान आदि महत्वपूर्ण उद्योग हैं।

गुजरात औद्योगिक प्रदेश

इस प्रदेश का केंद्र अहमदाबाद और वडोदरा के बीच है लेकिन यह प्रदेश दक्षिण में वलसाद और सूरत तक और पश्चिम में जामनगर तक फैला है। इस प्रदेश का विकास 1860 में सूती वस्त्र उद्योग की स्थापना से भी संबंधित है।

कपड़ा (सूती, सिल्क और कृत्रिम कपड़े) और पेट्रो-रासायनिक उद्योगों के अतिरिक्त अन्य उद्योग भारी और आधार रासायनिक, मोटर, ट्रैक्टर, डीजल, इंजन, टेक्सटाइल मशीनें, इंजीनियरिंग, औषधि, रंग रोगन, कीटनाशक, चीनी, दुग्ध उत्पाद और खाद्य प्रक्रमण हैं।

छोटानागपुर प्रदेश

यह प्रदेश झारखंड, उत्तरी ओडिशा और पश्चिमी बंगाल में फैला है और भारी धातु उद्योगों के लिए जाना जाता है। इस प्रदेश में छः बड़े एकीकृत्र लौह-इस्पात संयंत्र जमशेदपुर, बर्नपुर, कुल्टी, दुर्गापुर बोकारो और राउकेला में स्थापित है।

विशाखापट्नम-गुंटूर प्रदेश

यह औद्योगिक प्रदेश विशाखापत्तनम् जिले से लेकर दक्षिण में कुरूनूल और प्रकासम जिलों तक फैला है।

आयातित पेट्रोल पर आधारित पेट्रोलियम परिशोधनशाला ने कई पेट्रो-रासायनिक उद्योगों की वृद्धि को सुगम बनाया है। शक्कर, वस्त्र, जूट, कागज, उर्वरव, सीमेंट, एल्युमिनिय और हल्की इंजीनियरिंग इस प्रदेश के मुख्य उद्योग हैं।

गुरूग्राम-दिल्ली-मेरठ प्रदेश

इलेक्ट्रॉनिक, हल्के इंजीनियरिंग और विद्युत उपकरण इस प्रदेश के प्रमुख उद्योग हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ सूती, ऊनी और कृत्रिम रेशा वस्त्र, होजरी, शक्कर, सीमेंट, मशीन उपकरण, ट्रैक्टर, साईकिल, कृषि उपकरण, रासायनिक पदार्थ और वनस्पति घी उद्योग हैं जो कि बड़े स्तर पर विकसित हैं।

कोलम-तिरूवनंतपुरम प्रदेश

यह औद्योगिक प्रदेश तिरूवनंतपुरम, कोलम, अलवाय, अरनाकुलम् और अल्लापुझा जिलों में फैला हुआ है। उनमें से सूती वस्त्र उद्योग, चीनी, रबड़, माचिस, शीशा, रासायनिक उर्वरक और मछली आधारित उद्योग महत्वपूर्ण हैं।

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कक्षा 12 भूगोल पाठ 7 खनिज तथा ऊर्जा संसाधन | Khanij tatha urja sansadhan class 12 notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ सात ‘खनिज तथा ऊर्जा संसाधन (Khanij tatha urja sansadhan class 12 notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

Khanij tatha urja sansadhan class 12 notes

अध्याय 7
खनिज तथा ऊर्जा संसाधन

इस अध्याय में, हम देश में विभिन्न प्रकार के खनिजों एवं ऊर्जा के संसाधनों की उपलब्धता के बारे में चर्चा करेंगे।

खनिज संसाधनों के प्रकार

रासायनिक एवं भौतिक गुणधर्मा के आधार पर खनिजों को दो प्रमुख श्रेणियों-धात्विक (धातु) और अधात्विक (अधातु)

भारत में खनिजों का वितरण

भारत में अधिकांश धात्विक खनिज प्रायद्वीपीय पठारी क्षेत्र की प्राचीन क्रिस्टलीय शैलों में पाए जाते हैं। कोयले का लगभग 97 प्रतिशत भाग दामोदर, सोन, महानदी और गोदावरी नदियों की घाटियों में पाया जाता है। पेट्रोलियम के आरक्षित भंडार असम, गुजरात तथा मुंबई हाई अर्थात् अरब सागर के अपतटीय क्षेत्र में पाए जाते हैं। भारत में खनिज मुख्यतः तीन विस्तृत पट्टियों में सांद्रित हैं। ये पट्टियाँ हैं-

त्तर-पूर्वी पठारी प्रदेश

इस पट्टी के अंतर्गत छोटानागपुर (झारखंड), ओडिशा के पठार, पं. बंगाल तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भाग आते हैं। यहाँ पर विभिन्न प्रकार के खनिज जैसे कि लौह अयस्क, कोयला, मैंगनीज, बॉक्साइट व अभ्रक आदि।

दक्षिण-पश्चिमी पठार प्रदेश

यह पट्टी कर्नाटक, गोआ तथा संस्पर्शी तमिलनाडु उच्च भूमि और केरल पर विस्तृत है। यह पट्टी लौह धातुओं तथा बॉक्साइट में समृद्ध है। इसमें उच्च कोटि का लौह अयस्य, मैंगनीज तथा चूना-पत्थर भी पाया जाता है।

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त्तर-पश्चिमी प्रदेश

यह पट्टी राजस्थान में अरावली और गुजरात के कुछ भाग पर विस्तृत है ताँबा, जिंक आदि प्रमुख है। राजस्थान बलुआ पत्थर, ग्रेनाइट, संगमरमर, जिप्सम जैसे भवन निर्माण के पत्थरों में समृद्ध हैं

डोलोमाइट तथा चुना-पत्थर सीमेंट उद्योग के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं।

हिमालयी पट्टी एक अन्य खनिज पट्टी है जहाँ ताँबा, सीसा, जस्ता, कोबाल्ट तथा रंगरत्न पाया जाता है। असम घाटी में खनिज तेलों के निक्षेप हैं।

लौह खजिन

लौह अयस्क, मैंगनीज तथा क्रोमाइट आदि जैसे लौह खनिज धातु आधारित उद्योगों के विकास के लिए एक सुदृढ़ आधार प्रदान करते हैं।

लौह अयस्क

भारत में लौह अयस्क के प्रचुर संसाधन हैं। यहाँ एशिया के विशालतम लौह अयस्क आरक्षित हैं। हमारे देश में इस अयस्क के दो प्रमुख प्रकार- हेमेटाइट तथा मैग्नेटाइट पाए जाते हैं।

लौह अयस्क के कुल आरक्षित भंडारों का लगभग 95 प्रतिशत भाग ओडिशा, झारखंड, कर्नाटक, गोआ, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में स्थित हैं। ओडिशा में लौह अयस्क सुंदरगढ़, मयूरभंज, झार स्थित पहाड़ी श्रृंखलाओं में पाया जाता है।

कर्नाटक में, लौह अयस्क के निक्षेप बल्लारि जिले के संदूर-होसपेटे क्षेत्र में तथा चिकमगलूरू जिले की बाबा बूदन पहाड़ियों और कुद्रेमुख तथा शिवमोगा, चित्रदुर्ग और तुमकुरू जिलों के कुछ हिस्सों में पाए जाते हैं। महाराष्ट्र के चंद्रपुर भंडारा और रत्नागिरि जिले, तेलंगाना के करीम नगर, वारांगल जिले, आंध्र प्रदेश के कुरूनूल, कडप्पा तथा अनंतपुर जिले और तमिलनाडु राज्य के सेलम तथा नीलगिरी जिले लौह अयस्क खनन के अन्य प्रदेश हैं।

मैंगनीज

लौह अयस्क के प्रगलन के लिए मैंगनीज एक महत्वपूर्ण कच्चा माल है और इसका उपयोग लौह-मिश्रातु, विनिर्माण में भी किया जाता है।

ओडिशा मैंगनीज का अग्रणी उत्पादनक है। ओडिशा की मुख्य खदानें भारत की लौह अयस्क पट्टी के मध्य भाग में विशेष रूप से बोनाई, केन्दुझर, सुंदरगढ़, गंगपुर, कोरापुट, कालाहांडी तथा बोलनगीर स्थित हैं। कर्नाटक एक अन्य प्रमुख उत्पादक है महाराष्ट्र भी मैंगनीज का एक महत्वपूर्ण उत्पादक हैं।

अलौह-खनिज

बॉक्साइट

बॉक्साइट एक अयस्क है जिसका प्रयोग एल्युमिनियम के विनिर्माण में किया जाता है। ओडिशा बॉक्साइट का सबसे बड़ा उत्पादक है। कालाहांडी तथा संभलपुर अग्रणी उत्पादक हैं। छत्तीसगढ़ में बॉक्साइट निक्षेप अमरकंटक के पठार में पाए जाते हैं

ताँबा

बिजली की मोटरें, ट्रांसफार्मर तथा जेनेरेटर्स आदि बनाने तथा विधुत उद्योग के लिए ताँबा एक अपरिहार्य धातु है। यह एक आभूषणों को सुदृढ़ता प्रदान करने के इसे स्वर्ण के साथ भी मिलाया जाता है। ताँबा निक्षेप मुख्यतः झारखंड के सिंहभूमि जिले में, मध्य प्रदेश के बालाघाट तथा राजस्थान के झुंझुनु एवं अलवर जिलों में पाए जाते हैं

अधात्विक खनिज

अभ्रक

अभ्रक का उपयोग मुख्यतः विधुत एवं इलेक्ट्रोनिक्स उद्योगों में किया जाता है। भारत में अभ्रक मुख्यतः झारखंड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना व राजस्थान में पाया जाता है। आंध्र प्रदेश में, नेल्लोर जिले में सर्वोत्तम प्रकार के अभ्रक का उत्पादन किया जाता है।

ऊर्जा संसाधन

ऊर्जा उत्पादन के लिए खनिज ईधन अनिवार्य हैं ऊर्जा की आवश्यकता कृषि, उद्योग, परिवहन तथा अर्थव्यवस्था के अन्य खंडों में होती है। कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस जैसे खनिज ईधन (जो जीवाश्म ईधन के रूप में जाने जाते हैं), परमाणु ऊर्जा, ऊर्जा के परंपरागत स्रोत हैं।

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कोयला

कोयला महत्वपूर्ण खनिजों में से एक है जिसका मुख्य प्रयोग ताप विधुत उत्पादन तथा लौह अयस्क के प्रगलन के लिए किया जाता है। कोयला मुख्य रूप से दो भूगर्भिक कालों की शैल क्रमों में पाया जाता है जिनके नाम हैं गोंडवाना और टर्शियरी निक्षेप।

भारत में कोयला निक्षेपों का लगभग 80 प्रतिशत भाग बिटुमिनियस प्रकार का तथा गैर कोककारी श्रेणी का है। गोंडवाना कोयले के प्रमुख संसाधन पं. बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में अवस्थित कोयला क्षेत्रों में है। भारत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गोंडवाना कोयला क्षेत्र दामोदर घाटी में स्थित है। ये झारखंड-बंगाल कोयला पट्टी में स्थित हैं और इस प्रदेश के महत्वपूर्ण कोयला क्षेत्र रानीगंज, झरिया, बोकारो गिरीडीह तथा करनपुरा (झारखंड) हैं। झरिया सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है जिसके बाद रानीगंज आता है।

टर्शियरी कोयला असम, अरूणाचल प्रदेश, मेघालय तथा नागालैंड में पाया जाता है।

पैट्रोलियम

कच्चा पेट्रोलियम द्रव और गैसीय अवस्था के हाइड्रोकार्बन से युक्त होता है यह मोटर-वाहनां, रेलवे तथा वायुयानों के अंतर-दहन ईधन के लिए ऊर्जा का एक अनिवार्य स्रोत है। इसके अनेक सह-उत्पाद पेट्रो-रसायन उद्योगों, जैसे कि उर्वरक, कृत्रिम रबर, कृत्रिम रेशे, दवाइयाँ, वैसलीन, स्नेहकों, मोम, साबुन तथा अन्य सौंदर्य सामग्री में प्रक्रमित किए जाते हैं।

असम में डिगबोई, नहारकटिया तथा मोरान महत्वपूर्ण तेल उत्पादक क्षेत्र हैं। गुजरात में प्रमुख तेल क्षेत्र अंकलेश्वर, कालोल, मेहसाणा, नवागाम, कोसांबा तथा लुनेज हैं। मुंबई हाई, जो मुंबई नगर से 160 कि. मी. दूर अपतटीय क्षेत्र में पड़ता है, को 1973 में खोजा गया था और वहाँ 1976 में उत्पादन प्रारंभ हो गया।

कूपों से निकाला गया तेल अपरिष्कृत तथा अनेक अशुद्धियों से परिपूर्ण होता है। इसे सीधे प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। भारत में दो प्रकार के तेल शोधन कारखाने हैंः (क) क्षेत्र आधारित (ख) बाजार आधारित। डिगबोई तेल शोधन कारखाना क्षेत्र आधारित तथा बरौनी बाजार आधारित तेल शोधन कारखाने के उदाहरण हैं।

प्राकृतिक गैस

गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड की स्थापना 1984 में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम के रूप में प्राकृतिक गैस के परिवहन एवं विपणन के लिए की गई थी। गैस को सभी तेल क्षेत्रों में तेल के साथ प्राप्त किया जाता है।

अपरंपरागत ऊर्जा स्रोत

जैसे- सौर, पवन, जल भूतापीय ऊर्जा तथा जैवभार (बायोमास)। यह ऊर्जा स्रोत अधिक समान रूप से वितरित तथा पर्यावरण-अनुकूल हैं। अपरंपरागत स्रोत अधिक आरंभिक लागत के बावजूद अधिक टिकाऊ, पारिस्थितिक-अनुकूल तथा सस्ती ऊर्जा उपलब्ध कराते हैं।

नाभिकीय ऊर्जा

नाभिकीय ऊर्जा के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले महत्वपूर्ण खनिज यूरेनियम और थोरियम हैं। भौगोलिक रूप से यूरेनियम अयस्क सिंहभूम ताँबा पट्टी के साथ अनेक स्थानों पर मिलते हैं। यह राजस्थान के उदयपुर, अलवर, झुंझुनू जिलों में भी पाया जाता है। थोरियम मुख्यतः केरल के तटीय क्षेत्र की पुलिन बीच की बालू में मोनाजाइट एवं इल्मेनाइट से प्राप्त किया जाता है।

परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना 1948 में की गई थी और इस दिशा में प्रगति 1954 में ट्रांबे परमाणु ऊर्जा संस्थान की स्थापना के बाद हुई जिसे बाद में, 1967 में, भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के रूप में पुनः नामित किया गया। महत्वपूर्ण नाभिकीय ऊर्जा परियोजनाएँ- तारापुर (महाराष्ट्र), कोटा के पास रावतभाटा (राजस्थान), कलपक्कम (तमिलनाडु), नरोरा (उत्तर प्रदेश), कैगा (कर्नाटक) तथा काकरापाड़ा (गुजरात) हैं।

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सौर ऊर्जा

फोटोवोल्टाइक सेलों में विपाशित सूर्य की किरणों को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है जिसे सौर ऊर्जा के नाम से जाना जाता है।

यह सामान्यतः हीटरों, फसल शुष्ककों कुकर्स आदि जैसे उपकरणों में अधिक प्रयोग की जाती है।

पवन ऊर्जा

पवन ऊर्जा पूर्णरूपेण प्रदूषण मुक्त और ऊर्जा का असमाप्य स्रोत है। पवन की गतिज ऊर्जा को टरबाइन के माध्यम से विधुत-ऊर्जा में बदला जाता है। पवन ऊर्जा के लिए राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में अनुकूल परिस्थितियाँ विद्यमान हैं।

ज्वारीय तथा तरंग ऊर्जा

महासागरीय धाराएँ ऊर्जा का अपरिमित भंडार-गृह है। भारत के पश्चिमी तट पर वृहत ज्वारीय तरंगे उत्पन्न होती हैं। यद्यपि भारत के पास तटों के साथ ज्वारीय ऊर्जा विकसित करने की व्यापक संभावनाएँ है, परंतु अभी तक इनका उपयोग नहीं किया गया है।

भूतापीय ऊर्जा

जब पृथ्वी के गर्भ से मैग्मा निकलता है तो अत्यधिक ऊष्मा निर्मुक्त होती हैं इस ताप ऊर्जा को सफलतापूर्वक काम में लाया जा सकता है और इसे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। इसके अलावा, गीजर कूपों से निकलते गर्म पानी से ताप ऊर्जा पैदा की जा सकती है। इसे लोकप्रिय रूप में भूतापी ऊर्जा के नाम से जानते हैं।

भारत में, भूतापीय ऊर्जा संयंत्र हिमाचल प्रदेश के मनीकरण में अधिकृत किया जा चुका हैं भूमिगत ताप के उपयोग का पहला सफल प्रयास (1890 में) बोयजे शहर, इडाहो (यू. एस. ए.) में हुआ था जहाँ आसपास के भवनों को ताप देने के लिए गरम जल के पाइपों का जाल तंत्र (नेटवर्क) बनाया गया था। यह संयंत्र अभी भी काम कर रहा है।

जैव-ऊर्जा

जैव-ऊर्जा उस ऊर्जा को कहा जाता है जिसे जैविक उत्पादों से प्राप्त किया जाता है जिसमें कृषि अवशेष, नगरपालिका औद्योगिक तथा अन्य अपशिष्ट शामिल होते हैं। जैव-ऊर्जा, ऊर्जा परिवर्तन का एक संभावित स्रोत है। इसे विद्युत-ऊर्जा, ताप-ऊर्जा अथवा खाना पकाने के लिए गैस में परिवर्तित किया जा सकता है। नगरपालिका कचरे को ऊर्जा में बदलने वाली ऐसी ही एक परियोजना नई दिल्ली के ओखला में स्थित है।

खनिज संसाधनों का संरक्षण

सतत पोषणीय विकास की चुनौती के लिए आर्थिक विकास की चाह का पर्यावरणीय मुद्दों से समन्वय आवश्यक है। संसाधन उपयोग के परंपरागत तरीकों के परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में अपशिष्ट के साथ-साथ अन्य पर्यावरणीय समस्याएँ भी पैदा होती हैं। अतएव, सतत पोषणीय विकास भावी पीढ़ीयों के लिए संसाधनों के संरक्षण का आह्वान करता है। संसाधनों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों, जैसे-सौर ऊर्जा, पवन, तरंग, भूतापीय आदि ऊर्जा के असमाप्य स्रोत हैं।

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कक्षा 12 भूगोल पाठ 6 जल-संसाधन | Jal sansadhan class 12th geography notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ छ: ‘जल-संसाधन (Jal sansadhan class 12th geography Notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

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अध्याय 6
जल-संसाधन

जल अभाव संभवतः इसकी बढ़ती हुई माँग, अति उपयोग तथा प्रदूषण के कारण घटती आपूर्ति के आधार पर सबसे बड़ी चुनौती है।

पृथ्वी का लगभग 71 प्रतिशत धरातल पानी से आच्छादित है परंतु अलवणीय जल कुल जल का केवल लगभग 3 प्रतिशत ही है।

भारत के जल संसाधन

भारत में विश्व के धरातलीय क्षेत्र का लगभग 2.45 प्रतिशत, जल संसाधनों का 4 प्रतिशत, जनसंख्या का लगभग 16 प्रतिशत भाग पाया जाता है।

धरातलीय जल संसाधन

धरातलीय जल के चार मुख्य स्रोत हैं-नदियाँ, झीलें, तलैया और तालाब। देश में कुल नदियों तथा उन सहायक नदियों, जिनकी लंबाई 1.6 कि. मी. से अधिक है, को मिलाकर 10,360 नदियाँ हैं।

गंगा, ब्रह्रापुत्र और बराक नदियों देश के कुल क्षेत्र के लगभग एक-तिहाई भाग पर पाई जाती हैं जिनमें कुल धरातलीय जल संसाधनों का 60 प्रतिशत जल पाया जाता है।

भौम जल संसाधन

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों में भौम जल का उपयोग बहुत अधिक है। परंतु कुछ राज्य जैसे छत्तीसगढ़, ओडिशा, केरल आदि अपने भौम जल क्षमता का बहुत कम उपयोग करते हैं।

लैगून और पश्च जल

भारत की समुद्र तट रेखा विशाल है और कुछ राज्यों में समुद्र तट बहुत दंतुरित है। इसी कारण बहुत-सी लैगून और झीलें बन गई हैं। केरल, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में इन लैगूनों और झीलों में बड़े धरातलीय जल संसाधन हैं।

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जल की माँग और उपयोग

भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है और इसकी जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई भाग कृषि पर निर्भर है।

धरातलीय और भौम जल का सबसे अधिक उपयोग कृषि में होता है। इसमें धरातलीय जल का 89 प्रतिशत और भौम जल का 92 प्रतिशत जल उपयोग किया जाता है।

सिंचाई के लिए जल की माँग

कृषि में, जल का उपयोग मुख्य रूप से सिंचाई के लिए होता है।

संभावित जल समस्या

जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता, जनसंख्या बढ़ने से दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। उपलब्ध जल संसाधन औद्योगिक, कृषि और घरेलू निस्सरणों से प्रदूषित होता जा रहा है और इस कारण उपयोगी जल संसाधनों की उपलब्धता और सीमित होती जा रही है।

जल के गुणों का ह्रास

जल गुणवत्त से तात्पर्य जल की शुद्धता अथवा अनावश्यक बाहरी पदार्थो से रहित जल से है। जल बाह्रा पदार्थो, जैसे-सूक्ष्म जीवों, रासायनिक पदार्थो, औद्योगिक और अन्य अपशिष्ट पदार्थो से प्रदूषित होता है।

जब विषैले पदार्थ झीलों, सरिताओं, नदियों, समुद्रों और अन्य जलाशयों में प्रवेश करते हैं, वे जल में घुल जाते हैं अथवा जल में निलंबित हो जाते हैं। इससे जल प्रदूषण बढ़ता है देश में गंगा और यमुना, दो अत्यधिक प्रदूषित नदियाँ हैं।

जल संरक्षण और प्रबंधन

अलवणीय जल की घटती हुई उपलब्धता और बढ़ती माँग से, सतत पोषणीय विकास के लिए इस महत्वपूर्ण जीवनदायी संसाधन के सरंक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता बढ़ गई है। जल-संभर विकास, वर्षा जल संग्रहण, जल के पुनः चक्रण और पुनः उपयोग और लंबे समय तक जल की आपूर्ति के लिए जल के संयुक्त उपयोग को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

जल प्रदूषण का निवारण

उपलब्ध जल संसाधनों का तेजी से निम्नीकरण हो रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सी. पी. सी. बी), राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एस. पी. सी.) के साथ मिलकर 507 स्टेशनों की राष्ट्रीय जल संसाधन की गुणवत्ता का मानीटरन किया जा रहा है।

दिल्ली और इटावा के बीच यमुना नदी देश में सबसे अधिक प्रदूषित नदी है। दूसरी प्रदूषित नदियाँ अहमदाबाद में साबरमती, लखनऊ में गोमती, मदुरई में काली, अडयार, कूअम (संपूर्ण विस्तार), वैगई, हैदराबाद में मूसी तथा कानपुर और वाराणसी में गंगा है।

वैधानिक व्यवस्थाएँ, जैसे- जल अधिनियम 1947 (प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण) और पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986, प्रभावपूर्ण ढंग से कार्यान्वित नहीं हुए हैं। जल के महत्व और जल प्रदूषण के अधिप्रभावों के बारे में जागरूकता का प्रसार करने की आवश्यकता है।

जल का पुनः चक्र और पुनः उपयोग

पुनः चक्र और पुनः उपयोग, दूसरे रास्ते हैं जिनके द्वारा अलवणीय जल की उपलब्धता को सुधारा जा सकता है। कम गुणवत्त के जल का उपयोग, जैसे शोधित अपशिष्ट जल, उद्योगों के लिए एक आकर्षक विकल्प हैं और जिसका उपयोग शीतलन एवं अग्निशमन के लिए करके वे जल पर होने वाली लागत को कम कर सकते हैं। इसी तरह नगरीय क्षेत्रों में स्नान और बर्तन धोने में प्रयुक्त जल को बागवानी के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।

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जल संभर प्रबंधन

जल संभर प्रबंधन से तात्पर्य, मुख्य रूप से, धरातलीय और भौम जल संसाधनों के दक्ष प्रबंधन से है। इसके अंतर्गत बहते जल को रोकना और विभिन्न विधियों, जैसे-अंतः स्रवण तालाब, पुनर्भरण, कुओं आदि के द्वारा भौम जल का संचयन और पुनर्भरण शामिल हैं।

‘हरियाली‘ केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल-संभर विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण जनसंख्या को पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण के लिए जल संरक्षण के लिए योग्य बनाना है।

नीरू-मीरू (जल और आप) कार्यक्रम (आंध्र प्रदेश में) और अरवारी पानी संसद (अलवर राजस्थान में) के अंतर्गत लोगों के सहयोग से विभिन्न जल संग्रहण संरचनाएँ जैसे-अंतः स्रवण तालाब ताल (जोहड़) की खुदाई की गई है और रोक बाँध बनाए गए हैं। तमिलनाडु में घरों में जल संग्रहण संरचना को बनाना आवश्यक कर दिया गया है। किसी भी इमारत का निर्माण बिना जल संग्रहण संरचना बनाए नहीं किया जा सकता है।

वर्षा जल संग्रहण

वर्षा जल संग्रहण विभिन्न उपयोगों के लिए वर्षा के जल को रोकने और एकत्र करने की विधि है। इसका उपयोग भूमिगत जलभृतों के पुनर्भरण के लिए भी किया जाता है। यह एक कम मूल्य और पारिस्थितिकी अनुकूल विधि है जिसके द्वारा पानी की प्रत्येक बूँद संरक्षित करने के लिए वर्षा जल को नलकूपों, गड्ढों और कुओं में एकत्र किया जाता है। वर्षा जल संग्रहण पानी की उपलब्धता को बढ़ाता है, भूमिगत जल स्तर को नीचा होने से रोकता है, फ्लुओराइड और नाइट्रेट्स जैसे संदूषकों को कम करके अवमिश्रण भूमिगत जल की गुणवत्ता बढ़ाता है, मृदा अपरदन और बाढ़ को रोकता है

ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत वर्षा जल संग्रहण सतह संचयन जलाशयों, जैसे-झीलों, तालाबों, सिंचाई तालाबों आदि में किया जाता है। राजस्थान में वर्षा जल संग्रहण ढाँचे जिन्हें कुंड अथवा टाँका (एक ढका हुआ भूमिगत टंकी) के नाम से जानी जाती है जिनका निर्माण घर अथवा गाँव के पास या घर में संग्रहित वर्षा जल को एकत्र करने के लिए किया जाता है।

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कक्षा 12 भूगोल पाठ 4 मानव बस्तियाँ | Manav Bastiya class 12 notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ चार ‘मानव बस्तियाँ (Manav Bastiya class 12 notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

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अध्याय 4
मानव बस्तियाँ

मानव बस्ती का अर्थ है किसी भी प्रकार और आकार के घरों का संकुल जिनमें मनुष्य रहते हैं। इस उद्देश्य के लिए लोग मकानों और अन्य इमारतों का निर्माण करते हैं और अपने आर्थिक पोषण-आधार के लिए कुछ क्षेत्र पर स्वामित्व रखते हैं।

विरल रूप से अवस्थित छोटी बस्तियाँ, जो कृषि अथवा अन्य प्राथमिक क्रियाकलापों में विशिष्टता प्राप्त कर लेती हैं, गाँव कहलाती हैं दूसरी ओर कम, किंतु बड़े अधिवास द्वितीयक और तृतीयक क्रियाकलापों में विशेषीकृत होते हैं जो इन्हें नगरीय बस्तियाँ कहा जाता है।

ग्रामीण बस्तियाँ अपने जीवन का पोषण अथवा आधारभूत आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति भूमि आधारित प्राथमिक आर्थिक क्रियाओं से करती हैं जबकि नगरीय बस्तियाँ एक ओर कच्चे माल के प्रक्रमण और तैयार माल के विनिर्माण तथा दूसरी ओर विभिन्न प्रकार की सेवाओं पर निर्भर करती हैं। नगर आर्थिक वृद्धि के नोड के रूप में कार्य करते हैं और न केवल नगर निवासियों को बल्कि अपने पश्च भूमि की ग्रामीण बस्तियों को भी भोजन और कच्चे माल के बदले वस्तुएँ और सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं। नगरीय और ग्रामीण बस्तियों के बीच प्रकार्यात्मक संबंध परिवहन और संचार परिपथ के माध्यम से स्थापित होता है। ग्रामीण और नगरीय बस्तियाँ सामाजिक संबंधों अभिवृति और दृष्टिकोण की दृष्टि से भी भिन्न होती हैं। ग्रामीण लोग कम गतिशील होते हैं और इसलिए उनमें सामाजिक संबंध घनिष्ठ होते हैं। दूसरी ओर नगरीय क्षेत्रों में जीवन का ढंग जटिल और तीव्र होता है और सामाजिक संबंध औपचारिक होते हैं।

ग्रामीण बस्तियों के प्रकार

ग्रामीण बस्तियों के विभिन्न प्रकारों के लिए अनेक कारक और दशाएँ उतरदायी हैं। इनके अंतर्गत- (1) भौतिक लक्षण-भू-भाग की प्रकृति, ऊँचाई, जलवायु और जल की उपलब्धता, (2) सांस्कृतिक और मानवजातीय कारक-सामाजिक संरचना, जाति और धर्म, (3) सुरक्षा संबंधी कारक-चोरियों और डकैतियों से सुरक्षा करते हैं। बृहत् तौर पर भारत की ग्रामीण बस्तियों को चार प्रकारों में रखा जा सकता है-

गुच्छित, संकुलित अथवा आकेंद्रित अर्ध-गुच्छित अथवा विखंडित पल्लीकृत और परिक्षिप्त अथवा एकाकी

गुच्छित बस्तियाँ

उपजाऊ जलोढ़ मैदानों और उतर-पूर्वी राज्यों में पाई जाती है। कई बार लोग सुरक्षा अथवा प्रतिरक्षा कारणों से संहत गाँवों में रहते हैं, जैसे कि मध्य भारत के बुंदेलखंड प्रदेश और नागालैंड में।

पल्ली बस्तियाँ

कई बार बस्ती भौतिक रूप से एक-दूसरे से पृथक अनेक इकाइयों में बँट जाती है किंतु उन सबका नाम एक रहता है। इन इकाइयों को देश के विभिन्न भागों में स्थानीय स्तर पर पान्ना, पाड़ा, पाली, नगला, ढाँणी इत्यादि कहा जाता है।

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नगरीय बस्तियाँ

अतः वस्तुओं और सेवाओं का विनियम कई बार प्रत्यक्ष रूप से और कई बार मंडी शहरों और नगरों की श्रृंखला के माध्यम से संपन्न होता है। इस प्रकार नगर गाँवों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से जुड़े होते हैं और वे परस्पर भी जुड़े हुए होते हैं। आप ’मानव भूगोल के मूलभूत सिद्धांत ’नामक पुस्तक के अध्याय 10 में नगरों की परिभाषा देख सकते हैं।

भारत में नगरों का विकास

प्राचीन नगर

भारत में 2000 से अधिक वर्षो की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले अनेक नगर हैं। इनमें से अधिकांश का विकास धार्मिक अथवा सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में हुआ है। वाराणसी इनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण नगर हैं। प्रयाग (इलाबाद), पाटलिपुत्र (पटना), मदुरई देश में प्राचीन नगरों के कुछ अन्य उदाहरण हैं।

मध्यकालीन नगर

वर्तमान के लगभग 100 नगरों का इतिहास मध्यकाल से जुड़ा है। इनमें से अधिकांश का विकास रजवाड़ों और राज्यों के मुख्यालयों के रूप में हुआ। ये किला नगर हैं जिनका निर्माण प्राचीन नगरों के खंडहरों पर हुआ है। ऐसे नगरों में दिल्ली, हैदराबाद, जयपुर, लखनऊ, आगरा, और नागपुर महत्वपूर्ण हैं।

आधुनिक नगर

अंग्रेजों और अन्य यूरोपियों ने भारत में अनेक नगरों का विकास किया। तटीय स्थानों पर अपने पैर जमाते हुए उन्होंने सर्वप्रथम सूरत, दमन, गोआ, पांडिचेरी इत्यादि जैसे व्यापारिक पतन विकसित किए। अंग्रेजों ने बाद में तीन मुख्य नोडों मुंबई (बंबई), चेन्नई (मद्रास) और कोलकाता (कलकता) पर अपनी पकड़ मजबूत की और उनका अंग्रेजी शैली में निर्माण किया।

1850 के बाद आधुनिक उद्योगों पर आधारित नगरों का भी जन्म हुआ। जमशेदपुर इसका एक उदाहरण है। प्रशासनिक केंद्रों, जैसे-चंडीगढ़, भुवनेश्वर, गांधीनगर, दिसपुर इत्यादि और औद्योगिक केंद्रों जैसे दुर्गापुर, भिलाई, सिंदरी, बरौनी के रूप में विकसित हुए। कुछ पुराने नगर महानगरों के चारों ओर अनुषंगी नगरों के रूप में विकसित हुए जैसे दिल्ली के चारों ओर गाजियाबाद, रोहतक और गुरूग्राम इत्यादि।

जनसंख्या आकार के आधार पर नगरों का वर्गीकरण

एक लाख से अधिक नगरीय जनसंख्या वाले नगरीय केंद्र को नगर अथवा प्रथम वर्ग का नगर कहा जाता है। 10 लाख से 50 लाख की जनसंख्या वाले नगरों को महानगर तथा 50 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों को मेगा नगर कहा जाता है। एक नगरीय संकुल में निम्नलिखित तीन संयोजकों में से किसी एक का समावेश होताहै-(क) एक नगर व उसका संलग्न नगरीय बहिर्बद्ध, (ख) बहिर्बद्ध के सहित अथवा रहित दो अथवा अधिक संस्पर्शी नगर, और (ग) एक अथवा अधिक संलग्न नगरों के बहिर्बद्ध से युक्त एक संस्पर्शी प्रसार नगर का निर्माण।

भारत की 60 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या प्रथम वर्ग के नगरों में रहती हैं। इन 468 नगरों में से 53 नगर/नगरीय संकुल महानगर हैं। इनमें से छः मेगा नगर हैं जिनमें से प्रत्येक की जनसंख्या 50 लाख से अधिक है। पाँचवें भाग से अधिक (21.0प्रतिशत) नगरीय जनसंख्या इन मेगानगरों में रहती है। इनमें से 1 करोड़ 84 लाख लोगों के साथ बृहन मुंबई सबसे बड़ा नगरीय संकुल हैः दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलूरू और हैदराबाद देश के अन्य मेगा नगर हैं।

नगरों का प्रकार्यात्मक वर्गीकरण

प्रशासन शहर और नगर उच्चतर क्रम के प्रशासनिक मुख्यालयों वाले शहरों को प्रशासन नगर कहते हैं, जैसे कि चंडीगढ़, नई दिल्ली, भोपाल, शिलांग, गुवाहाटी, इंफाल, श्रीनगर, गांधी नगर, जयपुर, चेन्नई इत्यादि।

खनन नगर ये नगर खनिज समृद्ध क्षेत्रों में विकसित हुए हैं जैसे रानीगंज, झरिया, डिगबोई, अंकलेश्वर, सिंगरौली इत्यादि।

गैरिसन (छावनी) नगर इन नगरों का उदय गैरिसन नगरों के रूप में हुआ है, जैसे अंबाला जालंधर, महू, बबीना, उधमपुर इत्यादि।

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स्मार्ट सिटी मिशन

स्मार्ट सिटी मिशन का उद्देश्य शहरों को बढ़ावा देना है जो आधारभूत सुविधा, साफ तथा सतत पर्यावरण और अपने नागरिकों को बेहतर जीवन प्रदान करते हैं।

इस योजना का उद्देश्य एक ऐसे सघन क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना है जो एक मॉडल के रूप में अन्य बढ़ते हुए शहरों के लिए लाइट हाऊस का काम करे।

वाराणसी, मथुरा, अमृतसर, मदुरै, पुरी, अजमेर, पुष्कर, तिरूपति, कुरूक्षेत्र, हरिद्वार, उज्जैन अपने धार्मिक/सांस्कृतिक महत्व के कारण प्रसिद्ध हुए।

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कक्षा 12 भूगोल पाठ 5 भूसंसाधन तथा कृषि | Bhu Sansadhan tatha krishi class 12th Notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ पाँच ‘भूसंसाधन तथा कृषि (Bhu Sansadhan tatha krishi class 12th Notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

Bhu Sansadhan tatha krishi

अध्याय 5
भूसंसाधन तथा कृषि

आपके स्कूल की इमारत, सड़के जिन पर आप यात्रा करते हैं, क्रीड़ा उद्यान जहाँ आप खेलते हैं, खेत जिन पर फसलें उगाई जाती हैं एवं चरागाह जहाँ पशु चरते हैं

भू-उपयोग वर्गीकरण

भूराजस्‍व अभिलेख द्वारा अपनाया गया भू-उपयोग वर्गीकरण निम्‍न प्रकार है-

(1) वनों के अधीन क्षेत्र: यह जानना आवश्यक है कि वर्गीकृत वन क्षेत्र तथा वनों के अंतर्गत वास्तविक क्षेत्र दोनों पृथक हैं। सरकार

(2) बंजर व व्यर्थ-भूमि वह भूमि जो प्रचलित प्रौद्योगिकी की मदद से कृषि योग्य नहीं बनाई जा सकती, जैसे-बंजर पहाड़ी भूभाग मरूस्थल, खडआदि को कृषि अयोग्य व्यर्थ-भूमि में वर्गीकृत किया गया है।

(3) गैर कृषि-कार्या में प्रयुक्त भूमि : इस संवर्ग में बस्तियाँ (ग्रामीण व शहरी) अवसंरचना (सड़कें, नहरें आदि) उद्योगों, दुकानों आदि हेतु भू-उपयोग सम्मिलित हैं। द्वितीयक व तृतीयक कार्यकलापों में वृद्धि से इस संवर्ग के भू-उपयोग में वृद्धि होती है।

(4) स्थायी चरागाह क्षेत्र : इस प्रकार की अधिकतर भूमि पर ग्राम पंचायत या सरकार का स्वामित्व होता है। इस भूमि का केवल एक छोटा भाग निजी स्वामित्व में होता है। ग्राम पंचायत के स्वामित्व वाली भूमि को ’साझा संपति संसाधन’ कहा जाता है।

(5) विविध तरू-फसलों व उपवनों के अंतर्गत क्षेत्र : इस संवर्ग में वह भूमि सम्मिलित है जिस पर उद्यान व फलदार वृक्ष हैं। इस प्रकार की अधिकतर भूमि व्यक्तियों के निजी स्वामित्व में है।

(8) पुरातन परती भूमि : यह भी कृषि योग्य भूमि है जो एक वर्ष से अधिक लेकिन पाँच वर्षो से कम समय तक कृषिरहित रहती है। अगर कोई भूभाग पाँच वर्ष से अधिक समय तक कृषि रहित रहता है तो इसे कृषि योग्य व्यर्थ भूमि संवर्ग में सम्मिलित कर दिया जाता है।

(9) निवल बोया क्षेत्र : वह भूमि जिस पर फसलें उगाई व काटी जाती हैं, वह निवल बोया गया क्षेत्र कहलाता है।

भारत में भू-उपयोग परिवर्तन

(1) अर्थव्यवस्था का आकार, समय के साथ बढ़ता हैः जो बढ़ती जनसंख्या, बदलते आय-स्तर, उपलब्ध प्रौद्योगिकी व इसी से मिलते-जुलते कारकों पर निर्भर है। परिणामस्वरूप समय के साथ भूमि पर दबाव बढ़ता है तथा सीमांत भूमि को भी प्रयोग में लाया जाता है।

(2) दूसरा, समय के साथ अर्थव्यवस्था की संरचना में भी बदलाव होता है। दूसरे शब्दों में, द्वितीय व तृतीयक सेक्टरों में, प्राथमिक सेक्टर की अपेक्षा अधिक तीव्रता से वृद्धि होती है। इस प्रकार के परिवर्तन भारत जैसे विकासशील देश में एक सामान्य बात है। इस प्रकिया में धीरे-धीरे कृषि भूमि गैर-कृषि संबंधित कार्यो में प्रयुक्त होती है।

(3) तीसरा, यद्यपि समय के साथ, कृषि क्रियाकलापों का अर्थव्यवस्था में योगदान कम होता जाता है, भूमि पर कृषि क्रियाकलापों का दबाव कम नहीं होता। कृषि-भूमि पर बढ़ते दबाव के कारण हैं-

(अ) प्रायः विकासशील देशों में कृषि पर निर्भर व्यक्तियों का अनुपात अपेक्षाकृत धीरे-धीरे घटता है जबकि कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान तीव्रता से कम होता है।

(ब) वह जनसंख्या जो कृषि सेक्टर पर निर्भर होती है। प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है।    वन क्षेत्रों, गैर-कृषि कार्यो में प्रयुक्त भूमि, वर्तमान परती भूमि निवल बोया क्षेत्र आदि के अनुपात में वृद्धि के निम्न कारण हो सकते हैंः

(1) गैर-कृषि कार्यों में प्रयुक्त क्षेत्र में वृद्धि दर अधिकतम है। इसका कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की बदलती संरचना है, जिसकी निर्भरता औद्योगिक व सेवा सेक्टरों तथा अवसंरचना संबंधी विस्तार पर उतरोतर बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त, गाँवों व शहरों में, बस्तियों के अंतर्गत क्षेत्रफल में विस्तार से भी इसमें वृद्धि हुई हैं। अतः गैर कृषि कार्यो में प्रयुक्त भूमि का प्रसार कृषि योग्य परंतु व्यर्थ भूमि तथा कृषि भूमि की हानि पर हुआ है।

(1) समय के साथ जैसे-जैसे कृषि तथा गैर कृषि कार्यों हेतु भूमि पर दबाव बढ़ा, वैसे-वैसे व्यर्थ एवं कृषि योग्य व्यर्थ भूमि में समयानुसार कमी इसकी साक्षी है।

(2) चरागाह भूमि में कमी का कारण कृषि भूमि पर बढ़ता दबाव है। साझी चरागाहों पर गैर-कानूनी तरीकों से कृषि विस्तार ही इसकी न्यूनता का मुख्य कारण है।

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साझा संपति संसाधन

ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन छोटे कृषकों तथा अन्य आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के व्यक्तियों के जीवन-यापन में इन भूमियों का विशेष महत्व हैः क्योंकि इनमें से अधिकतर भूमिहीन होने के कारण पशुलापन से प्राप्त आजीविका पर निर्भर हैं। महिलाओं के लिए भी इन भूमियों का विशेष महत्व है क्योंकि ग्रामीण इलाकों में चारा व ईधन लकड़ी के एकत्रीकरण की जिम्मेदारी उन्हीं की होती है। इन भूमियों में कमी से उन्हें चारे तथा ईधन की तलाश में दूर तक भटकना पड़ता है।

भारत में कृषि भू-उपयोग

भू-संसाधनों का महत्व उन लोगों के लिए अधिक है जिनकी आजीविका कृषि पर निर्भर हैंः

(1) द्वितीयक व तृतीयक आर्थिक क्रियाओं की अपेक्षा कृषि पूर्णतया भूमि पर आधारित है। अन्य शब्दों में, कृषि उत्पादन में भूमि का योगदान अन्य सेक्टरों में इसके योगदान से अधिक है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीनता प्रत्यक्ष रूप से वहाँ की गरीबी से संबंधित है।

कि भारत में निवल बोए गए क्षेत्र में बढ़ोतरी की संभावनाएँ सीमित हैं। अतः भूमि बचत प्रौद्योगिकी विकसित करना आज अत्यंत आवश्यक है। यह प्रौद्योगिकी दो भागों में बाँटी जा सकती हैं- पहली, वह जो प्रति इकाई भूमि में फसल विशेष की उत्पादकता बढ़ाएँ तथा दूसरी, वह प्रौद्योगिकी जो एक कृषि वर्ष में गहन भू-उपयोग से सभी फसलों का उत्पादन बढ़ाएँ। दूसरी प्रौद्योगिकी का लाभ यह है कि इसमें सीमित भूमि से भी कुल उत्पादन बढ़ने के साथ श्रमिकों की माँग भी पर्याप्त रूप से बढ़ती है। भारत जैसे देश में भूमि की कमी तथा श्रम की अधिकता है, ऐसी स्थिति में फसल सघनता की आवश्यकता केवल भू-उपयोग हेतु वांछित हैंः अपितु ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी जैसी आर्थिक समस्या को भी कम करने के लिए आवश्यक है। फसल गहनता की गणना निम्न प्रकार से की जाती हैः

कृषि गहनता : अर्थात् ;सकल बोया गया क्षेत्र निवल बोया गया क्षेत्र द्ध×100

भारत में फसल ऋतुएँ

हमारे देश के उतरी व आंतरिक भागों में तीन प्रमुख फसल ऋतुएँ-खरीफ, रबी व जायद के नाम से जानी जाती है। खरीफ की फसलें अधिकतर दक्षिण-पश्चिमी मानसून के साथ बोई जाती हैं जिसमें उष्ण कटिबंधीय फसलें सम्मिलित हैं, जैसे-चावल, कपास, जूट, ज्वार, बाजरा, व अरहर आदि।

कृषि के प्रकार

आर्द्रता के प्रमुख उपलब्ध स्रोत के आधार पर कृषि को सिंचित कृषि तथा वर्षा निर्भर (बारानी) कृषि में वर्गीकृत किया जाता है। सिंचित कृषि में भी सिंचाई के उदेश्य के आधार पर अंतर पाया जाता है, जैसे-रक्षित सिंचाई कृषि तथा उत्पादक सिंचाई कृषि। रक्षित सिंचाई का मुख्य उदेश्य आर्द्रता की कमी के कारण फसलों को नष्ट होने से बचाना है जिसका अभिप्राय यह है कि वर्षा के अतिरिक्त जल की कमी को सिंचाई द्वारा पूरा किया जाता है। इस प्रकार की सिंचाई का उद्देश्य अधिकतम क्षेत्र को पर्याप्त आर्द्रता उपलब्ध कराना है। उत्पादक सिंचाई का उद्देश्य फसलों को पर्याप्त मात्रा में पानी

उपलब्ध कराकर अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करना है। उत्पादक सिंचाई में जल निवेश की मात्रा रक्षित सिंचाई की अपेक्षा अधिक होती है। वर्षानिर्भर कृषि भी कृषि ऋतु में उपलब्ध आर्द्रता मात्रा के आधार पर दो वर्गोः शुष्क भूमि कृषि तथा आर्द्र भूमि कृषि में बाँटी जाती है। भारत में शुष्क भूमि खेती मुख्यतः उन प्रदेशों तक सीमित है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 सेंटीमीटर से कम है। इन क्षेत्रों में शुष्कता को सहने में सक्षम फसलें जैसे-रागी, बाजरा, मूँग, चना तथा ग्वार (चारा फसलें) आदि

खाद्यान्न फसल

अनाज

भारत में कुल बोये क्षेत्र के लगभग 54 प्रतिशत भाग पर अनाज बोये जाते हैं। भारत विश्व का लगभग 11 प्रतिशत अनाज उत्पन्न करके अमेरिका व चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। भारत विविध प्रकार के अनाजों का उत्पादन करता है जिन्हें उतम अनाजों (चावल, गेहूँ) तथा मोटे अनाजों (ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी) आदि में वर्गीकृत किया जाता है।

चावल

भारत की अधिकतर जनसंख्या का प्रमुख भोजन चावल है। यद्यपि यह एक उष्ण आर्द्र कटिबंधीय फसल है, इसकी 3000 से भी अधिक किस्में हैं जो विभिन्न कृषि जलवायु प्रदेशों में उगाई जाती हैं

दक्षिणी राज्यों तथा पश्चिम बंगाल में जलवायु अनुकूलता के कारण एक कृषि वर्ष में चावल की दो या तीन फसलें बोई जाती हैं। पश्चिम बंगाल के किसान चावल की तीन फसलें लेते हैं जिन्हें-औस, असन तथा बोरो कहा जाता है। परंतु हिमालय तथा देश के उतर-पश्चिम भागों में यह दक्षिण-पश्चिम मानसून ऋतु में खरीफ के रूप में उगाई जाती है।

भारत विश्व का 21.2 प्रतिशत चावल उत्पादन करता है तथा चीन के बाद भारत का विश्व में दूसरा स्थान है देश के कुल बोए क्षेत्र के एक-चौथाई भाग पर चावल बोया जाता है। वर्ष 2015-16 में देश के प्रमुख चावल उत्पादक राज्य पश्चिम बंगाल, उतर प्रदेश पंजाब थे। चावल की प्रति हेक्टेयर पैदावार पंजाब, तमिलनाडु, हरियाणा, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल तथा केरल राज्यों में अधिक है। पंजाब व हरियाणा पारंपरिक रूप से चावल उत्पादक राज्य नहीं है।

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गेहूँ

भारत में चावल के पश्चात् गेहूँ दूसरा प्रमुख अनाज है। भारत विश्व का 11.7 प्रतिशत गेहूँ उत्पादन करता है यह मुख्यतः शीतोष्ण कटिबंधीय फसल है। अतः इसे शरद् अर्थात् रबी ऋतु में बोया जाता है। इस फसल का 85 प्रतिशत क्षेत्र भारत के उतरी मध्य भाग तक केंद्रित है अर्थात् उतर गंगा का मैदान, मालवा पठार तथा हिमालय पर्वतीय श्रेणी में 2700 मीटर सिंचाई तक का क्षेत्र है। रबी फसल होने के कारण यह सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में ही उगाया जाता है। लेकिन हिमालय के उच्च भागों में तथा मध्य प्रदेश के मालवा के पठारी क्षेत्र में यह वर्षा पर निर्भर फसल है।

ज्वार

देश के कुल बोये क्षेत्र के 16.5 प्रतिशत भाग पर मोटे अनाज बोये जाते हैं। इनमें ज्वार प्रमुख है जो कुल बोए क्षेत्र के 5.3 प्रतिशत भाग पर बोया जाता है। यह दक्षिण व मध्य भारत के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों की प्रमुख खाद्य फसल है। महाराष्ट्र राज्य अकेला, देश की आधे से अधिक ज्वार उत्पादन करता है। अन्य प्रमुख ज्वार उत्पादनक राज्यों में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश तथा तेलंगाना हैं। दक्षिण राज्यों में यह खरीफ तथा रबी दोनों ऋतुओं में बोया जाता है। परंतु उतर भारत में यह खरीफ की फसल है तथा मुख्यतः चारा फसल के रूप में उगायी जाती हैं

बाजरा

भारत के पश्चिम तथा उतर-पश्चिम भागों में गर्म तथा शुष्क जलवायु में बाजरा बोया जाता है।

यह एकल तथा मिश्रित फसल के रूप में बोया जाता है। यह फसल देश के कुल बोये क्षेत्र के लगभग 5.2 प्रतिशत भाग पर बोई जाती है। बाजरा उत्पादक प्रमुख राज्य-महाराष्ट्र, गुजरात, उतर प्रदेश, राजस्थान व हरियाणा है।

मक्का

मक्का एक खाद्य तथा चारा फसल है जो निम्न कोटि मिट्टी व अर्धशुष्क जलवायवी परिस्थितियों में उगाई जाती है। यह फसल कुल बोये क्षेत्र के केवल 3.6 प्रतिशत भाग में बोई जाती है। मक्का की कृषि किसी विशेष क्षेत्र में केंद्रित नहीं हैं। यह पूर्वी तथा उतर पूर्वी भारत को छोड़कर देश के लगभग सभी हिस्सों में बोई जाती है। मक्का के प्रमुख उत्पादक राज्य कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान व उतर प्रदेश हैं।

दालें

दालें शाकाहारी भोजन के प्रमुख संघटक है। ये फलीदार फसलें है जो नाइट्रोजन योगीकरण के द्वारा मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरकता बढ़ाती है। भारत दालों का प्रमुख उत्पादक देश है।

देश के कुल बोये क्षेत्र का लगभग 11 प्रतिशत भाग दालों के अधीन है। चना तथा अरहर भारत की प्रमुख दालें हैं।

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चना

चना उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की फसल है। यह मुख्यतः वर्षा आधारित फसल है जो देश के मध्य, पश्चिमी तथा उत्तर-पश्चिमी भागों में रबी की ऋतु में बोई जाती है।

रेशेदार फसलें

कपास तथा जूट भारत की दो प्रमुख रेशेदार फसलें हैं।

कपास

कपास एक उष्ण कटिबंधीय फसल है जो देश के अर्ध-शुष्क भागों में खरीफ ऋतु में बोई जाती है। देश विभाजन के समय भारत का बहुत बड़ा कपास उत्पादन क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया। यद्यपि पिछले 50 वर्षो में भारत में इसके क्षेत्रफल में लगातार वृद्धि हुई है। भारत, छोटे रेशे वाली (भारतीय) व लंबे रेशे वाली (अमेरिकन) दोनों प्रकार की कपास का उत्पादन करता है। अमेरिकन कपास को देश के उतर-पश्चिमी भाग में ’नरमा’ कहा जाता है। कपास पर फूल आने के समय आकाश बादलरहित होना चाहिए।

भारत का कपास के उत्पादन में विश्व में चीन के पश्चात् दूसरा स्थान है। देश के समस्त बोए क्षेत्र के लगभग 4.7 प्रतिशत क्षेत्र पर कपास बोया जाता है।

के तीन मुख्य उत्पादक क्षेत्र हैं। इसमें उतर-पश्चिम भारत में पंजाब, हरियाणा तथा उतरी राजस्थानः

जूट

यह पश्चिम बंगाल तथा इससे संस्पर्शी पूर्वी भागों की एक व्यापारिक फसल है। विभाजन के दौरान देश का विशाल जूट उत्पादक क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान (बांग्ला देश) में चला गया। आज विश्व का लगभग 60 प्रतिशत जूट उत्पादन करता है।

अन्य फसलें

गन्ना

गन्ना एक उष्ण कटिबंधीय फसल है। पश्चिम भारत में गन्ना उत्पादक प्रदेश महाराष्ट्र व गुजरात तक विस्तृत है। दक्षिण भारत में इसकी कृषि कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना व आंध्र प्रदेश के सिंचाई वाले भागों में की जाती है।

ब्राजील के बाद भारत दूसरा बड़ा गन्ना उत्पादक देश था यहाँ विश्व के 19 प्रतिशत गन्ने का उत्पादन होता है। देश के कुल शस्य क्षेत्र के 2.4 प्रतिशत भाग पर ही इसकी कृषि की जाती है। उतर प्रदेश देश का 40 प्रतिशत गन्ना उत्पादन करता है। इसके अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा तमिलनाडु आंध्र प्रदेश हैं। जहाँ इसका उत्पादन स्तर अधिक है। उतरी भारत में इसका उत्पादन कम है।

चाय

चाय एक रोपण कृषि है जो पेय पदार्थ के रूप में प्रयोग की जाती है। चाय की पतियों में कैफिन तथा टैनिन की प्रचुरता पाई जाती है। यह उतरी चीन के पहाड़ी क्षेत्रों की देशज फसल है। भारत में चाय की खेती 1840 में असम की ब्रह्रापुत्र घाटी में प्रारंभ हुई जो आज भी देश का प्रमुख चाय उत्पादन क्षेत्र है। भारत चाय का अग्रणी उत्पादक देश है तथा विश्व का लगभग 21.8 प्रतिशत चाय का उत्पादन करता है।

कॉफी

कॉफी एक उष्ण कटिबंधीय रोपण कृषि है। कॉफी की तीन किस्में हैंः अरेबिका, रोबस्ता व लिबेरिका हैं। भारत अधिकतर उतम किस्म की ‘अरेबिका‘ कॉफी का उत्पादन करता है, जिसकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बहुत माँग हैं। परंतु भारत में विश्व का केवल 3.7 प्रतिशत कॉफी का उत्पादन होता है। ब्राजील, वियतनाम, कोलंबिया, इंडोनेशिया, इथियोपिया तथा होंडुरास के बाद भारत का विश्व में सातवाँ स्थान है

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भारत में कृषि विकास

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार का तात्कालिक उद्देश्य खाद्योन्नों का उत्पादन बढ़ाना था, जिसमें निम्न उपाय अपनाए गए- (1) व्यापारिक फसलों की जगह खाद्यान्नों का उगाया जाना। (2) कृषि गहनता को बढ़ाना, तथा (3) कृषि योग्य बंजर तथा परती भूमि को कृषि भूमि में परिवर्तित करना।

1960 के दशक के मध्य में गेहूँ (मैक्सिको) तथा चावल (फिलिपींस) की किस्में- जो अधिक उत्पादन देने वाली नई किस्में थीं, कृषि के लिए उपलब्ध हुई।

कृषि विकास की इस नीति से खाद्यान्नों के उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि ‘हरित क्रांति’ के नाम से जानी जाती है।

ऐसा 1970 के दशक के अंत तक रहा तथा 1980 के आरंभ इसके पशचात् यह प्रौद्योगिकी मध्य भारत तथा पूर्वी भारत के भागों में फैली।

कृषि उत्पादन में वृद्धि तथा प्रौद्योगिकी का विकास

बहुत-सी फसलों जैसे- चावल तथा गेहूँ के उत्पादन तथा पैदावार में प्रभावशाली वृद्धि हुई है अन्य फसलों मुख्यः गन्ना, तिलहन तथा कपास के उत्पादन में प्रशंसनीय वृद्धि हुई है। सिंचाई के प्रसार ने देश में कृषि उत्पादन बढ़ाने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसने आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी जैसे बिजों की उतम किस्में, रासायनिक खादों, कीटनाशकों तथा मशीनरी के प्रयोग के लिए आधार प्रदान किया है।

भारतीय कृषि की समस्याएँ

कृषि पारिरिस्थतिकी तथा विभिन्न प्रदेशों के ऐतिहासिक अनुभवों के अनुसार भारतीय कृषि की समस्याएँ भी विभिन्न प्रकार की हैं। अतः देश की अधिकतर कृषि समस्याएँ प्रादेशिक हैं।

अनियमित मानसून पर निर्भरता

भारत में कृषि क्षेत्र का केवल एक-तिहाई भाग ही सिंचित है। शेष कृषि क्षेत्र में फसलों का उत्पादन प्रत्यक्ष रूप से वर्षा पर निर्भर है। वर्ष 2006 और 2017 में महाराष्ट्र, गुजरात तथा राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में आई आकस्मिक बाढ़ इस परिघटना का उदाहरण है।

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निम्न उत्पादकता

अंतर्राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा भारत में फसलों की उत्पादकता कम है। भारत में अधिकतर फसलों जैसे- चावल, गेहूँ, कपास व तिलहन की प्रति हेक्टेयर पैदावार अमेरिका, रूस तथा जापान से कम है।

भूमि सुधारों की कमी

भूमि के असमान वितरण के कारण भारतीय किसान लंबे समय से शोषित हैं। अंग्रेजी शासन के दौरान, तीन भूराजस्व प्रणालियों-महालवाड़ी, रैयतवाड़ी तथा जमींदारी में से जमींदारी प्रथा किसानों के लिए सबसे अधिक शोषणकारी रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्, भूमि सुधारों को प्राथमिकता दी गई, लेकिन ये सुधार कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण पूर्णतः फलीभूत नहीं हुए।

भूमि सुधारों के लागू न होने के परिणामस्वरूप कृषि योग्य भूमि का असमान वितरण जारी रहा जिससे कृषि विकास में बाधा रही है।

छोटे खेत तथा विखंडित जोत

भारत में सीमांत तथा छोटे किसानों की संख्या अधिक है। 60 प्रतिशत से अधिक किसानों पास एक हेक्टेयर से छोटे भूजोत हैं और लगभग 40 प्रतिशत किसानों की जोतों का आकार तो 0.5 हेक्टेयर से भी कम है। बढ़ती जनसंख्या के कारण इन जोतों का औसत आकार और भी सिकुड़ रहा है। इसके अतिरिक्त भारत में अधिकतर भूजोत बिखरे हुए हैं।

कृषि योग्य भूमि का निम्नीकरण

भूमि संसाधनों का निम्नीकरण सिंचाई और कृषि विकास की दोषपूर्ण नीतियों से उत्पन्न हुई समस्याओं में से एक गंभीर समस्या है।

सिंचित क्षेत्रों के फसल प्रतिरूप के दलहन (लेग्यूम) विस्थापित हो गई तथा बहु-फसलीकरण में बढ़ोतरी से परती भूमि में काफी मात्रा में कमी आई है। इससे भूमि में पुनः उरर्वकता पाने की प्राकृतिक प्रक्रिया अवरूद्ध हुई है जैसे नाइट्रोजन योगीकरण। उष्ण कटिबंधीय आर्द्र व अर्ध शुष्क क्षेत्र भी कई प्रकार के भूमि निम्नीकरण से प्रभावित हुए हैं, जैसे जल द्वारा मृदा अपरदन तथा वायु अपरदन जो प्रायः मानवकृत हैं।

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कक्षा 12 भूगोल पाठ 3 मानव विकास | Manav Vikas class 12th geography Notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ तीन ‘मानव विकास (Manav Vikas class 12th geography Notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

Manav Vikas class 12th geography

अध्याय 3
मानव विकास

इस कहानी में उल्लिखित हमारे समय के सभी विरोधाभासों में से विकास सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अल्पावधि में कुछ प्रदेशों और व्यक्तियों के लिए किया गया विकास बड़े पैमाने पर पारिस्थितिक निम्नीकरण के साथ अनेक लोगों के लिए गरीबी और कुपोषण लाता है। क्या विकास वर्ग-पक्षपाती है? प्रत्यक्ष रूप से ऐसा माना जाता है कि ’विकास स्वतंत्रता है’, जिसका संबंध प्रायः आधुनिकीकरण, अवकाश, सुविधा और समृद्धि से जुड़ा हुआ है। वर्तमान संदर्भ में कंप्यूटरीकरण, औद्योगीकरण, सक्षम परिवहन और संचार जाल बृहत् शिक्षा प्रणाली, उन्नत और आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं, वैयक्तिक सुरक्षा इत्यादि को विकास का प्रतीक समक्षा जाता है।

इसे प्रायः विकास का पश्चिम अथवा यूरोप-केंद्रित विचार कहा जाता है।

स्त्री जनसंख्या का बड़ा खंड इन सबमें से सबसे ज्यादा कष्टभोगी है। यह भी समान रूप से सत्य है कि वर्षो से हो रहे विकास के बाद भी सीमांत वर्गो में से अधिकांश की सापेक्षिक के साथ-साथ निरपेक्ष दशाएँ भी बदतर हुई हैं। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोग प्रतित निर्धनता पूर्ण और अवमानवीय दशाओं में जीने को विवश हैं।

विकास का एक अन्य अंतर संबंधित पक्ष भी है जिसका निम्नतर मानवीय दशाओं से सीधा संबंध है। इसका संबंध पर्यावरणीय प्रदूषण से है जो पारिरिस्थतिक संकट का कारक है। वायु, मृदा, जल और ध्वनि प्रदूषण न केवल ’हमारे साझा संसाधनों की त्रासदी’ का कारण बने हैं

निर्धनों में सामर्थ्य के गिरावट के लिए तीन अंतर्सबंधित प्रक्रियाएँ कार्यरत हैं- (क) सामाजिक सामर्थ्य में कमी विस्थापन और दुर्बल होते सामाजिक बंधनों के कारण (ख) पर्यावरणीय सामर्थ्य में कभी प्रदूषण के कारण, और (ग) व्यक्तिगत सामर्थ्य में कभी बढ़ती बीमारियों और दुर्घटनाओं के कारण।

इस दिशा में सर्वाधिक व्यवस्थित प्रयास 1990 ई॰ में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा प्रथम मानव विकास रिर्पार्ट का प्रकाशन है। तब से यह संस्था प्रतिवर्ष विश्व मानव विकास रिर्पार्ट को प्रकाशित करती आ रही है। यह रिपोर्ट न केवल मानव विकास को परिभाषित करती है व इसके सूचकों में संशोधन और परिवर्तन लाती है

1993 ई॰ की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार, ’’प्रगामी लोकतंत्रीकरण और बढ़ता लोक सशक्तीकरण मानव विकास की न्यूनतम दशाएँ हैं। ’’ इसके अतिरिक्त यह, यह भी उल्लेख करता है कि ’’ विकास लोगों को केंद्र में रखकर बुना जाना चाहिए न कि विकास को लोगों के बीच रखकर’’ जैसा कि पहले होता था।

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भारत में मानव विकास

120 करोड़ से अधिक जनसंख्या के साथ भारत मानव विकास सूचकांक के संदर्भ में विश्व के 188 देशों में 131 के कोटि क्रम पर है। के संयुक्त मूल्य 0.624 के साथ भारत मध्यम मानव विकास दर्शाने वाले देशों की श्रेणी में आता है।

आर्थिक उपलब्धियों के सूचक

समृद्ध संसाधन आधार और इन संसाधनों तक सभी, विशेष रूप से निर्धन, पद-दलित और हाशिए पर छोड़ दिए गए लोगों की पहुँच, उत्पादकता, कल्याण और मानव विकास की कुंजी है।

आर्थिक उपलब्धि और लोगों की भलाई आर्थिक विकास, रोजगार के अवसर तथा परिसंपतियों तक पहुँच पर निर्भर करती है। विगत वर्षा में भारत में प्रति-व्यक्ति आय और उपभोग व्यय में वृद्धि हुई है।

वर्ष 2011-12 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में 25.7 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में 13.7 प्रतिशत और पूरे देश में 21.9 प्रतिशत के रूप में अनुमानित किया गया था।

गरीबी के आँकड़े दर्शाते हैं कि छतीसगढ़ मध्य प्रदेश, मणिपुर, ओडिशा, तथा दादर एवं नगर हवेली में उनकी 30 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जा रही है। गुजरात, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, महाराष्ट्र, मेघालय, नागालैण्ड, राजस्थान, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उतराखंड और पश्चिम बंगाल में उनकी जनसंख्या का 10 से 20 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे है। आंध्र प्रदेश, दिल्ली, गोआ, हिमाचल प्रदेश, केरल, पंजाब, सिक्किम, पुदुच्चेरी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दमन और दीव तथा लक्षद्वीप की 10 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करती है।

किसी की गुणवता को पुरी तरह प्रतिबिंबित नहीं करता है। कुछ अन्य कारक, जैसे-आवास, सार्वजनिक परिवहन, हवा की गुणवता और पीने के पानी की पहुँच भी जीवन स्तर के मानक का निर्धारण करते हैं। बिना रोजगार की आर्थिक वृद्धि और अनियंत्रित बेरोजगार भारत में गरीबी के अधिक होने के महत्वपूर्ण कारणों में से हैं।

भारत सरकार ने देश को प्रदूषण रहित बनाने के विचार से स्वच्छ भारत अभियान चलाया है जिसके उद्देश्य निम्न हैं-

स्वच्छ भारत अभियान का उद्देश्य देश को खुले में शौच से मुक्ति और नगर निगम के शत-प्रतिशत ठोस कचरे का वैज्ञानिक तरीके से उचित प्रबंधन, घरों में शौचालय, सामुदायिक शौचालय, सार्वजनिक शौचालय का निर्माण है।

ग्रामीण भारत में घरों से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए साफ ईधन के तौर पर एल. पी. जी. को सुलभ करना।

जल से होने वाले रोगों की रोकथाम के लिए प्रत्येक घर में पीने लायक जल की व्यवस्था करना।

अपंरपरागत ईधन के स्रोत, जैसे-पवन तथा सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना।

कुछ स्वास्थ्य सुचकों के क्षेत्र में भारत में सराहनीय कार्य हुए हैं, जैसे मृत्यु दर का 1951 में 25.1 प्रतिशत घटकर 2015 में 6.5 प्रति हजार होना और इसी अवधि में शिशु मर्त्यता का 148 प्रति हजार से 37 प्रति हजार होना। इसी प्रकार 1951 से 2015 की अवधि में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में पुरूषों के लिए 37.1 वर्ष से 66.9 वर्ष तथा स्त्रियों के लिए 36.2 वर्ष से 70.0 वर्ष की वृद्धि करने में भी सफलता मिली।

इसी अवधि के दौरान भारत ने जन्म दर को 40.8 से 20.8 तक नीचे लाकर अच्छा कार्य किया है, किंतु यह जन्म दर अभी अनेक विकसित देशों की तुलना में काफी ऊँची है।

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सामाजिक सशक्तीकरण के सूचक

’विकास मुक्ति है।’ भुख गरीबी, दासता, बँधुआकरण, अज्ञानता, निरक्षरता और किसी की अन्य प्रकार की प्रबलता से मुक्ति मानव विकास की कुंजी है। वास्तविक अर्थां में मुक्ति तभी संभव है जब लोग समाज में अपने सामर्थ्यों और विकल्पों के प्रयोग के लिए सशक्त हों और प्रतिभागिता करें। समाज और पर्यावरण के बारे में ज्ञान तक पहुँच ही मुक्ति का मूलाधार है। ज्ञान और मुक्ति का रास्ता साक्षरता से होकर जाता है।

भारत में साक्षरों का प्रतिशत दर्शाती तालिका 3.3 कुछ रोचक विशेषताओं को उजागर करती है-

भारत में कुल साक्षरता लगभग 74.04 प्रतिशत है जबकि स्त्री साक्षरता 65.46 प्रतिशत है (2011)। दक्षिण भारत के अधिकांश राज्यों में कुल साक्षरता और महिला साक्षरता राष्ट्रीय औसत से ऊँची है। भारत के राज्यों में साक्षरता दर में व्यापक प्रादेशिक असमानता पाई जाती है। यहाँ बिहार जैसे राज्य भी हैं जहाँ बहुत कम (63.82प्रतिशत) साक्षरता है और केरल और मिजोरम जैसे राज्य भी हैं जिनमें साक्षरता दर क्रमशः 93.09 प्रतिशत और 91.58 प्रतिशत है।

भारत में मानव विकास सूचकांक

भारत को मध्यम मानव विकास दर्शाने वाले देशों में रखा गया है। विश्व के 188 देशों में इसका 131 वाँ स्थान है।

शैक्षिक उपलब्धियों के अतिरिक्त आर्थिक विकास भी मानव विकास सूचकांक पर सार्थक प्रभाव डालता है। आर्थिक दृष्टि से विकसित महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पंजाब एवं हरियाणा जैसे राज्यों के मानव विकास सूचकांक का मूल्य असम, बिहार, मध्य प्रदेश इत्यादि राज्यों की तुलना में ऊँची है।

जनसंख्या, पर्यावरण और विकास

यह जटिल है क्योंकि युगों से यही सोचा जा रहा है कि विकास एक मूलभूत संकल्पना है और यदि एक बार इसे प्राप्त कर लिया गया तो यह समाज की सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय समस्याओं का निदान हो जाएगा।

संबद्ध मुद्दों की गंभीरता और संवेदनशीलता को भाँपते हुए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने अपनी 1993 की मानव विकास रिपोर्ट में विकास की अवधारणा में अभिभूत कुछ स्पष्ट पक्षपातों और पूर्वाग्रहों को संशोधित करने का प्रयत्न किया है। लोगों की प्रतिभागिता और उनकी सुरक्षा 1993 की मानव विकास रिपोर्ट के प्रमुख मुद्दे थे।

इन विचारकों के अनुसार जनसंख्या और संसाधनों के बीच का अंतर 18 वीं शताब्दी के बाद बढ़ा है। विगत 300 वर्षा में विश्व के संसाधनों में बहुत थोड़ी वृद्धि हुई है जबकि मानव जनसंख्या में विपुल वृद्धि हुई है।

सर राबर्ट माल्थस मानव जनसंख्या की तुलना में संसाधनों के अभाव के विषय में चिंता व्यक्त करने वाले पहले विद्धान थे।

समृद्ध देशों और लोगों की संसाधनों के विशाल भंडारों तक ’पहुँच’ है जबकि निर्धनों के संसाधन सिकुड़ते जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त शक्तिशाली लोगों द्वारा अधिक से अधिक संसाधनों पर नियंत्रण करने के लिए किए गए अनंत प्रयत्नों और उनका अपनी असाधारण विशेषता को प्रदर्शित करने के लिए प्रयोग करना ही जनसंख्या संसाधनों और विकास के बीच संघर्ष और अंतर्विरोधों का प्रमुख कारण हैं।

उनके विचार क्लब ऑफ रोम की रिपोर्ट ’लिमिट्स टू ग्रोथ’ (1972), शूमाकर की पुस्तक ’स्माल इज ब्यूटीफुल’ (1974) ब्रुंडलैंड कमीशन की रिपोर्ट ’ऑवर कामन फ्यूचर’ (1987) और अंत में ’एजेंडा-21 रिपोर्ट ऑफ द रियो कांफ्रेंस’ (1993) में भी प्रतिध्वनित हुए हैं।

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कक्षा 12 भूगोल पाठ 2 प्रवास, प्रकार, कारण और परिणाम | Pravas Prakar Karan aur Parinam class 12th Notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ दाे ‘प्रवास, प्रकार, कारण और परिणाम (Pravas Prakar Karan aur Parinam class 12th Notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

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अध्याय 2
प्रवास, प्रकार, कारण और परिणाम

रामबाबू का जन्म बिहार के भोजपुर जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। 12 वर्ष की आंरभिक आयु में माध्यमिक स्तर का अध्ययन पूरा करने के लिए वह निकटवर्ती कस्बे आरा में चला गया। वह अपनी अभियांत्रिकी की डिग्री के लिए झारखंड में स्थित सिंदरी गया और बाद में भिलाई में उसे नौकरी मिल गई, जहाँ वह पिछले 31 वर्षो से रह रहा है। उसके माता-पिता अशिक्षित थे और उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत कृषि से होने वाली अल्प आय थी।

अपनी पुस्तक ’मानव भूगोल के मूलभूत सिद्धांत’ में आप प्रवास की संकल्पना और परिभाषा को पहले ही समझ चुके हैं। प्रवास दिक् और काल के संदर्भ में जनसंख्या के पुनर्वितरण का अभिन्न अंग और एक महत्वपूर्ण कारक हैं। देश के विभिन्न भागों में प्रवासियों एक नामी कवि फिराक गोरखपुरी के शब्दों में:

(विश्व के  सभी भागों से लोगों के कारवाँ भारत में आते रहे और बसते रहे और इसी से भारत की विरचना हुई।)

विशेष रूप से मध्य पूर्व और पश्चिमी यूरोप के देशों अमेरिका, आस्ट्रेलिया और पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रवास करते रहे।

भारतीय प्रसार

उपनिवेश काल (ब्रिटिश काल) के दौरान अंग्रेजों द्वारा उतर प्रदेश और बिहार से मॉरीशस, कैरेबियन द्वीपों (ट्रिनीडाड, टोबैगो और गुयाना) फिजी और दक्षिण अफ्रीकाः फ्रांसीसियों और जर्मनों द्वारा रियूनियन द्वीप, गुआडेलोप, मार्टीनीक और सूरीनाम में, फ्रांसीसी तथा डच लोगों और पुर्तगालियों द्वारा गोवा, दमन और दीव से, अंगोला, मोजांबिक व अन्य देशों में करारबद्ध लाखों श्रमिकों को रोपण कृषि में काम करने के लिए भेजा था। ऐसे सभी प्रवास (भारतीय उत्प्रवास अधिनियम) गिरमिट एक्ट नामक समयबद्ध अनुबंध के तहत आते थे।

थाइलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, ब्रूनई, इत्यादि देशों में व्यवसाय के लिए गए और यह प्रवृति अब भी जारी है। 1970 के दशक में पश्चिम एशिया में हुई सहसा तेल वृद्धि द्वारा जनित श्रमिकों की माँग के कारण भारत से अर्ध-कुशल और कुशल श्रमिकों का नियमित बाह्रा प्रवास हुआ। कुछ बाह्रा प्रवास उद्यमियों

प्रवासियों की तीसरी तरंग में डॉक्टरों, अभियंताओं (1960 के बाद) सॉफ्टवेयर अभियंताओं, प्रबंधन परामर्शदाताओं, वितीय विशेषज्ञों, संचार माध्यम से जुड़े व्यक्तियों और (1980 के बाद) अन्य समाविष्ट थे जिन्होंने सयुंक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूनाइटेड किगंडम, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और जर्मनी इत्यादि में प्रवास किया।

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प्रवास

वास्तव में प्रवास को 1881 ई॰ में भारत की प्रथम संचालित जनगणना से ही दर्ज करना आरंभ कर दिया गया था। इन आँकड़ों को जन्म के स्थान के आधार पर दर्ज किया गया था। परंतु 1961 की जनगणना में पहला मुख्य संशोधन किया गया था और उसमें दो घटक अर्थात् जन्म स्थान अर्थात् गाँव या नगर (यदि) तो निवास की अवधि सम्मिलित किए गए।

जनगणना में प्रवास पर निम्नलिखित प्रश्न पूछे जाते हैं: क्या व्यक्ति इसी गाँव अथवा शहर में पैदा हुआ है? यदि नहीं, तब जन्म के स्थान की (ग्रामीण/नगरीय) स्थिति, जिले और राज्य का नाम और यदि भारत से बाहर का है तो

भारत की जनगणना में प्रवास की गणना दो आधारों पर की जाती हैः (1) जन्म का स्थान, यदि जन्म का स्थान गणना के स्थान से भिन्न है (इसे जीवनपर्यत प्रवासी के नाम से जाना जाता है) : (2) निवास का स्थान, यदि निवास के पिछला स्थान गणना के स्थान से भिन्न है (इसे निवास के पिछले स्थान से प्रवासी के रूप में जाना जाता है)।

2001 की जनगणना के अनुसार देश के 102.9 करोड़ लोगों में से 30.7 करोड़ (30प्रतिशत) की रिपोर्ट प्रवासियों के रूप में की गई थी जो अपने जन्म के स्थान से अलग रह रहे थे। यद्यपि निवास के (पिछले स्थान के संदर्भ में यह संख्या 31.5 करोड़ (31प्रतिशत) थी।

प्रवास की धाराएँ

आंतारिक प्रवास के अंतर्गत चार धाराओं की पहचान की गई है : (क) ग्रामीण से ग्रामीण

 भारत में 2001 के दौरान पिछले निवास के आधार पर परिकलित 31.5 करोड़ प्रवासियों में से 9.8 करोड़ ने पिछले दस वर्षो में अपने निवास का स्थान बदल लिया है। इनमें से 8.1 करोड़ अंतःराज्यीय प्रवासी थे। इस धारा में स्त्री प्रवासी प्रमुख थी। इनमें से अधिकांश विवाहोपरांत प्रवासी थीं।

दोनों प्रकार के प्रवासों में थोड़ी दूरी के ग्रामीण से ग्रामीण प्रवास की धाराओं में स्त्रियों की संख्या सर्वाधिक हैं। इसके विपरीत आर्थिक कारणों की वजह से अंतर-राज्यीय प्रवास ग्राम से नगर धारा में पुरूष सर्वाधिक हैं।

जनगणना 2001 में अंकित है कि भारत में अन्य देशों से 50 लाख व्यक्यिों का प्रवास हुआ है। इनमें से 96 प्रतिशत पड़ोसी देशों से आए हैं : बांग्लादेश (30 लाख) इसके बाद पाकिस्तान (9 लाख) और नेपाल (5 लाख) इनमें तिब्बत, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और म्यांमार 1.6 लाख शरणार्थी भी समाविष्ट हैं। जहाँ तक भारत से उत्प्रवास का प्रश्न है, ऐसा अनुमान है कि भारतीय डायास्पोरा के लगभग 2 करोड़ लोग हैं जो 110 देशों में फैले हुए हैं।

प्रवास में स्थानिक विभिन्नता

महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्य उतर प्रदेश, बिहार इत्यादि जैसे अन्य राज्यों से प्रवासियों को आकर्षित करते हैं, 23 लाख आप्रवासियों के साथ महाराष्ट्र का सूची में प्रथम स्थान है, इसके बाद दिल्ली, गुजरात और हरियाणा आते हैं। दूसरी ओर उतर प्रदेश (-26 लाख) और बिहार (-17 लाख) वे राज्य हैं जहाँ से उत्प्रवासियों की संख्या सर्वाधिक है।

नगरीय समूहनों में से बृहत् मुंबई में सर्वाधिक संख्या में प्रवासी आए। इसमें अतं: राज्यीय प्रवास का भाग सर्वाधिक है। यह अंतर मुख्य रूप से राज्य के आकार के  कारण है जिसमें ये नगरीय समूहन स्थित हैं।

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प्रवास के कारण

इसके विविध कारण हो सकते हैं जिन्हें बृहत् रूप से दो संवर्गो में रखा जा सकता है :

(1) प्रतिकर्ष कारक जो लोगों को निवास स्थान अथवा उद्गम को छुड़वाने का कारण बनते हैं और

(2) अपकर्ष कारक जो विभिन्न स्थानों से लोगों को आकर्षित करते हैं।

कि पुरूषों और स्त्रियों के लिए प्रवास के कारण भिन्न हैं। उदाहरण के तौर पर काम और रोजगार पुरूष प्रवास के मुख्य कारण (38 प्रतिशत) रहे हैं जबकि यही कारण केवल 3 प्रतिशत स्त्रियों के लिए हैं। इसके विपरीत 65 प्रतिशत स्त्रियाँ विवाह के उपरांत अपने मायके से बाहर जाती हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण हैं, मेघालय इसका अपवाद है जहाँ स्थिति उलट है।

आर्थिक परिणाम

अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों द्वारा भेजी गई हुंडियाँ विदेशी विनिमय के प्रमुख स्रोत में से एक हैं। सन् 2002 में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों से हुंडियों के रूप में 110 खरब अमेरिकी डॉलर प्राप्त किए।

महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु और दिल्ली जैसे औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्यों में गंदी बस्तियों (स्लम) का विकास देश में अनियंत्रित प्रवास का नकारात्मक परिणाम है। 

सामाजिक परिणाम

नवीन प्रौद्योगिकियों, परिवार नियोजन, बालिका शिक्षा इत्यादि से संबंधित नए विचारों का नगरीय क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर विसरण इन्हीं के माध्यम से होता है।

अन्य

स्रोत प्रदेश के दृष्टिकोण से यदि हुंडियाँ प्रवास के प्रमुख लाभ हैं तो मानव संसाधन, विशेष रूप से कुशल लोगों का ह्रास उसकी गंभीर लागत है। उन्नत कुशलता का बाजार सही मायने में वैश्विक बाजार बन गया है और सर्वाधिक गत्यात्मक औद्योगिक अर्थव्यवस्थाएँ गरीब प्रदेशों से उच्च प्रशिक्षित व्यावसायिकों को सार्थक अनुपातों में प्रवेश दे रही है और भर्ती कर रही हैं। परिणामस्वरूप स्रोत प्रदेश के वर्तमान अल्पविकास को बल मिलता है।

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कक्षा 12 भूगोल पाठ 1 जनसंख्‍या वितरण, घनत्‍व, वृद्धि और संघटन | Jansankhya Vitran Ghanatv Vridhi aur Sangathan class 12th Notes

इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 12 भूगोल के पाठ एक ‘जनसंख्‍या वितरण, घनत्‍व, वृद्धि और संघटन (Jansankhya Vitran Ghanatv Vridhi aur Sangathan class 12th Notes)’ के नोट्स को पढ़ेंगे।

Jansankhya Vitran Ghanatv Vridhi aur Sangathan

अध्‍याय 1
जनसंख्‍या वितरण, घनत्‍व, वृद्धि और संघटन

भारत अपनी 121.0 करोड (2011)  जनसंख्‍या के साथ चीन के बाद विश्‍व में दूसरा सघनतम बसा हुआ देश है। भारत की जनसंख्‍या उतर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका और आस्ट्रेलिया के मिलाकर कुल जनसंख्या से भी अधिक है।

जनसंख्या आँकड़ों के स्रोत

हमारे देश में जनसंख्या के आँकड़ों को प्रति दस वर्ष बाद होने वाली जनगणना द्वारा एकत्रित किया जाता है। भारत की पहली जनगणना 1872 ई॰ में हुई थी किंतु पहली संपूर्ण जनगणना 1881 ई॰ में संपन्न हुई थी।

जनसंख्या का वितरण

उतर प्रदेश की जनसंख्या सर्वाधिक है, इसके पश्चात महाराष्ट्र, बिहार और पश्चिम बंगाल का स्थान है।
तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात के साथ उतर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश की जनसंख्या मिलकर देश की कुल जनसंख्या का 76 प्रतिशत भाग है।
जनसंख्या वितरण के सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक कारकों में से महत्वपूर्ण कारक स्थायी कृषि का उद्भव और कृषि विकास, मानव बस्ती के प्रतिरूप, परिवहन जाल-तंत्र का विकास, औद्योगीकरण और नगरीकरण हैं।

जनसंख्या का घनत्व

जनसंख्या के घनत्व को प्रति इकाई क्षेत्र में व्यक्तियों की संख्या द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।
भारत का जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग कि॰मी॰ (2011) है 1951 ई॰ में जनसंख्या का घनत्व 117 व्यक्ति/वर्ग कि॰मी॰ से बढ़कर 2011 में 382 व्यक्ति/प्रतिवर्ग है।
अरूणाचल प्रदेश में कम से कम 17 व्यक्ति प्रति वर्ग कि॰मी॰ से लेकर दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 11297 व्यक्ति प्रति वर्ग कि॰मी॰ तक है।
बिहार (1102), पश्चिम बंगाल (1029) तथा उतर प्रदेश (829) में जनसंख्या घनत्व उच्चतर है

जनसंख्या की वृद्धि

जनसंख्या वृद्धि दो समय बिंदुओं के बीच किसी क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोगों की संख्या में परिवर्तन को कहते हैं। इसकी दर को प्रतिशत में अभिव्यक्त किया जाता है। जनसंख्या वृद्धि के दो घटक होते हैं, जिनके नाम हैं-प्राकृतिक और अभिप्रेरित प्राकृतिक वृद्धि का विश्लेषण अशोधित जन्म और मृत्यु दरों से निर्धारित किया जाता है, अभिप्रेरित घटकों को किसी दिए गए क्षेत्र में लोगों के अंतर्वर्ती और बहिर्वर्ती संचलन की प्रबलता द्वारा स्पष्ट किया जाता है।
भारत की जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 1.64 प्रतिशत है।

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जनसंख्या के दुगुना होने का समय

जनसंख्या के दुगुना होने का समय वर्तमान वार्षिक वृद्धि दर पर किसी भी जनसंख्या के दुगुना होने में लगने वाला समय है।
प्रावस्था कः 1901 से 1921 की अवधि को भारत की जनसंख्या की वृद्धि की रूद्ध अथवा स्थिर प्रावस्था कहा जाता है क्योंकि इस अवधि में वृद्धि दर अत्यंत निम्न थी, यहाँ तक कि 1911-1921 के दौरान ऋणात्मक वृद्धि दर दर्ज की गई। जन्म दर और मृत्यु दर दोनों  ऊँचे थे जिससे वृद्धि दर निम्न बनी रही

प्रावस्था खः 1921-1951के दशकों को जनसंख्या की स्थिर वृद्धि की अवधि के रूप में जाना जाता है। देश-भर में स्वास्थ्य और स्वच्छता में व्यापक सुधारो ने मृत्यु दर को नीचे ला दिया। बेहतर परिवहन और संचार तंत्र से वितरण प्रणाली में सुधार हुआ। जन्म दर ऊँची बनी रही

प्रावस्था गः 1951-81 के दशकों को भारत में जनसंख्या विस्फोट की अवधि के रूप में जाना जाता है। यह देश में मृत्यु दर में तीव्र ह्रास और जनसंख्या की उच्च प्रजनन दर के कारण हुआ। औसत वार्षिक वृद्धि दर 2.2 प्रतिशत तक ऊँची रही।

अर्थव्यवस्था सुधरने लगी जिससे अधिकांश लोगों के जीवन की दशाओं में सुधार सुनिश्चित हुआ।

तक कि पाकिस्तान से आने वाले लोगों ने भी उच्च वृद्धि दर में योगदान दिया।

प्रावस्था घः 1981 के पश्चात् वर्तमान तक देश की जनसंख्या की वृद्धि दर, यद्यपि ऊँची बनी रही, परंतु धीरे-धीरे मंद गति से घटने लगी ऐसी जनसंख्या वृद्धि के लिए अशोधित जन्म दर की अधोमुखी प्रवृति को उतरदायी माना जाता है।

देश में जनसंख्या की वृद्धि दर अभी भी ऊँची है और विश्व विकास रिपोर्ट द्वारा यह प्रक्षेपित किया गया है कि 2025 ई॰ तक भारत की जनसंख्या 135 करोड़ को स्पर्श करेगी।

जनसंख्या वृद्धि में क्षेत्रीय भिन्नताएँ

प्रदेशों में जनसंख्या की वृद्धि केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, केरल (94) में न केवल इस वर्ग के राज्यों में बल्कि पूरे देश में भी निम्नतम वृद्धि दर दर्ज की गई है। देश के उतर-पश्चिमी, उतरी और उतर-मध्य भागों में पश्चिम से पूर्व स्थित राज्यों की एक सतत पेटी में दक्षिणी राज्यों की अपेक्षा उच्च वृद्धि दर पाई जाती है।

पश्चिम बंगाल, बिहार, छतीसगढ़ और झारखंड में औसत वृद्धि दर 20-25 प्रतिशत रही। छः सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्यों

जनसंख्या संघटन

जनसंख्या संघटन, जनसंख्या भूगोल के अंतर्गत अध्ययन का एक सुस्पष्ट क्षेत्र है जिसमें आयु व लिंग का विश्लेषण, निवास का स्थान, मानवजातीय लक्षण, जनजातियाँ, भाषा, धर्म, वैवाहिक स्थिति, साक्षरता और शिक्षा, व्यावसायिक विशेषताएँ आदि का अध्ययन किया जाता है।

ग्रामीण-नगरीय संघटन

देश की कुल जनसंख्या का 68.8 प्रतिशत भाग गाँवों में रहता हो तब

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 6,40,867 गाँव हैं जिनमें से 5,97,608 बिहार और सिक्किम जैसे राज्यों में ग्रामीण जनसंख्या का प्रतिशत बहुत अधिक है। गोआ और महाराष्ट्र राज्यों की कुल जनसंख्या का आधे से कुछ अधिक भाग गाँवों में बसता है।

सुधार के कारण तेजी से बढ़ी हैं। कुल जनसंख्या की भाँति नगरीय जनसंख्या के वितरण में भी देश भर में भिन्नताएँ पाई जाती हैं (परिशिष्ट 1 घ)

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भाषाई संघटन

भारत एक भाषाई विविधता की भूमि है। ग्रियर्सन के अनुसार (भारत का भाषाई सर्वेक्षण, 1903-1928) देश में 179 भाषाएँ और 544 के लगभग बोलियाँ थीं। आधुनिक भारत के संदर्भ में 22 भाषाएँ अनुसूचित हैं और अनेक भाषाएँ गैर-अनुसूचित हैं। अनुसूचित भाषाओं में हिंदी बोलने वालों का प्रतिशत सर्वाधिक

भाषाई वर्गीकरण

प्रमुख भारतीय भाषाओं के बोलने वाले चार भाषा परिवारों से जुडे़ हुए हैं जिनके उप-परिवार, शाखाएँ अथवा वर्ग हैं,

धार्मिक संघटन

धार्मिक संघटन का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया जाए। देश में धार्मिक समुदायों का स्थानिक वितरण (परिशिष्ट 1 ड)

भारत-बांग्लादेश सीमा व भारत-पाक सीमा से संलग्न जिलों, जम्मू और कश्मीर, उतर-पूर्व के पर्वतीय राज्यों और दक्कन पठार व गंगा के मैदान के प्रकीर्ण क्षेत्रों को छोड़कर

धर्म और भू-दृश्य

हिंदू अनेक राज्यों में एक प्रमुख समूह के रूप में  वितरित हैं (70 से 90 प्रतिशत तक और उससे अधिक)।

मुख्य सांद्रण पश्चिमी तट के साथ गोआ एवं केरल और मेघालय, मिजोरम और नागालैंड के पहाड़ी राज्यों, छोटानागपुर क्षेत्र और मणिपुर की पहाड़ियों में भी देखा जाता है।

श्रमजीवी जनसंख्या का संघटन

आर्थिक स्तर की दृष्टि से भारत की जनसंख्या को तीन वर्गो में बाँटा जाता है, जिनके नाम हैं-मुख्य श्रमिक, सीमांत श्रमिक और अश्रमिक (देखिए बॉक्स)।

मानक जनगणना परिभाषा

मुख्य श्रमिक वह व्यक्ति है जो एक वर्ष में कम से कम 183 दिन (या छः महीने) काम करता है। सीमांत श्रमिक वह व्यक्ति है जो एक वर्ष में 183 दिनों (या छः महीने) से कम दिन काम करता है। 

श्रम की प्रतिभागिता दर क्या होती है?

राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशो श्रमजीवी जनसंख्या का अनुपात गोआ में लगभग 39.6 प्रतिशत, दमन एवं दियु में लगभग 49.9 प्रतिशत सामान्य भिन्नता दर्शाता है। श्रमिकों के अपेक्षाकृत अधिक प्रतिशत वाले राज्य हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, छतीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, अरूणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर और मेघालय हैं।

’’बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ“ सामाजिक अभियान के द्वारा जेंडर के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ावा

भारत सरकार ने इन सभी को संज्ञान में लेते हुए तथा भेदभाव से होने वाले दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर ’’बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ“ सामाजिक अभियान चलाया है।

व्यावसायिक संवर्ग

सन् 2011 की जगणना ने भारत की श्रमजीवी जनसंख्या को चार प्रमुख संवर्गों में बाँटा हैः

  1. कृषक
  2. कृषि मजदूर
  3. घरेलू औधोगिक श्रमिक
  4. अन्य श्रमिक

भारत में कृषि सेक्टर के श्रमिकों के अनुपात में उतार दिखाई दिया है (2001 में 58.2प्रतिशत से 2011में 54.6प्रतिशत)।

हिमाचल प्रदेश और नागालैंड जैसे राज्यों में कृषकों की संख्या बहुत अधिक है। दूसरी ओर बिहार, आंध्र प्रदेश, छतीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में कृषि मजदूरों की संख्या अधिक है। दिल्ली, चंडीगढ़ और पुडुच्चेरी जैसे अत्यधिक नगरीकृत क्षेत्रों में श्रमिकों का बहुत बड़ा अनुपात अन्य सेवाओं में लगा हुआ है।

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Bihar Board Class 12th Geography Solutions Notes in Hindi | NCERT Class 12th Geography

दिया गया नोट्स लेटेस्‍ट NCERT पाठ्यक्रम पर आधारित है। इसमें कक्षा 12 भूगोल Bihar Board Class 12th Geography Solutions Notes in Hindi के सभी नोट्स को पढ़ेंगे। इस नोट्स को पढ़ने से आपका कन्‍सेप्‍ट क्लियर हो जाएगा।

Class 12th Geography Solutions Notes

BSEB Class 12th Geography Book Notes in Hindi भूगोल

खण्ड 1: मानव भूगोल के मूल सिद्धांत

खण्ड 2: भारत – लोग और अर्थव्यवस्था

NCERT 12th Geography Notes in Hindi

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मुझे आशा है कि आप को Class 12 Geography (भूगोल) के सभी पाठ के नोट्स को पढ़कर अच्‍छा लगा होगा। इसको पढ़ने के पश्‍चात् आप निश्चित ही अच्‍छा स्‍कोर करेंगें।  इन सभी पाठ को बहुत ही अच्‍छा तरीका से आसान भाषा में तैयार किया गया है ताकि आप सभी को आसानी से समझ में आए। इसमें कक्षा  12 भूगोल के सभी चैप्‍टर के प्रत्‍येक पंक्ति का व्‍याख्‍या को सरल भाषा में लिखा गया है। यदि आप बिहार बोर्ड कक्षा 12 से संबंधित किसी भी पाठ के बारे में जानना चाहते हैं, तो नीचे कमेन्‍ट बॉक्‍स में क्लिक कर पूछ सकते हैं। यदि आप और विषय के बारे में पढ़ना चाहते हैं तो भी हमें कमेंट बॉक्‍स में बता सकते हैं। अगर आपका कोई सुझाव हो, तो मैं आपके सुझाव का सम्‍मान करेंगे। आपका बहुत-बहुत धन्‍यवाद।