BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 5 समकालीन दक्षिण एशिया

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्याय 5
समकालीन दक्षिण एशिया

परिचय :

बीसवीं सदी के आखिरी सालों में जब भारत और पाकिस्तान ने खुद को परमाणु शक्ति-संपन्न राष्ट्रों की बिरादरी में बैठा लिया तो यह क्षेत्र अचानक पूरे विश्व की नजर में महत्त्‍वपूर्ण हो उठा। स्पष्ट ही विश्व का ध्यान इस इलाके में चल रहे कई तरह के संघर्षों पर गया। इस क्षेत्र के देशों के बीच सीमा और नदी जल के बँटवारे को लेकर विवाद कायम है। इसके अतिरिक्त विद्रोह, जातीय संघर्ष और संसाधनों के बँटवारे को लेकर होने वाले झागड़ा भी हैं। इन वजहों से दक्षिण एशिया का इलाका बड़ा संवेदनशील है और अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि आज विश्व में यह क्षेत्र सुरक्षा के लिहाज से खतरे की आशंका वाला क्षेत्र है। दक्षिण एशिया के देश अगर आपस में सहयोग करें तो यह क्षेत्र विकास करके समृद्ध बन सकता है। इस अध्याय में हम दक्षिण एशिया के देशों के बीच मौजूद संघर्षो की प्रकृति और इन देशों के आपसी सहयोग को समझने की कोशिश करेंगे। दक्षिण एशिया के देशों की घरेलू राजनीतिक से इन झगड़ों या सहयोग का मिज़ाज तय होता है

क्या है दक्षिण एशिया?

दक्षिण एशिया है क्या? अमूमन बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका को इंगित करने के लिए ‘दक्षिण एशिया‘ पद का व्यवहार किया जाता है। उत्तर की विशाल हिमालय पर्वत-श्रृंखला, दक्षिण का हिंद महासागर, पश्चिम का अरब सागर और पूरब में मौजूद बंगाल की खाड़ी से यह इलाका एक विशिष्ट प्राकृतिक क्षेत्र के रूप में नजर आता है। चीन इस क्षेत्र का एक प्रमुख देश है लेकिन चीन को दक्षिण एशिया का अंग नहीं माना जाता है दक्षिण  एशिया हर अर्थ में विविधताओं से भरा-पूरा इलाका है दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में एक-सी राजनीतिक प्रणाली नहीं है। भारत और श्रीलंका में ब्रिटेन से आज़ाद होने के बाद, लोकतांत्रिक व्यवस्था सफलतापूर्वक कायम है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में लोकतांत्रिक और सैनिक दोनों तरह के नेताओं का शासन रहा है। शीतयुद्ध के बाद के सालों में बांग्लादेश में लोकतंत्र कायम रहा। पाकिस्तान में शीतयुद्ध के बाद के सालों में लगातार दो लोकतांत्रिक सरकारें बनीं। पहली सरकार बनज़ीर भुट्टो और दूसरी नवाज़ सरीफ के नेतृत्व में कायम हुई। लेकिन इसके बाद 1999 में पाकिस्तान में सैनिक तख्तापलट हुआ। 2008 से फिर से यहाँ लोकतांत्रिक-शासन है। 2006 तक नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र था कि राजा अपने हाथ में कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ ले लेगा। 2008 में राजतंत्र को ख्तम किया और नेपाल एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप् में उभरा। भूटान 2008 में राजतंत्र संवैधानिक राजतंत्र बन गया। राजा के नेतृत्व में, यह बहुदलीय लोकतंत्र के रूप में उभरा। मलदीव 1968 तक सल्तनत हुआ करता था। 1968 में यह एक गणतंत्र बना 2005 के जून में मालदीव की संसद ने बहुदलीय प्रणाली को अपनाने के पक्ष में एकमत से मतदान किया। मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) का देश के राजनीतिक मामलों में दबदबा है। एमडीपी ने 2018 में हुए चुनावों में जीत हासिल की। इन देशों के लोग शासन की किसी और प्रणाली की अपेक्षा लोकतंत्र को वरीयता देते हैं और मानते हैं कि उनके देश के लिए लोकतंत्र ही ठीक है।

पाकिस्तान में सेना और लोकतंत्र

पाकिस्तान में पहले संविधान के बनने के बाद देश के शासन की बाग़डोर जनरल अयूब खान ने अपने हाथों में ले ली और जल्दी ही अपना निर्वाचन भी करा लिया। उनके शासन के खिलाफ जनता का गुस्सा भड़का और ऐसे में उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा। इससे एक बार फिर सैनिक शासन का रास्ता साफ हुआ और जनरल याहिया खान के सैनिक-शासन के दौरान पाकिस्तान को बांग्लादेश-संकट का सामना करना पड़ा। और 1971 में भारत के साथ पाकिस्तान का युद्ध हुआ। युद्ध के परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान टूटकर एक स्वतंत्र देश बना और बांग्लादेश कहलाया। उसके बाद पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में एक निर्वाचित सरकार बनी जो 1971 से 1977 तक कायम रही। 1977 में जेनरल जियाउल-हक ने इस सरकार को गिरा दिया। 1988 में एक बार फिर बेनज़ीर भूट्टो के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार बनी। निर्वाचित लोकतंत्र की यह अवस्था 1999 तक कायम रही। 1999 में फिर एक बार सेना ने दखल दी और जेनरल परवेज़ मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवज़ शरीफ को हटा दिया। 2001 में परवेज़ मुशर्रफ ने अपना निर्वाचन राष्ट्रपति के रूप में कराया। पाकिस्तान पर सेना की हूकूमत थी हालाँकि सैनिक शासकों ने अपने को लोकतांत्रिक जताने के लिए चुनाव कराएँ हैं। 2008 से पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए नेता शासन कर रहें हैं। पाकिस्तान में लोकतंत्र के स्थायी न बन पाने के बई कारण हैं। यहाँ सेना, धर्मगुरू और भूस्वामी अभिजनों का सामाजिक दबदबा है। इसकी वज़ह से कई बार निर्वाचित सरकारों को गिराकर सैनिक शासन कायम हुआ। लोकतंत्र पाकिस्तान में पूरी तरह सफल नहीं हो सका है लेकिन इस देश में लोकतंत्र का जज़्बा बहुत मज़बूती के साथ कायम रहा है। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शासन चले-इसके लिए कोई खास अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलता। अमेरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों ने अपने-अपने स्वार्थो से गुज़रे वक्त में पाकिस्तान में सैनिक शासन को बढ़वा दिया। इन देशों को उस आतंकवाद से डर लगता है जिसे ये देश ‘विश्वव्यापी से इस्लामी आतंकवाद‘ कहते हैं। इन देशों की यह भी डर सताता है कि पाकिस्तान के परमाण्विक हथियार कहीं इन आतंकवादी समूहों के हाथ न लग जाएँ।

बांग्लादेश में लोकतंत्र

1947 से 1971 तक बांग्लादेश पाकिस्तान का अंग था। अंग्रजी राज के समय के बंगाल और असम के विभाजित हिस्सों से पूर्वी पाकिस्तान का यह क्षेत्र बना था। इस क्षेत्र के लोग पश्चिमी पाकिस्तान के दबदबे और अपने ऊपर उर्दू भाषा को लादने के खि़लाफ थे। पश्चिमी पाकिस्तान के प्रभुत्व के खिलाफ जन-संघर्ष का नेतृत्व शेख मुजीबुर्रहमान ने किया। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग को 1970 के चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान की सारी सीटों पर विजय मिली। अवामी लीग को संपूर्ण पाकिस्तान के लिए प्रस्तावित संविधान सभा में बहुमत हासिल हो गया। लेकिन सरकार पर पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं का दबदबा था और सरकार ने इस सभा को आहूत करने से इंकार कर दिया। शेख़ मुज़ीब को गिफ्तार कर लिया गया। जेनरल याहिया खान के सैनिक शासन में पाकिस्तान सेना ने बंगाली जनता के आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। हज़ारों लोग पाकिस्तान सेना के हाथो मारे गए। इस वज़ह से पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोग भारत पलायन कर गए। भारत के सामने इन शरणार्थियों को संभालने की समस्या आना खड़ी हुई। भारत की सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की आज़ादी की माँग का समर्थन किया और उन्हें वित्तीय और सैन्य सहायता दी। इसके परिणामस्वरूप् 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया। युद्ध की समाप्ति पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण तथा एक स्वतंत्र राष्ट्र ‘बांग्लादेश‘ के निर्माण के साथ हूई। बांग्लादेश ने अपना संविधान बनाकर उसमें अपन को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक तथा समावादी देश घोषित किया। शेख मुज़ीब ने अपनी पार्टी अवामी लीग को छोड़कर अन्य सभी पार्टियों को समाप्त कर दिया। इससे तनाव और संघर्ष की स्थिति पैदा हुई । 1975 के अगस्त में सेना ने उनके खि़लाफ बगा़वत कर दी और इस नाटकीय तथा त्रासद घाटनाक्रम में शेख मुज़ीब सेना के होथो मारे गए। नये सैनिक-शासक जियाउर्रहमान ने अपनी बांग्लादेश नेशनल पार्टी बनायी और 1979 के चुनाव में विजयी रहे। जियाउर्रहमान की हत्या हुई और लेफ्टिनेंट जे़नरल एच एम इरशाद के नेतृत्व में बांग्लादेश में एक और सैनिक-शासन ने बागडोर संभाली। लेकिन, बांग्लादेश की जनता जल्दी ही लोकतंत्र के समर्थन में उठ खड़ी हुई। जनरल इरशाद पाँच सालों के लिए राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। जनता के व्यापक विरोध के आगे झुकते हुए लेफ्टिनेंट जेनरल इरशाद को राष्ट्रपति का पद 1990 में छोड़ना पड़ा। 1991 में चुनाव हुए। इसके बाद से बांग्लादेश में बहुदलीय चुनावों पर आधारित प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र कायम है।

नेपाल में राजतंत्र और लोकतंत्र

नेपाल अतीत में एक हिन्दु-राज्‍य था फिर आधुनिक काल में कई सालों तक यहाँ संवैधानिक राजतंत्र रहा। संवैधानिक राजतंत्र के दौर में नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ और आम जनता ज्यादा खुले और उत्तरदायी शासन की आवाज उठाते रहें। लेकिन राजा ने सेना की सहायता से शासन पर पूरा नियंत्रण कर लिया और नेपाल में लोकतंत्र की राह अवरूद्ध हो गई। एक मजबूत लोकतंत्र-समर्थक आंदोलन की चपेट में आकर राजा ने 1990 में नए लोकतांत्रिक संविधान की माँग मान ली। 1990 के दशक में नेपाल के माओवादी नेपाल के अनेक हिस्सों में अपना प्रभाव जमाने में कामयाब हुए। माओवादी, राजा और सत्ताधारी अभिजन के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करना चाहते थे। इस वज़ह से राजा की सेना और माओवादी गुरिल्लों के बीच हिंसक लड़ाई छिड़ गई। 2002 में राजा ने संसद को भंग कर दिया और सरकार को गिरा दिया। इस तरह नेपाल में जो भी थोड़ा-बहुत लोकतंत्र-समर्थन प्रदर्शन हुए। राजा ज्ञानेन्द्र ने बाध्य होकर संसद को बहाल किया। इसे अप्रैल 2002 में भंग कर दिया गया था। नेपाल में लोकतंत्र आमद अब लगभग मुकम्मल हुई है। नेपाल का संविधान लिखने के लिए वहाँ संविधान-सभा का गठन हुआ। माओवादी समूहों ने सशस्त्र संघर्ष की राह छोड़ देने की बात मान ली 2008 में नेपाल राजतंत्र को खत्म करने के बाद लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। 2015 में नेपाल ने नया संविधान अपनाया।

श्रीलांका में जातीय संघर्ष और लोकतंत्र

अज़ादी (1948) के बाद से लेकर अब तक श्रीलंका में लोकतंत्र कायम है। लेकिन श्रीलांका को जातीय संघर्ष का सामना करना पड़ा जिसकी माँग है कि श्रीलंका के एक क्षेत्र को अलग राष्ट्र बनाया जाय। आज़ादी के बाद से (श्रीलंका को दिनों सिलोन कहा जाता था) श्रीलांका की राजनीति पर बहुसंख्यक सिंहली समुदाय के हितों की नुमाइंदगी करने वालों का दबदबा रहा है। ये लोग भारत छोड़कर श्रीलांका आ बसी एक बड़ी तमिल आबादी के खिलाफ हैं। सिंहली राष्ट्रवादियों का मानना था कि श्रीलंका में तमिलों के साथ कोई ‘रियायत‘ नहीं बरती जानी चाहिए क्योंकि श्रीलांका सिर्फ सिंहली लोगों का है। 1983 के बाद से उग्र तमिल संगठन ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑव तमिल ईलम‘ (लिट्टे) श्रीलंकाई सेना के साथ सशस्त्र संघर्ष कर रहा है। इसने ‘तमिलों के लिए एक अलग देश की माँग की है। भारत की तमिल जनता का भारतीय सरकार पर भारी दबाव है कि वह श्रीलंकाई ततिलों के हितों के रक्षा करे। 1987 में भारतीय सरकार श्रीलांका के तमिल मसले में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हुई। भारत की सरकार ने श्रीलंका से एक समझौता किया तथा श्रीलांका सरकार और तमिलों के बीच रिश्ते सामान्य करने के लिए भारतीय सेना को भेजा। श्रीलंकाई जनता ने समझा कि भारत श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी कर रहा है। 1989 में भारत ने अपनी ‘शांन्ति सेना‘ लक्ष्य हासिल किए बिना वापस बुला ली। अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थ के रूप में नार्वे और आइसलैंड जैसे स्कैंडिनेवियाई देश युद्धरत दोनों पक्षां को फिर से वापस में बातचीत करने के लिए राजी कर रहे थे। अंततः सशस्त्र संघर्ष समाप्त हो गया क्यांकि 2009 में लिट्टे को खत्म कर दिया गया। दक्षिण एशिया के देशों में सबसे पहले श्रीलंका ने ही अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया। गृहयुद्ध से गुजरने के बावजूद कई सालों से इस देश का प्रति व्यक्ति सफल घरेलू उत्पाद दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा है। अंदरूनी संघर्ष के झंझावातों को झेलकर भी श्रीलंका ने लोकतांत्रिक राजव्यवस्था कायम रखी है।

भारत-पाकिस्तान संघर्ष

दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति केंद्रीय है और इस वज़ह से इनमें से अधिकांश संघर्षो का रिश्ता भारत से है। इन संघर्षो में सबसे प्रमुख और सर्वग्रासी संघर्ष भारत और पाकिस्तान के बीच का संघर्ष है। विभाजन के तुरंत बाद दोनों देश कश्मीर के मसले पर लड़ पड़े। भारत और पाकिस्तान के बीच 1947-48 तथा 1965 के युद्ध से इस मसले का समाधान नहीं हुआ। 1948 के युद्ध के फलस्वरूप कश्मीर के दो हिस्से हो गए। एक हिस्सा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहलाया जबकि दूसरा हिस्सा भारत का जम्मू-कश्मीर प्रान्त बना। दोनों देशों की सरकारें लगातार एक दूसरे को संदेह की नज़र से देखती हैं। भारत सरकार का आरोप है कि पाकिस्तान सरकार ने लुके-छुपे ढ़ंग से हिंसा की वह रणनीति जारी रखी है। आरोप है कि वह कश्मीर उग्रवादियों को हथियार, प्रशिक्षण और धन देता है तथा भारत पर आतंकवादी हमले के लिए उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है कि पाकिस्तान ने 1985-1995 की अवधि में खालिस्तान-समर्थक उग्रवादियों को हथियार तथा गोले-बारूद दिए थे। इसके जवाब में पाकिस्तान की सरकार भारतीय सरकार और उसकी खुफिया एजेंसियों पर सिंध और बलूचिस्तान में समस्या को भड़काने का आरोप लगाती है। 1960 तक दोनों के बीच सिन्धु नदी के इस्तेमाल को लेकर तीखे विवाद हुए। 1960 में विश्व बैंक की मदद से भारत और पाकिस्तान ने ‘सिंधु-जल संधि‘ पर दस्तख़त किए यह संधि अब भी कायम है। कच्छ के रन में सरक्रिक की सीमारेखा को लेकर दोनों देशों के बीच मतभेद हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच इन सभी मामलों के बारे में वार्ताओं के दौर चल रहे हैं।

भारत और उसके अन्य पड़ोसी देश

बांग्लादेश और भारत के बीच गंगा और ब्रह्यपुत्र नदी के जल में हिस्सेदारी सहित कई मुद्दों पर मतभेद हैं। भारतीय सरकारों के बांग्लादेश से नाखुश होने के कारणों में भारत में अवैध आप्रवास पर ढाका के खंडन, भारत-विरोधी इस्लामी कट्टरपंथी जमातों को समर्थन, भारतीय सेना को पूर्वोत्तर भारत में जाने के लिए अपने इलाके से रास्ता देने से बांग्लादेश के इंकार, ढाका के भारत को प्राकृतिक गैस निर्यात न करने के फैसले तथा म्यांमार को बांग्लादशी इलाके से होकर भारत को प्राकृतिक गैस निर्यात न करने देने जैसे मसले शामिल हैं। बांग्लादेश की सरकार नदी-जल में हिस्सेदारी के सवाल पर इलाके के दादा की तरह बरताव करती है। इसके अलावा भारत की सरकार पर चटगाँव पर्वतीय क्षेत्र में विद्रोह को हवा देने; बांग्लादेश के प्राकृतिक गैस में सेंधमारी करने और व्यापार में बेईमानी बरतने के भी आरोप हैं। विभेदों के बावजूद भारत और बांग्लादेश कई मसलों पर सहयोग करते हैं। बांग्लादेश भारत के ‘लुक ईस्ट‘ और 2014 से ‘एक्ट ईस्ट‘ नीति का हिस्सा है। इस नीति के अन्तर्गत म्यांमार के ज़रिए दक्षिण-पूर्व एशिया से संपर्क साध ने की बात है। आपदा-प्रबंधन और पर्यावरण के मसले पर भी दोनों देशों ने निरंतर सहयोग किया है। भातर और नेपाल के बीच मधुर संबंध हैं और दोनों देशों के बीच एक संधि हुई है। इस संधि के तहत दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे के देश में बिना पासपार्ट (पारपत्र) और वीजा के आ-जा सकते हैं और काम कर सकते हैं। नेपाल की चीन के साथ दोस्ती को लेकर भारत सरकार ने अक्सर अपनी अप्रसन्नता जतायी है। नेपाल सरकार भारत-विरोधि तत्त्वों को खिलाफ कदम नहीं उठाती। इससे भी भारत नाखुश है। नेपाल में बहुत से लोग यह सोचते हैं कि भारत की सरकार नेपाल के अंदरूनी मामलों में दखल दे रही है और उसके नदी जल तथा पनबिजली पर आँख गड़ए हुए है। चारों तरफ से जमीन से घिरे नेपाल को लगता है कि भारत उसको अपने भूक्षेत्र से होकर समुद्र तक पहुँचने से रोकता है। बहरहाल भारत-नेपाल के संबंध एकदम दोनों देश व्यापार, वैज्ञानिक सहयोग, साझे प्राकृतिक संसाधन, बिजली उत्पादन और जल प्रबंधन ग्रिड के मसले पर एक साथ हैं। श्रीलंका और भारत की सरकारों के संबंधां में तनाव इस द्वीप में ज़ारी जातीय संघर्ष को लेकर है। 1987 के सैन्य हस्तक्षेप के बाद से भारतीय सरकार श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में असलंग्नता की नीति पर अमल कर रही है। भारत सरकार ने श्रीलंका के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत किए हैं। इससे दोनों देशां के संबंध मज़बूत हुए हैं। भारत के भूटान के साथ भी बहुत अच्छे रिश्ते हैं और भूटानी सरकार के साथ कोई बड़ा झागड़ा नहीं है। भातर भूटान में पनबिजली की बड़ी परियोजनाओं में हाथ बँटा रहा है। इस हिमालयी देश के विकास कार्यां के लिए सबसे ज्यादा अनुदान भारत से हासिल होता है। मालदीव के साथ भारत के संबंध सौहार्दपूर्ण तथा गर्मजाशी से भरे हैं। 1988 में श्रीलंका से आए कुछ भाड़े के तमिल सैनिकों ने मालदीव पर हमला किया। मालदीव ने जब आक्रमण रोकने के लिए भारत से मदद माँगी तो भारतीय वायुसेना और नौसेना ने तुरंत कार्रवाई की। भारत ने मालदीव के आर्थिक विकास, पर्यटन और मत्स्य उद्योग में भी मदद की है। भारत का आकार बड़ा है और वह शक्तिशाली है। इसकी वज़ह से अपेक्षाकृति छोटे देशों का भारत के इरादों को लेकर शक करना लाजिमी है। दूसरी तरफ, भारत सरकार को अक्सर महसूस होता है कि उसके पड़ोसी देश उसका बेज़ा फायदा उठा रहे हैं। भारत नहीं चाहता कि इन दोशों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो। दक्षिण एशिया के सारे झागड़े सिर्फ भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच ही नहीं है। नेपाल-भूटान तथा बांग्लादेशश्श्श्-म्यांमार के बीच जातीय मूल के नेपालियों के भूटान आप्रवास के मसले पर मतभेद रहे हैं। बांग्लादेश और नेपाल के बीच हिमालयी नदियों के जल की हिस्सेदारी को लेकर खटपट है।

शांति और सहयोग

अनेक संघर्षों के बावजूद दक्षिण एशिया के देश आपस में दोस्ताना रिश्ते तथा सहयोग के महत्त्व को जहचानते हैं। दक्षेस (साउथ एश्यि एसोशियन फॉर रिजनल को ऑपरेशन  (SAARC) दक्षिण एशियाई देशों द्वारा बहुस्तरीय साधनों से आपस में सहयोग करने की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। इसकी शुयआत 1985 में हुई। दक्षेस के सदस्य देशां ने सन् 2002 में ‘दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार-क्षेत्र समझौते‘ (SAFTA) पर दस्तख़त किये। इसमें पूरे दक्षिण एशिया के लिए मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने का वायदा है। यदि दक्षिण के सभी देश अपनी सीमारेखा के आर-पार मुक्त-व्यापार पर सहमत हो जाएँ तो इस क्षेत्र में शांति और सहयोग के एक नए अध्याय की शुरूआत हो सकती है। इस समझौते पर 2004 में हस्ताक्षर हुए और यह समझौता 1 जनवरी 2006 से प्रभावी हो गया। इस समझौते का लक्ष्य है कि इन देशों के बीच आपसी व्यापार में लगने वाले सीमा शुल्क को कम कर दिया जाए। कुछ छोटे देश मानते हैं कि ‘साफ्टा‘ की ओट लेकर भारत उनके बाज़ार में सेंध मारना चाहता है। भारत सोचता है कि ‘साफ्टा‘ से इस क्षेत्र के हर देश को फायदा होगा और क्षेत्र में मुक्त व्यापार बढ़ने से राजनीतिक मसलों पर सहयोग ज्यादा बेहतर होगा। भारत और पाकिस्तान के संबंध कभी खत्म न होने वाले झागड़ों और हिंसा की एक कहानी जान पड़ते हैं फिर भी तनाव को कम करने और शांति बहाल करने के लिए इन देशों के बीच लगातार प्रयास हुए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता और महत्त्वपूर्ण हस्तियाँ दोनों देशों के पंजाब वाले हिस्से के बीच कई बस-मार्ग खुले हैं। अब वीज़ा आसानी से मिल जाते हैं। चीन और संयुक्त राज्य अमरीका दक्षिण एशिया की राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। पिछले दस वर्षों में भारत और चीन के संबंध बेहतर हुए हैं। सन् 1991 के बाद से इनके आर्थिक संबंध ज़्यादा मज़बूत हूए हैं। शीतयुद्ध के बाद दक्षिण एशिया में अमरीकी प्रभाव तेजी से बढ़ा है। अमरीका ने शीतयुद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों से अपने संबंध बेहतर किए हैं। वह भातर-पाक के बीच लगातार मध्यस्त्थ की भूमिकह निभा रहा है। अमरीका में दक्षिण एशियाई मूल के लोगों की संख्या अच्छी-खासी हैं। फिर, इस क्षेत्र की जनसंख्या और बाजार का आकार भी भारी भरकम है। इस कारण इस क्षेत्र की सुरक्षा और शांति के भविष्य से अमरीका के हित भी बधें हुए हैं।

BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 4 सत्ता के वैकल्पिक केन्‍द्र

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्‍याय 4
सत्ता के वैकल्पिक केन्‍द्र

परिचय

1990 के दशक के शुरू में विश्‍व राजनीति में दो-ध्रुवीय व्‍यवस्‍था के टूटने के बाद यह स्‍पष्‍ट हो गया कि राजनैतिक और आर्थिक सत्ता के वैकल्पिक केंद्र कुछ हद तक अमरीका के प्रभुत्‍व को सीमित करेंगे। यूरोप में यूरोपीय संघ और एशिया में दक्षिण-पूर्ण एशियाई राष्‍ट्रों के संगठन (आसियान) का उदय दमदार शक्ति के रूप में हुआ।

इन्‍होंने अपने-अपने इलाकों में अधिक शांतिपूर्ण और सहकारी क्षेत्रीय व्‍यवस्‍था विकसित करने तथा इस क्षेत्र के देशों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं का समूह बनाने की दिशा में भी काम किया।

 यूरोपीय संघ

1945 के बाद यूरोप के देशों में मेल-मिलाप को शीतयुद्ध से भी मदद मिली। अमरीका ने यूरोप की अर्थव्‍यवस्‍था के पुनर्गठन के लिए जबरदस्‍त मदद की। इसे मार्शल योजना के नाम से जाना जाता है। अमेरिका ने ‘नाटो’ के तहत एक सामूहिक सुरक्षा व्‍यवस्‍था को जन्‍म दिया। मार्शल योजना के तहत 1948 में यूरोपीय आर्थिक सहयोग संगठन की स्‍थापना की गई जिसके माध्‍यम से पश्चिमी यूरोप देशों को आर्थिक मदद दी गई।

1949 में गठित यूरोपीय परिषद् राजनैतिक सहयोग के मामले में एक अगला कदम साबित हुई।

1957 में यूरोपीयन इकॉनामिक कम्‍युनिटी का गठन हुआ। सोवियत गुट के पतन के बाद

1992 में इस प्रक्रिया की परिणति यूरोपीय संघ की स्‍थापना के रूप में हुई। यूरोपीय संघ के रूप में समान विदेश और सुरक्षा नीति, आंतरिक मामलों तथा न्‍याय से जुड़े मुद्दों पर सहयोग और एकसमान मुद्रा के चलन के लिए रास्‍ता तैयार  हो गया।

यूरोपीय संघ स्‍वयं काफी हद तक एक विशाल राष्‍ट्र-राज्‍य की तरह ही काम करने लगा है। हाँलाकि यूरोपीय संघ का एक संविधान बनाने की कोशिश तो असफल हो गई लेकिन इसका अपना झंडा, गान, स्‍थापना-दिवस और अपनी मुद्रा है।

यूरोपीय संघ का आर्थिक, राजनैतिक, कूटनीतिक तथा सैनिक प्रभाव बहुत जबरदस्‍त है। 2016 में यह दुनिया की दुसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था थी

इसकी मुद्रा यूरो अमरीकी डालर के प्रभुत्‍व के लिए खतरा बन सकती है। विश्‍व व्‍यापार में इसकी 

हिस्‍सेदारी अमरीका से तीन गुनी ज्‍यादा है इसकी आर्थिक शक्ति का प्रभाव इसके नजदीकी देशों पर ही नहीं, बल्कि एशिया और अफ्रीका के दूर-दराज के मुल्‍कों पर भी है।

यूरोपीय संघ के दो सदस्‍य देश ब्रिटेन और फ्रांस सुरक्षा परिषद् के स्‍थायी सदस्‍य हैं।

सैनिक ताकत के हिसाब से यूरोपीय संघ के पास दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना है। इसका कुल रक्षा बजट अमरीका के बाद सबसे अधिक है। यूरोपीय संघ के दो देशों-ब्रिटेन और फ्रांस के पास परमाणु हथियार हैं

550 परमाणु हथियार हैं। अं‍तरिक्ष विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के मामले में भी यूरोपीय संघ का दुनिया में दूसरा स्‍थान है।

यूरोपीय संघ आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक मामलों में दखल देने में सक्षम है।

डेनमार्क और स्‍वीडन ने मास्ट्रिस्‍ट संधि और साझी यूरोपीय मुद्रा यूरो को मानने का प्रतिरोध किया। इससे विदेशी और रक्षा मामलों में काम करने की यूरोपीय संघ की क्षमता सीमित होती है।

दक्षिण पूर्व एशियाई राष्‍ट्रों का संगठन

(आसियान) 

बांडुंग सम्‍मेलन और गुटनिरपेक्ष आंदोलन वगैरह के माध्‍यम से एशिया और तीसरी दुनिया के देशों में एकता कायम करने के प्रयास अनौपचारिक स्‍तर पर सहयोग और मेलजोल कराने के मामले में कारगर नहीं रहे थे। इसी के चलते दक्षिण-पूर्व एशियाई संगठन (आसियान) बनाकर एक वैकल्पिक पहल की।

1967 में इस क्षेत्र के पाँच देशों ने बैंकॉक घोषणा पर हस्‍ताक्षर करके ‘आसियान’ की स्‍थापना की। ये देश थे इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपींस, सिंगापुर और थाईलैंड।

विकास को तेज करना और उसके माध्‍यम से सामाजिक और सांस्‍कृति विकास हासिल करना था। कानून के शासन और संयुक्‍त राष्‍ट्र के कायदों पर आधारित क्षेत्रीय शांति और स्‍थायित्‍व को बढ़ावा देना भी इसका उद्देश्‍य था। बाद के वर्षो में ब्रुनेई दारूरसलाम, वियतनाम, लाओस, म्‍यांमार और कंबोडिया भी आसियान में शामिल हो गए तथा इसकी सदस्‍य संख्‍या दस हो गई।

अनौपचारिक, टकरावरहित और सहयोगात्‍मक मेल-मिलाप का नया उदाहरण

पेश करके आसियान ने काफी यश कमाया है और इसको ‘आसियान शैली’ (ASEAN) ही कहा जाने लगा है।

2003 में आसियान ने आसियान सुरक्षा समुदाय, आसियान आर्थिक समुदाय और आसियान सामाजिक-सांस्‍कृतिक समुदाय नामक तीन स्‍तम्‍भों के आधार आसियान समुदाय बनाने की दिशा में कदम एठाए

आसियान सुरक्षा समुदाय क्षेत्रीय विवादों को सैनिक टकराव तक न ले जाने की सहमति पर आधारित है। 2003 तक आसियान के सदस्‍य देशों ने कई समझौते किए जिनके द्वारा हर सदस्‍य देश ने शांति निश्‍पक्षता, सहयोग, अहस्‍तक्षेप को बढ़ावा देने और राष्‍ट्रों के आपसी अंतर तथा    संप्रभुता अधिकारों का सम्‍मान करने पर अपनी वचनबद्धता जाहिर की।

आसियान क्षेत्र की कुल अर्थव्‍यवस्‍था अमरीका, यूरोपीय संघ और जापान की तुलना में काफी छोटी है पर इसका विकास इन सबसे अधिक तेजी से हो रहा है।

आसियान ने निवेश, श्रम और सेवाओं के मामले में मुक्‍त व्‍यापार क्षेत्र (FTA) बनाने पर भी ध्‍यान दिया है। इस प्रस्‍ताव पर आसियान के साथ बातचीत करने की पहल अमरीका और चीन ने कर भी दी है।

आसियान तेजी से बढ़ता हुआ एक महत्‍पूर्ण क्षेत्रीय संगठन है।

आसियान द्वारा अभी टकराव की जगह बातचीत को बढ़़ावा देने की नीति से ही यह बात निकली है। इसी तरकीब से आसियान ने कंबोडिया के टकराव को समाप्‍त किया, पूर्वी तिमोर के संकट को सम्‍भाला है

भारत ने दो आसियान

सदस्‍यों, मलेशिया, सिंगापुर और थाईलैंड के साथ मुक्‍त व्‍यापार का समझौता किया है। 2010 में आसियान-भातर मुक्‍त व्‍यापार क्षेत्र व्‍यवस्‍था लागू हुई।

यह एशिया का एकमात्र ऐसा क्षेत्रीय संगठन है जो एशियाई देशों और विश्‍व शक्तियों को राजनैतिक और सुरक्षा मामलों पर चर्चा के लिए राजनैतिक मंच उपलब्‍ध कराता है।

चीनी अर्थव्‍यवस्‍था का उत्‍थान 1978 के बाद से चीन की आर्थिक सफलता को एक महाशक्ति के रूप में इसके उभरने के साथ जोड़कर देखा जाता है। आर्थिक सुधारों की शुरूआत करने के बाद से चीन सबसे ज्‍यादा तेजी से आर्थिक वृद्धि कर रहा है और माना जाता है कि इस रफ्तार से चलते, हुए 2040 तक वह दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति, अमरीका से भी आगे निकल जाएगा।

इसकी विशाल आबादी, बड़ा भू-भाग, संसाधन, क्षेत्रीय अवस्थिति और राजनैतिक प्रभाव इस तेज आर्थिक वृद्धि के साथ मिलकर चीन के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देते 1949 में माओ के नेतृत्‍व में हुई साम्‍यवादी क्रांति के बाद चीनी जनवादी गणराज्‍य की स्‍थापना के समय यहाँ की आर्थिकी सोवियत

मॉडल पर आ‍धारित थी।

इसने विकास का जो मॉडल अपनाया उसमें खेती से पूँजी निकाल कर सरकारी नियंत्रण में बड़े उद्योग खड़े करने पर जोर था।

चीन ने आयातित सामानों को धीरे-धीरे घरेलू स्‍तर पर ही तैयार करवाना शुरू किया।

अपने नागरिकों को शिक्षित करने और उन्‍हें स्‍वास्‍थ सुविधाएँ उपलब्‍ध कराने के मामले में चीन सबसे विकसित देशों से भी आगे निकल गया। अर्थव्‍यवस्‍था का विकास भी 5 से 6 फीसदी की दर से हुआ। लेकिन जनसंख्‍या में 2-3 फीसदी की वार्षिक वृद्धि इस विकास दर पर पानी फेर रही थी

इसका औद्योगिक उत्‍पादन पर्याप्‍त तेजी से नहीं बढ़ रहा था। विदेशी व्‍यापार न के बराबर था और प्रति व्‍यक्ति आय बहुत कम थी।

चीन ने 1972 में अमरीका से संबंध बनाकर अपने राजनैतिक

और आर्थिक एकांतवास को खत्‍म किया। 1973 में प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई ने कृषि, उद्योग, सेना और विज्ञान-प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में आधुनिकीकरण के चार प्रस्‍ताव रखे। 1978 में तत्‍कालीन नेता देंग श्‍याओपेंग ने चीन में आर्थिक सुधारों और ‘खुले द्वार की नीति’ की घोषणा की।

चीन ने अर्थव्‍यवस्‍था को चरणबद्ध ढंग से खोला।

1982 में खेती का निजीकरण किया गया और उसके बाद 1998 में उद्योगों का।

नयी आर्थिक नीतियों के कारण चीन की अर्थव्‍यवस्‍था को अपनी जड़ता से उबरने में मदद मिली। कृषि के निजीकणर के कारण कृषि-उत्‍पादों तथा ग्रामीण आय में उल्‍लेखनीय बढोत्तरी हुई।

उद्योग और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में चीन की अर्थव्‍यवस्‍था की वृद्धी-दर तेज रही। व्‍यापार के नये कानून तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों (स्‍पेशल इकॉनामिक जोन SEZ) के निर्माण से विदेश-व्‍यापार में उल्‍लेखनीय वृद्धि हुई। चीन पूरे विश्‍व में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश के लिए सबसे आ‍कर्षक देश बनकर उभरा। चीन के पास विदेशी मुद्रा का अब विशाल भंडार है

चीन 2001 में विश्‍व व्‍यापार संगठन में शामिल हो गया।

चीन की आर्थिकी में तो नाटकीय सुधार हुआ है लेकिन वहाँ हर किसी को सुधारों का लाभ नहीं मिला है। चीन में बेरोजगारी बढ़ी है और 10 करोड़ लोग रोजगार की तलाश में है। वहाँ महिलाओं के रोजगार और काम करने के हालात उतने ही खराब हैं जितने यूरोप में 18वीं और 19वीं सदी में थे। इसके अलावा पर्यावरण के नुकसान और भ्रष्‍टाचार के बढ़ने जैसे परिणाम भी सामने आए। गाँव

क्षेत्रीय और वैश्विक स्‍तर पर चीन एक ऐसी जबरदस्‍त आर्थिक शक्ति बनकर उभरा है

1997 के वित्तीय संकट के बाद आसियान देशों की अर्थव्‍यवस्‍था को टिकाए रखने में चीन के आर्थिक उभार ने काफी मदद की है। लातिनी अमरीका और अफ्रीका में निवेश और मदद की इसकी नीतियाँ बताती हैं कि विकासशील के रूप में उभरता जा रहा है।

चीन के साथ भारत के संबंध     

पश्चिमी साम्राज्‍यवाद के उदय से पहले भारत और चीन एशिया की महाशक्ति थे।

चीनी राजवंशों के लम्‍बे शासन में मंगोलिया, कोरिया, हिन्‍द-चीन के कुछ इलाके और तिब्‍बत इसकी अधीनता मानते रहे थे। भारत के भी अनेक राजवंशों और साम्राज्‍यों का प्रभाव उनके अपने राज्‍य से बाहर भी रहा था।

अंग्रेजी राज से भारत के आजाद होने और चीन द्वारा विदेशी शक्यिों को निकाल बाहर चीन द्वारा विदेशी शक्तियों को निकाल बाहर करने के बाद यह उम्‍मीद जगी थी कि ये दोनों मुल्‍क साथ आकर विकासशील दुनिया और खास तौर से एशिया के भविष्‍य को तय करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। कुछ समय के लिए ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई ‘ का नारा भी लोकप्रिय हुआ।

आजादी के तत्‍काल बाद 1950 में चीन द्वारा तिब्‍बत को हड़पने तथा भारत-चीन सीमा पर   

 बस्तियाँ बनाने के फैसले से दोनों देशों के बीच संबंध एकदम गड़बड़ हो गए। भारत और चीन दोनों देश अरूणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों और लद्दाख के अक्‍साई-चीन क्षेत्र पर प्रतिस्‍पर्धी दावों के चलते 1962 में लड़ पड़े। 1962 के युद्ध में भारत को सैनिक पराजय झेलनी पड़ी और

1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में चीन का राजनीतिक नेतृत्‍व बदला। चीन की नीति में भी अब वैचारिक मुद्दों की जगह व्‍यावहारिक मुद्दे प्रमुख होते गए इस‍लिए चीन भारत के साथ संबंध

सुधारने के लिए विवादास्‍पद मामलों को छोड़ने को तैयार हो गया। 1981 में सीमा विवादों को दूर करने के लिए वार्ताओं की श्रृखला भी की गई।

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद से भारत-चीन संबंधों में महत्‍वपूर्ण बदलाव आया है।

दोनों ही खुद को विश्‍व-राजनीति की उभरती शक्ति मानते हैं और दोनों ही एशिया की अर्थव्‍यवस्‍था और राजनीति में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाना चाहेंगे।

दोनों देशों ने सांस्‍कृतिक आदान-प्रदान, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में परस्‍पर सहयोग और व्‍यापार के लिए सीमा पर चार पोस्‍ट खोलने के समझौते भी किए हैं। 1999 से भारत और चीन के बीच व्‍यापार 30 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है।

चीन और भारत के बीच 1992 में 33 करोड़ 80 लाख डॉलर का द्विपक्षीय व्‍यापार हुआ था जो 2017 में बढ़कर 84 अरब डॉलर का हो चुका है।

वैश्विक धरातल पर भारत और चीन ने विश्‍व व्‍यापार संगठन जैसे अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक संगठनों  

के संबंध में एक जैसी नीतियाँ अपनायी हैं। 1998 में भारत के परमाणु ह‍थियार परीक्षण को कुछ लोगों ने चीन से खतरे के मद्देनजर उचित ठहराया था। लेकिन इससे भी दोनों के बीच संपर्क कम नहीं हुआ।

पाकिस्‍तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में भी चीन को मददगार माना जाता है। बांग्‍लादेश और म्‍यांमार से चीन के सैनिक संबंधों को भी दक्षिण एशिया में भारतीय हितों के खिफाल माना जाता है। पर इसमें से कोई भी मुद्दा दोनों मुल्‍कों में टकराव करवा देने

लायक नहीं माना जाता।

चीन और भारत के नेता तथा अधिकारी अब अक्‍सर नयी दिल्‍ली और बीजिंग का दौरा करते हैं।

परिवहन और संचार मार्गो की बढ़ोत्तरी, समान आर्थिक हित तथा एक जैसे वैश्विक सरोकारों के कारण भारत और के बीच संबंधों को ज्‍यादा सकारात्‍मक तथा मजबूत बनाने में मदद मिली है।

जापान

सोनी, पैनासोनिक, कैनन, सुजुकी, होंडा, ट्योटा और माज्‍दा जैसे प्रसिद्ध  जापानी ब्रांडों उच्‍च प्रौद्योगिकी के उत्‍पाद बनाने के लिए इनके नाम मशहूर हैं। जापान के पास प्राकृतिक संसाधन कम हैं और वह ज्‍यादातर कच्‍चे माल का आयात करता है। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद जापान ने बड़ी तेजी से प्रगति की।

2017 में जापान की अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था है। एशिया के देशों में अकेला जापान ही समूह-7 के देशों में शामिल है। आबादी के लिहाज से विश्‍व में जापान का स्‍थान ग्‍यारहवाँ है। परमाणु बम की विभीषिका झेलने वाला एकमात्र देश जापान है। जापान संयुक्‍त राष्‍ट‍्रसंघ के बजट में 10 प्रतिशत का योगदान करता है। संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ के बजट में अंशदान करने के लिहाज से जापान दूसरा सबसे बड़ा देश है। 1951 से जापान का अमरीका के साथ सुरक्षा-गठबंधन है। जापान का सैन्‍य व्‍यय उसके सकल घरेलू उत्‍पाद का केवल 1 प्रतिशत है

दक्षिणय कोरिया 

कोरियाई प्रायद्वीप विश्‍व युद्ध के अंत में दक्षिण कोरिया (रिपब्लिक ऑफ कोरिया) और उत्तरी कोरिया (डेमोक्रेटिक पीपुल्‍स) रिपब्लिक ऑफ कोरिया) में 38 वें समानांतर के साथ-साथ विभाजित किया गया था। 1950-53 के दौरान कोरियाई युद्ध और शीत युद्ध काल की गतिशीलता ने दोनों पक्षों के बीच प्रतिद्वंदिता को तेज कर दिया। अंतत: 17 सितंबर 1991 को दोनों कोरिया संयुक्‍त राष्‍ट्र के सदस्‍य बने। इसी बीच दक्षिण कोरिया एशिया में सत्ता के केंद्र के रूप में उभरा। 1960 के दशक से 1980 के दशक के बीच, इ‍सका आर्थिक शक्ति के रूप में तेजी से विकास हुआ, जिसे ”हान नदी पर चमत्‍कार” कहा जाता है।

2017 में इसकी अर्थव्‍यवस्‍था दुनिया में ग्‍यारहवीं सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था है और सैन्‍य खर्च में इसका दसवां स्‍थान है।

सैमसंग, एलजी और हुंडई जैसे दक्षिण कोरियाई ब्रांड भारत में प्रसिद्ध हो गए हैं। भारत और दक्षिण कोरिया के बीच कई समझौते उनके बढ़ते वाणिज्यिक और सांस्‍कृतिक संबंधो को दर्शाते हैं।

BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 3 समकालीन विश्‍व में अमरीकी वर्चस्‍व

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्‍याय 3
 समकालीन विश्‍व में अमरीकी वर्चस्‍व

परिचय                                                                                                                                                                           

शीतयुद्ध के अंत के बाद संयुक्‍त राज्‍य अमरीका विश्‍व की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा और दुनिया में कोई उसकी टक्‍कर का प्रतिद्वंद्वी न रहा। इस घटना के बाद के दौर को अमरीकी प्रभुत्‍व या एकध्रुवीय विश्‍व का दौर कहा जाता है।

खाड़ी युद्ध से लेकर अमरीकी अगुआई में इराक पर हमले तक घटनाओं का एक सिलसिला है। एक ध्रुवीय विश्‍व के उभार की इस कथाकी शुरूआत हम इस घटनाक्रम के जिक्र से करेंगे।

आयशा, जाबू और आंद्रेई

बगदाद  के छोर पर कायम एक स्‍कूल पढ़ रही आयशा अपनी पढ़ाई-लिखाई अव्‍वल थी। उसने सोचा था कि किसी विश्‍वविद्यालय में डॉक्‍टरी की पढ़ाई करूँगी। सन् 2003 में उसकी एक टाँग जाती रही। वह एक ठिकाने में अपने दोस्‍तों के साथ छुपी हुई थी और तभी हवाई हमले में दागी हुई एक मिसाइली उसके ठिकाने पर आ गिरी।

उसकी योजना डॉक्‍टर बनने की ही है, लेकिन तब ही जब विदेशी सेना उसके देश को छोड़कर चली जाए।

डरबन (दक्षिण अफ्रीका) का रहने वाला जाबू एक प्रतिभाशाली कलाकार है। उस‍की योजना आर्ट स्‍कूल में पढ़ने और इसके बाद अपना स्‍टूडियो खोलने की है। लेकिन उसके पिता चाहते हैं कि जाबू एमबीए की पढ़ई करे और परिवार का व्‍यवसाय संभाले।

जाबू के पिता सोचते हैं कि वह परिवार के व्‍यवसाय को फायदेमंद बनाएगा।

युवा आंद्रेई पर्थ (आस्‍ट्रेलिया) में रहता है। उसके माँ-बाप बतौर आप्रवासी रूस से आये थे।चर्च जाते वक्‍त जब वह नीली जीन्‍स पहन लेता है तो उसकी माँ आपे से बाहर हो जाती हैं। वह चाहती हैं कि आंद्रेई चर्च में सभ्‍य-शालीन दिखाई पड़े।

आंद्रेई की अपनी माँ से बहस हुई। हो सकता है जाबू को वह विषय पढ़ना पड़े जिसमेंउसकी दिलचस्‍पी नहीं। इससे अलग, आयशा की एक टाँग जाती रही और उसका सौभाग्‍य है कि वह जीवित है। हम इन समस्‍याओं के बारे में एक साथ चर्चा कैसे कर सकते हैं?

इस अध्‍याय में देखेंगे कि ये तीनों एक न एक तरीके से अमरीकी वर्चस्‍व का शिकार हैं।                                         

अमरीकी वर्चस्‍व की शुरूआत कैसे हुई और आज यह विश्‍व में कैसे असरमंद है। ‘संयुक्‍त राज्‍य अमरीका’ की जगह ज्‍यादा लोकप्रिय शब्‍द ‘अमरीका’ का इस्‍तेमाल करेंगे।

नयी विश्‍व-व्‍यवस्‍था की शुरूआत

सोवियत संघ के अचानक विघटन से हर कोई आश्‍चर्यचकित रह गया। दो महाशक्तियों में अब एक का वजूद तक न था जबकि दूसरा अपनी पूरी ताकत या कहें कि बढ़ी हुई ताकत के साथ कायम था।

अमरीका के वर्चस्‍व की शुरूआत 1991 में हुई जब एक ताकत के रूप में सोवियत संघ अंतर्राष्‍ट्रीय परिदृश्‍य से गायब हो गया। 1990 के अगस्‍त में इराक ने कुवैत पर हमला किया और बड़ी तेजी से उस पर कब्‍जा जमा लिया। इराक को समझाने-बुझाने की तमाम राजनयिक कोशिशें जब नाकाम रहीं तो संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ ने कुवैत को मुक्‍त कराने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे दी।

अमरीकी राष्‍ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसे ‘नई विश्‍व व्‍यवस्‍था’ की संज्ञा दी। 36 देशों की मिलीजुली और 660000 सैनिकों की भारी-भरकम फौज ने इराक के विरूद्ध मोर्चा खोला और उसे परास्‍त कर दिया। इसे प्रथम खाड़ी युद्ध कहा जाता है। संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ के इस सैन्‍य अभियान को ‘ऑपरेशन डेजर्ट स्‍टार्म’ कहा जाता है जो एक हद तक अमरीकी सैन्‍य अभियान ही था।

34 देशों की इस मिली जुली सेना में 75 प्रतिशत सैनिक अमरीका के ही थे। इराक के राष्‍ट्रपति सद्दाम हुसैन का ऐलान था कि यह ‘सौ जंगों की एक जंग’ साबित होगा लेकिन इराकी सेना जल्‍दी ही हार गई और उसे कुवैत से हटने पर मजबूत होना पड़ा।

प्रथम खाड़ी-युद्ध से यह बात जाहिर हो गई कि बाकी देश सैन्‍य-क्षमता के मामले अमरीका से बहुत पीछे हैं

अमरीका ने इस युद्ध में मुनाफा कमाया। कई रिपोर्टो में कहा गया कि अमरीका ने जितनी रकम इस जंग पर खर्च की उससे कहीं ज्‍यादा रकम उसे जर्मनी, जापान और सऊदी अरब जैसे देशों से मिली थी।

क्लिंटन का दौर

प्रथम खाड़ी युद्ध जीतने के बावजूद जार्ज बुश 1992 में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्‍मीदवार विलियम जेफर्सन (बिल) क्लिंटन से राष्‍ट्रपति-पद का चुनाव हार गए। क्लिंटन ने विदेश-नीति की जगह घरेलू नीति को अपने चुनाव-प्रचार का निशाना बनाया था। बिल क्लिंटन 1996 में दुबारा चुनाव जीते और इस तरह वे आठ सालों तक राष्‍ट्रपति-पद पर रहे। 

क्लिंटप सरकार ने सैन्‍य-शक्ति और सुरक्षा जैसी ‘कठोर राजनीत’ की जगह लोकतंत्र के बढ़ावे, जलवायु-परिवर्तन तथा विश्‍व व्‍यापार जैसे ‘नरम मुद्दों’ पर ध्‍यान केंद्रित किया।

एक बड़ी घटना 1999 में हुई। अपने प्रांत कोसोवो में युगोस्‍लाविया ने अल्‍बानियाई लोगों के आंदोलन को कुचलने के लिए सैन्‍य कार्रवाई की।

इराके जवाब में अमरीकी नेतृत्‍व में नाटो के देशों ने युगोस्‍लावियाई क्षेत्रों पर दो महीने तक बमबारी की। स्‍लोबदान मिलोसेविच की सरकार गिर गयी और कोसोवो पर नाटो की सेना काबिज हो गई। क्लिंटन के दौर में दूसरी बड़ी सैन्‍य कार्रवाई नैरोबी (केन्‍या) और दारे-सलाम (तंजानिया) के अमरीकी दूतावासों पर बमबारी के जवाब में 1998 हुई। अतिवादी इस्‍लामी विचारों से प्रभावित आंतकवादी संगठन ‘अल-कायदा’ को इस बमबारी का जिम्‍मेवार ठहराया गया। इस बमबारी के कुछ दिनों के अंदर राष्‍ट्रपति क्लिंटन ने ‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’ का आदेश दिया।

 अमरीका पर आरोप लगा कि उसने अपने इस अभियान में कुछ नागरिक ठिकानों पर भी निशाना साधा

9/11 और ‘आंतकवाद के विरूद्ध विश्‍वव्‍यापी युद्ध’

11 सितंबर 2001 के दिन विभिन्‍न अरब देशों के 19 अपहरणकर्त्ताओं ने उड़ान भरने के चंद मिनटों बाद चार अमरीकी व्‍यावसायिक विमानों पर कब्‍जा कर लिया। अपहराणकर्ता इन विमानों को अमरीका की महत्‍वपूर्ण इमारतों की सीध में उड़ाकर ले गये। दो विमान न्‍यूयार्क स्थित वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी और दक्षिणी टावर से टकराए। तीसरा विमान वर्जिनिया

के अर्लिंगटन स्थित ‘पेंटागन’ से टकराया। ‘पेंटागन’ में अमरीकी रक्षा-विभाग का मुख्‍यालय है। चौथे विमान को अमरीकी कांग्रेस की मुख्‍य इमारत से टकराना था लेकिन वह पेन्सिलवेनिया के एक खेत में गिर गया। इस हमले को ‘नाइन एलेवन’ कहा जाता है

इस हमले में लगभग तीन हजार व्‍यक्ति मारे गये। उन्‍होंने इस घटना की तुलना 1814 और 1941 की घटनाओं से की 1814 में ब्रिटेन ने वाशिंग्‍टन डीसी में आगजनी की थी और 1941 में जापानियों ने पर्ल पर हमला किया था।

9/11 के जवाब में अमरीका ने फौरन कदम उठाये और भयंकर कार्रवाई की। अब क्लिंटन की जगह रिपब्लिकन पार्टी के जार्ज डब्‍ल्‍यू बुश राष्‍ट्रपति थे। ये पूर्ववर्ती राष्‍ट्रपति एच डब्‍ल्‍यू बुश के पुत्र हैं।

‘आतंकवाद के विरूद्ध विश्‍वव्‍यापी युद्ध’ के अंग के रूप में अमरीका ने ‘ऑपरेशन एन्‍डयूरिंग फ्रीडम’ चलाया। यह अभियान उन सभि के खिलाफ चला जिन पर 9/11 का शक था। इस अभियान में मख्‍य निशान अल-कायदा और अफगानिस्‍तान के तालिबान-शासन को बनाया। गया। तालिबान के शासन के पाँव जल्‍दी ही उखड़ गए लेकिन तालिबान और अल-कायदा के अवशेष अब भी सक्रिय हैं।

अमरीकी सेना ने पूरे विश्‍व में गिरफ्तायाँ कीं। गिरफ्तार लोगों को अलग-अगल देशों में भेजा गया और उन्‍हें खुफिया जेलखानों में बंदी बनाकर रखा गया। क्‍यूबा के निकट अमरीकी नौसेना का एक ठिकाना ग्‍वांतानामो बे में है। कुछ बंदियों को वहाँ रखा गया। इस जगह रखे गए बंदियों को न तो अंतर्राष्‍ट्रीय कानूनों की सुरक्षा प्राप्‍त है और न ही अपने देश या अमरीका के कानूनों की।

इराक आक्रमण

2003 के 19 मार्च को अमरीका ने ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ के कूटनाम से इराक पर सैन्‍य-हमला किया।

संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ ने इराक पर इस हमले की अनुमति नहीं दी थी।

हमले के मकसद इराक के तेल-भंडार पर नियंत्रण और इराक में अमरीका की मनपसंद सरकार कायम करना1

सद्दाम हुसैन की सरकार तो चंद रोज में ही जाती रही, लेकिन इराक को ‘शांत’ कर पाने में अमरीका सफल नहीं हो सका है। इराक में अमरीका के खिलाफ एक पूर्णव्‍यापी विद्रोह भड़क उठा। अमरीका के 3000 सैनिक इस युद्ध में मरे

एक अनुमान के अनुसार अमरीकी हमले के बाद से लगभग 50000 नागरिक मारे गये हैं।

इराक पर अमरीकी हमला सैन्‍य और राजनीतिक धरातल पर असफल सिद्ध हुआ है।

‘वर्चस्‍व’ ‘दादगिरी’

सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया में एकमात्र महाशक्ति अमरीका बचा। जब अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था किसी एक महाशक्ति या कहें कि उद्धत महाशक्ति के दबदबे में हो तो

इसे’ एकध्रु‍वीय’ व्‍यवस्‍था भी कहा जाता है।

अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था में ताकत का एक ही केंद्र हो तो इसे ‘वर्चस्‍व’ (Hegemony) शब्‍द के इस्‍तेमाल से वर्णित करना ज्‍यादा उचित होगा।

वर्चस्‍व – सैन्‍य शक्ति के अर्थ में

‘हेगेमनी’ शब्‍द की जड़ें प्रा‍चीन यूनान में हैं। इस शब्‍द से किसी एक राज्‍य के नेतृत्‍व या प्रभुत्‍व का बोध होता है।

‘हेगेमनी’

अर्थ आज विश्‍व –राजनीतिक में अमरीका की हैसियत को बताने में इस्‍तेमाल होता है। क्‍या आपको आयशा की याद है जिसकी एक ढाँग अमरीकी हमले में जाती रही? यही है वह सैन्‍य वर्चस्‍व जिसने उसकी आत्‍मा को तो नहीं लेकिन उसके शरीर को जरूर पंगु बना दिया।

अमरीका की मौजूदा ताकत की रीढ़ उसकी बढ़ी-चढ़ी सैन्‍य है। आज अमरीका अपनी सैन्‍य क्षमता के बूते पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता है।

अपनी सेना को युद्धभूमि से अधिकतम दूरी पर सुरक्षि‍त रखकर वह अपने दुश्‍मन को उसके घर में ही पंगु बना सकता है।

अमरीका से नीचे के कुल 12 ताकतवर देश एक साथ मिलकर अपनी सैन्‍य क्षामता के लिए जितना खर्च करते हैं उससे कहीं ज्‍यादा अपनी सैन्‍य क्षमता के लिए के अकेले अमरीका करता है।

पेंटागन अपनी बजट का एक ब‍ड़ा हिस्‍सा रक्षा अनुसंधान और विकास के मद में अर्थात् प्रौधोगिकी पर खर्च करता

अमरीका आज सैन्‍य प्रौद्योगिकी के मामले में इतना आगे है कि किसी और देश के लिए इस मामले में उ‍सकी बराबरी कर पाना संभव नहीं है।

इराक पर अमरीकी हमले से अमरीका की कुछ कमजोरियाँ उजागर हुई हैं। अमरीका इराक की जनता को अपने नेतृत्‍व वाली गठबंधन सेना के आगे झुका पाने में सफल नहीं हुआ है।

वर्चस्‍व – ढाचागत ताकत के अर्थ में 

वर्चस्‍व का दूसरा अर्थ पहले अर्थ बहुत अलग है। इसका रिश्‍ता वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था की एक खास समझ से

वर्चस्‍व के इस दूसरे अर्थ को ग्रहण करें तो इसकी झलक हमें विश्‍वव्‍यापी ‘सार्वजनिक वस्‍तुओं’ को मुहैया कराने की अमरीकी भूमिका में मिलती है। ‘सार्वजनिक वस्‍तुओं’ से आशय

ऐसी चीजों से है जिसका उपभोग कोई एक व्‍यक्ति करे तो दूसरे को उपलब्‍ध इसी वस्‍तु की मात्रा में कोई कमी नहीं आए। स्‍वच्‍छ वायु और सड़क सार्वजनिक वस्‍तु के उदाहरण हैं। वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था के संदर्भ में सार्वजनिक वस्‍तु का सबसे बढि़या उदाहरण समुद्री व्‍यापार-मार्ग (सी लेन ऑव कम्‍युनिकेशन्‍स – SLOCs) हैं जिनका इस्‍तेमाल व्‍यापारिक जहाज करते हैं। वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था में मुक्‍त-व्‍यापार समुद्री व्‍यापार-मार्गो के खुलेपन के बिना संभव नहीं। दबदबे वाला देश अपनी नौसेना की ताकत से समुद्री व्‍यापार-मार्गो पर आवाजाही के नियम तय करता है और अंतर्राष्‍ट्रीय समुद्र में अबाध आवाजाही को सुनिश्चित करता है। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ब्रिटिश नौसेना का जोर घट गया। अब यह भूमिका अमरीकी नौसेना निभाती है जिसकी उपस्थिति दुनिया के लगभग सभी महासागरों में है।

वैश्कि सार्वजनिक वस्‍तु का एक और उदाहरण है – इंटरनेट। आज इंटरनेट के जरिए वर्ल्‍ड वाइड वेव (जगत-जोड़ता-जाल) का आभासी संसार साकार हो गया दीखता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंटरनेट अमरीकी सैन्‍य अनुसंधान परियोजना का परिणाम है।

विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था में अमरीका की 21 प्रतिशत की हिस्‍सेदारी है। विश्‍व के कुल व्‍यापार में अमरीका की लगभग 14 प्रतिशत की ‍‍हिस्‍सेदारी है1 विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था का

अमरीका की अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व की सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था है।

एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें कोई अमरीकी कंपनी अग्रणी तीन कंपनियों में से एक नहीं हो। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ब्रेटनवुड प्रणाली कायम हुई थी। अमरीका द्वारा कायम यह प्रणाली आज भी विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था की बुनियादी संरचना का काम कर रही है। इस तरह हम विश्‍व बैंक, अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष और विश्‍व व्‍यापार संगठन को अमरीकी वर्चस्‍व का परिणाम मान सकते हैं।

अमरीका की ढाँचागत ताकत का एक मानक उदाहरण एमबीए (मास्‍टर ऑव बिजनेस एडमिनिस्‍ट्रेशन) की अकादमिक डिग्री है। अमरीकी धारण है कि व्‍यवसाय अपने आप में एक पेशा है जो कौशल पर निर्भर करता है और इस कौशल को विश्‍वविद्यालय में अर्जित किया जा सकता है। यूनिवर्सिटी ऑव पेन्सिलवेनिया में वार्ह्टन स्‍कूल के नाम से विश्‍व का पहला ‘बिजनेस स्‍कूल’ खुला। इसकी स्‍थापना सन् 1881 में हुई। एमबीए के शुरूआती पाठ्यक्रम 1900 से आरंभ हुए। अमरीका से बाहर एमबीए के किसी पाठ्यक्रम की शुरूआत पाठ्क्रम सन् 1950 में ही जाकर हो सकी। आज दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं जिसमें एमबीए को एक प्रतिष्‍ठत अकादमिक डिग्री का दर्जा हासिल न हो। इस बात से हमें अपने दक्षिण अफ्रीकी दोस्‍त जाबू की याद आती है। ढाँचागत

वर्चस्‍व को ध्‍यान में रखें तो यह बात स्‍पष्‍ट हो जाती है कि जाबू के पिता क्‍यों जोर दे रहे थे कि वह पेंटिगं की पढ़ाई छोड़कर एमबीए की डिग्री ले।

वर्चस्‍व – सांस्‍कृतिक अर्थ में

वर्चस्‍व के इस तीसरे अर्थ का रिश्‍ता ‘सहमति गढ़ने’ की ताकत से है। यहाँ वर्चस्‍व का आशय है सामाजिक, राजनीतिक और खासकर विचारधारा के धरातल पर किसी वर्ग की बढ़त या दबदबा।

प्रभुत्‍वशाली देश सिर्फ सैन्‍य शक्ति से काम नहीं लेता: वह अपने प्रतिद्वंद्वी और अपने से कमजोर देशों के व्‍यवहार-बरताव को अपने मनमाफिक बनाने के लिए विचारधारा से जुड़े साधनों का भी इस्‍तेमाल करता है।

प्रभुत्‍शाली देश जोर-जबर्दस्‍ती और रजामंदी दोनों ही तरीकों से काम लेता है।

आज विश्‍व में अमरीका का दबदबा सिर्फ सैन्‍य शक्ति और आर्थिक बढ़त के बूते ही नहीं बल्कि अमरीका की सांस्‍कृतिक मौजूगी भी इसका एक कारण है।

अमरीकी संस्‍कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्‍यादा ताकतवर है। वर्चस्‍व का यह सांस्‍कृति पहलू है जहाँ जोर-जबर्दस्‍ती से नहीं बल्कि रजामंदी से बात मनवायी जाती है।

आपको आन्‍द्रेई और उसकी ‘कुल’ जीन्‍स की याद होगी। आन्‍द्रेई के माता-पिता जब सोवियत संघ में युवा थे तो उनकी पीढ़ी के लिए नीली जीन्‍स ‘आजादी’ का परम प्रतीक हुआ करती थी। युवक-युवती अक्‍सर अपनी साल-साल भर की तनख्‍वाह किसी ‘चोरबाजार’ में विदेशी पर्यटकों से नीली जीन्‍स खरीदने पर खर्च कर देते थे। ऐसा चाहे जैसे भी हुआ हो

लेकिन सोवियत संघ की एक पूरी पीढ़ी के लिए नीली जीन्‍स ‘अच्‍छे जीवन’ की आकांक्षओं का प्रतीक बन गई थी-एक ऐसा’ अच्‍छा जीवन’ जो सोवियत संघ में उपलब्‍ध नहीं था। शीतयुद्ध के दौरान अमरीका को लगा कि सैन्‍य शक्ति के दायरे में सोवियत संघ को मात दे पाना मुश्किल है।

पूरे शीतयुद्ध के दौरान विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था पूँजीवादी  तर्ज पर चली। अमरीका ने सबसे बड़ी जीत सांस्‍कृतिक प्रभुत्‍व के दायरे में हासिल की। सोवियत संघ में नीली जीन्‍स के लिए दीवानगी इस बात को साफ-साफ जाहिर करती है कि अमरीका एक सांस्‍कृतिक उत्‍पाद के दम पर सोवियत संघ में दो पीढि़यों के बीच दूरिँयाँ पैदा करने में कामयाब रहा।

अमरीकी शक्ति के रास्‍ते में अवरोध

अमरीकी शक्ति की राह में तीन अवरोध हैं। 11 सितंबर 2001 की घटना के बाद के सालों में ये व्‍यवधान एक तरह से निष्क्रिय जान पड़ने लगे थे लेकिन धीरे-धीरे फिर प्रकट होने लगे हैं।

पहला व्‍यवधान स्‍वयं अमरीका की संस्‍थागत बुनावट है। यहाँ शासन के तीन अंगों के बीच शक्ति का बँटवारा है और यही बुनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्‍य शक्ति के बेलगाम इस्‍तेमाल पर अंकुश लगाने का काम करती है।

अमरीका की ताकत के आड़े आने वाली दूसरी अड़चन भी अंदरूनी है। इस अड़चन के मूल है अमरीकी समाज जो अपनी प्रकृति में उन्‍मुक्‍त है। अमरीका में जन-संचार के साधन समय—समय पर वहाँ के जनमत को एक खास दिशा में मोड़ने की भले कोशिश करें लेकिन अमरीकी राजनीतिक संस्‍कृति में शासन के उद्देश्‍य और तरीके को लेकर गहरे संदेह का भाव भरा है। अमरीका के

विदेशी सैन्‍य-अभियानों पर अंकुश रखने में यह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है। 

अमरीकी ताकत की राह में मौजूद तीसरा व्‍यवधान सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है। अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था में आज सिर्फ एक संगठन है जो संभवतया अमरीकी ताकत पर लगाम कम सकता है और इस संगठन का नाम है ‘नाटो’ अर्थात् उत्तर अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन। अमरीका का बहुत बड़ा हित लोकतांत्रिक देशों के इस संगठन को कायम रखने से जुड़ा है क्‍योंकि इन देशों में बाजारमूलक अ‍र्थव्‍यवस्‍था चलती है। इसी कारण इस बात की संभावना बनती है कि ‘नाटो’ में शामिल अमरीका के साथी देश उसके वर्चस्‍व पर कुछ अंकुश लगा सकें।

अमरीका से भारत के संबंध

शीतयुद्ध के वर्षो में भारत अमरीकी गुट के विरूद्ध खड़ा था। इन सालों में भारत की करीबी दोस्‍ती सोवियत संघ से थी। सोवियत संघ के बिखरने के बाद भारत ने पाया कि लगातार कटुतापूर्ण होते अंतर्राष्‍ट्रीय माहौल में वह मित्रविहीन हो गया है। इसी अवधि में भारत ने अपनी अर्थव्‍यवस्‍था का उदारीकरण करने तथा उसे वैश्कि अर्थव्‍यवस्‍था से जोड़ने का भी फैसला किया। इस नीति और हाल के सालों में

प्रभावशाली आर्थिक वृद्धि-दर के कारण भारत अब अमरीका समेत कई देशों के लिए आकर्षक आर्थिक सहयोगी बन गया है।

सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत के कुल निर्यात का 65 प्रतिशत अमरीका को जाता है। बोईग के 35 प्रतिशत तकनीकी कर्मचारी भारतीय मूल हैं।

3 लाख भारतीय ‘सिलिकन वैली’ में काम करते हैं।

उच्‍च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की 15 प्रतिशत कंपनियों की शुरूआत अमरीका में बसे भारतीयों ने की है।

यह अमरीका के विश्‍वव्‍यापी वर्चस्‍व का दौर है और बाकी देशों की तरह भारत को भी फैसला करना है कि अमरीका के साथ वह किस तरह के संबंध रखना चाहता है।

भारत में तीन संभावित रणनीतियों पर बहस चल रही है-

भारत के जो विद्धान अंतर्राष्‍ट्रीय राजनीति को सैन्‍य शक्ति क संदर्भ में देखते-समझते हैं, वे भारत और अमरीका की बढ़ती हुई नजदीकी से भयभीत हैं। ऐसे विद्धान यही चाहेंगे कि भारत वाशिंग्‍टन से अपना अलगाव बनाए रखे और अपना ध्‍यान अपनी राष्‍ट्रीय शक्ति को बढ़ाने पर लगाये। कुछ विद्धान मानते हैं कि भारत और अमरीका के हितों में हेलमेल लगातार बढ़ रहा है और यह भारत के लिए ऐतिहासिक अवसर है। ये विद्धान एक ऐसी रणनीति अपनाने की तरफदारी करते हैं जिससे भारत अमरीकी वर्चस्‍व का फायदा उठाए। वे चाहते हैं कि दोनों

के आपसी हितों का मेल हो इन विद्धानों की राय है कि अमरीका के विरोध की रणनीति व्‍यर्थ साबित होगी और आगे चलकर इससे भारत को नुकसान होगा।

कुछ विद्धानों की राय है कि भार‍त अपनी अगुआई में विकासशील देशों का गठबंधन बनाए। कुछ सालों में यह गठबंधन ज्‍यादा ताकतवर हो जाएगा और अमरीकी वर्चस्‍व के प्रतिकार में सक्षम हो जाएगा।

वर्चस्‍व से कैसे निपटें?

कब तक चलेगा अमरीकी वर्चस्‍व? इस वर्चस्‍व से कैसे बचा जा सकता है?

अंतर्राष्‍ट्रीय राजनीति में ऐसी चीजें गिनी-चुनी ही हैं जो किसी देश की सैन्‍यशक्ति पर लगाम कस सकें। हर देश में सरकार होती है लेकिन विश्‍व-सरकारा जैसी कोई चीज नहीं होती।

अंतर्राष्‍ट्रीय राजनीति दरअसल ‘सरकार विहीन राजनीति’ है। कुछ कायदे-कानून जरूर हैं जो युद्ध पर कुछ अंकुश रखते हैं लेकिन ये कायदे-कानून युद्ध को रोक नहीं सकते। शायद ही कोई देश होगा

जो अपनी सुरक्षा को अंतर्राष्‍ट्रीय कानूनों के हवाले कर दे। तो क्‍या इन बातों से यह समझा जाए कि न तो वर्चस्‍व से कोई छुटकारा है और न ही युद्ध से?

भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अमरीकी वर्चस्‍व को चुनौती दे पाने की संभावना है लेकिन इन देशों के बीच आपसी विभेद हैं और इन विभेदों के रहते अमरीका के विरूद्ध इनका कोई गठबंधन नहीं हो सकता।

कुछ लोगों का तर्क है कि वर्चस्‍वजनित अवसरों के लाभ उठाने की रणनीति ज्‍यादा संगत है1

सबसे ताकतवर देश के विरूद्ध जाने के बजाय उसके वर्चस्‍व-तंत्र में रहते हुए अवसरों का फायदा उठाना कहीं उचित रणनीति है। इसे ‘बैंडवैगन’ अथवा ‘जैसी बहे बयार पीठ तैसी कीजै’ की रणनीति कहते हैं।

देशों के सामने एक विकल्‍प यह है कि वे अपने को ‘छुपा’ लें। इसका अर्थ होता है दबदबे वाले देश से यथासंभव दूर-दूर रहना। इस व्‍यवहार के कई उदाहरण हैं। चीन, रूस और यूरोपीय संघ सभी एक न एक तरीके से अपने को अमरीकी निगाह में चढ़ने से बचा  

रहे हैं। इस तरह से अमरीका के किसी बेवजह या बेपनाह क्रोध की चपेट में आने ये देश अपने को बचाते हैं।

कुछ लोग मानते हैं कि अमरीकी वर्चस्‍व का प्रतिकार कोई देश अथवा देशों का समूह नहीं कर पाएगा क्‍योंकि आज सभी देश अमरीकी ताकत के आागे बेबस हैं। ये लोग मानते हैं कि राज्‍येतर संस्‍था

 अमरीकी वर्चस्‍व को आर्थिक और सांस्‍कृति धरातल पर चुनौती मिलेगी। यह चुनौती स्‍वयंसेवी संगठन, सामाजिक आंदोलन और जनमत के आपसी मेल से प्रस्‍तुत होगी: मीडीया का एक तबका, बुद्धिजीवी, कलाकार और लेखक आदि अमरीकी वर्चस्‍व के प्रतिरोध के लिए आगे आएंगे। ये राज्‍येतर संस्‍थाएँ विश्‍वव्‍यापी नेटवर्क बना सकती हैं जिसमें अमरीकी नागरिक भी शामिल होंगे और साथ मिलकर अमरीकी नीतियों की आलोचना तथा प्रतिरोध किया जा सकेगा। प्रतिरोध ही एकमात्र विकल्‍प बचता है।

BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 2 दो ध्रुवीयता का अंत

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्‍याय 2
दो ध्रुवीयता का अंत

परिचय

शीतयुद्ध के सबसे सरगर्म दौर में बर्लिन-दीवार खड़ी की गई थी और यह दीवार शीतयुद्ध का सबसे बड़ा प्रतीक थी। 1989 में पूर्वी जर्मनी की आम जनता ने इस दीवार को गिरा दिया । दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद विभाजित हो चुके जर्मनी का अब एकीकरण हो गया । सोवियत संघ के खेमे में शामिल पूर्वी यूरोप के आठ देशों ने एक-एक करके जनता के प्रदर्शनों को देखकर अपने साम्‍यवादी शासन को बदल डाला । अंत में स्‍वयं सोवियत संघ का विघटन हो गया। इस अध्‍याय में हम दूसरी दुनिया के विघटन के आशय, कारण और परिणामों के बारे में चर्चा करेंगे। बर्लिन की दीवार पूँजीवादी दुनिया और साम्‍यवादी दुनिया के बीच विभाजन का प्रतीक थी। 1961 में बनी यह दीवार पश्चिमी बर्लिन को पूर्वी बर्लिन से अलगाती थी। 150 किलोमीटर से भी ज्‍यादा लंबी यह दीवार 28 वर्षो तक खड़ी रही और आखिरकार जनता ने इसे 9 नवंबर, 1989 को तोड़ दिया। यह दोनों जर्मनी के एकीकरण और साम्‍यवादी खेमे की समाप्ति की शुरूआत थी।

सोवियत संघ के नेता

व्‍लादिमीर लेनिन (1870-1924)

बोल्‍शेविक कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के संस्‍थापक: 1917 की रूसी क्रांति के नायक और क्रांति के बाद के सबसे मुश्किल दौर (1917-1924) में सोवियत समाजवादी गणराज्‍य के संस्‍थापक-अध्‍यक्ष: पूरी दुनिया में साम्‍यवाद के प्रेरणास्‍त्रोत।

सोवियत प्रणाली क्‍या थी?

समाजवादी सोवियत गणराज्‍य (यू.एस.एस.आर.) रूस में हुई 1917 की समाजवादी क्रांति के बाद अस्तित्‍व में आया। यह क्रांति पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के विरोध में हुई थी और समाजवाद के आदर्शो और समतामूलक समाज की जरूरत से प्रेरित थी। यह मानव इतिहास में निजी संपत्ति की संस्‍था को समाप्‍त करने और समाज को समानता के सिद्धांत पर सचेव रूप से रचने की सबसे बड़ी कोशिश थी। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देश सोवियत संघ के अंकुश में आ गये। सोवियत सेना ने इन्‍हें फासीवादी ताकतों के चंगुल से मुक्‍त कराया था। इन सभी देशों की राजनीतिक और सामाजिक व्‍यवस्‍था को सोवियत संघ की समाजवादी प्रणाली की तर्ज पर ढाला गया। इन्‍हें ही समाजवादी खेमे के देश या ‘दूसरी दुनिया’ कहा जाता है। इस खेमे का नेता समाजवादी सोवियत गणराज्‍य था। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद सोवियत संघ महाशक्ति के रूप में उभरा। सोवियत संघ की अर्थव्‍यस्‍था शेष विश्‍व की तुलना में कहीं ज्‍यादा विकसित थी। सोवियत संघ की संचार प्रणाली बहुत उन्‍नत थी। उसके पास विशाल ऊर्जा-संसाधन था जिसमें खनिज-तेल, लोहा और इस्‍पात तथा मशीनरी उत्‍पाद शामिल हैं। सरकार बुनियादी जरूरत की चीजें मसलन स्‍वास्‍थ्‍य-सुविधा, शिक्षा, बच्‍चों की देखभाल तथा लोक-कल्‍याण की अन्‍य चीजें रियायती दर पर मुहैया कराती थी। बेरोजगारी नहीं थी। मिल्कियत का प्रमुख रूप राज्‍य का स्‍वामित्‍व था तथा भूमि और अन्‍य उत्‍पादक संपदाओं पर स्‍वामित्‍व होने के अलावा नियंत्रण भी राज्‍य का ही था। बहरहाल, सोवियत प्रणाली पर नौकरशाही का शिकंजा कसता चला गया। यह प्रणाली सत्तावादी हो‍ती गई और नागरिकों का जीवन कठिन होता चला गया। लोकतंत्र और अभिव्‍यक्ति की आजादी नहीं होने के कारण लोग अपनी असहमति अक्‍सर चुटकुलों और कार्टूनों में व्‍यक्‍त करते थे। सोवियत संघ की अधिकांश संस्‍थाओं में सुधार की जरूरत थी। सोवियत संघ में एक दल यानी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का शासन था और इस दल का सभी संस्‍थाओं पर गहरा अंकुश था। यह दल जनता के प्रति जवाबदेह नहीं था। जनता ने अपनी संस्‍कृति और बाकी मामलों की साज-संभाल अपने आप करने के लिए 15 गणराज्‍यों को आपस में मिलाकर सोवियत संघ बनाया था। लेकिन पार्टी ने जनता की इस इच्‍छा को पहचानने से इंकार कर दिया। सोवियत संघ के नक्‍शे में रूस, संघ के पन्‍द्रह गणराज्‍यों में से एक था लेकिन वास्‍तव में रूस का हर मामले में प्रभुत्‍व था। अन्‍य क्षेत्रों की जनता अक्‍सर उपेक्षित और दमित महसूस करती थी। हथियारों की होड़ में सोवियत संघ ने समय-समय पर अमरीका को बराबर टक्‍कर दी लेकिन उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। सोवियत संघ प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढाँचे (मसलन-परिवहन,ऊर्जा) के मामले में पश्चिमी देशों की तुलना में पीछे रह गया। सोवियत संघ ने 1979 में अफगानिस्‍तान में हस्‍तक्षेप किया। इससे सोवियत संघ की व्‍यवस्‍था और भी कमजोर हुई उत्‍पादकता और प्रौद्योगिकी के मामले में वह पश्चिमके देशों से बहुत पीछे छूट गया। 1970 के दशक के अंतिम वर्षो में यह व्‍यवास्‍था लड़खड़ा रही थी

गोर्बाचेव और सोवियत संघ का विघटन  

मिखाइल गोर्बाचेव ने इस व्‍यवास्‍था को सुधारना चाहा। वे 1980 के दशक के मध्‍य में सोवियत संघ की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के महासचिव बने। पश्चिम के देशों में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति हो रही थी और सोवियत संघ को इसकी बराबरी में लाने के लिए सुधार जरूरी हो गए थे। गोर्बाचेव ने पश्चिम के देशों के साथ संबंधो को सामान्‍य बनाने, सोवियत संघ को लोकतांत्रिक रूप देने और वहाँ सुधार करने फैसला किया। पूर्वी यूरोप के देश सोवियत खेमे के हिस्‍से थे। इन देशों की जनता ने अपनी सरकारों और सोवियत नियंत्रण का विरोध करना शुरू कर दिया। पूर्वी यूरोप की साम्‍यवादी सरकारें एक के बाद एक गिर गई।

सोवियत संघ के बाहर हो रहे इन परिवर्तनों के साथ-साथ अंदर भी संकट गहराता जा रहा था और इससे सोवियत संघ के विघटन की गति और तेज हुई। गोर्बाचेव ने देश के अंदर आर्थिक-राजनीतिक सुधारों और लोकतंत्रीकरण की नीति चलायी। इन सुधार नीतियों का कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के नेताओं द्वारा विरोध किया गया।

1991 में एक तख्‍तापलट भी हुआ। कम्‍युनिस्‍ट पार्टी से जुड़े गरमपंथियों ने इसे बढ़ावा दिया था। तब तक जनता को स्‍वतंत्रता का स्‍वाद मिल चुका था और वे कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के पुरानी रंगत वाले शासन में नहीं जाना चाहते थे। येल्‍तसिन ने इस तख्‍तापलट के विरोध में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई और वे नायक की तरह उभरे। रूसी गणराज्‍य ने, जहाँ बोरिस येल्‍तसिन ने आम चुनाव जीता था, केंद्रीकृत नियंत्रण को मानने से इंकार कर दिया। सत्ता मास्‍को से गणराज्‍यों की तरफ खिसकने लगी।

मध्‍य-एशियाई गणराज्‍यों ने अपने लिए स्‍वतंत्रता की माँग नहीं की। वे ‘सोवियत संघ’ के साथ ही रहना चाहते थे। सन् 1991 के दिसम्‍बर में येल्‍तसिन के नेतृत्‍व में सोवियत संघ के तीन बड़े गणराज्‍य रूस, यूक्रेन और बेलारूस ने सोवियत संघ की समाप्ति की घोषण की। कम्‍युनिस्‍ट पार्टी प्रतिबंधित हो गई।

साम्‍यवादी सोवियत गणराज्‍य के विघटन की घोषण और स्‍वतंत्र राज्‍यों के राष्‍टकुल

सोवियत संघ के नेता

जोजेफ स्‍टालिन (1879-1953) लेनिन के उत्तराधिकारी: सोवियत संघ के मजबूत बनने के दौर में
(1924-1953) नेतृत्‍व किया: औद्योगीकरण को तेजी से बढ़ावा और खेती का बलपूर्वक सामूहिकीकरण: दूसरे विश्‍व युद्ध में जीत का श्रेय: पार्टी के अंदर अपने विरोधयों को कुचलने और तानाशाही रवैये के लिए जिम्‍मेदार ठहराए गए।

साम्‍यवादी सोवियत गणराज्‍य के विघटन की घोषणा और स्‍वतंत्र राज्‍यों के राष्‍ट्रकुल (कॉमनवेल्‍थ ऑव इंडिपेंडेंट स्‍टेट्स) का गठन बाकी गणराज्‍यों, खासकर मध्‍य एशियाई गणराज्‍यों के लिए बहुत आश्‍चर्यचकित करने वाला था। ये गणराज्‍य अभी ‘स्‍वतंत्र राज्‍यों के राष्‍ट्रकुल’ से बाहर थे। इस मुद्दे को तुरंत हल कर लिया गया। इन्‍हें ‘राष्‍ट्रकुल’ का संस्‍थापक सदस्‍य बनाया गया। रूस को सोवियत संघ का उत्तराधिकारी राज्‍य स्‍वीकार किया गया। रूस को सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ की सीट मिली। सोवियत संघ ने जो अंतर्राष्‍ट्रीय करार और संधियाँ की थीं उन  सब को निभाने का जिम्‍मा अब रूस का था। सोवियत संघ के विघटन के बाद के समय में पूर्ववर्ती गणराज्‍यों के बीच एकमात्र परमाणु शक्ति संपन्‍न देश का दर्जा रूस को मिला। सोवियत संघ अब नहीं रहा: वह दफन हो चुका था।

सोवियत संघ का विघटन क्‍यों हुआ?

विश्‍व की दुसरी सबसे बड़ी महाशक्ति अचानक कैसे बिखर गई? सोवियत संघ की राजनीतिक-आर्थिक संस्‍थाएँ अंदरूनी कमजोर के कारण लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकीं। य‍ही सोवियत संघ के पतन का कारण रहा। कई सालों तक अर्थव्‍यवस्‍था गतिरूद्ध रही।

यह व्‍यवस्‍था इतनी कमजोर कैसे हुई और अर्थव्‍यवस्‍था में गतिरोध क्‍यों आया? इसका उत्तर काफी हद तक साफ है। कि सोवियत संघ ने अपने संसाधनों का अधिकांश परमाणु हथियार और सैन्‍य साजो-सामान पर लगाया। उसने अपने संसाधन पूर्वी यूरोप के अपने पिछलग्‍गू देशों के विकास पर भी खर्च किए ताकि वे सोवियत नियंत्रण में बने रहें। इससे सोवियत संघ पर गहरा आर्थिक दबाब बना और सोवियत व्‍यवस्‍था इसका सामना नहीं कर सकी।

सोवियत संघ पर कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने 70 सालों तक शासन किया और यह पार्टी अब जनता के प्रति जवाबदेह नहीं रह गई थी।

भारी भ्रष्‍टाचार और अपनी गलतियों को सुधारने में व्‍यवस्‍था की अक्षमता, शासन में ज्‍यादा खुलापन लाने के प्रति अनिच्‍छा और देश की विशालता के बावजूद सत्ता का केंद्रीयकृत होना-इस सारी बातों के कारण आम जनता अलग-थलग पड़ गई। ‘पार्टी’ के अधिकारियों को आम नागरिक से ज्‍यादा विशेषाधिकार मिले हुए थे।

मिखाइल गोर्बाचेव के सुधारों में इन दोनों समस्‍याओं के समाधान का वायदा था। गोर्बाचेव ने अर्थव्‍यवस्‍था को सुधारने, पश्चिम की बराबरी पर लाने और प्रशासनिक ढाँचे में ढील देने का वायदा किया।

फिर सोवियत संघ टूटा क्‍यों? जब गोर्बाचेव ने सुधारों को लागू किया और व्‍यवस्‍था में ढील दी तो लोगों की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं का ऐसा ज्‍वार उमड़ा जिसका अनुमान शायद ही कोई लगा सकता था। इस पर काबू  पाना एक अर्थ में असंभव हो गया। सोवियत संघ में जनता के एक तबके की सोच यह थी कि गोर्बाचेव को ज्‍यादा तेज गति से कदम उठाने चाहिए। ये लोग उनकी कार्यपद्धति से धीरज खो बैठे और निराश हो गए। इन लोगों ने जैसा सोचा था वैसा फायदा उन्‍हें नहीं हुआ या संभव है उन्‍हें बहुत धीमी गति से फायदा हो रहा हो। जनता के एक हिस्‍से खासकर, कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सदस्‍य और वे लोग जो सोवियत व्‍यवस्‍था से फायदे में थे, के विचार ठीक इसके विपरीत थे। इनका कहना था कि हमारी सत्ता और विशेषाधिकार अब कम हो रहे हैं और गोर्बाचेव बहुत जल्‍दबाजी दिखा रहे हैं। इस खींचतान में गोर्बाचेव का समर्थन हर तरफ से जाता रहा और जनमत आपस में बँट गया। जो लोग उनके साथ थे उनका भी मोहभंग हुआ। ऐसे लोगों ने सोचा कि गोर्बाचेव खुद अपनी ही नीतियों का ठीक तरह से बचाव नहीं कर रहे हैं।

राष्‍ट्रीयता और संप्रभुता के भावों का उभार सोवियत संघ के विघटन का अंतिम और सर्वाधिक तात्‍कालिक कारण सिद्ध हुआ। राष्‍ट्रीयता की भावना और तड़प सोवियत संघ के समूचे इतिहास में कहीं-न-कहीं जारी थी और चाहे सुधार होते या न होते, सोवियत संघ में अंदरूनी संघर्ष होना ही था।

कुछ अन्‍य लोग सोचते हैं कि गोर्बाचेव के सुधारों ने राष्‍ट्रवादियों के असंतोष को इस सीमा तक भड़काया कि उस पर शासकों का नियंत्रण नहीं रहा।

सोवियत संघ के प्रति राष्‍ट्रवादी असंतोष यूरोपीय और अपेक्षाकृत समृद्ध गणराज्‍यों- रूस, उक्रेन, जार्जिया और बाल्टिक क्षेत्र में सबसे प्रबल नजर आया।

सोवियत संघ के नेता

निकिता ख्रुश्‍चेव

(1894-1971)

सोवियत संघ के राष्‍ट्रपति (1953-1964):

स्‍टालिन की नेतृत्‍व-शैली के आलोचक: 1956 में कुछ सुधार लागू किए: पश्चिम के साथ ‘शांतिपूर्ण सहअ‍स्तित्‍व’ का सुझाव रखा: हंगरी के जन-विद्रोह के दमन और क्‍यूबा के मिसाइल संकट में शामिल।

विघटन की परिणतियाँ

अव्‍वल तो ‘दूसरी दुनिया’ के पतन का एक परिणाम शीतयुद्ध के दौर के संघर्ष की समाप्ति में हुआ। शीतयुद्ध के इस विवाद ने दोनों गुटों की सेनाओं को उलझाया था, हथियारों की तेज होड़ शुरू की थी, परमाणु हथियारों के संचय को बढ़ावा दिया था तथा विश्‍व को सैन्‍य गुटों में बाँटा था। शीतयुद्ध के समाप्‍त होने से हथियारों कीहोड़ भी समाप्‍त हो गई और एक नई शांति की संभावना का जन्‍म हुआ। दूसरा यह कि विश्‍व राजनीति में शक्ति-संबंध बदल गए।

शीतयुद्ध के अंत के समय केवल दो संभावनाएँ थीं- या तो बची हुई महाशक्ति का दबदबा रहेगा और एक ध्रुवीय  विश्‍व बनेगा या फिर कई देश अथवा देशों के अलग-अलग समूह अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था में महत्‍वपूर्ण मोहरे बनकर उभरेंगे और इस तरह बहुध्रुवीय विश्‍व बनेगा जहाँ किसी एक देश का बोलबाला नहीं होगा। हुआ यह कि अमरीका अकेली महाशक्ति बन बैठा। अमरीका की ताकत और प्रतिष्‍ठा की शह पाने से अब पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था है। विश्‍व बैंक और अंतर्राष्‍ट्री मुद्रा कोष जैसी संस्‍थाएँ विभिन्‍न देशों की ताकतवर सलाहकार बन गई कयोंकि इन देशों को पूँजीवाद की ओर कदम बढ़ाने के लिए इन संस्‍थाओं ने कर्ज दिया है।

तीसरी बात यह कि सोवियत खेमे के अंत का एक अर्थ नए देशों का उदय।

साम्‍यवादी शासन के बाद ‘शॉक थेरेपी’

रूस, मध्‍य एशिया के गणराज्‍य और पूर्वी यूरोप के देशों में पूँजीवाद की ओर संक्रमण का एक खास मॉडल अपनाया गया। विश्‍व बैंक और अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित इस मॉडल को ‘शॉक थेरेपी’ (आघात पहुँचाकर उपचार करना) कहा गया।

हर देश को पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था की ओर पूरी तरह मुड़ना था। इसका मतलब था सोवियत संघ के दौर की हर संरचना से पूरी तरह निजात पाना। ‘शॉक थेरेपी’ की सर्वोपरि मान्‍यता था कि मिल्कियत का सबसे प्रभावी रूप निजी स्‍वामित्‍व होगा। इसके अंतर्गत राज्‍य की संपदा के निजीकरण और व्‍यावसायिक स्‍वामित्‍व के ढ़ाँचे को तुरंत अपनाने की बात शामिल थी। सामूहिक ‘फार्म’ को निजी ‘फार्म’ में बदल गया और पूँजीवादी पद्धति से खेती शुरू हुई।

‘शॉक थेरेपी’ से इन अर्थव्‍यवस्‍थाओं के बाहरी व्‍यवस्‍थाओं के प्रति रूझान बुनियादी तौर पर बदल गए। अब माना जाने लगा कि ज्‍यादा से ज्‍यादा व्‍यापार करके ही विकास किया जा सकता है।

पूँजीवादी व्‍यवस्‍था को अपनाने के लिए वित्तीय खुलापन, मुद्राओं की आपसी परिवर्तनीयता और मुक्‍त व्‍यापार की नीति महत्‍वपूर्ण मानी गई। अंतत: इस संक्रमण में सोवियत खेमे के देशों के बीच मौजूद व्‍यापारिक गठबंधनों को समाप्‍त कर दिया गया। खेमे के प्रत्‍येक देश को एक-दूसरे से जोड़ने की जगह सीधे पश्चिमी मुल्‍कों से जोड़ा गया। पश्चिमी दुनिया के पूँजीवादी देश अब नेता की भूमिका निभाते हुए अपनी विभिन्‍न एजेंसियों और संगठनों के सहारे इस खेमे के देशों के विकास का मार्गदर्शन और नियंत्रण करेंगें।

‘शॉक थेरेपी‘ का परिणाम

1990 के अपनायी गई ‘शॉक थेरेपी‘ जनता का उपभोग के उस ‘आनंदलोक‘ तक नहीं ले गई जिसका उसने वादा किया था। अमूमन ‘शॉक थेरेपी‘ से पूरे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई और इस क्षेत्र की जनता को बर्बादी की मार झेलनी पड़ी। रूस में, पूरा का पूरा राज्य-नियंत्रित औद्योगिक ढाँचा चरमरा उठा। लगभग 90 प्रतिशत उद्योगों को निजी हाथों या कंपनीयों को बेचा गया। आर्थिक ढाँचे का यह पुनर्निमाण चूँकि सरकार द्वारा निर्देशित औद्योगिक नीति के बजाय बाजार की ताकतें कर रहीं थीं, इसलिए यह कदम सभी उद्योगों को मटियामेट करने वाला साबित हुआ। इसे ‘इतिहास की सबसे बड़ी गराज-सेल‘ के नाम से जाना जाता है क्योंकि महŸवपूर्ण उद्योगों की कीमत कम से कम करके आंकी गई और उन्हें औने-पौने दामों में बेच दिया गया।

रूसी मुद्रा रूबल के मूल्य में नाटकीय ढंग से गिरावट आई। मुद्रास्फीति इतनी ज्यादा बढ़ी कि लोगों की जमापूँजी जाती रही।

सामूहिक खेती की प्रणाली समाप्त हो चुकी थी और लोगों को अब खाद्यान्न की सुरक्षा मौजूद नहीं रही। रूस ने खाद्यान्न का आयात करना शुरू किया।

समाज कल्याण की पुरानी व्यवस्था को क्रम से नष्ट किया गया। सरकारी रियायतों के खात्मे के कारण ज्यादातर लोग गरीबी में पड़ गए। निजीकरण ने नई विषमताओं को जन्म दिया। रूस में अमीर और गरीब लोगों के बीच तीखा विभाजन हो गया। धनी और निर्धन लोगों के बीच बहुत गहरी आर्थिक असमानता थी।

लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्माण का कार्य ऐसी प्राथमिकता के साथ नहीं हो सका। इन सभी देशों के संविधान हड़बड़ी में तैयार किए गए। रूस सहित अधिकांश देशों में राष्ट्रपति को कार्यपालिका प्रमुख बनाया गया और उसके हाथ में लगभग हरसंभव शक्ति थमा दी गई। फलस्वरूप संसद अपेक्षाकृत कमजोर संस्था रह गई।

राष्ट्रपतियों ने अपने फैसलों से असहमति या विरोध की अनुमति नहीं दी। अधिकतर देशों में न्यायिक संस्कृति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को स्थापित करने का काम करना अभी बाकि है।

रूस सहित अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था ने सन् 2000 में यानी अपने आजादी के 10 साल बाद खड़ा होना शुरू किया। इन अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन का कारण था खनिज-तेज, प्राकृतिक गैस और धातु जैसे प्राकृतिक संसाधनों का निर्यात। रूस, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और अजरबैजान तेल और गैस के बड़े उत्पादक देश हैं। बाकि देशों को अपने क्षेत्र से तेल की पाईप-लानन गुजरने के कारण फायदा हुआ। इसके बदले उन्हें किराया मिलता है। जिससे उन्हें लाभ होता है।

संघर्ष और तनाव

पूर्व सोवियत संघ के अधिकांश गणराज्‍य संघर्ष की आंशका वाले क्षेत्र हैं। अनेक गणराज्‍यों ने गृहयुद्ध और बगावत को झेला है।

रूस के दो गणराज्‍यों चेचन्‍या और दागिस्‍तान में हिंसक अलगाववादी आंदोलन चले। मास्‍को ने चेचन विद्रोहियों से निपटने के जो तरीके अपनाये और गैर-जिम्‍मेदार तरीके से सैन्‍य बमबारी की उसमें मानवाधिकार का व्‍यापक उल्‍लंघन हुआ लेकिन इससे आजादी की आवाज दबायी नहीं जा सकी।

मध्‍य एशिया में, तजिकिस्‍तान दस वर्षो यानी 2001 तक गृहयुद्ध की चपेट में रहा। अजरबैजान का एक प्रांत नगरनों कराबाख है। यहाँ के कुछ स्‍थानीय अर्मेनियाई अलग होकर अर्मेनिया से मिलना चाहते हैं। जार्जिया में दो प्रांत स्‍वतंत्रता चाहते हैं और गृहयुद्ध लड़ रहे हैं। यूक्रेन, किरगिझस्‍तान तथा जार्जिया में मौजूदा शासन को उखाड़ फेकने के लिए आंदोलन चल रहे

मध्‍य एशियाई गणराज्‍यों में हाइड्रोकार्बनिक (पेट्रोलियम) संसाधनों का विशाल भंडार है।

11 सितंबर 2001 की घटना के बाद अमरीका इस क्षेत्र में सैनिक ठिकाना बनाना चाहता था। उसने किराए पर ठिकाने हासिल करने के लिए मध्‍य एशिया के सभी राज्‍यों को भुगतान किया और अफगानिस्‍तान तथा इराक में युद्ध के दौरान इन क्षेत्रों से अपने विमानों को उड़ाने की अनुमति ली।

पूर्वी यूरोप में चेकोस्‍लोवाकिया शां‍तिपूर्वक दो भागों में बँट गया। चेक तथा स्‍लोवाकिया नाम के दो देश बने। लेकिन सबसे गहन संघर्ष बाल्‍कन क्षेत्र के गणराज्‍य युगोस्‍लाविया में हुआ। सन् 1991 में बाद युगोस्‍लाविया कई प्रांतों में टूट गया और इसमें शामिल बोस्निया-हर्जेगोविना, स्‍लो‍वेनिया तथा क्रोएशिया ने अपने को स्‍वतंत्र घोषित कर दिया।

भारत और सोवियत संघ  

शीतयुद्ध के दौरान भारत और सोवियत संघ के संबंध बहुत गहरे थे।                                                               

आर्थिक – सोवियत संघ ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की ऐसे वक्‍त में मदद की जब ऐसी मदद पाना मुश्किल था। सोवियत संघ ने भिलाई, बोकारो और विशाखापट्टनम के इस्‍पात कारखानों तथा भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्‍स जैसे मशीनरी संयंत्रो के लिए आर्थिक और तकनीकी सहायता दी। भारत में जब विदेशी मुद्रा की कमी थी तब सोवियत संघ ने रूपये को माध्‍यम बनाकर भारत के साथ व्‍यापार किया।

राजनीतिक – सोवियत संघ ने कश्‍मीर मामले पर संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ में भारत के रूख को समर्थन दिया।              सन् 1971 में पाकिस्‍तान से युद्ध के दौरान मदद की। भारत ने भी सोवियत संघ की विदेश नीति का अप्रत्‍यक्ष, लेकिन महत्‍वपूर्ण तरीके से समर्थन किया।

सैन्‍य – भारत को सोवियत संघ ने ऐसे वक्‍त में सैनिक साजो-सामान दिए जब शायद ही कोई अन्‍य देश अपनी सैन्‍य टेक्‍नालॉजी भारत को देने के लिए तैयार था।

संस्‍कृति – हिंदी फिल्‍म और भारतीय संस्‍कृति सोवियत संघ में लोकप्रिय थे। बड़ी संख्‍या में भारतीय संघ में लोकप्रिय थे। बड़ी संख्‍या में भारतीय लेखक और कलाकारों ने सोवियत संघ की यात्रा की।

पूर्व-सामयावादी देश और भारत

भारत ने साम्‍यवादी रह चुके सभी देशों के साथ अच्‍छे संबंध कायम किए हैं लेकिन भारत के संबंध रूस के साथ सबसे ज्‍यादा गहरे

भारतीय हिन्‍दी फिल्‍मों के नायकों में राजकपूर से लेकर अमिताभ बच्‍चन तक रूस और पूर्व सोवियत संघ के बाकी गणराज्‍यों में घर-घर जाने जाते हैं।

भारत को रूस के साथ अपने संबधों के कारण कश्‍मीर, ऊर्जा-आपूर्ति, अंतर्राष्‍ट्रीय आंतकवाद से संबंधित सूचनाओं के आदान-प्रदान, पश्चिम एशिया में पहुँच बनाने तथा चीन के

साथ अपने संबंधों में संतुलन लाने जैसे मसलों में फायदे हुए हैं। रूस को इस संबंध से सबसे बड़ा फायदा यह है कि भारत रूस के लिए हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा खरीददार देश है। भारतीय सेना को अधिकांश सैनिक साजो-सामान रूस से प्राप्‍त होते हैं। चूँकि भारत तेल के आयातक देशों में से एक है इसलिए भी भारत रूस के लिए महत्‍वपूर्ण है। उसने तेल के संकट की घड़ी में हमेशा भारत की मदद की है।

BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्‍याय 1
शीतयुद्ध का दौर
परिचय 

इस अध्‍याय से यह साफ होगा कि किस तरह दो महाशक्तियों संयुक्‍त राज्‍य अमरीका और सोवियत संघ का वर्चस्‍व शीतयुद्ध के केंन्‍द्र में था। इस अध्‍याय में गुटनिरपेक्ष आंदोलन पर इस दृष्टि से विचार किया गया है कि किस तरह इसने दोनों राष्‍ट्रों के दबदबे को चुनौती दी। गुटनिरपेक्ष देशों द्वारा ‘नई अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक व्‍यवस्‍था’ स्‍थापित करने के प्रयास की चर्चा इस अध्‍याय में यह बताते हुए की गई है कि किस तरह इन देशों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अपने आर्थिक विकास और राजनितिक स्‍वतंत्रता का साधन बनाया ।

क्‍यूबा का मिसाइल संकट

सोवियत संघ के नेता नीकिता ख्रुश्‍चेव ने क्‍यूबा को रूस के ‘सैनिक अड्डे’ के रूप में बदलने का फैसला किया। 1962 में ख्रुश्‍चेव ने क्‍यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात कर दीं। इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमरीका न‍जदीकी निशाने की सीमा में आ गया। हथियारों की इस तैनाती के बाद सोवियत संघ पहले की तुलना में अब अमरीका के मुख्‍य भू-भाग के लगभग दोगुने ठिकानों या शहरों पर हमला बोल सकता था। अमरीकी राष्‍ट्रपति जॉन एफ कैनेडी और उनके सलाहकार ऐसा कुछ भी करने से हिचकिचा रहे थे जिससे दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध शुरू हो जाए । लेकिन वे इस बात को लेकर दृढ़ थे कि ख्रुश्‍चेव क्‍यूबा से मिसाइलों और परमाणु हथियारों को हटा लें। कैनेडी ने आदेश दिया कि अमरीकी जंगी बेड़ों को आगे करके क्‍यूबा की तरफ जाने वाले सोवियत जहाजों को रोका जाए । इस तरह अमरीका सोवियत संघ को मामले के प्रति अपनी गंभीरता की चेतावनी देना चाहता था । ऐसी स्थिति में यह लगा कि युद्ध होकर रहेगा । इसी को’ क्‍यूबा मिसाइल संकट’ के रूप में जाना गया । यह टकराव कोई आम युद्ध नहीं होता । अंतत: दोनों पक्षों ने युद्ध टालने का फैसला किया और दुनिया ने चैन की साँस ली । ‘क्‍यूबा मिसाइल संकट’ शीतयुद्ध का चरम बिंदु था । शीतयुद्ध सिर्फ जोर-आजमाइश, सैनिक गठबंधन अथवा शक्ति-संतुलन का मामला भर नहीं था बल्कि इसके साथ-साथ विचारधारा के स्‍तर पर भी एक वास्‍तविक संघर्ष जारी था । विचारधारा की लड़ाई इस बात को लेकर थी कि पूरे विश्‍व में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन को सूत्रबद्ध करने का सबसे बेहतर सिद्धांत कौन-सा है। पश्चिमी गठबंधन का अगुवा अमरीका था और यह गुट उदारवादी लोकतंत्र तथा पूँजीवाद का समर्थक था। पूर्वी गठबंधन का अगुवा सोवियत संघ था और इस गुट की प्रतिबद्धता समाजवाद तथा साम्‍यवाद के लिए  थी। आप इन

शीतयुद्ध क्‍या है?    

 अमरीका और सोवियत संघ विश्‍व की सबसे बड़ी शक्ति थे । इनके पास इतनी क्षमता थी कि विश्‍व की किसी भी घटना को प्रभावित कर सकें। अमरीका और सोवियत संघ का महाशक्ति बनने की होड़ में एक-दुसरे के मुकाबले खड़ा होना शीतयुद्ध का कारण बना। 

दो-ध्रुवीय विश्‍व का आरंभ

दुनिया दो गुटों के बीच बहुत स्‍पष्‍ट रूप से बँट गई थी। ऐसे में किसी मुल्‍क के लिए एक रास्‍ता यह था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए किसी एक महाशक्ति के साथ जुड़ा रहे और दुसरी महाशक्ति तथा उसके गुट के देशों के प्रभाव से बच सके। महाशक्तियों के नेतृत्‍व में गठबंधन की व्‍यवस्‍था से पूरी दुनिया के दो खेमों में बंट जाने का खतरा पैदा हो गया । यह विभाजन सबसे पहले यूरोप में हुआ । पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देशों ने अमरीका का पक्ष लिया जबकि पूर्वी यूरोप सोवियत खेमे में शामिल हो गया इसीलिए ये खेमे पश्चिमी और पूर्वी गठबंधन भी कहलाते हैं। पश्चिमी गठबंधन ने स्‍वयं को एक संगठन का रूप दिया। अप्रैल 1949 में उत्तर अटलांटिका संधि संगठन (नाटो) की स्‍थापना हुई जिसमें 12 देश शामिल थे । इस संगठन ने घोषणा की कि उत्तरी अमरीका अथवा यूरोप के इन देशों में से किसी एक पर भी हमला होता है तो उसे ‘संगठन’ में शामिल सभी देश अपने ऊपर हमला मानेंगे । ‘नाटो’ में शामिल हर देश एक-दुसरे की मदद करेगा । इसी प्रकार के पूर्वी गठबंधन को ‘वारसा संधि’ के नाम से जाना जाता है। इसकी अगुआई सोवियत संघ ने की । इसकी स्‍थापना सन् 1955 में हुई थी और इसका मुख्‍य काम था ‘नाटो’ में शामिल देशों का यूरोप में मुकाबला करना । शीतयुद्ध के कारण विश्‍व के सामने दो गुटों के बीच बँट जाने का खतरा पैदा हो गया था । साम्‍यवादी चीन की 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध में सोवियत संघ से अनबन हो गई । सन् 1969 में इन दोनों के बीच एक भू-भाग पर आधिपत्‍य को लेकर छोटा-सा युद्ध भी हुआ । इस दौर की एक महत्‍वपूर्ण घटना ‘गुटनिरपेक्ष आंदोलन’ का विकास है। इस आंदोलन ने नव-स्‍वतंत्र राष्‍ट्रों को दो-ध्रुवीय विश्‍व की गुटबाजी से अलग रहने का मौका दिया ।

शीतयुद्ध के दायरे

शीतयुद्ध के दौरान खूनी लड़ाइयाँ भी हुई, लेकिन यहाँ ध्‍यान देने की बात यह भी है कि इन संकटों और लड़ाइयों की परिणति तीसरे विश्‍वयुद्ध के रूप में नहीं हुई। शीतयुद्ध के दायरों की बात करते हैं तो हमारा आशय ऐसे क्षेत्रों से होता है जहाँ विरोधी खेमों में बँटे देशों के बीच संकट के अवसर आये, युद्ध हुए या इनके होने की संभावना बनी, लेकिन बातें एक हद से ज्‍यादा नहीं ब‍ढ़ी। कोरिया, वियतनाम और अफगानिस्‍तान जैसे कुछ क्षेत्रों में व्‍यापक जनहानि हुई, लेकिन विश्‍व परमाणु युद्ध से बचा रहा और वैमनस्‍य विश्‍वव्‍यापी नहीं हो पाया। शीतयुद्ध के संघर्षो और कुछ गहन संकटों को टालने में दोनों गुटों से बाहर के देशों ने कारगर भूमिका निभायी। गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका को नहीं भुलाया जा सकता। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रमुख नेताओं में एक जवाहरलाल नेहरू थे। नेहरू ने उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के बीच मध्‍यस्‍थता में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। कांगो संकट में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के महासचिव ने प्रमुख मध्‍यस्‍थ की भूमिका निभाई।

महाशक्तियों ने समझ लिया था कि युद्ध को हर हालत में टालना जरूरी है। इसी समझ के कारण दोनों महाशक्तियों ने संयम बरता और अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों में जिम्‍मेवारी भरा बरताव किया।

हालाँकि शीतयुद्ध के दौरान दोनों ही गठबंधनों के बीच प्रतिद्वंदिता समाप्‍त नहीं हुई थी। इसी कारण ए‍क-दूसरे के प्रति शंका की हालत में दोनों गुटों ने भरपूर हथियार जमा किए और लगातार युद्ध के लिए तैयारी करते रहे। हथियारों के बड़े जखीरे को युद्ध से बचे रहने के लिए जरूरी माना गया।

दोनों देश लगातार इस बात को समझ रहे थे कि संयम के बावजूद युद्ध हो सकता है।

इसके अतिरिक्‍त सवाल यह भी था कि कोई परमाणु दुर्घटना हो गई तो क्‍या होगा? अगर परमाणु हथियार चला दे तो कया होगा? अगर गलती से कोई परमाणु हथियार चल जाए या कोई सैनिक शरारतन युद्ध शुरू करने के इरादे से कोई हथियार चला दे तो क्‍या होगा? अगर परमाणु हथियार के कारण कोई दुर्घटना हो जाए तो क्‍या होगा?

इस कारण, समय रहते अमरीका और सोवियत संघ ने कुछेक परमाण्विक और अन्‍य हथियारों को सीमित या समाप्‍त करने के लिए आपस में सहयोग करने का फैसला किया। दोनों महाशक्तियों ने फैसला किया कि ‘अस्‍त्र-नियंत्रण’ द्वारा हथियारों की होड़ पर लगाम कसी जा सकती है और उसमें स्‍थायी संतुलन लाया जा सकता है। ऐसे प्रयास की शुरूआत सन् 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में हुई और एक दशक के भीतर दोनों पक्षों ने तीन अहम समझौतों पर दस्‍तखत किए। ये संधियाँ थीं परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि, परमाणु अप्रसार संधि (एंटी बैलेस्टिक मिसाइल ट्रीटी)। इसके बाद हथियारों पर अंकुश रखने के लिए अनेक संधियाँ कीं।

1954 वियतनामियों के हाथों दायन बीयन फू में फ्रांस की हार: जेनेवा समझौते पर हस्‍ताक्षर: 17वीं समानांतर रेखा द्वारा वियतनाम का विभाजन: सिएटो(SEATO) का गठन।

1955 बगदाद समझौते पर हस्‍ताक्षर: बाद में इसे सेन्‍टो (CENTO) के नाम से जाना गया।

1961 बर्लिन-दीवार खड़ी की गई

1962 क्‍यूबा का मिसाइल संकट।

1985 गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्‍ट्रपति बने: सुधार की प्रक्रिया आरंभ की।

1989 बर्लिन-दीवार गिरी: पूर्वी यूरोप की सरकारों के विरूद्ध लोगों का प्रदर्शन।

1990 जर्मनी का एकीकरण।

1991 सोवियत संघ का विघटन: शीतयुद्ध की समाप्ति। 

दो-ध्रुवीयता को चुनौती –गुटनिरपेक्षता

गुटनिरपेक्षता ने एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरी‍का के नव-स्‍वतंत्र देशों को एक तीसरा विकल्‍प दिया। यह विकल्‍प था दोनों महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने का।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन की जड़ में युगोस्‍लाविया के जोसेफ ब्रॉज टीटो, भारत के जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के गमाल अब्‍दुल नासिर की दोस्‍ती थी। इन तीनों ने सन् 1956 में एक सफल बैठक की। इंडोनेशिया के सुकर्णो और घाना के वामे एनक्रूमा ने इनका जोरदार समर्थन किया। ये पाँच नेता गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्‍थापक कहलाए। पहला गुटनिरपेक्ष सम्‍मेलन सन् 1961 में बेलग्रेड में हुआ। यह सम्‍मेलन कम से कम तीन बातों की परिणति था-

(क) इन पाँच देशों के बीच सहयोग,

(ख)  शीतयुद्ध का प्रसार और इसके बढ़ते हुए दायरे, और

(ग) अंतर्राष्‍ट्रीय फलक पर बहुत से नव-स्‍वतंत्र अफ्रीकी देशों का नाटकीय उदय। 1960 तक संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ में 16 नये अफ्रीकी देश बतौर सदस्‍य शामिल हो चुके थे।

जैसे-जैसे गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक लोकप्रिय अंतर्राष्‍ट्रीय आंदोलन के रूप में बढ़ता गया वैसे-वैसे इसमें विभिन्‍न राजनितिक प्रणाली और अगल-अलग हितों के देश शामिल होते गए। इसी कारण गुटनिरपेक्ष आंदोलन की सटीक परिेभाषा कर पाना कुछ मुश्किल है। वास्‍तव में यह आंदोलन है क्‍या? दरअसल यह आंदोलन क्‍या नहीं है-यह बताकर इसकी परिभाषा करना ज्‍यादा सरल है। यह महाशक्तियों के गुटों में शामिल न होने का आंदोलन है।

गुटनिरपेक्षता का मतलब पृथकतावाद नहीं। पृथकतावाद का अर्थ होता है अपने को अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों से काटकर रखना। 1787 में अमरीका में स्‍वतंत्रता की लड़ाई हुई थी। इसके बाद से पहले विश्‍वयुद्ध की शुरूआत तक अमरीका ने अपने को अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों से अलग रखा। उसने पृथकतावाद की विदेश-नीति अपनाई थी। इसके विपरीत गुटनिरपेक्ष देशों ने, जिसमें भारत भी शामिल है, शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए प्रतिद्वंद्वी गुटों के बीच मध्‍यस्‍थता में सक्रिय भूमिका निभाई।

गुटनिरपेक्ष का अर्थ तटस्‍थता का धर्म निभाना भी नहीं है। तटस्‍थता का अर्थ होता है मुख्‍यत: युद्ध में शामिल न होने की नीति का पालन करना। तटस्‍थता की नीति का पालन करने वाले देश के लिए यह जरूरी नहीं कि वह युद्ध को समाप्‍त करने में मदद करे। ऐसे देश युद्ध में संलग्‍न नहीं होते और न ही युद्ध के सही-गलत होने के बारे में उनका कोई पक्ष होता है। दरअसल कई कारणों से गुटनिरपेक्ष देश, जिसमें भारत भी शामिल है, युद्ध में शामिल हुए हैं। इन देशों ने दूसरे देशों के बीच युद्ध को होने से टालने के लिए काम किया है और हो रहे युद्ध के अंत के लिए प्रयास किए हैं।

नव अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक व्‍यवस्‍था

गुटनिरपेक्ष देश शीतयुद्ध के दौरान महज मध्‍यस्‍थता करने वाले देश भर नहीं थे।  गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल अधिकांश

देशों को ‘अल्‍प विकसित देश’ का दर्जा मिला था। इन देशों के सामने मुख्‍य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्‍यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी।

इसी समझ से नव अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक व्‍यवस्‍था की धारणा का जन्‍म हुआ। 1972 में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के व्‍यापार और विकास से संबंधित सम्‍मेलन (यूनाइट‍ेड नेशंस कॉनफ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमंट-अंकटाड) में ‘टुवार्ड्स अ न्‍यू ट्रेड पॉलिसी फॉर डेवलपमेंट शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रस्‍तुत की गई। इस रिपोर्ट में वैश्विक व्‍यापार-प्रणाली में सुधार का प्रस्‍ताव किया गया था। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि सुधारों से-

(क) अल्‍प विकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्‍त होगा जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं:

(ख) अल्‍प विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजार तक होगी: वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस तरह गरीब देशों के लिए यह व्‍यापार फायदेमंद होगा:

(ग) पश्चिमी देशों से मंगायी जा रही  प्रौद्योगिकी की लागत कम होगी और

(घ) अल्‍प विकसित देशों की अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक संस्‍थानों में भूमिक बढ़ेगी।  

गुटनिरपेक्षता की प्रकृति धीरे-धीरे बदली और इसमें आर्थिक मुद्दों को अधिक महत्‍व दिया जाने

परिणामस्‍वरूप गुटनिरपेक्ष आंदोलन आर्थिक दबाव-समूह बन गया।

भारत और शीतयुद्ध

गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में शीतयुद्ध के दौर में भारत ने दो स्‍तरों पर अपनी भूमिका निभाई। एक स्‍तर पर भारत ने सजग और सचेत रूप से अपने को दोनों महाशक्तियों की खेमेबंदी से अलग रखा। दूसरे, भारत ने उपनिवेशों के चुंगल से मुक्‍त हुए नव-स्‍वतंत्र देशों के महाशक्तियों के खेमे में जाने को पुरजोर विरोध किया।

भारत की नीति न तो नकारात्‍मक थी और न ही निष्क्रियता की। नेहरू ने विश्‍व को याद दिलाया कि गुटनिरपेक्ष कोई ‘पलायन’ की नीति नहीं है। भारत ने दोनों गुटों के बीच मौजूद मतभेदों को कम करने को कोशिश की और इस तरह उसने इन मतभेदों का पूर्णव्‍यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।

शीतयुद्ध के दौरान भारत ने लगातार उन क्षेत्रीय और अंतर्राष्‍ट्रीय संगठनों को सक्रिय बनाये रखने की कोशिश की जो अमरीका अथवा सोवियत संघ के खेमे से नहीं जुड़े थे। नेहरू ने ‘स्‍वतंत्र और परस्‍पर सहयोगी राष्‍ट्रों के एक सच्‍चे राष्‍ट्रकुल’ के ऊपर गहरा विश्‍वास जताया जो शीतयुद्ध को खत्‍म करने में न सही, पर उसकी जकड़ ढीली करने में ही सकारात्‍मक भूमिका निभाये।

भारत की गुटनिरपेक्ष की नीति की कई कारणों से आलोचना की गई।

आलोचना का एक तर्क यह है कि भारत की गुटनिरपेक्ष ‘सिद्धां‍तविहीन’ है। कहा जाता है कि भारत अपने राष्‍ट्रीय हितों को साधने के नाम पर अक्‍सर महत्‍वपूर्ण अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों पर को‍ई सुनिश्चित पक्ष लेने से बचता रहा। आलोचकों का दूसरा तर्क है कि भारत के व्‍यवहार में स्थिरता नहीं रही और कोई बार भारत की स्थिती विरोधाभासी रही। महाशक्तियों के खेमों में शामिल होने पर दूसरे देशों की आलोचना करने वाले भारत ने स्‍वयं सन् 1971 के अगस्‍त में सोवियत संघ के साथ आपसी मित्रता की संधि पर हस्‍ताक्षर किए। विदेशी पर्यवेक्षकों ने इसे भारत का सोवियत खेमे में शामिल होना माना।   

9. वैश्वीकरण कक्षा 12 | Vaishvikaran class 12

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय 9 वैश्वीकरण  का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। Vaishvikaran class 12

 पाठ – 9 
वैश्वीकरण

वैश्वीकरण की अवधारण

यदि हम वास्तविक जीवन में ‘वैश्वीकरण‘ शब्द के इस्तेमाल को परखें तो पता चलेगा कि इसका इस्तेमाल कई तरह के संदर्भो में होता है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।

फसल के मारे जाने से कुछ किसानों ने आत्महत्या कर ली। इन किसानों ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से बड़े महंगे बीज खरीदे थे।

यूरोप स्थित एक बड़ी और अपनी प्रतियागी कंपनी को एक भारतीय कंपनी ने खरीद लिया जबकि खरीदी गई कंपनी के मालिक इस खरीददारी का विराध कर रहे थे। अनेक खुदरा दुकानदारों को भय है कि अगर कुछ बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां ने देश में खुदरा दुकानों की अपनी श्रृंखला खोल ली तो उनकी रोजी-रोटी जाती रहेगी।

ये उदाहरण हमें बताते हैं कि वैश्वीकरण हर अर्थ में सकारात्मक ही नहीं होता; लोगों पर इसके दुष्प्रभाव भी पड़ सकते हैं।

एक अवधारणा के रूप में वैश्वीकरण की बुनियादी बात है – प्रवाह। विश्व के एक हिस्से के विचारों का दूसरे हिस्सों में पहुँच; पूँजी का एक से ज़्यादा जगहों पर जाना; वस्तुओं का कई-कई देशों में पहुँचना और उनका व्यापार तथा बेहतर आजीविका की तलाश में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों की आवाजाही।

वैश्वीकरण के कारण

वैश्वीकरण विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की आपाजाही से जुड़ी परिघटना है तो एक मजबूत ऐतिहासिक आधार है

टेलीग्राफ्र, टेलीफोन और माइक्रोचिप के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच संचार की क्रांति कर दिखायी है।

विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की विश्व के विभिन्न भागों में आवाजाही की आसानी प्रौद्योगिकी में हुई तरक्की के कारण संभव हुई है।

संचार-साधनों की तरक्की और उनकी उपलब्धता मात्र से वैश्वीकरण अस्तित्व में आया हो -ऐसी बात नहीं। यहाँ ज़रूरी बात यह कि विश्व के विभिन्न भागों के लोग अब समझ रहे हैं कि वे आपस में जुड़े हुए हैं। आज हम इस बात को लेकर सजग हैं कि विश्व के एक हिस्से में घटने वाली घटना का प्रभाव विश्व के दूसरे हिस्से में भी पड़ेगा।

जब बड़ी आर्थिक घटनाएँ होती हैं तो उनका प्रभाव उनके मौजूदा स्थान अथवा क्षेत्रीय परिवेश् तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि विश्व भर में महसूस किया जाता है।

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राजनीतिक प्रभाव

वैश्वीकरण के कारण राज्य की क्षमता यानी सरकारों को जो करना है उसे करने की ताकत में कमी आती है। पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य की धारण अब पुरानी पड़ गई है और इसकी जगह न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य ने ले ली है।

लोक कल्याणकारी राज्य की जगह अब बाज़ार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है। पूरे विश्व में बहुराष्ट्रीय निगम अपने पैर पसार चुके हैं और उनकी भूमिका बढ़ी है। इससे सरकारों के अपने दम पर फ़ैसला करने की क्षमता में कमी आती है।

वैश्वीकरण से हमेशा राज्य की ताकत में कमी आती हो- ऐसी बात नहीं।

राज्य कानून और व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अपने अनिवार्य कार्यां को पूरा कर रहे हैं और बहुत सोच-समझकर अपने कदम उन्हीं दायरों से खींच रहे हैं जहाँ उनकी मर्जी हो। राज्य अभी भी महत्त्वपूर्ण बने हुए हैं।

कुछ मायनों में वैश्वीकरण के फलस्वरूप राज्य की ताकत में इजाफा हुआ है। अब राज्यों के हाथ में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी मौजूद है जिसके बूते राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं। इस सूचना के दम पर राज्य ज़्यादा कारगर ढंग से काम कर सकते हैं। इस प्रकार नई प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप राज्य अब पहले से ज़्यादा ताकतवर हैं।

आर्थिक प्रभाव

जिस प्रक्रिया को आर्थिक वैश्वीकरण कहा जाता है उसमें दुनिया के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक प्रवाह तेज हो जाता है।

वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में वस्वुओं के व्यापार में इजाफा हुआ है; वैश्वीकरण के चलते अब विचारों के सामने राष्ट्र की सीमाओं की बाधा नहीं, उनका प्रवाह अबाध हो उठा है। इंटरनेट और कंप्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है। लेकिन वैश्वीकरण के कारण जिस सीमा तक वस्तुओं और पूंजी का प्रवाह बढ़ा है उस सीमा तक लोगों की आवाजाही नहीं बढ़ सकी है। विकसित देश अपनी वीजा-नीति के जरिए अपनी राष्ट्रीय सीमाओं को बड़ी सतर्कता से अभेद्य बनाए रखते हैं ताकि दूसरे देशों के नागरिक विकसित देशों में आकर कहीं उनके नागरिकों के नौकरी-धंधं न हथिया लें। आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारों कुछ जिम्मदारियों से अपने हाथ खींच रही हैं और इससे सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले लोग चिंतित हैं। इनका कहना है कि आर्थिक वैश्वीकरण से आबादी के एक बड़े छोटे तबके को फायदा होगा जबकि नौकरी और जन-कल्याण (शिक्ष, स्वास्थ्य, साफ-सफाई की सुविधा आदि) के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएँगे।

अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को विश्व का पुनःउपनिवेशीकरण कहा है।

आर्थिक वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं के समर्थकों का तर्क है कि इससे समृद्धि बढ़ती है और ‘खुलेपन‘ के कारण ज़्यादा से ज़्यादा आबादी की खुशहाली बढ़ती है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में सरकार, व्यवसाय तथा लोगों के बीच जुड़ाव बढ़ रहा है।

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सांस्कृतिक प्रभाव

वैश्वीकरण के परिणाम सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक दायरों में ही नज़र नहीं आते;

हम जो कुछ खाते-पीते-जहनते हैं अथवा सोचते हैं- सब पर इसका असर नज़र आता है।

वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभावों को देखते हुए इस भय को बल मिला है कि यह प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचाएगी। वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता ले आता है। सांकृतिक समरूपता का यह अर्थ नहीं कि किसी विश्व-संस्कृति का उदय हो रहा है। विश्व-संस्कृति के नाम पर दरअसल शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है।

बर्गर अथवा नीली जीन्स की लोकप्रियता का नजदीकी रिश्ता अमरीकी जीवनशैली के गहरे प्रभाव से है क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली संस्कृति कम ताकतवर समाजों पर अपनी छाप छोड़ती है और संसार वैसा ही दीखता है जैसा ताकतवर संस्कृति इसे बनाना चाहती है।

विभिन्न संस्कृतियाँ अब अपने को प्रभुत्वशाली अमरीकी ढर्रे पर ढालने लगी हैं। चूँकि इससे पूरे विश्व की समृद्धि सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती है इसलिए यह केवल गरीब देशों के लिए ही नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए खतरनाक है।

यह मान लेना एक भूल है कि वैश्वीकरण के सांस्कृसतिक प्रभाव सिर्फ नकारात्मक हैं। हर संस्कृति हर समय बाहरी प्रभावों को स्वीकार करते रहती है।

कभी-कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसंद-नापसंद का दायरा बढ़ता है तो कभी इनसे परंरागत सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़ बिना संस्कृति का परिष्कार होता है।

बर्गर से वस्तुतः कोई खतरा नहीं है। इससे हुआ मात्र इतना है कि हमारे भोजन की पसंउ में एक चीज़ और शामिल हो गई है। दूसरी तरफ, नीली जीन्स भी हथकरघा पर बुने खादी के कुर्ते के साथ खूब चलती है।

नीलि जीन्स के ऊपर खादी का कुर्ता पहना जा रहा है। मज़ेदार बात तो यह कि इस अनुठे पहरावे को अब उसी देश को निर्यात किया जा रहा है जिसने हमें नीली जीन्स दी है।

वैश्वीकरण से हर संस्कृति कहीं ज़्यादा अलग और विशिष्ट होते जा रही है। इस प्रक्रिया को सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण कहते हैं।

इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि सांस्कृतिक प्रभाव एकतरफा नहीं होता।

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भारत और वैश्वीकरण

पूँजी, वस्तु, विचार और लोगों की आवाजाही का भारतीय इतिहास कई सदियों का है।

औपनिवेशिक दौर में ब्रिटेन के साम्राज्वादी मंसूबों के परिणामस्वरूप भारत आधारभूत वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यातक तथा बने-बनाये सामानों का आयात देश था। आज़ादी हासिल करने के बाद, ब्रिटेन के साथ अपने इन अनुभवों से सबक लेते हुए हमने फ़ैसला किया कि दूसरे पर निर्भर रहने के बजाय खुद सामान बनाया जाए। हमने यह भी फ़ैसला किया कि दूसरों देशों को निर्यात की अनुमति नहीं होगी ताकि हमारे अपने उत्पादक चीजों को बनाना सीख सकें। इस‘ संरक्षणवाद‘ से कुछ नयी दिक्कतें पैदा हुईं। कुछ क्षेत्रों में तरक्की हुई तो कुछ ज़रूरी क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, आवास और प्राथमिक शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। भारत में आर्थिक -वृद्धि की दर धीमी रही।

1991 में, वित्तीय संकट से उबरने और आर्थिक वृद्धि की ऊँची दर हासिल करने की इच्छा से भारत में आर्थिक-सुधारों की योजना शुरू हुई। इसके अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों पर आयद बाधाएँ इटायी गई।

यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारत के लिए यह कितना अच्छा साबित हुआ है क्योंकि अंतिम कसौटी ऊँची वृद्धि-दर नहीं बल्कि इस बात को सुनिश्चित करना है कि आर्थिक बढ़वार के फायदों में सबका साझा हो ताकि हर कोई खुशहाल बने।

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वैश्वीकरण का प्रतिराध

वैश्वीकरण बड़ा बहसतलब म    ुद्दा है और पूरी दुनिया में इसकी आलोचना हो रही है। वामपंथी राजनीतिक रूझा रखने वालों का तर्क है कि मौजूदा वैश्वीकरण विश्वव्यापी पूंजीवाद और ज़्यादा धनी (तथा इनकी संख्या में कमी) और गरीब को और ज़्यादा ग़रीब बनाती है।

राजनीतिक अर्थों में उन्हें राज्य के कमजोर होने की चिंता है। सांस्कृतिक संदर्भ में उनकी चिंता है कि परंरागत संस्कृति हानि होगी और लोग अपने सदियों पराने जीवन-मूल्य तथा तौर-तरीकों से हाथ धों देंगे।

1999 में, सिएट्ल में विश्व व्यापार संगठन की मंत्री-प्रदर्शन हुए। आर्थिक रूप से ताकतवर देशों द्वारा व्यापार के अनुचित तौर-तरीकों के अपनाने के विरोध में ये प्रदर्शन हुए थे। विरोधियों समुचित महत्त्व नहीं दिया गया है।

नव-उदारवादी वैश्वीकरण के विरोध का एक विश्व-व्यापी मंच ‘वर्ल्ड सोशल फोरम‘ (ूि) है। इस मंच के तहत मानवधिकार- कार्यकर्त्ता, पर्यावरणवादी, मजदूर, युवा और महिला कार्यकर्त्ता एकजुट होकर नव-उदारवादी वैश्वीकरण का विरोध करते हैं।

भारत में वैश्वीकरण का विराध कई हलकों से हो रहा है। आर्थिक वैश्वीकरण के खि़लाफ वामपंथी तेवर की आवाजें राजनीतिक दलों की तरफ से उठी हैं तो इंडियन सोशल फोरम जैसे मंचों से भी। औद्योगिक श्रमिक और किसानों के संगठनों ने बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रवेश का विराध किया है।

वैश्वीकरण का विराध राजनीति के दक्षिणपंथी खमों से भी हुआ है। यह खेमा विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों का विरोध कर रहा है जिसमें केबल नेटवर्क के जरिए उपलब्ध कराए जा रहे विदेशी टी.वी. चैनलों से लेकर वैलेन्टाईन-डे मनाने तथा स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं की पश्चिमी पोशाकों के लिए बढ़ती अभिरूचि तक का विरोध शामिल है।

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8. पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन | Paryavaran aur prakritik sansadhan class 12

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। Paryavaran aur prakritik sansadhan class 12

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अध्याय 8
पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

परिचय

इस अध्याय में कुछ महत्त्वपूर्ण पर्यावरण-आंदोनों की तुलनात्मक चर्चा की गई है। हम साझी संपदा और ‘विश्व की साझी विरासत‘ जैसी धारणाओं के बारे में भी पढ़ेंगे।

संसाधनों की होड़ से जुड़ी वैश्विक राजनीति की एक संक्षिप्त चर्चा की गई है। दुनिया भर में कृषि-योग्य भूमि में अब कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो रही जबकि मौजूदा उपजाऊ जमीन के एक बड़े हिस्से की उर्वरता कम हो रही है। चारागहों के चारे खत्म होने को हैं और मत्स्य-भंडार घट रहा है। जलाशयों की जलराशि बड़ी तेजी से कम हुई है उसमें प्रदूषण बढ़ा है। इससे खाद्य- उत्पादन में कमी आ रही है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की मानव विकास रिपोर्ट (2016) के अनुसार विकासशील देशों की 66.3 करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता और यहाँ की दो अरब चालीस करोड़ आबादी साफ-सफाई की सुविधा से वंचित हैं। इस वजह से 30 लाख से ज़्यादा बच्चे हर साल मौत के शिकार होते हैं।

प्राकृतिक वन जलवायु को संतुलित रखने में मदद करते हैं, इनसे जलचक्र भी संतुलित बना रहता है लेकिन ऐसे वनों की कटाई हो रही है

धरती के ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही हैं। इससे पारिस्थितिकी तंत्र और मनुष्य के स्वास्थ्य पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है।

पुरे विश्व में समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण भी बढ़ रहा है। इन मसलों में अधिकांश ऐसे हैं कि किसी एक देश की सरकार इनका पूरा समाधान अकेले दम पर नहीं कर सकती। इस वजह से ये मसले विश्व-राजनीति का हिस्सा बन जाते हैं।

वैश्विक मामलों से सरोकार रखने वाले एक विद्वत् समूह ‘क्लब ऑव रोम‘ ने 1972 में ‘लिमिट्स टू ग्रोथ‘ शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की। यह पुस्तक दुनिया की बढ़ती जनसंख्या के  आलोक में प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के अंदेशे को बड़ी खूबी से बताती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ पर्यावरण कार्यक्रम (नदमच) सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं पर सम्मेलन कराये और इस विषय पर अध्ययन को बढ़ावा देना शुरू किया। तभी से पर्यावरण वैशिक राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण मसला बन गया।

1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केंद्रित एक सम्मेलन, ब्राजील के रिया डी जनेरियो में हुआ। पृथ्वी सम्मेलन (मंतजी ेनउउपज) कहा जाता है। इस सम्मेलन में 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया। यानी उत्तरी गोलार्द्ध तथा गरीब और विकासशील देश यानी दक्षिणी गोलार्द्ध पर्यावरण के अलग-अलग अजेंडे के पैरोकार हैं। उत्तरी देशों की मुख्य चिंता ओज़ोन परत की छेद और वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वर्मिग) को लेकर थी। दक्षिण देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज़्यादा चिंतित थे।

रियो-सम्मेलन में जलवायु-परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के संबंध में कुछ नियमाचार निर्धारित हुए। इसमें ‘अजेंडा-21‘ के रूप में विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाए गए। सम्मलेन में इस बात पर सहमति बनी कि आर्थिक वृद्धि की तरीका ऐसा होना चाहिए कि इससे पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे। इसे ‘टिकाऊ विकास‘ का तरीका कहा गया।

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विश्व की साझी संपदा की सुरक्षा

साझी संपदा उन संसाधनों को कहते हैं जिन पर किसी एक का नहीं बल्कि पुरे समुदाय का अधिकार होता है। संयुक्त परिवार का चूल्हा, चारागाह, मैदान, कुआँ या नदी साझी संपदा के उदाहरण हैं। इसी तरह विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभू क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं। इसीलिए उनका प्रबंधन साझे तौर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इन्हें ‘वैश्विक संपदा‘ या ‘मानवता की साझा विरासत‘ कहा जाता है। इसमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री तसह और बाहरी अंतरिक्ष शामिल हैं।

‘वैश्विक संपदा‘ की सुरक्षा के सवाल पर महत्त्वपूर्ण समझौते जैसे अंटार्कटिका संधि (1959), मांट्रियल न्यायाचार (प्रोटोकॉल 1987) और अंटार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचार (1991) हो चुके हैं।

एक सर्व-सामान्य पर्यावरणीय अजेंडा पर सहमति कायम करना मुश्मिल होता है। इस अर्थ में 1980 के दशक के मध्य में अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद की खोज एक आँख खोल देने वाली घटना है।

अंटार्कटिका पर किसका स्वामित्व है ?

अंटार्कटिका महादेशीय इलाका 1 करोड़ 40 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। विश्व के निर्जन क्षेत्र का 26 प्रतिशत हिस्सा इसी महादेश के अंतर्गत आता है। स्थलीय हिम का 90 प्रतिशत हिस्सा और धरती पर मौजूद स्वच्छ जल का 70 प्रतिशत हिस्सा इस महादेश में मौजूद है।

सीमित स्थलीय जीवन वाले इस महादेश का समुद्री पारिस्थितिकी-तंत्र अत्यंत उर्वर है जिसमें कुछ पादप (सुक्ष्म शैवाल, कवक और लाइकेन), समुद्री स्तनधारी जीव, मत्स्य तथा कठिन वातावरण में जीवनयापन के लिए अनुकूलित तिभिन्न पक्षी शामिल हैं।

अंटार्कटिक प्रदेश विश्व की जलवायु को संतुलित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस महादेश की अंदरूनी हिमानी परत ग्रीन हाऊस गैस के जामव का महत्त्वपूर्ण सूचना-स्रोत है। साथ ही, इससे लाखां बरस जहले के वायुमंडलीय तापमान का पता किया जा सकता है।

विश्वश् के सबसे सुदूर ठंढ़े और झंझावाती महादेश अंटर्कटिका पर किसका स्वामित्व है? इसके बारे में दो दावे किये जाते हैं। कुछ देश जैसे – ब्रिटेन, अर्जेन्टीना, चिले, नार्वे, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ने अंटार्कटिक क्षेत्र पर अपने संप्रभु अधिकार का वैधानिक दावा किया। अन्य अधिकांश देशों ने इससे उलटा रूख अपनाया कि अंटार्कटिक प्रदेश विश्व की साझी संपदा है और यह किसी भी देश के क्षेत्राधिकार में शामिल नहीं है।

1959 के बाद इस इलाके में गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसंधान, मत्स्य आखेट और पर्यटन तक सीमित रही हैं।

साझी परंतु अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ

उत्तर के विकसित देश पर्यावरण के मसले पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस दशा में पर्यावरण आज मौजूद है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो। दक्षिण के विकासशील देशां का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को नुकसान अधिकांशतया विकसित देशां के औद्योगिक विकास से पहुँचा है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को ज़्यादा नुकसान पहुँचाया है तो उन्हें इस नुकसान की भरपाई की जिम्मेदारी भी ज़्यादा उठानी चाहिए। इसके अलावा, विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और ज़रूरी है कि उन पर वे प्रतिबंध न लगें जो विकसित देशों पर लगाये जाने हैं।

1992 में हुए पृथ्वी सम्मेलन में इस तर्क को मान लिया गया और इसे‘ साझी परंतु अलग-अलग जिम्मेदारियाँ का सिद्धांत कहा गया।

जलवायु के परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्रसंघ के नियमाचार यानी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC-1992) में भी कहा गया है कि इस संधि को स्वीकार करने वाले देश अपनी क्षमता के, अनुरून, पर्यावरण के अपक्षय में अपनी हिस्सेदारी के आधार पर साझी परंतु अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए पर्यावरण की सुरक्षा के प्रयास करेंगे।

ग्रीन हाऊस गेसों के उत्सर्जन में सबसे ज़्यादा हिस्सा विकसित देशों का है। विकासशील देशों का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम है। इस कारण चीन, भारत और अन्य बाध्यताओं से अलग रखा गया है। क्योटो-प्रोटोकॉल एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसके अतंर्गत औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और हाइड्रो-फ्लोरो कार्बन जैसी कुछ गैसों के बारे में माना जाता है कि वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में इनकी कोई-न-कोई भूमिका ज़रूर है। ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना में विश्व का तापमान बढ़ता है और धरती के जीवन के लिए यह बात बड़ी प्रलयंकारी साबित होगी। जापान के क्योटो में 1997 में इस प्रोटोकॉल पर सहमति बनी।

साझी संपदा

साझी संपदा का अर्थ होता है ऐसी संपदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का स्वामित्व हो। इसके पीछे मूल तर्क यह है कि ऐसी संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के संदर्भ में समुह के हर सदस्क को समान अधिकार प्राप्त होंगे और समान उत्तरदायित्व निभाने होंगे। उदाहरण के लिए, राजकीय स्वामित्व वाली वन्यभूमि में पावन मानें जाने वाले वन-प्रांतर के वास्तविक प्रबंधन की पूरानी व्यवस्था साझी संपदा के रख-रखाव और उपभोग का ठीक-ठीक उदाहरण है। दक्षिण भारत के वन-प्रदेशों में विद्यमान पावन वन-प्रांतरों का प्रबंधन परंपरानुसार ग्रामीण समुदाय करता आ रहा हैं

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पर्यावरण के मसले पर भारत का पक्ष

भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकॉल (1997) पर हस्ताक्षर किए और इसका अनुमोदन किया। भारत, चीन और अन्य विकासशील देशां को क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से छूट दी गई है क्योंकि औद्योगीकरण के दौर में ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के मामले में इनका कुछ ख़ास योगदान नहीं था। औद्योगीकरण को मौजूदा वैश्विक तापवृद्धि और जलवायु-परिवर्तन का जिम्मेदार माना जाता है। 2005 के जून में ग्रुप-8 के देशों की बैठक हुई। इसमें भारत ने ध्यान दिलाया कि विकासशील देशों में ग्रीन हाऊस गैसों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में नाममात्र है।

ग्रीनहाऊस गैसों के रिसाव की ऐतिहासिक और मौजूदा जवाबदेही ज़्यादातर विकसित देशों की है। ‘हाल में संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस (नदबिबब) के अंतर्गत चर्चा चली कि तेजी से औद्योगिक होते देश (जैसे ब्राजील, चीन और भारत) नियमाचार की बाध्यताओं का पालन करते हुए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करें। भारत इस बात के खिलाफ है।

भारत में 2030 तक कार्बन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बढ़ने के बावजूद विश्व के (सन् 2000) के औसत (33.8 टन प्रति व्यक्ति) के आधे से भी कम होगा। अनुमान है कि 2030 तक यह मात्रा बढ़कर 1.6 टन प्रतिव्यक्ति हो जाएगी।

भारत की सरकार विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए पर्यावरण से संबंधित वैश्विक प्रयासों में शिरकत कर रही है। भारत ने अपनी नेशनल ऑटो-फ्यूल पॉलिसी‘ के अंतर्गत वाहनों के लिए स्वच्छतर ईंधन अनिवार्य कर दिया है। 2001 में ऊर्जा-संरक्षण अधिनियम पारित हुआ।

हाल में प्राकृतिक गैस के आयात और स्वच्छ कोयले के उपयोग पर आधारित प्रौद्योगिकी को अपनाने की तरफ रूझान बढ़ा है। इससे पता चलता है कि भारत पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से ठोस कदम उठा रहो है।

पर्यावरण आंदालन – एक या अनेक

आज पूरे विश्व में पर्यावरण आंदोलन सबसे ज़्यादा जीवंत, विविधतापूर्ण तथा ताकतवर सामाजिक आंदोलनों में शुमार किए जाते हैं।

इन आंदोलनों से नए विचार निकलते हैं। इन आंदोलनों ने हमें दृष्टि दी है कि वैयक्तिक और सामूहिक जीवन के लिए आगे के दिनों में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।

मौजूदा पर्यावरण आंदोलनों की एक मुख्य विशेषता उनकी विविधता है।

दक्षिणी देशों मसलन मैक्सिको, चिले, ब्राज़ील, मलेशिया, इंडोनेशिया, महादेशीय, अफ्रिका और भारत के वन-आंदोलनों पर बहुत दबाव है। तीन दशकों से पर्यावरण को लेकर सक्रियता का दौर जारी है। इसके बावजूद तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में वनों की कटाई खतरनाक गति से जारी है। पिछले दशक के विशालतम वनों का विनाश बढ़ा है।

खनिज उद्योग धरती के भीतर मौजूद संसाधनों को बाहर निकालता है, रसायनों का भरपूर उपयोग करता है; भूमि और जलमार्गे को प्रदूषित करता है और स्थानीय वनस्पतियाँ का विनाश करता है। इसके कारण जन-समुदायां को विस्थापित होना पड़ता है। कई बातों के साथ इन कारणों से विश्व के विभिन्न भागों में खनिज-उद्योग की आलोचना और विरोध हुआ है।

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इसका एक अच्छा उदाहरण फिलीपिन्स है जहाँ कई समूहों और संगठनों ने एक साथ मिलकर एक ऑस्ट्रेलियाई बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘वेस्टर्न माइनिंग कारपोरेशन‘ के खिलाफ अभियान कलाचा।

कुछ आंदोलन बड़े बाँधों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। अब बाँध-विरोधी आंदोलन को नदियों को बचाने के आंदालनों के रूप में देखने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है

1980 के दशक के शुरूआती और मध्यवर्ता वर्षां में विश्व का पहला बाँध-विरोधी आंदोलन दक्षिणी गोलार्द्ध में चला। भारत में बाँध-विराधी और नदी हितैषी कुछ अग्रणी आंदोलन चल रहे हैं। इन आंदोलनों में नर्मदा आंदोलन सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध है।

संसाधनों की भू-राजनीति

‘‘किसे, क्या, कब, कहाँ और कैसे हासिल होता है‘‘ – ‘संसाधनों की भू-राजनीति‘ इन्हीं सवालों से जूझती है। यूरोपीय ताकतों के विश्वव्यापी प्रसार का एक मुख्य साधन और मकसद संसाधन रहे हैं।

संसाधनों से जुड़ी भू-राजनीति को पश्चिमी दुनिया ने ज़्यादातर व्यापारिक संबंध, युद्ध तथा ताकत के संदर्भ में सोच।

पूरे शीतयुद्ध के दौरान उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित देशां ने इन संसाधनों की सतत् आपूर्ति के लिए कई तरह के कदम उठाये। इसके अंतर्गत संसाधन-दोहन के इलाकों तथा समुद्री परिवहन-मार्गों के इर्द-गिर्द सेना की तैनाती, महत्त्वपूर्ण संसाधनों का भंडारण, संसाधनों के उत्पादक देशों में मनपसंद सरकारों की बहाली तथा बहुराष्ट्रीय निगमों और अपने हितसाधक अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को समर्थन देना शामिल है। पश्चिमी देशों के राजनीतिक चिंतन का केंद्रीय सरोकार यह था कि संसाधनों तक पहुँच अबाध रूप से बनी रहे क्योंकि सोवियत संघ इसे खतरे में डाल सकता था।

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वैश्विक रणनीति में तेल लगातार सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन बना हुआ है। बीसवीं सदी के अधिकांश समय में विश्व की अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर रही।

पेट्रोलियम का इतिहास युद्ध और संघर्षां का भी इतिहास है। यह बात पश्चिम एशिया और मध्य एशिया में सबसे स्पष्ट रूप से नज़र आती है। पश्चिम एशिया, ख़ासकर खाड़ी-क्षेत्र विश्व के कुल तेल-उत्पादन का 30 प्रतिशत मुहैया कराता है। इस क्षेत्र में विश्व के ज्ञात तेल-भंडार का 64 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है

सऊदी अरब विश्व में सबसे बड़ा तेल-उत्पादक है। इराक का ज्ञात तेल-भंडार सऊदी अरब के बाद दूसरे नंबर पर है।

संयुक्त राज्य अमरीका, युरोप, जापान तथा चीन और भारत में इस तेल की खपत होती है लेकिन ये देश इस इलाके से बहुत दूरी पर हैं।

विश्व-राजनीति के लिए पानी एक और विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में मौजूद नहीं है। इसी कारण हमारे जीवन में पेट्रोलियम पर आधारित उत्पादों की कड़ी अंतहीन है। टूथपेस्ट, पेसमेकर, पेंट, स्याही…। दुनिया को परिवहन के लिए जितनी ऊर्जा की ज़रूरत पड़ती है उसका 95 फीसदी पेट्रोलियम से ही पूरा होता है।

इसी जीवनदायी संसाधन को लेकर हिंसक संघर्ष होने की संभावना है और इसी को इंगित करने के लिए विश्व-राजनीति के कुछ विद्वानों ने ‘जलयुद्ध‘ शब्द गढ़ा है।

जलधारा के उद्गम से दूर बसा हुआ देश उद्गम के नजदीक बसे हुए देश द्वारा इस पर बाँध बनाने, इसके माध्यम से अत्यधिक सिंचाई करने या इसे प्रदूषित करने पर आपत्ति जताता है देशों के बीच स्वच्छ जल-संसाधनों को हथियाने या उनकी सुरक्षा करने के लिए हिंसक झड़पें हुई हैं। इसका एक उदाहरण है – 1950 और 1960 के दशक में इज़रायल, सीरिया तथा जार्डन के बीच हुआ संघर्ष।

फिलहाल तुर्की, सीरिय और इराक के बीच फरात नदी पर बाँध के निर्माण को लेकर एक-दूसरे से ठनी हुई है।

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मूलवासी (INDIGENOUS PEOPLE) और उनके अधिकार

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 1982 में इनकी एक शुरूआती परिभाषा दी। इन्हें ऐसे लोगों का वंशज बताया गया जो किसी मौजूदा देश में बहुत दिनों से रहते चले आ रहे थे। फिर किसी दूसरी संस्कृति या जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश में आये और इन लोगों को अधीन बना लिया। किसी देश के ‘मूलवासी‘ आज भी उस देश की संस्थाओं के अनुरूप आचरण करने से ज़्यादा अपनी परंपरा, सांस्कृतिक रिवाज़ तथा अपने ख़ास सामाजिक, आर्थिक ढर्रे पर जीवन-यापन करना पसंद करते हैं।

भारत सहित विश्व के विभिन्न हिस्सों में मौजूद लगभग 30 करोड़ मूलवासियों फिलीपिन्स के कोरडिलेरा क्षेत्र में 20 लाख मूलवासी लोग रहते हैं। चिले में मापुशे नामक मूलवासियों की संख्या 10 लाख है।

बांग्लादेश के चटगांव पर्वतीय क्षेत्र में 6 लाख आदिवासी बसे हैं। उत्तर अमरीकी मूलवासियों की संख्या 3 लाख 50 हजार है। पनामा नहर के पूरब में कुना नामक मूलवासी 50 हज़ार की तादाद में हैं और उत्तरी सोवियत में ऐसे लोगों की आबादी 10 लाख है। दूसरे सामाजिक आंदोलनों की तरह मूलवासी भी अपने संघर्ष, अजेंडा और अधिकारों की आवाज़ उठाते हैं।

मूलवासियों के निवास वाले स्थान मध्य और दक्षिण अमरीका, अफ्रिका, दक्षिणपूर्व एशिया तथा भारत में है जहाँ इन्हें आदिवासी या जनजाति कहा जाता है।

सरकारों से इनकी माँग है कि इन्हें मूलवासी कौम के रूप में अपनी स्वतंत्र जहचान रखने वाला समुदाय माना जाए।

भारत में ‘मूलवासी‘ के लिए अनुसूचित जनजाति या आदिवासी शब्द प्रयोग किया जाता है। ये कुल जनसंख्या का आठ प्रतिशत हैं। कुछेक घुमन्तू जनजातियों को छोड़ दें तो भारत की अधिकांश आदिवासी जनता अपने जीवन-यापन के लिए खेती पर निर्भर हैं।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिहाज से इनको संवैधानिक सुरक्षा हासिल है लेकिन देश के विकास का इन्हें ज़्यादा लाभ नहीं मिल सका है। आजादी के बाद से विकास की बहुत सी परियाजनाएँ चलीं और परियाजनाओं से विस्थापित होने वालों में यह समुदाय सबसे बड़ा है।

1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के मूलवासियों के नेताओं के बीच संपर्क बढ़ा। 1975 में ‘वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इंडिजिनस पीपल‘ का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्रसंघ में सबसे पहले इस परिषद् को परामर्शदायी परिषद् का दर्जा दिया गया।

विश्व सामाजिक मंच एक मुक्त आकाश

परिचय

पुस्तक के इस अंतिम अध्याय में हम वैश्वीकरण पर बात करेंगे। हम वैश्वीकरण के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिणामों की बात करेंगे। वैश्वीकरण का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा है और भारत वैश्वीकरण को कैसे प्रभावित कर रहा है।

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अध्याय 5 समकालीन दक्षिण एशिया | Samkalin dakshin asia class 12

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय समकालीन दक्षिण एशिया के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। Samkalin dakshin asia class 12

अध्याय 5
समकालीन दक्षिण एशिया

परिचय :

बीसवीं सदी के आखिरी सालों में जब भारत और पाकिस्तान ने खुद को परमाणु शक्ति-संपन्न राष्ट्रों की बिरादरी में बैठा लिया तो यह क्षेत्र अचानक पूरे विश्व की नजर में महŸवपूर्ण हो उठा। स्पष्ट ही विश्व का ध्यान इस इलाके में चल रहे कई तरह के संघर्षों पर गया। इस क्षेत्र के देशों के बीच सीमा और सनदी जल के बँटवारे को लेकर विवाद कायम है। इसके अतिरिक्त विद्रोह, जातीय संघर्ष और संसाधनों के बँटवारे को लेकर होने वाले झागड़ा भी हैं। इन वजहों से दक्षिण एशिया का इलाका बड़ा संवेदनशील है और अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि आज विश्व में यह क्षेत्र सुरक्षा के लिहाज से खतरे की आशंका वाला क्षेत्र है। दक्षिण एशिया के देश अगर आपस में सहयोग करें तो यह क्षेत्र विकास करके समृद्ध बन सकता है। इस अध्याय में हम दक्षिण एशिया के देशों के बीच मौजूद संघर्षो की प्रकृति और इन देशों के आपसी सहयोग को समझने की कोशिश करेंगे। दक्षिण एशिया के देशां की घरेलू राजनीतिक से इन झगड़ों या सहयोग का मिज़ाज तय होता है

क्या है दक्षिण एशिया?

दक्षिण एशिया है क्या? अमूमन बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका को इंगित करने के लिए ‘दक्षिण एशिया‘ पद का व्यवहार किया जाता है। उत्तर की विशाल हिमालय पर्वत-श्रृंखला, दक्षिण का हिंद महासागर, पश्चिम का अरब सागर और पूरब में मौजूद बंगाल की खाड़ी से यह इलाका एक विशिष्ट प्राकृतिक क्षेत्र के रूप में नजर आता है। चीन इस क्षेत्र का एक प्रमुख देश है लेकिन चीन को दक्षिण एशिया का अंग नहीं माना जाता है दक्षिण  एशिया हर अर्थ में विविधताओं से भरा-पूर इलाका है दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में एक-सी राजनीतिक प्रणाली नहीं है। भारत और श्रीलंका में ब्रिटेन से आज़ाद होने के बाद, लोकतांत्रिक व्यवस्था सफलतापूर्वक कायम है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में लोकतांत्रिक और सैनिक दोनों तरह के नेताओं का शासन रहा है। शीतयुद्ध के बाद के सालों में बांग्लादेश में लोकतंत्र कायम रहा। पाकिस्तान में शीतयुद्ध के बाद के सालों में लगातार दो लोकतांत्रिक सरकारें बनीं। पहली सरकार बनज़ीर भुट्टो और दूसरी नवाज़ सरीफ के नेतृत्व में कायम हुई। लेकिन इसके बाद 1999 में पाकिस्तान में सैनिक तख्तापलट हुआ। 2008 से फिर से यहाँ लोकतांत्रिक-शासन है। 2206 तक नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र था कि राजा अपने हाथ में कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ ले लेगा। 2008 में राजतंत्र को ख्तम किया और नेपाल एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप् में उभरा। भूटान 2008 में राजतंत्र संवैधानिक राजतंत्र बन गया। राजा के नेतृत्व में, यह बहुदलीय लोकतंत्र के रूप में उभरा। मलदीव 1968 तक सल्तनत हुआ करता था। 1968 में यह एक गणतंत्र बना 2005 के जून में मालदीव की संसद ने बहुदलीय प्रणाली को अपनाने के पक्ष में एकमत से मतदान किया। मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) का देश के राजनीतिक मामलों में दबदबा है। एमडीपी ने 2018 में हुए चुनावों में जीत हासिल की। इन देशों के लोग शासन की किसी और प्रणाली की अपेक्षा लोकतंत्र को वरीयता देते हैं और मानते हैं कि उनके देश के लिए लोकतंत्र ही ठीक है।

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पाकिस्तान में सेना और लोकतंत्र

पाकिस्तान में पहले संविधान के बनने के बाद देश के शासन की बाग़डोर जनरल अयूब खान ने अपने हाथों में ले ली और जल्दी ही अपना निर्वाचन भी करा लिया। उनके शासन के खिलाफ जनता का गुस्सा भड़का और ऐसे में उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा। इससे एक बार फिर सैनिक शासन का रास्ता साफ हुआ और जनरल याहिया खान के सैनिक-शासन के दौरान पाकिस्तान को बांग्लादेश-संकट का सामना करना पड़ा। और 1971 में भारत के साथ पाकिस्तान का युद्ध हुआ। युद्ध के परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान टूटकर एक स्वतंत्र देश बना और बांग्लादेश कहलाया। उसके बाद पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में एक निर्वाचित सरकार बनी जो 1971 से 1977 तक कायम रही। 1977 में जेनरल जियाउल-हक ने इस सरकार को गिरा दिया। 1988 में एक बार फिर बेनज़ीर भूट्टो के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार बनी। निर्वाचित लोकतंत्र की यह अवस्था 1999 तक कायम रही। 1999 में फिर एक बार सेना ने दखल दी और जेनरल परवेज़ मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवज़ शरीफ को हटा दिया। 2001 में परवेज़ मुशर्रफ ने अपना निर्वाचन राष्ट्रपति के रूप में कराया। पाकिस्तान पर सेना की हूकूमत थी हालाँकि सैनिक शासकों ने अपने को लोकतांत्रिक जताने के लिए चुनाव कराए। हैं। 2008 से पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए नेता शासन कर रहें हैं। पाकिस्तान में लोकतंत्र के स्थायी न बन पाने के बई कारण हैं। यहाँ सेना, धर्मगुरू और भूस्वामी अभिजनों का सामाजिक दबदबा है। इसकी वज़ह से कई बार निर्वाचित सरकारों को गिराकर सैनिक शासन कायम हुआ। लोकतंत्र पाकिस्तान में पूरी तरह सफल नहीं हो सका है लेकिन इस देश में लोकतंत्र का जज़्बा बहुत मज़बूती के साथ कायम रहा है। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शासन चले-इसके लिए कोई खास अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलता। अमेरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों ने अपने-अपने स्वार्थो से गुज़रे वक्त में पाकिस्तान में सैनिक शासन को बढ़वा दिया। इन देशों को उस आतंकवाद से डर लगता है जिसे ये देश ‘विश्वव्यापी से इस्लामी आतंकवाद‘ कहते हैं। इन देशों की यह भी डर सताता है कि पाकिस्तान के परमाण्विक हथियार कहीं इन आतंकवादी समूहों के हाथ न लग जाएँ।

बांग्लादेश में लोकतंत्र

1947 से 1971 तक बांग्लादेश पाकिस्तान का अंग था। अंग्रजी राज के समय के बंगाल और असम के विभाजित हिस्सों से पूर्वी पाकिस्तान का यह क्षेत्र बना था। इस क्षेत्र के लोग पश्चिमी पाकिस्तान के दबदबे और अपने ऊपर उर्दू भाषा को लादने के खि़लाफ थे। पश्चिमी पाकिस्तान के प्रभुत्व के खिलाफ जन-संघर्ष का नेतृत्व शेख मुजीबुर्रहमान ने किया। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग को 1970 के चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान की सारी सीटों पर विजय मिली। अवामी लीग को संपूर्ण पाकिस्तान के लिए प्रस्तावित संविधान सभा में बहुमत हासिल हो गया। लेकिन सरकार पर पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं का दबदबा था और सरकार ने इस सभा को आहूत करने से इंकार कर दिया। शेख़ मुज़ीब को गिफ्तार कर लिया गया। जेनरल याहिया खान के सैनिक शासन में पाकिस्तान सेना ने बंगाली जनता के आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। हज़ारों लोग पाकिस्तान सेना के हाथो मारे गए। इस वज़ह से पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोग भारत पलायन कर गए। भारत के सामने इन शरणार्थियों को संभालने की समस्या आना खड़ी हुई। भारत की सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की आज़ादी की माँग का समर्थन किया और उन्हें वित्तीय और सैन्य सहायता दी। इसके परिणामस्वरूप् 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया। युद्ध की समाप्ति पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण तथा एक स्वतंत्र राष्ट्र ‘बांग्लादेश‘ के निर्माण के साथ हूई। बांग्लादेश ने अपना संविधान बनाकर उसमें अपन को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक तथा समावादी देश घोषित किया। शेख मुज़ीब ने अपनी पार्टी अवामी लीग को छोड़कर अन्य सभी पार्टियों को समाप्त कर दिया। इससे तनाव और संघर्ष की स्थिति पैदा हुई। 1975 के अगस्त में सेना ने उनके खि़लाफ बगा़वत कर दी और इस नाटकीय तथा त्रासद घाटनाक्रम में शेख मुज़ीब सेना के होथो मारे गए। नये सैनिक-शासक जियाउर्रहमान ने अपनी बांग्लादेश नेशनल पार्टी बनायी और 1979 के चुनाव में विजयी रहे। जियाउर्रहमान की हत्या हुई और लेफ्टिनेंट जे़नरल एच एम इरशाद के नेतृत्व में बांग्लादेश में एक और सैनिक-शासन ने बागडोर संभाली। लेकिन, बांग्लादेश की जनता जल्दी ही लोकतंत्र के समर्थन में उठ खड़ी हुई। जनरल इरशाद पाँच सालों के लिए राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। जनता के व्यापक विरोध के आगे झुकते हुए लेफ्टिनेंट जेनरल इरशाद को राष्ट्रपति का पद 1990 में छोड़ना पड़ा। 1991 में चुनाव हुए। इसके बाद से बांग्लादेश में बहुदलीय चुनावों पर आधारित प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र कायम है।

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नेपाल में राजतंत्र और लोकतंत्र

नेपाल अतीत में एक हिन्दु-राज था फिर आधुनिक काल में कई सालों तक यहाँ संवैधानिक राजतंत्र रहा। संवैधानिक राजतंत्र के दौर में नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ और आम जनता ज्यादा खुले और उत्तरदायी शासन की आवाज उठाते रहे। लेकिन राजा ने सेना की सहायता से शासन पर पूरा नियंत्रण कर लिया और नेपाल में लोकतंत्र की राह अवरूद्ध हो गई। एक मजबूत लोकतंत्र-समर्थक आंदोलन की चपेट में आकर राजा ने 1990 में नए लोकतांत्रिक संविधान की माँग मान ली। 1990 के दशक में नेपाल के माओवादी नेपाल के अनेक हिस्सों में अपना प्रभाव जमाने में कामयाब हुए। माओवादी, राजा और सत्ताधारी अभिजन के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करना चाहते थे। इस वज़ह से राजा की सेना और माओवादी गुरिल्लों के बीच हिंसक लड़ाई छिड़ गई। 2002 में राजा ने संसद को भंग कर दिया और सरकार को गिरा दिया। इस तरह नेपाल में जो भी थोड़ा-बहुत लोकतंत्र-समर्थन प्रदर्शन हुए। राजा ज्ञानेन्द्र ने बाध्य होकर संसद को बहाल किया। इसे अप्रैल 2002 में भंग कर दिया गया था। नेपाल में लोकतंत्र आमद अब लगभग मुकम्मल हुई है। नेपाल का संविधान लिखने के लिए वहाँ संविधान-सभा का गठन हुआ। माओवादी समूहों ने सशस्त्र संघर्ष की राह छोड़ देने की बात मान ली 2008 में नेपाल राजतंत्र को खत्म करने के बाद लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। 2015 में नेपाल ने नया संविधान अपनाया।

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श्रीलंका में जातीय संघर्ष और लोकतंत्र

अज़ादी (1948) के बाद से लेकर अब तक श्रीलंका में लोकतंत्र कायम है। लेकिन श्रीलांका को जातीय संघर्ष का सामना करना पड़ा जिसकी माँग है कि श्रीलंका के एक क्षेत्र को अलग राष्ट्र बनाया जाय। आज़ादी के बाद से (श्रीलंका को दिनों सिलोन कहा जाता था) श्रीलांका की राजनीति पर बहुसंख्यक सिंहली समुदाय के हितों की नुमाइंदगी करने वालों का दबदबा रहा है। ये लोग भारत छोड़कर श्रीलांका आ बसी एक बड़ी तमिल आबादी के खिलाफ हैं। सिंहली राष्ट्रवादियों का मानना था कि श्रीलंका में तमिलों के साथ कोई ‘रियायत‘ नहीं बरती जानी चाहिए क्योंकि श्रीलांका सिर्फ सिंहली लोगों का है। 1983 के बाद से उग्र तमिल संगठन ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑव तमिल ईलम‘ (लिट्टे) श्रीलंकाई सेना के साथ सशस्त्र संघर्ष कर रहा है। इसने ‘तमिलों के लिए एक अलग देश की माँग की है। भारत की तमिल जनता का भारतीय सरकार पर भारी दबाव है कि वह श्रीलंकाई ततिलों के हितों के रक्षा करे। 1987 में भारतीय सरकार श्रीलांका के तमिल मसले में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हुई। भारत की सरकार ने श्रीलंका से एक समझौता किया तथा श्रीलांका सरकार और तमिलों के बीच रिश्ते सामान्य करने के लिए भारतीय सेना को भेजा। श्रीलंकाई जनता ने समझा कि भारत श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी कर रहा है। 1989 में भारत ने अपनी ‘शांन्ति सेना‘ लक्ष्य हासिल किए बिना वापस बुला ली। अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थ के रूप में नार्वे और आइसलैंड जैसे स्कैंडिनेवियाई देश युद्धरत दोनों पक्षां को फिर से वापस में बातचीत करने के लिए राजी कर रहे थे। अंततः सशस्त्र संघर्ष समाप्त हो गया क्यांकि 2009 में लिट्टे को खत्म कर दिया गया। दक्षिण एशिया के देशों में सबसे पहले श्रीलंका ने ही अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया। गृहयुद्ध से गुजरने के बावजूद कई सालों से इस देश का प्रति व्यक्ति सफल घरेलू उत्पाद दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा है। अंदरूनी संघर्ष के झंझावातों को झेलकर भी श्रीलंका ने लोकतांत्रिक राजव्यवस्था कायम रखी है।

भारत-पाकिस्तान संघर्ष

दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति केंद्रीय है और इस वज़ह से इनमें से अधिकांश संघर्षो का रिश्ता भारत से है। इन संघर्षो में सबसे प्रमुख और सर्वग्रासी संघर्ष भारत और पाकिस्तान के बीच का संघर्ष है। विभाजन के तुरंत बाद दोनों देश कश्मीर के मसले पर लड़ पड़े। भारत और पाकिस्तान के बीच 1947-48 तथा 1965 के युद्ध से इस मसले का समाधान नहीं हुआ। 1948 के युद्ध के फलस्वरूप कश्मीर के दो हिस्से हो गए। एक हिस्सा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहलाया जबकि दूसरा हिस्सा भारत का जम्मू-कश्मीर प्रान्त बना। दोनों देशों की सरकारें लगातार एक दूसरे को संदेह की नज़र से देखती हैं। भारत सरकार का आरोप है कि पाकिस्तान सरकार ने लुके-छुपे ढ़ग से हिंसा की वह रणनीति जारी रखी है। आरोप है कि वह कश्मीर उग्रवादियों को हथियार, प्रशिक्षण और धन देता है तथा भारत पर आतंकवादी हमले के लिए उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है कि पाकिस्तान ने 1985-1995 की अवधि में खालिस्तान-समर्थक उग्रवादियों को हथियार तथा गोले-बारूद दिए थे। इसके जवाब में पाकिस्तान की सरकार भारतीय सरकार और उसकी खुफिया एजेंसियों पर सिंध और बलूचिस्तान में समस्या को भड़काने का आरोप लगाती है। 1960 तक दोनों के बीच सिन्धु नदी के इस्तेमाल को लेकर तीखे विवाद हुए। 1960 में विश्व बैंक की मदद से भारत और पाकिस्तान ने ‘सिंधु-जल संधि‘ पर दस्तख़त किए यह संधि अब भी कायम है। कच्छ के रन में सरक्रिक की सीमारेखा को लेकर दोनों देशों के बीच मतभेद हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच इन सभी मामलों के बारे में वार्ताओं के दौर चल रहे हैं।

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भारत और उसके अन्य पड़ोसी देश

बांग्लादेश और भारत के बीच गंगा और ब्रह्यपुत्र नदी के जल में हिस्सेदारी सहित कई मुद्दों पर मतभेद हैं। भारतीय सरकारों के बांग्लादेशश्श्श् सेश् नाखुश होने के कारणों में भारत में अवैध आप्रवास पर ढाका के खंडन, भारत-विरोधी इस्लामी कट्टरपंथी जमातों को समर्थन, भारतीय सेना को पूर्वोत्तर भारत में जाने के लिए अपने इलाके से रास्ता देने से बांग्लादेश के इंकार, ढाका के भारत को प्राकृतिक गैस निर्यात न करने के फैसले तथा म्यांमार को बांग्लादशी इलाके से होकर भारत को प्राकृतिक गैस निर्यात न करने देने जैसे मसले शामिल हैं। बांग्लादेश की सरकार नदी-जल में हिस्सेदारी के सवाल पर इलाके के दादा की तरह बरताव करती है। इसके अलावा भारत की सरकार पर चटगाँव पर्वतीय क्षेत्र में विद्रोह को हवा देने; बांग्लादेश के प्राकृतिक गैस में सेंधमारी करने और व्यापार में बेईमानी बरतने के भी आरोप हैं। विभेदों के बावजूद भारत और बांग्लादेश कई मसलों पर सहयो करते हैं। बांग्लादेश भारत के ‘लुक ईस्ट‘ और 2014 से ‘एक्ट ईस्ट‘ नीति का हिस्सा है। इस नीति के अन्तर्गत म्यांमार के ज़रिए दक्षिण-पूर्व एशिया से संपर्क साध ने की बात है। आपदा-प्रबंधन और पर्यावरण के मसले पर भी दोनों देशों ने निरंतर सहयोग किया है। भातर और नेपाल के बीच मधुर संबंध हैं और दोनों देशों के बीच एक संधि हुई है। इस संधि के तहत दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे के देश में बिना पासपार्ट (पारपत्र) और वीजा के आ-जा सकते हैं और काम कर सकते हैं। नेपाल की चीन के साथ दोस्ती को लेकर भारत सरकार ने अक्सर अपनी अप्रसन्नता जतायी है। नेपाल सरकार भारत-विरोधि तत्त्वों को खिलाफ कदम नहीं उठाती। इससे भी भारत नाखुश है। नपाल में बहुत से लोग यह सोचते हैं कि भारत की सरकार नेपाल के अंदरूनी मामलों में दखल दे रही है और उसके नदी जल तथा पनबिजली पर आँख गड़ए हुए है। चारां तरफ से जमीन से घिरे नेपाल को लगता है कि भारत उसको अपने भूक्षेत्र से होकर समुद्र तक पहुँचने से रोकता है। बहरहाल भारत-नेपाल के संबंध एकदम दोनों देश व्यापार, वैज्ञानिक सहयोग, साझे प्राकृतिक संसाध न, बिजली उत्पादन और जल प्रबंधन ग्रिड के मसले पर एक साथ हैं। श्रीलंका और भारत की सरकारां के संबंधां में तनाव इस द्वीप में ज़ारी जातीय संघर्ष को लेकर है। 1987 के सैन्य हस्तक्षेप के बाद से भारतीय सरकार श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में असलंग्नता की नीति पर अमल कर रही है। भारत सरकार ने श्रीलंका के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत किए हैं। इससे दोनों देशां के संबंध मज़बूत हुए हैं। भारत के भूटान के साथ भी बहुत अच्छे रिश्ते हैं और भूटानी सरकार के साथ कोई बड़ा झागड़ा नहीं है। भातर भूटान में पनबिजली की बड़ी परियोजनाओं में हाथ बँटा रहा है। इस हिमालयी देश के विकास कार्यां के लिए सबसे ज्यादा अनुदान भारत से हासिल होता है। मालदीव के साथ भारत के संबंध सौहार्दपूर्ण तथा गर्मजाशी से भरे हैं। 1988 में श्रीलंका से आए कुछ भाड़े के तमिल सैनिकों ने मालदीव पर हमला किया। मालदीव ने जब आक्रमण रोकने के लिए भारत से मदद माँगी तो भारतीय वायुसेना और नौसेना ने तुरंत कार्रवाई की। भारत ने मालदीव के आर्थिक विकास, पर्यटन और मत्स्य उद्योग में भी मदद की है। भारत का आकार बड़ा है और वह शक्तिशाली है। इसकी वज़ह से अपेक्षाकृति छोटे देशां का भारत के इरादों को लेकर शक करना लाजिमी है। दूसरी तरफ, भारत सरकार को अक्सर महसूस होता है कि उसके पड़ोसी देश उसका बेज़ा फायदा उठा रहे हैं। भारत नहीं चाहता कि इन दोशों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो। दक्षिण एशिया के सारे झागड़े सिर्फ भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच ही नहीं है। नेपाल-भूटान तथा बांग्लादेशश्श्श्-म्यांमार के बीच जातीय मूल के नेपालियों के भूटान आप्रवास के मसले पर मतभेद रहे हैं। बांग्लादेश और नेपाल के बीच हिमालयी नदियों के जल की हिस्सेदारी को लेकर खटपट है।

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शांति और सहयोग

अनेक संघर्षों के बावजूद दक्षिण एशिया के देश आपस में दोस्ताना रिश्ते तथा सहयोग के महत्त्व को जहचानते हैं। दक्षेस (साउथ एश्यि एसोशियन फॉर रिजनल को ऑपरेशन SAARC) दक्षिण एशियाई देशों द्वारा बहुस्तरीय साधनों से आपस में सहयोग करने की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। इसकी शुयआत 1985 में हुई। दक्षेस के सदस्य देशां ने सन् 2002 में ‘दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार-क्षेत्र समझौते‘ (SAFTA) पर दस्तख़त किये। इसमें पूरे दक्षिण एशिया के लिए मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने का वायदा है। यदि दक्षिण के सभी देश अपनी सीमारेखा के आर-पार मुक्त-व्यापार पर सहमत हो जाएँ तो इस क्षेत्र में शांति और सहयोग के एक नए अध्याय की शुरूआत हो सकती है। इस समझौते पर 2004 में हस्ताक्षर हुए और यह समझौता 1 जनवरी 2006 से प्रभावी हो गया। इस समझौते का लक्ष्य है कि इन देशों के बीच आपसी व्यापार में लगने वाले सीमा शुल्क को कम कर दिया जाए। कुछ छोटे देश मानते हैं कि ‘साफ्टा’की ओट लेकर भारत उनके बाज़ार में सेंध मारना चाहता है। भारत सोचता है कि ‘साफ्टा’से इस क्षेत्र के हर देश को फायदा होगा और क्षेत्र में मुक्त व्यापार बढ़ने से राजनीतिक मसलों पर सहयोग ज्यादा बेहतर होगा। भारत और पाकिस्तान के संबंध कभी खत्म न होने वाले झागड़ों और हिंसा की एक कहानी जान पड़ते हैं फिर भी तनाव को कम करने और शांति बहाल करने के लिए इन देशों के बीच लगातार प्रयास हुए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता और महत्त्वपूर्ण हस्तियाँ दोनों देशों के पंजाब वाले हिस्से के बीच कई बस-मार्ग खुले हैं। अब वीज़ा आसानी से मिल जाते हैं। चीन और संयुक्त राज्य अमरीका दक्षिण एशिया की राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। पिछले दस वर्षों में भारत और चीन के संबंध बेहतर हुए हैं। सन् 1991 के बाद से इनके आर्थिक संबंध ज़्यादा मज़बूत हूए हैं। शीतयुद्ध के बाद दक्षिण एशिया में अमरीकी प्रभाव तेजी से बढ़ा है। अमरीका ने शीतयुद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों से अपने संबंध बेहतर किए हैं। वह भातर-पाक के बीच लगातार मध्यस्त्थ की भूमिकह निभा रहा है। अमरीका में दक्षिण एशियाई मूल के लोगों की संख्या अच्छी-खासी हैं। फिर, इस क्षेत्र की जनसंख्या और बाजार का आकार भी भारी भरकम है। इस कारण इस क्षेत्र की सुरक्षा और शांति के भविष्य से अमरीका के हित भी बधें हुए हैं।

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6. अंतर्राट्रीय संगठन | Antarrashtriya sangathan class 12

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय 6अंतर्राट्रीय संगठन का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। Antarrashtriya sangathan class 12

अध्याय 6
अंतर्राट्रीय संगठन

इस अध्याय में हम सोवियत संघ के बिखरने के बाद अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका के बारे में पढ़ेंगे। सुधार की प्रक्रियाओं और उनकी कठिनाइयों की एक मिसाल संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा-परिषद् में होने वाला बदलाव है। इस अध्याय का अंत इस सवाल से किया गया है कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ ऐसे विश्व में कोई भूमिका निभा सकता है जिसमें किसी एक महाशक्ति का दबदबा हो। इस अध्याय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कुछ अन्य अंतराष्ट्रीय  संगठनों की भी चर्चा की गई है।

हमें अंतर्राष्ट्रीय संगठन क्यों चाहिए ?

संयुक्त राष्ट्रसंघ को आज की दूनिया का सबसे महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संगठन माना जाता है। अमूमन ‘यू एन‘ कहे जाने वाले इस संगठन को विश्व भर के बहुत-से लोग एक अनिवार्य संगठन मानते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन युद्ध और शांति के मामलों में मदद करते हैं। यह देशों की सहायता करते हैं। ताकि हम सब की बेहतर जीवन-स्थितियाँ कायम हों। अंतर्राष्ट्रीय संगठन का निर्माण विभिन्न राज्य ही करते हैं। और यह अनेक मामलों के लिए जवाबदेह होते हैं। एक बार इनका निर्माण हो जाए तो ये समस्याओं को शांतिपूर्ण समाधान में सदस्य देशों की मदद करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन एक और तरिके से मददगार होते हैं। राष्ट्रों के सामने अक्सर कुछ काम ऐसे आ जाते हैं जिन्हें साथ मिलकर ही करना होता है। इसकी एक मिसाल तो बीमारी ही है। कुछ रोगों को तब ही खत्म किया जा सकता है जब वातारण में ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ने से तापमान बढ़ रहा है। इससे समुद्रतल की ऊँचाई बढ़ने का ख़तरा है। अंततः सबसे प्रभावकारी समाधान तो यही है कि वैश्विक तापवृद्धि को रोका जाए। सहयोग की जरूरत को जहचानना और सचमुच में सहयोग करना दो अलग-अलग बातें हैं। सहयोग में आने वाली लागत का भार कौन कितना उठाए, सहयोग से होने वाले लाभ का आपसी बँटवारा न्यायोचित ढंग से कैसे हो, इन बिंदुओं पर सभी देश हमेशा सहमत नहीं हैं।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना

24 अक्टूबर 1945 : संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना। 24 अक्टूबर संयुक्त राष्ट्रसंघ दिवस।

30 अक्टूबर 1945 : भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल। होते एक अंतराष्ट्रीय संगठन सहयोग करने के उपाय और सूचनाएँ जुटाने में मदद कर सकता है। ऐसा संगठन नियमों और नौकरशाही की एक रूपरेखा दे सकता है ताकि सदस्यों को यह विश्वास हो कि आने वाली लागत में सबकी समुचित साझेदारी होगी, लाभ का बँटवारा न्यायोचित होगा और कोई सदस्य एक बार समझौते में शामिल हो जाता है तो वह इस समझौते नियम और शर्तें का पालन करेगा।

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संयुक्त राष्ट्रसंघ का विकास

पहले विश्वयुद्ध परिणामस्वरूप ‘लीग ऑव नेशंस‘ का जन्म हुआ। शुरूआती सफलताओं के बावजूद यह संगठन दूसरा विश्वयुद्ध (1939-45) न रोक सका। ‘लीग ऑव नेशंस‘ के उत्तरराधिकारी के रूप् में संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद सन् 1945 में इसे स्थापित किया गया। 51 देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्रसंघ के घाषणापत्र पर दस्तख़त करने के साथ इस संगठन की स्थापना हो गई। संयुक्त राष्ट्रसंघ का उद्देश्य है अंतर्राष्ट्रीय झागड़ों को रोकना और राष्ट्रों के बीच सहयोग की राह दिखाना। 2011 तक संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देशों की संख्या 193 थी। इसमें लगभग सभी स्वतंत्र देश शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में हरेक सदस्य को एक वोट हासिल है। इसकी सुरक्षा परिषद् में पाँच स्थायी सदस्य हैं। इनके नाम हैं – अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन। संयुक्त राष्ट्रसंघ का सबसे अधिक दिखने वाला सार्वजनिक चेहरा और उसका प्रधान प्रतिनिधि महासचिव होता है। वर्तमान महासचिव एंटोनियो गुटेरेस। वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के नौवें महासचिव हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की कई शाखाएँ और एजेंसियाँ हैं। सदस्य देशां के बीच युद्ध और शांति तथा वैर-विरोध पर आम सभा में भी चर्चा होती है और सुरक्षा परिषद् में भी। सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से निबटने के लिए कई एजेंसियाँ हैं जिनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन-(WHO) संयुक्त राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम (यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम-नदकच), संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवधिकार आयोग (यूनाइटेड नेशंस ह्यमन राइट्स कमिशन – नदीतब), संयुक्त राष्ट्रसंघ शरणार्थी उच्चायोग (यूनाइटेड नेशंस हाई कमिशन फॉर रिफ्यूजीज – नदीबत), संयक्त राष्ट्रसंघ बाल कोष (यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स फंड-नदपबबमि) और संयुक्त राष्ट्रसंघ शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, सोशल एंड कल्चरल आर्गनाइजेशन – नदमेबव) शामिल हैं।

शीतयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार

संयुक्त राष्ट्रसंघ के सामने दो तरह के बुनियादी सुधारों का मसला है। एक तो यह कि इस संगठन की बनावट और इसकी प्रक्रियाओं में सुधार किया जाए। दूसरे, इस संगठन के न्यायाधिकार में आने वाले मुद्दों की समीक्षा की जाए। लगभग सभी देश सहमत हैं कि दोनों ही तरह के ये सुधार ज़रूरी हैं। बनावट और प्रक्रियाओं में सुधार के अंतर्गत सबसे बड़ी बहस सुरक्षा परिसद् के कामकाज को लेकर है। इससे जुड़ी हुई एक माँग यह है कि सुरक्षा परिषद् में स्थायी और अस्थायी सदस्यां की संख्या बढ़यी जाए ताकि समकालीन विश्व राजनीति की वास्तविकताओं की इस संगठन में बेहतर नुमाइंद्गी हो सके। ख़ास तौर से एशिया, अफ्रिका और दक्षिण अमरीका के ज्यादा देशां को सुरक्षा-परिषद् में सदस्यता देने की बात उठ रही है। इसके अतिरिक्त, अमरीका और पश्चिमी देश संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट से जुड़ी प्रक्रियाओं और इसके प्रशासन में सुधार चाहते हैं। कुछ देश और विशेषज्ञ चाहते हैं कि यह संगठ शांति और सुरक्षा से जुड़े मिशनों में ज़्यादा प्रभावकारी अथवा बड़ी भूमिका निभाए जबकि औरों की इच्छा है कि यह संगठन अपने को विकास तथा मानवीय भलाई के कामों (स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, जनसंख्या नियंत्रण, मानवाधिकार, लिंगगत न्याय और सामाजिक न्याय) तक सीमित रखे। संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना दूसरे विश्वयुद्ध के तत्काल बाद सन् 1945 में हुई थी।

1991 से आए बदलावों में से कुछ निम्नलिखित हैं-

सोवियत संघ बिखर गया।

अमरीका सबसे ज़्यादा ताकतवर है।

सोवियत संघ के उत्तराधिकारी राज्य रूस और अमरीका के बीच अब संबंध कहीं ज़्यादा सहयोगात्मक हैं।

चीन बड़ी तेजी से एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है भारत भी तेजी से इस दिशा में अग्रसर है। एशिया की अर्थव्यवस्था अप्रत्याशित दर से तरक्की कर रही है। अनेक नए देश संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल हुए हैं

विश्व के सामने चुनौतियों की एक पूरी नयी कड़ी (जनसंहार, गृहयुद्ध, जातीय संघर्ष, आतंकवाद, परमाण्विक प्रसार, जलवायु में बदलाव, पर्यावरण की हानि, कहामारी) मौजूइ है।

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प्रक्रियाओं और ढाँचे में सुधार

सुधार होने चाहिए – इस सवाल पर व्यापक सहमति है लेकिन सुधार कैसे किया जाए का मसला कठिन है। इस पर सहमति कायम करना मुश्किल है।

सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में एक प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। प्रस्ताव में तीन मुख्य शिकायतों का जिक्र था-

सुरक्षा परिषद् अब राजनीतिक वास्ततिकताओं की नुमाइंदगी नहीं करती।

इसके फ़ैसलों पर पश्चिमी मूल्यों और हितों की छाप होती है और इन फै़सलों पर चंद देशां का दबदबा होता है।

सुरक्षा परिषद् में बराबर का प्रतिनिधित्व नहीं है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढाँचे में बदलाव की इन बढ़ती हुई माँगों के मद्देनज़र एक जनवरी 1997 को संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचित कोफी अन्नान ने जाँच शुरू करवाई कि सुधार कैसे कराए जाएँ।

इसके बाद के सालों में सुरक्षा परिषद् की स्थायी और अस्थायी सदस्यता के लिए मानदंड सुझाए गए। इनमें से कुछ निम्न्लिखित हैं। सुझाव आए कि एक नए सदस्य को –

बड़ी आर्थिक ताकत होना चाहिए।

बड़ी सैन्य ताकत होना चाहिए।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में ऐसे देश का योगदान ज़्यादा हो।

आबादी के लिहाज से बड़ा से बड़ा राष्ट्र हो।

ऐसा देश जो लोकतंत्र और मानवाधिकारों का सम्मान रकता हो।

यह देश ऐसा हो कि अपने भूगोल, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के लिहाज से विश्व की विविधता की नुमाइंदगी करता हो।

विश्व बैंक

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सन् 1944 में विश्व बैंक की औपचारिक स्थापना हुई। इस बैंक की गतितिधियाँ प्रमुख रूप से विकासशील देशां से संबंधित हैं। यह बैंक मानवीय विकास (शिक्षा, स्वास्थ्य), कृषि और ग्रामीण विकास (सिंचाई, ग्रामीण संवाएँ), आधारभूत ढाँचा (सड़क, शहरी विकास, बिजली) के लिए काम करता है। यह अपने सदस्य-देशों को आसान ऋण ओर अनुदान देता है। ज्यादा गरीब देशों को ये अनुदान वापिस नहीं चुकाने पड़ते।

इन कसौटियों में दिक्कत है। सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के लिए किसी देश की अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी होनी चाहिए अथवा उसके पास कितनी बड़ी सैन्य-ताकत होनी चाहिए? कोई राष्ट्र संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में कितनी योगदान करे कि सुरक्षा परिषद् की सदस्यता हासिल कर सके? कोई देश विश्व में बड़ी भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा हो तो उसकी बड़ी जनसंख्या उसमें बाधक है या सहायक?

सवाल यह भी है कि प्रतिनिधित्व मसले को कैसे हल किया जाए? क्या भौगोलिक दृष्टि से बराबरी के प्रतिनिधित्व का यह अर्थ है कि एशिया, अफ्रिका, लातिनी अमरीका और कैरेबियाई क्षेत्र की एक-एक सीट सुरक्षा परिषद् में होनी चाहिए? एक प्रश्न यह भी है कि क्या महादेशां के बजाए क्षेत्र और उपक्षेत्र को प्रतिनिधित्व का आधार बनाया जाए। प्रतिनिधित्व  का मसाल भूगोल के आधार पर क्यों हल किया जाए?

इसी से जुड़ा एक मसला सदस्यता की प्रकृति को बदलने का था। मिसाल के तौर पर, कुछ का जार था कि पाँच स्थायी सदस्यों को दिया गया निषेधाधिकार (वीटो पावर) खत्म होना चाहिए। अतः यह संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए उचित या प्रासंगिक नहीं है।

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सुरक्षा परिषद् में पाँच स्थायी और दस अस्थायी सदस्य हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में स्थिरता कायम करने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र में पाँच स्थायी सदस्यों को विशेष हैसियत दी गई। पाँच स्थायी सदस्यों को मुख्य फायदा था कि सुरक्षा-परिषद् में उनकी सदस्यता स्थायी होगी और उन्हें ‘वीटो‘ अधिक होगा। अस्थायी सदस्य दो वर्षो के लिए चुने जाते हैं

दो साल की अवधि तक अस्थायी सदस्य रहने के तत्काल बाद किसी देश को फिर से इस पद के लिए नहीं चुना जा सकता। अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन इस तरह से होता है कि विश्व के सभी महादेशों का प्रतिनिधित्व हो सके। अस्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार नहीं है। सुरक्षा-परिषद् में फैसला मतदान के जरिए होता है। हर सदस्य को एक वोट का अधिकार होता है। बहरहाल, स्थायी सदस्यों में से कोई एक अपने निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग कर सकता है और इस तरह वह किसी फैसले को रोक सकता है, भले ही अन्य स्थायी सदस्यों और सभी अस्थायी सदस्यों ने उस फैसले के पक्ष में मतदान किया हो।

निषेधाधिकार को समाप्त करने की मुहिम तो चली है लेकिन इस बात की भी समझ बनी है कि स्थायी सदस्य ऐसे सुधार के लिए शायद ही राजी होंगे। इस बात का खतरा है कि ‘वीटो‘ न हो तो सन् 1945  के समान इन ताकतवर देशों की दिलचस्पी संयुक्त राष्ट्रसंघ में न रहे; इससे बाहर रहकर वे अपनी रूचि के अनुसार काम करें और उनके जुड़ाव अथवा समर्थन के अभाव में यह सुगठन प्रभावकारी न रह जाए।

संयुक्त राष्ट्रसंघ का न्यायाधिकार

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने जब अपने अस्तित्व के 60 साल पूरे किए तो इसके सभी सदस्य देशों के प्रमुख इस सालगिरह को मनाने के लिए 2005 के सितम्बर में इकट्ठे हुए।

इस बैठक में शामिल नेताओं ने बदलते हुए परिवेश में संयुक्त राष्ट्रसंघ को ज्यादा प्रासंगिक बनाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने का फैसला किया –

शांति संस्थापक आयोग का गठन

यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को अत्याचारों से बचाने में असफल हो जाए तो विश्व-बिरादरी इसका उत्तरदायित्व ले – इस बात की स्वीकृति।

मानवाधिकार परिषद् की स्थापना (2006 के 19 जून से सक्रिय)।

सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवेलपमेंट गोल्स) को प्राप्त करने पर सहमति।

हर रूप-रीति के आतंकवाद की निंदा

एक लोकतंत्र-कोष को गठन

ट्रस्टीशिप काउंसिल (न्यासिता परिषद्) को समाप्त करने पर सहमति।

दुनिया में बहुत-से झगड़े चल रहे हैं। यह आयोग किसमें दखल दे? हर झगड़े में दखल देना क्या इस आयोग के लिए उचित अथवा संभव होगा?

अत्याचारों से निपटने में विश्व-बिरादरी की जिम्मेदारी क्या होगी? मानवाधिकार क्या है और इस बात को कौन तय करेगा कि किस स्तर का मानवाधिकार-उल्लंघन हो रहा है? मानवाधिकार-उल्लंघन की दशा में क्या कार्रवाई की जाए – इसे कौन तय करेगा? क्या आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा हो सकती है? संयुक्त राष्ट्रसंघ लोकतंत्र को देने में धन का इस्तमाल कैसे करेगा? ऐसे ही और भी सवाल किए जा सकते हैं।

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संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार और भारत

भारत का मानना है कि बदले हुए विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ की मज़बूती और दृढ़ता ज़रूरी है। भारत इस बात का भी समर्थन करता है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ विभिन्न देशां के बीच सहयोग बढ़ाने और विकास को बढ़ावा देने में ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाए।

भारत की एक बड़ी चिंता सुरक्षा परिषद् की संरचना को लेकर है। सुरक्षा-परिषद् की सदस्य संख्या स्थिर रही है जबकि संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में सदस्यों की संख्या खूब बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्य संख्या सन् 1965 में 11 से बढ़ाकर 15 कर दी गई थी लेकिन स्थायी सदस्यों की संख्या स्थिर रही।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में ज़्यादातर विकासशील सदस्य-देश हैं। इस कारण, सुरक्षा परिषद् के फैसलों में उनकी भी सुनी जानी चाहिए, क्योंकि इन फैसलों का उन पर प्रभाव पड़ता है।

भारत सुरक्षा परिषद् के अस्थायी और स्थायी, दोनों ही तरह के सदस्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी का समर्थक है।

विश्व व्यापार संगठन 

विश्व व्यापार संगठन (वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन-ूजव) – यह अंतर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक व्यापार के नियमों को तय करता है। इस संगठन की स्थापना सन् 1995 में हुई। यह संगठन ‘जेनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ‘ के उत्तराधिकारी के रूप में काम करता है जो दूसरे तिश्वयुद्ध के बाद अस्तित्व में आया था। इनके सदस्यों की संख्या 164 (29 जुलाई 2016 की स्थिति) है। हर फैसला सभी सदस्यों की सहमति से किया जाता है

भारत खुद भी पुनर्गठिन सुरक्षा-परिषद् में एक स्थायी सदस्य बनना चाहता है। भारत विश्व में सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है। भारत में विश्व की कुल-जनसंख्या का 1/5वाँ हिस्सा निवास करता है। इसके अतिरिक्त, भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांति बहाल करने के प्रयासों में भारत लंबे समय से ठोस भूतिका निभाता आ रहा है। सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी इसलिए भी उचित है क्योंकि वह तेजी से अंतर्राष्ट्रीय फलक पर आर्थिक-शक्ति बनकर उभर रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में नियमित रूप से अपना योगदान दिया है और यह कभी भी अपने भुगतान से चुका नहीं है। सुरक्षा परिषद् में इन्हीं महादेशों की नुमाइंदगी नहीं है। इन सरोकारों को देखते हुए भारत या किसी और देश के लिए निकअ भविष्य में संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बन पाना मुश्किल लगता है।

एक-ध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ

संयुक्त राष्ट्रसंघ एक-ध्रुवीय विश्व में जहाँ अमरीका सबसे ताकतवर देश है और उसका कोई गंभीर प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं – कारगर ढंग से काम कर पाएगा। क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका प्रभुत्व के विरूद्ध संतुलनकारी भूमिका निभा सकता है? क्या यह संगठन शेष विश्व और अमरीका को अपनी मनमानी करने से रोक सकता है?

अमरीका के ताकत पर आसानी से अंकुश नहीं लगाया जा सकता। पहली बात तो यह कि सोवियत संघ की गैर मौजूदगी में अब अमरीका एकमात्र महाशक्ति है। अपनी सैन्य और आर्थिक ताकत के बूते वह संयुक्त राष्ट्रसंघ या किसी अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठन की अनदेखी कर सकता है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के भीतर अमरीका का खास प्रभाव है। वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में सबसे ज़्यादा योगदान करने वाला देश है। अमरीका की वित्तीय ताकत बेजोड़ है। यह संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका भू-क्षेत्र में स्थित है और इस कारण भी अमरीका का प्रभाव इसमें बढ़ जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई नौकरशाह इसके नागरिक हैं। इसके अतिरिक्त, अगर अमरिका को लगे कि कोई प्रस्ताव उसके अथवा उसके साथी राष्ट्रों के हितों के अनुकूल नहीं है अथवा अमरिका को यह प्रस्ताव न जँचे तो अपने ‘वीटो‘ से वह उसे रोक सकता है। अपनी ताकत और निषेधाधिकार के कारण संकुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के चयन में भी अमरीका अपनी इस ताकत के बूते शेष विश्व में फूट डाल सकता है और डालता है, ताकि उसकी नीतियों का विरोध मद पड़ जाए।

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इस तरह संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका की ताकत पर अंकुश लगाने में ख़ास सक्षम नहीं। फिर भी, एकध्रुवीय विश्व में जहाँ अमरीकी ताकत का बोलबाला है – संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका और शेष विश्व के बीच विभिन्न मसलों पर बातचीत कायम कर सकता है और इस संगठन ने ऐसा किया भी है। अमरीकी नेता अक्सर संयुक्त राष्ट्रसंघ की आलोचना करते हैं लेकिन वे इस बात को समझते हैं कि झगड़ें और सामाजिक-आर्थिक विकास के मसले पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के जरिए 190 राष्ट्रों को एक साथ किया जा सकता है। जहाँ तक शेष विश्व की बात है तो उसके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ऐसा मंच है जहाँ अमरीकी रवैये और नीतियों पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। यह बात ठीक है कि वाशिंग्टन के विरूद्ध शेष विश्व शायद ही कभी एकजुट हो पाता है और अमरीका की ताकत पर अंकुश लगाना एक हद तक असंभव है, लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्रसंघ ही वह जगह है जहाँ अमरीका के किसी खास रवैये और नीति की आलोचना की सुनवाई हो और कोई बीच का रास्ता निकालने तथा रियायत देने की बात कही-सोची जा सके।

संयुक्त राष्ट्रसंघ में थोड़ी कमियाँ हैं लेकिन इसके बिना दुनिया और बदहाल होगी।

यह कल्पना करना कठिन है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे संगठन के बिना विश्व के सात अरब से भी ज़्यादा लोग कैसे रहेंगे। प्रौद्योगिक यह

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एमनेस्टी इंटरनेशनल

एमनेस्टी इंटरनेशनल एक स्वयंसेवी संगठन है। यह पूरे विश्व में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाता है। यह संगठन मानवाधिकारों से जुड़ी रिपोर्ट तैयार और प्रकाशित करता है। सरकारों को ये अक्सर नागवार लगती हैं क्योंकि एमनेस्टी का ज़्यादा जोर सरकार द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार पर होता है। बहरहाल, ये रिपोर्ट मानवाधिकारों से संबंधित अनुसंधान और तरफदारी में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

हयूमन राइट्स वॉच

यह भी मानवाधिकारों की वकालत और उनसे सवंधित अनुसंधान करने वाला एक अंतर्राष्टीय स्वयंसेवी संगठन है। यह अमरीका का सबसे बड़ा अंतर्राष्टीय मानवाधिकार संगठन है। यह दुनिया भर के मीडिया का खींचता है। इसने बायदी सुरंगों पर रोक लगाने के लिए, बाल सैनिक का प्रयोग रोकने के लिए और अंतर्राष्ट्रीय दंड न्यायलय स्थापित करने के लिए अभियान चलाने में मदद की है।

सिद्ध कर रही है कि आने वाले दिनों में विश्व में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जाएगी। इसलिए, संयुक्त राष्ट्रसंघ का महत्त्व भी निरंतर बढ़ेगा। लोगों को और सरकारों को संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा दूसरे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के समर्थन और उपयोग के तरीके तलाशने होंगे – ऐसे तरीके जो उनके हितों और विश्व बिरादरी के हितों से व्यापक धरातल पर मेल खाते हों। Antarrashtriya sangathan class 12

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7. समकालीन विश्व में सुरक्षा | Samkalin vishwa me suraksha class 12 notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय 7 समकालीन विश्व में सुरक्षा का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है।Samkalin vishwa me suraksha class 12 notes

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अध्याय 7
समकालीन विश्व में सुरक्षा

सुरक्षा क्या है, भारत के सुरक्षा सरोकार क्या-क्या हैं? यह अध्याय इन सवालों पर बहस करता है। इसमें सुरक्षा को समझने के दो नज़रियों की चर्चा की गई है।

सुरक्षा क्या है?

सुरक्षा का बुनियादी अर्थ है खतरे से आज़ादी।

जो लोग सुरक्षा विषयक अध्ययन करते हैं उनका कहना है कि केवल उन चीजों को ‘सुरक्षा‘ से जुड़ी चीजों का विषय बनाया जाय जिनसे जीवन के ‘केंद्रीय मूल्यों‘ को खतरा हो। तो फिर सवाल बनता है कि किसके केंद्रीय मूल्य? क्या पूरे देश के ‘केंद्रीय मूल्य‘? आम स्त्री-पुरूषों के केंद्रीय मूल्य? क्या नागरिकों की नुमाइंदगी करने वाली सरकार हमेशा ‘केंद्रीय मूल्यों‘ का वही अर्थ ग्रहण करती है जो कोई साधारण नागरिक?

जो मूल्य हमें प्यारे हैं कमोबेश उन सभी को बड़े या छोटे ख़तरे होते हैं। जब भी कोई राष्ट्र कुछ करता है अथवा कुछ करने में असफल होता है तो संभव है इससे किसी अन्य देश के केंद्रीय मूल्यों को हानि चहुँचती हो। जब भी राहगीर अपनी राह में लूटा जाता है तो आम आदमी के रोजमर्रा के जीवन को क्षति पहुँचती है। फिर भी, अगर हम सुरक्षा का इतना व्यापक अर्थ करें तो हाथ-पांव हिलाना भी मुश्किल हो जाएगा; हर जगह हमें ख़तरे नज़र आएँगे।

सुरक्षा का रिश्ता फिर बड़े गंभीर खतरों से है; ऐसे खतरे जिनको रोकने के उपाय न किए गए तो हमारे केंद्रीय मूल्यां को अपूरणीय क्षति पहुँचेगी।

सुरक्षा की विभित्र धारणाओं को दो कोटियों में रखकर समझने की कोशिश करते हैं यानी सुरक्षा की पारंपरिक और अपारंपरिक धारणा।

पारंपरिक धारणा – बाहरी सुरक्षा

सुरक्षा की पारंपरिक अवधारणा में सैन्य ख़तरे को किसी देश के लिए सबसे ज़्यादा ख़तरनाक माना जाता है। इस ख़तरे का स्रोत कोई दूसरा मूल्क होता है जो सैन्य हमले की धमकी देकर सुंप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता जैसे किसी देश के केंद्रीय मूल्यों के लिए ख़तरा पैदा करता है। सैन्य कार्रवाई से आम नागरिकों के जीवन को भी ख़तरा होता है।

बुनियादी तौर पर किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में तीन विकल्प होते है – आत्मसमर्पण करना तथा दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किए मान लेना अथवा युद्ध से होने वाले नाश को इस हद तक बढ़ाने के संकेत देना कि दूसरा पक्ष सहमकर हमला करने से बाज आये या युद्ध ठन जाय तो अपनी रक्षा करना ताकि हमलावर देश अपने मकसद में कामयाब न हो सके और पीछे हट जाए अथवा हमलावार को पराजित कर देना।

परंपरागत सुरक्षा-नीति का एक तत्त्व और है। इसे शक्ति-संतुन कहते हैं। पारंपरिक सुरक्षा-नीति का चौथा तत्त्व है गठबंधन बनाना। गठबंधन में कई देश शामिल होते हैं और सैन्य हमले को रोकने अथवा उससे रक्षा करने के लिए समवेत कदम उठाते हैं।

राष्ट्रीय हितों पर आधारित होते हैं और राष्ट्रीय हितों के बदलने पर गठबंधन भी बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमरीका ने सन् 1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ इस्लामी उग्रवादियों को समर्थन दिया लेकिन ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में अल-कायदा नामक समूह के आतंकवादियों ने जब 11 सितंबर 2001 के दिन उस पर हमला किया तो उसने इस्लामी उग्रवादियां के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

किसी देश की सुरक्षा को ज़्यादातर ख़तरा उसकी सीमा के बाहर से होता है। इसकी वज़ह है अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था।

किसी देश के भीतर हिंसा के ख़तरों से निपटने के लिए एक जानी-पहचानी व्यवस्था होती है – इसे सरकार कहते हैं। लेकिन, विश्व-राजनीति में ऐसी कोई केंद्रीय सत्ता नहीं जो सबके ऊपर हो।

बनावट के अनुरूप संयुक्त राष्ट्रसंघ अपने सदस्य देशों का दास है और इसके सदस्य देश जितनी सत्ता इसे हासिल होती है। अतः विश्व-राजनीति में हर देश को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद उठानी होती है।

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पारंपरिक धारण- आंतरिक सुरक्षा

सुरक्षा की परंपरागत धारणा का ज़रूरी रिश्ता अंदरूनी सुरक्षा से भी है। आंतरिक सुरक्षा ऐतिहासिक रूप से सरकारों का सरोकार बनी चली आ रही थी लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ऐसे हालात और संदर्भ सामने आये कि आंतरिक सुरक्षा पहले की तुलना में कहीं कम महत्त्व की चीज बन गई। सन् 1945 के बाद ऐसा जान पड़ा कि संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ अपनी सीमा के अंदर एकीकृत और शांति संपन्न हैं। अधिकांश यूरोपीय देशां, खासकर ताकतवर पश्चिमी मुल्कों के सामने अपनी सीमा के भीतर बसे समुदायों अथवा वर्गो से कोई गंभीर खतरा नहीं था। इस कारण इन देशों ने अपना ध्यान सीमापार के खतरों पर केंद्रित किया।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध का दौर चला और इस दौर में संयुक्त राष्ट्र अमरीका के नेतृत्व वाला पश्चिमी गुट तथा सोवियत संघ की अगुआई वाला साम्यवादी गुट एक-दूसरे के आमने-सामने थे। सबसे बड़ी बात यह कि दोनों गुटों को अपने ऊपर एक-दूसरे से सैन्य हमले का भय था। इसके अतिरिक्त, कुछ यूरापीय देशों को अपने उपनिवेशों में उपनिवेशीकृत जनता से खून-खराबे की चिंता सता रही थी। अब ये लोग आज़ादी चाहते थे। इस सिलसिले में हम याद करें कि 1950 के दशक में फ्रांस को वियतनाम अथवा सन् 1950 और 1960 के दशक में ब्रिटेन को केन्या में जूझना पड़ा।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जितने युद्ध हुए उसमें एक तिहाई अलग राष्ट्र बनाने पर तुले अंदर के अलगाववादी आंदोलनों से भी इन देशां को खतरा था। सन् 1946 से 1991 के बीच गृह युद्धों की संख्या में दोगुनी वृद्धि हुई है जो पिछले 200 वर्षो में सबसे लंबी छलांग है। पड़ोसी देशों से युद्ध और आंतरिक संघर्ष नव-स्वतंत्र देशों के सामने सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती थे।

सुरक्षा के पारंपरिक तरीके

सुरक्षा की परंपरागत धारणा में स्वीकार किया जाता है कि हिंसा का इस्ताल यथासंभव सीमित होना चाहिए। आज लगभग पूरा विश्व मानता है कि किसी देश को युद्ध उचित कारणों यानी आत्म-रक्षा अथवा दूसरों को जनसंहार से बचाने के लिए ही करना चाहिए। किसी युद्ध में युद्ध-साधनों का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए। युद्धरत् सेना को चाहिए कि वह संघर्षविमुख शत्रु, निहत्थे व्यक्ति अथवा आत्मसपर्मण करने लिए ज़रूरी हो और उसे एक सीमा तक ही हिंसा का सहारा लेना चाहिए।

सुरक्षा की परंपरागत धारणा इस संभावना से इन्कार नहीं करती कि देशों के बीच एक न एक रूप में सहयोग हो। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है – निरस्त्रीकरण, अस्त्र, नियंत्रण तथा विश्वास की बहाली। निरस्त्रीकरण की माँग होती है कि सभी राज्य चाहें उनका आकार, ताकत और प्रभाव कुछ भी हो, कुछ खास किस्म के हथियारों से बाज आयें। उदाहरण के लिए, 1972 की जैविक हथियार संधि (बॉयोलॉजिकल वीपन्स कंवेंशन-BWC) तथा 1992 की रासायनिक हथियार संधि (केमिल वीपन्स कंवेंशन- बूब ) में ऐसे हथियार को बनाना और रखना प्रतिबंधित कर दिया गया है। 155 से ज्यादा देशों ने (WBC)संधि पर और 181 देशों ने बूब संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। इन दोनों संधियों पर दस्तख़्त करने वालों में सभी महाशक्तियाँ शामिल हैं। लेकिन महाशक्तियाँ – अमरीका तथा सोवियत संघ सामूहिक संहार के अस्त्र यानी परमाण्विक हथियार का विकल्प नहीं छोड़ना चाहती थीं इसलिए दोनों ने अस्त्र-नियंत्रण का सहारा लिया। सन् 1972 की एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) ने अमरीका और सोवियत संघ को बैलेस्टिक मिसाइलों को रक्षा-कवच के रूप में इस्तेमाल करने से रोका।

संधि में दोनों देशों को सीमित संख्या में ऐसी रक्षा-प्रणाली तैनात करने की अनुमति थी लेकिन इस संधि ने दोनों देशों को ऐसी रक्षा-प्रणाली के व्यापक उत्पादक से रोक दिया। अमरीका और सोवियत संघ ने अस्त्र-नियंत्रण की कई अन्य संधियों पर हस्ताक्षर किए जिसमें परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी-NTP (1968) भी एक अथ। में अस्त्र नियंत्रण संधि ही थी क्यांकि इसने परमाण्विक हथियारों के उपार्जन को कायदे-कानून के दायरे में ला खड़ा किया। जिन देशों ने सन् 1967 से जहले परमाणु हथियार बना लिये थे या उनका परीक्षण कर लिया था उन्हें इस संधि के अंतर्गत इन हथियारों को रखने की अनुमति दी गई। जो देश सन् 1967 तक ऐसा नहीं कर पाये थे उन्हें ऐसे हथियारों को हासिल करने के अधिकार से वंचित किया गया। परमाणु अप्रसार संधि ने परमाण्विक आयुधों को समाप्त तो नहीं किया लेकिन इन्हें हासिल कर सकने वाले देशों की संख्या ज़रूर कम की।

सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में यह बात भी मानी गई कि विश्वास बहाली के उपायों से देशों के बीच हिंसाचार कम किया जा सकता है।

सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में माना जाता है कि सैन्य बल से सुरक्षा को खतरा पहुँचता है और सैन्य बल ही सुरक्षा को कायम रखा जा सकता है।

सुरक्षा की अपारंपकि धारणा

सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा सिर्फ सैन्य खतरों से संबंद्ध नहीं। इसमें मानवीय अस्तित्व पर चोट करने वाले व्यापक खतरों और आशंकाआ को शामिल किया जाता है।

सुरक्षा की आपरंपरिक धारणा में संदर्भी का दायरा बड़ा होता है। जब हम पूछते हैं कि ‘सुरक्षा किसको‘? तो सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा के प्रतिपादकों का जवाब होता है – ‘‘सिर्फ राज्य ही नहीं व्यक्तियों और समुदायों या कहें कि समूची मानवता को सुरक्षा की ज़रूरत है।‘‘ इसी कारण सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा को ‘मानवता की सुरक्षा‘ अथवा ‘विश्व-रक्षा‘ कहा जाता है।

मानवता की रक्षा का विचार जनता-जनार्दन की सुरक्षा को राज्यां की सुरक्षा से बढ़कर मानता है।

नागरिकों की विदेशी हमले से बचाना भले ही उनकी सुरक्षा की जरूरी शर्त्त हो लेकिन इतने भर को पर्याप्त नहीं माना जा सकता। सच्चाई यह है कि पिछले 100 वर्षो में जितने लोग विदशी सेना के हाथों मारे गए उससे कहीं ज़्यादा लोग खुद अपनी ही सरकारों के हाथों खेत रहे।

मानवता की सुरक्षा के सभी पैरोकार मानते हैं कि इसका प्राथमिक लक्ष्य व्यक्तियों की संरक्षा है। मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ लेने वाले पैरोकारों का तर्क है कि खतरों की सूची में अकाल, महामारी और आपदाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि युद्ध, जन-संहार और आतंकवाद साथ मिलकर जितने लोगों को मारते हैं उससे कहीं ज़्यादा लोग अकाल, महामारी और प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाते हैं।

मानवता की रक्षा के व्यापकतम नज़रिए में जोर ‘अभाव से मुक्ति‘ और ‘भय से मुक्ति‘ पर दिया जाता है। विश्वव्यापी खतरे जैसे वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग), अंतर्राष्ट्रीय आंतकवाद तथा एड्स और बर्ड फ्लू जैसी महामारियों के मद्देनज़र 1990 के दशक में विश्व-सुरक्षा की धारणा उभरी। कोई भी देश इन समस्याओं का समाधान अकेले नहीं कर सकता।

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उदाहरण के लिए, वैश्विक तापवृद्धि से अगर समुद्रतल दो मीटर ऊँच इठता है तो बांग्लादेश का 20 प्रतिशत हिस्सा डूब जाएगा; कमोबेश पूरा मालदीच सागर में समा जाएगा और थाइलैंड की 50 प्रतिशत फीसदी आबादी को खतरा पहुँचेगा। चूँकि इन समस्याओं की प्रकृति वैश्विक है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, भले ही इसे हासिल करना मुश्किल हो।

खतरे के नये स्रोत

सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा के दो पक्ष हैं-मानवता की सुरक्षा और विश्व सुरक्षा।

आतंकवाद का आशय राजनीतिक खून-खराबे से है जो जान-बूझकर और बिना किसी मुरौव्वत के नागरिकों को अपना निशाना बनाता है।

आतंकवाद के चिर-परिचित उदाहरण हैं विमान-अपहरण अथवा भीड़ भरी जगहों जैसे रेलगाड़ी, होटल, बाज़ार या ऐसी ही अन्य जगहों पर बम लगाना। सन् 2001 के 11 सितंबर को आतंकवादीयों ने अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला बोला।

आतंकवाद की अधिकांश घटनाएँ मध्यपूर्व, यूरोप, लातिनी अमरीका और दक्षिण एशिया में हुईं।

मानवाधिकार – मानवाधिकार को तीन कोटियों में रखा गया है। पहली कोटि राजनीतिक अधिकारों की है जैसे अभिव्यक्ति और सभा करने की आज़ादी। दूसरी कोटि आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की है। अधिकारों की तीसरी कोटि में उपनिवेशीकृत जनता अथवा जातीय और मूलवासी अल्पसंख्यकों के अधिकार आते हैं।

1990 के दशक से कुछ घटनाओं मसलन रवांडा में जनसंहार, कुवैत पर इराक का हमला और पूर्वी तिमूर में इंडोनिशियाई सेना के रक्तपात के कारण बहस चल पड़ी है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ को मानवधिकारों के हनन की स्थिति में हस्तक्षेप करना चाहिए या नहीं। कुछ का तर्क है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ का घोषणापत्र अंतर्राष्ट्रीय बिमारी को अधिकार देता है कि वह मानवाधिकारों की रक्षा के लिए हथियार उठाये। दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जिनका तर्क है कि संभव है, ताकतवर देशों के हितों से यह निर्धारित होता हो कि संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवाधिकार-उल्लंघन के किस मामले में कार्रवाई करेगा और किसमें नहीं।

खतरे का एक और स्रोत वैश्विक निर्धनता है। विश्व की जनसंख्या फिलहाल 760 करोड़ है और यह आँकड़ा 21वीं सदी के मध्य तक 1000 करोड़ हो जाएगां फिलहाल विश्व की कुल जनसंख्या-वृद्धि का 50 फीसदी सिर्फ 6 देशों – भारत, चीन, पाकिस्तान, नाइजीरिया, बांग्लादेश और इंडोनेशिया में घटित हो रहा है। अनुमान है कि अगले 50 सालों में दुनिया के सबसे गरीब देशों में जनसंख्या तीन गुनी बढ़ेगी जबकि इसी अवधि में अनेक धनी देशों की जनसंख्या घटेगी। प्रति व्यक्ति उच्च आय और जनसंख्या की कम वृद्धि के कारण धनी देश अथवा सामाजिक समूहों को और धनी बनने में मदद मिलती है जबकि प्रति व्यक्ति निम्न आय और जनसंख्या की तीव्र वृद्धि एक साथ मिलकर गरीब देशों और सामाजिक समूहों को और ग़रीब बनाते हैं।

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में असमानता अच्छी-खासी बढ़ी है। दुनिया में सबसे ज़्यादा सशस्त्र संघर्ष अफ्रीका के सहारा मरूस्थल के दक्षिणवर्ती देशों में होते हैं। यह इलाका दूनिया का सबसे गरीब इलाका है। 21 वीं सदी के शुरूआती समय में इस इलाके के युद्ध में शेष दुनिया की तुलना में कहीं ज़्यादा लोग मारे गए।

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में मौजूद गरीबी के कारण अधिकाधिक लोग बेहतर जीवन खासकर आर्थिक अवसरों की तलाश में उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में प्रवास कर रहे हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मतभेद उठ खड़ा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय कायदे कानून आप्रवासी (जो अपनी मर्जी से स्वेदेश छोड़ते हैं) और शरणार्थी (जो युद्ध, प्राकृतिक आपदा अथवा राजनीतिक उत्पीड़न के कारण स्वदेश छोड़ने पर मज़बूर होते हैं) में भेद करते हैं।

शरणार्थी अपनी जन्मभूमि को छोड़ते हैं जबकि जो लोग अपना घर-बार छोड़ चुके हैं। परंतु राष्ट्रीय सीमा के भीतर ही हैं उन्हें ‘‘आंतरिक रूप से विस्थापित जन‘‘ कहा जाता है। 1990 के दशक के शुरूआती सालों में हिंसा से बचने के लिए कश्मीर घाटी छोड़ने वाले कश्मीरी पंडित ‘‘आंतरिक रूप से विस्थापित जन‘‘ के उदाहरण हैं।

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में सशस्त्र संघर्ष और युद्ध के कारण लाखों लोग शरणार्थी बने और सुरक्षित जगह की तलाश में निकले हैं। 1990 से 1995 के बीच सत्तर देशों के मध्य कुल 93 युद्ध हुए और इसमें लगभग साढ़े 55 लाख लोग मारे गये। 1990 के दशक में कुल 60 जगहों से शरणार्थी प्रवास करने को मजबूर हूए और इसमें तीन को छोड़कर शेष सभी के मूल में सशस्त्र संघर्ष था।

एचआईवी-एड्स, बर्ड फ्लू और सार्स (सिवियर एक्यूट रेसपिरेटॅरी सिंड्रोम-ेंते) जैसी महामारियाँ आप्रवास, व्यवसाय, पर्यटन और सैन्य-अभियानों के जरिए बड़ी तेजी से विभिन्न देशों में फैली हैं।

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2003 तक पूरी दुनिया में 4 करोड़ लोग एचआईवी-एड्स से संक्रमित हो चुके थे। इसमें दो-तिहाई लोग अफ्रीका में रहते हैं जबकि शेष के 50 फीसदी दक्षिण एशिया में।

एबोला वायरस, हैन्टावायरस और हेपेटाइटिस-सी जैसी कुछ नयी महामारियाँ उभरी हैं जिनके बारे में जानकारी भी कुछ खास नहीं है। टीबी, मलेरिया, डेंगी, बुखार और हैजा जैसी पूरानी महामारियों ने औषिधि-प्रतिरोधक रूप धारण कर लिया है

1990 के दशक के उत्तरार्द्ध के सालों से ब्रिटेन ने ‘मैड-काऊ‘ कहामारी के भड़क उठने के कारण अरबों डॉलर का नूकसान उठाया है और बर्ड फ्लू के कारण कई दक्षिण एशियाई देशों को मुर्ग-निर्यात बंद करना पड़ा।

इन महामारियों का संकेत है कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाने की जरूरत है।

सहायोगमूलक सुरक्षा

सुरक्षा पर मंडराते इन अनेक अपारंपरिक ख़तरों से निपटने के लिए सैन्य संघर्ष की नहीं बल्कि आपसी सहयाग की ज़रूरत है। आतंकवाद से लड़ने अथवा मानवाधिकारों को बहाल करने में भले ही सैन्य-बल की कोई भूमिका हो (और यहाँ भी सैन्य-बल एक सीमा तक ही कारगर हो सकता है) लेकिन गरीबी मिटाने, तेल तथा बहुमूल्य धातुओं की आपूर्ति बढ़ाने, आप्रवासियों और शरणार्थियों की आवाजाही के प्रबंधन तथा महामारी के नियंत्रण में सैन्य-बल से क्या मदद मिलेगी यह कहना मुश्किल है। ऐसे अधिकांश मसलों में सैन्य-बल के प्रयोग से मामला और बिगड़ेगा।

सहयोग द्विपक्षीय (दो देशों के बीच), क्षेत्रीय, महादेशीय अथवा वैश्विक स्तर का हो सकता है। सहयोगमूलक सुरक्षा में विभिन्न देशों के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर की अन्य संस्थाएँ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन (संयुक्त राष्ट्रसंघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि) स्वयंसेवी संगठन (एमनेस्टी इंटरनेशनल, रेड क्रॉस, निजी संगठन, तथा दानदाता संस्थाएँ, चर्च और धार्मिक संगठन, मज़दूर संगठन, सामाजिक और विकास संगठन) व्यवसायिक संगठन और निगम तथा जानी-मानी हस्तियाँ (जैसे नेल्सन मंडेला, मदर टेरेसा) शामिल हो सकती हैं।

सहयोग मूलक सुरक्षा में भी अंतिम उपाय के रूप में बल-प्रयोग किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी उन सरकारों से निबटने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे सकती है जो अपनी ही जनता को मार रही हों अथवा गरीबी, महामारी और प्रलयंकारी घटनाओं की मार झेल रही जनता के दुख-दर्द की उपेक्षा कर रही हो।

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भारत – सुरक्षा की रणनीतियाँ

भारत को पारंपरिक (सैन्य) और अपारंपरिक खतरों का सामना करना पड़ा है।

सुरक्षा-नीति का पहला घटक रहा सैन्य-क्षमता को मज़बूत करना क्योंकि भारत पर पड़ोसी देशों से हमले होते हैं। पाकिस्तान ने 1947-48, 1965, 1971 तथा 1999 में और चीन ने सन् 1962 में भारत पर हमल किया। दक्षिण एशियाई इलाके में भारत के चारों तरफ परमाणु परीक्षण करने के फ़सले (1998) को उचित ठहराते हुए भारतीय सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क दिया था। भारत ने सन् 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया था।

भारत की सुरक्षा नीति का दूसरा घटक है अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कायदों और संस्थाओं को मज़बूत करना। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एशियाई एकता, अनौपनिवेशीकरण (कमबवसवदपेंजपवद) और निरस्त्रीकरण के प्रयासों की हिमायत की।

भारत ने हथियारों के अप्रसार के संबंध में एकता सार्वर्भाम और बिना भेदभाव नीति चलाने की पहलकदमी की जिसमें हर देश को सामूहिक संहार के हथियार (परमाणु, जैविक, रासायनिक) से संबद्ध बराबर के अधिकार और दायित्व हों।

भारत उन 160 देशों में शामिल है जिन्हेंने 1970 के क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए हैं। क्योटो प्रोटोकॉल में वैश्विक तापवृद्धि पर काबू रखने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के संबंध में दिशा निर्देश बताए गए हैं। सहयोगमूलक सुरक्षा की पहलकदमियों के समर्थन में भारत ने अपनी सेना संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांतिबहाली के मिशनों में भेजी है।

भारत की सुरक्षा रणनीति का तीसरा घटक है देश की अंदरूनी सुरक्षा-समस्याओं से निबटने की तैयारी। नागालैंड, मिजोरम, पंजाब और कश्मीर जैसे क्षेत्रों से कई उग्रवादी समूहों ने समय-समय पर इन प्रांतों को भारत से अलगाने की कोशिश की। भारत ने राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का पालन किया है। यह व्यवस्था विभिन्न समुदाय और जन-समूहों को अपनी शिकायतो को खुलकर रखने और सत्ता में भागीदारी करने का मौका देती है।

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भारत में अर्थव्यवस्था को इस तरह विकसित करने के प्रयास किए गए हैं कि बहुसंख्यक नागरिकों को गरीबी और अभाव से निज़ात मिले तथा नागरिकों के बीच आर्थिक असमानता ज़्यादा न हो। ये हमारा देश अब भी गरीब है और असामानताएँ मौजूद हैं। फिर भी, लोकतांत्रिक राजनीति से ऐसे अवसर उपलब्ध हैं कि गरीब और वंचित नागरिक अपनी आवाज़ उठा सकें। लोकतांत्रिक रीति से निर्वाचित सरकार के ऊपर दबाव होता है कि वह आर्थिक संवृद्धि को मानवीय विकास का सहगामी बनाए। इस प्रकार, लोकतंत्र सिर्फ राजनीतिक आदर्श नहीं है; लोकतांत्रिक शासन जनता को ज़्यादा सुरक्षा मुहैया कराने का साधन भी है। Samkalin vishwa me suraksha class 12 notes

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