इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 9 संस्कृत के पाठ 1 ईशस्तुति: (Class 9th Sanskrit Is stuti) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्ययन करेंगे।
प्रथम: पाठ:
ईशस्तुति:
पाठ-परिचय– प्रस्तुत पाठ ‘ईशस्तुतिः’ में तीन मंत्र विभिन्न उपनिषदों से तथा दो पद्य भगवद्गीता से लिए गए हैं। ये उपनिषदें हैं-तैत्तरीय, वृहदारण्यक तथा श्वेताश्वर । इस पाठ में संकलित मंत्र आनंदरूप परम शक्तिशाली, जगत् के कण-कण में विराजमान परमेश्वर की वंदना करते हुए प्रकाश की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते है। उपनिषद् एवं भगवद्गीता मानव जीवन की सर्वांगीणता के लिए रचित अमूल्य ग्रंथ हैं। उपनिषद् में अनेक ऋषि-मुनियों के विचार निबद्ध हैं तो भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण के महान संदेश। इस पाठ में उसी सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की प्रार्थना की गई है।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन ।।(तैत्तिरीय 2.9)
अर्थ-जहाँ वाणी मन के साथ ब्रह्म को न पाकर लौट जाती है अर्थात् जिस ईश्वर को वाणी तथा मन से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उन्हें जानकर अर्थात् उस ब्रह्मानंद को जाननेवाले किसी से भयभीत नहीं होते हैं।
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक तैत्तरीय उपनिषद् से संकलित ‘ईशस्तुतिः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें ईश्वर की महानता का गुणगान किया गया है।
ईश्वर आनन्द स्वरूप है। वह ईश्वर इतना महान् है कि वाणी तथा मन वहाँ तक नहीं पहुंच पाते हैं। अर्थात् जिसका वर्णन वाणी तथा मन नहीं कर सकते हैं, उस आनंदस्वरूप ब्रह्म को जाननेवाले किसी से भयभीत नहीं होते हैं। इसलिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वह आपको आनन्दस्वरूप ब्रह्म का ध्यान कर सांसारिक भय से मुक्त हो जाए।
Class 9th Sanskrit Is stuti
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।। (बृहदारण्यक 1.3.28)
अर्थ- हे ईश्वर! हमें) कुमार्ग नहीं, सन्मार्ग पर ले जाओ। अंधकार (अज्ञान) नहीं, प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले जाओ तथा मृत्यु नहीं, अमरता की ओर ले जाओ।
व्याख्या– प्रस्तुत पद्य बृहदारण्यक उपनिषद् से संकलित ‘ईशस्तुतिः’ पाठ से उन है। इसमें ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु! हमें सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो क्योंकि कुमार्ग मानव को नाश के गर्त में ढकेल देता है जबकि सन्मार्ग हमें मानवीय गुणों से अभिभूत कर देता है। इसी प्रकार हमें अज्ञानरूपी अंधकार से निकाल कर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करो। अंधकार को अज्ञान का प्रतीक माना गया है। व्यक्ति अपनी अज्ञानता के कारण सही-गलत में भेद नहीं कर पाता। फलतः सांसारिक माया-मोह में जकड़ा रह जाता है। इसलिए हे ईश्वर! हमें प्रकाश (ज्ञान) दो, ताकि हम सही-गलत में भेद कर सकें और ज्ञानरूपी प्रकाश के द्वारा जीवन-मूल्य को समझ सकें। पुनः स्तोता ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे ईश्वर! हमें अमरता प्रदान करो। हमारा चित्त अच्छे कर्मों में लगाओ। शुभ कर्म करने पर ही व्यक्ति अमर होता है। बुरा कर्म तो व्यक्ति को नाश की ओर ले जाता है, इसलिए सदैव महान् कार्य करने के लिए हमें प्रेरित करो।
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः। सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताध्विसः। साक्षी चेताः केवलो निर्गुणश्च ।।(श्वेताश्व० 6.11)
अर्थ-एक ईश्वर ही सभी प्राणियों में छिपा हुआ है। वह सर्वत्र व्याप्त तथा सारे प्राणियों के हृदय में निवास करने वाला, कर्मों पर नियंत्रण रखनेवाला, सभी वस्तुओं में रहनेवाला निर्गुण रूप में चैतन्य रूप साक्षी सिर्फ वही है।
व्याख्या–प्रस्तुत श्लोक श्वेताश्वर उपनिषद् से संकलित ईशस्तुतिः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें ईश्वर की सर्वव्यापकता तथा सारे प्राणियों में स्थित बताया गया है। ऋषि-मुनियों का मानना है कि ईश्वर निर्गुण होते हुए भी सभी प्राणियों में प्रच्छन्न रूप में विद्यमान है। तात्पर्य कि यह संसार उसी परमपिता परमेश्वर से संचालित होता है। सृष्टि के कण-कण में वही प्रतिभासित होता है। हर प्राणी अथवा वस्तु में वही निवास करता है, वह सर्वद्रष्टा है। भाव यह है कि ईश्वर जगत् का स्वामी, पालक, संचालक तथा सर्वद्रष्टा है।
Class 9th Sanskrit Is stuti
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः
त्वमस्य विश्वस्य परं निधनम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ।। (गीता 11.38)
अर्थ-हे अनन्तरूप ! तुम आदिदेव एवं पुरातन पुरुष हो। तुम इस संसार के (जीवों के) सर्वश्रेष्ठ (सबसे बड़ा) सहारा अर्थात् आश्रय हो। तुम सर्वज्ञ हो, तुम्हीं सब कुछ जानने वाले तथा श्रेष्ठ धाम हो। तुम्हारे द्वारा ही यह संसार रचा गया है। – व्याख्या-श्रीमद्भगवद्गीता से उद्धृत इन पंक्तियों में भगवान् कृष्ण (विष्णु) के | सम्बन्ध में कहा गया है कि ईश्वर ही संसार के आदिदेव, सनातन, अनन्तरूप है। संसार | की सारी वस्तुएँ उसी में समाहित हैं। अर्थात् इस जगत् के जानने योग्य सारी बातों को | जानने वाला परम धाम तथा सबका आश्रय (आधार) कृष्ण ही, अर्थात् विष्णु ही है। तात्पर्य कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है।
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ।। (गीता 11.40)
अर्थ-हे अनन्त सामर्थ्यवाले! आपके लिए आगे से तथा पीछे से भी नमस्कार है। हे सर्वात्मन् ! आपके लिए सब ओर से ही नमस्कार हो, क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।
व्याख्या-प्रस्तुत श्लोक श्रीमद्भागवत से संकलित ‘ईशस्तुतिः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें ईश्वर की विशालता का वर्णन किया गया है। स्तोता ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे सर्वात्मन् ! सारा संसार आप में ही व्याप्त है। आप ही सर्वशक्तिमान् पराक्रमी तथा अनंत सामर्थ्य वाले हैं। तात्पर्य कि ईश्वर ही विभिन्न रूपों में प्रतिभासित होता है। सर्वत्र उसी सर्वशक्तिमान् ईश्वर की ज्योति जगमग करती है। अर्थात् ईश्वर के सिवा कुछ भी सत्य नहीं है। ईश्वर ही सत्य है।
Bihar Board Class 10th Social Science
Class 9th Sanskrit Is stuti Video
Achha hai. Samjhne men saralta aati hai viswas yogy hai.dhanybad
Hello
Nice