द्वितीयः पाठः लोभाविष्टः चक्रध्रः | Class 9th Sanskrit Lobhavist Chakradhar

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 2 लोभाविष्टः चक्रध्रः (Class 9th Sanskrit Lobhavist Chakradhar) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

 

द्वितीयः पाठः

लोभाविष्टः चक्रध्रः

पाठ परिचय प्रस्तुत पाठ ‘लोभाविष्टः चक्रधरः’ पंचतंत्र नामक प्राचीन नीतिकथा संग्रह से लिया गया है। इस कथासंग्रह के लेखक विष्णुशर्मा को माना जाता है। पाँच भागों (तंत्रों) में विभक्त होने के कारण इसे पंचतंत्र कहा जाता है। मित्रभेद, मित्रसम्प्राप्ति, काकोलूकीय, लब्धप्रणांश तथा अपरीक्षित कारक। इनकी कथाएँ गद्य में हैं जिनके बीच अनेक पद्य भी नीतिश्लोक के रूप में है। सामान्यतः पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर ये नीति कथाएँ प्रस्तुत है किंतु पाँचवे तन्त्र में मनुष्यों की ही कथाएँ हैं। प्रस्तुत पाठ इसी तन्त्र का संकलित अंश है जिसमें अधिक लोभ का दुष्परिणाम दिखाया गया है।

कस्मिंश्चित् अध्ष्ठिाने चत्वारो ब्राह्मणपुत्राः मित्रातां गता वसन्ति स्म। ते दारिद्र्योपहता मन्त्रां चक्रुः-अहो धिगियं दरिद्रता। उक्तञ्च-

अर्थकिसी नगर में चार ब्राह्मण पुत्र मित्रता पूर्वक रहते थे। दरिद्रता से पीड़ि‍त उन्‍होंने आपस में विचार किया- अरे ऐसा जीवन व्‍यर्थ है। कहा गया है-

वरं वनं व्याघ्रगजादिसेवितं
जनेन हीनं बहुकण्टकावृतम् ।
तृणानि शय्या परिधनवल्कलं
न बन्धुमध्ये धनहीनजीवितम् ।।

अर्थ- (अपनी दरिद्रता से पिड़ि‍त चारों ब्राह्मण विचार करते हैं कि) बाघ-हाथियों से युक्‍त, निर्जन, काँटों से आच्‍छादित, घास पर सोना तथा वल्‍कल वस्‍त्र पहनकर जीवन-निर्वाह करना बेहतर है, परन्‍तु अपने भाई-बन्‍धु के बीच गरीबी का जीवन बिताना अर्थात् धन से हीन रहना अति कष्‍टदायक होता है।

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‘तद्गच्छामः कुत्राचिदर्थाय’ इति संमन्त्रय स्वदेशं परित्यज्य प्रस्थिताः। क्रमेण गच्छन्तः ते अवन्तीं  प्राप्ताः। तत्रा क्षिप्राजले कृतस्नाना महाकालं प्रणम्य यावन्निर्गच्छन्ति, तावद्भैरवानन्दो नाम योगी सम्मुखो बभूव।  तेन ते पृष्टाः- कुतो भवन्तः समायाताः? किं प्रयोजनम्?

ततस्तैरभिहितम्- वयं सिद्धियात्रिकाः। तत्रा यास्यामो यत्रा ध्नाप्तिर्मृत्युर्वा भविष्यतीति। एष निश्चयः।  उक्तञ्च-

अर्थ- ऐसी सलाह करके वे अपना देश (स्थान) छोड़कर कहीं धनार्जन के लिए जाते हैं। इस प्रकार जाते हुए वे अवन्ती (उज्जैन) पहुँच जाते हैं। वहाँ (वे) शिप्रा नदी में स्नान करके महाकालेश्वर महादेव को प्रणाम करके जैसे ही निकलते हैं, तभी भैरवानंद नाम का कौल संन्यासी मिल गए। उन्होंने उनलोगों से पूछा-आप लोग कहाँ से आए हैं और आने का उद्देश्य क्या है ? तब उनके द्वारा कहा गया—हमलोग सिद्धयात्री हैं, जहाँ जाएँगे, वहाँ धन की प्राप्ति होगी या मृत्यु । ऐसा निश्चित है। और कहा गया है

अभिमतसि(रशेषा भवति हि पुरुषस्य पुरुषकारेण ।
दैवमिति यदपि कथयसि पुरुषगुणः सो{प्यदृष्टाख्यः ।।

अर्थ-उद्योगी (परिश्रमी) व्यक्ति की सारी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं, गुणवान् व्यक्ति को भाग्य भी मदद करता है जबकि वह भी अदृष्ट नामधारी कहलाता है।

व्याख्या-प्रस्तुत श्लोक विष्णुशर्मा लिखित पंचतंत्र नामक ग्रंथ के पाँचवे तंत्र ‘अपरीक्षित कारक’ से संकलित है। इसमें उद्योगी (परिश्रमी) व्यक्ति की विशेषता बताई गई है। लेखक का कहना है कि भाग्य भी उसी व्यक्ति की मदद करता है जो स्वयं उद्यमशील होता है। उद्यमशील व्यक्ति अपने परिश्रम के बल पर सारी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य कि दुर्भाग्य के समय व्यक्ति का सारा प्रयास निष्फल हो जाता है। अतएव उद्यम (परिश्रम) के साथ-साथ व्यक्ति को भाग्यवान् भी होना आवश्यक होता है, तभी व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होता है।

तत्कथ्यतामस्माकं कश्चि(नोपायः। वयमप्यतिसाहसिकाः। उक्त×च-

अर्थ-इसलिए हमें धन प्राप्ति का कोई उपाय बताएँ। हमलोग भी अति साहसी हैं। और कहा भी गया है

महान्त एव महतामर्थं साध्यितुं क्षमाः ।
ट्टते समुद्रादन्यः को बिभर्ति वडवानलम् ।।

अर्थ-‘महापुरुष में ही महान कार्य करने की शक्ति होती है, जैसे—समुद्र के सिवा वडवानल को कौन धारण कर सकता है अर्थात् जिस प्रकार समुद्र के अतिरिक्त वडवानल को दूसरा कोई धारण नहीं कर सकता है, उसी प्रकार महापुरुष महान् कार्य सम्पन्न करने के लिए क्षमा को अपनाते हैं।

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व्याख्या- ‘पंचतंत्र’ से संकलित प्रस्तुत पद्य के माध्यम से रचनाकार ने बताना यह चाहा है कि महान बनने के लिए व्यक्ति को महान् कार्य करना पड़ता है। इसके लिए उस व्यक्ति को महान् त्याग अथवा महान् कष्ट सहन करने के लिए तैयार रहना पड़ता है। जिस प्रकार समुद्र अपने अन्दर आग को छिपाए रहता है, उसी प्रकार महापुरुष अपने अन्दर क्षमा धारण किये रहते हैं। तात्पर्य कि संसार में श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति

को कठिन-से-कठिन कार्य करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है। जो समस्याओं को _देखकर भयभीत हो जाता है, उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती। इसी उद्देश्य की पूर्ति

के लिए महापुरुष क्षमाशील हो जाते हैं जैसे समुद्र वडवानल को छिपाए रहता है।

भैरवानन्दो{पि तेषां सिद्ध्यर्थं बहूपायं सि(वर्तिचतुष्टयं कृत्वा आर्पयत्। आह च- गम्यतां हिमालयदिशि, तत्रा  सम्प्राप्तानां यत्रा वर्तिः पतिष्यति तत्रा निधनमसन्दिग्ध्ं प्राप्स्यथ। तत्रा स्थानं खनित्वा निधि्ं गृहीत्वा निवर्त्यताम्। तथानुष्ठिते तेषां गच्छतामेकतमस्य हस्तात् वर्तिः निपपात। अथासौ यावन्तं प्रदेशं खनति तावत्ताम्रमयी  भूमिः। ततस्तेनाभिहितम्- ‘अहो! गृह्यतां स्वेच्छया ताम्रम्।’ अन्ये प्रोचुः- ‘भो मूढ! किमनेन क्रियते?  यत्प्रभूतमपि दारिद्र्यं न नाशयति। तदुत्तिष्ठ, अग्रतो गच्छामः। सो{ब्रवीत्- ‘यान्तु भवन्तः नाहमग्रे यास्यामि।’  एवमभिधय ताम्रं यथेच्छया गृहीत्वा प्रथमो निवृत्तः।

अर्थ- भैरवानन्द ने भी उनकी सफलता (कार्य सिद्धि) के लिए अनेक उपाय करके सिद्धबत्ती को चार भाग करके उन्हें दे दिया और कहा–हिमालय की ओर जाओ, वहाँ जाने पर जहाँ बत्ती गिरेगी, वहाँ निस्संदेह खजाना पाओगे। उस स्थान को खोदकर धन (खजाना) को लेकर लौट जाओ।

वैसा कहने पर जाते हए उनमें से एक के हाथ से बत्ती गिर गई। इसके बाद जैसे ही वह जमीन को खोदता है, वैसे ही ताँबे से पूर्ण भूमि दिखाई दी। तब उसके द्वारा कहा गया—अरे ! अपनी इच्छा भर ताँबे को ग्रहण करो। दूसरों ने कहा-अरे मूर्ख । यह क्या करते हो? इससे अधिक दरिद्रता दूर नहीं होगी। इसलिए, उठो, आगे चलें। वह बोला—आप लोग जाएँ, मैं आगे नहीं जाउँगा। ऐसा कहकर पहला ब्राह्मण कुमार इच्छा भर ताँबे को लेकर चला गया।

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ते त्रायो{प्यग्रे प्रस्थिताः। अथ कि×चन्मात्रां गतस्य अग्रेसरस्य वर्तिः निपपात, सो{पि यावत्  खनितुमारभते तावत् रूप्यमयी क्षितिः। ततः प्रहर्षितः आह- गृह्यतां यथेच्छया रूप्यम्। नाग्रे गन्तव्यम्। किन्तु  अपरौ अकथयताम्- आवामग्रे यास्यावः। एवमुक्त्वा द्वावप्यग्रे प्रस्थितौ। सो{पि स्वशक्त्या रूप्यमादाय निवृत्तः।

अथ तयोरपि गच्छतोरेकस्याग्रे वर्तिः पपात। सो{पि प्रहृष्टो यावत् खनति तावत् सुवर्णभूमिं दृष्ट्वा  प्राह- ‘भोः गृह्यतां स्वेच्छया सुवर्णम्। सुवर्णादन्यन्न कि×चदुत्तमं भविष्यति।’ अन्यस्तु प्राह- ‘मूढ! न  कि×चद् वेत्सि। प्राक्ताम्रम् ततो रूप्यम्, ततः सुवर्णम्। तन्नूनम् अतःपरं रत्नानि भविष्यन्ति। तदुत्तिष्ठ, अग्रे  गच्छावः। किन्तु तृतीयः यथेच्छया स्वर्णं गृहीत्वा निवृत्तः।

अर्थ-वे तीनों आगे की ओर चल पड़े। इसके बाद थोड़ी ही दूर जाने पर आगे-आगे चलनेवाले के आगे बत्ती गिर गई। वह भी जैसे ही जमीन को खोदना आरंभ करता है,

वैसे ही चाँदी से भरी हुई जमीन दिखाई दी। तब प्रसन्नतापूर्वक बोला—इच्छा भर चाँदी ग्रहण करो। आगे नहीं जाना चाहिए। लेकिन अन्य दोनों ने कहा-हम दोनों आगे जाएँगे। ऐसा कहकर वे दोनों भी चल दिए। वह भी अपनी शक्ति भर चाँदी लेकर चला गया।

इसके बाद इन दोनों के जाते हुए में से एक के आगे बत्ती गिर गई। वह भी प्रसन्न होकर जैसे ही जमीन को खोदता है, वैसे ही स्वर्णमय भूमि को देखकर बोला-अरे! इच्छा भर सोना ग्रहण करो। सोने से बढ़कर दूसरा कुछ भी बहुमूल्य नहीं होता। दूसरे ने कहा—मूर्ख ! (तुम) कुछ भी नहीं जानते हो। पहले ताँबा, फिर चाँदी, उसके बाद सोना मिला । तब निश्चय ही (अब) अति मूल्यवान् रत्न होगा। वह उठकर, आगे बढ़ जाता है। लेकिन तीसरा इच्छा भर सोना लेकर लौट जाता है।

अनन्तरं सो{पि गच्छन्नेकाकी ग्रीष्मसन्तप्ततनुः पिपासाकुलितः मार्गच्युतः इतश्चेतश्च बभ्राम। अथ  भ्राम्यन् स्थलोपरि पुरुषमेकं रुध्रिप्लावितगात्रां भ्रमच्चक्रमस्तकमपश्यत्। ततो द्रुततरं गत्वा तमवोचत्- ‘भोः को  भवान्? किमेवं चक्रेण भ्रमता शिरसि तिष्ठसि?

तत् कथय मे यदि कुत्राचिज्जलमस्ति। एवं तस्य प्रवदतस्तच्चक्रं तत्क्षणात्तस्य शिरसो ब्राह्मणमस्तके आगतम्।

सः आह- किमेतत्?स आह-  ममाप्येवमेतच्छिरसि आगतम्। स आह- तत् कथय, कदैतदुत्तरिष्यति? महती मे वेदना वर्तते।

’ स आह- ‘यदा  त्वमिव कश्चिद् धृतसिद्धवर्तिरेवमागत्य त्वामालापयिष्यति तदा तस्य मस्तके गमिष्यति। ’ इत्युक्त्वा स गतः। अतः उच्यते।

अर्थ-इसके बाद वह अकेले जाते हुए गर्मी से व्याकुल, प्यास से पीड़ित रास्ते से भटक कर इधर-उधर घूमने लगा। इसके बाद घूमते हुए किसी जगह एक व्यक्ति को खून से लथपथ सिर पर घूमते हुए चक्र (चक्का) में देखा। तब तेजी से जाकर उसको कहा-अरे! आप कौन हैं ? आप के सिर पर यह घूमता हुआ चक्र क्यों है ? मुझे बताइए कि जल कहाँ है?

इस प्रकार उसके कहने पर वह चक्र अतिशीघ्र उसके सिर से ब्राह्मण के सिर पर आ गया। उसने (ब्राह्मण ने) कहा-यह क्या ? वह बोला-मेरे सिर पर भी चक्र इसी प्रकार आ गया था। उसने कहा–बताओ कि यह कब उतरेगा ? मुझे काफी पीड़ा हो रही है। वह बोला-जब तुम्हारे ही तरह कोई धृतसिद्ध बत्ती के साथ आकर तुमको कहेगा तब उसके सिर पर (चक्र) चला जाएगा।

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अतिलोभो न कर्तव्यो लोभं नैव परित्यजेत् ।
अतिलोभाभिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके ।।

अर्थ- मनुष्य को न तो अधिक लोभ करना चाहिए और न ही (उसका) त्याग करना चाहिए, क्योंकि अतिलोभ के कारण व्यक्ति के मस्तक पर चक्र घूमता है।

व्याख्या–प्रस्तुत श्लोक विष्णु शर्मा द्वारा लिखित ‘पंचतंत्र के पाँचवें तंत्र अपरीक्षित तंत्र से संकलित तथा लोभाविष्टः चक्रधरः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें नीतिकार ने अतिलोभ से होनेवाले दुष्परिणाम पर प्रकाश डाला है।

नीतिकार का कहना है कि जिस प्रकार चक्रधर को अपने अतिशय लोभ के कारण घूमते हुए चक्र का कष्ट सहन करना पड़ा, उसी प्रकार जो व्यक्ति अधिक लोभ करते हैं, उन्हें अनेक प्रकार के कष्टों को सहना पड़ता है। तात्पर्य कि एक निश्चित सीमा तक लोभ करना क्षम्य होता है अन्यथा वह दुःख का कारण बन जाता है। हर क्षण व्यक्ति को इस बात का ख्याल रखना चाहिए।

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