तृतीयः पाठः यक्षयुध्ष्ठिरसंवादः | Yudhishthir Samvad Class 9th Sanskrit

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 3 यक्षयुध्ष्ठिरसंवादः (Yudhishthir Samvad Class 9th Sanskrit) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

 

तृतीयः पाठः
यक्षयुध्ष्ठिरसंवादः
पाठ-परिचय- प्रस्तुत’ पाठ ‘यक्षयुधिष्ठिर संवाद’ महाभारत के वनपर्व से संकलित है। वनवास की अवधि में पाण्डव वन-वन भ्रमण करते हैं। एकदिन वे एक सरोवर के पास गए, जहाँ युधिष्ठिर ने सरोवर के रक्षक एक अदृश्य यक्ष की दार्शनिक जिज्ञासाओं को अपने उत्तरों द्वारा शांत करते हैं। कथा के अनुसार अन्य भाई बिना उत्तर दिए ही सरोवर का जल पीना चाहते थे, जिस कारण यक्ष ने उन्हें अचेत कर दिया था। युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देकर न केवल यक्ष को प्रसन्न किया बल्कि अपने अचेत भाइयों का चैतन्य भी वापस माँगा। फलतः वे सब जीवित हो उठे। यक्ष एवं युधिष्ठिर के बीच हुए संवाद को यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

यक्षः- केन स्विदावृतो लोकः केनस्विन्न प्रकाशते ।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति ।।1।।

अर्थ- यक्ष ने कहा— संसार किस वस्‍तु से ढ़का हुआ है ? किस कारण प्रकाश नहीं पाता है ? किस कारण से आदमी मित्रों को छोड़ देता है ? और स्‍वर्ग किस लिए नहीं जा पाता है ?

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युध्ष्ठिरः- अज्ञानेनावृतो लोकस्तमसा न प्रकाशते ।
लोभात् त्यजति मित्राणि सग्‍डात् स्वर्गं न गच्छति ।।2।।

अर्थ- युधिष्ठिर ने कहा—संसार अज्ञान से ढका हुआ है। अँधेरे के कारण प्रकाश नहीं पाता है। लोभ के चलते आदमी मित्रों को छोड़ देता है और सांसारिक आसक्ति के कारण स्वर्ग नहीं जा पाता है। |
व्याख्या–प्रस्तुत श्लोक महाभारत के वनपर्व से संकलित तथा यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ पाठ से उद्धृत है। इसमें युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया है कि यह संसार अज्ञान से ढका हुआ है। अज्ञानता के कारण ज्ञानरूपी प्रकाश नहीं फैलता है। तात्पर्य कि अज्ञानीजन ज्ञान के महत्त्व को नहीं समझते हैं जिस कारण वे स्वार्थ में डूबे होते हैं और सांसारिक माया-मोह में फंसे रह जाते हैं, स्वर्ग नहीं जाते हैं। अर्थात् अज्ञानी व्यक्ति को शांति की प्राप्ति कभी नहीं होती है।

यक्षः- किं ज्ञानं प्रोच्यते राजन् कः शमश्च प्रकीर्तितः ।
दया च का परा प्रोक्ता किं चार्जवमुदाहृतम् ।।3।।

अर्थ —  हे राजन् ! ज्ञान किसे कहा जाता है? मुक्ति क्‍या है? उत्‍कृष्‍ट दया क्‍या है और सरलता किसे कहते हैं?

युध्ष्ठिरः- ज्ञानं तत्त्वार्थसम्बोध्ः शमश्चित्तप्रशान्तता ।
दया सर्वसुखैषित्वमार्जवं समचित्तता ।।4।।

अर्थ-युधिष्ठिर ने कहा-परब्रह्मपरमात्मा के सम्बध का बोध ज्ञान है। चित्त की शान्ति मुक्ति है। सबके लिए सुख की इच्छा दया है और समचित्तता सरलता है।
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक “यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ से उद्धृत है। युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देते हुए स्पष्ट किया है कि परमब्रह्म का बोध ही ज्ञान है। चित्त की शांति मुक्ति है, सबके सुख की कामना दया है तथा समचित्तता ही सरलता है। तात्पर्य यह है कि जिसे ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, वह सरल हृदय, दयावान् तथा शांतचित्त होता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी विषम परिस्थिति में विचलित होता, बल्कि सबकी शुभकामना प्रकट करता है तथा सबके साथ समान व्यवहार करता है।

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यक्षः- कः शत्रार्दुर्जयः पुंसां कश्च व्याध्रिनन्तकः ।
को वा स्यात् पुरुषः साधुरसाधुः पुरुषश्च कः ।।5।।

अर्थ— यक्ष ने कहा— मनुष्‍यों का अजेय शत्रु कौन है? अनंत रोग क्‍या हैᣛ? साधु कौन है? और असाधु कौन है?

युध्ष्ठिरः- क्रोध्ः सुदुर्जयः शत्रार्लोभो व्याध्रिनन्तकः ।
सर्वभूतहितः साधुरसाधुःर्निर्दयः स्मृतः ।।6।।

अर्थ- युधिष्ठिर ने कहा-मनुष्यों का अजेय शत्रु क्रोध है। लोभ कभी अन्त न होनेवाला रोग है। सब प्राणियों के हित में तत्पर साधु है और निर्दय व्यक्ति असाधु है।
व्याख्या प्रस्तुत श्लोक महर्षि व्यास रचित महाभारत के वनपर्व से संकलित है। युधिष्ठिर ने यक्ष के पूछने पर क्रोध एवं लोभ के विषय में अपना विचार प्रकट किया है कि क्रोध मनुष्य के अन्दर निवास करने वाले सारे जुल्मों का कारण है। यह मनुष्य का अजेय शत्रु है, क्योंकि क्रोध मनुष्य को विवेकशून्य बना देता है। लोभ सारे पापों का कारण है। लोभ के कारण ही मनुष्य निकृष्ट व्यक्ति के आगे-पीछे करता है तथा
अपमानित जीवन व्यतीत करता है। साधु उसे कहते हैं जो सबके कल्याण के लिए व्यग्र रहते हैं तो असाधु क्रूर स्वभाव के होते हैं तथा सबके साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार करते हैं।

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यक्षः- किं स्थैर्यमृषिभिः प्रोक्तं किं च धैर्यमुदाहृतम् ।
स्नानं च किं परं प्रोक्तं दानं च किमिहोच्यते ।।7।।

अर्थ- यक्ष बोला — ऋषियों ने स्थिरता किसे कहा है? धैर्य किसे कहा गया है? उत्तम स्‍नान किसे कहते हैं? और दान किसे कहा जाता है?

युध्ष्ठिरः- स्वर्ध्मे स्थिरता स्थैर्यं धैर्यमिन्द्रियनिग्रहः ।
स्नानं मनोमलत्यागो दानं वै भूतरक्षणम् ।।8।।

अर्थ-युधिष्ठिर ने कहा-अपने धर्म पर दृढ़ रहना स्थिरता है। इन्द्रियों को वश में रखना धर्म है। मन का मैल धो लेना अर्थात् मन को पवित्र बना लेना सान है और प्रणियों की रक्षा करना दान है।
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ पाठ से लिया गया है। इसमें युधिष्ठिर ने यक्ष द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा है कि अपने धर्म पर दृढ़ रहना स्थिरता है, इन्द्रियों को वश में रखना धैर्य है, मन को कुविचारों से मुक्त रखना स्नान है तथा जीवों की रक्षा करना दान है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जब दृढ़ता के साथ अपने नियमों का पालन करता है, अपने मन पर नियंत्रण रखता है, मन में आए बुरे विचारों का त्याग करता है तथा प्राणियों की रक्षा करता है तो ऐसा व्यक्ति निश्चित रूप में सच्चा मानव कहलाने का अधिकारी होता है, क्योंकि सारी इन्द्रियाँ उसके अधीन होती हैं। वह मानवीय गुणों से युक्त होता है।

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यक्षः- कः पण्डितः पुमाग्‍ज्ञेयो नास्तिकः कश्च उच्यते ।
को मूर्खः कश्च कामः स्यात् को मत्सर इति स्मृतः ।।9।।

अर्थ- यक्ष बोला — किस पुरूष को पंडित मानना चाहिए ? नास्तिक किसे कहा जाता है? मुर्ख कौन है? वासना क्‍या है? और मत्‍सर यानी ईर्ष्‍या-द्वेष या जलन रखने वाला किसे कहते हैं?

युध्ष्ठिरः- र्ध्मज्ञः पण्डितो ज्ञेयो नास्तिको मूर्ख उच्यते ।
कामः संसारहेतुश्च हृत्तापो मत्सरः स्मृतः ।।10।।

अर्थ- युधिष्ठिर ने कहा- धर्म के जानने वाले को पण्डित समझना चाहिए। मूर्ख नास्तिक होता है। सांसारिक जन्म और मरण का कारण वासना है और दूसरे को देखकर हृदय में जो जलन होती है उसे मत्सर कहते हैं।
व्याख्या— प्रस्तुत श्लोक ‘यक्षयुधिष्ठिर संवाद’ पाठ से उद्धृत है। इसमें युधिष्ठिर ने यक्ष द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा है कि पंडित वह जो धर्म के तत्व को जानता है अर्थात् मानवीय गुणों को जाननेवाला पंडित है तथा इन मानवीय गुणों के विरुद्ध चलने वाला नास्तिक कहलाता है। सांसारिक विषय-वासनाओं में लिप्त रहनेवाला अर्थात् संसार को सत्य समझने वाला मूर्ख कहलाता है तथा ईर्ष्या-द्वेष की आग में जलते रहना मत्सर है।

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