ग्राम-गीत का मर्म लेखक लक्ष्मी नारायण सुधांशु | Gram Geet ka Marm

इस पोस्‍ट में हमलोग लक्ष्मी नारायण सुधांशु रचित कहानी ‘ग्राम-गीत का मर्म(Gram Geet ka Marm)’ को पढ़ेंगे। यह कहानी समाजिक कुरितियों के बारे में है।

gram geet ka marm

Bihar Board Class 9 Hindi Chapter 3 ग्राम-गीत का मर्म

लेखक लक्ष्मी नारायण सुधांशु

Bihar Board Class 10th Social Science

पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘ग्राम-गीत का मर्म’ में लेखक लक्ष्मी नारायण सुधांशु ने ग्राम-गीत के मर्म का उद्घाटन करते हुए काव्य और जीवन में उसके महत्त्व का निरूपण किया है। लेखक का कहना है कि ग्राम-गीतों में मानव जीवन के उन प्राथमिक चित्रों के दर्शन होते हैं, जिनमें मनुष्य साधारणतः अपनी लालसा, वासना, प्रेम, घृणा, उल्लास तथा विषाद को समाज की मान्य धारणाओं से ऊपर नहीं उठा सका है और अपनी हृदयगत भावनाओं को प्रकट करने में उसने कृत्रिम शिष्टाचार का प्रतिबंध भी नहीं माना है। उनमें सर्वत्र रूढ़िगत जीवन ही नहीं है, बल्कि कहीं-कहीं प्रेम, वीरता, क्रोध कर्तव्य बोध का भी बहुत ही रमणीय, बाह्य तथा अन्तर्विरोध दिखाया गया है। जीवन की शुद्धता और भावों की सरलता का जितना मार्मिक वर्णन ग्राम-गीतों में मिलता है, उतना परवर्ती कला-गीतों में नहीं मिलता।

ग्राम-गीत ही कला गीत का आरंभिक रूप है। ग्राम-गीत वह जातीय आशु कवित्व है, जो कर्म या क्रीड़ा के ताल पर रचा गया है। गीत का उपयोग जीवन के महत्त्वपूर्ण समाधान के अतिरिक्त मनोरंजन भी है। स्त्री-प्रकृति में गार्हस्थ्‍य कर्म विधान की जो स्वाभाविक प्रेरणा है, उससे गीतों की रचना का अटूट संबंध है। स्त्रियाँ अपना शारीरिक श्रम हल्का करने के लिए गीत गाती हैं। इसके अलावे जन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह, पर्व-त्योहार आदि अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों में उल्लास तथा उमंग की प्रधानता रहती है। वैसे स्त्री-प्रकृति का अनुकरण करते हुए पुरुषों ने भी हल जोतने, नाव खेने तथा पालकी ढ़ोने आदि कामों के समय गाए जाने वाले गीतों की रचना की, परन्तु ग्राम-गीतों की प्रकृति स्त्रैण ही रही, पुरुषत्व का प्रभाव नहीं जम सका। कारण कि स्त्रियों के गीतों में कोमलता का भाव है, जबकि पुरुषों के गीतों में युद्ध की युद्धघोषणा का भाव। इस प्रकार ग्राम-गीतों में प्रेम एवं युद्ध का वर्णन मिलता है। अतः ग्राम-गीत हृदय की वाणी है, मस्तिष्क की ध्वनि नहीं।

लेखक के अनुसार, ग्राम-गीतों से ही काल्पनिक तथा वैचित्र्यपूर्ण कविताओं का विकास हुआ है और यही गीत क्रमशः सभ्य जीवन के अनुक्रम से कला-गीत के रूप में विकसित हो गया। ग्राम-गीत की रचना में जिस प्रकृति और संकल्प का विधान था, कलागीत में उसकी उपेक्षा करना समुचित न माना गया। कला-गीत संस्कृत तथा परिष्कृत होने के बावजूद ग्राम-गीतों के संस्कार से मुक्ति नहीं पा सका। इसका कारण यह है कि जबतक मानव प्रकृति को विषय मानकर काव्य रचनाएँ की जाती रहेंगी, तब तक यह संभव नहीं है। ग्राम-गीत की रचना की स्त्रैण प्रकृति कला गीत में आकर कुछ पौरूषपूर्ण हो गई। अतः ग्राम-गीत में स्त्री की ओर से पुरुष के प्रति प्रेम की जो आसन्नता थी, वह कला गीत में बहुधा पुरुष के उपक्रम के रूप में परिवर्तित होने लगी। राजा-रानी, राजकुमार या राजकुमारी अथवा एक विशिष्ट वर्ग के नायक को लेकर जो काव्य-रचना की गई, इसका मुख्य कारण यह है कि वैसे विशिष्ट व्यक्तियों के प्रति साधारण जनता के हृदय पर उनके महत्त्व की प्रतिष्ठा बनी हुई थी। ऐसे चरित्र को लेकर काव्य रचना करने में रसोत्कर्ष का काम सामाजिक धारणा के बल पर चल जाता था, फलतः कवि की प्रतिभा अपने चरित्र नायक की विशिष्टता सिद्ध करने में नष्ट हो जाता है। ग्राम-गीत की अब यह प्रवृत्ति काव्य-गीत में भी चलने लगी है। लेखक का मानना है कि एक दुःखी भिखारिणी भी हृदय की उच्चता में रानी को मात दे सकती है। इसलिए जैसे-जैसे उच्च वर्ग के प्रति विशिष्टता का भाव घटने लगा, निम्न वर्ग के प्रति हमारे हृदय में आदर का भाव बढ़ने लगा । हृदय की उच्चता या विशालता चाहे किसी में हो, उसका वर्णन करना ही कवि-कर्म है। ग्राम-गीत में दशरथ, राम, कौशल्या, सीता, लक्ष्मण आदि के नामों की चर्चा है। जैसे श्वसुर के लिए दशरथ, पति के लिए राम, सास के लिए कौशल्या तथा देवर के लिए लक्ष्मण सर्वमान्य हैं। ऐसे वर्णन कला-गीतों में चाहे विशेष महत्त्व प्राप्त न करें, किंतु ग्राम-गीत के ये मेरुदंड माने जाते हैं। मानव जीवन का पारस्परिक संबंध-सूत्र कुछ ऐसा विचित्र है कि जिस बात को हम एक समय और एक देश में बुरा समझते हैं। उसी बात को दूसरे समय तथा दूसरे देश में अच्छा मान लेते हैं। जिस प्रकार वैचित्र्यवाद को हमने अबुद्धिवाद कहकर तिरस्कृत किया, वहीं पश्चिमी काव्य जगत् में रोमांस के नाम पर फल-फूलकर अपने सौरभ से पूर्व को भी आकर्षित करने लगा। प्रेम-दशा जितनी व्यापकत्व विधायिनी होती है, जीवन में उतनी श्रेष्ठ कोई स्थिति नहीं होती। इसीलिए प्रेमिका अथवा प्रेमी प्रकृति के साथ अपने जीवन का जैसा साहचर्य मानते हैं, वैसा और कोई नहीं। मनोविज्ञान का यह तथ्य काव्य में एक प्रणाली के रूप में समाविष्ट कर लिया गया है। प्रिय के अस्तित्व की सृष्टि-व्यापिनी भावना से जीवन और जगत की कोई वस्तु अलग नहीं रह सकती, क्योंकि प्राण-भक्षक को भी रक्षक समझने की शक्ति प्रेम की शक्ति में है।

ग्राम-गीतों में ऐसे वर्णन बहुत हैं, जहाँ नायिका-अपने प्रेमी की खोज में बाघ, भालू, साँप आदि से पता पूछती चलती है। आदि कवि वाल्मीकि ने विरह-विह्वल राम के मुख से सीता की खोज के लिए न जाने कितने पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि से पता पुछवाया है। सीता का पता लगाने के लिए हनुमान को दूत बनाया गया। इसके बाद मेघदूत, पवनदूत, हंसदूत, भ्रमर दूत आदि कितने दूत प्रेम-संभार के लिए आ धमके। इसलिए वैज्ञानिक युग में टेलिफोन, टेलीग्राम, रेडियो आदि को भी दूत बनने की मर्यादा मिलनी चाहिए । कलागीतों में पशु-पक्षी, लता-द्रुम आदि से जो प्रश्न पूछे गए हैं, उनके उत्तर में वे प्रायः मौन रहे हैं। विरही याक्ष का मेघदूत भी मौन ही रहा है, किंतु ग्राम-गीत का दूत मौन नहीं रहा है।

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