इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 9 हिंदी पद्य भाग का पाठ तीन ‘गुरूगोविन्द सिंह के पद (Guru Gobind singh ke Pad)’ को पढृेंंगें, इस पाठ में गुरूगोविन्द सिंह ने मानवीय एकता के संबंध में अपना विचार प्रकट किया है
पद, कवि– गुरूगोविन्द सिंह
कोऊ भयो मुंडिया संन्यासी, कोऊ जोगी भयो,
कोऊ ब्रह्मचारी, कोऊ जतियन मानबो।
हिंदू तुरक कोऊ राफजी इमाम साफी,
मानस की जात सबै एकै पहचानबो।
करता करीम सोई राजक रहीम ओई,
दूसरों न भेद कोई भूल भ्रम मानबों।
एक ही सेव सबही को गुरुदेव एक,
एक ही सरूप सबै, एकै जीत जानबो।
अर्थ–कवि का कहना है कि इस समाज में कोई अपने को मुंडित सिर वाले संन्यासी कोई जोगी, कोई ब्रह्मचारी, कोई यति, कोई हिन्दू, कोई तुर्क, कोई अपने स्वामी को पीड़ित देखकर भागनेवाला, कोई अपने को धर्मगुरु कहता है। लेकिन इन सारे भेदों के बावजूद वह मूल रूप में मनुष्य है । इस प्रकार राम एवं रहीम दोनों एक ही हैं। उन्हें एकदूसरे से भिन्न मानना सर्वथा भूल या भ्रम है। सारा संसार एक ही गुरु रूप भगवान कीआराधना या सेवा करता है। अतः सबका रूप एक समान है तथा एक ही प्रकाश से सभी – ज्योतित या प्रकाशमान् है।
व्याख्या— प्रस्तुत छंद सिखों के दसवें तथा अंतिम गुरु गुरुगोविंद सिंह द्वारा रचितहै। इसमें कवि ने मानवीय एकता के संबंध में अपना विचार प्रकट किया है।कवि का कहना है कि सभी मनुष्य एक समान हैं, चाहे किसी भी जाति के क्यों न हों। अपनी सुविधा के लिए ये विभिन्न जातियों में विभक्त हो गए हैं। लेकिन मूल रूप में ये मनुष्य हैं जिसे कोई नकार नहीं सकता। हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। यह संसार एक ही ईश्वर की ज्योति से प्रकाशित है। धर्म तो मानव द्वारा सृजित है। अतएव इन सारे भेदभावों को त्यागकर हमें मिलजुल कर अन्याय का विरोध करने के लिए उठ खड़ा होना चाहिए, क्योंकि हम समान रूप से इस अन्याय के शिकार है।
कवि मानवमात्र की एकता के लिए व्यग्र है। वह एकत्वपूर्ण आत्मबोध के लिए ईश्वर की एकता, गुरु, स्वरूप तथा ज्योति की एकता की प्रतिष्ठा करना चाहता है। निष्कर्षतः कवि ने समाज के ऊपरी विभेदों की दीवार तोड़कर आंतरिक एकता स्थापित करने का भरपूर प्रयास किया है, ताकि लोगों में देश-प्रेम की भावना प्रबल हो सके। प्रस्तुत छंद की भाषा पंजाबी मिश्रित ब्रज है।
जैसे एक आग ते कनूका कोट आग उठे,
न्यारे न्यारे कै फेरि आगमै मिलाहिंगे।
जैसे एक धूरते अनेक धूर धूरत हैं,
धूरके कनूका फेर धूरही समाहिंगे।
जैसे एक नदते तरंग कोट उपजत हैं,
पान के तरंग सब पानही कहाहिंगे।
तैसे विस्वरूप ते अभूत भूत प्रगट होइ,
ताही ते उपज सबै ताही मैं समाहिंगे।
अर्थ–कवि का कहना है जिस प्रकार आग के छोटे कण से करोड़ों आग के कणउत्पन्न हो जाते हैं लेकिन अलग-अलग होते हुए भी पुनः उसी आग में मिल जाते हैं या फिर एक ही धूल के कण अनेक खंडों में विभक्त होने केबाद पुनः मिट्टी का रूप धारण कर लेते हैं। नदी या समुद्र में लहरें अलग-अलग दिखाई देती हैं लेकिन सभी लहरें एक ही जल से उठती हैं। उसी प्रकार निराकार परमब्रह्म से उत्पन्न ये पंचभौतिक शरीर वालेजीव पुनः उसी परमात्मा के दिव्य प्रकाश में समाहित हो जाते हैं । अर्थात् हर वस्तु जहाँ से उत्पन्न होती है, उसे पुनः उसी में मिलना पड़ता है।
व्याख्या– प्रस्तुत छंद गुरुगोविंद सिंह द्वारा रचित है। इसमें कवि ने जीवन-मरण के महान् दार्शनिक पक्ष को उद्घाटित किया है।
कवि का कहना है कि संसार अनित्य है, सिर्फ ईश्वर ही सत्य है । जीव जीवन-मरण के कारण आता-जाता रहता है, परन्तु ईश्वर न तो जन्म लेता है और न ही मरता है। वह अजर, अमर, व्यापक तथा बहुरूपी है । वहआवश्यकतानुसार विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, लेकिन उसका रूप विश्वरूप है। कवि इस पंचभौतिक शरीर वालों के संबंध में अपना विचार प्रकट करते हुए कहता है कि ये जहाँ से आते हैं, मरणोपरान्त पुनः उसी में मिल जाते हैं।
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Guru Gobind singh ke Pad class 9 hindi Video
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जैसे एक आग ते कनूका कोट आग उठे,
न्यारे न्यारे कै फेरि आगमै मिलाहिंगे।
जैसे एक धूरते अनेक धूर धूरत हैं,
धूरके कनूका फेर धूरही समाहिंगे।
जैसे एक नदते तरंग कोट उपजत हैं,
पान के तरंग सब पानही कहाहिंगे।
तैसे विस्वरूप ते अभूत भूत प्रगट होइ,
ताही ते उपज सबै ताही मैं समाहिंगे।