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हिन्द-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन कक्षा 10 इतिहास – Hind Chin me Rashtrawadi Andolan

April 25, 2021 by Tabrej Alam Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के इतिहास (History) के पाठ 3 ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan ) “हिन्द-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन” के बारे में जानेंगे । इस पाठ में हिन्‍द चिन्‍ह में राष्‍ट्रवादी आंदोलन के बारे में बताया गया है ।

Hind Chin me rastrawadi andolan

3. हिन्द-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

राष्ट्रवाद- राष्ट्रवाद एक ऐसी भावना है जो किसी विषेश भौगोलिक, सांस्कृतिक या सामाजिक परिवेश में रहने वाले लोगों में एकता का वाहक बनती है।

अर्थात्

राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे ख़ुद को साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं।

राष्ट्रवाद का अर्थ- राष्ट्र के प्रति निष्ठा या दृढ़ निश्चय या राष्ट्रीय चेतना का उदय,  उसकी प्रगति और उसके प्रति सभी नियम आदर्शों को बनाए रखने का सिद्धांत।

अर्थात्

अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम की भावना को राष्ट्रवाद कहते हैं।

3. हिन्द-चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

  • दक्षिण-पूर्व एशिया में फैला एक प्रायद्वीपीय क्षेत्र, जिसका क्षेत्रफल 2.80 लाख वर्ग कि.मी. है, जिसमें आज के वियतनाम, लाओस और कंबोडिया के क्षेत्र आते हैं।
  • वियतनाम के तोंकिन एवं अन्नाम कई शताब्दीयों तक चीन के कब्जे में रहा तथा दूसरी तरफ लाओस-कम्बोडिया पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव था।
  • चौथी शताब्दी में कम्बुज भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्र था।
  • 12वीं शताब्दी में राजा सुर्यवर्मा द्वितीया ने अंकोरवाट का मंदिर का निर्माण करवाया था, परन्तु 16वीं शताब्दी में कंबुज का पतन हो गया था।
  • इस प्रकार कुछ देशों पर चीन एवं कुछ देशों पर हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण ही यह हिन्द-चीन के नाम से जाना गया।
  • दक्षिण-पूर्व एशिया में फैला एक प्रायद्वीपीय क्षेत्र, जिसका क्षेत्रफल 2.80 लाख वर्ग कि.मी. है, जिसमें आज के वियतनाम, लाओस और कंबोडिया के क्षेत्र आते हैं।
  • वियतनाम के तोंकिन एवं अन्नाम कई शताब्दीयों तक चीन के कब्जे में रहा तथा दूसरी तरफ लाओस-कम्बोडिया पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव था।
  • चौथी शताब्दी में कम्बुज भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्र था।

व्यापारिक कंपनियों का आगमन और फ्रांसीसी प्रभुत्व

1498 ई. में वास्कोडिगामा ने भारत से जुड़ने की चाह में समुद्री मार्ग खोज निकाला तब पुर्तगाली ही पहले व्यापारी थे। पुर्तगाली व्यापारियों ने 1510 ई. में मलक्का को व्यापारिक केन्द्र बना कर हिन्द-चीनी देशों के साथ व्यापार शुरु किया था। उसके बाद स्पेन, डच, इंगलैंड और फ्रांसीसीयों का आगमन हुआ।

इन कंपनियों में फ्रांसीसियों को छोड़कर किसी ने इन भू-भागों पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व कायम करने का प्रयास नहीं किया, लेकिन फ्रांस शुरु से ही इस दिशा में प्रयासरत था।

20वीं शताब्दी के आरंभ तक सम्पूर्ण हिन्द-चीन फ्रांस की अधीनता में आ गया।

फ्रांस द्वारा उपनिवेश स्थापना के उद्देश्य

फ्रांस द्वारा हिन्द-चीन को अपना उपनिवेश बनाने का उद्देश्य डच एवं ब्रिटिश कंपनियों के व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना था।

औद्योगीकरण के लिए कच्चे मालों की आपूर्ति उपनिवेशों से होती थी एवं उत्पादित वस्तुओं के लिए बाजार भी उपलब्ध था।

पिछड़े समाजों को सभ्य बनाना विकसित यूरोपीय राज्यों का स्वघोषित दायित्व था।

एकतरफा अनुबंध व्यवस्था- एक तरफा अनुबंध व्यवस्था एक तरह की बंधुआ मजदूरी थी। वहाँ मजदूरों को कोई अधिकार नहीं था, जबकि मालिक को असिमित अधिकार था।

हिन्द-चीन में बसने वाले फ्रांसीसी को कोलोन कहे जाते थे।

हिन्द-चीन में राष्ट्रीयता का विकास

हिन्द-चीन ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan ) में फ्रांसीसी उपनिवेशवाद को समय-समय पर विद्रोहों का सामना तो प्रारंभिक दिनों से ही झेलना पड़ रहा था, परन्तु 20वीं शताब्दी के शुरू में यह और मुखर होने लगा।

1930 ई. में ‘फान-बोई-चाऊ‘ नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की जिसके नेता कुआंग दें थे।

फान बोई चाऊ ने ‘द हिस्ट्री ऑफ लॉस ऑफ वियतनाम‘ लिखकर हलचल पैदा कर दी।

सन्यात सेन के नेतृत्व में चीन में सत्ता परिवर्तन ने हिन्द-चीन के छात्रों ने प्रेरित होकर वियेतनाम कुवान फुक होई ( वियतनाम मुक्ति एशोसिएशन ) की स्थापना की।

1914 ई. में देशभक्तों ने वियतनामी राष्ट्रवादी दल नामक संगठन बनाया।

चीन का हिन्द-चीन के कृषि उत्पाद, व्यापार एवं मत्स्य व्यापार पर नियंत्रण था फिर भी ये मुख्य राजनिति से अलग रहते थे।

इसी कारण जनता ने इनसे क्रुद्ध होकर 1919 में चीनी-बहिष्कार आंदोलन किया था।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद कुछ उदारवादी नीतियाँ अपनाई गई।

कोचीन-चीन के लिए एक प्रतिनिधि सभा का गठन किया गया और उसके सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था की गयी थी।

1917 ई० में “न्यूगन आई क्वोक“ (हो-ची मिन्ह) नामक एक वियतनामी छात्र ने पेरिस मे ही साम्यवादियो का एक गुट बनाया।

हो-ची मिन्ह शिक्षा प्राप्त करने मास्को गया और साम्यवाद से प्रेरित होकर 1925 में ‘वियतनामी क्रांतिकारी दल‘ की गठन किया।

1930 के दशक की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने भी राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया।

द्वितीय विश्व युद्ध और वियतनामी स्वतंत्रता

जून 1940 ई० में फ्रांस जर्मनी से हार गया और फ्रांस में जर्मन समर्थित सत्ता कायम हो गयी।

उसके बाद जापान ने पूरे हिन्द-चीन पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व जमा लिया।

हो-ची-मिन्ह के नेतृत्व में देश भर के कार्यकर्ताओं ने ‘वियतमिन्ह‘ ( वियतनाम स्वतंत्रता लीग ) की स्थापना कर पीड़ित किसानों, बुद्धिजीवियों, आतंकित व्यापारियों सभी को शामिल कर छापामार युद्ध नीति का अवलंबन (अपनाना) किया।

1944 में फ्रांस जर्मनी के अधिपत्य से निकल गया तथा जापान पर परमाणु हमला के पश्चात् जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया।

इस स्थिति में जापान की सेनाएँ वियतनाम से निकलने लगी और फ्रांस के पास इतनी शक्ति नहीं थी कि खुद को पुनः हिन्द-चीन में स्थापित रख सके।

इसका लाभ उठाते हुए वियतनाम के राष्ट्रवादियों ने वियतमिन्ह के नेतृत्व में लोकतंत्रीय गणराज्य की स्थापना 2 सितम्बर 1945 ई. को करते हुए वियतनाम की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी, इस सरकार का प्रधान हो-ची-मिन्ह बनाए गए।

हिन्द चीन के प्रति फ्रांसीसी नीति

फ्रांस हिन्द-चीन में अपने डूबे सम्राज्य को बचाना चाहता था।

अतः उसने एक नये औपनिवेशिक तंत्र की योजना बनाई।

फ्रांस ने घोषणा की कि ’फ्रांस के विशाल सम्राज्य को एक यूनियन बना दिया जाएगा, जिसमें अधिनस्थ उपनिवेश शामिल रहेगें’।

इस महासंघ का एक अंग हिन्द-चीन भी होगा।

जापानी सेनाओ के हटते ही, फ्रांसीसी सेना जैसे ही सैगान पहुँची वियतनामी छापामारो ने भयंकर युद्ध किया और फ्रांसीसी सेना सैगान में ही फंसी रही।

अंततः 6 मार्च 1946 को हनोई-समझौता फ्रांस एवं वियतनाम के बीच हुआ जिसके तहत फ्रांस ने वियतनाम को गणराज्य के रूप में स्वतंत्र इकाई माना, साथ ही माना गया कि यह गणराज्य हिन्द चीन संघ में रहेगा और हिन्द चीन संघ फ्रांसीसी यूनियन में रहेगा।

फ्रांस ने कोचीन चीन में एक पृथक सरकार स्थापित कर लिया जिससे हनोई समझौता टूट गया। फ्रांस को कुछ वियतनामी प्रतिक्रियादी ताकतों का समर्थन मिल गया जिनके सहयोग से नवगठित सरकार चलने लगी।

अब तक हो ची मिन्ह की ताकत इतनी नहीं हुई थी कि फ्रांसीसी सेना का प्रत्यक्ष मुकाबला कर सके। अतः पुनः गुरिल्ला युद्ध शुरू हो गया।

इसी क्रम में गुरिल्ला सैनिकों ने दिएन-विएन-फु पर भयंकर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में फ्रांस बुरी तरह हार गया।

फ्रांस के लगभग 16000 सैनिकों को आत्म समर्पण करना पड़ा। इस तरह दिएन-विएन-फु पर साम्यवादियों का अधिकार हो गया।

अमेरकी हस्तक्षेप

अमेरिका जो अब तक फ्रांस का समर्थन कर रहा था, ने हिन्द-चीन में हस्तक्षेप की नीति अपनायी। साम्यवादियों के विरोध में इसकी घोषणा भी कर दी।

1954 में हिन्द-चीन समस्या पर एक वार्ता बुलाया गया, जिसे जेनेवा समझौता के नाम से जाना जाता है।

जेनेवा समझौता ने पूरे वियतनाम को दो हिस्सों में बाँट दिया।

हनोई नदी से सटे उत्तर के क्षेत्र उत्तरी वियतनाम और उससे दक्षिण में दक्षिणी वियतनाम अमेरिका समर्थित सरकार को दे दिया।

जेनेवा समझौता के तहत लाओस और कम्बोडिया को वैध राजतंत्र के रूप में स्वीकार किया गया।

लाओस में गृह-युद्ध

जेनेवा समझौता के तहत लाओस और कम्बोडिया को पूर्ण स्वतंत्र देश मान लिया गया। ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

जेनेवा समझौता के क्रियान्वयन की देखभाल करने के लिए एक त्रिसदस्यीय अंतराष्ट्रीय निगरानी आयोग का गठन किया गया, जिसके सदस्य भारत, कनाडा एवं पोलैण्ड थे।

25 दिसम्बर 1955 को लाओस में चुनाव के बाद राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ और सुवन्न फूमा के नेतृत्व में सरकार बनीं।

लाओस में तीन भाईयों के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष चालु हो गया तथा भयंकर गृहयुद्ध शुरू हो गया।

लाओस के गृह युद्ध में अमेरिका-रूस की परोक्ष सहभागिता ने एक बार फिर विश्वशांति को खतरे में डाल दिया। तब भारत ने जेनेवा समझौता के अनुरूप अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण आयोग को पुनर्जीवित करने की मांग उठायी।

अंततः इस समस्या पर 14 राष्ट्रों का एक सम्मेलन बुलाना तय हुआ, जिसमें लाओस के तीनों पक्षों की भागीदारी पर रूस अमेरिका भी सहमत थे। मई 1961 म यह सम्मेलन हुआ जिसमें सभी राजकुमारों ने संयुक्त मंत्रिमण्डल के गठन पर सहमति प्रदानकी और मंत्रिमण्डल भी बना, परन्तु अमेरिकी षड्यंत्र के कारण लाओस के विदेश मंत्री की हत्या हो गयी और गृह युद्ध पुनः शुरू हो गया। चूंकि अमेरिका लाओस में साम्यवादी प्रसार नहीं चाहता था, अतः चुनाव द्वारा सुवन्न फुमा को प्रधानमंत्री बनाया गया और सुफन्न बोंग उप प्रधानमंत्री बना। इससे असंतुष्ट पाथेट लाओ ने सन् 1970 में लाओस पर आक्रमण कर जार्स के मैदान पर कब्जा कर लिया। हालांकि अमेरिका ने इस युद्ध में जम कर बमबारी किया परन्तु पाथेट लाओ के आक्रमण को रोका नहीं जा सका।

सन् 1970 में लाओस पर आक्रमण और उसके बिगड़ती स्थिति की जिम्मेदारी अमेरिका पर सौंपा। अमेरिका के खुल कर युद्ध में आ जाने से यह जटिल स्थिति उत्पन्न हुई थी।

1971 में हजारों दक्षिणी वियतनामी सैनिकों ने लाओस में प्रवेश किया उनके साथ अमेरिकी सैनिक, युद्धक विमान एवं बमवर्षक हेलिकाप्टर भी थे।

इनका उद्देश्य हो-ची-मिन्ह मार्ग पर कब्जा करना था। पाथेट लाओ ने रूस और ब्रिटेन से अनुरोध किया कि वे अमेरिका पर दबाव डाल कर उन्हें रोकें।

परन्तु चीन ने अमेरिका को धमकी दी। पहले अमेरिका को लगा कि वह युद्ध जीत लेगा, परन्तु हो-ची-मिन्ह मार्ग क्षेत्र पर जा कर उसकी सेनाएँ फंस गयी। लाओस के प्रबल प्रतिरोध के कारण उसके लिए वापस लौटना ही मात्र एक उपाय था। इस तरह अमेरिका अपने आक्रमण में वामपंथ के प्रसार को रोक नहीं पाया।

कंबोडियायी संकट :

सन् 1954 ई० में स्वतंत्र राज्य बनने के बाद कम्बोडिया में संवैधानिक राजतंत्र को स्वीकार कर राजकुमार नरोत्तम सिंहानुक को शासक माना गया। नरोत्तम सिंहानुक 1954 से ही कम्बोडिया को गुटनिरपेक्षता एवं तटस्थता की नीति पर चलाना शुरू का दिया था। इसलिए कम्बोडिया दक्षिण पूर्व एशियाई सैन्य संगठन में शामिल नहीं हुआ। अमेरिका इन क्षेत्रो में अपना प्रभाव चाहता था, इसी कारण वह सिंहानुक से चिढ़ा हुआ था और थाईलैण्ड को उकसा कर कम्बोडिया को तंग करवा रहा था। अमेरिका की इस कूटनीतिक चाल के कारण 1963 में सिंहानुक ने उससे भी किसी तरह की मदद लेने से इंकार कर दिया। यह बात अमेरिका के लिए अपमान जनक थी। मई 1965 में उसने वियतनाम के साथ कम्बोडिया के सीमावर्ती गांवो पर आक्रमण कर दिया।

तब सिंहानुक ने अमेरिका से राजनयिक सम्बंध तोड़ लिए। आगे चलकर सन् 1969 में अमेरिका ने कम्बोडिया सीमा क्षेत्र में जहर की वर्षा हवाई जहाज से करवा दी, जिससे लगभग 40 हजार एकड़ भूमि की रबर की फसल नष्ट हो गयी। तब सिंहानुक ने मुआवजे की मांग अमेरिका से की एवं रूस की ओर झुकाव दिखाते हुए पूर्वी जर्मनी से राजनयिक सम्बंध बढ़ाने शुरू किये।

तत्कालीन दो गुटिय विश्व व्यवस्था में पूंजीवादी अमेरिका यह नही चाहता था कि कम्बोडिया साम्यवादी देशों के प्रति सहानुभूति रखें।

नरोत्तम सिंहानुक ने पेकिंग में निर्वासित सरकार का गठन कर जनरल लोन नोल की सरकार को अवैध घोषित कर दिया साथ ही राष्ट्रीय संसद को भंग कर दिया और जनता से मौजूदा सरकार को अपदस्थ करने की अपील की। अप्रैल 1970 से सिंहानुक ने नयी सरकार के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया, जिसमें उत्तरी वियतनाम एव वियतकांग सैनिको से भरपूर मदद मिल रही थी। नरोत्तम सिंहानुक की सेना विजयी होती हुयी राजधानी नामपेन्ह की ओर बढ़ रही थी। अमेरिका ने तुरंत इसमें हस्तक्षेप किया। दक्षिणी वियतनाम से अमेरिकी फौज कम्बोडिया में प्रवेश कर गयी और व्यापक संघर्ष शुरू हो गया। यह युद्ध बडा ही भयंकर था। ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

अमेरिकी राष्ट्रपति की इस नीति का व्यापक विरोध अमेरिकी भी कर रहे थे। राष्ट्रपति निक्सन को अपनी सेनाएं वापस बुलाने की घोषणां करनी पड़ी परन्तु दक्षिणी वियतनाम ने अपनी सेना कम्बोडिया में रहने देने की घोषण कर स्थिति को और जटिल बना दिया। अब लग रहा था कि चीन भी कम्बोडिया मामले में हस्तक्षेप करेगा।

इस तरह एक बार पुनः दक्षिण पूर्वी एशिया की सुरक्षा खतरे में पड़ गयी। स्थिति को भांपते हुए इन्डोनेशिया ने एशियायी देशों का सम्मेलन बुलाने का प्रस्ताव रखा। 16 मई 1970 को जकार्ता में एक सम्मेलन बुलाया गया। यद्यपि यह सम्मेलन सफल रहा परन्तु कम्बोडिया की स्थिति में कोई परिवर्तन नही आया।

कम्बोडियायी छापामारों, अमेरिकी सेना के बीच युद्धो, बमबारी नृशंश हत्याओं के इस दौर में ही 9 अक्टूबर 1970 को कम्बोडिया को गणराज्य घोषित किया गया। परन्तु सिंहानुक एव लोन नोल की सेनाओ में संघर्ष चलता रहा। पांच वर्ष पश्चात सिंहानुक ने निर्णायक युद्ध का ऐलान किया और उनकी लाल खुमेरी सेना विजय करती आगे बढ़ती गयी अंततः लोन नोल को भागना पड़ा। अपै्रल 1975 में कम्बोडियायी गृह युद्ध समाप्त हो गया। नरोत्तम सिंहानुक पुनः राष्ट्राध्यक्ष बने परन्तु 1978 में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। अब कम्बोडिया का नाम बदल कर कम्पुचिया कर दिया गया।

वियतनामी गृह युद्ध और अमेरिकाः

जेनेवा समझौता से दो वियतनामी राज्याें का जन्म तो अवश्य हो गया था परन्तु स्थायी शांति की उम्मीद नहीं के बराबर ही थी, क्योकि उत्तरी वियतनाम में जहाँ साम्यवादी सरकार थी वही दक्षिणी वियतनाम में पूंजीवाद समर्पित सरकार थी। जेनेवा समझौता में यह कहा गया था कि अगर जनता चाहे तो मध्य 1956 तक चुनाव कराकर पूरे वियतनाम का एकीकरण किया जाएगा। उसी समय से वियतनामी जनता उसके एकीकरण के पक्ष में आवाज उठाती रही थी जिसे उत्तरी वियतनाम का पूर्ण समर्थन था, जबकि दक्षिणी वियतनाम की जनता शांतिपूर्ण प्रयासो से चुक गयी, तो 1960 में ’वियतकांग’ (राष्ट्रीय मुक्ति सेना) का गठन कर अपने सरकार के विरूद्ध हिंसात्मक संघर्ष शुरू कर दी। 1961 ई० तक स्थिति इतनी विगड़ गयी कि दक्षिणी वियतनाम में आपात काल की घोषणा कर दी गयी और वहाँ गृह युद्ध शुरू हो गया।

अमेरिका जो दक्षिणी वियतनाम मे साम्यवाद के प्रभाव को रोकना चाहता था ने 1961 सितम्बर में “शांति को खतरा’ नाम से श्वेत पत्र जारी कर उतरी वियतनाम की हो ची मिन्ह सरकार को इस गृह युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराया और 1962 के शुरूआत में अपने 4000 सैनिको को दक्षिणी वियतनाम के मदद के लिए सौगॉन भेज दिया।

वास्तविकता यह थी कि न्योदिन्ह-दियम की तानाशाही अत्याचारो से जनता तंग आ चुकी थी, बौद्ध जनता धार्मिक असहिष्णुता के कारण आत्म दाह कर रही थी।

इसी को लेकर 1963 ई० में सेना ने विद्रोह कर न्यो-दिन्ह-दियम को मार दिया और सैनिक सरकार की स्थापना हुयी, परन्तु यह भी प्रतिक्रियावादी थी। इस तरह सरकारों का आना जाना लगा रहा मगर किसी की भी नीति नही बदली और वियतकांग का संघर्ष चलता रहा।

5 अगस्त 1964 को अमेरिका ने उत्तरी वियतनाम पर हमला कर कुछ सैनिक अड्डे तबाह कर दिए।

अमेरिका द्वारा शुरू किया गया यह युद्ध काफी हिंसक, बर्बर एवं यातनापूर्ण था। इस युद्ध में खतरनाक हथियारों, टैंकां एवं बमवर्षक विमानां का व्यापक प्रयोग किया गया था। साथ ही रासायनिक हथियारों नापाम, आरेंज एजेंट एव फास्फोरस बमों का जमकर इस्तेमाल किया गया था।

यह युद्ध उत्तरी वियतनाम के साथ-साथ वियतकांग एव वियतकांग समर्थक दक्षणी वियतनामी जनता सभी से लड़ा गया था। निर्दोष ग्रामीणों की हत्या कर दी जाती थी। उनकी औरतो व लड़कियों के साथ पहले सामूहिक बलात्कार किया जाता था, फिर उन्हें मार दिया जाता था और अंत में पूरे गांव को आग के हवाले कर दिया जाता था। 1967 ई० तक अमेरिका इसे इतने बम वियतनाम में वर्षाए जितना द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी ने इंग्लैण्ड के विरूद्ध नहीं गिराया था।

अमेरिका की इस तरह की कार्रवाइयों का विरोध राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर होने लगा। प्रसिद्ध दार्शनिक रसेल ने एक अदालत लगा कर अमेरिका को वियतनाम युद्ध के लिए दोषी करार दे दिया। इसके आर्थिक कुपरिणाम भी परिलक्षित होने लगे। प्रतिवर्ष 2 से 2.5 अरब डालर का अमेरिकी खर्च में वृद्धि हुयी। इसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था डाँवाडोल होने लगी। अंतराष्ट्रीय बाजार में डालर का मूल्य काफी नीचे गिर गया। परन्तु अमेरिका ने दक्षिणी वियतनाम को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था और समझौते के सारे प्रयासों को विफल करता हुआ युद्ध को जारी रखे हुए था।

दूसरी तरफ वियतनामी अब साम्यवाद या किसी अन्य बातो के लिए नही बल्कि अपने अस्तित्व और अपने राष्ट्र के लिए लड़ रहे थे।

वियतनाम में त्रि-अयू की कहानी भी सुनने को मिलता है जिसे इस समय देवी की तरह पूजा जाता था।

1968 के प्रारंभ में वियतकांग ने अमेरिकी शक्ति का प्रतिक पूर्वी पेंटागन सहित कई ठिकानो पर धावा बोल कर अमेरिकियों को काफी क्षति पहुँचाई। इन धावो ने यह स्पष्ट कर दिया कि वियतनाम के हौसले अभी भी काफी बुलंद है

और यह भी स्पष्ट हो गया कि वियतनामियों की रशद पहुँचाने वाला मार्ग हो ची मिन्ह काफी मजबूत है क्योंकि इसे बमबारियों से नष्ट नहीं किया जा सका था। वस्तुतः हो-ची मिन्ह मार्ग हनोई से चलकर लाओस, कम्बोडिया के सीमा क्षेत्र से गुजरता हुआ दक्षिणी वियतनाम तक जाता था, जिससे सैकड़ो कच्ची पक्की सड़के निकल कर जुड़ी थी। अमेरिका सैकड़ों बार इसे क्षतिग्रस्त कर चूका था, परन्तु वियतकांग और उसके समर्थित लोग तुरंत उसका मरम्मत कर लेते थे। इसी मार्ग पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से अमेरिका लाओस एवं कंबोडिया पर आक्रमण भी कर दिया था, परन्तु तीन तरफा संघर्ष में फंस कर उसे वापस होना पड़ा था। ( Hind Chin me Rashtrawadi Andolan )

अब अमेरिका भी शांति वार्ता चाहता था, परन्तु अपनी शर्तों पर।

अतः 1968 में पेरिस में शांति वार्ता शुरू हुई। अमेरिकी हठ के कारण 6 माह तक वार्ता एक ही जगह अटकी रही। वियतनामियों की मांग थी कि पहले बमबारी बंद हो फिर अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन अपनी सेनाएं हटाए।

इसी क्रम में 7 जून 1969 को वियतनामी शिष्ट-मण्डल ने दक्षणी वियतनाम के मुक्त क्षेत्र में वियतकांग के सरकारों के गठन की घोषणा की, जिसे रूस एवं चीन ने तुरंत मान्यता दे दी। इसी दरम्यान वियतनामी राष्ट्रीयता के जनक हो-ची-मिन्ह की मृत्यु हो गयी। लेकिन संघर्ष जारी रहा।

अमेरिकी असफलता और वियतनाम एकीकरणः

अब हॉलिबुड द्वारा अमेरिका के वियतनाम युद्ध को जायज ठहराने वाली फिल्मों के स्थान पर अमेरिका के ही अत्याचार पर फिल्में बनने लगी। दूसरी तरफ निक्सन अमेरिका राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल कर नया राष्ट्रपति बना।

अमेरिकी शर्ते

  • दक्षिण वियतनाम की स्वतंत्रता
  • अमेरिकी सेनाएं उस क्षेत्र में रहेगी
  • जब तब वियतकांग संघर्ष करेगा एवं दक्षिणी वियतनाम में आतंक मचाएगा बमबारी जारी रहेगा।
  • वियतनाम समस्या का जल्द समाधान की जिम्मेवारी उस पर सौंपी गयी। अन्तरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता ही जा रहा था। इसी समय ‘माई ली गाँव‘ की एक घटना प्रकाश में आयी। अमेरिकी सेना की आलोचना पूरे विश्व में होने लगी। तब राष्ट्रपति निकसन ने शांति के लिए पाँच सूत्री योजना की घोषणा की।

(1) हिन्द-चीन की सभी सेनाए युद्ध बंद कर यथा स्थान पर रहे।

(2) युद्ध विराम की देख-रेख अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक करेगे।

(3) इस दौरान कोई देश अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयत्न नही करेगा

(4) युद्ध विराम के दौरान सभी तरह की लड़ाईयाँ बंद रहेंगी

(5) युद्ध विराम का अंतिम लक्ष्य समूचे हिन्द चीन में संघर्ष का अंत होना चाहिए।

परन्तु इस शांति प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया। अमेरिकी सेनाए पुनः बमबारी शुरू कर दी। लेकिन अमेरिका अब जान चुका था कि उसे अपनी सेनाएं वापस बुलानी ही पड़ेगी। निक्सन ने पुनः आठ सुत्री योजना रखी। वियतनामियों ने इसे खारिज कर दिया। अब अमेरिका चीन को अपने पक्ष में करने में लग गया। 24 अक्टूबर 1972 को वियतकांग, उतरी वियतनाम, अमेरिका एवं दक्षिणी वियतनाम में समझौता तय हो गया, परन्तु दक्षिणी वियतनाम ने आपत्ति जताई और पुनः वार्ता के लिए आग्रह किया। वियतकांग ने इसे अस्वीकार कर दिया। इस बार इतने बम गिराए गए जिनकी कुल विध्वंसक शक्ति हिरोशिमा में प्रयुक्त परमाणु बम से ज्यादा आंकी गयी।

हनोई भी इस बमवारी से ध्वस्त हो गया, लेकिन वियतनामी डटे रहे। अंततः 27 फरवरी 1973 को पेरिस में वियतनाम युद्ध के समाप्ती के समझौते पर हस्ताक्षर हो गया, समझौते की मुख्य बाते थीं युद्ध समाप्ति के 60 दिनो के अंदर अमेरिकी सेना वापस हो जाएगी, उतर और दक्षिण वियतनाम परस्पर सलाह कर के एकीकरण का मार्ग खोजेंगे, अमेरिका वियतनाम को असीमित आर्थिक सहायता देगा।

इस तरह से अमेरिका के साथ चला आ रहा युद्ध समाप्त हो गया एवं अप्रैल, 1975 में उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम का एकीकरण हो गया।

इस प्रकार सात दशकों से ज्यादा चलने वाला यह अमेरिका वियतनाम युद्ध समाप्त हो गया। इस युद्ध में 9855 करोड़ डालर खर्च हुए। सर्वधिक व्यय अमेरिका का था। उसके 56000 से अधिक सैनिक मारे गए लगभग 3 लाख सैनिक घायल हुए। दक्षिणी वियतनाम के 18000 सैनिक मारे गए। अमेरिका के 4800 हेलिकाप्टर एव 3600 एवं अनगिनित टैंक नष्ट हो गए।

इन सारी घटनाओं में के परिपेक्ष में धन जन की बर्बादी के अलावे अमेरिकी शाख को भी गहरा आघात पहुँचा। पूरे हिन्दी चीन में वह बुरी तरह असफल रहा। अंततः उसे अपनी सेनाए हिन्दी चीन से हटानी पड़ी और सभी देशो की संप्रभुता एवं अखण्डता को स्वीकार करना पड़ा।

माई-ली-गाँव की घटना:

दक्षिणी वियतनाम में एक गाँव था जहाँ के लोगों को वियतकांग समर्थक मान अमेरिकी सेना ने पूरे गांव को घेर कर पुरूषों बंधक बनाकर कई दिनों तक सामूहिक बलात्कार किया, फिर उन्हें भी मार कर पूरे गांव में आग लगा दिया। लाशों के बीच दबा एक बूढ़ा जिन्दा बच गया था जिसने इस घटना को उजागर किया।

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