इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 12th राजनितिक विज्ञान के पाठ 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ (Kshetriya Akanshaye Political Science 12th Class Notes) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्ययन करेंगे।
अध्याय 8
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ
क्षेत्र और राष्ट्र
1980 के दशक को स्वायत्तता की माँग के दशक के रूप में भी देखा जा सकता है। इस दौर में देश के कई हिस्सों से स्वायत्तता की माँग उठी और इसने संवैधानिक हदों को भी पार किया। इन आंदोलनों में शामिल लोगों ने अपनी माँग के पक्ष में हथियार उठाए; सरकार ने उनको दबाने के लिए जवाबी कार्रवाई की और इस क्रम में राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया अवरूद्ध हुई। इन संघर्ष पर विराम लगाने के लिए केंद्र सरकार को सुलह की बातचीत का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। अथवा स्वायत्तता के आंदोलन की अगुवाई कर रहे समूहों से समझौते करने पड़े। बातचीत का लक्ष्य यह एक लंबि प्रक्रिया के बाद ही दोनों पक्षों के बीच समझौता हो सका।
भारत सरकार का नजरिया
भारतीय राष्ट्रवाद ने एकता और विविधता के बीच संतुलन साधने की कोशिश की है। राष्ट्र का मतलब यह नहीं है कि क्षेत्र को नाकर दिया जाए। भारत ने विविधता के सवाल पर लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाया। लोकतंत्र में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्यक्ति की अनुमति है और लोकतंत्र क्षेत्रीयता को राष्ट्र-विरोध नहीं मानता। इसके अतिरिक्त लोकतांत्रिक राजनीति में इस बात के पूरे अवसर होते हैं कि विभिन्न दल और समूह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी खास क्षेत्रीय समस्या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं की नुमाइंदगी करें।
तनाव के दायरे
देश और विदेश के अनेक पर्यवेक्षकों का अनुमान था कि भारत एकीकृत राष्ट्र के रूप में ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगा। आजादी के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर का मसला सामने आया। ठीक इसी तरह पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने के मसले पर सहमति नहीं थी। पहले नगालैंड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की माँग करते हुए जोरदार आंदोलन चले। दक्षिण भारत में भी द्रविड़ आंदोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय अलग राष्ट्र की बात उठायी थी।
1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से पंजाबी-भाषा लोगों ने अपने लिए एक अलग राज्य बनाने की आवाज उठानी शुरू कर दी। उनकी माँग आखिकार मान ली गई और 1966 में पंजाब और हरियाणा नाम से राज्य बनाए गए।
कश्मीर और नगालैंड जैसे कुछ क्षेत्रों में चुनौतियाँ इतनी विकट और जटिल थीं कि राष्ट्र-निर्माण के पहले दौर में इनका समाधान नहीं किया जा सका। इसके अतिरिक्त पंजाब, असम और मिजोरम में नई चुनौतियाँ उभरीं।
जम्जू एवं कश्मीर
‘कश्मीर मुद्दा’ भारत और पाकिस्तान के बीच एक बड़ा मुद्दा रहा है। जम्मू एवं कश्मीर में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र शामिल हैं – जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। कश्मीर घाटी को कश्मीर के दिल के रूप में देखा जाता है। कश्मीरी बोली बोलने वाले ज्यादातर लोग मुस्लिम हैं। जम्मू क्षेत्र पहाड़ी तलहटी एवं मैदानी इलाके का मिश्रण है जहाँ हिंदू, मुस्लिम और सिख यानी कई धर्म और भाषाओं के लोग रहते हैं।
लद्दाख पर्वतीय इलाका है, जहाँ बौद्ध एवं मुस्लिमों की आबादी है, लेकिन यह आबादी बहुत कम है।
‘जम्मू मुद्दा’ भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ विवाद भर नहीं है। इसमें कश्मीरी पहचान का सवाल जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है, शामिल है।
समस्या की जड़े
1947 से पहले जम्मू एवं कश्मीर में राजशाहि थी। इसके हिंदू शासक हरि सिंह भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे और उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य के लिए भारत और पाकिस्तान से साथ समझौता करने की कोशिश की। पाकिस्तानी नेता सोचते थे कि कश्मीर, पाकिस्तान से संबद्ध है, क्योंकि राज्य की ज्यादातर आबादी मुस्लिम है। राज्य में नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जन आंदोलन चला। शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें, लेकिन वे पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ थे। नेशनल कांफ्रेंस एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था और इसका कांग्रेस के साथ काफी समय तक गठबंधन रहा।
अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कबायली घुसपैठियों को अपनी तरफ से कश्मीर पर कब्जा करने भेजा। ऐसे में कश्मीर के महाराजा भारतीय सेना से मदद माँगने को मजबूर हुए। भारत ने सैन्य मदद उपलब्द कराई और कश्मीर घाटी से घुसपैटियों को खदेड़ा। इससे पहले भारत सरकार ने महाराजा से भारत संघ में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिए। मार्च 1948 में शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री बने (राज्य में सरकार के मुखिया को तब प्रधानमंत्री कहा जाता था) । भारत, जम्मू एवं कश्मीर की स्वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान में धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।
बाहरी और आंतरिक विवाद
उस समय से जम्मू एवं कश्मीर की राजनीति हमेशा विवादग्रस्त एवं संघर्षयुक्त रही। इसके बाहरी एवं आंतरिक दोनों कारण हैं। कश्मीर समस्या का एक कारण पाकिस्तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। 1947 में इस राज्य में पाकिस्तान ने कबायली हमला करवाया था। इसके परिणामस्वरूप राज्य का एक हिस्सा पाकिस्तान नियंत्रण में आ गया। भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को ‘आजाद कश्मीर’ कहा। 1947 के बाद कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष का एक बड़ा मुद्दा रहा है।
राजनीति : 1948 के बाद से
प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद शेख अब्दुल्ला ने भूमि-सुधार की बड़ी मुहिम चलायी। उन्होंने इसके साथ-साथ की जन-कल्याण की कुछ नीतियाँ भी लागू कीं। इन सबसे यहाँ की जनता को फायदा हुआ। बहरहाल, कश्मीर की हैसियत को लेकर शेख अब्दुल्ला के विचार केंद्र सरकार से मेल नहीं खाते थे। इससे दोनों के बीच मतभेद पैदा हुए। 1953 में शेख अब्दुल्ला को बर्खास्त कर दिया गया। कई सालों तक उन्हें नजरबंद रखा गया। शेख अब्दुल्ला के बाद जो नेता सत्तासीन हुए वे शेख की तरह लोकप्रिय नहीं थे। केंद्र के समर्थन के दम पर ही वे राज्य में शासन चला सके।
1953 से लेकर 1974 के बीच अधिकांश समय इस राज्य की राजनीति पर कांग्रेस का असर रहा। कमजोर हो चुकी नेशनल कांफ्रेंस (शेख अब्दुल्ला के बिना) कांग्रेस के समर्थन से राज्य में कुछ समय तक सत्तासीन रही लेकिन बाद में वह कांग्रेस में मिल गई। इस तरह राज्य की सत्ता सीधे कांग्रेस के नियंत्रण में आ गई। इस बीच शेख अब्दुल्ला और भारत सरकार के बीच सुलह की कोशिश जारी रही। आखिरकार 1974 में इंदिरा गाँधी के साथ शेख अब्दुल्ला ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और वे राज्य के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस को सन् 1982 में शेख अब्दुल्ला की मृत्यु हो गई और नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व की कमान उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला ने संभाली। फारूख अब्दुल्ला भी मुख्यमंत्री बने। बहरहाल, राज्यपाल ने जल्दी ही उन्हें बर्खास्त कर दिया और नेशनल कांफ्रेंस से एक टूटे हुए गुट ने थोड़े समय के लिए राज्य की सत्ता संभाली।
केंद्र सरकार के हस्तक्षेप से फारूख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त किया गया था। 1986 में नेशनल कांफ्रेंस ने केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया।
विद्रोही तेवर और उसके बाद
इसी माहौल में 1987 के विधानसभा चुनाव हुए। आधिकारिक नतींजे बता रहे थे कि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन को भारी जीत मिली है। फारूख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। बहरहाल, लोग-बाग यह मान रहे थे कि चुनाव में धाँधली हुई है 1980 के दशक से ही यहाँ के लोगों में प्रशासनिक अक्षमता को लेकर रोष पनप रहा था। लोगों के मन का गुस्सा यह सोचकर और भड़का केंद्र के इशारे पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ हेरा-फेरी की जा रही है। इन सब बातों से कश्मीर में राजनीतिक संकट उठ खड़ा हुआ। इस संकट ने राज्य में जारी उग्रवादी के बीच गंभीर रूप धारण किया। 1989 तक यह राज्य उग्रवादी आंदोलन की गिरफ्त में आ चुका था। इस आंदोलन में लोगों को अलग कश्मीर राष्ट्र के नाक पर लामबंद किया जा रहा था। उग्रवादीयों को पाकिस्तान ने नैतिक, भौतिक और सैन्य सहायता दी। कई सालों तक इस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू रहा। राज्य पर सेना को नियंत्रण रखना पड़ा।
1990 से बाद के समय में इस राज्य के लोगों को उग्रवादीयों और सेना की हिंसा भूगतनी पड़ी। 1996 में एक बार फिर इस राज्य में विधानसभा के चुनाव हुए। फारूख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बनी और उसने जम्मू-कश्मीर के लिए क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग की। जम्मू-कश्मरी में 2002 के चुनाव बड़े निष्पक्ष ढंग से हुए। नेशनल कांफ्रेंस को बहुमत नहीं मिल पाया। इस चुनाव में पीपुल्स डेकोक्रेटिक अलायंस (पीडीपी) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार सत्ता में आई।
अलगाववाद और उसके बाद
अलगाववादियों का एक तबका कश्मरी को अलग राष्ट्र बनाना चाहता है यानी एक ऐसा कश्मीर जो न पाकिस्तान का हिस्सा हो और न भारत का। कुछ अलगाववादी समूह चाहते हैं कि कश्मीर का विलय पाकिस्तान में हो जाए। अलगाववादी राजनीति की एक तीसरी धारा भी है। इस धारा के समर्थक चाहते हैं कि कश्मीर भारत संघ का ही हिस्सा रहे लेकिन उसे और स्वायत्तता दी जाय। केंद्र ने विभिन्न अलगाववादी समूहों से बातचीत शुरू कर दी है। अलग राष्ट्र की माँग की जगह अब अगाववादी समूह अपनी बातचीत में भारत संघ के साथ कश्मीर के रिश्ते को पुर्नर्परिभाषित करने पर जोर दे रहे हैं।
पंजाब
1980 के दशक में पंजाब में भी बड़े बदलाव आए। बाद में इसके कुछ हिस्सों से हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नामक राज्य बनाए गए। सिखों की राजनीतिक शाख के रूप में 1920 के दशक में अकाली दल का गठन हुआ था।
राजनीतिक संदर्भ
पंजाब सूबे पुनर्गठन के बाद अकाली दल ने यहाँ 1967 और इसके 1977 में सरकार बनायी। दोनों ही मौके पर गठबंधन सरकार बनी। अकालियों के आगे यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि सूबे के नए सीमाकन के बावजूद उनकी राजनीतिक स्थिति डावाडोल है। पहली बात तो यही कि उनकी सरकार को केंद्र ने कार्यकाल पूरा करने से पहले बर्खास्त कर दिया था। दूसरे, अकाली दल को पंजाब के हिंदुओं के बीच कुछ खास समर्थन हासिल नहीं था। तीसरे, सिख समुदाय भी दूसरे धार्मिक समुदायों की तरह जाति और वर्ग के धरातल पर बँटा हुआ था। कांग्रेस को दलितों के बीच चाहे वे सिख हो या हिंदू-अकालियों से कहीं ज्यादा समर्थन प्राप्त था।
इन्हीं परिस्थितियों के मद्देनजर 1970 के दशक में अकालियों के एक तबके ने पंजाब के लिए स्वायत्तता की माँग उठायी। 1973 में, आनंदपुर साहिब प्रस्ताव में क्षेत्रीय स्वायत्तता की बात उठायी गई थी।
इस प्रस्ताव में सिख ‘कौम’ (नेशन या समुदाय) की आकांक्षाओं पर जोर देते हुए सिखों के ‘बोलबाला’ (प्रभुत्व या वर्चस्व) का ऐलान किया गया। यह प्रस्ताव संघवाद को मजबूत करने की अपील करता है। लेकिन इसे एक अलग सिख राष्ट्र की माँग के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।
धार्मिक नेताओं के एक तबके ने स्वायत्त सिख पहचान की बात उठायी। कुछ चरमपंथी तबकों ने भारत से अलग होकर ‘खालिस्तान’ बनाने की वकालत की।
हिंसा का चक्र
जल्दी ही आंदोलन का नेतृत्व नरमपंथी अकालियों के हाथ से निकलकर चरमपंथी तत्त्वों के हाथ में चला गया और आंदोलन ने सशस्त्र विद्रोह का रूप ले लिया। उग्रवादियों ने अमृतसर स्थित सिखों के तीर्थ स्वर्णमंदिर में अपना मुख्यालय बनाया और स्वर्णमंदिर एक हथियारबंद किले में तब्दील हो गया। 1984 के जून माह में भारत सरकार ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ चलाया। यह स्वर्णमंदिर में की गई सैन्य कर्रवाई का कूट नाम था। इस सैन्य-अभियान में सरकार ने उग्रवादियों को तो सफलतापूर्वक मार भागाया। इससे सिखों की भावनाओं को गहरी चोट लगी। भारत और भारत से बाहर बसे अधिकतर सिखों ने सैन्य-अभियान को अपने धर्म-विश्वास पर हमला माना। इन बातों से उग्रवादी और चरमपंथी समूहों को और बल मिला। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की 31 अक्तूबर 1984 के दिन उनके आवास के बाहर उन्हीं के अंगरक्षकों ने हत्या कर दी। ये अंगरक्षक सिख थे और ऑपरेशन ब्लू स्टार का बदला लेना चाहते थे। एक तरफ पूरा देश इस घटना से शोक-संतत्प था तो दूसरी तरफ दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई हिस्सों में सिख समुदाय के विरूद्ध हिंसा भड़क उठी। दो हजार से ज्यादा की तादाद में सिख, दिल्ली में मारे गए। देश की राजधनी दिल्ली इस हिंसा से ज्यादा प्रभावित हुई थी। कानपुर, बोकारो और चास जैसे देश के कई जगहों पर सैकड़ों सिख मारे गए। कई सिख-परिवारों में कोई भी पुरूष न बचा। सिखों को सबसे ज्यादा दुख इस बात का था कि सरकार ने स्थिति को सामान्य बनाने के लिए बड़ी लोगों को कारगर तरीके से दंड भी नहीं दिया गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में संसद में अपने भाषण के दौरान इस रक्तपात पर अफसोस जताया और सिख-विरोधी हिंसा के लिए देश से माफी माँगी।
शांति की ओर
1984 के चुनावों के बाद सत्ता में आने पर नए प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने नरमपंथी अकाली नेताओं से बातचीत की शुरूआत की। अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचंद सिंह लोगोंवाल के साथ 1985 के जुलाई में एक समझौता हुआ। इस समझौते को राजीव गाँधी लोगौंवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता कहा जाता है। इस बात पर सहमति हुई कि चंडीगढ़ पंजाब को दे दिया जाएगा। और पंजाब तथा हरियाणा के बीच सीमा-विवाद को सुलझाने के लिए एक अलग आयोग की नियुक्ति होगी। समझौते में यह भी तय हुआ कि पंजाब-हरियाणा-राजस्थान के बीच रावी-व्यास के पानी के बँटवारे के बारे में फैसला करने के लिए एक ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) बैठया जाएगा। समझौते के अंतर्गत सरकार पंजाब में उग्रवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने और उनके साथ बेहतर सलूक करने पर राजी हुई। पंजाब में न तो अमन आसानी से कायम हुआ न ही समझौते के तत्काल बाद। हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। केंद्र सरकार को राज्य में राष्ट्रपति शासन करना पड़ा। 1992 में पंजाब में चुनाव हुए तो महज 24 फीसदी मतदाता वोट डालने के लिए आए। उग्रवाद को सुरक्षा बलों ने आखिरकार दबा दिया लेकिन पंजाब के लोगों ने, चाहे वे सिख हो या हिंदू, इस क्रम में अनगिनत दुख उठाए। 1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शांति बहाल हुई। 1997 में अकाली दल, (बादल) और भाजपा के गठबंधन को विजय मिली। उग्रवाद के खात्मे के बाद के दौर में यह पंजाब का पहला चुनाव था। धार्मिक पहचान यहाँ की जनता के लिए लगातार प्रमुख बनी हुई है लेकिन राजनीति अब धर्मनिरपेक्षता की राह पर चल पड़ी है।
पूर्वोत्तर
पूर्वोत्तर में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ 1980 के दशक में एक निर्णायक मोड़ पर आ गई थीं। क्षेत्र में सात राज्य हैं और इन्हें ‘सात बहनें’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में देश की कुल 4 फीसदी आबादी निवास करती है। 22 किलोमीटर लंबी एक पतली-सी राहदारी इस इलाके को शेष भारत से जोड़ती है यह इलाका भारत के लिए एक तरह से दक्षिण-पूर्व एशिया का प्रवेश-द्वार है।
इस इलाके में 1947 के बाद से अनेक बदलाव आए हैं। त्रिपुरा, मणिपुर और मेघालय का खासी पहाड़ी क्षेत्र, पहले अलग-अलग रियासत थे। आजादी के बाद भारत संघ में इनका विलय हुआ।
नगालैंड को 1963 में राज्य बनाया गया। मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय 1972 में राज्य बने जबकि मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश को 1987 में राज्य का दर्जा दिया गया। 1947 के भारत-विभाजन से पूर्वोतर के इलाके भारत के शेष भागों से एकदम अलग-थलग पड़ जाने के कारण इस इलाके में विकास पर ध्यान नहीं दिया जा सका।
पूर्वोत्तर के राज्यों में राजनीति पर तीन मुद्दे हावी हैं:स्वायत्तता की माँग, अलगाव के आंदोलन और ‘बाहरी’ लोगों का विरोध।
स्वायत्तता की माँग
आजादी के वक्त मणिपुर और त्रिपुरा को छोड़ दें तो यह पूरा इलाका असम कहलाता था। गैर-असमी लोगों को जब लगा कि असम की सरकार उन पर असमी भाषा थोप रही है तो इस इलाके से राजनीतिक स्वायत्तता की माँग उठी। पूरे राज्य में असमी भाषा को लादने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और दंगे हुए। बड़े जनजाति समुदाय के नेता असम से अलग होना चाहते थे। इन लोगों ने ‘ईस्टर्न इंडिया ट्राइबल यूनियन’ का गठन किया जो 1960 में कहीं ज्यादा व्यापक ‘ऑल पार्टी हिल्स कांफ्रेंस’ में तब्दील हो गया। इन नेताओं की माँग थी कि असम से अलग एक जनजाति राज्य बनया जाए। केंद्र सरकार ने अलग-थलग वक्त पर असम को बाँटकर मेघालय, मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश बनाया। त्रिपुरा और मणिपुर को भी राज्य का दर्जा दिया गया।
1972 तक पूर्वोत्तर का पुनर्गठन पूरा हो चुका था। लेकिन, स्वायत्तता की माँग खत्म न हुई। उदाहरण के लिए, असम के बोडो, करबी और दिमसा जैसे समुदायों ने अपने लिए अलग राज्य की माँग की। करबी और दिमसा समुदायों को जिला-परिषद् के अंतर्गत स्वायत्तता दी गई जबकि बोडो जनजाति को हाल ही में स्वायत्त परिषद् का दर्जा दिया गया है।
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अलगाववादी आंदोलन
जब कुछ समूहों ने अलग देश बनाने की माँग की और वह भी किसी क्षणिक आवेश में नहीं बल्कि सिद्धांततगत तैयारी के साथ, तो इस माँग से निपटना मुश्किल हो गया।
आजादी के बाद मिजो पर्वतीय क्षेत्र को असम के भीतर ही एक स्वायत्त जिला बना दिया गया था। कुछ मिजो लोगों का मानना था कि वे कभी भी ‘ब्रिटिश इंडिया’ के अंग नहीं रहे इसलिए भारत संघ से उनका कोई नाता नहीं है। 1959 में मिजो पर्वतीय इलाके में भारी अकाल पड़ा। असम की सरकार इस अकाल में समुचित प्रबंध करने में नाकाम रही। मिजो लोगों ने गुस्से में आकर लालडेंगा के नेतृत्व में मिजो नेशनल फ्रंट बनाया।
1966 में मिजो नेशनल फ्रंट ने आजादी की माँग करते हुए सशस्त्र अभियान शुरू किया। मिजो नेशनल फ्रंटने गुरिल्ला युद्ध किया। उसे पाकिस्तान की सरकार ने समर्थन दिया था और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में मिजो विद्रोहियों ने अपने ठिकाने बनाए। भारतीय सेना ने विद्रोही गतिविधियों को दबाने के लिए जवाबी कार्रवाई की।
दो दशकों तक चले बगावत में हर पक्ष को हानि उठानी पड़ी। इसी बात को भाँपकर दोनों पक्षों के नेतृत्व ने समझदारी से काम लिया। पाकिस्तान में निर्वासित जीवन जी रहे लालडेंगा भारत आए और उन्होंने भारत सरकार के साथ बातचीत शुरू की। 1986 में राजीव गाँधी और लालडेंगा के बीच एक शांति समझौता हुआ। समझौते के अंतर्गत मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और उसे कुछ विशेष अधिकार दिए गए। मिजो नेशनल फ्रंट अलगाववादी संघर्ष की राह छोड़ने पर राजी हो गया। लालडेंगा मुख्यमंत्री बने। यह समझौता मिजोरम के इतिहास में एक निर्णायक साबित हुआ। आज मिजोरम पूर्वोत्तर का सबसे शांतिपूर्ण राज्य है।
नगालैंड की कहानी भी मिजोरम की तरह है लेकिन नगालैंड का अलगावादी आंदोलन ज्यादा पुराना है और अभी इसका मिजोरम की तरह खुशगवार हल नहीं निकल पाया है। अंगमी जापू फ्रिजो के नेतृत्व में नगा लोगों के एक तबके ने 1951 में अपने को भारत से आजाद घोषित कर दिया था। फ्रिजो ने बातचीत के कई प्रस्ताव ठुकराए। हिंसक विद्रोह के एक दौर के बाद नगा लोगों के एक तबके ने भारत सरकार के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए लेकिन अन्य विद्रोहियों ने इस समझौते को नहीं माना। नगालैंड की समस्या का समाधान होना अब भी बाकी है।
बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन
पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर आप्रवासी आए हैं। इससे एक खास समस्या पैदा हुई है। स्थानीय जनता इन्हें ‘बाहरी’ समझती है और ‘बाहरी’ लोगों के खिलाफ उसके मन में गुस्सा है। स्थानीय लोग बाहर से आए लोगों के बारे में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं।
1979 से 1985 तक चला असम आंदोलन बाहरी लोगों के खिलाफ चले आंदोलनों का सबसे अच्छा उदाहरण है असमी लोगों के संदेह था कि बांग्लादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई है। लोगों के मन यह भावना घर कर गई थी कि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जाएगी।
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1979 में ऑल असम स्टूडेंटस् यूनियन (आसू-AASU) ने विदेशियों के विरोध में एक आंदोनल चलाया। ‘आसू’ एक छात्र-संगठन था और इसका जुड़ाव किसी भी राजनीतिक दल से नहीं था। ‘आसू’ का आंदोलन अवैध आप्रवासी, बंगाली और अन्य लोगों के दबदबे तथा मतदाता सूची में लाखों आप्रवासियों के नाम दर्ज कर लेने के खिलाफ था। आंदोलन के दौरान रेलगाड़ीयों की आवाजाही तथा बिहार स्थित बरौनी तेलशोधक कारखाने को तेल-आपूर्ति रोकने की भी कोशिश की गई।
छह साल की सतत अस्थिरता के बाद राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली सरकार ने ‘आसू’ के नेताओं से बातचीत शुरू की। इसके परिणामस्वरूप 1985 में एक समझौता हुआ। समझौते के अंतर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अथवा उसके बाद के सालों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा। आंदोलन की कामयाबी के बाद ‘आसू’ और असम गण संग्राम परिषद् ने साथ मिलाकर अपने को एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में संगठित किया। इस पार्टी का नाम ‘असम गण परिषद्’ रखा गया।
असम-समझौते से शांति कायम हुई और प्रदेश की राजनीति का चेहरा भी बदला लेकिन ‘आप्रवास’ की समस्या का समाधान नहीं हो पाया।
समाहार और राष्ट्रीय अखंडता
हम इन उदाहरणों से क्या सबक सीख सकते हैं। पहला और बुनियादी सबक तो यही है कि क्षेत्रीय आकांक्षाएँ राजनीति का अभिन्न अंग हैं। क्षेत्रीय मुद्दे की अभिव्यक्ति कोई असामान्य अथवा लोकतांत्रिक राजनीति के व्याकरण से बाहर की घटना नहीं हैं। भारत एक बड़ा लोकतंत्र है और यहाँ विभिन्नताएँ भी बड़े पैमाने पर हैं। अत: भारत को क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने की तैयारी लगातार रखनी होगी।
दूसरी सबक यह है कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं को दबाने की जगह उनके साथ लोकतांत्रिक बातचीत का तरीका अपनाना सबसे अच्छा होता है।
तीसरा सबक है सत्ता की साझेदारी के महत्त्व को समझना। सिर्फ लोकतांत्रिक ढाँचा खड़ा कर लेना ही काफी नहीं है। इसके साथ ही विभिन्न क्षेत्रों के दलों और समूहों को केंद्रीय राजव्यवस्था में हिस्सेदार बनाना भी जरूरी है।
चौथा सबक यह है कि आर्थिक विकास के एतबार से विभिन्न इलाकों के बीच असमानता हुई तो पिछड़े इलाकों को लगे कि उनके पिछड़पेन को प्राथमिकता के आधार पर दूर किया जाना चाहिए।
सबसे आखिरी बात यह कि इन मामलों से हमें अपने संविधान निर्माताओं की दूरदृष्टि का पता चलता है। भारत ने जो संघीय प्रणाली अपनायी है वह बहुत तचीली है। अगर अधिकतर राज्यों के अधिकार समान हैं तो जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों के लिए विशेष प्रावधान भी किए गए हैं।
भारत का संवैधानिक ढाँचा ज्यादा लचीला और सर्वसमावेशी है। जिस तरह की चुनौतियाँ भारत में पेश आयीं वैसी कुछ दूसरे देशों में भी आयी लेकिन भारत का संवैधानिक ढाँचा अन्य देशों के मुकाबले भारत को विशिष्ट बनाता है। क्षेत्रीय आकांक्षाओं को यहाँ अलगाववाद की राह पर जाने का मौका नहीं मिला।
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