नियोजित विकास की राजनीति | Niyojit vikas ki rajniti 12th class Notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 3नियोजित विकास की राजनीति (Niyojit vikas ki rajniti Class 12th polticial Science in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

नियोजित विकास की राजनीति

राजनीतिक फैसले और विकास

इस्‍पात की विश्‍वव्‍यापी माँग बढ़ी तो निवेश के लिहाज से उड़ीसा एक महत्त्‍वपूर्ण जगह के रूप में उभरा। उड़ीसा में लौह-अयस्‍क का विशाल भंडार था और अभी इसका दोहन बाकी था। आदिवासियों को डर है कि अगर यहाँ उद्योग लग गए तो उन्‍हें अपने घर-बार से विस्‍थापित होना पड़ेगा और आजीविका भी छिन जाएगी। पर्यावरणविदों को इस बात का भय है कि खनन और उद्योग लगने से पर्यावरण प्र‍दूषित होगा। केंद्र सरकार को लगता है कि अगर उद्योग लगाने की अनुमति नहीं दी गई, तो इससे एक बुरी मिसाल कायम होगी और देश में पूँजी निवेश को बाधा पहुँचगी। आजादी के बाद अपने देश में ऐसे कई फैसले लिए गए। सारे के सारे फैसले आपस में आर्थिक विकास के एक मॉडल या यों कहें कि एक ‘विजन’ से बँधे हुए थे। लगभग सभी इस बात पर स‍हमत थे कि भारत के विकास का अर्थ आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक-सामाजिक न्‍याय दोनों ही हैं। इस बात पर भी सहमति थी कि इस मामले को व्‍यवसायी, उद्योगपति और किसानों के भरोसे नहीं छोड़ा जा स‍कता। सरकार को इस मसले में प्रमुख भूमिका निभानी थी। बहरहाल, आर्थिक-संवृद्धि हो और सामाजिक न्‍याय भी मिले-इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन-सी भूमिका निभाए?

इस सवाल पर मतभेद थे। क्‍या कोई ऐसा केंद्रीय संगठन जरूरी है जो पूरे देश के लिए योजना बनाए?

विकास की धारणाएँ

आजादी के बाद के पहले दशक में लोग-बाग ‘विकास’ की बात आते ही ‘पश्चिम’ का हवाला देते थे कि ‘विकास’ का पैमाना ‘पश्चिमी’ मुल्‍क हैं। ‘विकास’ का अर्थ था ज्‍यादा-से-ज्‍यादा औद्योगिक देशों की तरह होना। जिस तर‍ह पश्चिमी मुल्‍कों में आधुनिकीकरण के कारण पुरानी सामाजिक संरचना टूटी और पूँजीवाद तथा उदारवाद का उदय हुआ, उसी तरह दुनिया के बाकी देशों में भी होगा।

आजादी के वक्‍व हिंदुस्‍तान के सामने विकास के दो मॉडल थे। पहला उदारवादी-पूंजीवादी मॉडल था। यूरोप के अधिकतर हिस्‍सों और संयुक्‍त राज्य अमरीका में यही मॉडल अपनाया गया था। दूसरा समाजवादी मॉडल था। इसे सोवियत संघ ने अपनाया था। राष्‍ट्रवादी नेताओं के मन में यह बात बिलकुल साफ थी कि आजाद भारत की सरकार के आर्थिक सरोकार अंग्रेजी हुकूमत के आर्थिक सरोकारों से एकदम अलग होंगे। आजादी के आंदोलन के दौरान ही यह बात भी साफ हो गई थी कि गरीबी मिटाने और सामाजिक-आर्थिक पुनर्वितरण के काम का मुख्‍य जिम्‍मा सरकार का होगा।

स्‍वतंत्र भारत में राजनीति

अर्थव्‍यवस्‍था के पुनर्निर्माण के लिए नियोजन के विचार को 1940 और 1950 के दशक में पूरे विश्‍व में जनसमर्थन मिला था। निजी निवेशक मसलन उद्योगपति और बड़े व्‍यापारिक उद्यमि नियोजन के पक्ष में नहीं होते; वे एक खुली अर्थव्‍यवस्‍था चाहते हैं जहाँ पूँजी के बहाव पर सरकार का कोई अंकुश न हो। लेकिन, भारत में ऐसा नहीं हुआ। 1944 में उद्योगपतियों का तबका एकजुट हुआ। इस समूह ने देश में नियोजित अर्थव्‍यवस्था चलाने का एक संयुक्‍त प्रस्‍ताव तैयार किया। इसे ‘बॉम्‍बे प्‍लान’ कहा जाता है। भारत के आजाद होते ही योजना आयोग अस्तित्त्‍व में आया। प्रधानमंत्री इसके अध्‍यक्ष बने।

शुरूआती कदम  

सोवियत संघ की तरह भारत के योजना आयोग ने भी पंचवर्षीय योजनाओं का विकल्‍प चुना। इसके पीछे एक सीधा-सादा विचार था कि भारत सरकार अपनी तरफ से एक दस्‍तावेज तैयार करेगी, जिसमें अगले पाँच सालों के लिए उसकी आमदनी और खर्च की योजना होगी। योजना के अनुसार केंद्र सरकार और सभी राज्‍य-सरकारों के बजट को दो हिस्‍सों में बाँटा गया। एक हिस्‍सा गैरयोजना-व्‍यय का था। इसके अंतर्गत सालाना आधार पर दैनंदिन मदों पर खर्च करना था। दूसरा हिस्‍सा योजना-व्‍यय का था। योजना में तय की गई प्राथमिकताओं को ध्‍यान में रखते हुए इसे पाँच साल की अवधि में खर्च करना था।

1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारूप जारी हुआ इससे देश में गहमागहमी का  माहौल पैदा हुआ। नियोजन को लेकर देश में जो गहमागहमी पैदा हुई थी वह 1956 से चालू दूसरी पंचवर्षीय योजना के साथ अपने पर पहुँच गई। 1961 की तीसरी पंचवर्षीय योजना के समय तक यह महौल जारी रहा। चौथी पंचवर्षीय योजना 1966 से चालू होनी थी। लेकिन, इस वक्‍त तक नियोजन का नयापन एक हद तक मंद पड़ गया था और भारत गहन आर्थिक संकट की चपेट में आ चुका था। सरकार ने पंचवर्षीय योजना को थोड़ी देर का विराम देने का फैसला किया।

प्रथम पंचवर्षीय योजना

प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-1956) की कोशिश देश को गरीबी के मकड़जाल से निकालने की थी। पहली पंचवर्षीय योजना में ज्‍यादा जोर कृषि-क्षेत्र पर था। इसी योजना के अंतर्गत बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। भाखड़ा-नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आबंटित की गई।

औद्योगीकरण की तेज रफ्तार

दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया। पी.सी. महालनोबिस के नेतृत्‍व में अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों की एक टोली ने यह योजना तैयार की थी। सरकार ने देसी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात पर भारी शुल्‍क लगाया।

भारत प्रौद्योगिकी के लिहाज से पिछड़ा हुआ था और विश्‍व बाजार से प्रौद्योगिकी खरीदने में उसे अपनी बहुमूल्‍य विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ी। भारत के योजनाकारों को उद्योग और कृषि के बीच संतुलन साधने में भारी कठिनाई आई। तीसरी पंचवर्षीय योजना दूसरी योजना से कुछ खास अलग नहीं थी।

मुख्‍य विवाद

शुरूआती दौर में विकास की जा रणनीतियाँ अपनाई गईं उन पर बड़े सवाल उठे। यहाँ हम ऐसे दो सवालों की चर्चा करेंगे जो आज भी प्रासंगिक हैं।

कुषि बनाम उद्योग  

यह सवाल है कि भारत जैसी पिछड़ी अर्थव्‍यवस्‍था में कुषि और उद्योग के बीच किसमें ज्‍यादा संसाधन लगाए जाने चाहिए। कइयों का मानना था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुँची। कई अन्‍य लोगों का सोचना था कि औद्योगिक उत्‍पादन की वृद्धि दर को तेज किए बगैर गरीबी के मकड़जाल से छुटकारा नहीं मिल सकता। राज्‍य ने भूमि-सुधार और ग्रामीण निर्धनों के बीच संसाधन के बँटवारे के लिए कानून बनाए। नियोजना में सामुदायिक विकास के कार्यक्रम तथा सिंचाई परियोजनाओं पर बड़ी रकम खर्च करने की बात मानी गई थी। नियोजन की नीतियाँ असफल नहीं हुईं। दरअसल, इनका कार्यान्‍वयन ठीक नहीं हुआ क्‍योंकि भूमि-संपन्‍न तबके के पास सामाजिक और राजनीतिक ता‍कत ज्‍यादा थी। इसके अतिरिक्‍त, ऐसे लोगों की एक दलील यह भी थी कि यदि सरकार कृषि पर ज्‍यादा धनराशि खर्च करती तब भी ग्रामीण गरीबी की विकराल समस्‍या का समाधान न कर पाती।

निजी क्षेत्र बनाम सार्वजनिक क्षेत्र

विकास के जो दो जाने-माने मॉडल थे, भारत ने उनमें से किसी को नहीं अपनाया। पूँजीवादी मॉडल में विकास का काम पूर्णतया निजी क्षेत्र के भरोसे होता है। भारत ने यह रास्‍ता नहीं अपनाया। भारत ने विकास का समाजवादी मॉडल भी नहीं अपनाया जिसमें निजी संपत्ति को खत्‍म कर दिया जाता है और हर तरह के उत्‍पादन पर राज्‍य का नियंत्रण होता है। इन दोनों ही मॉडल की कुछ एक बातों को ले लिया गया और अपने देश में इन्‍हें मिले-जुले रूप में लागू किया गया। इसी कारण भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को ‘मिश्रित-अैर्थव्‍यवस्‍था’ कहा जाता है। खेती-किासन, व्‍यापार और उद्योगों का एक बड़ा भाग निजी क्षेत्र के हाथों में रहा। राज्‍य ने अपने हाथ में उद्योगों को रखा और उसने आधारभूत ढ़ाँचा प्रदान किया।

मुख्‍य परिणाम

नियोजित विकास की शुरूआती कोशिशों को देश के आर्थिक विकास और सभी नागरिकों की भलाई के लक्ष्‍य में आंशिक सफलता मिली। असमान विकास से जिनको फायदा पहुँच था वे जल्‍दी ही राजनीतिक रूप से ताकतवर हो उठे और इन के कारण सबकी भलाई को ध्‍यान में रखकर विकास की दिशा में कदम उठाना और मुश्किल हो गया।

बुनियाद

भारत के इतिहास की कुछ सबसे बड़ी विकास-परियोजनाएँ इसी अवधि में शुरू हुईं। इसमें सिंचाई और बिजली-उत्‍पादन के लिए शुरू की गई भाखड़ा-नांगल और हीराकुंड जैसी विशाल बाँध परियोजनाएँ शामिल हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ भारी उद्योग जैसे-इस्‍पात-संयंत्र, तेल-शोधक कारखाने, विनिर्माता इकाइयाँ, रक्षा-उत्‍पादन आदि-इसी अ‍वधि में शुरू हुए। इस दौर में परिवहन और संचार के आधारभूत ढ़ाँचे में भी काफी इजाफा हुआ।

भूमि सुधार

इस अवधि में भूमि सुधार के गंभीर प्रयास हुए। इनमें सबसे महत्त्‍वपूर्ण और सफल प्रयास जमींदारी प्रथा को समाप्‍त करने का था। इस साहसिक कदम को उठाने से जमीन उस वर्ग के हाथ से मुक्‍त हुई जिसे कृषि में कोई दिलचस्‍पी नहीं थी। इससे राजनीति पर दबदबा कायम रखने की जमींदारों की क्षमता भी घटी। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ करने के प्रयास किए गए ताकि खेती का काम सुविधजनक हो सके। यह प्रयास भी सफल रहा।

हरित क्रांति

खाद्यान्न संकट की इस हालत में देश पर बाहरी दबाव पड़ने की आशंका बढ़ गई थी। भारत विदेशी खाद्य-सहायता पर निर्भर हो चला था, खासकर संयुक्‍त राज्‍य अमरीका के। संयुक्‍त राज्‍य अमरीका ने इसकी एवज में भारत पर अपनी आर्थिक नीतियों को बदलने के लिए जोर डाला। सरकार ने खाद्य सुरक्षा के मामले में पिछड़े हुए थे, शुरू-शुरू में सरकार ने उनको ज्‍यादा सहायता देने की नीति आपनाई थी। स‍रकार ने उच्‍च गुणवत्ता के बीज, उर्वक, कीटनाशक और बेहतर सिंचाई सुविधा बड़े अनुदानित मूल्‍य पर मुहैया कराना शुरू किया। सरकार ने इस बात की भी गारंटी दी कि उपज को एक निर्धारित मूल्‍य पर खरीद लिया जाएगा। यही उस परिघटना की शुरूआत थी जिसे ‘हरित क्रांति’ कहा जाता है। हरति क्रांति से खेतिहर पैदावार में सामान्‍य किस्‍म का इजफा हुआ। (ज्‍यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्‍न की उपलब्‍धता में बढ़ोतरी हुई।

बाद के बदलाव

1960 के दशक के अंत में भारत के आर्थिक विकास की कथा में एक नया मोड़ आता है। इंदिरा गाँधी जननेता बनकर उभरीं। फैसला किया कि अर्थव्यवस्‍था के नियंत्रण और निर्देशन में राज्‍य और बड़ी भूमिका निभाएगा। 1967 के बाद की अ‍वधि में निजी क्षेत्र के उद्योगों पर और बाधाएँ आयद हुईं। 14 निजी बैंकों का राष्‍ट्रीयकरण कर दिया गया। सरकार ने गरीबों की भलाई के लिए अनेक कार्यक्रमों की घोषणा की।

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