एक दल के प्रभुत्‍व का दौर | Ek dal ke prabhutv ka daur 12th class Notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 2 एक दल के प्रभुत्‍व का दौर (Ek dal ke prabhutv ka daur Class 12th polticial Science in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

2. एक दल के प्रभुत्‍व का दौर

लोकतंत्र स्‍थापित करने की चुनौती

हमारा संविधान 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृ‍त किया गया और 24 जनवरी 1950 को इस पर हस्‍ताक्षर हुए। यह संविधान 26 जनवरी 1950 से अमल में आया। उस वक्‍त देश का शासन अंतरिम सरकार चला रही थी। वक्‍त का तकाजा था कि देश का शासन लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार द्वारा चलाया जाए। भारत के चुनाव आयोग का गठन 1950 के जनवरी में हुआ। सुकुमार सेन पहले चुनाव आयुक्त बने उस वक्‍त देश में 17 करोड़ मतदाता थे। इन्‍हें 3200 विधायक और लोकसभा के लिए 489 सांसद चुनने थें। इन मतदाताओं में महज 15 फीसदी साक्षर थे। चुनाव आयोग ने चुनाव कराने के लिए 3 लाख से ज्‍यादा अधिकारियों और चुनावकर्मियों को प्र‍शिक्षित किया।

मतदाताओं की एक बड़ी तादाद गरीब और अनपढ़ लोगों की थी और ऐसे माहौल में यह चुनाव लोकतंत्र के लिए परीक्षा की कठिन घड़ी था। इस वक्‍त तक लोकतंत्र सिर्फ धनी देशों में ही कायम था। ऐसे में हिंदुस्‍तान में सार्वभौम मताधिकार पर अमल हुआ और यह अपने आप में बड़ा जोखिम भरा प्रयोग था। एक हिंदुस्‍तानी संपादक ने इसे ”इतिहास का सबसे बड़ा जुआ” करार दिया। ‘आर्गनाइजर’ नाम की पत्रिका ने लिखा कि सार्वभौम मताधिकार असफल रहा।”

1951 के अक्‍टूबर से 1952 के फरवरी तक चुनाव हुए। बहरहाल, इस चुनाव को अमूमन 1952 का चुनाव ही जाता है क्‍योंकि देश के अधिकांश हिस्सों में मतदान 1952 में ही हुए। चुनाव अभियान, मतदान और मतगणना में कुल छह महीने लगे। चुनावों में चुनाव के मैदान में थे। कुल मतदाताओं में आधे से अधिक ने मतदान के दिन अपने वोट डाला। चुनावों के परिणाम घोषित हुआ तो हारने वाले उम्‍मीदवारों ने भी इन परिणामों को निष्‍पक्ष बताया। सार्वर्भाम मताधिकार के इस प्रयोग ने आलोचकों का मुँह बंद कर दिया।

1952 का आम चुनाव पूरी दुनिया में लोकतंत्र के इतिहास के लिए मील का पत्‍थर साबित हुआ।

पहले तीन चुनावों में कांग्रेस का प्रभुत्‍व

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लोकप्रचलित नाम कांग्रेस पार्टी था और इस पार्टी को स्‍वाधीनता संग्राम की विरासत हासिल थी तब के दिनों में यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन पूरे देश में था। फिर, इस पार्टी में खुद जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्‍माई और लोकप्रिय नेता थे। जब चुनाव परिणाम घोषित हुए तो कांग्रेस पार्टी की भारी-भरकम जीत से बहुतों को आश्‍चर्य हुआ। इस पार्टी ने लोकसभा के पहले चुनाव में कुल 489 सीटों में 364 सीटें जीतीं। पहले आम चुनाव में भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी दूसरे नंबर पर रही। उसे कुल 16 सीट हासिल हुईं। लोकसभा के चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के भी चुनाव कराए गए थे। कांग्रे‍स पार्टी को विधानसभा के चुनावों में भी बड़ी जीत हासिल हुई। दूसरा आम चुनाव 1957 में और तीसरा 1962 में हुआ। कांग्रेस पार्टी ने तीन-चौथाई सीटें मिली। कांग्रेस पार्टी ने जितनी सीटें जीती थीं उस‍का दशांश भी कोई विपक्षी पार्टी नहीं जीत स‍की। विधानसभा के चुनावों में कहीं-कहीं कांग्रेस को ब‍हुमत नहीं मिला। 1957 में केरल में भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की अगुआई में एक गठबंधन सरकारी बनी।

1952 में कांग्रेस पार्टी को कुल वोटों में से मात्र 45 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे लेकिन कांग्रेस को 74 प्रतिशत फीसदी सीटें हासिल हुईं।

सोशलिस्‍ट पार्टी  

कांग्रेस सोशलिस्‍ट पार्टी का गठन खुद के भीतर 1934 में युवा नेताओं की एक टोली ने किया था। ये नेता कांग्रेस को ज्यादा-से-ज्‍यादा परिवर्तनकामी और समतावादी बनाना चाहते थे। 1948 में कांग्रेस ने अपने संविधान में बदलाव किया। यह बदलाव इसलिए किया गया था ताकि कांग्रेस के सदस्‍य दोहरी सदस्‍य दोहरी सदस्‍यता न धारण कर सकें। इस वजह से कांग्रेस के समाजवादियों को मजबूरन 1948 में अलग होकर सोशलिस्‍ट पार्टी बनानी पड़ी। समाजवादी लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा में विश्‍वास करते थे और इस आधार पर वे कांग्रेस तथा साम्‍यवादी (कम्‍युनिस्‍ट) दोनों से अलग थे। वे कांग्रेस की आलोचना करते थे कि वह पूँजीपतियों और मजदूरों-किसानों की उपेक्षा कर रही है। सोशलिस्‍ट पार्टी के कई टुकड़े हुए इस प्रक्रिया में कई समाजवादी दल बने। इन दलों में, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, प्रजा सोशलिस्‍ट पार्टी और संयुक्‍त सोशलिस्‍ट पार्टी का नाम लिया जा सकता है। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, राममनोहर लोहिया और एस.एम. जोशी  समाजवादी दलों के नेताओं में प्रमुख थे।

कांग्रेस के प्रभुत्‍व की प्रकृति

भारत ही एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो एक पार्टी के प्रभुत्‍व के दौर से गुजरा हो। अगर हम दुनिया के बाकी मुल्‍कों पर नजर दौड़ाएँ तो हमें एक पार्टी के प्रभुत्‍व के बहुत-से उदाहरण मिलेंगे। बहरहाल, बाकी मुल्‍कों में एक पार्टी के प्रभुत्‍व और भारत में एक पार्टी के प्रभुत्‍व के बीच एक बड़ा भारी फर्क है। बाकी मुल्‍कों में एक पार्टी के प्रभुत्‍व के बहुत-से उदाहरण मिलेंगे। बहरहाल, बाकी मुल्‍कों में एक पार्टी के प्रभुत्‍व और भारत में एक पार्टी के प्रभुत्‍व के बीच एक बड़ा भारी फर्क है। बाकी मुल्‍कों में एक पार्टी का प्रभुत्‍व लोकतंत्र की कीमत पर कायम हुआ। कुछ देशों मसलन चीन, क्‍यूबा और सीरिया के संविधान में सिर्फ एक ही पार्टी को देश के शासन की अनुमति दी गई है।

कांग्रेस पार्टी की इस असाधारण सफलता की जड़ें स्‍वा‍धीनता-संग्राम की विरासत में हैं। कांग्रेस पार्टी को राष्‍ट्रीय आंदोलन के वारिस के रूप में देखा गया।

अनेक पार्टियों का गठन स्‍वतंत्रता के समय के आस-पास अथवा उसके बाद में हुआ। कांग्रेस को ‘अव्‍वल और एकलौता’ होने का फायदा मिला। इस पार्टी संगठन का नेटवर्क स्‍थानीय स्‍तर तक पहुँच चुका था।

कांग्रेस एक सामाजिक और विचारधारात्‍मक गठबंधन के रूप में

कांग्रेस का जन्‍म 1985 में हुआ था। कांग्रेस में किसान और उद्योगपति, शहर के बाशिंदे और गाँव के निवासी, मजदूर और मालिक एवं मध्‍य, निम्‍न और उच्‍च वर्ग तथा जाति सबको जगह मिली। इसमें खेती-किसानी की बुनियादी वाले तथा गाँव-गिरान की तरफ रूझाव रखने वाले नेता भी उभरे।

कई बार यह भी हुआ कि किसी समूह ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ एकसार नहीं किया और अपने-अपने विश्‍वासों को मानते हुए बतौर एक व्‍यक्ति या समूह के कांग्रेस के भीतर बने रहे। कांग्रेस एक विचारधारात्‍मक गठबंधन भी थी। कांग्रेस ने अपने अंदर क्रांतिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर धारा के मध्‍यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह, हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्‍ट्रीय आंदोलन में भाग लेते थे।

गुटों में तालमेल और सहनशीलता 

कांग्रेस के गठबंधनी स्‍वभाव ने उसे एक असाधारण ताकत दी। पहली बात तो यही कि जो भी आए, गठबंधन उसे अपने में शामिल कर लेता है।

सुहल-समझौते के रास्‍ते पर चलना और सर्व-समावेशी होना गठबंधन की विशेषता होती है। इस रणनीति की वजह से विपक्ष कठिनाई में पड़ा। विपक्ष कोई बात कहना चाहे तो कांग्रेस की विचारधारा और कार्यक्रम में उसे तुरंत जगह मिल जाती थी। दूसरे, अगर किसी पार्टी का स्‍वभाव गठबंधनी हो तो अंदरूनी मतभेदों को लेकर उसमें सहनशीलता भी ज्‍यादा होती है। विभिन्‍न समूह और नेताओं की महत्त्‍वकांक्षाओं की भी उसमें समाई हो जाती है। कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई के दौरान इन दोनों ही बातों पर अमल किया था और आजादी मिलने के बाद भी इस पर अमल जारी रखा। इसी कारण, अगर कोई समूह पार्टी के रूख से अथवा सत्ता में प्राप्‍त अपने हिस्‍से से नाखुश हो तब भी वह पार्टी में ही बना रहता था। पार्टी को छोड़कर विपक्षी की भूमिका अपनाने की जगह पार्टी में मौजूद किसी दूसरे समूह से लड़ने को बेहतर समझता था।

पार्टी के अंदर मौजूद विभिन्‍न समूह गुट कहे जाते हैं। अकसर गुटों के बनने के पीछे व्‍यक्तिगत महत्त्‍वकांक्षा तथा प्रतिस्‍पर्धा की भावना भी काम करती थी। ऐसे में अंदरूनी गुटबाजी कांग्रेस की कमजोरी बनने की बजाय उसकी ताकत साबित हुई।

कांग्रेस की अधिकतर प्र‍ांतीय इकाइयों विभिन्‍न गुटों को मिलाकर बनी थी। ये गुट अलग-अलग विचारधारात्‍मक रूख अपनाते थे और कांग्रेस एक भारी-भरकम मध्‍यमार्गी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आती थी। गुटों की मौजूदगी की यह प्रणाल शासक-दल के भीतर संतुलन साधने के एक औजार की तरह काम करती थी। इस तरह राजनीतिक होड़ कांग्रेस के भीतर ही चलती थी। इस अर्थ में देखें तो चुनावी प्रतिस्‍पर्ध के पहले दशक में कांग्रेस ने शासक-दल की भूमिका निभायी और विपक्ष की भी। इसी कारण भारतीय राजनीति के इस कालखंड को ‘कांग्रेस-प्रणाली’ कहा जाता है।

विपक्षी पार्टियों का उद्भव

बहुदलीय लोकतंत्र वाले अन्य अनेक देशों की तुलना में उस वक्‍त भी भारत में बहुविध और जीवन्‍त विपक्षी पार्टीयाँ थीं। इनमें से कई पार्टियाँ 1952 के आम चुनावों से कहीं पहले बन चुकी थीं। इनमें से कुछ ने ‘साठ’ और ‘सत्तर’ के दशक में देश की राजनीति में महत्त्‍वपूर्ण भूमिका निभायी। इन दलों की मौजूदगी ने हमारी शासन-व्‍यवस्‍था के लोकतांत्रिक चरित्र को बनाए रखने में निर्णायक भूमिका निभायी विपक्षी दलों ने शासक-दल पर अंकुश रखा।

स्‍वतंत्र पार्टी

शुरूआती सालों में कांग्रेस और विपक्षी दलों के नेताओं के बीच पारस्‍परिक सम्‍मान का गहरा भाव था। स्वतंत्रता की उद्घोणा के बाद अंतरिम सरकार ने देश का शासन सँभाला था। इसके मंत्रिमंडल में डॉ. अंबेडकर और श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे विपक्षी नेता शामिल थे। जवाहरलाल नेहरू अकसर सोशलिस्‍ट पार्टी के प्रति अपने प्‍यार का इजहार करते थे। उन्‍होंने जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी नेताओं को सरकार में  शामिल होने का न्‍यौता दिया।

इस तरह अपने देश में लोकतांत्रिक राजनीति का पहला दौर एकदम अनूठा था। राष्‍ट्रीय आंदोलन का चरित्र समावेशी था। इसकी अगुआई कांग्रेस ने की थी। राष्‍ट्रीय आंदोलन के इस चरित्र के कारण कांग्रेस की तरफ विभिन्‍न समूह, वर्ग और हितों के लोग आकर्षित हुए। सामाजिक और विचारधारात्‍मक रूप से कांग्रेस एक व्‍यापक गठबंधन के रूप में उभरी। आजादी की लड़ाई में कांग्रेस ने मुख्‍य भूमिका निभायी थी और इस कारण कांग्रेस को दूसरी पार्टियों की अपेक्षा बढ़त प्राप्‍त थी। इस तरह कांग्रेस का प्रभुत्‍व देश की राजनीति के सिर्फ एक दौर में रहा।

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