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रैदास के पद का अर्थ | raidas pad class 9 hindi

September 29, 2021 by Tabrej Alam Leave a Comment

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 हिंदी पद्य भाग का पाठ एक ‘रैदास के पद (raidas pad class 9 hindi)’ को पढृेंंगें, इस पाठ में रैदास ने ईश्‍वर और भक्त के बीच के संबंध को बताया है।

raidas pad class 9

कक्षा 9 हिंदी पद्य भाग का पाठ 1 पद लेखक- रैदास

कैसे छूटै राम नाम रट लागी ।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग–अंग बास समानी ।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा ।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती ।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा ।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा ।

अर्थ– रैदास ईश्वर के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु, तुमसे मेरा नाता कैसे टूट सकता है, क्योंकि तुम चंदन हो और मैं पानी । इन दोनों के आपसी संयोग से मेरा अंग-अंग सुगंधित हो गया है। तुम मँडराते बादल हो तो मैं वन में विचरण करने वाला मोर अर्थात् जिस प्रकार बादल देखकर मोर वन में नाचने लगता है, उसी प्रकार तुम्हारे स्मरण से मेरा मन-मयूर नाच उठता है । हे प्रभु, यदि तुम दीपक हो तो मैं बाती हूँ। अर्थात् जिस प्रकार दीपक के जलते ही घर प्रकाशित हो जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे नामरूपी ज्योति से मेरा अन्तर मन प्रकाशित हो गया है। इसी प्रकार यदि तुम मोती हो तो मैं धागा हूँ अर्थात् मैं तुम में ही समाया हुआ हूँ। तुम सोना हो तो मैं सुहागा हूँ अर्थात् जैसे सुहागा सोना में मिलकर अपना अस्तित्व खो देता है, उसी प्रकार मैं तुम में मिलकर या पाकर अस्तित्वहीन हो गया हूँ। अतः तुम मेरे स्वामी हो और मैं तुम्हारा सेवक (दास) हूँ। इस प्रकार की भक्ति रविदास करते हैं।

Bihar Board Hindi Poetry Chapter 1 raidas pad Class 9 Explanation

व्याख्या—प्रस्तुत पद निर्गुण भक्ति धारा के संत कवि रैदास द्वारा विरचित है। इसमें कवि ने विभिन्न उपादानों के माध्यम से भक्त और भगवान के संबंधों का वर्णन किया है।

कवि का कहना है कि भक्त एवं भगवान में अन्योन्याश्रय संबंध है, इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि भगवान का सान्निध्य पाकर ही भक्त जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति पाता है। इसीलिए कवि ने ईश्वर को चन्दन, बादल, चन्द्रमा, दीपक तथा मोती कहकर यह दर्शाने का प्रयास किया है कि जैसे चन्दन का संयोग पाकर पानी चंदन के समान सुगंधित हो जाता है, वैसे ही भगवान का सान्निध्य पाकर भक्त का जीवन सुगंधमय हो जाता है। जैसे बादल को देखकर मोर नाचने लगता है, वैसे ही ईश्वर के दर्शन मात्र से भक्त का मन-मयूर प्रफुल्ल हो जाता है। अतः कवि ने अपने लिए पानी, मोर, चकोर, बाती तथा धागा उपमानों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आत्मा और परमात्मा में अनन्य संबंध है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है, इसलिए आत्मा जब परमात्मा में एकाकार अर्थात् मिल जाती है, तब भक्त और भगवान के बीच कोई भेद नहीं रह जाता। रैदास ने दास्य भाव से ईश्वर की भक्ति की है। ये मूलतः संत कवि हैं। इनकी भाषा सरल, सरस तथा सहज है।

राम मैं पूजा कहाँ चढ़ाऊँ।फल. अरु मूल अनूप न पाऊँ ॥
थनहर दूध जो बछरू जुठारी।पुहुप भँवर जल मीन बिगारी ॥
मलयागिरी बेधियो भुअंगा।विष. अमृत दोऊ एकै संगा ॥
मन ही पूजा मन ही धूप। मन ही सेॐ सहज सरूप ॥
पूजा अरचा न जानूं तेरी । कह रैदास कवन गति मेरी॥

अर्थ–कवि रैदास का कहना है कि हे प्रभु, मैं तुम्हारी पूजा किस प्रकार करू, क्योंकि अनूठे फल एवं कंद-मूल का अभाव है, गाय के थन का दूध जूठा है, भौरों ने फूलों को तथा मछलियों ने जल को विकृत कर दिया है। मलयपर्वत से अमृततुल्य हवा चंदन पेड़ से लिपटे साँप के कारण विषतुल्य हैं । अर्थात् साँप के कारण चंदन विषाक्त हो गया है । इसलिए शुद्ध मन से तुम्हारी आराधना करना चाहता हूँ। अर्थात् पूजा-अर्चना जैसे बाह्याडंबर में न पड़कर मन-ही-मन तुम्हारा नाम स्मरण करके तुम्हारा स्वरूप अपने हृदय में बसाना चाहता हूँ।

व्याख्या—प्रस्तुत पद निर्गुण भक्तिधारा के संत कवि रैदास द्वारा लिखित है। इसमें कवि ने निर्गुण भक्ति की महत्ता पर प्रकाश डालता है।कवि का कहना है कि पूजा-अर्चना दिखावा है, सगुण भक्ति तथा कर्मकांड निरर्थक हैं, क्योंकि ईश्वर किसी चढ़ावे से प्रसन्न नहीं होता। ईश्वर तो सच्चे दिल की पुकार अथवा आंतरिक पूजा से प्रसन्न होता है। कवि प्रभु से आत्म-निवेदन करते हुए कहता है कि तुम्हारी पूजा किन चीजों से करूँ | मेरे पास न तो अनजूठे फल तथा कंद-मूल है, और न गाय का अन जूठा दूध है, भौरे ने फूल का रस चूसकर उसे रसहीन बना दिया है तो मछली ने जल को दूषित कर दिया है। साँप ने चन्दन को छेदकर विषैला बना दिया है अर्थात् साँप के लिपटे रहने के कारण चन्दन विष युक्त हो गया है इसलिए सच्चे मन से तुम्हारा स्मरण कर तुम्हें अपने हृदय में बसाकर उस अद्भुत छवि को निहारता हूँ। कवि ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है कि हे प्रभु । तुम्हारी पूजा-अर्चना की विधि का ज्ञान नहीं है, इसलिए मेरी कौन-सी गति होगी। कवि के कहने का तात्पर्य है कि उसे सांसारिक बाह्याडंबर से कोई लेना-देना नहीं है, कवि को प्रभु के नाम स्मरण का भरोसा है।

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