अध्याय 5 समकालीन दक्षिण एशिया | Samkalin dakshin asia class 12

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय समकालीन दक्षिण एशिया के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। Samkalin dakshin asia class 12

अध्याय 5
समकालीन दक्षिण एशिया

परिचय :

बीसवीं सदी के आखिरी सालों में जब भारत और पाकिस्तान ने खुद को परमाणु शक्ति-संपन्न राष्ट्रों की बिरादरी में बैठा लिया तो यह क्षेत्र अचानक पूरे विश्व की नजर में महŸवपूर्ण हो उठा। स्पष्ट ही विश्व का ध्यान इस इलाके में चल रहे कई तरह के संघर्षों पर गया। इस क्षेत्र के देशों के बीच सीमा और सनदी जल के बँटवारे को लेकर विवाद कायम है। इसके अतिरिक्त विद्रोह, जातीय संघर्ष और संसाधनों के बँटवारे को लेकर होने वाले झागड़ा भी हैं। इन वजहों से दक्षिण एशिया का इलाका बड़ा संवेदनशील है और अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि आज विश्व में यह क्षेत्र सुरक्षा के लिहाज से खतरे की आशंका वाला क्षेत्र है। दक्षिण एशिया के देश अगर आपस में सहयोग करें तो यह क्षेत्र विकास करके समृद्ध बन सकता है। इस अध्याय में हम दक्षिण एशिया के देशों के बीच मौजूद संघर्षो की प्रकृति और इन देशों के आपसी सहयोग को समझने की कोशिश करेंगे। दक्षिण एशिया के देशां की घरेलू राजनीतिक से इन झगड़ों या सहयोग का मिज़ाज तय होता है

क्या है दक्षिण एशिया?

दक्षिण एशिया है क्या? अमूमन बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका को इंगित करने के लिए ‘दक्षिण एशिया‘ पद का व्यवहार किया जाता है। उत्तर की विशाल हिमालय पर्वत-श्रृंखला, दक्षिण का हिंद महासागर, पश्चिम का अरब सागर और पूरब में मौजूद बंगाल की खाड़ी से यह इलाका एक विशिष्ट प्राकृतिक क्षेत्र के रूप में नजर आता है। चीन इस क्षेत्र का एक प्रमुख देश है लेकिन चीन को दक्षिण एशिया का अंग नहीं माना जाता है दक्षिण  एशिया हर अर्थ में विविधताओं से भरा-पूर इलाका है दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में एक-सी राजनीतिक प्रणाली नहीं है। भारत और श्रीलंका में ब्रिटेन से आज़ाद होने के बाद, लोकतांत्रिक व्यवस्था सफलतापूर्वक कायम है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में लोकतांत्रिक और सैनिक दोनों तरह के नेताओं का शासन रहा है। शीतयुद्ध के बाद के सालों में बांग्लादेश में लोकतंत्र कायम रहा। पाकिस्तान में शीतयुद्ध के बाद के सालों में लगातार दो लोकतांत्रिक सरकारें बनीं। पहली सरकार बनज़ीर भुट्टो और दूसरी नवाज़ सरीफ के नेतृत्व में कायम हुई। लेकिन इसके बाद 1999 में पाकिस्तान में सैनिक तख्तापलट हुआ। 2008 से फिर से यहाँ लोकतांत्रिक-शासन है। 2206 तक नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र था कि राजा अपने हाथ में कार्यपालिका की सारी शक्तियाँ ले लेगा। 2008 में राजतंत्र को ख्तम किया और नेपाल एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप् में उभरा। भूटान 2008 में राजतंत्र संवैधानिक राजतंत्र बन गया। राजा के नेतृत्व में, यह बहुदलीय लोकतंत्र के रूप में उभरा। मलदीव 1968 तक सल्तनत हुआ करता था। 1968 में यह एक गणतंत्र बना 2005 के जून में मालदीव की संसद ने बहुदलीय प्रणाली को अपनाने के पक्ष में एकमत से मतदान किया। मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) का देश के राजनीतिक मामलों में दबदबा है। एमडीपी ने 2018 में हुए चुनावों में जीत हासिल की। इन देशों के लोग शासन की किसी और प्रणाली की अपेक्षा लोकतंत्र को वरीयता देते हैं और मानते हैं कि उनके देश के लिए लोकतंत्र ही ठीक है।

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पाकिस्तान में सेना और लोकतंत्र

पाकिस्तान में पहले संविधान के बनने के बाद देश के शासन की बाग़डोर जनरल अयूब खान ने अपने हाथों में ले ली और जल्दी ही अपना निर्वाचन भी करा लिया। उनके शासन के खिलाफ जनता का गुस्सा भड़का और ऐसे में उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा। इससे एक बार फिर सैनिक शासन का रास्ता साफ हुआ और जनरल याहिया खान के सैनिक-शासन के दौरान पाकिस्तान को बांग्लादेश-संकट का सामना करना पड़ा। और 1971 में भारत के साथ पाकिस्तान का युद्ध हुआ। युद्ध के परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान टूटकर एक स्वतंत्र देश बना और बांग्लादेश कहलाया। उसके बाद पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में एक निर्वाचित सरकार बनी जो 1971 से 1977 तक कायम रही। 1977 में जेनरल जियाउल-हक ने इस सरकार को गिरा दिया। 1988 में एक बार फिर बेनज़ीर भूट्टो के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार बनी। निर्वाचित लोकतंत्र की यह अवस्था 1999 तक कायम रही। 1999 में फिर एक बार सेना ने दखल दी और जेनरल परवेज़ मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवज़ शरीफ को हटा दिया। 2001 में परवेज़ मुशर्रफ ने अपना निर्वाचन राष्ट्रपति के रूप में कराया। पाकिस्तान पर सेना की हूकूमत थी हालाँकि सैनिक शासकों ने अपने को लोकतांत्रिक जताने के लिए चुनाव कराए। हैं। 2008 से पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए नेता शासन कर रहें हैं। पाकिस्तान में लोकतंत्र के स्थायी न बन पाने के बई कारण हैं। यहाँ सेना, धर्मगुरू और भूस्वामी अभिजनों का सामाजिक दबदबा है। इसकी वज़ह से कई बार निर्वाचित सरकारों को गिराकर सैनिक शासन कायम हुआ। लोकतंत्र पाकिस्तान में पूरी तरह सफल नहीं हो सका है लेकिन इस देश में लोकतंत्र का जज़्बा बहुत मज़बूती के साथ कायम रहा है। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक शासन चले-इसके लिए कोई खास अंतर्राष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलता। अमेरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों ने अपने-अपने स्वार्थो से गुज़रे वक्त में पाकिस्तान में सैनिक शासन को बढ़वा दिया। इन देशों को उस आतंकवाद से डर लगता है जिसे ये देश ‘विश्वव्यापी से इस्लामी आतंकवाद‘ कहते हैं। इन देशों की यह भी डर सताता है कि पाकिस्तान के परमाण्विक हथियार कहीं इन आतंकवादी समूहों के हाथ न लग जाएँ।

बांग्लादेश में लोकतंत्र

1947 से 1971 तक बांग्लादेश पाकिस्तान का अंग था। अंग्रजी राज के समय के बंगाल और असम के विभाजित हिस्सों से पूर्वी पाकिस्तान का यह क्षेत्र बना था। इस क्षेत्र के लोग पश्चिमी पाकिस्तान के दबदबे और अपने ऊपर उर्दू भाषा को लादने के खि़लाफ थे। पश्चिमी पाकिस्तान के प्रभुत्व के खिलाफ जन-संघर्ष का नेतृत्व शेख मुजीबुर्रहमान ने किया। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग को 1970 के चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान की सारी सीटों पर विजय मिली। अवामी लीग को संपूर्ण पाकिस्तान के लिए प्रस्तावित संविधान सभा में बहुमत हासिल हो गया। लेकिन सरकार पर पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं का दबदबा था और सरकार ने इस सभा को आहूत करने से इंकार कर दिया। शेख़ मुज़ीब को गिफ्तार कर लिया गया। जेनरल याहिया खान के सैनिक शासन में पाकिस्तान सेना ने बंगाली जनता के आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। हज़ारों लोग पाकिस्तान सेना के हाथो मारे गए। इस वज़ह से पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोग भारत पलायन कर गए। भारत के सामने इन शरणार्थियों को संभालने की समस्या आना खड़ी हुई। भारत की सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की आज़ादी की माँग का समर्थन किया और उन्हें वित्तीय और सैन्य सहायता दी। इसके परिणामस्वरूप् 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया। युद्ध की समाप्ति पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण तथा एक स्वतंत्र राष्ट्र ‘बांग्लादेश‘ के निर्माण के साथ हूई। बांग्लादेश ने अपना संविधान बनाकर उसमें अपन को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक तथा समावादी देश घोषित किया। शेख मुज़ीब ने अपनी पार्टी अवामी लीग को छोड़कर अन्य सभी पार्टियों को समाप्त कर दिया। इससे तनाव और संघर्ष की स्थिति पैदा हुई। 1975 के अगस्त में सेना ने उनके खि़लाफ बगा़वत कर दी और इस नाटकीय तथा त्रासद घाटनाक्रम में शेख मुज़ीब सेना के होथो मारे गए। नये सैनिक-शासक जियाउर्रहमान ने अपनी बांग्लादेश नेशनल पार्टी बनायी और 1979 के चुनाव में विजयी रहे। जियाउर्रहमान की हत्या हुई और लेफ्टिनेंट जे़नरल एच एम इरशाद के नेतृत्व में बांग्लादेश में एक और सैनिक-शासन ने बागडोर संभाली। लेकिन, बांग्लादेश की जनता जल्दी ही लोकतंत्र के समर्थन में उठ खड़ी हुई। जनरल इरशाद पाँच सालों के लिए राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। जनता के व्यापक विरोध के आगे झुकते हुए लेफ्टिनेंट जेनरल इरशाद को राष्ट्रपति का पद 1990 में छोड़ना पड़ा। 1991 में चुनाव हुए। इसके बाद से बांग्लादेश में बहुदलीय चुनावों पर आधारित प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र कायम है।

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नेपाल में राजतंत्र और लोकतंत्र

नेपाल अतीत में एक हिन्दु-राज था फिर आधुनिक काल में कई सालों तक यहाँ संवैधानिक राजतंत्र रहा। संवैधानिक राजतंत्र के दौर में नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ और आम जनता ज्यादा खुले और उत्तरदायी शासन की आवाज उठाते रहे। लेकिन राजा ने सेना की सहायता से शासन पर पूरा नियंत्रण कर लिया और नेपाल में लोकतंत्र की राह अवरूद्ध हो गई। एक मजबूत लोकतंत्र-समर्थक आंदोलन की चपेट में आकर राजा ने 1990 में नए लोकतांत्रिक संविधान की माँग मान ली। 1990 के दशक में नेपाल के माओवादी नेपाल के अनेक हिस्सों में अपना प्रभाव जमाने में कामयाब हुए। माओवादी, राजा और सत्ताधारी अभिजन के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करना चाहते थे। इस वज़ह से राजा की सेना और माओवादी गुरिल्लों के बीच हिंसक लड़ाई छिड़ गई। 2002 में राजा ने संसद को भंग कर दिया और सरकार को गिरा दिया। इस तरह नेपाल में जो भी थोड़ा-बहुत लोकतंत्र-समर्थन प्रदर्शन हुए। राजा ज्ञानेन्द्र ने बाध्य होकर संसद को बहाल किया। इसे अप्रैल 2002 में भंग कर दिया गया था। नेपाल में लोकतंत्र आमद अब लगभग मुकम्मल हुई है। नेपाल का संविधान लिखने के लिए वहाँ संविधान-सभा का गठन हुआ। माओवादी समूहों ने सशस्त्र संघर्ष की राह छोड़ देने की बात मान ली 2008 में नेपाल राजतंत्र को खत्म करने के बाद लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। 2015 में नेपाल ने नया संविधान अपनाया।

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श्रीलंका में जातीय संघर्ष और लोकतंत्र

अज़ादी (1948) के बाद से लेकर अब तक श्रीलंका में लोकतंत्र कायम है। लेकिन श्रीलांका को जातीय संघर्ष का सामना करना पड़ा जिसकी माँग है कि श्रीलंका के एक क्षेत्र को अलग राष्ट्र बनाया जाय। आज़ादी के बाद से (श्रीलंका को दिनों सिलोन कहा जाता था) श्रीलांका की राजनीति पर बहुसंख्यक सिंहली समुदाय के हितों की नुमाइंदगी करने वालों का दबदबा रहा है। ये लोग भारत छोड़कर श्रीलांका आ बसी एक बड़ी तमिल आबादी के खिलाफ हैं। सिंहली राष्ट्रवादियों का मानना था कि श्रीलंका में तमिलों के साथ कोई ‘रियायत‘ नहीं बरती जानी चाहिए क्योंकि श्रीलांका सिर्फ सिंहली लोगों का है। 1983 के बाद से उग्र तमिल संगठन ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑव तमिल ईलम‘ (लिट्टे) श्रीलंकाई सेना के साथ सशस्त्र संघर्ष कर रहा है। इसने ‘तमिलों के लिए एक अलग देश की माँग की है। भारत की तमिल जनता का भारतीय सरकार पर भारी दबाव है कि वह श्रीलंकाई ततिलों के हितों के रक्षा करे। 1987 में भारतीय सरकार श्रीलांका के तमिल मसले में प्रत्यक्ष रूप से शामिल हुई। भारत की सरकार ने श्रीलंका से एक समझौता किया तथा श्रीलांका सरकार और तमिलों के बीच रिश्ते सामान्य करने के लिए भारतीय सेना को भेजा। श्रीलंकाई जनता ने समझा कि भारत श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी कर रहा है। 1989 में भारत ने अपनी ‘शांन्ति सेना‘ लक्ष्य हासिल किए बिना वापस बुला ली। अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थ के रूप में नार्वे और आइसलैंड जैसे स्कैंडिनेवियाई देश युद्धरत दोनों पक्षां को फिर से वापस में बातचीत करने के लिए राजी कर रहे थे। अंततः सशस्त्र संघर्ष समाप्त हो गया क्यांकि 2009 में लिट्टे को खत्म कर दिया गया। दक्षिण एशिया के देशों में सबसे पहले श्रीलंका ने ही अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया। गृहयुद्ध से गुजरने के बावजूद कई सालों से इस देश का प्रति व्यक्ति सफल घरेलू उत्पाद दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा है। अंदरूनी संघर्ष के झंझावातों को झेलकर भी श्रीलंका ने लोकतांत्रिक राजव्यवस्था कायम रखी है।

भारत-पाकिस्तान संघर्ष

दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति केंद्रीय है और इस वज़ह से इनमें से अधिकांश संघर्षो का रिश्ता भारत से है। इन संघर्षो में सबसे प्रमुख और सर्वग्रासी संघर्ष भारत और पाकिस्तान के बीच का संघर्ष है। विभाजन के तुरंत बाद दोनों देश कश्मीर के मसले पर लड़ पड़े। भारत और पाकिस्तान के बीच 1947-48 तथा 1965 के युद्ध से इस मसले का समाधान नहीं हुआ। 1948 के युद्ध के फलस्वरूप कश्मीर के दो हिस्से हो गए। एक हिस्सा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर कहलाया जबकि दूसरा हिस्सा भारत का जम्मू-कश्मीर प्रान्त बना। दोनों देशों की सरकारें लगातार एक दूसरे को संदेह की नज़र से देखती हैं। भारत सरकार का आरोप है कि पाकिस्तान सरकार ने लुके-छुपे ढ़ग से हिंसा की वह रणनीति जारी रखी है। आरोप है कि वह कश्मीर उग्रवादियों को हथियार, प्रशिक्षण और धन देता है तथा भारत पर आतंकवादी हमले के लिए उन्हें सुरक्षा प्रदान करता है कि पाकिस्तान ने 1985-1995 की अवधि में खालिस्तान-समर्थक उग्रवादियों को हथियार तथा गोले-बारूद दिए थे। इसके जवाब में पाकिस्तान की सरकार भारतीय सरकार और उसकी खुफिया एजेंसियों पर सिंध और बलूचिस्तान में समस्या को भड़काने का आरोप लगाती है। 1960 तक दोनों के बीच सिन्धु नदी के इस्तेमाल को लेकर तीखे विवाद हुए। 1960 में विश्व बैंक की मदद से भारत और पाकिस्तान ने ‘सिंधु-जल संधि‘ पर दस्तख़त किए यह संधि अब भी कायम है। कच्छ के रन में सरक्रिक की सीमारेखा को लेकर दोनों देशों के बीच मतभेद हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच इन सभी मामलों के बारे में वार्ताओं के दौर चल रहे हैं।

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भारत और उसके अन्य पड़ोसी देश

बांग्लादेश और भारत के बीच गंगा और ब्रह्यपुत्र नदी के जल में हिस्सेदारी सहित कई मुद्दों पर मतभेद हैं। भारतीय सरकारों के बांग्लादेशश्श्श् सेश् नाखुश होने के कारणों में भारत में अवैध आप्रवास पर ढाका के खंडन, भारत-विरोधी इस्लामी कट्टरपंथी जमातों को समर्थन, भारतीय सेना को पूर्वोत्तर भारत में जाने के लिए अपने इलाके से रास्ता देने से बांग्लादेश के इंकार, ढाका के भारत को प्राकृतिक गैस निर्यात न करने के फैसले तथा म्यांमार को बांग्लादशी इलाके से होकर भारत को प्राकृतिक गैस निर्यात न करने देने जैसे मसले शामिल हैं। बांग्लादेश की सरकार नदी-जल में हिस्सेदारी के सवाल पर इलाके के दादा की तरह बरताव करती है। इसके अलावा भारत की सरकार पर चटगाँव पर्वतीय क्षेत्र में विद्रोह को हवा देने; बांग्लादेश के प्राकृतिक गैस में सेंधमारी करने और व्यापार में बेईमानी बरतने के भी आरोप हैं। विभेदों के बावजूद भारत और बांग्लादेश कई मसलों पर सहयो करते हैं। बांग्लादेश भारत के ‘लुक ईस्ट‘ और 2014 से ‘एक्ट ईस्ट‘ नीति का हिस्सा है। इस नीति के अन्तर्गत म्यांमार के ज़रिए दक्षिण-पूर्व एशिया से संपर्क साध ने की बात है। आपदा-प्रबंधन और पर्यावरण के मसले पर भी दोनों देशों ने निरंतर सहयोग किया है। भातर और नेपाल के बीच मधुर संबंध हैं और दोनों देशों के बीच एक संधि हुई है। इस संधि के तहत दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे के देश में बिना पासपार्ट (पारपत्र) और वीजा के आ-जा सकते हैं और काम कर सकते हैं। नेपाल की चीन के साथ दोस्ती को लेकर भारत सरकार ने अक्सर अपनी अप्रसन्नता जतायी है। नेपाल सरकार भारत-विरोधि तत्त्वों को खिलाफ कदम नहीं उठाती। इससे भी भारत नाखुश है। नपाल में बहुत से लोग यह सोचते हैं कि भारत की सरकार नेपाल के अंदरूनी मामलों में दखल दे रही है और उसके नदी जल तथा पनबिजली पर आँख गड़ए हुए है। चारां तरफ से जमीन से घिरे नेपाल को लगता है कि भारत उसको अपने भूक्षेत्र से होकर समुद्र तक पहुँचने से रोकता है। बहरहाल भारत-नेपाल के संबंध एकदम दोनों देश व्यापार, वैज्ञानिक सहयोग, साझे प्राकृतिक संसाध न, बिजली उत्पादन और जल प्रबंधन ग्रिड के मसले पर एक साथ हैं। श्रीलंका और भारत की सरकारां के संबंधां में तनाव इस द्वीप में ज़ारी जातीय संघर्ष को लेकर है। 1987 के सैन्य हस्तक्षेप के बाद से भारतीय सरकार श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में असलंग्नता की नीति पर अमल कर रही है। भारत सरकार ने श्रीलंका के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर दस्तखत किए हैं। इससे दोनों देशां के संबंध मज़बूत हुए हैं। भारत के भूटान के साथ भी बहुत अच्छे रिश्ते हैं और भूटानी सरकार के साथ कोई बड़ा झागड़ा नहीं है। भातर भूटान में पनबिजली की बड़ी परियोजनाओं में हाथ बँटा रहा है। इस हिमालयी देश के विकास कार्यां के लिए सबसे ज्यादा अनुदान भारत से हासिल होता है। मालदीव के साथ भारत के संबंध सौहार्दपूर्ण तथा गर्मजाशी से भरे हैं। 1988 में श्रीलंका से आए कुछ भाड़े के तमिल सैनिकों ने मालदीव पर हमला किया। मालदीव ने जब आक्रमण रोकने के लिए भारत से मदद माँगी तो भारतीय वायुसेना और नौसेना ने तुरंत कार्रवाई की। भारत ने मालदीव के आर्थिक विकास, पर्यटन और मत्स्य उद्योग में भी मदद की है। भारत का आकार बड़ा है और वह शक्तिशाली है। इसकी वज़ह से अपेक्षाकृति छोटे देशां का भारत के इरादों को लेकर शक करना लाजिमी है। दूसरी तरफ, भारत सरकार को अक्सर महसूस होता है कि उसके पड़ोसी देश उसका बेज़ा फायदा उठा रहे हैं। भारत नहीं चाहता कि इन दोशों में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो। दक्षिण एशिया के सारे झागड़े सिर्फ भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच ही नहीं है। नेपाल-भूटान तथा बांग्लादेशश्श्श्-म्यांमार के बीच जातीय मूल के नेपालियों के भूटान आप्रवास के मसले पर मतभेद रहे हैं। बांग्लादेश और नेपाल के बीच हिमालयी नदियों के जल की हिस्सेदारी को लेकर खटपट है।

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शांति और सहयोग

अनेक संघर्षों के बावजूद दक्षिण एशिया के देश आपस में दोस्ताना रिश्ते तथा सहयोग के महत्त्व को जहचानते हैं। दक्षेस (साउथ एश्यि एसोशियन फॉर रिजनल को ऑपरेशन SAARC) दक्षिण एशियाई देशों द्वारा बहुस्तरीय साधनों से आपस में सहयोग करने की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। इसकी शुयआत 1985 में हुई। दक्षेस के सदस्य देशां ने सन् 2002 में ‘दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार-क्षेत्र समझौते‘ (SAFTA) पर दस्तख़त किये। इसमें पूरे दक्षिण एशिया के लिए मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने का वायदा है। यदि दक्षिण के सभी देश अपनी सीमारेखा के आर-पार मुक्त-व्यापार पर सहमत हो जाएँ तो इस क्षेत्र में शांति और सहयोग के एक नए अध्याय की शुरूआत हो सकती है। इस समझौते पर 2004 में हस्ताक्षर हुए और यह समझौता 1 जनवरी 2006 से प्रभावी हो गया। इस समझौते का लक्ष्य है कि इन देशों के बीच आपसी व्यापार में लगने वाले सीमा शुल्क को कम कर दिया जाए। कुछ छोटे देश मानते हैं कि ‘साफ्टा’की ओट लेकर भारत उनके बाज़ार में सेंध मारना चाहता है। भारत सोचता है कि ‘साफ्टा’से इस क्षेत्र के हर देश को फायदा होगा और क्षेत्र में मुक्त व्यापार बढ़ने से राजनीतिक मसलों पर सहयोग ज्यादा बेहतर होगा। भारत और पाकिस्तान के संबंध कभी खत्म न होने वाले झागड़ों और हिंसा की एक कहानी जान पड़ते हैं फिर भी तनाव को कम करने और शांति बहाल करने के लिए इन देशों के बीच लगातार प्रयास हुए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता और महत्त्वपूर्ण हस्तियाँ दोनों देशों के पंजाब वाले हिस्से के बीच कई बस-मार्ग खुले हैं। अब वीज़ा आसानी से मिल जाते हैं। चीन और संयुक्त राज्य अमरीका दक्षिण एशिया की राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। पिछले दस वर्षों में भारत और चीन के संबंध बेहतर हुए हैं। सन् 1991 के बाद से इनके आर्थिक संबंध ज़्यादा मज़बूत हूए हैं। शीतयुद्ध के बाद दक्षिण एशिया में अमरीकी प्रभाव तेजी से बढ़ा है। अमरीका ने शीतयुद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों से अपने संबंध बेहतर किए हैं। वह भातर-पाक के बीच लगातार मध्यस्त्थ की भूमिकह निभा रहा है। अमरीका में दक्षिण एशियाई मूल के लोगों की संख्या अच्छी-खासी हैं। फिर, इस क्षेत्र की जनसंख्या और बाजार का आकार भी भारी भरकम है। इस कारण इस क्षेत्र की सुरक्षा और शांति के भविष्य से अमरीका के हित भी बधें हुए हैं।

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