इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्याय 3 समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। Samkalin vishv me Amerkee varchasv class 12
अध्याय 3
समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व
परिचय
शीतयुद्ध के अंत के बाद संयुक्त राज्य अमरीका विश्व की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा और दुनिया में कोई उसकी टक्कर का प्रतिद्वंद्वी न रहा। इस घटना के बाद के दौर को अमरीकी प्रभुत्व या एकध्रुवीय विश्व का दौर कहा जाता है।
खाड़ी युद्ध से लेकर अमरीकी अगुआई में इराक पर हमले तक घटनाओं का एक सिलसिला है। एक ध्रुवीय विश्व के उभार की इस कथाकी शुरूआत हम इस घटनाक्रम के जिक्र से करेंगे।
आयशा, जाबू और आंद्रेई
बगदाद के छोर पर कायम एक स्कूल पढ़ रही आयशा अपनी पढ़ाई-लिखाई अव्वल थी। उसने सोचा था कि किसी विश्वविद्यालय में डॉक्टरी की पढ़ाई करूँगी। सन् 2003 में उसकी एक टाँग जाती रही। वह एक ठिकाने में अपने दोस्तों के साथ छुपी हुई थी और तभी हवाई हमले में दागी हुई एक मिसाइली उसके ठिकाने पर आ गिरी।
उसकी योजना डॉक्टर बनने की ही है, लेकिन तब ही जब विदेशी सेना उसके देश को छोड़कर चली जाए।
डरबन (दक्षिण अफ्रीका) का रहने वाला जाबू एक प्रतिभाशाली कलाकार है। उसकी योजना आर्ट स्कूल में पढ़ने और इसके बाद अपना स्टूडियो खोलने की है। लेकिन उसके पिता चाहते हैं कि जाबू एमबीए की पढ़ई करे और परिवार का व्यवसाय संभाले।
जाबू के पिता सोचते हैं कि वह परिवार के व्यवसाय को फायदेमंद बनाएगा।
युवा आंद्रेई पर्थ (आस्ट्रेलिया) में रहता है। उसके माँ-बाप बतौर आप्रवासी रूस से आये थे।चर्च जाते वक्त जब वह नीली जीन्स पहन लेता है तो उसकी माँ आपे से बाहर हो जाती हैं। वह चाहती हैं कि आंद्रेई चर्च में सभ्य-शालीन दिखाई पड़े।
आंद्रेई की अपनी माँ से बहस हुई। हो सकता है जाबू को वह विषय पढ़ना पड़े जिसमेंउसकी दिलचस्पी नहीं। इससे अलग, आयशा की एक टाँग जाती रही और उसका सौभाग्य है कि वह जीवित है। हम इन समस्याओं के बारे में एक साथ चर्चा कैसे कर सकते हैं?
इस अध्याय में देखेंगे कि ये तीनों एक न एक तरीके से अमरीकी वर्चस्व का शिकार हैं।
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अमरीकी वर्चस्व की शुरूआत कैसे हुई और आज यह विश्व में कैसे असरमंद है। ‘संयुक्त राज्य अमरीका’ की जगह ज्यादा लोकप्रिय शब्द ‘अमरीका’ का इस्तेमाल करेंगे।
नयी विश्व-व्यवस्था की शुरूआत
सोवियत संघ के अचानक विघटन से हर कोई आश्चर्यचकित रह गया। दो महाशक्तियों में अब एक का वजूद तक न था जबकि दूसरा अपनी पूरी ताकत या कहें कि बढ़ी हुई ताकत के साथ कायम था।
अमरीका के वर्चस्व की शुरूआत 1991 में हुई जब एक ताकत के रूप में सोवियत संघ अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य से गायब हो गया। 1990 के अगस्त में इराक ने कुवैत पर हमला किया और बड़ी तेजी से उस पर कब्जा जमा लिया। इराक को समझाने-बुझाने की तमाम राजनयिक कोशिशें जब नाकाम रहीं तो संयुक्त राष्ट्रसंघ ने कुवैत को मुक्त कराने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे दी।
अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसे ‘नई विश्व व्यवस्था’ की संज्ञा दी। 36 देशों की मिलीजुली और 660000 सैनिकों की भारी-भरकम फौज ने इराक के विरूद्ध मोर्चा खोला और उसे परास्त कर दिया। इसे प्रथम खाड़ी युद्ध कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस सैन्य अभियान को ‘ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म’ कहा जाता है जो एक हद तक अमरीकी सैन्य अभियान ही था।
34 देशों की इस मिली जुली सेना में 75 प्रतिशत सैनिक अमरीका के ही थे। इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का ऐलान था कि यह ‘सौ जंगों की एक जंग’ साबित होगा लेकिन इराकी सेना जल्दी ही हार गई और उसे कुवैत से हटने पर मजबूत होना पड़ा।
प्रथम खाड़ी-युद्ध से यह बात जाहिर हो गई कि बाकी देश सैन्य-क्षमता के मामले अमरीका से बहुत पीछे हैं
अमरीका ने इस युद्ध में मुनाफा कमाया। कई रिपोर्टो में कहा गया कि अमरीका ने जितनी रकम इस जंग पर खर्च की उससे कहीं ज्यादा रकम उसे जर्मनी, जापान और सऊदी अरब जैसे देशों से मिली थी।
क्लिंटन का दौर
प्रथम खाड़ी युद्ध जीतने के बावजूद जार्ज बुश 1992 में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार विलियम जेफर्सन (बिल) क्लिंटन से राष्ट्रपति-पद का चुनाव हार गए। क्लिंटन ने विदेश-नीति की जगह घरेलू नीति को अपने चुनाव-प्रचार का निशाना बनाया था। बिल क्लिंटन 1996 में दुबारा चुनाव जीते और इस तरह वे आठ सालों तक राष्ट्रपति-पद पर रहे।
क्लिंटप सरकार ने सैन्य-शक्ति और सुरक्षा जैसी ‘कठोर राजनीत’ की जगह लोकतंत्र के बढ़ावे, जलवायु-परिवर्तन तथा विश्व व्यापार जैसे ‘नरम मुद्दों’ पर ध्यान केंद्रित किया।
एक बड़ी घटना 1999 में हुई। अपने प्रांत कोसोवो में युगोस्लाविया ने अल्बानियाई लोगों के आंदोलन को कुचलने के लिए सैन्य कार्रवाई की।
इराके जवाब में अमरीकी नेतृत्व में नाटो के देशों ने युगोस्लावियाई क्षेत्रों पर दो महीने तक बमबारी की। स्लोबदान मिलोसेविच की सरकार गिर गयी और कोसोवो पर नाटो की सेना काबिज हो गई। क्लिंटन के दौर में दूसरी बड़ी सैन्य कार्रवाई नैरोबी (केन्या) और दारे-सलाम (तंजानिया) के अमरीकी दूतावासों पर बमबारी के जवाब में 1998 हुई। अतिवादी इस्लामी विचारों से प्रभावित आंतकवादी संगठन ‘अल-कायदा’ को इस बमबारी का जिम्मेवार ठहराया गया। इस बमबारी के कुछ दिनों के अंदर राष्ट्रपति क्लिंटन ने ‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’ का आदेश दिया।
अमरीका पर आरोप लगा कि उसने अपने इस अभियान में कुछ नागरिक ठिकानों पर भी निशाना साधा
9/11 और ‘आंतकवाद के विरूद्ध विश्वव्यापी युद्ध’
11 सितंबर 2001 के दिन विभिन्न अरब देशों के 19 अपहरणकर्त्ताओं ने उड़ान भरने के चंद मिनटों बाद चार अमरीकी व्यावसायिक विमानों पर कब्जा कर लिया। अपहराणकर्ता इन विमानों को अमरीका की महत्वपूर्ण इमारतों की सीध में उड़ाकर ले गये। दो विमान न्यूयार्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी और दक्षिणी टावर से टकराए। तीसरा विमान वर्जिनिया
के अर्लिंगटन स्थित ‘पेंटागन’ से टकराया। ‘पेंटागन’ में अमरीकी रक्षा-विभाग का मुख्यालय है। चौथे विमान को अमरीकी कांग्रेस की मुख्य इमारत से टकराना था लेकिन वह पेन्सिलवेनिया के एक खेत में गिर गया। इस हमले को ‘नाइन एलेवन’ कहा जाता है
इस हमले में लगभग तीन हजार व्यक्ति मारे गये। उन्होंने इस घटना की तुलना 1814 और 1941 की घटनाओं से की 1814 में ब्रिटेन ने वाशिंग्टन डीसी में आगजनी की थी और 1941 में जापानियों ने पर्ल पर हमला किया था।
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9/11 के जवाब में अमरीका ने फौरन कदम उठाये और भयंकर कार्रवाई की। अब क्लिंटन की जगह रिपब्लिकन पार्टी के जार्ज डब्ल्यू बुश राष्ट्रपति थे। ये पूर्ववर्ती राष्ट्रपति एच डब्ल्यू बुश के पुत्र हैं।
‘आतंकवाद के विरूद्ध विश्वव्यापी युद्ध’ के अंग के रूप में अमरीका ने ‘ऑपरेशन एन्डयूरिंग फ्रीडम’ चलाया। यह अभियान उन सभि के खिलाफ चला जिन पर 9/11 का शक था। इस अभियान में मख्य निशान अल-कायदा और अफगानिस्तान के तालिबान-शासन को बनाया। गया। तालिबान के शासन के पाँव जल्दी ही उखड़ गए लेकिन तालिबान और अल-कायदा के अवशेष अब भी सक्रिय हैं।
अमरीकी सेना ने पूरे विश्व में गिरफ्तायाँ कीं। गिरफ्तार लोगों को अलग-अगल देशों में भेजा गया और उन्हें खुफिया जेलखानों में बंदी बनाकर रखा गया। क्यूबा के निकट अमरीकी नौसेना का एक ठिकाना ग्वांतानामो बे में है। कुछ बंदियों को वहाँ रखा गया। इस जगह रखे गए बंदियों को न तो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की सुरक्षा प्राप्त है और न ही अपने देश या अमरीका के कानूनों की।
इराक आक्रमण
2003 के 19 मार्च को अमरीका ने ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ के कूटनाम से इराक पर सैन्य-हमला किया।
संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इराक पर इस हमले की अनुमति नहीं दी थी।
हमले के मकसद इराक के तेल-भंडार पर नियंत्रण और इराक में अमरीका की मनपसंद सरकार कायम करना1
सद्दाम हुसैन की सरकार तो चंद रोज में ही जाती रही, लेकिन इराक को ‘शांत’ कर पाने में अमरीका सफल नहीं हो सका है। इराक में अमरीका के खिलाफ एक पूर्णव्यापी विद्रोह भड़क उठा। अमरीका के 3000 सैनिक इस युद्ध में मरे
एक अनुमान के अनुसार अमरीकी हमले के बाद से लगभग 50000 नागरिक मारे गये हैं।
इराक पर अमरीकी हमला सैन्य और राजनीतिक धरातल पर असफल सिद्ध हुआ है।
‘वर्चस्व’ ‘दादगिरी’
सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया में एकमात्र महाशक्ति अमरीका बचा। जब अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था किसी एक महाशक्ति या कहें कि उद्धत महाशक्ति के दबदबे में हो तो
इसे’ एकध्रुवीय’ व्यवस्था भी कहा जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ताकत का एक ही केंद्र हो तो इसे ‘वर्चस्व’ (Hegemony) शब्द के इस्तेमाल से वर्णित करना ज्यादा उचित होगा।
वर्चस्व – सैन्य शक्ति के अर्थ में
‘हेगेमनी’ शब्द की जड़ें प्राचीन यूनान में हैं। इस शब्द से किसी एक राज्य के नेतृत्व या प्रभुत्व का बोध होता है।
‘हेगेमनी’
अर्थ आज विश्व –राजनीतिक में अमरीका की हैसियत को बताने में इस्तेमाल होता है। क्या आपको आयशा की याद है जिसकी एक ढाँग अमरीकी हमले में जाती रही? यही है वह सैन्य वर्चस्व जिसने उसकी आत्मा को तो नहीं लेकिन उसके शरीर को जरूर पंगु बना दिया।
अमरीका की मौजूदा ताकत की रीढ़ उसकी बढ़ी-चढ़ी सैन्य है। आज अमरीका अपनी सैन्य क्षमता के बूते पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता है।
अपनी सेना को युद्धभूमि से अधिकतम दूरी पर सुरक्षित रखकर वह अपने दुश्मन को उसके घर में ही पंगु बना सकता है।
अमरीका से नीचे के कुल 12 ताकतवर देश एक साथ मिलकर अपनी सैन्य क्षामता के लिए जितना खर्च करते हैं उससे कहीं ज्यादा अपनी सैन्य क्षमता के लिए के अकेले अमरीका करता है।
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पेंटागन अपनी बजट का एक बड़ा हिस्सा रक्षा अनुसंधान और विकास के मद में अर्थात् प्रौधोगिकी पर खर्च करता
अमरीका आज सैन्य प्रौद्योगिकी के मामले में इतना आगे है कि किसी और देश के लिए इस मामले में उसकी बराबरी कर पाना संभव नहीं है।
इराक पर अमरीकी हमले से अमरीका की कुछ कमजोरियाँ उजागर हुई हैं। अमरीका इराक की जनता को अपने नेतृत्व वाली गठबंधन सेना के आगे झुका पाने में सफल नहीं हुआ है।
वर्चस्व – ढाचागत ताकत के अर्थ में
वर्चस्व का दूसरा अर्थ पहले अर्थ बहुत अलग है। इसका रिश्ता वैश्विक अर्थव्यवस्था की एक खास समझ से
वर्चस्व के इस दूसरे अर्थ को ग्रहण करें तो इसकी झलक हमें विश्वव्यापी ‘सार्वजनिक वस्तुओं’ को मुहैया कराने की अमरीकी भूमिका में मिलती है। ‘सार्वजनिक वस्तुओं’ से आशय
ऐसी चीजों से है जिसका उपभोग कोई एक व्यक्ति करे तो दूसरे को उपलब्ध इसी वस्तु की मात्रा में कोई कमी नहीं आए। स्वच्छ वायु और सड़क सार्वजनिक वस्तु के उदाहरण हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में सार्वजनिक वस्तु का सबसे बढि़या उदाहरण समुद्री व्यापार-मार्ग (सी लेन ऑव कम्युनिकेशन्स – SLOCs) हैं जिनका इस्तेमाल व्यापारिक जहाज करते हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुक्त-व्यापार समुद्री व्यापार-मार्गो के खुलेपन के बिना संभव नहीं। दबदबे वाला देश अपनी नौसेना की ताकत से समुद्री व्यापार-मार्गो पर आवाजाही के नियम तय करता है और अंतर्राष्ट्रीय समुद्र में अबाध आवाजाही को सुनिश्चित करता है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश नौसेना का जोर घट गया। अब यह भूमिका अमरीकी नौसेना निभाती है जिसकी उपस्थिति दुनिया के लगभग सभी महासागरों में है।
वैश्कि सार्वजनिक वस्तु का एक और उदाहरण है – इंटरनेट। आज इंटरनेट के जरिए वर्ल्ड वाइड वेव (जगत-जोड़ता-जाल) का आभासी संसार साकार हो गया दीखता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंटरनेट अमरीकी सैन्य अनुसंधान परियोजना का परिणाम है।
विश्व की अर्थव्यवस्था में अमरीका की 21 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। विश्व के कुल व्यापार में अमरीका की लगभग 14 प्रतिशत की हिस्सेदारी है1 विश्व की अर्थव्यवस्था का
अमरीका की अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें कोई अमरीकी कंपनी अग्रणी तीन कंपनियों में से एक नहीं हो। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रेटनवुड प्रणाली कायम हुई थी। अमरीका द्वारा कायम यह प्रणाली आज भी विश्व की अर्थव्यवस्था की बुनियादी संरचना का काम कर रही है। इस तरह हम विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन को अमरीकी वर्चस्व का परिणाम मान सकते हैं।
अमरीका की ढाँचागत ताकत का एक मानक उदाहरण एमबीए (मास्टर ऑव बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन) की अकादमिक डिग्री है। अमरीकी धारण है कि व्यवसाय अपने आप में एक पेशा है जो कौशल पर निर्भर करता है और इस कौशल को विश्वविद्यालय में अर्जित किया जा सकता है। यूनिवर्सिटी ऑव पेन्सिलवेनिया में वार्ह्टन स्कूल के नाम से विश्व का पहला ‘बिजनेस स्कूल’ खुला। इसकी स्थापना सन् 1881 में हुई। एमबीए के शुरूआती पाठ्यक्रम 1900 से आरंभ हुए। अमरीका से बाहर एमबीए के किसी पाठ्यक्रम की शुरूआत पाठ्क्रम सन् 1950 में ही जाकर हो सकी। आज दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं जिसमें एमबीए को एक प्रतिष्ठत अकादमिक डिग्री का दर्जा हासिल न हो। इस बात से हमें अपने दक्षिण अफ्रीकी दोस्त जाबू की याद आती है। ढाँचागत
वर्चस्व को ध्यान में रखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जाबू के पिता क्यों जोर दे रहे थे कि वह पेंटिगं की पढ़ाई छोड़कर एमबीए की डिग्री ले।
वर्चस्व – सांस्कृतिक अर्थ में
वर्चस्व के इस तीसरे अर्थ का रिश्ता ‘सहमति गढ़ने’ की ताकत से है। यहाँ वर्चस्व का आशय है सामाजिक, राजनीतिक और खासकर विचारधारा के धरातल पर किसी वर्ग की बढ़त या दबदबा।
प्रभुत्वशाली देश सिर्फ सैन्य शक्ति से काम नहीं लेता: वह अपने प्रतिद्वंद्वी और अपने से कमजोर देशों के व्यवहार-बरताव को अपने मनमाफिक बनाने के लिए विचारधारा से जुड़े साधनों का भी इस्तेमाल करता है।
प्रभुत्शाली देश जोर-जबर्दस्ती और रजामंदी दोनों ही तरीकों से काम लेता है।
आज विश्व में अमरीका का दबदबा सिर्फ सैन्य शक्ति और आर्थिक बढ़त के बूते ही नहीं बल्कि अमरीका की सांस्कृतिक मौजूगी भी इसका एक कारण है।
अमरीकी संस्कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्यादा ताकतवर है। वर्चस्व का यह सांस्कृति पहलू है जहाँ जोर-जबर्दस्ती से नहीं बल्कि रजामंदी से बात मनवायी जाती है।
आपको आन्द्रेई और उसकी ‘कुल’ जीन्स की याद होगी। आन्द्रेई के माता-पिता जब सोवियत संघ में युवा थे तो उनकी पीढ़ी के लिए नीली जीन्स ‘आजादी’ का परम प्रतीक हुआ करती थी। युवक-युवती अक्सर अपनी साल-साल भर की तनख्वाह किसी ‘चोरबाजार’ में विदेशी पर्यटकों से नीली जीन्स खरीदने पर खर्च कर देते थे। ऐसा चाहे जैसे भी हुआ हो
लेकिन सोवियत संघ की एक पूरी पीढ़ी के लिए नीली जीन्स ‘अच्छे जीवन’ की आकांक्षओं का प्रतीक बन गई थी-एक ऐसा’ अच्छा जीवन’ जो सोवियत संघ में उपलब्ध नहीं था। शीतयुद्ध के दौरान अमरीका को लगा कि सैन्य शक्ति के दायरे में सोवियत संघ को मात दे पाना मुश्किल है।
पूरे शीतयुद्ध के दौरान विश्व की अर्थव्यवस्था पूँजीवादी तर्ज पर चली। अमरीका ने सबसे बड़ी जीत सांस्कृतिक प्रभुत्व के दायरे में हासिल की। सोवियत संघ में नीली जीन्स के लिए दीवानगी इस बात को साफ-साफ जाहिर करती है कि अमरीका एक सांस्कृतिक उत्पाद के दम पर सोवियत संघ में दो पीढि़यों के बीच दूरिँयाँ पैदा करने में कामयाब रहा।
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अमरीकी शक्ति के रास्ते में अवरोध
अमरीकी शक्ति की राह में तीन अवरोध हैं। 11 सितंबर 2001 की घटना के बाद के सालों में ये व्यवधान एक तरह से निष्क्रिय जान पड़ने लगे थे लेकिन धीरे-धीरे फिर प्रकट होने लगे हैं।
पहला व्यवधान स्वयं अमरीका की संस्थागत बुनावट है। यहाँ शासन के तीन अंगों के बीच शक्ति का बँटवारा है और यही बुनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्य शक्ति के बेलगाम इस्तेमाल पर अंकुश लगाने का काम करती है।
अमरीका की ताकत के आड़े आने वाली दूसरी अड़चन भी अंदरूनी है। इस अड़चन के मूल है अमरीकी समाज जो अपनी प्रकृति में उन्मुक्त है। अमरीका में जन-संचार के साधन समय—समय पर वहाँ के जनमत को एक खास दिशा में मोड़ने की भले कोशिश करें लेकिन अमरीकी राजनीतिक संस्कृति में शासन के उद्देश्य और तरीके को लेकर गहरे संदेह का भाव भरा है। अमरीका के
विदेशी सैन्य-अभियानों पर अंकुश रखने में यह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है।
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अमरीकी ताकत की राह में मौजूद तीसरा व्यवधान सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आज सिर्फ एक संगठन है जो संभवतया अमरीकी ताकत पर लगाम कम सकता है और इस संगठन का नाम है ‘नाटो’ अर्थात् उत्तर अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन। अमरीका का बहुत बड़ा हित लोकतांत्रिक देशों के इस संगठन को कायम रखने से जुड़ा है क्योंकि इन देशों में बाजारमूलक अर्थव्यवस्था चलती है। इसी कारण इस बात की संभावना बनती है कि ‘नाटो’ में शामिल अमरीका के साथी देश उसके वर्चस्व पर कुछ अंकुश लगा सकें।
अमरीका से भारत के संबंध
शीतयुद्ध के वर्षो में भारत अमरीकी गुट के विरूद्ध खड़ा था। इन सालों में भारत की करीबी दोस्ती सोवियत संघ से थी। सोवियत संघ के बिखरने के बाद भारत ने पाया कि लगातार कटुतापूर्ण होते अंतर्राष्ट्रीय माहौल में वह मित्रविहीन हो गया है। इसी अवधि में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करने तथा उसे वैश्कि अर्थव्यवस्था से जोड़ने का भी फैसला किया। इस नीति और हाल के सालों में
प्रभावशाली आर्थिक वृद्धि-दर के कारण भारत अब अमरीका समेत कई देशों के लिए आकर्षक आर्थिक सहयोगी बन गया है।
सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत के कुल निर्यात का 65 प्रतिशत अमरीका को जाता है। बोईग के 35 प्रतिशत तकनीकी कर्मचारी भारतीय मूल हैं।
3 लाख भारतीय ‘सिलिकन वैली’ में काम करते हैं।
उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की 15 प्रतिशत कंपनियों की शुरूआत अमरीका में बसे भारतीयों ने की है।
यह अमरीका के विश्वव्यापी वर्चस्व का दौर है और बाकी देशों की तरह भारत को भी फैसला करना है कि अमरीका के साथ वह किस तरह के संबंध रखना चाहता है।
भारत में तीन संभावित रणनीतियों पर बहस चल रही है-
भारत के जो विद्धान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को सैन्य शक्ति क संदर्भ में देखते-समझते हैं, वे भारत और अमरीका की बढ़ती हुई नजदीकी से भयभीत हैं। ऐसे विद्धान यही चाहेंगे कि भारत वाशिंग्टन से अपना अलगाव बनाए रखे और अपना ध्यान अपनी राष्ट्रीय शक्ति को बढ़ाने पर लगाये। कुछ विद्धान मानते हैं कि भारत और अमरीका के हितों में हेलमेल लगातार बढ़ रहा है और यह भारत के लिए ऐतिहासिक अवसर है। ये विद्धान एक ऐसी रणनीति अपनाने की तरफदारी करते हैं जिससे भारत अमरीकी वर्चस्व का फायदा उठाए। वे चाहते हैं कि दोनों
के आपसी हितों का मेल हो इन विद्धानों की राय है कि अमरीका के विरोध की रणनीति व्यर्थ साबित होगी और आगे चलकर इससे भारत को नुकसान होगा।
कुछ विद्धानों की राय है कि भारत अपनी अगुआई में विकासशील देशों का गठबंधन बनाए। कुछ सालों में यह गठबंधन ज्यादा ताकतवर हो जाएगा और अमरीकी वर्चस्व के प्रतिकार में सक्षम हो जाएगा।
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वर्चस्व से कैसे निपटें?
कब तक चलेगा अमरीकी वर्चस्व? इस वर्चस्व से कैसे बचा जा सकता है?
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ऐसी चीजें गिनी-चुनी ही हैं जो किसी देश की सैन्यशक्ति पर लगाम कस सकें। हर देश में सरकार होती है लेकिन विश्व-सरकारा जैसी कोई चीज नहीं होती।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति दरअसल ‘सरकार विहीन राजनीति’ है। कुछ कायदे-कानून जरूर हैं जो युद्ध पर कुछ अंकुश रखते हैं लेकिन ये कायदे-कानून युद्ध को रोक नहीं सकते। शायद ही कोई देश होगा
जो अपनी सुरक्षा को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के हवाले कर दे। तो क्या इन बातों से यह समझा जाए कि न तो वर्चस्व से कोई छुटकारा है और न ही युद्ध से?
भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अमरीकी वर्चस्व को चुनौती दे पाने की संभावना है लेकिन इन देशों के बीच आपसी विभेद हैं और इन विभेदों के रहते अमरीका के विरूद्ध इनका कोई गठबंधन नहीं हो सकता।
कुछ लोगों का तर्क है कि वर्चस्वजनित अवसरों के लाभ उठाने की रणनीति ज्यादा संगत है1
सबसे ताकतवर देश के विरूद्ध जाने के बजाय उसके वर्चस्व-तंत्र में रहते हुए अवसरों का फायदा उठाना कहीं उचित रणनीति है। इसे ‘बैंडवैगन’ अथवा ‘जैसी बहे बयार पीठ तैसी कीजै’ की रणनीति कहते हैं।
देशों के सामने एक विकल्प यह है कि वे अपने को ‘छुपा’ लें। इसका अर्थ होता है दबदबे वाले देश से यथासंभव दूर-दूर रहना। इस व्यवहार के कई उदाहरण हैं। चीन, रूस और यूरोपीय संघ सभी एक न एक तरीके से अपने को अमरीकी निगाह में चढ़ने से बचा
रहे हैं। इस तरह से अमरीका के किसी बेवजह या बेपनाह क्रोध की चपेट में आने ये देश अपने को बचाते हैं।
कुछ लोग मानते हैं कि अमरीकी वर्चस्व का प्रतिकार कोई देश अथवा देशों का समूह नहीं कर पाएगा क्योंकि आज सभी देश अमरीकी ताकत के आागे बेबस हैं। ये लोग मानते हैं कि राज्येतर संस्था
अमरीकी वर्चस्व को आर्थिक और सांस्कृति धरातल पर चुनौती मिलेगी। यह चुनौती स्वयंसेवी संगठन, सामाजिक आंदोलन और जनमत के आपसी मेल से प्रस्तुत होगी: मीडीया का एक तबका, बुद्धिजीवी, कलाकार और लेखक आदि अमरीकी वर्चस्व के प्रतिरोध के लिए आगे आएंगे। ये राज्येतर संस्थाएँ विश्वव्यापी नेटवर्क बना सकती हैं जिसमें अमरीकी नागरिक भी शामिल होंगे और साथ मिलकर अमरीकी नीतियों की आलोचना तथा प्रतिरोध किया जा सकेगा। प्रतिरोध ही एकमात्र विकल्प बचता है।Samkalin vishv me Amerkee varchasv class 12
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