7. समकालीन विश्व में सुरक्षा | Samkalin vishwa me suraksha class 12 notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय 7 समकालीन विश्व में सुरक्षा का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है।Samkalin vishwa me suraksha class 12 notes

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अध्याय 7
समकालीन विश्व में सुरक्षा

सुरक्षा क्या है, भारत के सुरक्षा सरोकार क्या-क्या हैं? यह अध्याय इन सवालों पर बहस करता है। इसमें सुरक्षा को समझने के दो नज़रियों की चर्चा की गई है।

सुरक्षा क्या है?

सुरक्षा का बुनियादी अर्थ है खतरे से आज़ादी।

जो लोग सुरक्षा विषयक अध्ययन करते हैं उनका कहना है कि केवल उन चीजों को ‘सुरक्षा‘ से जुड़ी चीजों का विषय बनाया जाय जिनसे जीवन के ‘केंद्रीय मूल्यों‘ को खतरा हो। तो फिर सवाल बनता है कि किसके केंद्रीय मूल्य? क्या पूरे देश के ‘केंद्रीय मूल्य‘? आम स्त्री-पुरूषों के केंद्रीय मूल्य? क्या नागरिकों की नुमाइंदगी करने वाली सरकार हमेशा ‘केंद्रीय मूल्यों‘ का वही अर्थ ग्रहण करती है जो कोई साधारण नागरिक?

जो मूल्य हमें प्यारे हैं कमोबेश उन सभी को बड़े या छोटे ख़तरे होते हैं। जब भी कोई राष्ट्र कुछ करता है अथवा कुछ करने में असफल होता है तो संभव है इससे किसी अन्य देश के केंद्रीय मूल्यों को हानि चहुँचती हो। जब भी राहगीर अपनी राह में लूटा जाता है तो आम आदमी के रोजमर्रा के जीवन को क्षति पहुँचती है। फिर भी, अगर हम सुरक्षा का इतना व्यापक अर्थ करें तो हाथ-पांव हिलाना भी मुश्किल हो जाएगा; हर जगह हमें ख़तरे नज़र आएँगे।

सुरक्षा का रिश्ता फिर बड़े गंभीर खतरों से है; ऐसे खतरे जिनको रोकने के उपाय न किए गए तो हमारे केंद्रीय मूल्यां को अपूरणीय क्षति पहुँचेगी।

सुरक्षा की विभित्र धारणाओं को दो कोटियों में रखकर समझने की कोशिश करते हैं यानी सुरक्षा की पारंपरिक और अपारंपरिक धारणा।

पारंपरिक धारणा – बाहरी सुरक्षा

सुरक्षा की पारंपरिक अवधारणा में सैन्य ख़तरे को किसी देश के लिए सबसे ज़्यादा ख़तरनाक माना जाता है। इस ख़तरे का स्रोत कोई दूसरा मूल्क होता है जो सैन्य हमले की धमकी देकर सुंप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता जैसे किसी देश के केंद्रीय मूल्यों के लिए ख़तरा पैदा करता है। सैन्य कार्रवाई से आम नागरिकों के जीवन को भी ख़तरा होता है।

बुनियादी तौर पर किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में तीन विकल्प होते है – आत्मसमर्पण करना तथा दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किए मान लेना अथवा युद्ध से होने वाले नाश को इस हद तक बढ़ाने के संकेत देना कि दूसरा पक्ष सहमकर हमला करने से बाज आये या युद्ध ठन जाय तो अपनी रक्षा करना ताकि हमलावर देश अपने मकसद में कामयाब न हो सके और पीछे हट जाए अथवा हमलावार को पराजित कर देना।

परंपरागत सुरक्षा-नीति का एक तत्त्व और है। इसे शक्ति-संतुन कहते हैं। पारंपरिक सुरक्षा-नीति का चौथा तत्त्व है गठबंधन बनाना। गठबंधन में कई देश शामिल होते हैं और सैन्य हमले को रोकने अथवा उससे रक्षा करने के लिए समवेत कदम उठाते हैं।

राष्ट्रीय हितों पर आधारित होते हैं और राष्ट्रीय हितों के बदलने पर गठबंधन भी बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमरीका ने सन् 1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ इस्लामी उग्रवादियों को समर्थन दिया लेकिन ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में अल-कायदा नामक समूह के आतंकवादियों ने जब 11 सितंबर 2001 के दिन उस पर हमला किया तो उसने इस्लामी उग्रवादियां के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

किसी देश की सुरक्षा को ज़्यादातर ख़तरा उसकी सीमा के बाहर से होता है। इसकी वज़ह है अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था।

किसी देश के भीतर हिंसा के ख़तरों से निपटने के लिए एक जानी-पहचानी व्यवस्था होती है – इसे सरकार कहते हैं। लेकिन, विश्व-राजनीति में ऐसी कोई केंद्रीय सत्ता नहीं जो सबके ऊपर हो।

बनावट के अनुरूप संयुक्त राष्ट्रसंघ अपने सदस्य देशों का दास है और इसके सदस्य देश जितनी सत्ता इसे हासिल होती है। अतः विश्व-राजनीति में हर देश को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद उठानी होती है।

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पारंपरिक धारण- आंतरिक सुरक्षा

सुरक्षा की परंपरागत धारणा का ज़रूरी रिश्ता अंदरूनी सुरक्षा से भी है। आंतरिक सुरक्षा ऐतिहासिक रूप से सरकारों का सरोकार बनी चली आ रही थी लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ऐसे हालात और संदर्भ सामने आये कि आंतरिक सुरक्षा पहले की तुलना में कहीं कम महत्त्व की चीज बन गई। सन् 1945 के बाद ऐसा जान पड़ा कि संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ अपनी सीमा के अंदर एकीकृत और शांति संपन्न हैं। अधिकांश यूरोपीय देशां, खासकर ताकतवर पश्चिमी मुल्कों के सामने अपनी सीमा के भीतर बसे समुदायों अथवा वर्गो से कोई गंभीर खतरा नहीं था। इस कारण इन देशों ने अपना ध्यान सीमापार के खतरों पर केंद्रित किया।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध का दौर चला और इस दौर में संयुक्त राष्ट्र अमरीका के नेतृत्व वाला पश्चिमी गुट तथा सोवियत संघ की अगुआई वाला साम्यवादी गुट एक-दूसरे के आमने-सामने थे। सबसे बड़ी बात यह कि दोनों गुटों को अपने ऊपर एक-दूसरे से सैन्य हमले का भय था। इसके अतिरिक्त, कुछ यूरापीय देशों को अपने उपनिवेशों में उपनिवेशीकृत जनता से खून-खराबे की चिंता सता रही थी। अब ये लोग आज़ादी चाहते थे। इस सिलसिले में हम याद करें कि 1950 के दशक में फ्रांस को वियतनाम अथवा सन् 1950 और 1960 के दशक में ब्रिटेन को केन्या में जूझना पड़ा।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जितने युद्ध हुए उसमें एक तिहाई अलग राष्ट्र बनाने पर तुले अंदर के अलगाववादी आंदोलनों से भी इन देशां को खतरा था। सन् 1946 से 1991 के बीच गृह युद्धों की संख्या में दोगुनी वृद्धि हुई है जो पिछले 200 वर्षो में सबसे लंबी छलांग है। पड़ोसी देशों से युद्ध और आंतरिक संघर्ष नव-स्वतंत्र देशों के सामने सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती थे।

सुरक्षा के पारंपरिक तरीके

सुरक्षा की परंपरागत धारणा में स्वीकार किया जाता है कि हिंसा का इस्ताल यथासंभव सीमित होना चाहिए। आज लगभग पूरा विश्व मानता है कि किसी देश को युद्ध उचित कारणों यानी आत्म-रक्षा अथवा दूसरों को जनसंहार से बचाने के लिए ही करना चाहिए। किसी युद्ध में युद्ध-साधनों का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए। युद्धरत् सेना को चाहिए कि वह संघर्षविमुख शत्रु, निहत्थे व्यक्ति अथवा आत्मसपर्मण करने लिए ज़रूरी हो और उसे एक सीमा तक ही हिंसा का सहारा लेना चाहिए।

सुरक्षा की परंपरागत धारणा इस संभावना से इन्कार नहीं करती कि देशों के बीच एक न एक रूप में सहयोग हो। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है – निरस्त्रीकरण, अस्त्र, नियंत्रण तथा विश्वास की बहाली। निरस्त्रीकरण की माँग होती है कि सभी राज्य चाहें उनका आकार, ताकत और प्रभाव कुछ भी हो, कुछ खास किस्म के हथियारों से बाज आयें। उदाहरण के लिए, 1972 की जैविक हथियार संधि (बॉयोलॉजिकल वीपन्स कंवेंशन-BWC) तथा 1992 की रासायनिक हथियार संधि (केमिल वीपन्स कंवेंशन- बूब ) में ऐसे हथियार को बनाना और रखना प्रतिबंधित कर दिया गया है। 155 से ज्यादा देशों ने (WBC)संधि पर और 181 देशों ने बूब संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। इन दोनों संधियों पर दस्तख़्त करने वालों में सभी महाशक्तियाँ शामिल हैं। लेकिन महाशक्तियाँ – अमरीका तथा सोवियत संघ सामूहिक संहार के अस्त्र यानी परमाण्विक हथियार का विकल्प नहीं छोड़ना चाहती थीं इसलिए दोनों ने अस्त्र-नियंत्रण का सहारा लिया। सन् 1972 की एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) ने अमरीका और सोवियत संघ को बैलेस्टिक मिसाइलों को रक्षा-कवच के रूप में इस्तेमाल करने से रोका।

संधि में दोनों देशों को सीमित संख्या में ऐसी रक्षा-प्रणाली तैनात करने की अनुमति थी लेकिन इस संधि ने दोनों देशों को ऐसी रक्षा-प्रणाली के व्यापक उत्पादक से रोक दिया। अमरीका और सोवियत संघ ने अस्त्र-नियंत्रण की कई अन्य संधियों पर हस्ताक्षर किए जिसमें परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी-NTP (1968) भी एक अथ। में अस्त्र नियंत्रण संधि ही थी क्यांकि इसने परमाण्विक हथियारों के उपार्जन को कायदे-कानून के दायरे में ला खड़ा किया। जिन देशों ने सन् 1967 से जहले परमाणु हथियार बना लिये थे या उनका परीक्षण कर लिया था उन्हें इस संधि के अंतर्गत इन हथियारों को रखने की अनुमति दी गई। जो देश सन् 1967 तक ऐसा नहीं कर पाये थे उन्हें ऐसे हथियारों को हासिल करने के अधिकार से वंचित किया गया। परमाणु अप्रसार संधि ने परमाण्विक आयुधों को समाप्त तो नहीं किया लेकिन इन्हें हासिल कर सकने वाले देशों की संख्या ज़रूर कम की।

सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में यह बात भी मानी गई कि विश्वास बहाली के उपायों से देशों के बीच हिंसाचार कम किया जा सकता है।

सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में माना जाता है कि सैन्य बल से सुरक्षा को खतरा पहुँचता है और सैन्य बल ही सुरक्षा को कायम रखा जा सकता है।

सुरक्षा की अपारंपकि धारणा

सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा सिर्फ सैन्य खतरों से संबंद्ध नहीं। इसमें मानवीय अस्तित्व पर चोट करने वाले व्यापक खतरों और आशंकाआ को शामिल किया जाता है।

सुरक्षा की आपरंपरिक धारणा में संदर्भी का दायरा बड़ा होता है। जब हम पूछते हैं कि ‘सुरक्षा किसको‘? तो सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा के प्रतिपादकों का जवाब होता है – ‘‘सिर्फ राज्य ही नहीं व्यक्तियों और समुदायों या कहें कि समूची मानवता को सुरक्षा की ज़रूरत है।‘‘ इसी कारण सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा को ‘मानवता की सुरक्षा‘ अथवा ‘विश्व-रक्षा‘ कहा जाता है।

मानवता की रक्षा का विचार जनता-जनार्दन की सुरक्षा को राज्यां की सुरक्षा से बढ़कर मानता है।

नागरिकों की विदेशी हमले से बचाना भले ही उनकी सुरक्षा की जरूरी शर्त्त हो लेकिन इतने भर को पर्याप्त नहीं माना जा सकता। सच्चाई यह है कि पिछले 100 वर्षो में जितने लोग विदशी सेना के हाथों मारे गए उससे कहीं ज़्यादा लोग खुद अपनी ही सरकारों के हाथों खेत रहे।

मानवता की सुरक्षा के सभी पैरोकार मानते हैं कि इसका प्राथमिक लक्ष्य व्यक्तियों की संरक्षा है। मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ लेने वाले पैरोकारों का तर्क है कि खतरों की सूची में अकाल, महामारी और आपदाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि युद्ध, जन-संहार और आतंकवाद साथ मिलकर जितने लोगों को मारते हैं उससे कहीं ज़्यादा लोग अकाल, महामारी और प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाते हैं।

मानवता की रक्षा के व्यापकतम नज़रिए में जोर ‘अभाव से मुक्ति‘ और ‘भय से मुक्ति‘ पर दिया जाता है। विश्वव्यापी खतरे जैसे वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग), अंतर्राष्ट्रीय आंतकवाद तथा एड्स और बर्ड फ्लू जैसी महामारियों के मद्देनज़र 1990 के दशक में विश्व-सुरक्षा की धारणा उभरी। कोई भी देश इन समस्याओं का समाधान अकेले नहीं कर सकता।

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उदाहरण के लिए, वैश्विक तापवृद्धि से अगर समुद्रतल दो मीटर ऊँच इठता है तो बांग्लादेश का 20 प्रतिशत हिस्सा डूब जाएगा; कमोबेश पूरा मालदीच सागर में समा जाएगा और थाइलैंड की 50 प्रतिशत फीसदी आबादी को खतरा पहुँचेगा। चूँकि इन समस्याओं की प्रकृति वैश्विक है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, भले ही इसे हासिल करना मुश्किल हो।

खतरे के नये स्रोत

सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा के दो पक्ष हैं-मानवता की सुरक्षा और विश्व सुरक्षा।

आतंकवाद का आशय राजनीतिक खून-खराबे से है जो जान-बूझकर और बिना किसी मुरौव्वत के नागरिकों को अपना निशाना बनाता है।

आतंकवाद के चिर-परिचित उदाहरण हैं विमान-अपहरण अथवा भीड़ भरी जगहों जैसे रेलगाड़ी, होटल, बाज़ार या ऐसी ही अन्य जगहों पर बम लगाना। सन् 2001 के 11 सितंबर को आतंकवादीयों ने अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला बोला।

आतंकवाद की अधिकांश घटनाएँ मध्यपूर्व, यूरोप, लातिनी अमरीका और दक्षिण एशिया में हुईं।

मानवाधिकार – मानवाधिकार को तीन कोटियों में रखा गया है। पहली कोटि राजनीतिक अधिकारों की है जैसे अभिव्यक्ति और सभा करने की आज़ादी। दूसरी कोटि आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की है। अधिकारों की तीसरी कोटि में उपनिवेशीकृत जनता अथवा जातीय और मूलवासी अल्पसंख्यकों के अधिकार आते हैं।

1990 के दशक से कुछ घटनाओं मसलन रवांडा में जनसंहार, कुवैत पर इराक का हमला और पूर्वी तिमूर में इंडोनिशियाई सेना के रक्तपात के कारण बहस चल पड़ी है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ को मानवधिकारों के हनन की स्थिति में हस्तक्षेप करना चाहिए या नहीं। कुछ का तर्क है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ का घोषणापत्र अंतर्राष्ट्रीय बिमारी को अधिकार देता है कि वह मानवाधिकारों की रक्षा के लिए हथियार उठाये। दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जिनका तर्क है कि संभव है, ताकतवर देशों के हितों से यह निर्धारित होता हो कि संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवाधिकार-उल्लंघन के किस मामले में कार्रवाई करेगा और किसमें नहीं।

खतरे का एक और स्रोत वैश्विक निर्धनता है। विश्व की जनसंख्या फिलहाल 760 करोड़ है और यह आँकड़ा 21वीं सदी के मध्य तक 1000 करोड़ हो जाएगां फिलहाल विश्व की कुल जनसंख्या-वृद्धि का 50 फीसदी सिर्फ 6 देशों – भारत, चीन, पाकिस्तान, नाइजीरिया, बांग्लादेश और इंडोनेशिया में घटित हो रहा है। अनुमान है कि अगले 50 सालों में दुनिया के सबसे गरीब देशों में जनसंख्या तीन गुनी बढ़ेगी जबकि इसी अवधि में अनेक धनी देशों की जनसंख्या घटेगी। प्रति व्यक्ति उच्च आय और जनसंख्या की कम वृद्धि के कारण धनी देश अथवा सामाजिक समूहों को और धनी बनने में मदद मिलती है जबकि प्रति व्यक्ति निम्न आय और जनसंख्या की तीव्र वृद्धि एक साथ मिलकर गरीब देशों और सामाजिक समूहों को और ग़रीब बनाते हैं।

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में असमानता अच्छी-खासी बढ़ी है। दुनिया में सबसे ज़्यादा सशस्त्र संघर्ष अफ्रीका के सहारा मरूस्थल के दक्षिणवर्ती देशों में होते हैं। यह इलाका दूनिया का सबसे गरीब इलाका है। 21 वीं सदी के शुरूआती समय में इस इलाके के युद्ध में शेष दुनिया की तुलना में कहीं ज़्यादा लोग मारे गए।

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में मौजूद गरीबी के कारण अधिकाधिक लोग बेहतर जीवन खासकर आर्थिक अवसरों की तलाश में उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में प्रवास कर रहे हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मतभेद उठ खड़ा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय कायदे कानून आप्रवासी (जो अपनी मर्जी से स्वेदेश छोड़ते हैं) और शरणार्थी (जो युद्ध, प्राकृतिक आपदा अथवा राजनीतिक उत्पीड़न के कारण स्वदेश छोड़ने पर मज़बूर होते हैं) में भेद करते हैं।

शरणार्थी अपनी जन्मभूमि को छोड़ते हैं जबकि जो लोग अपना घर-बार छोड़ चुके हैं। परंतु राष्ट्रीय सीमा के भीतर ही हैं उन्हें ‘‘आंतरिक रूप से विस्थापित जन‘‘ कहा जाता है। 1990 के दशक के शुरूआती सालों में हिंसा से बचने के लिए कश्मीर घाटी छोड़ने वाले कश्मीरी पंडित ‘‘आंतरिक रूप से विस्थापित जन‘‘ के उदाहरण हैं।

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में सशस्त्र संघर्ष और युद्ध के कारण लाखों लोग शरणार्थी बने और सुरक्षित जगह की तलाश में निकले हैं। 1990 से 1995 के बीच सत्तर देशों के मध्य कुल 93 युद्ध हुए और इसमें लगभग साढ़े 55 लाख लोग मारे गये। 1990 के दशक में कुल 60 जगहों से शरणार्थी प्रवास करने को मजबूर हूए और इसमें तीन को छोड़कर शेष सभी के मूल में सशस्त्र संघर्ष था।

एचआईवी-एड्स, बर्ड फ्लू और सार्स (सिवियर एक्यूट रेसपिरेटॅरी सिंड्रोम-ेंते) जैसी महामारियाँ आप्रवास, व्यवसाय, पर्यटन और सैन्य-अभियानों के जरिए बड़ी तेजी से विभिन्न देशों में फैली हैं।

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2003 तक पूरी दुनिया में 4 करोड़ लोग एचआईवी-एड्स से संक्रमित हो चुके थे। इसमें दो-तिहाई लोग अफ्रीका में रहते हैं जबकि शेष के 50 फीसदी दक्षिण एशिया में।

एबोला वायरस, हैन्टावायरस और हेपेटाइटिस-सी जैसी कुछ नयी महामारियाँ उभरी हैं जिनके बारे में जानकारी भी कुछ खास नहीं है। टीबी, मलेरिया, डेंगी, बुखार और हैजा जैसी पूरानी महामारियों ने औषिधि-प्रतिरोधक रूप धारण कर लिया है

1990 के दशक के उत्तरार्द्ध के सालों से ब्रिटेन ने ‘मैड-काऊ‘ कहामारी के भड़क उठने के कारण अरबों डॉलर का नूकसान उठाया है और बर्ड फ्लू के कारण कई दक्षिण एशियाई देशों को मुर्ग-निर्यात बंद करना पड़ा।

इन महामारियों का संकेत है कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाने की जरूरत है।

सहायोगमूलक सुरक्षा

सुरक्षा पर मंडराते इन अनेक अपारंपरिक ख़तरों से निपटने के लिए सैन्य संघर्ष की नहीं बल्कि आपसी सहयाग की ज़रूरत है। आतंकवाद से लड़ने अथवा मानवाधिकारों को बहाल करने में भले ही सैन्य-बल की कोई भूमिका हो (और यहाँ भी सैन्य-बल एक सीमा तक ही कारगर हो सकता है) लेकिन गरीबी मिटाने, तेल तथा बहुमूल्य धातुओं की आपूर्ति बढ़ाने, आप्रवासियों और शरणार्थियों की आवाजाही के प्रबंधन तथा महामारी के नियंत्रण में सैन्य-बल से क्या मदद मिलेगी यह कहना मुश्किल है। ऐसे अधिकांश मसलों में सैन्य-बल के प्रयोग से मामला और बिगड़ेगा।

सहयोग द्विपक्षीय (दो देशों के बीच), क्षेत्रीय, महादेशीय अथवा वैश्विक स्तर का हो सकता है। सहयोगमूलक सुरक्षा में विभिन्न देशों के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर की अन्य संस्थाएँ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन (संयुक्त राष्ट्रसंघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि) स्वयंसेवी संगठन (एमनेस्टी इंटरनेशनल, रेड क्रॉस, निजी संगठन, तथा दानदाता संस्थाएँ, चर्च और धार्मिक संगठन, मज़दूर संगठन, सामाजिक और विकास संगठन) व्यवसायिक संगठन और निगम तथा जानी-मानी हस्तियाँ (जैसे नेल्सन मंडेला, मदर टेरेसा) शामिल हो सकती हैं।

सहयोग मूलक सुरक्षा में भी अंतिम उपाय के रूप में बल-प्रयोग किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी उन सरकारों से निबटने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे सकती है जो अपनी ही जनता को मार रही हों अथवा गरीबी, महामारी और प्रलयंकारी घटनाओं की मार झेल रही जनता के दुख-दर्द की उपेक्षा कर रही हो।

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भारत – सुरक्षा की रणनीतियाँ

भारत को पारंपरिक (सैन्य) और अपारंपरिक खतरों का सामना करना पड़ा है।

सुरक्षा-नीति का पहला घटक रहा सैन्य-क्षमता को मज़बूत करना क्योंकि भारत पर पड़ोसी देशों से हमले होते हैं। पाकिस्तान ने 1947-48, 1965, 1971 तथा 1999 में और चीन ने सन् 1962 में भारत पर हमल किया। दक्षिण एशियाई इलाके में भारत के चारों तरफ परमाणु परीक्षण करने के फ़सले (1998) को उचित ठहराते हुए भारतीय सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क दिया था। भारत ने सन् 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया था।

भारत की सुरक्षा नीति का दूसरा घटक है अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कायदों और संस्थाओं को मज़बूत करना। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एशियाई एकता, अनौपनिवेशीकरण (कमबवसवदपेंजपवद) और निरस्त्रीकरण के प्रयासों की हिमायत की।

भारत ने हथियारों के अप्रसार के संबंध में एकता सार्वर्भाम और बिना भेदभाव नीति चलाने की पहलकदमी की जिसमें हर देश को सामूहिक संहार के हथियार (परमाणु, जैविक, रासायनिक) से संबद्ध बराबर के अधिकार और दायित्व हों।

भारत उन 160 देशों में शामिल है जिन्हेंने 1970 के क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए हैं। क्योटो प्रोटोकॉल में वैश्विक तापवृद्धि पर काबू रखने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के संबंध में दिशा निर्देश बताए गए हैं। सहयोगमूलक सुरक्षा की पहलकदमियों के समर्थन में भारत ने अपनी सेना संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांतिबहाली के मिशनों में भेजी है।

भारत की सुरक्षा रणनीति का तीसरा घटक है देश की अंदरूनी सुरक्षा-समस्याओं से निबटने की तैयारी। नागालैंड, मिजोरम, पंजाब और कश्मीर जैसे क्षेत्रों से कई उग्रवादी समूहों ने समय-समय पर इन प्रांतों को भारत से अलगाने की कोशिश की। भारत ने राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का पालन किया है। यह व्यवस्था विभिन्न समुदाय और जन-समूहों को अपनी शिकायतो को खुलकर रखने और सत्ता में भागीदारी करने का मौका देती है।

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भारत में अर्थव्यवस्था को इस तरह विकसित करने के प्रयास किए गए हैं कि बहुसंख्यक नागरिकों को गरीबी और अभाव से निज़ात मिले तथा नागरिकों के बीच आर्थिक असमानता ज़्यादा न हो। ये हमारा देश अब भी गरीब है और असामानताएँ मौजूद हैं। फिर भी, लोकतांत्रिक राजनीति से ऐसे अवसर उपलब्ध हैं कि गरीब और वंचित नागरिक अपनी आवाज़ उठा सकें। लोकतांत्रिक रीति से निर्वाचित सरकार के ऊपर दबाव होता है कि वह आर्थिक संवृद्धि को मानवीय विकास का सहगामी बनाए। इस प्रकार, लोकतंत्र सिर्फ राजनीतिक आदर्श नहीं है; लोकतांत्रिक शासन जनता को ज़्यादा सुरक्षा मुहैया कराने का साधन भी है। Samkalin vishwa me suraksha class 12 notes

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