षष्ठः पाठः संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम् | Sanskritsahitya Paryawaranm

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 6 संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम् (Sanskritsahitya Paryawaranm) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

षष्ठः पाठः
संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम्

पाठ-परिचय-पृष्ठों पर रहने वाले प्राणियों के जीवन के अनुकरर परिस्थितियों का संतुलन पर्यावरण कहलाता है। पर्यावरण-परि’ तथा ‘आवरण’दो श्वदों के योग से बना है। गरि का अर्थ ‘नरो तरफ’ तथा ‘आवरण’ का अर्थ-वतावरण होता है। अर्थात् अपने चारों तरफ के गाताना को पयांवरण कहा जाता है। सरका साहित्य केया में भी की चर्चा मिलती है कि पविष को शुद्धता परीपरितकाजीवर रिता है। अतएव हवा, पानी, ‘मही को शुद्धता आवश्यक है। प्रस्तुत पठ में इसी विषय पर प्रकाश डाला गया है कि प्रकृति का सौन्दर्य तथा गाण-जगत् का सनाखत जोवर पर्यावरण पर हो पबित है।

भूमिर्जलं नभो वायुरन्तरिक्षं पशुस्तृणम् ।
साम्यं स्वस्थत्वमेतेषां पर्यावरणसंज्ञकम् ।।
अर्थ-मिट्टी, जल, आकाश, वायु, अन्तरिक्ष, पशु, पास इन सबा की साम्यता तथा शुद्धता को पर्यावरण के नाम से पुकारा जाता है। –
व्याख्याप्रस्तुत श्लोक संस्कृत साहित्ये पर्यावरणम्’ पाठ से उद्भत है। इसमें पर्यावरण की स्वच्छता एवं शुद्धता के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। लेखक का कहना है कि प्राणियों का जीवन पर्यावरण पर ही अवलम्बित है। इसलिए यह आवश्यक है कि इसे सन्तुलित एवं स्वच्छ रखा जाए । इसमें किसी भी प्रकार असंतुलन तथा दोष आने पर पर्यावरण दूषित हो जाता है तथा जीवों का जीवन संकट में पड़ जाता है।
संस्कृतसाहित्यस्य महती परम्परा संसारस्य सर्वान् विषयानूरीकृत्य प्रचलिता। प्रकृतिसंरक्षणं पर्यावरणस्य संतुलनं वा तत्रा स्वभावतः उपस्थापितमस्ति। वैदिककाले प्रकृतेरुपकरणानि देवरूपाणि प्रकल्पितान्यभवन्। पर्जन्यो वेदे इत्थं स्तूयतेµ
अर्थ-संस्कृत साहित्य की ऐसी श्रेष्ठ परम्परा रही है कि संसार के सारे विषयों को। स्वीकार करके आगे बढ़ा। प्रकृति की सुरक्षा तथा पर्यावरण के संतुलन के विषय उसमें स्वाभाविक रूप से वर्णित हैं। वैदिक युग में प्रकृति के उपकरणों को देवतातुल्य माना। जाता था । वेद में मेघ की इस प्रकार स्तुति की गई है
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इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते
यत्पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति ।
अर्थ-मेघ जल द्वारा पृथ्वों की रक्षा करता है तथा संसार के कल्याण के लिए धरती पर अन्न उपजते है।भाव-भाव यह है कि जल एवं भूमि ही प्राणियों के जीवन के आधार है, इसलिए इन्हें रादा प्रदूषणरहित रखना आवश्यक है। इनके प्रदूषित रहने पर प्राणी ही नहीं, पेड़ पौधे भी दूषित हो जाएँगे, जो अति सोचनीय विषय है।
मेघः पृथिवीं जलेन रक्षति तदा सर्वेभ्यः अन्नं भवति। एवमेव ये वनस्पतयः पफलयुक्ता अपफला वापुष्पवन्तः अपुष्पा वा सर्वे{पि ते मानवान् रक्षन्तु, पापानि अर्थात् मलानि दूरीकुर्वन्तुµ
अर्थ-मेघ जल से पृथ्वी की रक्षा करता है (और) तब उस जल से सारे प्राणियों के लिए अन्न उपजता है । इसी प्रकार ही ये वनस्पतियों फलों से युक्त है या जिनमें फल नहीं हैं, वे भी फल से युक्त हों। जो फूलों से लदे हुए हैं या जिनमें फूल नहीं खिलो, ‘ उनमें भी फूल खिलें। वे सारे मानवों की रक्षा कर तथा उनके दोषों को दूर करें
याः फलिनी या अफलाः अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः ।
बृहस्पति-प्रसूतास्ता नो मु×चन्त्वंहसः ।।
अर्थ-जो फलों से परिपूर्ण है अशवा जो फलों एवं पुष्पों से रहित है और जो फूलों . से परिपूर्ण है, बृहस्पति द्वारा विकसित वे फल-फूल हमें पापों से रक्षा कर अथवा मुक्त करे।
भाव-भाव यह है कि पेड़-पौधे फल-फूलों से लदे रहें। जिनमें फल नहीं हैं, वे भी फलों से परिपूर्ण हो जाएँ। जिनमें फूल नहीं हैं, वे भी फूलों से लद जायँ तथा अपने । सौरभ से वातावरण को सुगंधमय बना दें। गुरु बृहस्पति द्वारा विकसित ये फल-फूल पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखें तथा हमें पापों से अर्थात् विभिन्न प्रकार के रोगों से । मुक्त रखें। तात्पर्य यह कि स्वच्छ पर्यावरण में ही पेड़-पौधों में स्वादिष्ट फल तथा
सुगंधित फूल उग सकगे । अतएप हमें पर्यावरण के सदा प्रदूषणरहित रखने के प्रयास करना चाहिए।
अत्रा ओषध्यो देव्यः स्तूयन्ते।
संस्कृतकाव्येषु प्रकृतिवर्णनम् आवश्यकं विद्यते। कथ्यते यत् ट्टतुः, सागरः, नदी, सूर्योदयः, सन्ध्याचन्द्रोदयः, सरोवरः, उद्यानम्, वनम्- इत्यादीनि उपादानानि अवश्यं वर्णनीयानि भवन्ति महाकाव्ये। वाल्मीकिः  सरोवरश्रेष्ठां पम्पां वर्णयतिµ
अर्थ-यहाँ देवों द्वारा औषधियों का गुणगान किया जाता (गया) है। संस्कृत काव्या . में प्रकृति वर्णन निश्चित रूप में विद्यामान है। कहा जाता है कि ऋतुएँ, सागर, नदा, सूर्योदय, संध्या, चन्द्रोदय, सरोवर, बगीचा-फूलवारी तथा वन आदि उपादानों का महाकाव्यों में निश्चित रूप में वर्णन होता है। महर्षि वाल्मीकि ने पम्पा सरोवर के सौदर्य । का वर्णन इस प्रकार किया है
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नाना-द्रुमलताकीर्णां शीतवारिनिधि्ं शुभाम् ।
पद्मसौगन्ध्किस्ताम्रां शुक्लां कुमुदमण्डलैः ।।
अर्थ-महर्षि बालगीकि पंपा सरोवर को सुन्दरता तथा विशेषता का वर्णन करते हुए। कहते हैं कि पंपा सरोवर पौधों तथा लताओं से परिपूर्ण है। उसका जल शीतल तथा स्वच्छ है। उसमें खिले कमल के फूलों की सुगंध से वातावरण सुगंधगय है तथा उजले रंग के खिले कुमुदिनी फूला से अति रमणीय प्रतीत हो रहा है। ।
भाव-यहाँ पंपा सरोवर के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि प्रकृति अपना स्वाभाविक दिर्य तभी बिखेर सकती है जब पर्यंतरण शुद्ध अर्थात प्रदूषणरहित हो । क्योंकि प्रदूषण के कारण प्रकृति का स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाता है, जिरा कारण फल स्वादहीन, फूल गंधहीन तथा जल रोगकरक हो जाते है। हमें पर्यावरण को सदा स्वच्छ रखने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति पर्यावरण के अनुसार ही कार्य करती है।
संस्कृतकाव्येषु स्वस्थपर्यावरणस्य कल्पनया स्वाभाविकरूपेण प्रवहन्तीनां नदीनां वर्णनं बाहुल्येन लभ्यते, जलप्लावनस्य वर्णनं तु विरलमेव। सूर्यतापितः ज्येष्ठमासस्य मध्याह्न बाणभट्टेन वर्णितः। स च स्वाभाविकः। वस्तुतः स्वाभाविकरूपेण प्रवर्तमानानाम् ट्टतूनां वर्णनेन पर्यावरणं प्रति कवीनामास्था दृश्यते।  ग्रीष्मातपेन सन्तप्तस्य रक्षां वृक्षाः कुर्वन्ति इति प्रकृतिवरदानम्। अतएव मार्गेषु वृक्षारोपणं पुण्यमिति  प्रतिपादितम्। पफलवन्तो वृक्षास्तु परोपकारिणः इति कथयति नीतिकारःµ
अर्थ- संस्कृत ग्रंथों में स्वस्थ पर्यावरण त्था रवाभाविक रूप से बहती हुई नदियों का वर्णन पर्याप्त रूप में मिलते हैं (परन्तु) बाढ़ का वर्णन तो बहुत कम ही है । बाणभट्ट ने जेठ मास के दोपहर की प्रचंड गर्मी का वर्णन किया है जो अति स्वाभाविक है। वास्तव में, विद्यमान ऋतुओं के वर्णन से पर्यावरण के प्रति कवियों की आस्था का पता चलता है तक्ष प्रचंड धूप से व्याकुल जीवा की रक्षा करते हैं। वे प्रकृति के लिए वरदानस्वर इसलिए सड़क या रास्ते के किनारे पेड़ लगाने से पुण्य होता है, ऐसा लोगों का : है। नीतिकार का कहना है कि फल वाले पेड़ महान उपकारी होते है।
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स्वयं न खादन्ति पफलानि वृक्षाः
स्वयं न वारीणि पिबन्ति नद्यः ।
अर्थ-वृक्ष अपना फल स्वयं नहीं खाते और न नदियों अपना जल स्वयं पीती हैं। तात्पर्य कि वृक्ष दूसरों को छाया एवं फल से उपकार करते हैं। उसी प्रकार नदियों अपने जल से तृषित प्राणियों की प्यास बुझाती है।
भाव-प्रस्तुत श्लोक के माध्यम से कवि यह बताना चाहता है कि परोपकारी जन दूसरों के कल्याण के लिए शरीर धारण करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष दूसरों के लिए फलते है तथा नदियों दूसरों के लिए बहती हैं। इसी प्रकार हर मानव को वृक्ष एवं नदियों की भाति दूसरों के कल्याण के लिए तत्पर रहना चाहिए, तभी देह धारण करना सफल होगा।
नरा कन्याश्च वृक्षान् प्रति ममताशीला इति शाकुन्तले नाटके वर्ण्यते। शकुन्तला वृक्षान् जलेन  तर्पयित्वैव स्वयं जलं पिबतिµ
अर्थ— लोग लड़कियों और वृक्षों के प्रति ममताशील होते है ऐसा शकुन्तला नाटक में वर्णन किया गया है। शकुन्तला वृक्षों को जल से तृप्त करने के (अर्थात् उन्हें सिंचने के) बाद ही स्वयं जल पीती थी।
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या ।
अर्थ-जो उन अतृप्तों में पहले जल देने का प्रयास करता है। अर्थात् जो स्वदं । प्यासा रहकर दूसरो को जल पिलाने के लिए प्रयत्नशील रहता है, वह निश्चय ही महान
होता है।
किं च भट्टिः शरत्काले जलाशयेषु कमलानां तद्वर्तिनां भ्रमराणां च वर्णनं करोतिµ
अर्थ— और क्या, भट्टिः शरदकाल में जलाशयों में खिले हुए कमलों का तथा उ
नके आस-पास मँडराते भौंरों का वर्णन करते हैं
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न तज्जलं यन्न सुचारुपघ्कजं
न पघ्कजं नयदलीनषट्पदम् ।
अर्थ— जिस जल में कमल के फूल नही होते है, वह जल शोभा नही पाता है। उसी प्रकार वह जल शोभयनीय नही होते है, जिसके आस पास मडराते भौरे नही होते। तात्‍पर्य कि जल की शोभा तभी बढ़ती है जब उसमें खिले हुए कमल के फूल होते हैं। ठीक उसी प्रकार कमल कि शोभा तभी बढ़ती है जब उसके आसय-पास भौरें अपना गुज्‍जार करते हैं। भाव यह है कि प्रकृति की शुद्धता निर्भर करती है।

वसन्ते तु सर्वां प्रकृतिः शोभनतरा भवति इति कालिदासः कथयतिµ
द्रुमाः सुपुष्पाः सलिलं सपप्रं
सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते ।

अर्थ-वसन्त ऋतु में सारी प्रकृति सुन्दर दीखती है ऐसा कवि कालिदास कहते हैं
वसन्तकाल में पेड़-पौधे फूलों से युक्त हो जाते हैं। सरोवरों में कमल फूल खिल जाते हैं। सारी प्रकृति मधुमय अथवा मनोहारी दिखाई पड़ती हैं।
कालिदास ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि इस समय न तो अधिक गर्मी पड़ती है और न ही आधक ठंढक ही। इसी समय पेड़-पौधे नये पत्तों तथा फल फूलों से लद जाते है। फलतः वातावरण मधुमय हो जाता है।।

कालिदासः पशूनां स्वाभाविकस्थितेः निरूपणमेव करोतिµ
गाहन्तां महिषा निपानसलिलं शृघ्गैर्मुहुस्ताडितं
छाया-ब(कदम्बकं मृगकुलं रोमन्थमभ्यस्यतु ।

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अर्थ-कालिदास पशुओं की स्वाभाविकता का वर्णन करते हुए कहते है
भस समूह तालाब के जल में डूबकी लगाएँ तथा सींगों से बार-बार मारते अर्थात् जल में चलाते रहे । मृग समूह कदम्ब की घनी छाया में बैठकर प्रसन्नतापूर्वक पागुर करें।
भाव-कवि कालिदास ने ग्रीष्म ऋतु का वर्णन करते हुए अपनी अभिलाषा प्रकट की है कि प्रकृति इतनी सुसंपन्न रहे कि हर प्राणी अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार प्राकृतिक सम्पदाओं का इच्छानुकूल आनंद ले। यह तभी संभव है जब पर्यावरण का संतुलन सही रहे। हमारा कर्तव्य है कि हा पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाएँ।।
एवं प्राचीनभारते साहित्यकाराः सर्वस्यापि पर्यावरणस्य स्वस्थतां प्रति जागरूका अभवन्। कुत्रापि प्रकृतेः असन्तुलनं न भवेत् इति प्रयासशीलाः आसन्।
अर्थइस प्रकार प्राचीन भारत में साहित्यकार लोग सम्पूर्ण पर्यावरण की शुद्धता के प्रति सतर्क रहते थे। कहीं भी प्रकृति में किसी प्रकार का असन्तुलन न हो, इसके लिए वे प्रयत्नशील (रहते) थे।

Bihar Board Class 10th Social Science
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