9. Shasak or itivrit | शासक और इतिवृत्त

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड कक्षा 12 इतिहास का पाठ नौ शासक और इतिवृत्त (Shasak or itivrit) के सभी टॉपिकों के व्‍याख्‍या को पढ़ेंगें, जो परीक्षा की दृष्टि से महत्‍वपूर्ण है। इस पाठ को पढ़ने के बाद इससे संबंधित एक भी प्रश्‍न नहीं छूटेगा।

9. शासक और इतिवृत्त

मुगल साम्राज्य के शासक स्वयं को एक विशाल और विजातीय जनता पर शासन के लिए नियुक्त मानते थे।
मुगल शासकों ने अपना राजवंश का इतिहास दरबारी इतिहासकारों द्वारा लिखवाया।
इन विवरणों से बादशाह के समय की घटनाओं का लेखा जोखा मिलता है।
इन लेखकों ने उपमहाद्वीप के अन्य क्षेत्रों की कई जानकारी।
इकठ्ठा की यह जानकारी शासक के लिए शासन में मदद करती थी।
अंग्रेजी में लिखने वाले आधुनिक इतिहासकारों ने इस शैली को
क्रॉनिकल्स (इतिहास या इतिवृत) नाम दिया।
मुगल काल के इतिहास को लिखने में यह इतिवृत्त काफी सहायक स्रोत है।

Class 12th History Chapter 9 Shasak or itivrit Notes

मुगल शासक और उनका साम्राज्य
मुगल नाम मंगोल से उत्पन्न हुआ है।
मुगल शासकों ने स्वयं के लिए यह नाम नहीं चुना है।
शासक स्वयं को तैमूरी कहा करते थे।
क्योंकि मुगल शासक पित्रपक्ष से तुर्की शासक तैमुर के वंशज थे।
बाबर मातृ पक्ष से चंगेज खान से संबंधित था।
अर्थात बाबर के पिता तैमुर के वंशज तथा माता चंगेज खान से संबंधित थे।
वह तुर्की बोलता था।
उसने मगोलों को बर्बर गिरोह में हुए उनका उपहास किया।
16वीं शताब्दी के दौरान यूरोपियों ने इन शासकों को वर्णन के लिए मुगल शब्द का प्रयोग किया।
तभी से मुगल शब्द लगातार प्रयोग होता रहा है।
रडयार्ड किपलिंग की जंगल बुक के युवा नायक मोगली का नाम भी इसी से उत्पन्न हुआ है।
मुगल साम्राज्य की स्थापना 1526 में जहीरूद्दीन बाबर के द्वारा की गई।
बाबर मध्य एशिया में फरगना से उसके प्रतिद्वंदी उजबेक ओ द्वारा भगा दिया गया था।
उसके बाद में काबुल में स्थापित हुआ।
उसके बाद वह भारतीय उपमहाद्वीप की ओर आगे बढ़ा।
बाबर (1526-1530)
21 April 1526 में पानीपत का प्रथम युद्ध इब्राहीम लोदी और बाबर के बीच हुआ।
इसमें बाबर जीता।
पहली बार तोप का प्रयोग हुआ।
बाबर का उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन हुमायूं था।

Class 12th History Chapter 9 Shasak or itivrit Notes

हुमायूं
इसका शासन काल (1530-40, 1555-56)
हुमायूं भारत पर दो चरणों में शासन किया। पहला चरण 1530 से 1540 तथा दूसरा चरण 1555 से 1556 तक किया।
अफगान नेता शेरशाह सूरी ने हुमायूं को पराजित किया और ईरान भाग गया।
1555 में हुमायूं ने सूर को पराजित किया लेकिन 1 वर्ष में उसकी मृत्यु हो गई।

हुमायूं के बाद उसका उत्तराधिकार जलालुद्दीन अकबर बना।
अकबर (1556- 1605)
अकबर ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया.
अकबर ने अपने साम्राज्य को मजबूत और समृद्ध राज्य बनाया।
इसका साम्राज्य हिंदूकुश पर्वत तक फैल गया।
अकबर ने ईरान के सफावी और तूरान के उजबेक की विस्तारवादी योजनाओं पर लगाम लगाए रखें।
अकबर के बाद जहांगीर (1605- 27) शासक बना।
शाहजहां (1628-58)
औरंगजेब (1658 – 1707)
1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजवंश की शक्ति घटने लगी।
दिल्ली, आगरा, लाहौर जैसे राजधानी नगरों में क्षेत्रीय शक्तियों का विस्तार होने लगा।
1857 में इस वंश के अंतिम शासक बहादुरशाह जफर द्वितीय को अंग्रेजों ने उखाड़ फेंका।

इतिवृत्त की रचना
मुगल बादशाहों द्वारा तैयार कराए गए इतिवृत्त मुगल साम्राज्य तथा उनके दरबार के अध्ययन के महत्वपूर्ण स्रोत है।
शासक यह चाहते थे कि भावी पीढ़ियों के लिए उनके शासन का विवरण उपलब्ध रहे।

दरबारी इतिहासकार
मुगल इतिवृत्त को लिखने वाले लेखक दरबारी लेखक होते थे।
इन्होंने जो इतिहास लिखा उसके केंद्र बिंदु में.
शासक या शासक से जुड़ी घटनाएं, शाही परिवार. दरबार, अभिजात वर्ग, युद्ध, प्रशासनिक व्यवस्थाएं होती थी।
अकबरनामा, शाहजहानमा, आलमगिरनमा
तुर्की से फारसी की ओर, मुगल दरबारी इतिहासकार फारसी भाषा में लिखे गए थे।
लेकिन जब दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों का शासन था।
उस काल में उत्तर भारतीय भाषा विशेषकर हिंदवी एवम् फारसी में लिखे गए।
बाबर के ने अपनी कविताएं एवम् संस्मरण तुर्की भाषा में लिखी।
अकबर ने फारसी को दरबार की मुख्य भाषा बनाया।
अकबर के समय में फारसी को दरबार की भाषा का ऊंचा स्थान दिया गया।
उन लोगों को शक्ति और प्रतिष्ठा प्रदान की गई जिनकी इस भाषा पर अच्छी पकड़ थी।
राजा तथा शाही परिवार के लोग और दरबार के विशेष सदस्य यही भाषा बोलते थे।
आगे चलकर यह सभी स्तरों पर प्रशासन की मुख्य भाषा बन गई।
इसे लेखाकारों ने, लिपिकों ने और अन्य अधिकारियों ने भी सीख लिया।
लेकिन जहां पर फारसी प्रत्यक्ष प्रयोग में नहीं थी।
वहां पर राजस्थानी मराठी एवं तमिल भी फारसी के मुहावरे एवं शब्दावली ने प्रभावित किया।
17 वीं शताब्दी तक फारसी बोलने वाले लोग अलग-अलग क्षेत्रों में आ गए थे।
वह अन्य भारतीय भाषा भी बोलते थे।
इस तरह स्थानीय मुहावरों का समाविष्ट करने में फ़ारसी का भी भारतीय करण हो गया।
फारसी एवं हिंदवी के साथ पारस्परिक संपर्क से उर्दू के रूप में एक नई भाषा निकल आई।
अकबरनामा फारसी भाषा में लिखा गया है।
जबकि बाबरनामा तुर्की भाषा में था।
लेकिन बाबरनामा का भी फारसी में अनुवाद किया गया।
मुगल बादशाहों ने महाभारत और रामायण जैसे संस्कृत के ग्रंथों को भी फारसी भाषा में अनुवादित किए जाने का आदेश दिया।
महाभारत का अनुवाद रज्मनामा (युद्धों की पुस्तक) के रूप में हुआ।

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पांडुलिपियों की रचना
पांडुलिपि (manuscript)- हाथ से लिखी पुस्तक होती है।
मुगल भारत की सभी पांडुलिपियों के रूप में मिली हैं।
पांडुलिपि की रचना का मुख्य केंद्र शाही किताब खाना था।
शाही किताब खाने में पांडुलिपियों को लिखा जाता था।
एवं उनको संग्रह कर के रखा जाता था।
नई पांडुलिपियों की रचना की जाती थी।
पांडुलिपि की रचना में अलग-अलग प्रकार के कार्य करने वाले बहुत से लोग शामिल होते थे।
जैसे– कागज बनाने वाले, पांडुलिपि के पन्ने तैयार करने वाले, सुलेख की पाठ की नकल तैयार करना, कोफ्तगार की पृष्ठ को चमकाने के लिए, चित्रकार, जिल्दसाज़
एक पांडुलिपि को तैयार करने में कई वर्ष लग जाते थे।
तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु, बौद्धिक संपदा और सौंदर्य के कार्य के रूप में देखा जाता था।
एक पांडुलिपि को बनाने में कई प्रकार के लोग मेहनत करते थे।
परंतु पदवी और पुरस्कार कुछ ही लोगों को मिलता था।
जैसे–
सुलेखक और चित्रकारों को उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा मिली।
जबकि अन्य जैसे कागज बनाने वाले जिल्दसाज यह गुमनाम कारीगर बनकर ही रह गए।
सुलेखन हाथ से लिखने की कला अत्यंत महत्वपूर्ण कौशल माना जाता था।
इसका प्रयोग अलग-अलग शैलियों में होता था।
अकबर को नास्तलिक शैली पसंद थी।

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नास्तिलिक शैली
शैली इसमें लंबे सपाट प्रवाही ढंग से लिखा जाता था।
इसे पांच से 10 मिली मीटर की नोक वाले छंठे हुए सरकंडे जिसको कलम कहा जाता था।
कलम के टुकड़े को स्याही में डुबो कर लिखा जाता था।
कलम की नोक के बीच में छोटा सा चीरा लगाया जाता था।
ताकि यह स्याही आसानी से सोख लें।

रंगीन चित्र
मुगल पांडुलिपियों की रचना में चित्रकार भी शामिल थे।
जब इतिहास लिखते समय घटनाओं से संबंधित चित्रों को रखना होता था।
तो सुलेखक उसके आसपास के पृष्ठों को खाली छोड़ देते थे।
उसी स्थान में बाद में चित्रकार चित्र बनाते थे।
चित्रों से न केवल पुस्तक का सौंदर्य बढ़ता था।
बल्कि चित्रों के माध्यम से किसी घटना को सजीव बनाया जा सकता था।
इतिहासकार अबुल फजल ने चित्रकारी को एक जादुई कला के रूप में वर्णन किया है।
अबुल फजल कहता है कि चित्रकला निर्जीव वस्तु को इस रूप में प्रस्तुत कर सकती है जैसे उसमें जीवन हो।
बादशाह तथा उसके दरबार तथा उसमें हिस्सा लेने वाले लोगों का चित्रण करने वाले चित्रों की रचना को लेकर शासकों और मुसलमान रूढ़िवादी वर्ग के प्रतिनिधि अर्थात उलमा के बीच में कई बार तनाव हो जाता था।
उलमा वर्ग ने कुरान के साथ-साथ हदीस जिसमें पैगंबर मोहम्मद के जीवन से एक ऐसा प्रश्न वर्णित है।
जिसमें मानव रूपों के चित्रण पर इस्लामी प्रतिबंध का आह्वान किया है।
इतिहासकार अबुल फजल बादशाह को यह कहते हुए उद्धत करता है “कई लोग ऐसे हैं जो चित्रकला से घृणा करते हैं पर मैं ऐसे व्यक्तियों को नापसंद करता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि कलाकार के पास खुदा को पहचानने का बेजोड़ तरीका है। क्योंकि कहीं ना कहीं उसे यह महसूस होता है कि खुदा की रचना को वह जीवन नहीं दे सकता।
कुछ वर्गों को ऐसा लगता है कि कलाकार रचना की शक्ति को अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहा है।
यह एक ऐसा कार्य था जो केवल ईश्वर का ही है।
लेकिन बाद में शरिया की व्याख्या में बदलाव आया।
और ईरान के सफावी राजाओं के दरबार में भी कलाकारों को संरक्षण दिया गया।

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अकबरनामा और बादशाहनामा
अकबरनामा और बादशाहनामा दोनों ही पांडुलिपियों में अधिक चित्र मिलते है।
प्रत्येक पांडुलिपि में औसतन 150 पूरे या दोहरे पृष्ठों पर लड़ाई, शिकार, इमारत-निर्माण, घेराबंदी , दरबारी दृश्य आदि के चित्र मिलते हैं।
अकबरनामा के लेखक अबुल फजल हैं।
अबुल फजल को अरबी, फारसी, यूनानी दर्शन और सूफीवाद की जानकारी थी।
अबुल फजल एक प्रभावशाली स्वतंत्र चिंतक था।
उसने लगातार दकियानूसी उलमा के विचारों का विरोध किया।
अबुल फजल के इन गुणों से अकबर बहुत प्रभावित हुआ।
उसने अबुल फजल को अपना सलाहकार और अपनी नीतियों के प्रवक्ता के रूप में उपयुक्त पाया।
दरबारी इतिहासकार के रूप में अबुल फजल ने अकबर के शासन से जुड़े विचारों को लिखा।
अबुल फजल ने अकबरनामा की शुरुआत 1589 में की।
और इस पर 13 वर्षों तक कार्य किया इसमें कई सुधार भी किये।
अकबरनामा को 3 जिल्द ( भाग ) में विभाजित किया गया।
जिनमें से प्रथम दो इतिहास है और तीसरी जिल्द आईन – ए- अकबरी है।
पहली जिल्द में आदम से लेकर अकबर के जीवन के एक खगोलीय कालचक्र तक का मानव जाति का इतिहास है।
दूसरी जिल्द अकबर के 46 वें शासन वर्ष 1601 पर खत्म होती है।
उसके बाद अबुल फसल की हत्या अकबर के बेटे सलीम द्वारा तैयार किए गए षड्यंत्र के
द्वारा बीर सिंह बुंदेला द्वारा की जाती है।

अकबरनामा
राजनीतिक घटनाओं की जानकारी।
अकबर के साम्राज्य के भौगोलिक, सामाजिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक, सभी पक्षों का विवरण।

आईन-ए- अकबरी
मुगल साम्राज्य को एक मिश्रित संस्कृति वाले साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत किया गया।
यहां हिंदू, जैन, बौध, मुसलमान रहते थे।
अबुल फजल की भाषा बहुत अलंकृत थी।
इस भाषा के लिए पथों को ऊंची आवाज में पढ़ा जाता था।
अतः इस भाषा में लय और कथन-शैली को बहुत महत्व दिया जाता था।
इस भारतीय फारसी शैली को दरबार में संरक्षण मिला।
बादशाह नामा के लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी है।
अब्दुल हमीद लाहौरी अबुल फजल का शिष्य था।
इसकी योग्यता के बारे में सुनकर शाहजहां ने इसे अकबरनामा के नमूने पर अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया।
बादशाहनामा भी सरकारी इतिहास है।
इसकी तीन जिल्दें हैं—
प्रत्येक जिल्द 10 चंद्र वर्षों का ब्यौरा देती है।
लाहौरी ने बादशाह के शासनकाल के पहले दो दशकों पर पहला और दूसरा दफ्तर लिखा है।
इन जिल्दों में बाद में शाहजहां के वजीर सादुल्लाह खान ने सुधार किया।
जब अंग्रेज आए, तो उन्होंने भारतीय साम्राज्य को समझने के लिए यहां के इतिहास का बेहतर ढंग अध्ययन किया।
1784 में सर विलियम जॉन्स ने एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना की।
एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल में कई भारतीय पांडुलिपियों के संपादन, प्रकाशन और अनुवाद का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया।
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में हेनरी बेवरिज द्वारा अकबरनामा का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया।

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आदर्श राज्य एक देवीय प्रकाश
दरबारी इतिहासकारों ने ऐसे कई साक्ष्यों का हवाला दिया और यह दिखाया कि मुगल राजाओं को सीधे ईश्वर से शक्ति मिली थी।

दंतकथा
मंगोल रानी अलांकुआ जो अपने शिविर में आराम करते समय सूर्य कर रही थी, एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी।
उसके द्वारा जन्म लेने वाली संतान पर दैवीय प्रकाश का प्रभाव था।
यह प्रकाश एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होता रहा।
ईश्वर से प्रकाश को ग्रहण करने वाली बात को अबुल फजल ने सबसे ऊंचे स्थान पर रखा।
इस प्रकार का विचार सूफी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी ने सबसे पहले प्रस्तुत किया।

सुलह- ए- कुल
मुगल इतिवृत साम्राज्य को हिन्दुओं, जैनों, जरथूष्टियों और मुसलमानों जैसे अनेक अलग-अलग धार्मिक समुदायों को समाविष्ट किए हुए, साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत करता है।
बादशाह इन सभी धार्मिक समूहों से ऊपर होता था।
इन समूहों के बीच मध्यस्थता कराता था।
यह सुनिश्चित करता था कि न्याय और शांति बनी रहे।
सुलह ए कुल पूर्ण शांति के आदर्श को प्रबुद्ध शासन की आधारशिला बताता है।
सुलह ए कुल में सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी।
सुलह ए कुल का आदर्श राज्य नीतियों के जरिए लागू किया गया।
मुगलों के अधीन अभिजात वर्ग मिश्रित किस्म का था।
जैसे उसमें ईरानी, तूरानी, अफगानी, राजपूत, दखनी सभी शामिल थे।
इन सभी को दिए गए पद एवं पुरस्कार पूरी तरह से राजा के प्रति उनकी सेवा और निष्ठा पर आधारित होते थे।
अकबर ने 1563 में तीर्थ यात्रा कर तथा 1564 में जजिया को समाप्त कर दिया।
सभी मुगल बादशाहों ने उपासना स्थलों के निर्माण और रखरखाव के लिए अनुदान दिए।
औरंगजेब ने अपने शासनकाल में गैर मुसलमान पर जजिया फिर से लगा दिया।

सामाजिक अनुबंध के रूप में न्यायपूर्ण सत्ता
अबुल फजल कहता है कि बादशाह अपनी प्रजा के चार तत्वों की रक्षा करता है—
1) जीवन
2) धन
3) सम्मान
4) विश्वास
उसके बदले में वह आज्ञा पालन और संसाधनों में हिस्से की मांग करता है।

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राजधानियां और दरबार राजधानी नगर
मुगल साम्राज्य का हृदय उसका राजधानी नगर था। जहां पर दरबार लगता था।
राजधानी कई बार बदली गई थी।
लोदी वंश की राजधानी आगरा थी जिस पर बाबर ने अधिकार कर लिया था।
बाबर के शासन के 4 वर्षों तक दरबार अलग अलग स्थान पर लगाए गए।
1560 के दशक में अकबर ने आगरा के किले का निर्माण कराया।
इसे बलुआ पत्थर से बनाया गया।
1570 के दशक में फतेहपुर सीकरी में नई राजधानी बनाने का निर्णय लिया गया।
सीकरी अजमेर जाने वाली सीधे सड़क पर स्थित था।
अजमेर में शेख मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह थी। जो महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल बन गई थी।
अकबर ने सीकरी की जुम्मा मस्जिद के बगल में शेख सलीम चिश्ती के लिए सफेद संगमरमर का एक मकबरा बनाने का आदेश दिया।
1585 में राजधानी को लाहौर स्थापित किया गया।
अकबर के बाद शाहजहां का शासनकाल महत्वपूर्ण है।
शाहजहां को इमारतें बनवाने का शौक था।
इसमें इमारत निर्माण के लिए पर्याप्त धन जमा किया।
इमारत निर्माण कार्य राजवंशीय सत्ता, धन तथा प्रतिष्ठा का प्रतीक था।
1648 में दरबार, सेना, शाही परिवार नई राजधानी शाहजहांनाबाद चले गए।
दिल्ली के प्राचीन रिहायशी नगर में शाहजनाबाद एक नई, शाही आबादी थी।
यहां लाल किला, जामा मस्जिद, चांदनी चौक के बाजार तथा अभिजात वर्ग के घर थे।

मुगल दरबार
मुगल शासन में केंद्र में शासक (बादशाह) होता था।
उसका पूरी व्यवस्था पर नियंत्रण होता था।
राजसिंहासन को एक ऐसे स्तंभ के रूप में देखा जाता था। जिस पर धरती टिकी थी।
इतिवृत ने मुगल संभ्रांत वर्ग के बीच हैसियत को निर्धारित करने वाले नियम को सामने रखा।
दरबार में किसी की हैसियत इस बात से निर्धारित होती थीं कि वह शासक के कितना पास और दूर बैठा है।
किसी दरबारी को शासक द्वारा दिया गया
स्थान महत्वपूर्ण होता था।
एक बार जब बादशाह सिंघासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं जाने की अनुमति नहीं थी।
दरबार में बोलने के नियम, शिष्टाचार निर्धारित थे।
अगर कोई शिष्टाचार का उल्लघंन करता था तो उस दंड दिया जाता था।
अभिवादन के तरीके से भी हैसियत का पता लगता।
जैसे— जिस व्यक्ति के सामने ज्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था। उस व्यक्ति की हैसियत ज्यादा ऊंची मानी जाती थीं।
आत्मनिवेदन सबसे उच्चतम रूप सिजदा था।
सिज़दा या दंडवत लेटना।
शाहजहां के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान पर चार तस्लीम तथा जमीनबोसी (जमीन को चूमना) तरीका अपनाया गया।
मुगल दरबार में राजदूत से भी यही अपेक्षा की जाती थीं। कि वह शासक के सामने झुककर या जमीन चूमकर, छाती के सामने हाथ बांधकर अभिवादन करे।
जेम्स के दूत टोमस रो ने यूरोपीय रिवाज के अनुसार जहांगीर के सामने केवल झुककर अभिवादन किया।
उसके बाद बैठने के लिए कुर्सी की मांग की जिससे सभी अचंभित हो गए।
बादशाह अपने दिन की शुरुआत सूर्योदय के समय कुछ व्यक्तिगत धार्मिक प्रथाओं से करता था।
उसके बाद पूर्व की तरह मुंह करके एक छोटे से छज्जे (झरोखे) में आता था।
इसके नीचे लोगों की भीड़ बादशाह की झलक पाने का इंतजार करती थीं।
लोग, सैनिक, शिल्पकार, किसान, बच्चे आदि।
अकबर द्वारा शुरू की गई झरोखा दर्शन की प्रथा का उद्देश्य जनता के मन में विश्वास के रूप में शाही सत्ता की स्वीकृति को और विस्तार देना था।
झरोखे में एक घंटा बिताने के बाद बादशाह अपनी सरकार के प्राथमिक कार्य के लिए सार्वजनिक सभा भवन (दीवान ए आम) में जाता था।
फिर वहां राज्य के अधिकारी रिपोर्ट प्रस्तुत करते थे।
2 घंटे बाद बादशाह दीवान-ए-खास में निजी सभाएं और गोपनीय मुद्दों पर चर्चा करता था।
राज्य के वरिष्ठ मंत्री शासक के सामने अपनी याचिका में प्रस्तुत करते थे।
और कर अधिकारी हिसाब का ब्यौरा देते थे।
बादशाह उच्च प्रतिष्ठित कलाकारों के कार्य तथा वास्तुकारों द्वारा बनाई गई इमारतों के नक्शे को देखता था।
त्योहारों के अवसर में दरबार का माहौल जीवंत तो होता था।
चारों ओर सजावट की जाती थी।
मुगल शासक वर्ष में तीन मुख्य त्यौहार मनाते।
शासक का जन्मदिन, वसंत आगम, नवरोज।
जन्मदिन पर शासक को विभिन्न वस्तुओं से तोला जाता था।
तथा बाद में यह वस्तुएं दान में बांट दी जाती थी।

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पदवियां, उपहार और भेंट
पदवियां
राज्यभिषेक समय या किसी शत्रु पर विजय के बाद मुगल बादशाह विशाल पदवी या ग्रहण करते थे।
मुगल सिक्कों पर बादशाह की पूरी पदवी होती थी।
योग्य व्यक्तियों को पदवी देना मुगल राज्य तंत्र का एक महत्वपूर्ण पक्ष था।
किसी व्यक्ति की उन्नति उसके द्वारा धारण की जाने वाली पदवी से जानी जा सकती थी।
उच्चतम मंत्रियों में से एक को दी जाने वाली आसिफ खां की पदवी का उद्भव पैगंबर शासक सुलेमान के मंत्री से हुआ था।
औरंगजेब ने अपने दो उच्च पदस्थ अभिजात जय सिंह और जसवंत सिंह को मिर्जा राजा की पदवी प्रदान की।
पदवी या तो अर्जित की जा सकती थी या उन्हें पाने के लिए पैसे दिए जा सकते थे।
मीर खान ने अपने नाम में अ अक्षर लगाकर उसे अमीर खान करने के लिए औरंगजेब को ₹100000 देने का प्रस्ताव किया था।
अन्य पुरस्कारों में जामा भी शामिल था।
जिसे पहले कभी ना कभी बादशाह द्वारा पहना गया हुआ होता था।
यह राजा के आशीर्वाद का प्रतीक था।
सरप्पा एक अन्य उपहार था।
सरप्पा – सर से पांव तक।
इस उपहार के तीन हिस्से हुआ करते थे।
जामा, पगड़ी और पटका कई बार बादशाह द्वारा रत्न जड़ित आभूषण भी उपहार में दिए जाते थे।
बहुत खास परिस्थितियों में बादशाह कमल की मंजरियों वाला रत्न जड़ित गहनों का सेट भी उपहार में देता था।
एक दरबारी भाषा के पास कभी भी खाली हाथ नहीं जाता था।
वह या तो नज्र के रूप में थोड़ा सा धन या पेशकश के रूप में मोटी रकम बादशाह को पेश करता था।

शाही परिवार
हरम शब्द का प्रयोग मुगलों की घरेलू दुनिया की ओर संकेत करने के लिए होता है।
यह शब्द फारसी से निकला है जिसका तात्पर्य है – पवित्र स्थान।
मुगल परिवार में बादशाह की पत्नियां और उपपत्नियां नजदीकी एवं दूर के रिश्तेदार व महिला एवं गुलाम होते थे।
माता, सौतेली माँ, बहन, पुत्री ,बहू, चाची, मौसी, बच्चे आदि।
शासक वर्ग में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी।
राजपूत परिवार एवं मुगल दोनों के लिए।
विवाह राजनीतिक संबंध बनाने एवं मैत्री संबंध स्थापित करने का एक तरीका था।
विवाह में पुत्री को भेंट स्वरूप सामान्यत: एक क्षेत्र भी उपहार में दे दिया जाता था।
मुगल परिवार में शाही परिवारों से आने वाली स्त्रियों (बेगम) और अन्य स्त्रियों (अगहा) जिनका जन्म कुलीन परिवार में नहीं हुआ था। इनमें अंतर रखा जाता था।
दहेज (मेहर) के रूप में अच्छा खासा नगद और बहुमूल्य वस्तुएं लेने के बाद विवाह करके आई बेगमों को अपने पतियों के स्वाभाविक रूप से अगहा की तुलना में अधिक ऊंचा दर्जा और सम्मान मिलता था।
उपपत्नियो (अगाचा) की स्थिति सबसे निम्न थी।
इन सभी को नगद मासिक भत्ता तथा अपने अपने दर्जे के हिसाब से उपहार मिलते थे।
यदि पति की इच्छा हो और उसके पास पहले से ही 4 पत्नियां ना हो।
तो अगहा और अगाचा भी बेगम की स्थिति पा सकती थी।
मुगल परिवार में अनेक महिला तथा पुरुष गुलाम भी होते थे।
वे साधारण से साधारण कार्य से लेकर कौशल, बुद्धिमत्ता वाले कार्य में निपुण होते थे।
नूरजहाँ के बाद मुगल रानी और राजकुमारियों ने महत्वपूर्ण वित्तीय स्रोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया था।
शाहजहां की पुत्रियों, जहांआरा और रोशनआरा को ऊंचे शाही मनसबदारों के समान वार्षिक आय होती थी।
इसके अलावा जहांआरा को सूरत के बंदरगाह नगर जो कि विदेशी व्यापार का केंद्र था।
वहां से राजस्व प्राप्त होता था।
संसाधनों पर नियंत्रण ने मुगल परिवार की महत्वपूर्ण स्त्रियों को इमारत एवं बागों का निर्माण का अधिकार दे दिया।
जहांआरा ने शाहजहां की नई राजधानी शाहजहानाबाद की कई वस्तुकलात्मक परियोजनाओं में हिस्सा लिया।
शाहजहानाबाद के हृदय स्थल चांदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा ने बनाई थी।
गुलबदन बेगम ने हुमायूंनामा लिखी।
हुमायूंनामा में हमें मुगलों की घरेलू दुनिया की जानकारी मिलती है।
गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हुमायूं की बहन तथा अकबर की चाची थी।
गुलबदन तुर्की एवं फारसी भाषा में धाराप्रवाह लिख सकती थी।
अकबर ने जब अबुल फजल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया।
उस समय अपनी चाची से बाबर और हुमायूं के समय के संस्मरण को लिपिबद्ध करने का आग्रह किया।

शाही नौकरशाही
भर्ती की प्रक्रिया तथा पद
मुगल साम्राज्य में शासक केंद्र में होता था।
उसका पूरी सत्ता पर नियंत्रण होता था।
लेकिन शासक अपने साम्राज्य को चलाने के लिए नौकरशाही पर भी निर्भर था।
मुगल साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ इसके अधिकारियों का दल था।
जिससे इतिहासकार सामूहिक रूप से अभिजात वर्ग भी कहते हैं।
अभिजात वर्ग में भर्ती विभिन्न नृजातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी।
इसमें यह सुनिश्चित किया जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा ना हो जाए कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे।
मुगलों के अधिकारी वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया गया है।
जो वफादारी से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे।
अकबर के समय में भी ईंरानी, तूरानी अभिजात वर्ग थे।
इनमें से कुछ हुमायूं के साथ चले गए थे।
1560 से आगे राजपूतों एवम् भारतीय मुसलमानों ने शाही सेवा में प्रवेश किया।
इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपूत मुखिया अंबेर का राजा भारमल कछवाहा था।
जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ।
शिक्षा की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्नत किया जाता था।
उदाहरण- अकबर के वित्त मंत्री टोडरमल जो खत्री जाति का था।
जहांगीर के शासनकाल में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए।
जहांगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहां (ईरानी) थी।
औरंगजेब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया।
फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे काफी संख्या में थे।
सभी सरकारी अधिकारियों के दर्जे और पद में दो तरह के ओहदे होते थे।

जात और सवार
जात शाही पदानुक्रम में अधिकारी (मनसबदार) के पद और वेतन का सूचक था
सवार यह सूचित करता था कि उससे सेवा में कितने घुड़सवार रखना अपेक्षित था।
सैन्य अभियानों में यह अभिजात अपनी सेनाओं के साथ भाग लेते थे।
प्रांतों में वे साम्राज्य के अधिकारियों के रूप में कार्य करते थे।
प्रत्येक सेना कमांडर घुड़सवारों की भर्ती करता था।
उन्हें हथियार एवं प्रशिक्षण देता था।
घुड़सवारी फौज मुगल सेना का महत्वपूर्ण अंग था।
घुड़सवार सिपाही शाही निशान से दागे गए उत्कृष्ट श्रेणी के घोड़े रखते थे।
निम्न पदों को छोड़कर बादशाह स्वयं सभी अधिकारियों के ओहदे, पदवियों का निरीक्षण और बदलाव करता था।
मनसबप्रथा की शुरुआत अकबर ने की।
अभिजात वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, प्रतिष्ठा, धन प्राप्त करने का एक जरिया थी।
सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के जरिए याचिका देता था।
जो बादशाह के सामने प्रस्तुत की जाती थी।
अगर याचिकाकर्ता योग्य व्यक्ति है तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था।
मिरबक्शी दरबार में बादशाह के दाएं और खड़ा होता था।
तथा नियुक्ति और पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था।
जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था।
केंद्र में अन्य महत्वपूर्ण मंत्री भी थे।
दीवान ए आला – वित्तमंत्री
सद्र – उस – सुदूर – अनुदान का मंत्री
स्थानीय न्यायाधीश या कार्यों की नियुक्ति का प्रभारी
तैनात ए रकाब दरबार में नियुक्त अभिजातों का एक ऐसा सुरक्षित दल था। जिससे किसी भी प्रांत या सैन्य अभियान में नियुक्त किया जा सकता था।
यह बादशाह और उसके घराने की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उठाते थे तथा दिन में दो बार सुबह और शाम सार्वजनिक सभा भवन में बादशाह के प्रति आत्म निवेदन करने के कर्तव्य से बंधे थे।

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सूचना तथा साम्राज्य
सटीक और विस्तृत आलेख तैयार करना मुगल प्रशासन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था।
मीरबक्शी दरबारी लेखकों के समूह का निरीक्षण करता था।
यह लेखक ही दरबार में प्रस्तुत किए जाने वाले सभी अर्जियों व दस्तावेजों तथा सभी आदेश, फरमान का आलेख तैयार करते थे।
दरबार की सभी कार्यवाइयों का विवरण रखते थे।
अखबारात तैयार करते थे इसमें हर तरह की सूचनाएं होती थी।
जैसे – दरबार की उपस्थिति, पद, पदवियों का, दान, राजनयिक शिष्टमंडल, उपहार इत्यादि।
समाचार वृतांत और महत्वपूर्ण शासकीय दस्तावेज शाही डाक व्यवस्था के जरिए मुगल शासन के अधीन क्षेत्रों में एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाए जाते थे।
बांस के डिब्बों में लपेट कर रखे कागजों को लेकर हरकारों के दल एक जगह से दूसरी जगह दिन रात दौड़ते रहते थे।

केंद्र से परे : प्रांतीय प्रशासन
केंद्र में स्थापित कार्यों के विभाजन को प्रांतों में दोहराया गया था।
यहां भी केंद्र के समान मंत्रियों के अनुरूप अधीनस्थ दीवान, बक्शी और सद्र होते थे।
प्रांतीय शासन का प्रमुख गवर्नर या सूबेदार होता था।
जो सीधा बादशाह को प्रतिवेदन प्रस्तुत करता था।
प्रत्येक सूबे कई सरकारों में बंटा था।
इन इलाकों में फौजदारों की विशाल घुड़सवार फौज और तोपचियों के साथ रखा जाता था।
परगना स्तर (उप-जिला) पर स्थानीय प्रशासन की देखरेख तीन अधिकारियों की जिम्‍मेवारी कानूनगो (राजस्व आलेख रखने वाला)
चौधरी (राजस्व संग्रह प्रभारी) तथा काजी (जज) द्वारा की जाती थी।
शासन के हर विभाग के पास लिपिकों का एक बड़ा सहायक समूह, लेखाकार, लेखा परीक्षक, संदेशवाहक और अन्य कर्मचारी होते थे। जो दक्ष अधिकारी थे।
यह काफी संख्या में लिखित आदेश और वृतांत तैयार करते थे।
फारसी शासन की भाषा बनी थी।
लेकिन ग्राम लेखा के लिए स्थानीय भाषाओं का प्रयोग होता था।
मुगल इतिहासकारों ने बादशाह और उसके दरबार को ग्राम स्तर तक के संपूर्ण प्रशासनिक तंत्र का नियंत्रण करते हुए प्रदर्शित किया।

स्थानीय जमींदार और मुगल साम्राज्य के प्रतिनिधियों के बीच के संबंध
कई बार संसाधनों और सत्ता के बंटवारे को लेकर संघर्ष का रूप ले लेते थे।
सीमाओं के परे इतिवृत्त के लेखकों ने मुगल बादशाहों द्वारा धारण की गई पदवियों को इतिवृत्त में लिखा।
जैसे-
शहंशाह – राजाओं का राजा
जहांगीर – विश्व पर कब्जा करने वाला
शाहजहां – विश्व का राजा
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सफावी और कंधार
भारतीय उपमहाद्वीप को जीतने के इक्षुक व्यक्ति को मध्य एशिया से होते हुए उत्तर भारत तक पहुंचने के लिए हिंदूकुश को पार करना होता था।
मुगल नीति का हमेशा यह प्रयास रहा कि सामरिक महत्व की चौकियां विशेषकर काबुल और कंधार पर नियंत्रण के द्वारा इसे खतरे से बचाया जा सके।
सफावी, कंधारों और मुगलों के बीच झगड़े का जड़ था।
यह किला नगर शुरू में हुमायूं के अधिकार में था।
1595 में अकबर ने इसे दोबारा जीत लिया।
सफावी दरबार ने मुगलों के साथ अपने राजनयिक संबंध बनाए रखें।
लेकिन कंधार पर दावा करते रहे।
1613 में जहांगीर ने शाह अब्बास के दरबार में कंधार को मुगल अधिकार में रहने देने की वकालत करने के लिए एक दूत भेजा लेकिन यह सफल नहीं हुए।
1622 में सर्दियों में एक फारसी सेना ने कंधार पर घेरा डाल लिया।
मुगल रक्षक सेना पूरी तरह से तैयार नहीं थी इसलिए वे पराजित हुई।
मुगल सेना को किला तथा नगर सफाविओं को सौंपना पड़ा।
ऑटोमन साम्राज्य : तीर्थ यात्रा और व्यापार
ऑटोमन साम्राज्य के साथ मुगलों ने अपने संबंध इस प्रकार से बनाएं कि वह ऑटोमन नियंत्रण वाले क्षेत्र में अपने व्यापारियों व तीर्थ यात्रियों के स्वतंत्र आवागमन को बरकरार रखवा सकें।
ऑटोमन क्षेत्र की तरफ मक्का, मदीना जैसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल थे।
क्षेत्र के साथ अपने संबंधों में मुगल बादशाह धर्म और वाणिज्य के मुद्दों को मिलाने की कोशिश करता था।
व्यापार से अर्जित आय को इस इलाके के धर्मस्थल और फकीरों में दान में बांट देता था।

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मुगल दरबार में जेसुईट धर्म प्रचारक
यूरोप को भारत के बारे में जानकारी जेसुईट धर्म प्रचारकों, यात्रियों, व्यापारियों के विवरणों से हुई।
मुगल दरबार के यूरोपीय विवरण में जेसुईट वृतांत सबसे पुराने हैं।
15 वीं शताब्दी के अंत में भारत में पुर्तगाली व्यापारी आए।
पुर्तगाली राजा भी सोसाइटी ऑफ़ जीसस के धर्म प्रचारकों की मदद से ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार में रुचि रखता था।
अकबर ईसाई धर्म के विषय में जानने को उत्सुक था।
उसने जेसुईट पादरियों को आमंत्रित करने के लिए एक दूतमंडल गोवा भेजा।
पहला जेसुईट शिष्टमंडल फतेहपुर सीकरी के मुगल दरबार में 1580 में पहुंचा।
लगभग यहां 2 वर्ष रहा।
लाहौर के मुगल दरबार में दो और शिष्टमंडल 1591 और 1595 में भेजे गए।
अकबर के सिंहासन के काफी नजदीक जेसुईट लोगों को स्थान दिया जाता था।

औपचारिक धर्म पर प्रश्न उठाना
जेसुईट शिष्टमंडल के सदस्य के प्रति अकबर ने उच्च आदर प्रदर्शित किया।
उससे वह बहुत प्रभावित हुए।
धार्मिक ज्ञान के लिए अकबर की तलाश ने फतेहपुर सीकरी के इबादतखाने में विद्वान मुस्लिम, हिंदू, जैन, पारसी और ईसाइयों के बीच अंतर-धर्मीय विवादों को जन्म दिया।
धीरे-धीरे अकबर रूढ़ीवादी तरीकों से दूर
प्रकाश और सूर्य पर केंद्रित देवी उपासना के स्व- कल्पित विभिन्न दर्शन ग्राही रूप की ओर बढ़ा। Class 12th History Chapter 9 Shasak or itivrit Notes

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