संस्कृत कक्षा 10 स्‍वामिन: विवेकानन्‍दस्‍य व्‍यथा ( स्‍वामी विवेकानन्‍द की व्‍यथा ) – Swamin Vivekanand Vyatha in Hindi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के संस्कृत द्रुतपाठाय (Second Sanskrit) के पाठ 12 (Swamin Vivekanand Vyatha) “ स्‍वामिन: विवेकानन्‍दस्‍य व्‍यथा ( स्‍वामी विवेकानन्‍द की व्‍यथा ) ” के अर्थ सहित व्‍याख्‍या को जानेंगे।

Swamin Vivekanand Vyatha
Swamin Vivekanand Vyatha

12. स्‍वामिन: विवेकानन्‍दस्‍य व्‍यथा

1893 तमस्य वर्षस्य सितम्बरमासः। स्वामी विवेकानन्दः अमेरिकादेशे आयोजिते विश्वधर्मसम्मेलने भागं गृहीतवान् । तस्य भाषणानां कीर्तिः सर्वत्र प्रसता जाता । अमेरिकानिवासिनः ततः अत्यन्तम् आकृष्टाः जाताः।

कौचित् अमरिकीयदम्पती स्वामिनं विवेकानन्दं स्वगृहं प्रति निमन्त्रितवन्तौ-“अस्मार्क गृहे भोजनसेवनेन विश्रामस्वीकरणेन च वयम् अनुग्रहीतव्याः” इति । स्वामिवर्यः तयोः निवेदनम् अङ्गीकृतवान् । सः तत् गृहं गत्वा रात्रौ भोजनं कृतवान्।

दम्पती तस्य शयनस्य व्यवस्थानम् एकस्मिन् प्रकोष्ठे परिकल्पितवन्तौ । समग्रा व्यवस्था अत्युत्कृष्टाः आसीत् । निकटस्थः प्रकोष्ठः दम्पत्योः विश्रामस्थानम आसीत्।

अर्थरात्रे महिला कस्यापि रोदनस्वरं श्रुतवती। कस्य रोदनं स्यात् एतत् इति तया क्षणकालं न ज्ञातम् । ततः कमपि सन्देह प्राप्तवती सा पार्श्वस्थस्य प्रकोष्ठस्य समीपं गतवती। ततः तया ज्ञातं यत् रोदनस्वरः विवेकानन्दप्रकोष्ठात् एव आयाति इति । सा झटिति पति जागरितवती, तेन सह विवेकानन्दस्य प्रकोष्ठं गवती च । तत्र ताभ्यां रोदनं कर्वन् स्वामिवर्यः दृष्टः । ताभ्यां महत् आश्चर्यं प्राप्तम् । रोदनजन्यात् अश्रुतः सम्पूर्णम् अपि उपधानाम् आर्द्र जातम् आसीत्।

”स्‍वामीवर्य! अस्माकं व्यवस्थायां कोऽपि लोपः वर्तते किम ? किमर्थं भवान् रोदिति ? यदि व्‍यवस्‍थायां कोऽपि दोष: स्यात् तर्हि क्षन्तव्याः वयम् इति उक्तवती गृहस्वामिनी।

तयो: आगमनं दृष्ट्वा विवेकानन्दः क्षणकालं दिग्भ्रान्तः । स्वस्य रोदनं ताभ्यां दृष्टम् काचित लज्जा अपि । क्षणं विरम्य रोदनं यलेन निगृह्य सः अवदत्- “क्षन्तव्यः एव भवद्भ्याम् । भवती अत्यन्तं मधुरं स्वादु भोजनं परिविष्टवती । सुखदायितल्पम् अपि व्यवस्थपितवती। समग्रा व्यवस्था उत्कृष्टा दोषरहिता च अस्ति एव । मम रोदनस्य कारणम् अत्रत्या व्यवस्था सर्वथा न । भोजनं कृत्वा यदा अहं तल्पे विश्रामं कुर्वन् आसं तदा स नेत्रयोः पुरतः मम देशबान्धवानां चित्रम् आगन्तम् । वराका: ते पूर्णोढरम् आहारम् अपि न प्राप्नुवन्ति । शीतकाले पर्याप्तम् आच्छादकम् अपि तेषां पार्वे न भवति । दुःखदारिद्रयपूर्ण जीवनं यापयन्तः असङ्ख्याः भारतीयाः मया स्मृताः । ततः मन मनः अपि दुःखग्रसतम् अभवत् इति ।

अर्थ : 1893 ई. सन् वर्ष का सितम्बर मास था। स्वामी विवेकानन्द अमेरिका देश में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिए थे। उनके भाषण का यश सब जगह फैल गया । अमेरिका निवासी भाषण से बहुत आकृष्ट हुए।

कोई अमेरिकी दम्पत्ति स्वामी विवेकानन्द को अपने घर के लिए निमंत्रण देते हुए कहा | “हमारे घर में भोजन और विश्राम करके हमलोगों पर अनुग्रह कीजिये । स्वामी जी ने उन दोनों के निवेदन को स्वीकार कर लिए। वे उसके घर जाकर रात्रि में भोजन किये।

दम्पत्ति ने उनके शयन की व्यवस्था एक कमरा में कर रखी थी। सारी व्यवस्था बहुत अच्छी थी। निकट में स्थित कमरे में दम्पत्ति का विश्राम स्थल था।

अर्धरात्रि में महिला ने किसी को रोने की आवाज सुनी। किसका रोना है, यह बात उसके समझ में तत्क्षण नहीं आयी। इसके बाद कुछ संदेह होने पर वह निकट के स्थित कमरे के समीप गई तब वह जान पाई कि रोने की आवाज विवेकानन्द के कमरे से ही आ रही है। वह शीघ्र ही पति को जगाई और उसके साथ विवेकानन्द के कमरे में गई। वहाँ उन दोनों ने रोते हुए स्वामी जी को देखा। उन दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ। रोने के कारण आँसू से पूरा बिछावन गीला हो गया था। स्वामी जी। हमारी व्यवस्था में कोई कमी हुयी है क्या? क्यों आप रो रहे हैं? यदि व्यवस्था में किसी भी प्रकार की कमी है तो क्षमा कर दीजिये। हमलोगों को यह बात गृह स्वामिनी बोली। उन दोनों के आगमन देखकर विवेकानन्द थोड़े समय के लिए शांत रहे । अपना रोना उन दोनों के द्वारा देख लिया गया इससे थोड़ा लज्जा भी हुई। थोड़ा रूककर रोना यत्नपूर्वक रोक कर उन्होंने कहा- “माफ कीजिये हमको ही आप दोनों । आपने अत्यन्त मधुर और स्वादिष्ट भोजन परोसी थी। सुख देने वाला बिछावन की व्यवस्था भी है। सारी व्यवस्था अच्छी और दोषरहित ही है। मेरे रोने का कारण यहाँ की व्यवस्था बिल्कुल नहीं है। भोजन कर जब मैं बिछावन पर विश्राम कर रहा था तब मेरी आँखों के सामने मेरे देश के बान्धवों का चित्र आ गया। ठीक से वे लोग भरपेट भोजन भी नहीं प्राप्त करते हैं। शीतकाल में पर्याप्त ओढ़ने के लिए भी उनके पास वस्त्र नहीं होते हैं। दुःख दरिद्रता से पूर्ण जीवन-यापन करते असंख्य भारतीय मेरे स्मरण में आ गये। उससे मन दुःखी हो उठा।

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