कक्षा 10 भूगोल वन संसाधन – Van Evam Vanya Prani Sansadhan

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के भूगोल के इकाई एक का पाठ ‘(ग) वन एवं वन्‍य प्राणी संसाधन’ (Van Evam Vanya Prani Sansadhan) के महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Van Evam Vanya Prani Sansadhan
Van Evam Vanya Prani Sansadhan

(ग) वन एवं वन्‍य प्राणी संसाधन (Van Evam Vanya Prani Sansadhan)

वन- वन उस बड़े भू-भाग को कहते हैं जो पेड़ पौधों एवं झाड़ियों द्वारा आच्छादित होते है।

वन दो प्रकार के होते हैं-

1. प्राकृतिक वन और 2. मानव निर्मित वन
2.प्राकृतिक वन- वे वन जो स्वतः विकसित होते हैं, उसे प्राकृतिक वन कहते हैं।
3.मानव निर्मित वन- वे वन जो मानव द्वारा विकसित होते हैं, उसे मानव निर्मित वन कहते हैं।

वन और वन्य जीव संसाधनों के प्रकार और वितरण : वन विस्तार के नजरिए से भारत विश्व का दसवां देश है, यहां करीब 68 करोड़ हेक्टेअर भूमि पर वन का विस्तार है। रूस में 809 करोड़ हेक्टेअर वन क्षेत्र है, जो विश्व में प्रथम है। ब्राजील में 478 करोड़ हेक्टेअर, कनाडा में 310 करोड़ हेक्टेअर, संयुक्त राज्य अमेरिका में 303 करोड़ हेक्टेअर, चीन में 197 करोड़ हेक्टेअर, ऑस्ट्रेलिया में 164 करोड़ हेक्टेअर, कांगो में 134 करोड़ हेक्टेअर, इंडोनेशिया में 88 करोड़ हेक्टेअर और पेरू में 69 करोड़ हेक्टेअर वन क्षेत्र है। भारत में, 2001 में 19.27 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र पर वन फैले हुए थे। (वन सर्वेक्षण, थैंप ) के अनुसार 20.55 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में वन का विस्तार है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह सबसे आगे है, जहां 90.3 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में वन विकसित है।
 

वृक्षों के घनत्व के आधार पर वनों को पांच वर्गो में रखा जा सकता है।
1.अत्यंत सघन वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक )
2.सघन वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व 40-70 प्रतिशत)
3.खुले वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व 10 से 40 प्रतिशत)
4.झाड़ियां एवं अन्य वन (कुल भौगोलिक क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व 10 प्रतिशत से कम)
5.मैंग्रोव वन (तटीय वन)- इस प्रकार के वन समुद्र के तटों पर पाए जाते हैं। इस प्रकार के वनों का विस्‍तार पूर्वी तट, पश्चिमी तट और अण्‍डमान निकोबार द्विप समुह में है।

6.अत्यंत सघन वन- भारत में इस प्रकार के वन का विस्तार 54.6 लाख हेक्टेअर भूमि पर है जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 1.66 प्रतिशत है, असम और सिक्किम को छोड़कर सभी पूर्वोंत्तर राज्य इस वर्ग में आते हैं।

7.सघन वन- इसके अन्तर्गत 73.60 लाख हेक्टेअर भूमि आते हैं जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3 प्रतिशत है। हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र एवं उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में इस प्रकार के वनों का विस्तार है ।

8.खुले वन- 2.59 करोड़ हेक्टेअर भूमि पर इस वर्ग के वनों का विस्तार है, यह कुल भौगोलिक क्षेत्र का 7.12 प्रतिशत है। कर्नाटक, तामिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा के कुछ जिलों एवं असम के 16 आदिवासी जिलों में इस प्रकार के वनों का विस्तार है।

9.झाड़ियां एवं अन्य वन- राजस्थान का मरुस्थलीय क्षेत्र एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में इस प्रकार के वन पाए जाते है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल के मैदानी भागों में वृक्षों का घनत्व 10 प्रतिशत से भी कम है।

10.मैंग्रोव वन (तटीय वन)- इस प्रकार के वनों का विकास समुद्र के तटों पर हुआ है। इसलिए इसे तटीय वन भी कहते हैं। इसका विस्तार केरल, कर्नाटक आदि राज्यों में हुआ है।
वन सम्पदा तथा वन्य जीवों का ह्रास एवं संरक्षण : विकास के नाम पर वनों का विनाश होना शुरू हुआ। बीसवीं सदी के मध्य तक 24 प्रतिशत क्षेत्र पर वन विस्तार था, जो इक्किसवीं सदी के आरंभ में ही संकुचित होकर 19 प्रतिशत क्षेत्र में रह गया है। इसका मुख्य कारण मानवीय हस्तक्षेप, पालतू पशुओं के द्वारा अनियंत्रित चारण एवं विविध तरीकों से वन सम्पदा का दोहन है। भारत में वनों के ह्रास का एक बड़ा कारण कृषिगत भूमि का फैलाव है।

वनों एवं वन्य जीवों के विनाश में पशुचारण और ईंधन के लिए लकड़ियों का उपयोग की भी काफी भूमिका रही है। रेल-मार्ग, सड़क मार्ग, निर्माण, औद्योगिक विकास एवं नगरीकरण ने भी वन विस्तार को बड़े पैमाने पर तहस-नहस किया है।

जैसे-जैसे वनों का दामन सिकुड़ा, वैसे-वैसे वन्य जीवों का आवास भी तंग होता गया।

आज स्थिति यह है कि बहुत से वन्य प्राणी लुप्त हो गए हैं या लुप्त प्राय हैं। भारत में चीता और गिद्ध इसके उदाहरण हैं ।
विलुप्त होने के खतरे से घिरे कुछ प्रमुख प्राणी हैं, कृष्णा सार, चीतल, भेड़िया, अनूप मृग, नील गाय, भारतीय कुरंग, बारहसिंगा, चीता, गेंडा, गिर सिंह, मगर, हसावर, हवासिल, सारंग, श्वेत सारस, घूसर बगुला, पर्वतीय बटेर, मोर, हरा सागर कछुआ, कछुआ, डियूगाँग, लाल पांडा आदि।

अमृता देवी वन्य संरक्षण परसार : अमृता देवी राजस्थान के विशनोई गाँव (जोधपुर जिला) की रहनेवाली थी। उसने 1731 ई० में राजा के आदेश को दरकिनार कर वनों से लकड़ी काटनेवालों का विरोध किया था। राजा के लिए नवीन महल निर्माण के लिए लकड़ी काटा जाना था। अमृता देवी के साथ गाँव वालों ने भी राजा के आदमियों का विरोध किया। महाराजा को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्हें काफी पश्चाताप हुआ और अपने राज्य में वनों की कटाई पर रोक लगा दी ।

वर्तमान समय में वन एवं वन्य जीवों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। भारत की संकटापन्न पादप प्रजातियों की सूची बनाने का काम सर्वप्रथम 1970 में बॉटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया तथा वन अनुसंधान संस्थान देहरादून द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। इन्होंने जो सूची बनाई उसे ‘रेड

डेटा बुक’ का नाम दिया गया। इसी क्रम में असाधारण पौधों के लिए ‘ग्रीन बुक’ तैयार किया गया।

रेड डेटा बुकः इसमें सामान्य प्रजातियों के विलुप्त होने के खतरे से अवगत किया जाता है।

संकटग्रस्त प्रजातियाँ सर्वमान्य रूप से चिन्हित होते हैं।

विश्व स्तर पर, संकटग्रस्त प्रजातियों की एक तुलनात्मक स्थिति के प्रति चेतावनी देती है। स्थानीय स्तर पर संकटग्रस्त प्रजातियों की पहचान एवं उनके संरक्षण से संबंधित कार्यक्रम को प्रोत्साहन देना।

अंतर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ ने संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण एवं संवर्धन की दिशा में कार्य कर रही एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्था है।

इस संस्था ने विभिन्न प्रकार के पौधों और प्राणियों के जातियों को चिन्हित कर निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया हैः

(क) सामान्य जातियाँ- ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती हैं जैसे- पशु, साल, चीड़ और कृतंक इत्यादि।

(ख) संकटग्रस्त जातियाँ- ये वे जातियाँ है जिनके लुप्त होने का खतरा है। जिन विषम परिस्थितियों के कारण इनकी संख्या कम हुई है, यदि वे जारी रहती हैं तो इन जातियों का जीवित रहना कठिन है। काला हिरण, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा, गेंडा, पूंछ वाला बंदर, संगाई (मणिपुरी हिरण) इत्यादि इस प्रकार के जातियों के उदाहरण हैं।

(ग) सुभेद्य जातियाँ- इसके अंतर्गत ऐसी जातियों को रखा गया है, जिनकी संख्या घट रही है। यह वैसी जातियाँ हैं जिनपर ध्यान नहीं दिया गया तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकते हैं। नीली भेड़, एशियाई हाथी, गंगा की डॉल्फिन आदि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।

(घ) दुर्लभ जातियाँ- इन जातियों की संख्या बहुत कम है और यदि इनको प्रभावित करने वाली विषम परिस्थितियाँ नहीं बदलती हैं तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकती हैं।

(ङ) स्थानिक जातियाँ- प्राकृतिक या भौगोलिक सीमाओं से अलग विशेष क्षेत्रों में पाई जाने वाली जातियाँ, अंडमानी टील, निकोबरी कबूतर, अंडमानी जंगली सुअर और अरुणाचल के मिथुन इसी वर्ग में आते हैं।

(च) लुप्त जातियाँ- ये वे जातियाँ हैं जो इनके रहने के आवासों में खोज करने पर अनुपस्थित पाई गई हैं। ये उपजातियाँ स्थानीय क्षेत्र, प्रदेश, देश, महाद्वीप या पूरी पृथ्वी से लुप्त हो गई हैं। एशियाई चीता और गुलाबी सर वाली बत्तख एवं डोडो पंक्षी इसके अच्छी उदाहरण हैं।

वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए संरक्षित क्षेत्रों में (क) राष्ट्रीय उद्यान, (ख) विहार या अभ्यारण्य तथा (ग) जैव मंडल सम्मिलित हैं।

(1) राष्ट्रीय उद्यान : ऐसे पार्कों का उद्देश्य वन्य प्राणियों के प्राकृतिक आवास में वृद्धि एवं प्रजनन की परिस्थितियों को तैयार करना है। हमारे देश में राष्ट्रीय उद्यानों की संख्या 85 है।

(2) विहार क्षेत्र या अभम्यारण्य : यह एक ऐसा सुरक्षित क्षेत्र होता है जहाँ वन्य जीव सुरक्षित ढंग से रहते हैं। यह निजी संपत्ति हो सकती है। भारत में इनकी संख्या 448 है। बिहार में बेगूसराय तथा काँवर झील तथा दरभंगा का कुशेश्वर इसके लिए चिन्हित किया गया है।

(3) जैव मंडल : यह वह क्षेत्र है जहाँ प्राथमिकता के आधार पर जैवदृविविधता के संरक्षण के कार्यक्रम चलाए जाते हैं। विश्व के 65 देशों में करीब 243 सुरक्षित जैवदृमंडल क्षेत्र हैं। भारत में इनकी संख्या 14 है।

बाघ परियोजना : वन्य जीवन संरचना में बाघ एक महत्वपूर्ण जंगली जाति है। 1973 में अधिकारियों ने पाया कि देश में 20 वीं शताब्दी के आरंभ में बाघों की संख्या अनुमानित संख्या 5500 से घटकर मात्र 1827 रह गई है। बाघों को मारकर उनको व्यापार के लिए चोरी करना, आवासीय स्थलों का सिकुड़ना, भोजन के लिए आवश्यक जंगली उपजातियों की संख्या कम होना और जनसंख्या में वृद्धि बाघों की घटती संख्या के मुख्य कारण हैं। बाघ परियोजना विश्व की बेहतरीन वन्य जीव परियोजनाओं में से एक है और इसकी शुरुआत 1973 में हुई। शुरू में इसमें बहुत सफलता प्राप्त हुई क्योंकि बाघों की संख्या बढ़कर 1985 में  4002 और 1989 में

4334 हो गयी। परंतु 1993 में इसकी संख्या घटकर 3600 तक पहुँच गई भारत में 37,761 वर्ग किमी० पर फैले हुए 27 बाघ रिजर्व हैं।

चिपको आंदोलन : उत्तर प्रदेश टेहरी-गढ़वाल पर्वतीय जिले में सुंदर लाल बहुगुणा के नेतृत्व में अनपढ़ जनजातियों द्वारा 1972 में यह आंदोलन आरंभ हुआ था। इस आंदोलन में स्थानीय लोग ठेकेदारों की कुलहाड़ी से हरे-भरे पौधों को काटते देख, उसे बचाने के लिए अपने आगोस में पौधा को घेर कर इसकी रक्षा करते थे। इसे कई देशों में स्वीकारा गया।

वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कानूनी प्रावधान : वन्य जीवों के संरक्षण के लिए बनाए गए नियमों तथा कानूनी प्रावधानों को दो वर्गों में बांट सकते हैं, ये हैं-

(क) अंतर्राष्ट्रीय नियम : वन्य जीवों के संरक्षण के लिए दो या दो से अधिक राष्ट्र समूहों के द्वारा (अंतर्राष्ट्रीय समझौते के अंतर्गत) नियम तथा कानूनी प्रावधान बनाए गए हैं। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर 1968 में अफ्रीकी कनवेंशन, अंतर्राष्ट्रीय महत्व के वेटलैंड्स का कनवेंशन 1971 तथा विश्व प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक धरोहर संरक्षण एवं रक्षा अधिनियम 1972 के अंतर्गत बनाए गए अंतर्राष्ट्रीय नियमों के द्वारा वन्य जीवों के संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं। इस पर सख्ती से अनुपालन करके वन्य जीवों की रक्षा की जा सकती है।

(ख) राष्ट्रीय कानून : संविधान की धारा 21 के अंतर्गत अनुच्छेद 47, 48 तथा 51 (क) वन्य जीवों तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के नियम हैं। वन्य जीव सुरक्षा एक्ट 1972, नियमावली 1973 एवं संशोधित एक्ट 1991 के अंतर्गत पक्षियों तथा जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया गया है।
जैव विविधताः पृथ्वी पर पौधों और जीव-जंतुओं की लगभग 17-18 लाख से ज्यादा प्रजातियों का विवरण मिलता है। पृथ्वी पर विभिन्न प्रजातियों के पौधों और जीवदृजंतुओं का होना जैव विविधता को दर्शाता है।

जैव विविधता का सामान्य अर्थकृ जीवों की विभिन्नता अर्थात् किसी विशेष क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के जीवों एवं वनस्पतियों जैसे- जानवर, पक्षी, जलीय जीव, पेड़-पौधे, छोटे-छोटे कीटों आदि की उपस्थिति को जैव विविधता कहते हैं। जैव विविधता अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग होती है।

हमारा देश जैव-विविधता के संदर्भ में विश्व के सर्वाधिक देशों में से एक है, इसकी गणना विश्व के 12 विशाल जैविक-विविधता वाले देशों में की जाती है, यहाँ विश्व की सारी

जैव उप जातियों का 8 प्रतिशत संख्या (लगभग 16 लाख) पाई जाती है।

राष्ट्र के स्वस्थ्य जैव मंडल एवं जैविक उद्योग के लिए समृद्ध जैव-विविधता अनिवार्य है।

जैव विविधता का उपयोग कृषि तथा बहुत सारे औषधीय उपयोग में होता है। (Van Evam Vanya Prani Sansadhan)

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