Class 12th political science Text Book Solutions
अध्याय 2
दो ध्रुवीयता का अंत
परिचय
शीतयुद्ध के सबसे सरगर्म दौर में बर्लिन-दीवार खड़ी की गई थी और यह दीवार शीतयुद्ध का सबसे बड़ा प्रतीक थी। 1989 में पूर्वी जर्मनी की आम जनता ने इस दीवार को गिरा दिया । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विभाजित हो चुके जर्मनी का अब एकीकरण हो गया । सोवियत संघ के खेमे में शामिल पूर्वी यूरोप के आठ देशों ने एक-एक करके जनता के प्रदर्शनों को देखकर अपने साम्यवादी शासन को बदल डाला । अंत में स्वयं सोवियत संघ का विघटन हो गया। इस अध्याय में हम दूसरी दुनिया के विघटन के आशय, कारण और परिणामों के बारे में चर्चा करेंगे। बर्लिन की दीवार पूँजीवादी दुनिया और साम्यवादी दुनिया के बीच विभाजन का प्रतीक थी। 1961 में बनी यह दीवार पश्चिमी बर्लिन को पूर्वी बर्लिन से अलगाती थी। 150 किलोमीटर से भी ज्यादा लंबी यह दीवार 28 वर्षो तक खड़ी रही और आखिरकार जनता ने इसे 9 नवंबर, 1989 को तोड़ दिया। यह दोनों जर्मनी के एकीकरण और साम्यवादी खेमे की समाप्ति की शुरूआत थी।
सोवियत संघ के नेता
व्लादिमीर लेनिन (1870-1924)
बोल्शेविक कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक: 1917 की रूसी क्रांति के नायक और क्रांति के बाद के सबसे मुश्किल दौर (1917-1924) में सोवियत समाजवादी गणराज्य के संस्थापक-अध्यक्ष: पूरी दुनिया में साम्यवाद के प्रेरणास्त्रोत।
सोवियत प्रणाली क्या थी?
समाजवादी सोवियत गणराज्य (यू.एस.एस.आर.) रूस में हुई 1917 की समाजवादी क्रांति के बाद अस्तित्व में आया। यह क्रांति पूँजीवादी व्यवस्था के विरोध में हुई थी और समाजवाद के आदर्शो और समतामूलक समाज की जरूरत से प्रेरित थी। यह मानव इतिहास में निजी संपत्ति की संस्था को समाप्त करने और समाज को समानता के सिद्धांत पर सचेव रूप से रचने की सबसे बड़ी कोशिश थी। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देश सोवियत संघ के अंकुश में आ गये। सोवियत सेना ने इन्हें फासीवादी ताकतों के चंगुल से मुक्त कराया था। इन सभी देशों की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को सोवियत संघ की समाजवादी प्रणाली की तर्ज पर ढाला गया। इन्हें ही समाजवादी खेमे के देश या ‘दूसरी दुनिया’ कहा जाता है। इस खेमे का नेता समाजवादी सोवियत गणराज्य था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ महाशक्ति के रूप में उभरा। सोवियत संघ की अर्थव्यस्था शेष विश्व की तुलना में कहीं ज्यादा विकसित थी। सोवियत संघ की संचार प्रणाली बहुत उन्नत थी। उसके पास विशाल ऊर्जा-संसाधन था जिसमें खनिज-तेल, लोहा और इस्पात तथा मशीनरी उत्पाद शामिल हैं। सरकार बुनियादी जरूरत की चीजें मसलन स्वास्थ्य-सुविधा, शिक्षा, बच्चों की देखभाल तथा लोक-कल्याण की अन्य चीजें रियायती दर पर मुहैया कराती थी। बेरोजगारी नहीं थी। मिल्कियत का प्रमुख रूप राज्य का स्वामित्व था तथा भूमि और अन्य उत्पादक संपदाओं पर स्वामित्व होने के अलावा नियंत्रण भी राज्य का ही था। बहरहाल, सोवियत प्रणाली पर नौकरशाही का शिकंजा कसता चला गया। यह प्रणाली सत्तावादी होती गई और नागरिकों का जीवन कठिन होता चला गया। लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी नहीं होने के कारण लोग अपनी असहमति अक्सर चुटकुलों और कार्टूनों में व्यक्त करते थे। सोवियत संघ की अधिकांश संस्थाओं में सुधार की जरूरत थी। सोवियत संघ में एक दल यानी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था और इस दल का सभी संस्थाओं पर गहरा अंकुश था। यह दल जनता के प्रति जवाबदेह नहीं था। जनता ने अपनी संस्कृति और बाकी मामलों की साज-संभाल अपने आप करने के लिए 15 गणराज्यों को आपस में मिलाकर सोवियत संघ बनाया था। लेकिन पार्टी ने जनता की इस इच्छा को पहचानने से इंकार कर दिया। सोवियत संघ के नक्शे में रूस, संघ के पन्द्रह गणराज्यों में से एक था लेकिन वास्तव में रूस का हर मामले में प्रभुत्व था। अन्य क्षेत्रों की जनता अक्सर उपेक्षित और दमित महसूस करती थी। हथियारों की होड़ में सोवियत संघ ने समय-समय पर अमरीका को बराबर टक्कर दी लेकिन उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। सोवियत संघ प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढाँचे (मसलन-परिवहन,ऊर्जा) के मामले में पश्चिमी देशों की तुलना में पीछे रह गया। सोवियत संघ ने 1979 में अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया। इससे सोवियत संघ की व्यवस्था और भी कमजोर हुई उत्पादकता और प्रौद्योगिकी के मामले में वह पश्चिमके देशों से बहुत पीछे छूट गया। 1970 के दशक के अंतिम वर्षो में यह व्यवास्था लड़खड़ा रही थी
गोर्बाचेव और सोवियत संघ का विघटन
मिखाइल गोर्बाचेव ने इस व्यवास्था को सुधारना चाहा। वे 1980 के दशक के मध्य में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने। पश्चिम के देशों में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति हो रही थी और सोवियत संघ को इसकी बराबरी में लाने के लिए सुधार जरूरी हो गए थे। गोर्बाचेव ने पश्चिम के देशों के साथ संबंधो को सामान्य बनाने, सोवियत संघ को लोकतांत्रिक रूप देने और वहाँ सुधार करने फैसला किया। पूर्वी यूरोप के देश सोवियत खेमे के हिस्से थे। इन देशों की जनता ने अपनी सरकारों और सोवियत नियंत्रण का विरोध करना शुरू कर दिया। पूर्वी यूरोप की साम्यवादी सरकारें एक के बाद एक गिर गई।
सोवियत संघ के बाहर हो रहे इन परिवर्तनों के साथ-साथ अंदर भी संकट गहराता जा रहा था और इससे सोवियत संघ के विघटन की गति और तेज हुई। गोर्बाचेव ने देश के अंदर आर्थिक-राजनीतिक सुधारों और लोकतंत्रीकरण की नीति चलायी। इन सुधार नीतियों का कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं द्वारा विरोध किया गया।
1991 में एक तख्तापलट भी हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े गरमपंथियों ने इसे बढ़ावा दिया था। तब तक जनता को स्वतंत्रता का स्वाद मिल चुका था और वे कम्युनिस्ट पार्टी के पुरानी रंगत वाले शासन में नहीं जाना चाहते थे। येल्तसिन ने इस तख्तापलट के विरोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और वे नायक की तरह उभरे। रूसी गणराज्य ने, जहाँ बोरिस येल्तसिन ने आम चुनाव जीता था, केंद्रीकृत नियंत्रण को मानने से इंकार कर दिया। सत्ता मास्को से गणराज्यों की तरफ खिसकने लगी।
मध्य-एशियाई गणराज्यों ने अपने लिए स्वतंत्रता की माँग नहीं की। वे ‘सोवियत संघ’ के साथ ही रहना चाहते थे। सन् 1991 के दिसम्बर में येल्तसिन के नेतृत्व में सोवियत संघ के तीन बड़े गणराज्य रूस, यूक्रेन और बेलारूस ने सोवियत संघ की समाप्ति की घोषण की। कम्युनिस्ट पार्टी प्रतिबंधित हो गई।
साम्यवादी सोवियत गणराज्य के विघटन की घोषण और स्वतंत्र राज्यों के राष्टकुल
सोवियत संघ के नेता
जोजेफ स्टालिन (1879-1953) लेनिन के उत्तराधिकारी: सोवियत संघ के मजबूत बनने के दौर में
(1924-1953) नेतृत्व किया: औद्योगीकरण को तेजी से बढ़ावा और खेती का बलपूर्वक सामूहिकीकरण: दूसरे विश्व युद्ध में जीत का श्रेय: पार्टी के अंदर अपने विरोधयों को कुचलने और तानाशाही रवैये के लिए जिम्मेदार ठहराए गए।
साम्यवादी सोवियत गणराज्य के विघटन की घोषणा और स्वतंत्र राज्यों के राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ ऑव इंडिपेंडेंट स्टेट्स) का गठन बाकी गणराज्यों, खासकर मध्य एशियाई गणराज्यों के लिए बहुत आश्चर्यचकित करने वाला था। ये गणराज्य अभी ‘स्वतंत्र राज्यों के राष्ट्रकुल’ से बाहर थे। इस मुद्दे को तुरंत हल कर लिया गया। इन्हें ‘राष्ट्रकुल’ का संस्थापक सदस्य बनाया गया। रूस को सोवियत संघ का उत्तराधिकारी राज्य स्वीकार किया गया। रूस को सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ की सीट मिली। सोवियत संघ ने जो अंतर्राष्ट्रीय करार और संधियाँ की थीं उन सब को निभाने का जिम्मा अब रूस का था। सोवियत संघ के विघटन के बाद के समय में पूर्ववर्ती गणराज्यों के बीच एकमात्र परमाणु शक्ति संपन्न देश का दर्जा रूस को मिला। सोवियत संघ अब नहीं रहा: वह दफन हो चुका था।
सोवियत संघ का विघटन क्यों हुआ?
विश्व की दुसरी सबसे बड़ी महाशक्ति अचानक कैसे बिखर गई? सोवियत संघ की राजनीतिक-आर्थिक संस्थाएँ अंदरूनी कमजोर के कारण लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकीं। यही सोवियत संघ के पतन का कारण रहा। कई सालों तक अर्थव्यवस्था गतिरूद्ध रही।
यह व्यवस्था इतनी कमजोर कैसे हुई और अर्थव्यवस्था में गतिरोध क्यों आया? इसका उत्तर काफी हद तक साफ है। कि सोवियत संघ ने अपने संसाधनों का अधिकांश परमाणु हथियार और सैन्य साजो-सामान पर लगाया। उसने अपने संसाधन पूर्वी यूरोप के अपने पिछलग्गू देशों के विकास पर भी खर्च किए ताकि वे सोवियत नियंत्रण में बने रहें। इससे सोवियत संघ पर गहरा आर्थिक दबाब बना और सोवियत व्यवस्था इसका सामना नहीं कर सकी।
सोवियत संघ पर कम्युनिस्ट पार्टी ने 70 सालों तक शासन किया और यह पार्टी अब जनता के प्रति जवाबदेह नहीं रह गई थी।
भारी भ्रष्टाचार और अपनी गलतियों को सुधारने में व्यवस्था की अक्षमता, शासन में ज्यादा खुलापन लाने के प्रति अनिच्छा और देश की विशालता के बावजूद सत्ता का केंद्रीयकृत होना-इस सारी बातों के कारण आम जनता अलग-थलग पड़ गई। ‘पार्टी’ के अधिकारियों को आम नागरिक से ज्यादा विशेषाधिकार मिले हुए थे।
मिखाइल गोर्बाचेव के सुधारों में इन दोनों समस्याओं के समाधान का वायदा था। गोर्बाचेव ने अर्थव्यवस्था को सुधारने, पश्चिम की बराबरी पर लाने और प्रशासनिक ढाँचे में ढील देने का वायदा किया।
फिर सोवियत संघ टूटा क्यों? जब गोर्बाचेव ने सुधारों को लागू किया और व्यवस्था में ढील दी तो लोगों की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं का ऐसा ज्वार उमड़ा जिसका अनुमान शायद ही कोई लगा सकता था। इस पर काबू पाना एक अर्थ में असंभव हो गया। सोवियत संघ में जनता के एक तबके की सोच यह थी कि गोर्बाचेव को ज्यादा तेज गति से कदम उठाने चाहिए। ये लोग उनकी कार्यपद्धति से धीरज खो बैठे और निराश हो गए। इन लोगों ने जैसा सोचा था वैसा फायदा उन्हें नहीं हुआ या संभव है उन्हें बहुत धीमी गति से फायदा हो रहा हो। जनता के एक हिस्से खासकर, कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य और वे लोग जो सोवियत व्यवस्था से फायदे में थे, के विचार ठीक इसके विपरीत थे। इनका कहना था कि हमारी सत्ता और विशेषाधिकार अब कम हो रहे हैं और गोर्बाचेव बहुत जल्दबाजी दिखा रहे हैं। इस खींचतान में गोर्बाचेव का समर्थन हर तरफ से जाता रहा और जनमत आपस में बँट गया। जो लोग उनके साथ थे उनका भी मोहभंग हुआ। ऐसे लोगों ने सोचा कि गोर्बाचेव खुद अपनी ही नीतियों का ठीक तरह से बचाव नहीं कर रहे हैं।
राष्ट्रीयता और संप्रभुता के भावों का उभार सोवियत संघ के विघटन का अंतिम और सर्वाधिक तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ। राष्ट्रीयता की भावना और तड़प सोवियत संघ के समूचे इतिहास में कहीं-न-कहीं जारी थी और चाहे सुधार होते या न होते, सोवियत संघ में अंदरूनी संघर्ष होना ही था।
कुछ अन्य लोग सोचते हैं कि गोर्बाचेव के सुधारों ने राष्ट्रवादियों के असंतोष को इस सीमा तक भड़काया कि उस पर शासकों का नियंत्रण नहीं रहा।
सोवियत संघ के प्रति राष्ट्रवादी असंतोष यूरोपीय और अपेक्षाकृत समृद्ध गणराज्यों- रूस, उक्रेन, जार्जिया और बाल्टिक क्षेत्र में सबसे प्रबल नजर आया।
सोवियत संघ के नेता
निकिता ख्रुश्चेव
(1894-1971)
सोवियत संघ के राष्ट्रपति (1953-1964):
स्टालिन की नेतृत्व-शैली के आलोचक: 1956 में कुछ सुधार लागू किए: पश्चिम के साथ ‘शांतिपूर्ण सहअस्तित्व’ का सुझाव रखा: हंगरी के जन-विद्रोह के दमन और क्यूबा के मिसाइल संकट में शामिल।
विघटन की परिणतियाँ
अव्वल तो ‘दूसरी दुनिया’ के पतन का एक परिणाम शीतयुद्ध के दौर के संघर्ष की समाप्ति में हुआ। शीतयुद्ध के इस विवाद ने दोनों गुटों की सेनाओं को उलझाया था, हथियारों की तेज होड़ शुरू की थी, परमाणु हथियारों के संचय को बढ़ावा दिया था तथा विश्व को सैन्य गुटों में बाँटा था। शीतयुद्ध के समाप्त होने से हथियारों कीहोड़ भी समाप्त हो गई और एक नई शांति की संभावना का जन्म हुआ। दूसरा यह कि विश्व राजनीति में शक्ति-संबंध बदल गए।
शीतयुद्ध के अंत के समय केवल दो संभावनाएँ थीं- या तो बची हुई महाशक्ति का दबदबा रहेगा और एक ध्रुवीय विश्व बनेगा या फिर कई देश अथवा देशों के अलग-अलग समूह अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में महत्वपूर्ण मोहरे बनकर उभरेंगे और इस तरह बहुध्रुवीय विश्व बनेगा जहाँ किसी एक देश का बोलबाला नहीं होगा। हुआ यह कि अमरीका अकेली महाशक्ति बन बैठा। अमरीका की ताकत और प्रतिष्ठा की शह पाने से अब पूँजीवादी अर्थव्यवस्था है। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्री मुद्रा कोष जैसी संस्थाएँ विभिन्न देशों की ताकतवर सलाहकार बन गई कयोंकि इन देशों को पूँजीवाद की ओर कदम बढ़ाने के लिए इन संस्थाओं ने कर्ज दिया है।
तीसरी बात यह कि सोवियत खेमे के अंत का एक अर्थ नए देशों का उदय।
साम्यवादी शासन के बाद ‘शॉक थेरेपी’
रूस, मध्य एशिया के गणराज्य और पूर्वी यूरोप के देशों में पूँजीवाद की ओर संक्रमण का एक खास मॉडल अपनाया गया। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित इस मॉडल को ‘शॉक थेरेपी’ (आघात पहुँचाकर उपचार करना) कहा गया।
हर देश को पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर पूरी तरह मुड़ना था। इसका मतलब था सोवियत संघ के दौर की हर संरचना से पूरी तरह निजात पाना। ‘शॉक थेरेपी’ की सर्वोपरि मान्यता था कि मिल्कियत का सबसे प्रभावी रूप निजी स्वामित्व होगा। इसके अंतर्गत राज्य की संपदा के निजीकरण और व्यावसायिक स्वामित्व के ढ़ाँचे को तुरंत अपनाने की बात शामिल थी। सामूहिक ‘फार्म’ को निजी ‘फार्म’ में बदल गया और पूँजीवादी पद्धति से खेती शुरू हुई।
‘शॉक थेरेपी’ से इन अर्थव्यवस्थाओं के बाहरी व्यवस्थाओं के प्रति रूझान बुनियादी तौर पर बदल गए। अब माना जाने लगा कि ज्यादा से ज्यादा व्यापार करके ही विकास किया जा सकता है।
पूँजीवादी व्यवस्था को अपनाने के लिए वित्तीय खुलापन, मुद्राओं की आपसी परिवर्तनीयता और मुक्त व्यापार की नीति महत्वपूर्ण मानी गई। अंतत: इस संक्रमण में सोवियत खेमे के देशों के बीच मौजूद व्यापारिक गठबंधनों को समाप्त कर दिया गया। खेमे के प्रत्येक देश को एक-दूसरे से जोड़ने की जगह सीधे पश्चिमी मुल्कों से जोड़ा गया। पश्चिमी दुनिया के पूँजीवादी देश अब नेता की भूमिका निभाते हुए अपनी विभिन्न एजेंसियों और संगठनों के सहारे इस खेमे के देशों के विकास का मार्गदर्शन और नियंत्रण करेंगें।
‘शॉक थेरेपी‘ का परिणाम
1990 के अपनायी गई ‘शॉक थेरेपी‘ जनता का उपभोग के उस ‘आनंदलोक‘ तक नहीं ले गई जिसका उसने वादा किया था। अमूमन ‘शॉक थेरेपी‘ से पूरे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई और इस क्षेत्र की जनता को बर्बादी की मार झेलनी पड़ी। रूस में, पूरा का पूरा राज्य-नियंत्रित औद्योगिक ढाँचा चरमरा उठा। लगभग 90 प्रतिशत उद्योगों को निजी हाथों या कंपनीयों को बेचा गया। आर्थिक ढाँचे का यह पुनर्निमाण चूँकि सरकार द्वारा निर्देशित औद्योगिक नीति के बजाय बाजार की ताकतें कर रहीं थीं, इसलिए यह कदम सभी उद्योगों को मटियामेट करने वाला साबित हुआ। इसे ‘इतिहास की सबसे बड़ी गराज-सेल‘ के नाम से जाना जाता है क्योंकि महŸवपूर्ण उद्योगों की कीमत कम से कम करके आंकी गई और उन्हें औने-पौने दामों में बेच दिया गया।
रूसी मुद्रा रूबल के मूल्य में नाटकीय ढंग से गिरावट आई। मुद्रास्फीति इतनी ज्यादा बढ़ी कि लोगों की जमापूँजी जाती रही।
सामूहिक खेती की प्रणाली समाप्त हो चुकी थी और लोगों को अब खाद्यान्न की सुरक्षा मौजूद नहीं रही। रूस ने खाद्यान्न का आयात करना शुरू किया।
समाज कल्याण की पुरानी व्यवस्था को क्रम से नष्ट किया गया। सरकारी रियायतों के खात्मे के कारण ज्यादातर लोग गरीबी में पड़ गए। निजीकरण ने नई विषमताओं को जन्म दिया। रूस में अमीर और गरीब लोगों के बीच तीखा विभाजन हो गया। धनी और निर्धन लोगों के बीच बहुत गहरी आर्थिक असमानता थी।
लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्माण का कार्य ऐसी प्राथमिकता के साथ नहीं हो सका। इन सभी देशों के संविधान हड़बड़ी में तैयार किए गए। रूस सहित अधिकांश देशों में राष्ट्रपति को कार्यपालिका प्रमुख बनाया गया और उसके हाथ में लगभग हरसंभव शक्ति थमा दी गई। फलस्वरूप संसद अपेक्षाकृत कमजोर संस्था रह गई।
राष्ट्रपतियों ने अपने फैसलों से असहमति या विरोध की अनुमति नहीं दी। अधिकतर देशों में न्यायिक संस्कृति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को स्थापित करने का काम करना अभी बाकि है।
रूस सहित अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था ने सन् 2000 में यानी अपने आजादी के 10 साल बाद खड़ा होना शुरू किया। इन अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन का कारण था खनिज-तेज, प्राकृतिक गैस और धातु जैसे प्राकृतिक संसाधनों का निर्यात। रूस, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और अजरबैजान तेल और गैस के बड़े उत्पादक देश हैं। बाकि देशों को अपने क्षेत्र से तेल की पाईप-लानन गुजरने के कारण फायदा हुआ। इसके बदले उन्हें किराया मिलता है। जिससे उन्हें लाभ होता है।
संघर्ष और तनाव
पूर्व सोवियत संघ के अधिकांश गणराज्य संघर्ष की आंशका वाले क्षेत्र हैं। अनेक गणराज्यों ने गृहयुद्ध और बगावत को झेला है।
रूस के दो गणराज्यों चेचन्या और दागिस्तान में हिंसक अलगाववादी आंदोलन चले। मास्को ने चेचन विद्रोहियों से निपटने के जो तरीके अपनाये और गैर-जिम्मेदार तरीके से सैन्य बमबारी की उसमें मानवाधिकार का व्यापक उल्लंघन हुआ लेकिन इससे आजादी की आवाज दबायी नहीं जा सकी।
मध्य एशिया में, तजिकिस्तान दस वर्षो यानी 2001 तक गृहयुद्ध की चपेट में रहा। अजरबैजान का एक प्रांत नगरनों कराबाख है। यहाँ के कुछ स्थानीय अर्मेनियाई अलग होकर अर्मेनिया से मिलना चाहते हैं। जार्जिया में दो प्रांत स्वतंत्रता चाहते हैं और गृहयुद्ध लड़ रहे हैं। यूक्रेन, किरगिझस्तान तथा जार्जिया में मौजूदा शासन को उखाड़ फेकने के लिए आंदोलन चल रहे
मध्य एशियाई गणराज्यों में हाइड्रोकार्बनिक (पेट्रोलियम) संसाधनों का विशाल भंडार है।
11 सितंबर 2001 की घटना के बाद अमरीका इस क्षेत्र में सैनिक ठिकाना बनाना चाहता था। उसने किराए पर ठिकाने हासिल करने के लिए मध्य एशिया के सभी राज्यों को भुगतान किया और अफगानिस्तान तथा इराक में युद्ध के दौरान इन क्षेत्रों से अपने विमानों को उड़ाने की अनुमति ली।
पूर्वी यूरोप में चेकोस्लोवाकिया शांतिपूर्वक दो भागों में बँट गया। चेक तथा स्लोवाकिया नाम के दो देश बने। लेकिन सबसे गहन संघर्ष बाल्कन क्षेत्र के गणराज्य युगोस्लाविया में हुआ। सन् 1991 में बाद युगोस्लाविया कई प्रांतों में टूट गया और इसमें शामिल बोस्निया-हर्जेगोविना, स्लोवेनिया तथा क्रोएशिया ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया।
भारत और सोवियत संघ
शीतयुद्ध के दौरान भारत और सोवियत संघ के संबंध बहुत गहरे थे।
आर्थिक – सोवियत संघ ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की ऐसे वक्त में मदद की जब ऐसी मदद पाना मुश्किल था। सोवियत संघ ने भिलाई, बोकारो और विशाखापट्टनम के इस्पात कारखानों तथा भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स जैसे मशीनरी संयंत्रो के लिए आर्थिक और तकनीकी सहायता दी। भारत में जब विदेशी मुद्रा की कमी थी तब सोवियत संघ ने रूपये को माध्यम बनाकर भारत के साथ व्यापार किया।
राजनीतिक – सोवियत संघ ने कश्मीर मामले पर संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत के रूख को समर्थन दिया। सन् 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के दौरान मदद की। भारत ने भी सोवियत संघ की विदेश नीति का अप्रत्यक्ष, लेकिन महत्वपूर्ण तरीके से समर्थन किया।
सैन्य – भारत को सोवियत संघ ने ऐसे वक्त में सैनिक साजो-सामान दिए जब शायद ही कोई अन्य देश अपनी सैन्य टेक्नालॉजी भारत को देने के लिए तैयार था।
संस्कृति – हिंदी फिल्म और भारतीय संस्कृति सोवियत संघ में लोकप्रिय थे। बड़ी संख्या में भारतीय संघ में लोकप्रिय थे। बड़ी संख्या में भारतीय लेखक और कलाकारों ने सोवियत संघ की यात्रा की।
पूर्व-सामयावादी देश और भारत
भारत ने साम्यवादी रह चुके सभी देशों के साथ अच्छे संबंध कायम किए हैं लेकिन भारत के संबंध रूस के साथ सबसे ज्यादा गहरे
भारतीय हिन्दी फिल्मों के नायकों में राजकपूर से लेकर अमिताभ बच्चन तक रूस और पूर्व सोवियत संघ के बाकी गणराज्यों में घर-घर जाने जाते हैं।
भारत को रूस के साथ अपने संबधों के कारण कश्मीर, ऊर्जा-आपूर्ति, अंतर्राष्ट्रीय आंतकवाद से संबंधित सूचनाओं के आदान-प्रदान, पश्चिम एशिया में पहुँच बनाने तथा चीन के
साथ अपने संबंधों में संतुलन लाने जैसे मसलों में फायदे हुए हैं। रूस को इस संबंध से सबसे बड़ा फायदा यह है कि भारत रूस के लिए हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा खरीददार देश है। भारतीय सेना को अधिकांश सैनिक साजो-सामान रूस से प्राप्त होते हैं। चूँकि भारत तेल के आयातक देशों में से एक है इसलिए भी भारत रूस के लिए महत्वपूर्ण है। उसने तेल के संकट की घड़ी में हमेशा भारत की मदद की है।