Class 12th political science Text Book Solutions
अध्याय 1
शीतयुद्ध का दौर
परिचय
इस अध्याय से यह साफ होगा कि किस तरह दो महाशक्तियों संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ का वर्चस्व शीतयुद्ध के केंन्द्र में था। इस अध्याय में गुटनिरपेक्ष आंदोलन पर इस दृष्टि से विचार किया गया है कि किस तरह इसने दोनों राष्ट्रों के दबदबे को चुनौती दी। गुटनिरपेक्ष देशों द्वारा ‘नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ स्थापित करने के प्रयास की चर्चा इस अध्याय में यह बताते हुए की गई है कि किस तरह इन देशों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अपने आर्थिक विकास और राजनितिक स्वतंत्रता का साधन बनाया ।
क्यूबा का मिसाइल संकट
सोवियत संघ के नेता नीकिता ख्रुश्चेव ने क्यूबा को रूस के ‘सैनिक अड्डे’ के रूप में बदलने का फैसला किया। 1962 में ख्रुश्चेव ने क्यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात कर दीं। इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमरीका नजदीकी निशाने की सीमा में आ गया। हथियारों की इस तैनाती के बाद सोवियत संघ पहले की तुलना में अब अमरीका के मुख्य भू-भाग के लगभग दोगुने ठिकानों या शहरों पर हमला बोल सकता था। अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी और उनके सलाहकार ऐसा कुछ भी करने से हिचकिचा रहे थे जिससे दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध शुरू हो जाए । लेकिन वे इस बात को लेकर दृढ़ थे कि ख्रुश्चेव क्यूबा से मिसाइलों और परमाणु हथियारों को हटा लें। कैनेडी ने आदेश दिया कि अमरीकी जंगी बेड़ों को आगे करके क्यूबा की तरफ जाने वाले सोवियत जहाजों को रोका जाए । इस तरह अमरीका सोवियत संघ को मामले के प्रति अपनी गंभीरता की चेतावनी देना चाहता था । ऐसी स्थिति में यह लगा कि युद्ध होकर रहेगा । इसी को’ क्यूबा मिसाइल संकट’ के रूप में जाना गया । यह टकराव कोई आम युद्ध नहीं होता । अंतत: दोनों पक्षों ने युद्ध टालने का फैसला किया और दुनिया ने चैन की साँस ली । ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ शीतयुद्ध का चरम बिंदु था । शीतयुद्ध सिर्फ जोर-आजमाइश, सैनिक गठबंधन अथवा शक्ति-संतुलन का मामला भर नहीं था बल्कि इसके साथ-साथ विचारधारा के स्तर पर भी एक वास्तविक संघर्ष जारी था । विचारधारा की लड़ाई इस बात को लेकर थी कि पूरे विश्व में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन को सूत्रबद्ध करने का सबसे बेहतर सिद्धांत कौन-सा है। पश्चिमी गठबंधन का अगुवा अमरीका था और यह गुट उदारवादी लोकतंत्र तथा पूँजीवाद का समर्थक था। पूर्वी गठबंधन का अगुवा सोवियत संघ था और इस गुट की प्रतिबद्धता समाजवाद तथा साम्यवाद के लिए थी। आप इन
शीतयुद्ध क्या है?
अमरीका और सोवियत संघ विश्व की सबसे बड़ी शक्ति थे । इनके पास इतनी क्षमता थी कि विश्व की किसी भी घटना को प्रभावित कर सकें। अमरीका और सोवियत संघ का महाशक्ति बनने की होड़ में एक-दुसरे के मुकाबले खड़ा होना शीतयुद्ध का कारण बना।
दो-ध्रुवीय विश्व का आरंभ
दुनिया दो गुटों के बीच बहुत स्पष्ट रूप से बँट गई थी। ऐसे में किसी मुल्क के लिए एक रास्ता यह था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए किसी एक महाशक्ति के साथ जुड़ा रहे और दुसरी महाशक्ति तथा उसके गुट के देशों के प्रभाव से बच सके। महाशक्तियों के नेतृत्व में गठबंधन की व्यवस्था से पूरी दुनिया के दो खेमों में बंट जाने का खतरा पैदा हो गया । यह विभाजन सबसे पहले यूरोप में हुआ । पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देशों ने अमरीका का पक्ष लिया जबकि पूर्वी यूरोप सोवियत खेमे में शामिल हो गया इसीलिए ये खेमे पश्चिमी और पूर्वी गठबंधन भी कहलाते हैं। पश्चिमी गठबंधन ने स्वयं को एक संगठन का रूप दिया। अप्रैल 1949 में उत्तर अटलांटिका संधि संगठन (नाटो) की स्थापना हुई जिसमें 12 देश शामिल थे । इस संगठन ने घोषणा की कि उत्तरी अमरीका अथवा यूरोप के इन देशों में से किसी एक पर भी हमला होता है तो उसे ‘संगठन’ में शामिल सभी देश अपने ऊपर हमला मानेंगे । ‘नाटो’ में शामिल हर देश एक-दुसरे की मदद करेगा । इसी प्रकार के पूर्वी गठबंधन को ‘वारसा संधि’ के नाम से जाना जाता है। इसकी अगुआई सोवियत संघ ने की । इसकी स्थापना सन् 1955 में हुई थी और इसका मुख्य काम था ‘नाटो’ में शामिल देशों का यूरोप में मुकाबला करना । शीतयुद्ध के कारण विश्व के सामने दो गुटों के बीच बँट जाने का खतरा पैदा हो गया था । साम्यवादी चीन की 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध में सोवियत संघ से अनबन हो गई । सन् 1969 में इन दोनों के बीच एक भू-भाग पर आधिपत्य को लेकर छोटा-सा युद्ध भी हुआ । इस दौर की एक महत्वपूर्ण घटना ‘गुटनिरपेक्ष आंदोलन’ का विकास है। इस आंदोलन ने नव-स्वतंत्र राष्ट्रों को दो-ध्रुवीय विश्व की गुटबाजी से अलग रहने का मौका दिया ।
शीतयुद्ध के दायरे
शीतयुद्ध के दौरान खूनी लड़ाइयाँ भी हुई, लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात यह भी है कि इन संकटों और लड़ाइयों की परिणति तीसरे विश्वयुद्ध के रूप में नहीं हुई। शीतयुद्ध के दायरों की बात करते हैं तो हमारा आशय ऐसे क्षेत्रों से होता है जहाँ विरोधी खेमों में बँटे देशों के बीच संकट के अवसर आये, युद्ध हुए या इनके होने की संभावना बनी, लेकिन बातें एक हद से ज्यादा नहीं बढ़ी। कोरिया, वियतनाम और अफगानिस्तान जैसे कुछ क्षेत्रों में व्यापक जनहानि हुई, लेकिन विश्व परमाणु युद्ध से बचा रहा और वैमनस्य विश्वव्यापी नहीं हो पाया। शीतयुद्ध के संघर्षो और कुछ गहन संकटों को टालने में दोनों गुटों से बाहर के देशों ने कारगर भूमिका निभायी। गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका को नहीं भुलाया जा सकता। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रमुख नेताओं में एक जवाहरलाल नेहरू थे। नेहरू ने उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के बीच मध्यस्थता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांगो संकट में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने प्रमुख मध्यस्थ की भूमिका निभाई।
महाशक्तियों ने समझ लिया था कि युद्ध को हर हालत में टालना जरूरी है। इसी समझ के कारण दोनों महाशक्तियों ने संयम बरता और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में जिम्मेवारी भरा बरताव किया।
हालाँकि शीतयुद्ध के दौरान दोनों ही गठबंधनों के बीच प्रतिद्वंदिता समाप्त नहीं हुई थी। इसी कारण एक-दूसरे के प्रति शंका की हालत में दोनों गुटों ने भरपूर हथियार जमा किए और लगातार युद्ध के लिए तैयारी करते रहे। हथियारों के बड़े जखीरे को युद्ध से बचे रहने के लिए जरूरी माना गया।
दोनों देश लगातार इस बात को समझ रहे थे कि संयम के बावजूद युद्ध हो सकता है।
इसके अतिरिक्त सवाल यह भी था कि कोई परमाणु दुर्घटना हो गई तो क्या होगा? अगर परमाणु हथियार चला दे तो कया होगा? अगर गलती से कोई परमाणु हथियार चल जाए या कोई सैनिक शरारतन युद्ध शुरू करने के इरादे से कोई हथियार चला दे तो क्या होगा? अगर परमाणु हथियार के कारण कोई दुर्घटना हो जाए तो क्या होगा?
इस कारण, समय रहते अमरीका और सोवियत संघ ने कुछेक परमाण्विक और अन्य हथियारों को सीमित या समाप्त करने के लिए आपस में सहयोग करने का फैसला किया। दोनों महाशक्तियों ने फैसला किया कि ‘अस्त्र-नियंत्रण’ द्वारा हथियारों की होड़ पर लगाम कसी जा सकती है और उसमें स्थायी संतुलन लाया जा सकता है। ऐसे प्रयास की शुरूआत सन् 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में हुई और एक दशक के भीतर दोनों पक्षों ने तीन अहम समझौतों पर दस्तखत किए। ये संधियाँ थीं परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि, परमाणु अप्रसार संधि (एंटी बैलेस्टिक मिसाइल ट्रीटी)। इसके बाद हथियारों पर अंकुश रखने के लिए अनेक संधियाँ कीं।
1954 वियतनामियों के हाथों दायन बीयन फू में फ्रांस की हार: जेनेवा समझौते पर हस्ताक्षर: 17वीं समानांतर रेखा द्वारा वियतनाम का विभाजन: सिएटो(SEATO) का गठन।
1955 बगदाद समझौते पर हस्ताक्षर: बाद में इसे सेन्टो (CENTO) के नाम से जाना गया।
1961 बर्लिन-दीवार खड़ी की गई
1962 क्यूबा का मिसाइल संकट।
1985 गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने: सुधार की प्रक्रिया आरंभ की।
1989 बर्लिन-दीवार गिरी: पूर्वी यूरोप की सरकारों के विरूद्ध लोगों का प्रदर्शन।
1990 जर्मनी का एकीकरण।
1991 सोवियत संघ का विघटन: शीतयुद्ध की समाप्ति।
दो-ध्रुवीयता को चुनौती –गुटनिरपेक्षता
गुटनिरपेक्षता ने एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका के नव-स्वतंत्र देशों को एक तीसरा विकल्प दिया। यह विकल्प था दोनों महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने का।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन की जड़ में युगोस्लाविया के जोसेफ ब्रॉज टीटो, भारत के जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के गमाल अब्दुल नासिर की दोस्ती थी। इन तीनों ने सन् 1956 में एक सफल बैठक की। इंडोनेशिया के सुकर्णो और घाना के वामे एनक्रूमा ने इनका जोरदार समर्थन किया। ये पाँच नेता गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक कहलाए। पहला गुटनिरपेक्ष सम्मेलन सन् 1961 में बेलग्रेड में हुआ। यह सम्मेलन कम से कम तीन बातों की परिणति था-
(क) इन पाँच देशों के बीच सहयोग,
(ख) शीतयुद्ध का प्रसार और इसके बढ़ते हुए दायरे, और
(ग) अंतर्राष्ट्रीय फलक पर बहुत से नव-स्वतंत्र अफ्रीकी देशों का नाटकीय उदय। 1960 तक संयुक्त राष्ट्रसंघ में 16 नये अफ्रीकी देश बतौर सदस्य शामिल हो चुके थे।
जैसे-जैसे गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक लोकप्रिय अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में बढ़ता गया वैसे-वैसे इसमें विभिन्न राजनितिक प्रणाली और अगल-अलग हितों के देश शामिल होते गए। इसी कारण गुटनिरपेक्ष आंदोलन की सटीक परिेभाषा कर पाना कुछ मुश्किल है। वास्तव में यह आंदोलन है क्या? दरअसल यह आंदोलन क्या नहीं है-यह बताकर इसकी परिभाषा करना ज्यादा सरल है। यह महाशक्तियों के गुटों में शामिल न होने का आंदोलन है।
गुटनिरपेक्षता का मतलब पृथकतावाद नहीं। पृथकतावाद का अर्थ होता है अपने को अंतर्राष्ट्रीय मामलों से काटकर रखना। 1787 में अमरीका में स्वतंत्रता की लड़ाई हुई थी। इसके बाद से पहले विश्वयुद्ध की शुरूआत तक अमरीका ने अपने को अंतर्राष्ट्रीय मामलों से अलग रखा। उसने पृथकतावाद की विदेश-नीति अपनाई थी। इसके विपरीत गुटनिरपेक्ष देशों ने, जिसमें भारत भी शामिल है, शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए प्रतिद्वंद्वी गुटों के बीच मध्यस्थता में सक्रिय भूमिका निभाई।
गुटनिरपेक्ष का अर्थ तटस्थता का धर्म निभाना भी नहीं है। तटस्थता का अर्थ होता है मुख्यत: युद्ध में शामिल न होने की नीति का पालन करना। तटस्थता की नीति का पालन करने वाले देश के लिए यह जरूरी नहीं कि वह युद्ध को समाप्त करने में मदद करे। ऐसे देश युद्ध में संलग्न नहीं होते और न ही युद्ध के सही-गलत होने के बारे में उनका कोई पक्ष होता है। दरअसल कई कारणों से गुटनिरपेक्ष देश, जिसमें भारत भी शामिल है, युद्ध में शामिल हुए हैं। इन देशों ने दूसरे देशों के बीच युद्ध को होने से टालने के लिए काम किया है और हो रहे युद्ध के अंत के लिए प्रयास किए हैं।
नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था
गुटनिरपेक्ष देश शीतयुद्ध के दौरान महज मध्यस्थता करने वाले देश भर नहीं थे। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल अधिकांश
देशों को ‘अल्प विकसित देश’ का दर्जा मिला था। इन देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी।
इसी समझ से नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ। 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यापार और विकास से संबंधित सम्मेलन (यूनाइटेड नेशंस कॉनफ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमंट-अंकटाड) में ‘टुवार्ड्स अ न्यू ट्रेड पॉलिसी फॉर डेवलपमेंट शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। इस रिपोर्ट में वैश्विक व्यापार-प्रणाली में सुधार का प्रस्ताव किया गया था। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि सुधारों से-
(क) अल्प विकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त होगा जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं:
(ख) अल्प विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजार तक होगी: वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस तरह गरीब देशों के लिए यह व्यापार फायदेमंद होगा:
(ग) पश्चिमी देशों से मंगायी जा रही प्रौद्योगिकी की लागत कम होगी और
(घ) अल्प विकसित देशों की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों में भूमिक बढ़ेगी।
गुटनिरपेक्षता की प्रकृति धीरे-धीरे बदली और इसमें आर्थिक मुद्दों को अधिक महत्व दिया जाने
परिणामस्वरूप गुटनिरपेक्ष आंदोलन आर्थिक दबाव-समूह बन गया।
भारत और शीतयुद्ध
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में शीतयुद्ध के दौर में भारत ने दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई। एक स्तर पर भारत ने सजग और सचेत रूप से अपने को दोनों महाशक्तियों की खेमेबंदी से अलग रखा। दूसरे, भारत ने उपनिवेशों के चुंगल से मुक्त हुए नव-स्वतंत्र देशों के महाशक्तियों के खेमे में जाने को पुरजोर विरोध किया।
भारत की नीति न तो नकारात्मक थी और न ही निष्क्रियता की। नेहरू ने विश्व को याद दिलाया कि गुटनिरपेक्ष कोई ‘पलायन’ की नीति नहीं है। भारत ने दोनों गुटों के बीच मौजूद मतभेदों को कम करने को कोशिश की और इस तरह उसने इन मतभेदों का पूर्णव्यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।
शीतयुद्ध के दौरान भारत ने लगातार उन क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को सक्रिय बनाये रखने की कोशिश की जो अमरीका अथवा सोवियत संघ के खेमे से नहीं जुड़े थे। नेहरू ने ‘स्वतंत्र और परस्पर सहयोगी राष्ट्रों के एक सच्चे राष्ट्रकुल’ के ऊपर गहरा विश्वास जताया जो शीतयुद्ध को खत्म करने में न सही, पर उसकी जकड़ ढीली करने में ही सकारात्मक भूमिका निभाये।
भारत की गुटनिरपेक्ष की नीति की कई कारणों से आलोचना की गई।
आलोचना का एक तर्क यह है कि भारत की गुटनिरपेक्ष ‘सिद्धांतविहीन’ है। कहा जाता है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के नाम पर अक्सर महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर कोई सुनिश्चित पक्ष लेने से बचता रहा। आलोचकों का दूसरा तर्क है कि भारत के व्यवहार में स्थिरता नहीं रही और कोई बार भारत की स्थिती विरोधाभासी रही। महाशक्तियों के खेमों में शामिल होने पर दूसरे देशों की आलोचना करने वाले भारत ने स्वयं सन् 1971 के अगस्त में सोवियत संघ के साथ आपसी मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए। विदेशी पर्यवेक्षकों ने इसे भारत का सोवियत खेमे में शामिल होना माना।