एकादशः पाठः ग्राम्यजीवनम् | Gram Jeevanam Class 9th Sanskrit

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 11 ग्राम्यजीवनम् (Gram Jeevanam Class 9th Sanskrit) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

एकादशः पाठः
ग्राम्यजीवनम्

पाठ-परिचय-प्रस्तुत पाठ ‘पागजीवनम्’ में ग्रामीण जीवन की दुःस्थिति का वर्णन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि आरंभ में ग्रामीण जीवा को ईश्वर का वरदान तथा आनन्द का रूप माना जाता था, किन्तु आज ग्राम अभिशाप बने हुए हैं। भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है, यह कथनी भर के लिए रह गई है। आज के वैज्ञानिक युग में ‘भा गाव का दशा बद से बदतर होती देखकर लोग यहाँ से नगरों की ओर पलायन करने लगे है। पाठ में ग्राम्य जीवन की दशा और सुधार को दिशा का निरूपण किया गया है।
अस्माकं देशे जनाः ग्रामे नगरे च वसन्ति। ग्रामाणां संख्या नगरापेक्षया नूनमध्कि वर्तते। नगराणां  संख्या तु क्रमशः वर्ध्ते किन्तु ग्रामसंख्या न तथा वृद्ध लभते। अधुना ये नगरवासिनः, प्राचीनकाले ते  ग्रामवासिनः एव। केचित् स्वग्रामेण संबन्ध्मद्यापि निर्वहन्ति।
एका प्राचीनोत्तिफर्वर्तते-प्रकृतिर्ग्राममसृजत्, नगरं तु मानवस्य रचनेति। अस्यार्थस्तुµ ग्रामस्य  विकासः प्राकृतिकः, नगराणि तु कृत्रिमाणि सन्ति। मानवः स्वस्य भौतिकीं सुखसमृद्ध कल्पयित्वा महता  प्रयासेन नगराणि निर्ममे। भोजनं वसनम् आवासश्चेति तिस्रः आवश्यकताः मानवस्य वर्तन्ते। ग्रामे एताः  न्यूनतमाः प्राप्यन्ते इति तत्रात्याः जनाः सन्तोषप्रधनाः। किन्तु एतल्लाभार्थं ध्नमावश्यकम्। कृषिप्रधना  ध्नव्यवस्था ग्रामे{द्यापि वर्तते। क्वचिदेव व्यापारः उद्योगो वा विद्यते। अतएव ग्राम्यजनाः ध्नार्जनाय नगरं  प्रति पलायमाना दृश्यन्ते।
अर्थ-हमारे देश में लोग गाँव तथा नगर में रहते हैं। गाँव की संख्या नगर का अपेक्षा निश्चय ही अधिक है। नगरों की संख्या तो क्रमशः बढ़ रही है, किन्तु ग्रामाण वैसा विकास नहीं कर रहे है। आज जो नगरवासी है, वे पूर्व में ग्रामवासी था कुछ आज भी अपने मागीण संबंध का निर्वाह कर रहे हैं।
एक प्राचीन कहावत है कि प्रकृति ने गाँवों की सृष्टि की। नगर तो मानव द्वारा स्थापित है। इसका अर्थ है कि गाँतों का विकास प्राकृतिक है जबकि नगर तो कृत्रिम है। मनुष्य ने अपनी भौतिक सुख-समृद्धि की कल्पना करके काफी प्रयलपूर्वक नगरी का निर्माण किया। मनुष्य की तीन मुख्य आवश्यकताएँ हैं-भोजन, वस्त्र तथा आवास । ग्रामीण कम आमदनी के बावजूद संतुष्ट रहते हैं। किन्तु इतने से अधिक लाभ के लिए धन आवश्यक है। गांवों में कृषिप्रधान व्यवस्था आज भी विद्यमान है। व्यापार तथा उद्योग तो नहीं के बराबर हैं। इसीलिए ग्रामीण लोग धन कमाने के लिए नगर की ओर भागते हुए दिखाई देते हैं।

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प्राचीनकाले ग्राम्यजीवनं बहुसुखमयं बभूव। सन्तुष्टाः ग्रामवासिनः यदा कदैव नगरं गच्छन्ति स्म।  सुखस्य साध्नानि तदानीमुपलब्धनि ग्रामीणेभ्यो रोचन्ते। शुद्ध जलं निर्मलो वायुः, स्वपरिश्रमार्जितमसमाजे सामंजस्यं, जनानां परिमिता च संख्या-एतत्सर्वं ग्राम्यजीवनस्य लक्षणं बभूव। कृत्रिमा भौतिकी  संस्कृतिः भारतस्य ग्रामान् बहुकालं यावत् नास्पृशत्। विदेशेषु तु ग्रामे{पि वैज्ञानिकी समृ(रागता यथा-  विद्युत्प्रवाहः, आधुनिकसंचारव्यवस्था, यातायातसाध्नानि, कृषिकर्मणे यन्त्रोपस्करादीनि च। नेदं  भारतीयग्रामेषु दृश्यते प्रायेण। अतएवाद्य ग्राम्यजीवनं न वरदानरूपं मन्यते। सम्पन्नाः ग्रामीणा अपि 
नगरं प्रति पलायनपराः, तत्रा का कथा विपन्नानां वृत्तिहीनानां ग्रामजनानाम्?इमे नगरेषु जीविकां लभन्ते, पूर्वे तु  सुखसमृ(जातं भौतिकीं सुविधां चेति।
अर्थ-प्राचीन काल में प्रामीण जीवन अति सुखमय था। सन्तुष्ट मामवासी सदाकदा ही नगर (शहर) जाते थे। सुख के सारे साधन उस समय उपलब्ध होने के करण गाँव अच्छा लग रहा था। शुद्ध जल, स्वच्छ हवा, अपने द्वारा उपार्जित अन्न, सामाजिक प्रेम, लोगों द्वारा लागू नियम तथा संख्या, ये सभी ग्रामीण जीवन के मुख्य लक्षण थे। कृत्रिम भौतिक संस्कृति भारत के गाँवों को दीर्घकाल तक प्रभावित नहीं किया। विदेश में तो गाँवों में भी वैज्ञानिक विकास हो गया है, जैसे—बिजली, संचार, यातायात तथा कृषि यंत्र उपलब्ध है किन्तु भारतीय गाँवो में ये सब नहीं देखे जाते । इसलिए आज गाँव का जीवन वरदान के रूप में नहीं माना जाता । सुखी-सम्पन्न ग्रानवासी र्भी नगर की ओर भाग रहे है तो निर्धन एवं आजीविका के साधन से रहित लोगों का क्या कहना । गे नगरों में जीविका (नौकरी) प्राप्त करते हैं। पहले तो गे सुख-समृद्धि तथा भौतिक सुविधा प्राप्त करते हैं।

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अपि च, ग्रामे नाद्य स्वर्गस्य कल्पना वर्तते। अतः नाद्यत्वे ग्राम्यजीवनं प्रशस्तमिति साहित्येषु गीयते।  अद्य क्वचिद् ग्रामेषु अनावृष्टिकारणात्, क्वचिच्चातिवृष्टिनिमित्तात्, कदाचिन्नदीषु जलपूरेण तटबन्ध्भघ्गात्  महदेव ग्रामजनसंकटम् आपद्यते। विहारप्रदेशे तु सर्वमिदं युगपद् दृश्यते इत्यभिशापमेव मन्यन्ते ग्राम्यजीवनम्।  समाजे च राजनीतिप्रसारेण दलप्रतिब(ता, जातिवादः भूमिविवादः इत्याद्यपि संकटकारणं विशेषेण ग्रामेषु  दृश्यते।
तदर्थं मानवतावादस्य विकासः आवश्यकः। युवका जने जने समताभावं दर्शयन्तु। प्रकृतिः सर्वान्  मानवान् समानशरीरावयवैः रचयति। कुतस्तत्रा कृत्रिमो मानवकृतो वैरभावः?ग्रामे कामं न भवतु भौतिकी  समृद्ध, किन्तु पर्यावरणस्य निर्मलता तत्रौव बाहुल्येन वर्तते इति न सन्देहः। नगरजीवनस्य समृद्धग्रामे{पि  समानेया प्रशासनेन। तदैव ग्राम्यजीवनं सुखदं काम्यं च भविष्यति। नगरं प्रति पलायनं चावरुद्धं स्यात्।
अर्थ आज गाँवों में स्वर्ग की कल्पना नहीं है। इसलिए आजकल ग्राम्यजीवा प्रशसा साहित्य में नहीं गाया जाता। आज गाँवो में कभी अनावृष्टि, कभी अतिवृष्टि की
सष्ट, कभी नदियों में बाढ़ के कारण बाँध के टूटने से गाँवों में भयंकर विपत्ति आ पड़ती है। जिस राज्य मे तो ये सभी एक साथ देखे जाते हैं। इससे प्राग्यजीवन अभिशाप माने जाते है। समाज में राजनीतिक प्रसार से दलबंदी, जातिवाद, भूमि-विवाद आज गाँवों मे विशेष रूप से पाए जाते हैं। इस कारण मानवता का विकास आवश्यक है। युवक लोगों में समानता का व्यवहार करें। प्रकृति ने सारे मनुष्यों को एक समान रूप-रंग दिए हैं। वहाँ (गाँवों में मानव द्वारा विकसित कृत्रिम बैरभाव कहाँ। गाँव में भले ही भौतिक समृद्धि न हो, किन्त स्वच्छ पर्यावरण की सुविधा गाँव में ही पायी जाती है, इसमें कोई संदेह नहीं। नगरीय जीवन की समृद्धि के समान ही गाँवों में भी प्रशासन के सहयोग से विकास हो तभी ग्रामीण जीवन सुखद होगा। नगर की ओर भागने की प्रवृत्ति बंद होगी।

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