इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 9 संस्कृत के पाठ 8 नीतिपद्यानि (निति विषयक पध) (Nitipadhani Class 9th Sanskrit) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्ययन करेंगे।
अष्टमः पाठः
नीतिपद्यानि (निति विषयक पध)
पाठ-परिचय-संस्कृत वाङ्मय में भर्तृहरि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने सूक्ति साहित्य की रचना कर अपनी जान-गरिमा का परिचय दिया है। इनके प्रसिद्ध शतक काव्य है- वैराग्यशतक, शृंगारशतक तथा नीतिशतक । प्रस्तुत पाठ नोतिशतक से लिया गया। अंश है। इसमें जीवनोपयोगी शाश्वत मूल्यों, अच्छे मित्रों के कर्तव्य, सद्जनों के चरित्र, धन के उपयोग, उत्तमजनों की क्रियाशीलता, महापुरुषों की दिनचर्या आदि के बारे में बड़े रोचक ढंग से विचार व्यक्त किए गए हैं। सामान्यतः सूक्तियों में गूढभाव छिपे होते है, जो पाठक के मन-मस्तिष्क में हलचल पैदा कर देते हैं।
Nitipadhani Class 9th Sanskrit
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्ध्ं ब्रह्मापि नरं न रंजयति ।।1।।
अर्थ— अज्ञानी व्यक्ति बड़ी कठिनाई से किसी बात को स्वीकार करते है। ज्ञानी किसी भी सच्चाई को तुरंत स्वीकार कर लेते है।ह किन्तु वैसे मनुष्य जो न तो मुर्ख है और न ही ज्ञानी वैसे मनुष्य को ब्रहमा भी संतुष्ट नहीं कर सकतें हैं।
येषां न विद्या न तपो न दानं न चापि शीलं न गुणो न र्ध्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि चारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।2।।
अर्थ-मृत्युलोक में जिसे विद्या, तपस्या, दान, ज्ञान, शील, गुण तथा धर्म नहीं है वह पृथ्वी पर (पृथ्वी का) बोझ बन कर जानवरों के समान पूमता (फिरता) है।
भाव-‘नीतिशतकम् से संकलित प्रस्तुत श्लोक मे वैसे व्यक्ति के संबंध में कहा गया है जिसे विद्या, तपस्या, दान, ज्ञान, शील तथा धर्म नहीं है, वह धरती पर (पृथ्वी का) बोझ बनकर जानवरों के समान घूमता-फिरता है। अतः नीतिकार के कहने का तात्पर्य है। कि संसार में वही व्यक्ति पूज्य होता है जिसमें कोई गुण होता है। गुणहीन व्यक्ति को पशुवत् जीवन व्यतीत करना पड़ता है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति से समाज का कोई उपकार नहीं होता है।
Nitipadhani Class 9th Sanskrit
जाड्यं ध्यि हरति सि×चति वाचि सत्यं मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ।।
अर्थ-अच्छी संगति बौद्धिक जड़ता (नंदता) को हरती है, वाणी में सचाई का संचार करती है, प्रतिष्ठा एवं उन्नति प्रदान करती है। पाप को दूर कर चित्त को प्रसन्नता प्रदान करती है, सभी दिशाओं में यश फैलाती है। इस प्रकार सद्संगति मनुष्यों का क्या नहीं करती है अर्थात् सब कुछ करती है।
भाव-नीतिपद्यानि’ पाउ से उद्धृत प्रस्तुत श्लोक में सद्संगति के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। नीतिकार के अनुसार सद्संगति उस औषधि के समान होती है जो व्यक्ति के सारे दोषों को दूर कर सब प्रकार से उत्थान करती है। इससे व्यक्ति की बुद्धि का विकास होता है, चित्त प्रसन्न रहता है, वाणी में सत्य का संचार होता है, मान, उन्नति. यश तथा गौरव की प्राप्ति होती है। इस प्रकार सद्संगति व्यक्ति में ऐसा संस्कार प्रदान करती है कि व्यक्ति का जीवन धन्य हो जाता है।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना प्रारब्ध्मुत्तमजना न परित्यजन्ति ।। 4।।
अर्थ-नीच लोग बाधाओं के भय से कोई काम आरभ नहीं करते हैं, मध्यम कोटि के लोग काम शुरू तो करते है परन्तु वाभाओ के उपस्थित होने पर काम बंद कर देते है। किंतु उत्तम लोग जब काम आरंभ करते है तो बार-बार बाधाओं से पीड़ित होने के बावजूद अपना काम जारी रखते हैं अर्थात् काम करना बंद नहीं करते हैं।
Nitipadhani Class 9th Sanskrit
भाव-नीतिपद्यानि’ पाठ से उद्धृत प्रस्तुत श्लोक में नीच, मध्यम तशा उत्तम जनो. के आचरण पर प्रकाश डाला गया है। नीतिकार का कहना है कि निम्न कोटि के लोग कमजोर दिल के होते हैं, जिस कारण वे विघ्न-बाधाओं से भयभीत रहते हैं। फलत: कोई भा काम करने से पहले ही हिचक जाते हैं। मध्यम श्रेणी के मनुष्य किसी प्रकार साहस जुटाकर काम तो आरंभ कर देते है लेकिन बाधा उपस्थित होते ही काम छोड़ देते है, परन्तु उत्तमजन काम आरंभ करने के बाद हर विघ्नो का मुकाबला करते हुए अपने लक्ष्य पर पहुंच ल जात है। ऐसे लोग विघ्न-बाधाओ से नहीं डरते, बल्कि विघ्न-बाधा ही इनकी दृढ़ता देखकर भाग खड़ी होती है। उत्तमजन ही समाज को निश्चित लक्ष्य तक पहुंचाने में समर्थ होत हो।
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।। 5।।
अर्थ-यदि नीति में कुशल लोग (धीर पुरुषों की) निंदा करें अथवा वे स्तुति कर, यदि लक्ष्मी उसके पास आ जाएँ अथवा अपनी इच्छा से चली जाएँ, यदि आज हो मृत्यु हो रही हो अथवा युग के बाद हो, किंतु धीर पुरुष न्यायोनित मार्ग से एक कदम भी विचलित नहीं होते हैं।
भाव-‘नीतिपद्यानि’ पाठ से उड़त प्रस्तुत श्लोक में धीर पुरुष की विशेषता पर प्रकाश डाला गया है। नीतिकार का कहना है कि धीर पुरुष किसी भी परिस्थिति में न्याय के मार्ग से च्युत नहीं होते । वे हर स्थिति में अपने मार्ग पर आरूढ़ रहते हैं। व निदान स्तुति, धनलाभ, धनाभान, मृत्यु अथवा जीवन-राभी परिस्थितियों में न्यायोचित गार्ग का ही अवलम्बन करते हैं। तात्पर्य कि धीर पुरुष पक्के सिद्धान्त के होते हैं, वे किसी भी विपरीत परिस्थिति मे घबड़ाते नहीं। किसी भी कीमत पर वे न्याय पथ का त्याग नहीं करत बल्कि पर्वत के समान न्यायमार्ग पर आरूढ़ रहते हैं।
सिंहः शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः ।। 6।।
अर्थ-सिंह का बच्चा भी मदोन्मत्त हधी के गाल पर आक्रमण करता है। संसार में बलवानों का कारण उम्र नहीं बल्कि उसका पराक्रम होता है अर्थात् जो पराक्रमी होता है. उसके लिए उम्र का कोई महत्त्व नहीं होता।
भाव- ‘नीतिपद्यानि’ पाठ रो उद्धृत प्रस्तुत श्लोक के द्वारा नोतिकार ने यह संदेश देना चाहा है कि गुणवान् अर्थात् ज्ञानी या विद्वान व्यक्ति की उम्र को नहीं देखा जाता, बल्कि उसकी विद्या या ज्ञान को देखा जाता है। जैसे सिंह का बच्चा छोटा होने के बावजूद हाथी पर आक्रमण कर देता है । उसी प्रकार यदि बालक कम उम्र का है किन्तु उसमें परिपक्व ज्ञान है तो वही श्रेष्ठ है। क्योंकि बल. या उम्र से कोई श्रेष्ठ नहीं होता, अपितु अपने ज्ञान से श्रेष्ठता हासिल कर लेता है। संसार में वही महान् है जो बुद्धि से श्रेष्ठ होता है।
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृ(मुपैति पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्ध्परार्ध्भिन्ना छायेव मैत्रा खलसज्जनानाम् ।। 7।।
अर्थ- दुष्टों और सज्जनों को मित्रता क्रमशः दिन के पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्द्ध की छाया जैसी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। दोपहर के पहले छाया लम्बी होती है। पुनः छोटी होती जाती है, दुष्टों की मित्रता में (भी) यही स्थिति होती है। किन्तु सज्जनों के साथ मित्रता में दोपहर के बाद वाली छाया की स्थिति की होती है जो क्रमशः बढ़ती जाती है।
व्याख्या— प्रस्तुत श्लोक भर्तृहरि द्वारा रचित नीतिशतकम से अवतरित है। इसे हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘नीतिपद्यानि’ शीर्षक पाठ से संकलित किया गया है। इस नीति-पद में कवि भर्तृहरि ने दुष्टो एवं सज्जनों की मित्रता की तुलना की है।
कवि ने दुष्टो और मित्रों की तुलना दिन की छाया से की है। जिस प्रकार सुबह में । छाया लम्बी रहती है किन्तु बाद में धीरे-धीरे छोटो होती जाती है, वैसे ही दुष्ट पहले अपना प्रेम विस्तार से दिखाते हैं, वह प्रेम कुछ दिनों के बाद क्षीण होता जाता है। किन्तु सज्जनों का प्रेम दिन के उत्तरार्द्ध की छाया की तरह होता है. जो लगातार बढ़ता जाता है । अर्थात् दुष्टों का प्रेम बाद में क्षीण होते जाता है, जबकि सज्जन का प्रेम धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त होता । जाता है। अच्छे मित्र परिस्थिति के अनुसार अपने शुद्ध आचरण का परिचय देते हैं।
विपदि ध्ैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि् विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसि(मिदं हि महात्मनाम् ।।8।।
अर्थ-विपति में धैर्य, सम्पन्नता में क्षमाशीलता, सभा में कुशल सम्भाषण, युद्ध में पराकम, प्रशंसा सुनकर घमंड न होना-ये महापुरुषों (महान व्यक्तियों) के स्वाभाविक गुण है। अर्थात् महान् व्यक्ति अपने दायित्व निर्वाह पर ही ध्यान रखते हैं।
व्याख्या-भर्तृहरि रचित नीतिशतक से संकलित प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘नीतिपद्यानि’ शीर्षक पाठ से अवतरित है। इस नीति पद में नीतिकार ने महापुरुषों के लक्षण बताये हैं।
नीतिकार का कहना है कि महापुरुष हर परिस्थिति में एक-सा रहते हैं। वे न तो. विपत्ति में घबड़ाते हैं और न ही सम्पन्नता में अत्याचार करते हैं। वे पूर्णतः वाक्पटु एव पराक्रमशाली होते हैं। उन्हें अपनी यश की कामना नहीं होती, बल्कि वे सब कुछ कर्तव्य समझ कर करते हैं।
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