पधारो म्हारे देस लेखक अनुपम मिश्र | Padharo mhare desh

इस पोस्‍ट में हमलोग अनुपम मिश्र रचित कहानी ‘पधारो म्हारे देस(Padharo mhare desh)’ को पढ़ेंगे। यह कहानी समाजिक कुरितियों के बारे में है।

Padharo mhare desh

Bihar Board Class 9 Hindi Chapter 8 पधारो म्हारे देस

लेखक अनुपम मिश्र

Bihar Board Class 10th Social Science

पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘पधारो म्हारे देस’ अनुपम मिश्र द्वारा लिखितपुस्तक राजस्थान की रजत बूंदें’ से संकलित है। इसमें लेखक ने जीवन में पानी का क्या महत्त्व या आवश्यकता है, इसकी ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है। लेखक काकहना है कि पानी मनुष्य के लिए ईश्वर की सबसे बड़ी देन है। इसका उपयोग सहीढंग से होना चाहिए । पानी का दुरुपयोग करना जीवन को जोखिम में डालना है। क्योंकि आज से हजारों वर्ष पूर्व जहाँ समुद्र की लहरें उठती थीं, वहाँ मरूभमि का विस्तृत क्षेत्र विद्यमान है।

प्रकृति के इस विराट रूप को दूसरे विराट रूप में परिवर्तित होने में लाखों वर्ष लगेहोंगे, लेकिन राजस्थान के लोग यहाँ के पहले वाले रूप को भूले नहीं हैं। वह अपने मनकी गहराई में आज भी उसे हाकड़ों नाम से याद रखे हैं। राजस्थानी भाषा में समुद्र को हाकड़ो कहा जाता है। इसके अतिरिक्त समुद्र के लिए सिंधु, सरितापति, सागर, वाराधिप, आच, उअह, देधाण, वडनीर, वारहर, सफरा-भंडार आदि नामों से संबोधित करते हैं। समुद्र का एक नाम हेल है जो समुद्र की विशालता एवं उदारता का द्योतक है। इस प्रकार राजस्थानी समाज की उदारता की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए लेखक यह संदेश देना चाहता है कि विशाल मरुभूमि में रहते हुए भी जिसके कंठ में समुद्र के इतने नाम मिलते हैं तो निश्चय ही इस समाज में महानता है। जबकि इस क्षेत्र की छवि एक सूखे, उजड़े और पिछड़े क्षेत्र की है। थार मरुस्थल इसी का एक भाग है। देश के सारे राज्यों में इसका क्षेत्रफल एवं इसकी आबादी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, परन्तु वर्षा के मामले में अंतिम है। तात्पर्य कि जहाँ देश के अन्य भागों में वर्षा की औसत 100 सेंटीमीटर से 1000 सेंटीमीटर है, वहीं राजस्थान में वर्षा की औसत मात्रा 25 सेंटीमीटर से 100 सेंटीमीटर तक है । मरुभूमि में पानी कम तथा गर्मी ज्यादा होने के कारण वहाँ की जनसंख्या विरल है, परन्तु राजस्थान के मरुप्रदेश में दुनिया के अन्य ऐसे प्रदेशों की तुलना में न सिर्फ बसावट ज्यादा है बल्कि उस बसावट में जीवन की सुगंध भी है।

इसीलिए यह क्षेत्र दुनिया के अन्य मरुस्थलों की तुलना में सबसे अधिक जीवंत माना गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि राजस्थान के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी का रोना नहीं रोया, बल्कि इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और अपने ऊपर से नीचे तक कुछ इस ढंग से खड़ा किया कि पानी का स्वभाव समाज के स्वभाव में बहुत सरल ढंग से बहने लगा। इसी विशेषता के कारण जैसलमेर, बीकानेर तथा जयपुर इतने कम पानी के इलाके में होने के बाद भी देश के अन्य शहरों के मुकाबले में कम सुविधाजनक नहीं था। यही शहर लंबे समय तक सत्ता, व्यापार तथा कला का मुख्य केन्द्र था। ईरान, अफगानिस्तान से लेकर रूस आदि से होनेवाले व्यापार का प्रमुख केन्द्र यही था।

लेखक का मानना है कि राजस्थान के समाज ने अपने जीवन-दर्शन की विशिष्ट गहराई के कारण ही जीवन की, कला की तथा संस्कृति की ऊँचाई को छुआ था। इस जीवन-दर्शन में पानी का काम एक बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था । पानी के काम में यहाँ भाग्य भी है और कर्त्तव्य थी। भाग्य के संबंध में लेखक का तर्क है कि महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ द्वारका इसी रास्ते से वापस हुए थे। उनका रथ मरुदेश पार कर रहा था। जैसलमेर के निकट त्रिकंट पर्वत पर तपस्यारत उत्तंग ऋषि के तप से प्रसन्न श्रीकृष्ण ने उन्हें वर माँगने को कहा । ऋषि ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि “यदि मेरे कुछ पुण्य हैं तो भगवन् वर दें कि इस क्षेत्र में कभी जल का अकाल न रहे।’ श्रीकृष्ण ने ‘तथास्तु’ कहकर वरदान दिया था। लेकिन यहाँ के लोगों ने यह वरदान पाकर हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा, बल्कि वर्षा की बूदों को सहेज कर इस तरल रजत बूंदों को अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए एक ऐसी भव्य परंपरा बना ली, जिसकी धवलधारा इतिहास से निकल कर वर्तमान तक बहती है और वर्तमान को भी इतिहास बनाने की सामर्थ्य रखती है। यहाँ की मरुभूमि के प्राचीन इतिहास में रेगिस्तान के लिए थार शब्द भी ज्यादे नहीं दिखता । रेगिस्तान के पुराने नामों में स्थल है, जो समुद्र के सूख जाने से निकले स्थल का सूचक है। इस प्रकार स्थल का थल और महाथल बना, जिसे बोलचाल में थली और धरधूधल कहा गया। फिर माड़, मारवाड़, मेवाड़, मेरवाड़, ढूँढ़ार, गोड़वाड़, हाडौती जैसे बड़े विभाजन भी हुए। यहाँ अनेक छोटे-बड़े राजा भीहुए, परन्तु लेखक के अनुसार यहाँ के नायक श्रीकृष्ण ही है, जिन्हे मरुनायकजी की तरहपुकारा जाता है। यहाँ के लोगों ने इन जलबूंदों को टाँकों, कुंड-कुंडियों, बेरियों, जोहड़ों, नाडियों, तालाबों, बाबड़ियों तथा कुओं में उतार लिया, लेकिन इसके लिए जसढोल नहीं पीटा। इन्होंने जल-संग्रह करने की अपनी अनोखी परंपरा का विकास करके देश के अन्य भाग के लोगों को जल-संग्रह करने के लिए प्रेरित किया कि आओ, देखो, हमारी भव्यपरंपरा।

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