इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 1 राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ (Rashtra Nirman ki Chunauti 12th Class Notes in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्ययन करेंगे।
1. राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ
नए राष्ट्र की चुनौतियाँ
सन् 1947 के 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि को हिंदुस्तान आजाद हुआ। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्रि जवाहरलाल नेहरू ने इस रात संविधान सभा के एक विशेष सत्र को संबोधित किया था। उनका यह प्रसिद्ध भाषण ‘भाग्यवधू से चिर-प्रतीक्षित भेंट’ या ‘ट्रिस्ट विद् डेस्टिन’ के नाम से जाना गया।
अजाद हिंदुस्तान का जन्म कठिन परिस्थितियों में हुआ। हिंदुस्तान सन् 1947 में जिन हालात के बिच आजाद हुआ, शायद उस वक्त तक कोई भी मुल्क वैसे हालात में आजाद नहीं हुआ था। आजादी मिली लेकिन देश के बँटवारे के साथ।
आजादी के उन उथल-पुथल भरे दिनों में हमारे नेताओं का ध्यान इस बात से नहीं भटका कि यह नया राष्ट्र चुनौतियों की चपेट में है।
तीन चुनौतियाँ
मुख्य तौर पर भारत के सामने तीन तरह की चुनौतियाँ थीं।
पहली और तात्कालिन चुनौती एकता के सुत्र में बँधे एक ऐसे भारत को गढ़ने की थी जिसमें भारतीय समाज की सारी विविधताओं के लिए जगह हो।
यहाँ अलग-अलग बोली बोलने वाले लोग थे, उनकी संस्कृति अलग थी और वे अलग-अलग धर्मो के अनुयायी थे। उस वक्त आमतौर पर यही माना जा रहा था कि इतनी विविधताओं से भरा कोई देश ज्यादा दिनों तक एक जुट नहीं रह सकता।
दूसरी चुनौती लोकतंत्र को कायम करने की थी। भारत ने संसदीय शासन पर आधारित प्रतिनिधित्वमूलक लोकतंत्र को अपनाया।
लोकतंत्र को कायम करने के लिए लोकतांत्रिक संविधान जरूरी होता है।
तीसरी चुनौती थी ऐसे विकास की जिसमें समूचे समाज का भला होता हो न कि कुछ एक तबकों का।
आजादी के तुरंत बाद राष्ट्र-निर्माण की चुनौती सबसे प्रमुख थी।
विभाजनः विस्थापन और पुनर्वास
14-15 अगस्त 1947 को एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र-भारत और पाकिस्तान-अस्तित्व में आए ऐसा विभाजन के कारण हुआ। ब्रिटिश इण्डिया को भारत और पाकिस्तान के रूप में बाँटा।
मुस्लिम लीग में द्वि-राष्ट्र सि़द्धांत कि बात की थी। इस सि़द्धांत के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि हिन्दु और मुसलमान नाम की दो कौमो का देश था और इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश यानी पाकिस्तान के मांग की कांग्रेस ने द्वी-राष्ट्र सिद्धांत तथा पाकिस्तान की मांग का विरोध किया।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बिच राजनीतिक प्रतिसप्रर्धा तथा ब्रिटिश शासन की भुमिका जैसी कई बातो का जोड़ रहा। नतीजतन पाकिस्तान के मांग मान ली गई।
विभाजन की प्रक्रिया
फैसला हुआ की अबतक जिस भू-भाग को इण्डिया के नाम से जाना जाता था उसे भारत और पाकिस्तान नाम के दो देशो के बिच बाँट दिया जाएगा।
धार्मिक बहु संख्या को विभाजन का आधार बनाया जाएगा। जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे वे इलाके पाकिस्तान के भू-भाग होंगे। और शेष हिस्से भारत कहलाएँगे।
ब्रिटिश इण्डिया में कोई एक भी इलाका ऐसा नहीं था जाहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हो। ऐसे दो इलाके थे जहाँ मुसलमान की आबादी ज्यादा थी। एक इलाका पश्चिम में था तो दुसरा इलाका पूर्व में।
इसे देखते हुए फैसला हुआ की पाकिस्तान में दो इलाके शामिल होंगे। यानी पश्चिम पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान तथा इनके बीच में भारतीया भू-भाग का एक बड़ा विस्तार रहेगा। मुस्लिम बहुल हर इलाका पाकिस्तान में जाने को राजी हो। ऐसा भी नहीं था। खान अब्दुल गफार खान पश्चिमोत्तर सिमाप्रांत के निर्विवाद नेता थे। उनकी प्रसिद्धी सिमांत गाँधी के रूप में थी और वे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के एकदम खिलाफ थे। संयोग से उनकी आवाज की अंदेखी की गई और ‘पश्चिमोत्तर सिमाप्रांत’ को पाकिस्तान में शामिल मान लिया गया।
‘ब्रिटिश इण्डिया’ के मुस्लिम-बहुल प्रांत पंजाब और बंगाल में अनेक हिस्से बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। ऐसे में फैसला हुआ की इन दोनो प्रांतो में भी बँटवारा धार्मिक बहुसंख्यको के आधार पर होगा और इसमें जिले अथवा उससे निचले स्तर के प्रशासनिक हल्के को आधार माना जाएगा। 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्री तक यह फैसला नहीं हो पाया था इसका मतलब यह हुआ की आजादी के दीन तक अनेक लोगों को यह पता नहीं था कि वे भारत में है या पाकिस्तान में। पंजाब और बंगाल का बँटवारा विभाजन के सबसे बड़ी त्रासदी साबित हुआ।
सीमा के दोनों तरफ अल्प संख्यक थे। जो इलाके अब पाकिस्तान में है वहाँ लाखों की संख्या में हिन्दु और सिख आबादी थी। ठीक इसी तरह पंजाब और बंगाल के भारतीय भू-भाग में भी लाखो की संख्या में मुस्लिम आबादी थी।
जैसे हीं यह बात साफ हुई की देश का बँटवारा होने वाला है वैसे हीं दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे।
शुरू-शुरू में लोग-बाग और नेता यही मान कर चल रहे थे की हिंसा की घटनाएँ अस्थाई हैं। और जल्दी हीं इनको काबु में कर लिया जाएगा लेकिन बड़ी जल्दी हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई दोनों तरफ के अल्प संख्यकों के पास एक मात्र रास्ता यहीं बचा था की वे अपने-अपने घरों को छोड़ दें।
विभाजन की परिणाम
सन् 1947 में बड़े पैमाने पर एक जगह की आबादी दूसरी जगह जाने को मजबुर हुई थी। आबादी का यह स्थानांतरण आकस्मिक अनियोजित और त्रासदी से भरा था। मानव-इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानांतरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय के लोगों ने दुसरे समुदाय के लोगों को बेरहमी से मारा लाहौर अमृतसर और कलकत्ता जैसे शहर संप्रदायिक अखाड़े में तबदिल हो गए।
लोग अपना घर-बार छोड़ने के लिए मजबुर हुए। वे सीमा के एक तरफ से दुसरे तरफ गए।
दोनों हीं तरफ के अल्पसंख्यक अपने घरो में भाग खड़े हुए और अक्सर अस्थायी तौर पर उन्हें सरणार्थी सिविरो में पनाह लेनी पड़ी।
लोगों को सिमा के दुसरे तरफ जाना पड़ा। अक्सर लोगों ने पैदल चलकर यह दूरी तय की सिमा के दोनों ओर हजारों की तादाद में औरतों को अगवा कर लिया गया। उन्हें जबरन शादी करनी पड़ी और अगवा करने वाले का धर्म भी अपनाना पड़ा। कई मामलों में यह भी हुआ की खुद परिवार के लोगों ने अपने कुल की इज्जत बचाने के नाम पर घर की बहु-बेटियों को मार डाला। बहुत से बच्चे अपने माँ-बाप से बिछड़ गए।
भारत और पाकिस्तान के लेखक-कवि तथा फिल्म- निर्माताओं ने अपने उपन्यास, लघु कथा कविता और फिल्मों में इस मार-काट की नृशंसता का जिक्र किया। विस्थापन और हिंसा से पैदा दुःखों को अभी व्यक्ति दी।
इन सबों के लिए बँटवारे का मतलब ‘था दिल के दो टुकड़े हो जाना’।
वित्तीय संपदा के साथ-साथ टेबुल, कुर्सी टाइपराइटर और पुलिस के वाद्ययंत्रों तक का बँटवारा हुआ था। सरकारी और रेलवे के कर्मचारियों का भी बँटवारा हुआ।
अनुमान किया जाता है कि विभाजन के कारण 80 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़कर सिमा-पार जाना पड़ा। विभाजन की हिंसा में तकरिबन 5-10 लाख लोगों ने अपनी जान गँवाई।
विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी पाकिस्तान चली गई। इसके बावजूद 1951 के वक्त भारत के कुल आबादी में 12 फिसदी मुसलमान थे।
भारत की कौमी सरकार के अधिकतर नेता सभी नागरिकों को समान दर्जा देने के हामी थे। चाहे नागरिक किसी धर्म का हो वे भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में नहीं देखना चाहते थे जहाँ किसी एक धर्म के अनुयायियों को दुसरे धर्मावालंबियों के ऊपर वरीयता दी जाए
वे मानते थे कि नागरिक चाहे जिस धर्म को माने, उसका दर्जा बाकी नागरिकों के बराबर ही होना चाहिए।
महात्मा गाँधी की शहादत
महात्मा गाँधी ने 15 अगस्त,1947 के दिन आजादी के किसी भी जश्न में भाग नहीं लिया। वे कोलकात्ता के उन इलाकों में डेरा डाले हुए थे जहाँ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भयंकर दंगे हुए थे। सांप्रदायिक हिंसा से उनके मन पर गहरा चोट लगी थी। यह देखकर उनका दिल टूट चुका था कि ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ के जिन सिद्धांतों के लिए वे आजीवन समर्पित भाव से काम करत रहे वे ही सिद्धांत इस कठिन घड़ी में लोगों को एकसूत्र में पिरो सकने में नाकामयाब हो गए थे। गाँधीजी ने हिंदुओं और मुसलमानों से जोर देकर कहा कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। कोलकत्ता में गाँधी की माजूदगी से हालात बड़ी हद तक सुधर चले थे और आजादी का जश्न लोगों ने सांप्रदायिक सद्भाव के जज्बे से मनाया। लोग सड़कों पर पूरे हर्षोल्लास के साथ नाच रहे थे। गाँधी की प्रार्थना-सभा में बड़ी संख्या में लोग जुटते थे। बहरहाल, यह स्थिति ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रही। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगे एक बार फिर से भड़क उठे और गाँधीजी अमन कायम करने के लिए ‘उपवास’ पर बैठ गए।
अगले महीने गाँधीजी दिल्ली पहुँचे। दिल्ली में भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। गाँधीजी दिल से चाहते थे कि मुसलमानों को भारत में गरिमापूर्ण जीवन मिले और उन्हें बराबर का नागरिक माना जाए। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए वे बड़े चिंतित थे। भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों को लेकर भी उनके मन में गहरी चिंताएँ थीं। उन्हें लग रहा था कि भारत की सरकार पाकिस्तान के प्रति अपनी वित्तीय वचनबद्धताओं को पूरा नहीं कर रही है। इन सारी बातों को सोचकर उन्होंने 1948 की जनवरी में एक बार फिर ‘ उपवास’ रखना शुरू किया। यह उनका अंतिम ‘उपवास’ साबित हुआ। कोलकात्ता की ही तरह दिल्ली में भी उनके ‘उपवास’ का जादुई असर हुआ। सांप्रदायिक तनाव और हिंसा में कमी हुई। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाके के मुसलमान सुरक्षित अपने घरों में लौटे। भारत की सरकार पाकिस्तान को उसका देय चुकाने पर राजी हो गई।
बहरहाल, गाँधीजी के कामों से हर कोई खुश हो, ऐसी बात नहीं थी। हिंदु और मुसलमान दोनों ही समुदायों के अतिवादी अपनी स्थिति के लिए गाँधीजी पर दोष मुढ़ रहे थे। जो लोग चाहते थे कि हिंदु बदला लें अथवा भारत भी उसी तरह सिर्फ हिंदुओं का राष्ट्र बने जैसे पाकिस्तान मुसलमानों का राष्ट्र बना था-वे गाँधीजी को खासतौर पर नापसंद करते थे। उन लोगों ने आरोप लगाया कि गाँधीजी मुसलमानों और पाकिस्तान के हित में काम कर रहे हैं। गाँधीजी मानते थे कि ये लोग गुमराह हैं। उन्हें उस बात का पक्का विश्वास था कि भारत को सिर्फ हिंदुओं का देश बनाने की कोशिश की गई तो भारत बर्बाद हो जाएगा। हिंदु-मुस्लिम एकता के उनके अडिग प्रयासों से अतिवादी हिंदु इतने नाराज थे कि उन्होंने कई दफे गाँधीजी को जान से मारने की कोशिश की। इसके बावजूद गाँधीजी ने सशस्त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना-सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा। आखिरकार, 30 जनवरी 1948 के दिन ऐसा ही एक हिंदु अतिवादी नाथूराम विनायक गोडसे, गाँधीजी की संध्याकालीन प्रार्थना के समय उनकी तरफ चलता हुआ नजदीक पहुँच गया। उसने गाँधीजी पर तीन गोलियाँ चलाईं और गाँधीजी को तत्क्षण मार दिया। उस तरह न्याय और सहिष्णुता को आजीवन समर्पित एक आत्मा का देहावसान हुआ।
गाँधीजी की मौत का देश के सांप्रायिक माहौल पर मानो जादुई असर हुआ। विभाजन से जुड़ा क्रोध और हिंसा अचानक ही मंद जड़ गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को कुछ दिनों तक प्रतिबंधित कर दिया गया। सांप्रदायिक राजनीति का जोर लोगों में घटने लगा।
रजवाड़ों का विलय
ब्रिटिश इंडिया दो हिस्सों में था। एक हिस्से में ब्रिटिश प्रभुत्व वाले भारतीय प्रांत थे तो दूसरे हिस्से में देसी रजवाड़े। ब्रिटिश प्रभुत्व वाले भारतीय प्रांतो पर अंग्रजी सरकार का सीधा नियंत्रण था। दूसरी तरफ छोटे-बड़े आकार के कुछ और राज्य थे। इन्हें रजवाड़ा कहा जाता था। रजवाड़ों पर राजाओं का शासन था। राजाओं ने ब्रिटिश-राज की अधीनता या कहें कि सर्वोच्य सत्ता स्वीकार कर रखी थी और उसके अंतर्गत वे अपने राज्य के घरेलू मामलों का शासन चलाते थे।
समस्या
आजादी के तुरंत पहले अंग्रजी-शासन ने घोषणा की कि भारत पर ब्रिटिश-प्रभुत्व के साथ ही रजवाड़े भी ब्रिटिश-अधीनता आजाद हो जाएँगे। इसका मतलब यह था कि सभी रजवाड़े (रावाड़ों की संख्या 565 थी) ब्रिटिश-राज की समाप्ति के साथ ही कानूनी तौर पर आजाद हो जाएँगे। अंग्रेजी-राज का नजरिया यह था कि रजवाड़े अपनी मर्जी से चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाएँ या फिर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाएँ रखें। यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया था।
सबसे पहले त्रावणकोर के राजा ने अपने राज्य को आजाद रखने की घोषण की। अगले दिन हैदराबाद के निजाम ने ऐसी ही घोषणा की। कुछ शासक मसलन भोपाल के नवाब संविधान-सभा में शामिल नहीं होना चाहते थे। राजवाड़ों के शासकों के रवैये से यह बात साफ हो गई कि आजादी के बाद हिंदुस्तान कई छोटे-छोटे देशों की शक्ल में बँट जाने वाला है।
सरकार का नजरिया
छोटे-छोटे विभिन्न आकार के देशों में बँट जाने की इस संभावना के विरूद्ध अंतरिम सरकार ने कड़ा रूख अपनाया। मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्ट्रीय क्रांग्रेस के इस कदम का विरोध किया। लीग का मानना था कि रजवाड़ों को अपनी मनमर्जी का रास्ता चुनने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। रजवाड़ों के शासकों को मनाने-समझाने में सरदार पटेल ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई और अधिकतर रजवाड़ों को उन्होंने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए राजी कर लिया।
शांतिपूर्ण बातचीत के जरिए लगभग सभी रजवाड़े जिनकी सीमाएँ आजाद हिंदुस्तान की नयी सीमाओं से मिलती थीं, 15 अगस्त 1947 से पहले ही भारतीय संघ में शामिल हो गए। अधिकतर रजवाड़ों के शासकों ने भारतीय संघ में अपने विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इस सहमति-पत्र को ‘इंस्टूमेंट ऑफ एक्सेशन’ कहा जाता है। इस पर हस्ताक्षर का अर्थ था कि रजवाड़े भारतीय संघ का अंग बनने के लिए सहमत हैं। जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय बाकियों की तुलना में थोड़ा कठिन साबित हुआ।
हैदराबाद
हैदराबाद की रियासत बहुत बड़ी थी। यह रियासत चारों तरफ से हिंदुस्तानी इलाके से घिरी थी। हैदराबाद के शासक को ‘निजाम’ कहा जाता था और वह दुनिया के सबसे दौलतमंद लोगों में शुमार किया जाता था। निजाम चाहता था कि हैदराबाद की रियासत को आजाद रियासत का दर्जा दिया जाए। निजाम ने सन् 1947 के नवबर में भारत के साथ यथास्थिति बहाल रखने का एक समझौता किया। यह समझौता एक साल के लिए था। इसी दौरान हैदराबाद की रियासत के लोगों के बीच निजाम के शासन के खिलाफ एक आंदोलन ने जोर पकड़ा तेलांगाना इलाके के किसान निजाम के दमनकारी शासन से खासतौर पर दुखी थे। वे निजाम के खिलाफ उठ खड़े हुए। महिलाएँ भी बड़ी संख्या में इस आंदोलन से आ जुड़ी। हैदराबाद शहर इस आंदोनल का गढ़ बन गया। आंदोलन को देख निजाम ने लोगों के खिलाफ एक अर्द्ध-सैनिक बल रवाना किया। इसे रजाकारों कहा जाता था। रजाकार अव्वल दर्जे के सांप्रदायिक और अत्याचारी थे। रजाकारों ने गैर-मुसलमानों को खासतौर पर अपना निशाना बनाया। रजाकारों ने लूटपाट मचायी और हत्या तथा बलात्कार पर उतारू हो गए। 1948 के सितम्बर में भारतीय सेना, निजाम के सैनिकों पर काबू पाने के लिए हैदराबाद आ पहुँची। कुछ रोज तक रूक-रूक कर लड़ाई चली और इसके बाद निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। निजाम के आत्मसमर्पण के साथ ही हैदराबाद का भारत में विलय हो गया।
Rashtra Nirman ki Chunauti 12th Class Notes Political Science
मणिपुर
आजादी के चंद रोज पहले मणिपुर के महाराजा बाधचंद्र सिंह ने भारत सरकार के साथ भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसकी एवज में उन्हें यह आश्वासन दिया गया था कि मणिपुर की आंतरिक स्वायत्तता बरकरार रहेगी।
मणिपुर की विधानसभा में भारत में विलय के सवाल पर गहरे मतभेद थे। मणिपुर की क्रांग्रेस चाहती थी कि रियासत को भारत में मिला दिया जाए जबकि दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ इसके खिलाफ थीं। मणिपुर की निर्वाचित विधानसभा से परामर्श किए बगैर भारत सरकार ने महाराजा पर दबाव डाला कि वे भारतीय संघमें शामिल होने के समझौते पर हस्ताक्षर कर दें। भारत सरकार को इसमें सफलता मिली। मणिपुर में इस कदम को लेकर लोगों में क्रोध और नाराजगी के भाव पैदा हुए। इसका असर आज तक देखा जा सकता है।
राज्यों का पुनर्गठन
बँटवारे और देसी रियासतों के विलय के साथ ही राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का अंत नहीं हुआ। भारतीय प्रांतों की आंतरिक सीमाओं तय करने की चुनौती अभी सामने थी। औपनिवेशिक शासन के समय प्रांतों की सीमाएँ प्रशासनिक सुविधा के लिहाज से तय की गई थीं या ब्रिटिश सरकार ने जितने क्षेत्र को जीत लिया हो उतना क्षेत्र एक अलग प्रांत मान लिया जाता था। प्रांतों की सीमा इस बात से भी तय होती थी कि किसी रजवाड़े के अंतर्गत कितना इलाका शामिल है। हमारी राष्ट्रीय सरकार ने ऐसी सीमाएँ को बनावटी मानकर खारिज कर दिया। उसने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का वायदा किया।
आजादी और बँटवारे के बाद स्थितियाँ बदलीं। हमारे नेताओं को चिंता हुई कि अगर भाषा के आधार पर प्रांत बनाए गए तो इससे अव्यवस्था फैल सकती है तथा देश के टूटने का खतरा पैदा हो सकता है।
केंद्रीय नेतृत्व के इस फैसले को स्थानिय नेताओं और लोगों ने चुनौती दी। पुराने मद्रास प्रांत के तेलगु-भाषी क्षेत्रों में विरोध भड़क उठा। पुराने मद्रास प्रांत में आज के तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश शामिल थे। आंध्र आंदोलन (आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्य बनाने के लिए चलया गया आंदोलन) ने माँग की कि मद्रास प्रांत के तेलुगुभाषी इलाकों को अलग करके एक नया राज्य आंध्र प्रदेश बनया जाए।
क्रांस के नेता और दिग्ज गाँधीवादी, पोट्टी श्रीरामुलु, अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल पर बैठ गए। 56 दिनों की भूख हड़ताल के बाद उनकी मृत्यु हो गई। इससे बड़ी अव्यवस्था फैली और आंध्र प्रदेश में जगह-जगह हिंसक घटनाएँ हुईं। लोग बड़ी संख्या में सड़कों पर निकल आए। पुलिस फायरिंग में अनेक लोग घायल हुए या मारे गए। आखिरकार 1952 के दिसंबर में प्रधानमंत्री ने आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्य बनाने की घोषणा की। आंध्र के गठन के साथ ही देश के दूसरे हिस्सों में भी भाषाई आधार पर राज्यों को गठित करने का संघर्ष चल पड़ा। इन संघर्षों से बाध्य होकर केंद्र सरकार ने 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया। इसने अपनी रिपोर्ट में स्वीकर किया कि राज्यों की सीमाओं का निर्धारण वहाँ बोली जाने वाली भाषा के आधार पर होना चाहिए। इस आयोग की रिपार्ट के आधार पर 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ। इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केंद्र-शासित प्रदेश बनाए गए।
‘पोट्टी श्रीरामुलु’ (1901-1952) गाँधीवादी कार्यकर्ता; नमक सत्याग्रह में भाग लेने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ी; वैयक्तिक सत्याग्रह में भागीदारी; 1946 में इस माँग को लेकर उपवास पर बैठे कि मद्रास प्रांत के मंदिर दलितों के लिए खोल दिए जाएँ; आंध्र नाम से अलग राज्य बनाने की माँग को लेकर 19 अक्टूबर 1952 से आरण अनशन; 15 दिसम्बर 1952 को अनशन के दौरान मृत्यु।
नए राज्यों का निर्माण
भाषावार राज्यों को पुनर्गठिन करने के सिद्धांत को मान लेने का अर्थ यह नहीं था कि सभी राज्य तत्काल भाषाई राज्य में तब्दील हो गए। एक प्रयोग द्विभाषी राज्य बंबई के रूप में किया गया जिसमें गुजराती और मराठी भाषी बोलने वाले लोग थे। एक जन-आंदोलन के बाद सन् 1960 में महाराष्ट्र में गुजरात राज्य बनाए गए।
1960 में पंजाबी-भाषी इलाके को पंजाब राज्य का दर्जा दिया गया और वृहत्तर पंजाब से अलग करके हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नाम के राज्य बनाए गए। असम से अलग करके 1972 में मेघालय बनाया गया। इसी साल मणिपुर और त्रिपुरा भी अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए। मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश 1987 में वजूद में आए जबकि नगालैंड इससे कहीं पहले यानी 1963 में ही राज्य बन गया था।
छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड, और झारखंड-सन् 2000 में बने। देश के अनेक इलाकों में छोटे-छोटे अलग राज्य बनाने की माँग को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। महाराष्ट्र में विदर्भ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में राज्य बनाने के ऐसे आंदोलन चल रहे हैं।
नए राष्ट्र की चुनौतियाँ
सन् 1947 के 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि को हिंदुस्तान आजाद हुआ। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्रि जवाहरलाल नेहरू ने इस रात संविधान सभा के एक विशेष सत्र को संबोधित किया था। उनका यह प्रसिद्ध भाषण ‘भाग्यवधू से चिर-प्रतीक्षित भेंट’ या ‘ट्रिस्ट विद् डेस्टिन’ के नाम से जाना गया।
अजाद हिंदुस्तान का जन्म कठिन परिस्थितियों में हुआ। हिंदुस्तान सन् 1947 में जिन हालात के बिच आजाद हुआ, शायद उस वक्त तक कोई भी मुल्क वैसे हालात में आजाद नहीं हुआ था। आजादी मिली लेकिन देश के बँटवारे के साथ।
आजादी के उन उथल-पुथल भरे दिनों में हमारे नेताओं का ध्यान इस बात से नहीं भटका कि यह नया राष्ट्र चुनौतियों की चपेट में है।
तीन चुनौतियाँ
मुख्य तौर पर भारत के सामने तीन तरह की चुनौतियाँ थीं।
पहली और तात्कालिन चुनौती एकता के सुत्र में बँधे एक ऐसे भारत को गढ़ने की थी जिसमें भारतीय समाज की सारी विविधताओं के लिए जगह हो।
यहाँ अलग-अलग बोली बोलने वाले लोग थे, उनकी संस्कृति अलग थी और वे अलग-अलग धर्मो के अनुयायी थे। उस वक्त आमतौर पर यही माना जा रहा था कि इतनी विविधताओं से भरा कोई देश ज्यादा दिनों तक एक जुट नहीं रह सकता।
दूसरी चुनौती लोकतंत्र को कायम करने की थी। भारत ने संसदीय शासन पर आधारित प्रतिनिधित्वमूलक लोकतंत्र को अपनाया।
लोकतंत्र को कायम करने के लिए लोकतांत्रिक संविधान जरूरी होता है।
तीसरी चुनौती थी ऐसे विकास की जिसमें समूचे समाज का भला होता हो न कि कुछ एक तबकों का।
आजादी के तुरंत बाद राष्ट्र-निर्माण की चुनौती सबसे प्रमुख थी।
विभाजनः विस्थापन और पुनर्वास
14-15 अगस्त 1947 को एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र-भारत और पाकिस्तान-अस्तित्व में आए ऐसा विभाजन के कारण हुआ। ब्रिटिश इण्डिया को भारत और पाकिस्तान के रूप में बाँटा।
मुस्लिम लीग में द्वि-राष्ट्र सि़द्धांत कि बात की थी। इस सि़द्धांत के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि हिन्दु और मुसलमान नाम की दो कौमो का देश था और इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश यानी पाकिस्तान के मांग की कांग्रेस ने द्वी-राष्ट्र सिद्धांत तथा पाकिस्तान की मांग का विरोध किया।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बिच राजनीतिक प्रतिसप्रर्धा तथा ब्रिटिश शासन की भुमिका जैसी कई बातो का जोड़ रहा। नतीजतन पाकिस्तान के मांग मान ली गई।
विभाजन की प्रक्रिया
फैसला हुआ की अबतक जिस भू-भाग को इण्डिया के नाम से जाना जाता था उसे भारत और पाकिस्तान नाम के दो देशो के बिच बाँट दिया जाएगा।
धार्मिक बहु संख्या को विभाजन का आधार बनाया जाएगा। जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे वे इलाके पाकिस्तान के भू-भाग होंगे। और शेष हिस्से भारत कहलाएँगे।
ब्रिटिश इण्डिया में कोई एक भी इलाका ऐसा नहीं था जाहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हो। ऐसे दो इलाके थे जहाँ मुसलमान की आबादी ज्यादा थी। एक इलाका पश्चिम में था तो दुसरा इलाका पूर्व में।
इसे देखते हुए फैसला हुआ की पाकिस्तान में दो इलाके शामिल होंगे। यानी पश्चिम पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान तथा इनके बीच में भारतीया भू-भाग का एक बड़ा विस्तार रहेगा। मुस्लिम बहुल हर इलाका पाकिस्तान में जाने को राजी हो। ऐसा भी नहीं था। खान अब्दुल गफार खान पश्चिमोत्तर सिमाप्रांत के निर्विवाद नेता थे। उनकी प्रसिद्धी सिमांत गाँधी के रूप में थी और वे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के एकदम खिलाफ थे। संयोग से उनकी आवाज की अंदेखी की गई और ‘पश्चिमोत्तर सिमाप्रांत’ को पाकिस्तान में शामिल मान लिया गया।
‘ब्रिटिश इण्डिया’ के मुस्लिम-बहुल प्रांत पंजाब और बंगाल में अनेक हिस्से बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। ऐसे में फैसला हुआ की इन दोनो प्रांतो में भी बँटवारा धार्मिक बहुसंख्यको के आधार पर होगा और इसमें जिले अथवा उससे निचले स्तर के प्रशासनिक हल्के को आधार माना जाएगा। 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्री तक यह फैसला नहीं हो पाया था इसका मतलब यह हुआ की आजादी के दीन तक अनेक लोगों को यह पता नहीं था कि वे भारत में है या पाकिस्तान में। पंजाब और बंगाल का बँटवारा विभाजन के सबसे बड़ी त्रासदी साबित हुआ।
सीमा के दोनों तरफ अल्प संख्यक थे। जो इलाके अब पाकिस्तान में है वहाँ लाखों की संख्या में हिन्दु और सिख आबादी थी। ठीक इसी तरह पंजाब और बंगाल के भारतीय भू-भाग में भी लाखो की संख्या में मुस्लिम आबादी थी।
जैसे हीं यह बात साफ हुई की देश का बँटवारा होने वाला है वैसे हीं दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे।
शुरू-शुरू में लोग-बाग और नेता यही मान कर चल रहे थे की हिंसा की घटनाएँ अस्थाई हैं। और जल्दी हीं इनको काबु में कर लिया जाएगा लेकिन बड़ी जल्दी हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई दोनों तरफ के अल्प संख्यकों के पास एक मात्र रास्ता यहीं बचा था की वे अपने-अपने घरों को छोड़ दें।
विभाजन की परिणाम
सन् 1947 में बड़े पैमाने पर एक जगह की आबादी दूसरी जगह जाने को मजबुर हुई थी। आबादी का यह स्थानांतरण आकस्मिक अनियोजित और त्रासदी से भरा था। मानव-इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानांतरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय के लोगों ने दुसरे समुदाय के लोगों को बेरहमी से मारा लाहौर अमृतसर और कलकत्ता जैसे शहर संप्रदायिक अखाड़े में तबदिल हो गए।
लोग अपना घर-बार छोड़ने के लिए मजबुर हुए। वे सीमा के एक तरफ से दुसरे तरफ गए।
दोनों हीं तरफ के अल्पसंख्यक अपने घरो में भाग खड़े हुए और अक्सर अस्थायी तौर पर उन्हें सरणार्थी सिविरो में पनाह लेनी पड़ी।
लोगों को सिमा के दुसरे तरफ जाना पड़ा। अक्सर लोगों ने पैदल चलकर यह दूरी तय की सिमा के दोनों ओर हजारों की तादाद में औरतों को अगवा कर लिया गया। उन्हें जबरन शादी करनी पड़ी और अगवा करने वाले का धर्म भी अपनाना पड़ा। कई मामलों में यह भी हुआ की खुद परिवार के लोगों ने अपने कुल की इज्जत बचाने के नाम पर घर की बहु-बेटियों को मार डाला। बहुत से बच्चे अपने माँ-बाप से बिछड़ गए।
भारत और पाकिस्तान के लेखक-कवि तथा फिल्म- निर्माताओं ने अपने उपन्यास, लघु कथा कविता और फिल्मों में इस मार-काट की नृशंसता का जिक्र किया। विस्थापन और हिंसा से पैदा दुःखों को अभी व्यक्ति दी।
इन सबों के लिए बँटवारे का मतलब ‘था दिल के दो टुकड़े हो जाना’।
वित्तीय संपदा के साथ-साथ टेबुल, कुर्सी टाइपराइटर और पुलिस के वाद्ययंत्रों तक का बँटवारा हुआ था। सरकारी और रेलवे के कर्मचारियों का भी बँटवारा हुआ।
अनुमान किया जाता है कि विभाजन के कारण 80 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़कर सिमा-पार जाना पड़ा। विभाजन की हिंसा में तकरिबन 5-10 लाख लोगों ने अपनी जान गँवाई।
विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी पाकिस्तान चली गई। इसके बावजूद 1951 के वक्त भारत के कुल आबादी में 12 फिसदी मुसलमान थे।
भारत की कौमी सरकार के अधिकतर नेता सभी नागरिकों को समान दर्जा देने के हामी थे। चाहे नागरिक किसी धर्म का हो वे भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में नहीं देखना चाहते थे जहाँ किसी एक धर्म के अनुयायियों को दुसरे धर्मावालंबियों के ऊपर वरीयता दी जाए
वे मानते थे कि नागरिक चाहे जिस धर्म को माने, उसका दर्जा बाकी नागरिकों के बराबर ही होना चाहिए।
Rashtra Nirman ki Chunauti 12th Class Notes
महात्मा गाँधी की शहादत
महात्मा गाँधी ने 15 अगस्त,1947 के दिन आजादी के किसी भी जश्न में भाग नहीं लिया। वे कोलकात्ता के उन इलाकों में डेरा डाले हुए थे जहाँ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भयंकर दंगे हुए थे। सांप्रदायिक हिंसा से उनके मन पर गहरा चोट लगी थी। यह देखकर उनका दिल टूट चुका था कि ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ के जिन सिद्धांतों के लिए वे आजीवन समर्पित भाव से काम करत रहे वे ही सिद्धांत इस कठिन घड़ी में लोगों को एकसूत्र में पिरो सकने में नाकामयाब हो गए थे। गाँधीजी ने हिंदुओं और मुसलमानों से जोर देकर कहा कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। कोलकत्ता में गाँधी की माजूदगी से हालात बड़ी हद तक सुधर चले थे और आजादी का जश्न लोगों ने सांप्रदायिक सद्भाव के जज्बे से मनाया। लोग सड़कों पर पूरे हर्षोल्लास के साथ नाच रहे थे। गाँधी की प्रार्थना-सभा में बड़ी संख्या में लोग जुटते थे। बहरहाल, यह स्थिति ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रही। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगे एक बार फिर से भड़क उठे और गाँधीजी अमन कायम करने के लिए ‘उपवास’ पर बैठ गए।
अगले महीने गाँधीजी दिल्ली पहुँचे। दिल्ली में भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। गाँधीजी दिल से चाहते थे कि मुसलमानों को भारत में गरिमापूर्ण जीवन मिले और उन्हें बराबर का नागरिक माना जाए। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए वे बड़े चिंतित थे। भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों को लेकर भी उनके मन में गहरी चिंताएँ थीं। उन्हें लग रहा था कि भारत की सरकार पाकिस्तान के प्रति अपनी वित्तीय वचनबद्धताओं को पूरा नहीं कर रही है। इन सारी बातों को सोचकर उन्होंने 1948 की जनवरी में एक बार फिर ‘ उपवास’ रखना शुरू किया। यह उनका अंतिम ‘उपवास’ साबित हुआ। कोलकात्ता की ही तरह दिल्ली में भी उनके ‘उपवास’ का जादुई असर हुआ। सांप्रदायिक तनाव और हिंसा में कमी हुई। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाके के मुसलमान सुरक्षित अपने घरों में लौटे। भारत की सरकार पाकिस्तान को उसका देय चुकाने पर राजी हो गई।
बहरहाल, गाँधीजी के कामों से हर कोई खुश हो, ऐसी बात नहीं थी। हिंदु और मुसलमान दोनों ही समुदायों के अतिवादी अपनी स्थिति के लिए गाँधीजी पर दोष मुढ़ रहे थे। जो लोग चाहते थे कि हिंदु बदला लें अथवा भारत भी उसी तरह सिर्फ हिंदुओं का राष्ट्र बने जैसे पाकिस्तान मुसलमानों का राष्ट्र बना था-वे गाँधीजी को खासतौर पर नापसंद करते थे। उन लोगों ने आरोप लगाया कि गाँधीजी मुसलमानों और पाकिस्तान के हित में काम कर रहे हैं। गाँधीजी मानते थे कि ये लोग गुमराह हैं। उन्हें उस बात का पक्का विश्वास था कि भारत को सिर्फ हिंदुओं का देश बनाने की कोशिश की गई तो भारत बर्बाद हो जाएगा। हिंदु-मुस्लिम एकता के उनके अडिग प्रयासों से अतिवादी हिंदु इतने नाराज थे कि उन्होंने कई दफे गाँधीजी को जान से मारने की कोशिश की। इसके बावजूद गाँधीजी ने सशस्त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना-सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा। आखिरकार, 30 जनवरी 1948 के दिन ऐसा ही एक हिंदु अतिवादी नाथूराम विनायक गोडसे, गाँधीजी की संध्याकालीन प्रार्थना के समय उनकी तरफ चलता हुआ नजदीक पहुँच गया। उसने गाँधीजी पर तीन गोलियाँ चलाईं और गाँधीजी को तत्क्षण मार दिया। उस तरह न्याय और सहिष्णुता को आजीवन समर्पित एक आत्मा का देहावसान हुआ।
गाँधीजी की मौत का देश के सांप्रायिक माहौल पर मानो जादुई असर हुआ। विभाजन से जुड़ा क्रोध और हिंसा अचानक ही मंद जड़ गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को कुछ दिनों तक प्रतिबंधित कर दिया गया। सांप्रदायिक राजनीति का जोर लोगों में घटने लगा।
रजवाड़ों का विलय
ब्रिटिश इंडिया दो हिस्सों में था। एक हिस्से में ब्रिटिश प्रभुत्व वाले भारतीय प्रांत थे तो दूसरे हिस्से में देसी रजवाड़े। ब्रिटिश प्रभुत्व वाले भारतीय प्रांतो पर अंग्रजी सरकार का सीधा नियंत्रण था। दूसरी तरफ छोटे-बड़े आकार के कुछ और राज्य थे। इन्हें रजवाड़ा कहा जाता था। रजवाड़ों पर राजाओं का शासन था। राजाओं ने ब्रिटिश-राज की अधीनता या कहें कि सर्वोच्य सत्ता स्वीकार कर रखी थी और उसके अंतर्गत वे अपने राज्य के घरेलू मामलों का शासन चलाते थे।
समस्या
आजादी के तुरंत पहले अंग्रजी-शासन ने घोषणा की कि भारत पर ब्रिटिश-प्रभुत्व के साथ ही रजवाड़े भी ब्रिटिश-अधीनता आजाद हो जाएँगे। इसका मतलब यह था कि सभी रजवाड़े (रावाड़ों की संख्या 565 थी) ब्रिटिश-राज की समाप्ति के साथ ही कानूनी तौर पर आजाद हो जाएँगे। अंग्रेजी-राज का नजरिया यह था कि रजवाड़े अपनी मर्जी से चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाएँ या फिर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाएँ रखें। यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया था।
सबसे पहले त्रावणकोर के राजा ने अपने राज्य को आजाद रखने की घोषण की। अगले दिन हैदराबाद के निजाम ने ऐसी ही घोषणा की। कुछ शासक मसलन भोपाल के नवाब संविधान-सभा में शामिल नहीं होना चाहते थे। राजवाड़ों के शासकों के रवैये से यह बात साफ हो गई कि आजादी के बाद हिंदुस्तान कई छोटे-छोटे देशों की शक्ल में बँट जाने वाला है।
सरकार का नजरिया
छोटे-छोटे विभिन्न आकार के देशों में बँट जाने की इस संभावना के विरूद्ध अंतरिम सरकार ने कड़ा रूख अपनाया। मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्ट्रीय क्रांग्रेस के इस कदम का विरोध किया। लीग का मानना था कि रजवाड़ों को अपनी मनमर्जी का रास्ता चुनने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। रजवाड़ों के शासकों को मनाने-समझाने में सरदार पटेल ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई और अधिकतर रजवाड़ों को उन्होंने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए राजी कर लिया।
शांतिपूर्ण बातचीत के जरिए लगभग सभी रजवाड़े जिनकी सीमाएँ आजाद हिंदुस्तान की नयी सीमाओं से मिलती थीं, 15 अगस्त 1947 से पहले ही भारतीय संघ में शामिल हो गए। अधिकतर रजवाड़ों के शासकों ने भारतीय संघ में अपने विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इस सहमति-पत्र को ‘इंस्टूमेंट ऑफ एक्सेशन’ कहा जाता है। इस पर हस्ताक्षर का अर्थ था कि रजवाड़े भारतीय संघ का अंग बनने के लिए सहमत हैं। जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय बाकियों की तुलना में थोड़ा कठिन साबित हुआ।
हैदराबाद
हैदराबाद की रियासत बहुत बड़ी थी। यह रियासत चारों तरफ से हिंदुस्तानी इलाके से घिरी थी। हैदराबाद के शासक को ‘निजाम’ कहा जाता था और वह दुनिया के सबसे दौलतमंद लोगों में शुमार किया जाता था। निजाम चाहता था कि हैदराबाद की रियासत को आजाद रियासत का दर्जा दिया जाए। निजाम ने सन् 1947 के नवबर में भारत के साथ यथास्थिति बहाल रखने का एक समझौता किया। यह समझौता एक साल के लिए था। इसी दौरान हैदराबाद की रियासत के लोगों के बीच निजाम के शासन के खिलाफ एक आंदोलन ने जोर पकड़ा तेलांगाना इलाके के किसान निजाम के दमनकारी शासन से खासतौर पर दुखी थे। वे निजाम के खिलाफ उठ खड़े हुए। महिलाएँ भी बड़ी संख्या में इस आंदोलन से आ जुड़ी। हैदराबाद शहर इस आंदोनल का गढ़ बन गया। आंदोलन को देख निजाम ने लोगों के खिलाफ एक अर्द्ध-सैनिक बल रवाना किया। इसे रजाकारों कहा जाता था। रजाकार अव्वल दर्जे के सांप्रदायिक और अत्याचारी थे। रजाकारों ने गैर-मुसलमानों को खासतौर पर अपना निशाना बनाया। रजाकारों ने लूटपाट मचायी और हत्या तथा बलात्कार पर उतारू हो गए। 1948 के सितम्बर में भारतीय सेना, निजाम के सैनिकों पर काबू पाने के लिए हैदराबाद आ पहुँची। कुछ रोज तक रूक-रूक कर लड़ाई चली और इसके बाद निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। निजाम के आत्मसमर्पण के साथ ही हैदराबाद का भारत में विलय हो गया।
मणिपुर
आजादी के चंद रोज पहले मणिपुर के महाराजा बाधचंद्र सिंह ने भारत सरकार के साथ भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसकी एवज में उन्हें यह आश्वासन दिया गया था कि मणिपुर की आंतरिक स्वायत्तता बरकरार रहेगी।
मणिपुर की विधानसभा में भारत में विलय के सवाल पर गहरे मतभेद थे। मणिपुर की क्रांग्रेस चाहती थी कि रियासत को भारत में मिला दिया जाए जबकि दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ इसके खिलाफ थीं। मणिपुर की निर्वाचित विधानसभा से परामर्श किए बगैर भारत सरकार ने महाराजा पर दबाव डाला कि वे भारतीय संघमें शामिल होने के समझौते पर हस्ताक्षर कर दें। भारत सरकार को इसमें सफलता मिली। मणिपुर में इस कदम को लेकर लोगों में क्रोध और नाराजगी के भाव पैदा हुए। इसका असर आज तक देखा जा सकता है।
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राज्यों का पुनर्गठन
बँटवारे और देसी रियासतों के विलय के साथ ही राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का अंत नहीं हुआ। भारतीय प्रांतों की आंतरिक सीमाओं तय करने की चुनौती अभी सामने थी। औपनिवेशिक शासन के समय प्रांतों की सीमाएँ प्रशासनिक सुविधा के लिहाज से तय की गई थीं या ब्रिटिश सरकार ने जितने क्षेत्र को जीत लिया हो उतना क्षेत्र एक अलग प्रांत मान लिया जाता था। प्रांतों की सीमा इस बात से भी तय होती थी कि किसी रजवाड़े के अंतर्गत कितना इलाका शामिल है। हमारी राष्ट्रीय सरकार ने ऐसी सीमाएँ को बनावटी मानकर खारिज कर दिया। उसने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का वायदा किया।
आजादी और बँटवारे के बाद स्थितियाँ बदलीं। हमारे नेताओं को चिंता हुई कि अगर भाषा के आधार पर प्रांत बनाए गए तो इससे अव्यवस्था फैल सकती है तथा देश के टूटने का खतरा पैदा हो सकता है।
केंद्रीय नेतृत्व के इस फैसले को स्थानिय नेताओं और लोगों ने चुनौती दी। पुराने मद्रास प्रांत के तेलगु-भाषी क्षेत्रों में विरोध भड़क उठा। पुराने मद्रास प्रांत में आज के तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश शामिल थे। आंध्र आंदोलन (आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्य बनाने के लिए चलया गया आंदोलन) ने माँग की कि मद्रास प्रांत के तेलुगुभाषी इलाकों को अलग करके एक नया राज्य आंध्र प्रदेश बनया जाए।
क्रांस के नेता और दिग्ज गाँधीवादी, पोट्टी श्रीरामुलु, अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल पर बैठ गए। 56 दिनों की भूख हड़ताल के बाद उनकी मृत्यु हो गई। इससे बड़ी अव्यवस्था फैली और आंध्र प्रदेश में जगह-जगह हिंसक घटनाएँ हुईं। लोग बड़ी संख्या में सड़कों पर निकल आए। पुलिस फायरिंग में अनेक लोग घायल हुए या मारे गए। आखिरकार 1952 के दिसंबर में प्रधानमंत्री ने आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्य बनाने की घोषणा की। आंध्र के गठन के साथ ही देश के दूसरे हिस्सों में भी भाषाई आधार पर राज्यों को गठित करने का संघर्ष चल पड़ा। इन संघर्षों से बाध्य होकर केंद्र सरकार ने 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया। इसने अपनी रिपोर्ट में स्वीकर किया कि राज्यों की सीमाओं का निर्धारण वहाँ बोली जाने वाली भाषा के आधार पर होना चाहिए। इस आयोग की रिपार्ट के आधार पर 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ। इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केंद्र-शासित प्रदेश बनाए गए।
‘पोट्टी श्रीरामुलु’ (1901-1952) गाँधीवादी कार्यकर्ता; नमक सत्याग्रह में भाग लेने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ी; वैयक्तिक सत्याग्रह में भागीदारी; 1946 में इस माँग को लेकर उपवास पर बैठे कि मद्रास प्रांत के मंदिर दलितों के लिए खोल दिए जाएँ; आंध्र नाम से अलग राज्य बनाने की माँग को लेकर 19 अक्टूबर 1952 से आरण अनशन; 15 दिसम्बर 1952 को अनशन के दौरान मृत्यु।
नए राज्यों का निर्माण
भाषावार राज्यों को पुनर्गठिन करने के सिद्धांत को मान लेने का अर्थ यह नहीं था कि सभी राज्य तत्काल भाषाई राज्य में तब्दील हो गए। एक प्रयोग द्विभाषी राज्य बंबई के रूप में किया गया जिसमें गुजराती और मराठी भाषी बोलने वाले लोग थे। एक जन-आंदोलन के बाद सन् 1960 में महाराष्ट्र में गुजरात राज्य बनाए गए।
1960 में पंजाबी-भाषी इलाके को पंजाब राज्य का दर्जा दिया गया और वृहत्तर पंजाब से अलग करके हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नाम के राज्य बनाए गए। असम से अलग करके 1972 में मेघालय बनाया गया। इसी साल मणिपुर और त्रिपुरा भी अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए। मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश 1987 में वजूद में आए जबकि नगालैंड इससे कहीं पहले यानी 1963 में ही राज्य बन गया था।
छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड, और झारखंड-सन् 2000 में बने। देश के अनेक इलाकों में छोटे-छोटे अलग राज्य बनाने की माँग को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। महाराष्ट्र में विदर्भ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में राज्य बनाने के ऐसे आंदोलन चल रहे हैं।
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