Karmveer Kavita – हिन्‍दी कक्षा 8 कर्मवीर कविता

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के अहिन्‍दी (Non Hindi) के पाठ 3 (Karmveer Kavita) “कर्मवीर” कविता के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस कविता के माध्‍यम से कवि ने हमेशा आगे बढ्ते रहने की प्रेरणा दिया है। जो कर्म में वीर होते हैं, वह कभी हार नहीं मानते हैं।

karmveer kavita

Karmveer Kavita

पाठ परिचय- कर्म के प्रति निष्ठा ही व्यक्ति की सफलता का निर्धारण करती है । बाधाएं व्यक्तित्व को निखारने का काम करती हैं। कविता बाधाओं से जूझते हुए उन कर्मशील लोगों की बात करती है, जो सभ्यता-संस्कृति का निर्माण करते हैं।

3. कर्मवीर(Karmveer Kavita)

देखकर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।।
काम कितना ही कठिन हो किंतु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही।
सोचते-कहते हैं जो कुछ, कर दिखाते हैं वही।।
मानते जी की हैं, सुनते हैं सदा सबकी कही।
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत् में आप ही।।
भूलकर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं।
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।।
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं।
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं।
आज कल करते हुए जो दिन गंवाते हैं नहीं।
यत्न करने में कभी जो जी चुराते है नहीं।।
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके किए।
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए ।।
चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देवें बना।
काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना।।
जो कि हँस-हँस के चबा लेते हैं लोहे का चना।
’है कठिन कुछ भी नहीं’ जिनके है जी में यह ठना।।
कोस कितने ही चलें, पर वे कभी थकते नहीं।
कौन-सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं।
काम को आरम्भ करके यों नहीं जो छोड़ते।
सामना करके नहीं जो भूलकर मुंह मोड़ते।।
जो गगन के फूल बातों से वृथा नहीं तोड़ते।
संपदा मन से करोड़ों की नहीं जो जोड़ते।।
बन गया हीरा उन्हीं के हाथ से है कारबन।
काँच को करके दिखा देते हैं वे उज्ज्वल रतन ।
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।।
गर्भ में जल-राशि के बेड़ा चला देते हैं ।
जंगलों में भी महामंगल रचा देते हैं वे ।।
भेद नभ तल का उन्होंने है बहुत बतला दिया।
है उन्होंने ही निकाली तार की सारी क्रिया।।
कार्य-स्थल को वे कभी नहीं पूछते ’वह है कहाँ’।
कर दिखाते हैं असंभव को भी संभव वे वहाँ।।
उलझनें आकर उन्हें पड़ती हैं जितनी ही जहाँ।
वे दिखाते हैं नया उत्साह उतना ही वहाँ।
डाल देते हैं विरोधी सैकड़ों ही अड़चनें।
वे जगह से काम अपना ठीक करके ही टलें।।
सब तरह से आज जितने देश हैं फूले-फले।
बुद्धि, विद्या, धन, विभव के हैं जहाँ डेरे डले।।
वे बनाने से उन्हीं के बन गए इतने भले।
वे सभी हैं हाथ से ऐसे सपूतों के पले।
लोग जब ऐसे समय पाकर जनम लेंगे कभी।
देश की औ’ जाति की होगी भलाई भी तभी।।

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