कक्षा 10 सत्ता में साझेदारी की कार्यप्रणाली – Satta Mein Sajhedhari Ki Karyapranali

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के लोकतांत्रिक राजनीति के पाठ दो ‘सत्ता में साझेदारी की कार्यप्रणाली (Satta Mein Sajhedhari Ki Karyapranali) के सभी महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Satta Mein Sajhedhari Ki Karyapranali
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Bihar Board Class 10 Poitical Science पाठ दो सत्ता में साझेदारी की कार्यप्रणाली – Satta Mein Sajhedhari Ki Karyapranali

इस पाठ में हमलोग भारत के संघीय व्यवस्था का अध्ययन करेंगें। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के सबसे निचले स्तर की व्यवस्था स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था करेंगे। बिहार में पंचायती राज पर भी एक नजर डालेंगे।

जब जाति, धर्म, रंग, भाषा आदि पर आधारित मानव समुहों को उचित पहचान एवं सत्ता में साझेदारी नहीं मिलती है तो उनके असंतोष एवं टकराव से सामाजिक विभाजन, राजनैतिक अस्थिरता, सांस्कृतिक टकराव एवं आर्थिक गतिरोध उत्पन्न होते हैं।

विभिन्न भाषायी एवं जातिय समूह को शासन में उचित प्रतिनिधित्व मिल सके। इसके विपरित श्रीलंका में सŸाधारी सिंहली समुदाय के हितो की निरंतर उपेक्षा की जिसमें तमिलों और सिंहलियों के बीच के टकराव ने भीषण गृह युद्ध का रूप ले लिया। इससे यह भी स्पष्ट होता हैं कि विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सत्ता का विभाजन उचित हैं क्योकिं इसमें विभिन्न सामाजिक समूहो को अभिव्यक्ति एवं पहचान मिलती हैं। उनके हितों एवं जरूरतों का सम्मान होता हैं। इसमें विभिन्न समाजिक समूहो के बीच टकराव की संभावना क्षीण हो जाती हैं। अतः सत्ता में साझेदारी की व्यवस्था रातनैतिक समाज की एकता, अखंडता एवं वैद्यता की पहली शर्त हैं।

लम्बे समय से यह मान्यता चली आ रही थी कि राजनैतिक सŸा का बँटवारा नही हो सकता हैं। शासन की शक्ति किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति के समूह के हाथों में रहनी चाहिए। अगर शासन की शक्तियों का बँटवारा होता है तो निर्णय की शक्ति भी बिखर जाती हैं। ऐसी स्थिति में निर्णय लेना एवं उसे लागू कराना असम्भव होगी लेकिन लोकतंत्र ने सŸा विभाजन को अपना मूल आधार बनाकर इस मान्यता का खंडन कर दिया।

लोकतंत्र में सरकार की सारी शक्ति किसी एक अंग में सीमित नहीं रहती बल्कि सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सत्ता का बँटवारा होता है। यह बँटवारा सरकार के एक ही स्तर पर होता हैं। उदाहरण के लिए सरकार के तीनों अंगों- विधायिका, कार्यापालिका एवं न्यायपालिका के बीच सत्ता का बँटवारा होता हैं और ये सभी अंग एक ही स्तर पर अपनी-अपनी शक्तियों का प्रयोग करके सत्ता में साझेदारी बनते हैं। सत्ता के ऐसे बँटवारे से किसी एक अंग के पास सत्ता का जमाव एवं उसके दुरूपयोग की संभावना खत्म हो जाती है। विश्व के बहुत सारे लोकतंत्रिक देशों जैसे- अमेरिका, भारत आदि में यह व्यवस्था अपनाई गई।

सरकार के एक स्तर पर सत्ता के ऐसे बँटवारे को हम सत्ता का क्षैतिज वितरण कहतें हैं।

इस तरह की व्यवस्था में पूरे देश के लिए एक सामान्य सरकार होती है। प्रांतीय और क्षेत्रीय स्तर पर अलग सरकारें होती हैं। दोनों के बीच सत्ता के स्पष्ट बँटवारे की व्यवस्था संविधान या लिखित दस्तावेज के द्वारा की जाती हैं।

सत्ता के इस बँटवारे को आमतौर पर संघवाद के नाम से जाना जाता है।

हम संघीय शासन व्यवस्था की विशेषताओं को निम्नलिखित रूप से अंकित कर सकते है-

  • संघीय शासन व्यवस्था में सर्वोच्च सत्ता केन्द्र सरकार और उसकी विभिन्न आनुसंगिक इकाइयों के बीच बँट जाती है।
  • संघीय शासन व्यवस्था में दोहरी सरकार होती है एक केन्द्रीय स्तर की सरकार जिसके अधिकार क्षेत्र में राष्ट्रीय महत्व के विषय होती हैं। दूसरे स्तर पर प्रांतीय या क्षेत्रीय होते हैं। जिनके अधिकार क्षेत्र में स्थानीय महत्व के विषय होते हैं।
  • प्रत्येक स्तर की सरकार अपने क्षेत्र में स्वायता होती है और अपने-अपने कार्यों के लिए लोगों के प्रति जवाबदेह या उत्तरदायी है।
  • अलग-अलग स्तर की सरकार एक ही नागरिक समूह पर शासन करती है।
  • नागरिकों की दोहरी पहचान एवं निष्ठाएँ होती है वे अपने क्षेत्र के भी होते हैं और राष्ट्र के भी। जैसे कि हममें से कोई बिहारी, बंगाली और मराठी होने के साथ-साथ भारतीय भी होता है।
  • दोहरे स्तर पर शासन की विस्तृत व्यवस्था एक लिखित संविधान के द्वारा की जाती हैं।
  • एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की जाती है। इसे संविधान एवं विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकारों की व्यवस्था करने का भी अधिकार होता है तथा यह केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों और शक्ति के बँटवारे के संबंध में उठनेवाले कानूनी विवादों को भी हल करता है।

भारत में संघीय शासन व्यवस्था

भारत में संघीय व्यवस्था के तहत कानून बनाने का अधिकार को तीन सूचियों में बाँट दिया गया है। संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची।

  • संघ सूची पर देश के लिए कानून बनाने का अधिकार है, राज्य सूची पर राज्य को तथा समवर्ती सूची पर देश और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है।
  • जो विषय इन तीनों सूचियों में नहीं आते हैं, वैसे अवशिष्ट या बचे हूए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र सरकार को दे दिया जाता है।
  • भरतीय संविधान को कठोर बनाया गया है, ताकि केन्द्र और राज्य के बीच अधिकारों के बँटवारे में आसानी से एवं राज्यों की सहमति के बिना फेर बदल नहीं किया जा सके।
  • स्वतंत्र एवं सर्वोच्च न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है जिसे संविधान की व्याख्या, केन्द्र और राज्य के झगड़े-निपटाने के साथ केन्द्र और राज्य सरकार के द्वारा बनाए गए कानूनों की जाँच करने उन्हें संविधान के विरूद्ध या गैर कानूनी घोषित करने की भी शक्ति प्राप्त होती हैं।
  • सरकार चलाने एवं अन्य जिम्मेवारीयों के निर्वाहन के लिए जरूरी राजस्व की उगाही के लिए केन्द्र एवं राज्यां को कर लगानें एवं संसाधन जूटाने ंका अधिकार प्राप्त हैं।

भाषानीति

  • भारत में बहुत सी भाषाएँ बोली जाती हैं। श्रीलंका में भाषागत भेदभाव राजनैतिक अस्थिरता का बहुत बड़ा कारण रहा है। इसलिए भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया गया, क्योंकि यह आबादी के 40 प्रतिशत लोगों की भाषा है। इसके साथ ही अन्य भाषाओं के प्रयोग, संरक्षण एवं संवर्धन के उपाय किए गए।
  • केन्द्रीय सरकार की शक्ति- किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण है। वह किसी राज्य की सीमा या नाम में परिवर्तन कर सकती है। पर इस शक्ति का दुरूपयोग रोकने के लिए प्रभावित राज्य के विधानमंडल को भी विचार व्यक्त करने का अवसर प्रदान किया है।
  • संविधान में केन्द्र को अत्यंत शक्तिाली बनानेवाले कुछ आपातकालीन प्रावधान हैं जिसके लागू होने पर वह हमारी संघीय व्यवस्था को केन्द्रीयकृत व्यव्स्था में बदल देते हैं।
  • राज्यपाल राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रति की मंजूरी के लिए तथा राज्य सरकार को हटाने तथा विधानसभा भंग करने की सिफारिश भी राष्ट्रपति को भेज सकता है।
  • विशेष परिस्थति में केन्द्र सरकार राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है।
  • भारतिय प्रशासनिक व्यवस्था इकहरी है। इसमें चयनित पदाधिकारी राज्यों के प्रशासन का कार्य करते हैं लेकिन राज्य न तो उनके विरूद्ध कोई अनुशासनात्मक कारवाई कर सकता है, न ही उन्हे सेवा से हटा सकतें हैं।
  • संविधान के दो अनुच्छेद 33 एवं 34 संघ सरकार की शक्ति के उस स्थिति में काफी बढ़ा देते है जब देश के किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू हों। संसद को अधिकार मिल जाता है कि ऐसी स्थिति में वह केन्द्र या राज्य के किसी अधिकारी के द्वारा शांति व्यवस्था बनाएँ रखने या उसकी बहाली के लिए किए गए किसी कार्य को कानून जायज कारार दे सके।

बिहार में पंचायती राज व्यवस्था की एक झलक 

राष्ट्रीय स्तर पर पंचायती राज्य प्रणाली की विधिवत शुरूआत बलवंत राय महता समीति की अनुशंसाओ के आधार पर 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले से हुई थी। 1959 में ही आंध्र प्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई।

बलवंत राय मेहता समिति ने पंचायत व्यवस्था के लिए त्रि-स्तरीय ढाँचा का सुझाव दिया-

  1. ग्राम स्तर पर पंचायत
  2. प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति या क्षेत्रिय समिति
  3. जिला स्तर पर जिला परिषद।

पूरे देश में पंचायती राज व्यवस्था में एकरूपता लाने के उद्देश्य से सन् 1991 में 73वाँ संविधान विधेयक संसद में लाया गया जो 22-23 दिसम्बर 1992 को क्रमशः लोकसभा एवं राज्य सभा द्वारा पारित हो गया। फलतः संविधान के एक नए भाग 9 में पंचायत शिर्षक के अंतर्गत पंचायती राज्य अधिनियम को सम्मिलित किया गया। इसमें 13 अनुच्छेदों वाला एक नया अनुच्छेद 243 रखा गया हैं। इस संसोधन द्वारा एक नई अनुसुची (ग्यारह अनुसुची) जोडी गई हैं।

बिहार में पंचायती राज का स्वरूप त्रिस्तरीय

क. ग्राम पंचायत

 ख. पंचायत समिति

 ग. जिलर परिषद

कार्यकाल-  पाँच वर्षीय

राज्य सरकार 7000 की औसत आबादी पर ग्राम पंचायती की स्थापना को आधार मानती हैं। एक पंचायत क्षेत्र लगभग 500 की आबादी पर वार्डों में विभक्त होता है, जिनकी संख्या समान्तया 15-16 तक होती है। वार्ड सदस्य प्रत्येक मतदाता द्वारा चुने जाते हैं। ग्राम पंचायतों का प्रमुख मुखिया होता है और उसकी सहायता के लिए एक उपमुखिया का पद सृजित किया गया है। हर पंचायत में राज्य सरकार की ओर से एक पंचायत सेवक नियुक्त होते है, जो सचिव की भूमिका निभाते हैं।

बिहार पंचायती राज अधिनियम 2006 के तहत महिलाओ के लिए सम्पूर्ण सीटां मे आधा सीट अर्थात 50 प्रतिशत के आरक्षण का प्रावधान है। ग्राम पंचायतों का प्रधान मुखिया होता हैं। मुखिया या उपमुखिया अपने पद से स्वयं हट सकते हैं या हटाये जा सकते हैं। स्वेच्छा से हटने के लिए उन्हे जिला पंचायती राज पदाधिकारी को त्यागपत्र देना पड़ता हैं। यदि ग्राम पंचायतो के सदस्य दो-तिहाई बहुमत से मुखिया के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करें तो मुखिया-उपमुखिया अपने पद से हटाए जा सकते हैं।

ग्राम पंचायत के सामान्य कार्य-

  1. 1. पंचायत क्षेत्र के विकास के लिए वार्षिक योजना तथा वार्षिक बजट तैयार करना।
  2. 2. प्राकृतिक विपदा में सहायता करने का कार्य।
  3. सार्वजनिक सम्पत्ति से अतिक्रमण हटाना।
  4. स्वैच्छिक श्रमिकों को संगठित करना और सामुदायिक कार्यों में स्वैच्छिक सहयोग करना।

ग्राम पंचायत की शक्तियाँ-

  1. संपत्ति अर्जित करने, धारण करने और उसके निपटने की तथा उसकी संविदा करने की शक्ति
  2. वार्षिक कर जैसे- जल कर, स्वच्छता कर, मेलों-हाटों में प्रबंध कर, वाहनों के निबंधन पर फीस तथा क्षे़त्राधिकार में चलाए व्यवसायों नियोजनों पर कर
  3. राज्य वित्त आयोग की अनुशंसा पर संचित निधि से सहायक अनुदान प्राप्त करने का अधिकार।

ग्राम पंचायत के आय के श्रोत-

  1. कर स्त्रोत- होल्डिंग, व्यवसाय, व्यापार, पेशा और नियोजन।
  2. फीस और रेंट- वाहनों का निबंधन, तीर्थ स्थानों, हाटों और मेलों, जलापूर्ति, गलियों ओर अन्य स्थानों पर प्रकाश, शौचालय और मूत्रालय।
  3. वित्तीय अनुदान- राज्य वित्त आयोग की अनुशंसा के आधार पर राज्य सरकार द्वारा पंचायतों को संचित निधि से अनुदान भी दिया जाता है।

ग्राम पंचायत के प्रमुख अंग-

  1. ग्राम सभा 2. मुखिया 3. ग्राम रक्षादल/दलपति 4. ग्राम कचहरी

ग्रामसभा- यह पंचायत की व्यवस्थापिका सभा है। ग्राम पंचायत क्षेत्र में रहनेवाले सभी व्यस्क स्त्री-पुरूष जो 18 वर्ष से अधिक उम्र के हैं, ग्रामसभा के सदस्य होंगे। ग्रामसभा की बैठक वर्ष भर में कम से कम चार बार होगी। मुखिका ग्रामसभा की बैठक बुलाएगा और इसकी अध्यक्षता करेगा।

ग्राम रक्षादल- यह गाँव की पुलिस है। इसमें 18 से 30 वर्ष की आयु वाले युवक शामिल हो सकते हैं। सुरक्षा दल का एक नेता होता है जिसे दलपति कहते हैं। इसके ऊपर गाँव की रक्षा और शांति का उत्तरादायित्व रहता है।

ग्राम कचहरी- यह ग्राम पंचायत की अदालत है जिसे न्यायिक कार्य दिए गए हैं। बिहार में ग्राम पंचायत की कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से अलग रखा गया है। प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक ग्राम कचहरी होता है जिसमें प्रत्यक्ष निर्वाचित एक सरपंच तथा इसमें प्रत्येक 500 की आबादी के हिसाब से निर्वाचित पंच होते हैं। इनका कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है। ग्राम कचहरी को दिवानी और फौजदारी दोनों क्षेत्रों में अधिकार प्रदान किए गए हैं। सरपंच सभी प्रकार के अधिकतम 10 हजार तक के मामले की सुनवाई कर सकता है। ग्राम कचहरी में एक न्याय मित्र और एक न्याय सचिव भी होता है। न्याय मि़त्रों एवं न्याय सचिवों के पद का निर्माण बिहार सरकार द्वारा किया गया है। न्याय मित्र सरपंच के कार्यों में सहयोग देता है, जबकि न्याय सचिव ग्राम कचहरी के कागजातों को देखता है।

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( ख ) पंचायत समिति

पंचायत समिति पंचायती राज्य व्यवस्था का दूसरा या मध्य स्तर है। यह ग्राम पंचायत और जिला परिषद् की बीच की कड़ी है। बिहार में 5000 की आबादी पर पंचायत समीति चुने जाने का प्रावधान है।

यह अपने बीच एक प्रमुख और एक उपप्रमुख का निर्वाचन करते हैं। पंचायत समीति का प्रधान अधिकारी होता है। पंचायत समिति के सदस्यों के कार्यों का जाँच-पड़ताल करता है और प्रखंड विकास पदाधिकारी पर नियंत्रण रखता है।

प्रखंड विकास पदाधिकारी पंचायत समिति का पदेन सचिव होता है। वह प्रमुख के आदेश पर पंचायत समिति का बैठक बुलाता है।

पंचायत समिति के कार्य- पंचायत समिति सभी ग्राम पंचायतों की वार्षिक योजनाओं पर विचार-विमर्ष करती है और समेकित योजना को जिला परिषद् में प्रस्तुत करती है। सामुदायिक विकास कार्य एवं प्राकृतिक आपदा के समय राहत का प्रबंध करना भी इनकी जिम्मेदारी होती है।

जिला परिषद्- बिहार में जिला परिषद् पंचायती राज व्यवस्था का तीसरा स्तर है। 50000 की आबादी पर जिला परिषद् का एक सदस्य चुना जाता है। जिला परिषद् के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत जिला की सभी पंचायत समितियाँ आती है। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।

प्रत्येक जिला परिषद् का एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होता है जिसे वह अपने सदस्यों में से चुनते हैं।

बिहार पंचायती राज अधिनियम 2005 के द्वारा महिलाओं के लिए संपूर्ण सीटों में आधा सीट 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा अत्यंत पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

बिहार में नगरीय शासन.व्यवस्था

बिहार में नगरों एवं कस्बों में स्थानीय स्वशासन का एक गौरवशाली इतिहास रहा है । मनुस्मृति और महाभारत में इनका उल्लेख मिलता है । यूनानी विद्वान मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक

में मगध साम्राज्य की राजधानी श्पाटलीपुत्रश् के नगरपालिका संगठन के बारे में विस्तार पूर्वक लिखा है । चाणक्य जो चंद्रगुप्त का प्रधानमंत्री थाए उसकी पुस्तक श्अर्थशास्त्रश् में भी पाटलिपुत्रश् के नगर प्रशासन का वर्णन किया । स्वतंत्रता.प्राप्ति के बाद नगरपालिका प्रशासन का पूरी तरह से पुनर्गठन और सुधार किया गया है।

भारतीय संसद ने 74वाँ संविधान संशोधन 1992 पारित करके नगरीय स्वशासन व्यवस्था को सर्वप्रथम संवैधानिक मान्यता प्रदान की है। नगरपालिका के कार्यक्षेत्र विषय संविधान की 12वीं अनुसूची में उल्लिखित है।

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नगरीय शासन व्यवस्था में तीन प्रकार की संस्थाएँ हैं-

  1. नगर पंचायत
  2. नगर परिषद् और
  3. नगर निगम।

1. नगर पंचायत- ऐसे स्थान जो गाँव से शहर का रूप लेने लगते हैं वहाँ स्थानीय शासन चलाने के लिए नगर पंचायत का गठन किया जाता है। जिस शहर की जनसंख्या 12,000 से 40,000 के बीच होती है वहाँ नगर पंचायत की स्थापना कि जाती है। नगर पंचायत के लिए आवश्यक शर्त यह है कि वहाँ के वयस्कों की तीन चौथाई जनसंख्या कृषि से भिन्न कार्य में संलग्न हो। नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या 10 से 37 तक होती है, जो वार्डों से मतदाताओं द्वारा चुनते हैं। सदस्यों का कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है। नगर पंचायत का एक अध्यक्ष ओर एक उपाध्यक्ष होता है जो अपने सदस्यों के बीच चुने जाते हैं।

2. नगर परिषद्- नगर पंचायत से बड़े शहरों में नगर परिषद् का गठन किया जाता है। वैसे शहर जिसकी जनसंख्या कम-से-कम 2,00000 से 3,00000 के बीच होती है, वहाँ नगर परिषद् की स्थापना की जाती है। नगर परिषद् के लिए आवश्यक शर्त यह है कि वहाँ पूरी जनसंख्या की तीन चौथाई भाग कृषि छोड़ अन्य कार्य में लगे हो।

नगर परिषद् के अंग- नगर परिषद् के तीन अंग होते हैं-

  1. नगर पर्षद्
  2. समितियाँ
  3. अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष और
  4. कार्यपालक पदाधिकारी।

1. नगर पर्षद- नगर परिषद् का एक प्रमुख अभिकरण नगर पर्षद होता है। इसके सदस्य पार्षद या कमिश्नर कहलाते हैं। इसकी संख्या कम से कम दस और अधिक से अधिक 40 होती है। पार्षद का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है। इसके 80 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित और 20 सदस्य मनोनित होते हैं। नगर पर्षद के सदस्य अपने में से एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव करते हैं।

2. समितियाँ- नगर परिषद् के कार्यों को सुचारू रूप से संचालन के लिए नगर परिषद् की कई समितियाँ होती है। समितियों को नगर पर्षद नियुक्त करती है। इसमें 3 से 6 सदस्य होते हैं।

3. अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष- बिहार के प्रत्येक नगर परिषद् में एक मुख्य पार्षद (अध्यक्ष) एवं उपमुख्य पार्षद (उपाध्यक्ष) होता है। इन दोनों का चुनाव नगर पर्षद के सदस्यों द्वारा होता है। नगर पार्षद नगर परिषद् का प्रधान होता है। वह उनके सभी कार्यों की देखभाल करता है। मुख्य पार्षद अपने शहर का प्रथम नागरिक समझा जाता है।

4. कार्यपालक पदाधिकारी- प्रत्येक नगर में एक कार्यपालक पदाधिकारी का पद होता है। इसकी नियुक्ति राज्य सरकार करती है। नगर परिषद् के प्रशासन को चलाने वाला यह प्रधान अधिकारी होता है।

नगर परिषद् के कार्य-

नगर परिषद् के दो तरह के कार्य हैं अनिवार्य एवं ऐच्छिक। अनिवार्य कार्य ऐसे कार्य होते हैं, जिसे नगर परिषद् को करना जरूरी होता है। ऐच्छिक कार्य ऐसे कार्य हैं जिन्हें नगर परिषद् आवश्यकतानुसार करता है। नगर परिषद् के अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं.

1.नगर की सफाई कराना

2. सड़कों एवं गलियों में रोशनी का प्रबंध करना

3. पीने के पानी की व्यवस्था करना

4. सड़क बनाना तथा उसकी मरम्मत करना

5. नालियों की सफाई करना ।

6. प्राथमिक शिक्षा का प्रबंध करना, जैसे स्कूल खोलना और उसे चलाना

7. टीके लगाने तथा महामारी से बचाव का उपाय करना

8. मनुष्यों एवं पशुओं के लिए अस्पताल खोलना

9. आग से सुरक्षा करना

10. श्मशान घाट का प्रबंध करना

11. जन्म एवं मृत्यु का निबंधन करना एवं उनका लेखा-जोखा रखना ।

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ऐच्छिक कार्य-

1. नई सड़क बनाना

2. गलियों एवं नालियाँ बनाना

3. शहर के गंदे इलाके को बसने योग्य बनाना

4. गरीबों के लिए घर बनवाना

5. बिजली का प्रबंध करना।

6. प्रदर्शनी लगाना

7. पार्क, बगीचा एवं अजायबघर बनाना

8. पुस्‍तकालय की व्‍यवस्‍था करना।

नगर परिषद के आय के स्त्रोत- नगर परिषद् विभिन्न प्रकार के कर वसुलती है। जैसे, मकान कर, पानी कर, रोशनी कर, नाला कर, मनोरंजन कर आदि। इसके अतिरिक्त नगर के बाहर से नगर में बिक्री के लिए पर नगर परिषद् सीमा कर वसुलती है जिसे आमतौर पर चंगी कहा जाता है।

शहर में चलने वाली बैलगाड़ी, टमटम, साइकिल, रिक्सा आदि पर भी नगर कर वसूल करती है। इसके अलावे राज्य सरकार समय-समय पर अनुदान भी देती है।

3. नगर निगम- जैसा कि हम जानते हैं कि राज्यों में नगरों के स्थानीय शासन के लिए तीन प्रकार की संस्थाएँ होती है। इन तीनों संस्थाओं में नगर निगम बड़े-बड़े शहरों में स्थापित की जाती है। अर्थात् जिस शहर की जनसंख्या 3 लाख से अधिक होती है वैसे शहरों में नगर निगम की स्थापना की जाती है। भारत में सर्वप्रथम 1688 ई० में मद्रास (चेन्नई) नगर निगम की स्थापना की गई । बिहार में सर्वप्रथम पटना में 1952 में नगर निगम की स्थापना की गई। प्रत्येक नगर निगम को जनसंख्या के अनुरूप कई क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है। जिसे वार्ड कहा जाता है। नगर निगम में वाडों की संख्या उस शहर के जनसंख्या पर निर्भर करता है । वार्डों के निर्धारण में आरक्षण के नियमों का पालन किया जाता है । जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अत्यंत पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाती है । बिहार में नगर निगम में 50 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया गया है। बिहार में एक नगर निगम में वार्डों की न्यूनतम संख्या 37 और अधिकतम 75 हो सकती है। पटना नगर निगम में 72 वार्ड हैं, गया नगर निगम में 35, भागलपुर नगर निगम में 51, दरभंगा नगर निगम में 48, बिहार शरीफ नगर निगम में 46 एवं आरा नगर निगम में 45 वार्ड निर्धारित है।

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नगर निगम के प्रमुख अंग- बिहार में नगर निगम के प्रमुख अंग होते हैं

1. निगम परिषद 2. सशक्त स्थानीय समिति 3. परामर्शदात्री समितियों 4. नगर आयुक्त

1. निगम परिषद- समूचे नगर निगम क्षेत्र को विभिन्न क्षेत्रों (वार्डों) में बाँटा जाता है। इस तरह से विभक्त प्रत्येक क्षेत्रों से उस क्षेत्र के मतदाताओं द्वारा एक-एक प्रतिनिधि निर्वाचित होकर आते हैं। इन्हें वार्ड पार्षद या वार्ड काँसिलर कहते हैं। पार्षदों का कार्यकाल 5 वर्षा का होता है। निर्वाचित सदस्यों के अलावा विशेषहितों के प्रतिनिधि करने वाले समूह जैसे, चैम्बर ऑफ कामर्स, व्यापार संघ एवं निबंधित स्नातक के सदस्य भी परिषद् के सदस्य होते है। सभी निर्वाचित सदस्यों के साथ मनोनीत सदस्य मिलकर कई सहयोजित सदस्यों का चयन करत है। इसके अलावे आमंत्रित सदस्यों के रूप में उस नगर निगम क्षेत्र के सांसद, स्थानीय विधायक एवं स्थानीय पार्षद होते हैं। निगम परिषद की बैठक प्रत्येक महीने होती है। निगम परिषद् का प्रमुख कार्य नियम बनाना, निर्णय लेना तथा कर (टैक्स) लगाना है।

महापौर एवं उपमहापौर- निगम परिषद अपने सदस्यों के बीच से एक महापौर एवं उपमहापौर चुनती है। इन दोनों का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है। महापौर निगम परिषद् का सभापति होता है तथा निगम की बैठकों की अध्यक्षता करता है। साथ ही सशक्त स्थायी समिति की भी अध्यक्षता करता है। महापौर नगर का प्रथम नागरिक माना जाता है। इस नाते वह नगर में आये अतिथियों का स्वागत नगर की ओर से करता है। महापौर की अनुपस्थिति में नगर परिषद् के सभी कार्यभार उपमहापौर संपादन करते हैं।

2. सशक्त स्थानीय समिति- निगम परिषद् के बाद यह नगर निगम का दूसरा महत्त्वपूर्ण अंग होता है । महापौर एवं उपमहापौर भी इस समिति के सदस्य होते हैं । इस समिति की अध्यक्षता महापौर द्वारा की जाती है। निगम परिषद् के सभी प्रमुख कार्य सशक्त समिति द्वारा ही की जाती है। यह समिति कुछ कर्मचारियों की नियुक्ति करने के अतिरिक्त नगर आयुक्त पर भी नियंत्रण रखती है।

3. परामर्शदात्री समितियाँ- नगर निगम में कुछ परामर्शदायी समितियाँ भी होती है, जैसे शिक्षा समिति, बाजार एवं उद्यान समिति आदि। ये समितियां नगर निगम को सलाह देती है।

4. नगर आयुक्त- नगर निगम के इस पदाधिकारी की नियुक्ति बिहार सरकार द्वारा की जाती है। यह प्राय: भारतीय प्रशासनिक सेवा स्‍तर का पदाधिकारी होता है एवं नगर के सभी कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल करता है। नगर आयुक्त कुछ कर्मचारियों की भी नियुक्त कर सकता है।

नगर निगम के प्रमुख कार्य- नगर निगम सुख-सुविधा के लिए अनेक कार्य करता है।

नगर निगम के कुछ प्रमुख कार्य-

1. नगर क्षेत्र की नालियों, पेशाब खाना, शौचालय आदि निर्माण करना।

2, कुड़ा-कर्कट तथा गंदगी की सफाई करना।

3. पीने के पानी का प्रबंध करना।

4. गलियों एवं उद्यानों की सफाई एवं निर्माण करना।

5. मनुष्यों तथा पशुओं के लिए चिकित्सा केन्द्र की स्थापना करना एवं छुआ-छुत जैसी बिमारी पर रोक लगाने का प्रयास करना।

6. प्रारंभिक स्तरीय सरकारी विद्यालयों, पुस्तकालयों, अजायबघर की स्थापना तथा व्यवस्था करना।

7. विभिन्न कलयाण केन्द्रों जैसे मृत केन्द्र, शिशु केन्द्र, वृद्धाश्रम की स्थापना एवं देखभाल करना।

8. खतरनाक व्यापारों की रोकथाम, खतरनाक जानवरों तथा पागल कुत्तों को मारने का प्रबंध करना।

9. दुग्ध-शाला की स्थापना एवं प्रबंध करना।

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