हिंदी कक्षा 10 नौबतखाने में इबादत – Naubatkhane Mein Ibadat

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पाठ 11 (Naubatkhane Mein Ibadat ) “नौबतखाने में इबादत” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के लेखक यतीन्द्र मिश्र है | इस पाठ में महान शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के जीवन परिचय के बारे में बताया गया है |Naubatkhane mein ibadat

(Naubatkhane Mein Ibadat)

11. नौबतखाने में इबादत(Naubatkhane Mein Ibadat)

लेखक परिचय
लेखक का नाम- यतीन्द्र मिश्र
जन्म- 12 अप्रैल 1977 ई0, (43 वर्ष), अयोध्या, उत्तर प्रदेश

इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से हिंदी भाषा में एम० ए० किया। इस समय ये अर्द्धवार्षिक पत्रिका ’सहित’ का संपादन कर रहे हैं। ये साहित्य और कलाओं के संवर्द्धन एवं अनुशीलन के लिए ’विमला देवी फाउंडेशन’ का संचालन 1999 ई0 से कर रहे हैं।

रचनाएँ- इनके तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं- यदा-कदा, अयोध्या तथा अन्य कविताएँ और ड्योढ़ी का आलाप। इन्होंने प्रख्यात शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी के जीवन और संगीत साधना पर एक पुस्तक ’गिरीजा’ लिखी।

पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ ’नौबतखाने में इबादत’ प्रसिद्ध शहनाई वादक भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर रोचक शैली में लिखा गया व्यक्तिचित्र है। इस पाठ में बिस्मिल्ला खाँ का जीवन- उनकी रुचियाँ, अंतर्मन की बुनावट, संगीत की साधना आदि गहरे जीवनानुराग और संवेदना के साथ प्रकट हुए हैं।

पाठ का सारांश (Naubatkhane Mein Ibadat )

प्रस्तुत पाठ ‘नौबतखाने में इबादत‘ में शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की जीवनचर्या का उत्कृष्ट वर्णन किया गया है। इन्होंने किस प्रकार शहनाई वादन में बादशाहत हासिल की, इसी का लेखा-जोखा इस पाठ में है। 1916 ई० से 1922 ई० के आसपास काशी के पंचगंगा घाट स्थित बालाजी मंदिर के ड्योढ़ी के उपासना-भवन से शहनाई की मंगलध्वनि निकलती है। उस समय बिस्मिल्ला खाँ छः साल के थे। उनके बड़े भाई शम्सुद्दीन के दोनों मामा अलीबख्श तथा सादिक हुसैन देश के प्रसिद्ध सहनाई वादक थे।

उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का जन्म डुमराँव (बिहार) में एक संगीत-प्रमी परिवार में 1916 ई0 में हुआ। इनके बचपन का नाम कमरूद्दीन था। –वह छोटी उम्र में ही अपने ननिहाल काशी चले गये और वहीं अपना अभ्यास शुरू किया। 14 साल की उम्र में जब वह बालाजी के मंदिर के नौबतखाने में रियाज के लिए जाते थे, तो रास्ते में रसूलनबाई और बतूलनबाई का घर था। इन्होंने अनेक साक्षात्कारों में कहा है कि इन्ही दोनों गायिकी-बहनों के गीत से हमें संगीत के प्रति आसक्ति हुई।

शहनाई को ’शाहनेय’ अर्थात् ’सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि दी गई है। अवधी पारंपरिक लोकगीतों और चैती में शहनाई का उल्लेख बार-बार मिलता

बिस्मिल्ला खाँ 80 वर्षों से सच्चे सुर की नेमत माँग रहें हैं तथा इसी की प्राप्ति के लिए पाँचों वक्त नमाज और लाखों सजदे में खुदा के नजदिक गिड़गिड़ाते हैं। उनका मानना है कि जिस प्रकार हिरण अपनी नाभि की कस्तूरी की महक को जंगलों में खोजता फिरता है, उसी प्रकार कमरूद्दीन भी यहीं सोचते आया है कि सातों सुरों को बरतने की तमीज उन्हें सलीके से अभी तक क्यों नहीं आई।
बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के साथ जिस मुस्लिम पर्व का नाम जुड़ा है, वह मुहर्रम है। इस पर्व के अवसर पर हजरत इमाम हुसैन और उनके कुछ वंशजों के प्रति दस दिनों तक शोक मनाया जाता है। इस शोक के समय बिस्मिल्ला खाँ के खानदान का कोई भी व्यक्ति न तो शहनाई बजाता है और न ही किसी संगीत कार्यक्रम में भाग लेता है।

आठवीं तारीख खाँ साहब के लिए खास महत्त्व की होती थी। इस दिन वे खड़े होकर शहनाई बजाते और दालमंडी से फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए, नौहा बजाते थे।

बिस्मिल्ला खाँ अपनी पुरानी यादों का स्मरण करके खिल उठते थे। बचपन में वे फिल्म देखने के लिए मामू, मौसी तथा नानी से दो-दो पैसे लेकर सुलोचना की नई फिल्म देखने निकल पड़ते थे।

बिस्मिल्ला खाँ मुस्लमान होते हुए भी सभी धर्मों के साथ समान भाव रखते थे। उन्हें काशी विश्वनाथ तथा बालाजी के प्रति अपार श्रद्धा थी। काशी के संकटमोचन मन्दिर में हनुमान जयन्ती के अवसर पर वे शहनाई अवश्य बजाते थे। काशी से बाहर रहने पर वे कुछ क्षण काशी की दिशा में मुँह करके अवश्य बजाते थे।

उनका कहना था – ’क्या करें मियाँ, काशी छोड़कर कहाँ जाएँ, गंगा मइया यहाँ, बाबा विश्वनाथ यहाँ, बालाजी का मन्दिर यहाँ।’ काशी को संगीत और नृत्य का गढ़ माना जाता है। काशी में संगीत, भक्ति, धर्म, कला तथा लोकगीत का अद्भुत समन्वय है। काशी में हजारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज, विद्याधरी, बड़े रामदास जी और मौजद्दिन खाँ थे।

बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई एक दुसरे के पर्याय हैं। बिस्मिल्ला खाँ का मतलब बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई।

एक शिष्या ने उनसे डरते-डरते कहा- ’बाबा आपको भारतरत्न मिल चूका है, अब आप फटी लुंगी न पहना करें।’ तो उन्होंने कहा- ’भारतरत्न हमको शहनाई पर मिला है न कि लुंगी पर। लुंगीया का क्या है, आज फटी — है तो कल सिल जाएगी। मालिक मुझे फटा सूर न बक्शें।
निष्कर्षतः बिस्मिल्ला खाँ काशी के गौरव थे। उनके मरते ही काशी में । संगीत, साहित्य और अदब की बहुत सारी परम्पराएँ लुप्त हो चुकी हैं। वे दो कौमों के आपसी भाईचारे के मिसाल थे। खाँ साहब शहनाई के बादशाह थे। यही कारण है कि इन्हें भारत रत्न, पद्मभूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा अनेक विश्वविद्यालय की मानद उपाधियाँ मिलीं। वे नब्बे वर्ष की आयु में 21 अगस्त, 2006 को खुदा के प्यारे हो गए।

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Machhli – हिंदी कक्षा 10 मछली Lesson 10 class 10 Hindi

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पाठ 10 ( Machhli) “ मछली ” के व्याख्या को पढ़ेंगे, इस पाठ के लेखक विनोद कुमार शुक्ल है | इस कहानी में एक छोटे शहर के निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के भीतर के वातावरण, जीवन यर्थाथ तथा संबंधों को आलोकित करती हुई लिंग-भेद को भी स्पर्श करती है।

machhli

(Machhali)

10. मछली (Machhali)

लेखक परिचय
लेखक का नाम- विनोद कुमार शुक्ल
जन्म- 1 जनवरी 1937 ई0 (83 वर्ष),
राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़

इन्होंने शिक्षा समाप्ति के बाद पेशा के रूप में प्राध्यापन को अपनाया। ये इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर थे। इन्हें 1990 ई० में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

रचनाएँ- जयहिंद, वह आदमी नया कोट पहनकर चला गया विचार की तरह, नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे, दीवार में एक खिड़की रहती थी, पेड़ पर कमरा, महाविद्यालय आदि।

पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ ’मछली’ कहानी संकलन ’महाविद्यालय’ से ली गई है। इस कहानी में एक छोटे शहर के निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के भीतर के वातावरण, जीवन यर्थाथ तथा संबंधों को आलोकित करती हुई लिंग-भेद को भी स्पर्श करती है।

पाठ का सारांश (Machhli)

प्रस्तुत पाठ ’मछली’ संवेदना पूर्ण कहानी है। इसमें मछली के माध्यम से लोगों के मनोभाव को व्यक्त किया गया है।

बच्चे अपने पिता के साथ मछली खरीदने बाजार जाते हैं। तीन मछलीयाँ खरीदी जाती है, जिनमें एक खरीदने के वक्त ही मर गई थी। बच्चे झोले में मछलीयों को रखकर गली से होकर घर वापस लौटते हैं। बूंदे पड़ने के कारण बाजार में भीड़ घट रही थी। बच्चे भी इसलिए दौड़ रहे थे कि मछलीयाँ बिना पानी के झोले में ही न मर जाएँ। झोले में रखी तीन मछलीयों में से दो जीवित थी, उनकी तड़प के झटके बच्चे महसुस कर रहे थे।
अचानक जोरों से वर्षा होने लगी। बच्चे झोले के मुँह इसलिए फैला दिए कि मछलीयों में थोड़ा जान आ जाए, क्योंकि उनकी इच्छा थी की उनमें से एक मछली कुएँ मे पाली जाए और उसके साथ खेली जाए।
 

वर्षा में दोनों भाई भींगने से थर्र-थर कांपने लगे। स्नानघर का दरवाजा बंद करके तीनों मछलीयों को बाल्टी में डाल दिया। संतू ठंड से कांप रहा था। माँ की मार के भय से दोनों भाई कमीज एवं पेंट निचोड़कर बाल्टी के पास बैठ गये। संतु बड़े प्यार से मछली की ओर देख रहा था।
बड़े भाई ने कहा इसमें से जीवित एक मछली पिताजी से मांग लेंगे। संतू मछली को छूना चाहता था, किंतु काटने के डर से नहीं छूता था। तभी लेखक ने उसे छूने को कहा। उसने सहमते हुए एक मछली को छूआ, लेकिन डर कर अपना हाथ खींच लिया।
लेखक ने बाल्टी से मछली निकाली और पुनः बाल्टी में डाल दी। इस क्रम में मछली उछली तो पानी के छींटे उन पर पड़े। संतु चौककर पीछे हट गया।

लेखक मछली की आँखों में अपना छाया देखना चाहता था क्योंकि दीदी का कहना था कि मरी हुई मछली की आँखों में झाँकने से अपनी परछाई नहीं दिखती। इसलिए पहले संतु का झाँकने को कहा, किंतु उससे कोई जवाब नहीं मिला तो लेखक मछली को अपने चेहरे के समीप लाकर देखा तो उसे उसकी आँख में धुंधली-सी परछाई दिखी, लेकिन ये परछाई थी कि मछली के आँखों का रंग था, यह समझ नहीं पाया। इसके बाद दीदी को बुलाने को कहा, लेकिन दीदी के सोने की बात सुनकर वह आश्चर्य में पड़ गया। माँ को मसाला पीसते हुए देखकर दुःखी हो गया कि मछली आज ही कट जाएगी। संतु भी उदास हो गया।

वर्षा बंद हो गई तब लेखक ने आँगन में जहाँ मछली काटी जाती थी, वहाँ धुला हुआ लकड़ी का तख्ता देखा। पास में थोड़ी चूल्हे की राख थी। स्नानघर का दरवाजा खुला हुआ था। माँ को मछली बनाना अच्छा नहीं लगता था। घर में पिताजी ही केवल मछली खाते थे। भग्गु ही मछली काटता तथा बनाता था। स्नानघर से भग्गु का मछली लाते देखकर लेखक के मन में उदासी छा गई, क्योंकि कुएँ में मछली पालने का उत्साह बुझ-सा रहा था। दीदी ने हम दोनों भाईयों को कपड़े पहनाए, बाल संवारे।

लेखक ने दीदी से कहा- ’दीदी ! आज मछली आई है। तीन हैं। एक शायद मर गयी है। उन्हें अभी भग्गु काटेगा। पहले दीदी चुप रही, फिर कमरे का दरवाजा बन्द करने की बात कहकर सो गई। भग्गु ने मछली के पूरे शरीर में राख मलकर फिर उसकी गर्दन काट डाली। तभी संतु एक मछली लेकर सरपट बाहर भागा।

भग्गु भी संतु से मछली छीनने दौड़ पड़ा। संतु दोनों हाथों से मछली को अपने पेट में छिपाए हुए था और भग्गु उससे मछली छीनने की कोशिश कर रहा था। उसे डर का था कि संतु कहीं मछली कुएँ में न डाल दें। वह पिताजी के डाँट के भय से परेशान था।

एक तरफ घर के अंदर पिताजी जोर-जोर से चिल्ला रहे थे, दूसरी ओर दीदी की सिसकियाँ बढ़ गई थी। पिताजी दहाड़कर कह रहे थे- ’भग्गु! अगर नहान घर में घुसे तो साले के हाथ-पैर तोड़कर बाहर फेंक देना। बाद में जो होगा मैं भुगत लूँगा।

भग्गु चुपचाप सिर हिलाकर चला गया। संतु डर से सहमा हुआ था और उसके कपड़े कीचड़ से गंदे हो गये थे। स्नानघर में ही नहीं, पूरे घर में मछलीयों जैसी गंध आ रही थी।

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Aavinyon – हिंदी कक्षा 10 आविन्यों

aavinyon

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पाठ 9 ( Aavinyon ) “आविन्यों” के व्याख्या को पढ़ेंगे। इस पाठ के लेखक अशोक वाजपेयी है | इस पाठ में दक्षिणी फ्रांस में स्थित आविन्यों की विशेषता को लेखक ने बताया है |

aavinyon

9. आविन्यों
लेखक परिचय
लेखक का नाम- अशोक वाजपेयी
जन्म- 16 फरवरी 1941 ई0, मध्य प्रदेश के दुर्ग
नामक स्थान पर
पिता- परमानन्द वाजपेयी
माता- निर्मला देवी

इन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा गवर्नमेंट हायर सेकेंड्री स्कूल, सागर में पाई तथा सागर विश्वविद्यालय से बी० ए० और स्टीफेंस महाविद्यालय दिल्ली से अंग्रेजी विषय में एम० ए० किया।

रचनाएँ- शहर, अब भी संभावना है, एक पतंग अनंत में, अगर इतने से, तत्पुरुष, बहुरी अकेला, थोड़ी सी जगह, घास में दुबका आकाश, आविन्यों, अभी कुछ और समय के पास समय, इबादत से गिरी मात्राएँ, उम्मीद का दूसरा नाम, विवक्षा, दुःख चिट्ठी रसा आदि।

पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ ’आविन्यों’ इसी नाम के गद्य एवं कविता के सर्जनात्मक संग्रह से संकलित है। आविन्यों दक्षिण फ्रांस का एक मध्ययुगीन ईसाई मठ हैं जहाँ लेखक ने इक्कीस दिनों तक एकान्त रचनात्मक प्रवास का अवसर पाया था। प्रवास के दौरान प्रतिदिन गद्य एवं कविताएँ लिखी थी।

पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘ आविन्यों ‘ (Aavinyon) में अशोक वाजपेयी ने अपनी यात्रा आविन्यों के क्रम में हुए अनुभवों का वर्णन किया है।
दक्षिण फ्रांस में रोन नदी के किनारे अवस्थित आविन्यों नामक एक पुरानी शहर है, जो कभी पोप की राजधानी थी। अब गर्मियों में फ्रांस तथा यूरोप का एक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय रंग-समारोह का आयोजन हर वर्ष होता है।

रोन नदी के दूसरी ओर एक नई बस्ती है, जहाँ फ्रेंच शासकों ने पोप की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए एक किला बनवाया था। बाद में, वहाँ ला शत्रूज’ काथूसियन सम्प्रदाय का एक ईसाई मठ बना, जिसका धार्मिक उपयोग चौदहवीं शताब्दी से फ्रेंच क्रांति तक होता रहा।

यह सम्प्रदाय मौन में विश्वास करता है, इसलिए सारा स्थापत्य मौन का ही स्थापत्य था। इन इमारतों पर साधारण लोगों ने कब्जा कर लिया था और रहने लगे थे।

यह केन्द्र आजकल रंगमंच और लेखन से जुड़ा हुआ है। वहाँ संगीतकार, अभिनेता तथा नाटककार पुराने-ईसाई चैम्बर्स में रचनात्मक कार्य करते हैं।
सप्ताह के पाँच दिनों में शाम को सबको एक स्थान पर रात का भोजन करने की व्यवस्था है। अन्य दिन नास्ता एवं भोजन खुद बनाकर खाते हैं। यह बेहद शांत स्थान है। लेखक को फ्रेंच सरकार के सौजन्य से ‘ला शत्रूज’ में रहकर कुछ काम करने का मौका मिला था। इसलिए यह अपने साथ हिंदी का एक टाइपराइटर, तीन-चार किताबें तथा कुछ संगीत के टेप्स लेते गये थे।

उन्नीस दिनों के प्रवास में इन्होंने 35 कविताएँ तथा 27 गद्य रचना रचनाएँ लिखी। लेखक को यह स्थान काव्य की दृष्टी से अति उपयुक्त लगा। इसी विशेषता के कारण उसने इतने कम समय में इतने अधिक लिख लिया।

उसने यह अनुभव किया कि यहाँ की हर चीझों में अद्भुत सजीवता है। इसी सजीवता, मनोरमता के फलस्वरूप इतनी कम अवधि में 35 कविताएँ तथा 27 गद्य की रचनाएँ की।

’नदी के किनारे नदी है’ तात्पर्य यह है कि एक तरफ एक छोटा सा गाँव ’वीरनब्ब’ और दूसरी तरफ आविन्यों अपनी सहजता, सुन्दरता, नीरवता तथा संवेदनशीलता पर्यटकों को इस प्रकार भाव-विभोर करते हैं कि रोन नदी का कल-कल, छल-छल धारा स्थिर किंतु किनारा शांतिमान् प्रतित होता है।

लेखक स्वयं स्वीकार करता है कि नदी के समान ही कविता सदियों से हमारे साथ रही है। जिस प्रकार जहाँ-तहाँ से जल आकर नदि में मिलते रहते हैं और सागर में समाहित होते रहते हैं, उसी प्रकार कवि के हृदय में भिन्न-भिन्न प्रकार के भाव उठते रहते हैं और वहीं भाव काव्य रूप में परिणत होते रहते हैं।

निष्कर्षतः न तो नदी रिक्त होती है और न ही कविता शब्द रिक्त होती है । तात्पर्य यह कि सहृदय व्यक्ति प्राकृतिक सुन्दरता के आकर्षण से बच नहीं सकते।

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Jit Jit Main Nirkhat Hun – हिंदी कक्षा 10 जित-जित मैं निरखत हूँ

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इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पाठ 8 (Jit Jit Main Nirkhat Hun) “जित-जित मैं निरखत हूँ” के व्याख्या को पढ़ेंगे, यह पाठ एक साक्षत्कार है जिसमें पंडित बिरजू महाराज अपनी शिष्या रश्मि वाजपेयी को अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं के बारे में बताते हैं |

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8. जित-जित मैं निरखत हूँ
(Jit Jit Main Nirkhat Hun)
(पंडित बिरजू महाराज से एक साक्षात्कार)
लेखक परिचय
लेखक का नाम- पंडित बिरजू महाराज
जन्म-4 फरवरी 1938 ई0, लखनऊ

यह अपने माता-पिता के अंतिम संतान थे। तीन बहनों के लम्बे अंतराल के बाद इनका जन्म हुआ था।
पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ ‘जित-जित मैं निरखत हुँ’ ( Jit Jit Main Nirkhat Hun ) पंडित बिरजू महाराज की शिष्या रश्मि वाजपेयी से हुई बातचीत का संपादित अंश है।

पाठ का सारांश

 प्रस्तुत पाठ “जित-जित मैं निरखत हूँ” ( Jit Jit Main Nirkhat Hun ) में साक्षात्कार के माध्यम से पंडित बिरजू महाराज की जीवनी, उनका कला-प्रेम तथा नृत्यकला के क्षेत्र में उनकी महान उपलब्धि पर प्रकाश डाला गया है।

बिरजू महाराज का जन्म 4 फरवरी,1938 ई0 को लखनऊ के जफरीन अस्पताल में हुआ था। ये अपने माता-पिता के अंतिम संतान थे। इनका जन्म तीन बहनों के लम्बे अंतराल के बाद हुआ था। इनके जन्म के समय इनके माता की उम्र 28 वर्ष के करीब थी तथा बड़ी बहन 15 साल की थी। इनके पिता प्रख्यात नर्तक थे। इन्हें नृत्यकला विरासत में मिली थी। ये अपने पिताजी के साथ रामपुर के नवाब के दरबार में नृत्य-कार्यक्रम में जाया करते थे।

छः साल के उम्र में ही बिरजूजी नवाब साहब के प्रिय हो गये। इसलिए इन्हें अपने पिता के साथ वहाँ जाना पड़ता था तथा नाचना पड़ता था। इतनी कम उम्र में ही इनकी तनख्वाह निश्चित कर दी गई थी। इस नौकरी से छुट्टी पाने की इच्छा प्रकट की तो नवाब साहब ने फरमान जारी कर दिया कि यदि लड़का नहीं रहेगा तो पिता को भी नौकरी से हटा दिया जायेगा।

इस आदेश से पिताजी ने खुश होकर हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया– तथा मिठाइयाँ भी बाँटी।

बिरजू महारज कहते हैं कि उन्हें नृत्य कला की तालीम कुछ क्लास में, कुछ लोगों द्वारा कहते, सुनते तथा देखकर सिखा। इसके साथ ही जहाँ-  जहाँ पिताजी जाते थे, उनके साथ जाया करता था और कार्यक्रम में भाग लेता था।

पिता की मृत्यु 54 साल की उम्र में लु लगने के कारण हो गई। वे सहनशील व्यक्ति थे। अपना दुःख किसी को कहना पसंद नहीं करते थे। वे अतिप्रिय व्यक्ति थे।

पिता की मृत्यु के बाद माँ को दुःखी देखकर उदास रहने लगा, क्योंकि उनके मरते ही खराब दीन शुरु हो गये। भोजन-वस्त्र का घोर अभाव हो गया। शम्भू चाचा के शौकिया मिजाज के कारण कर्ज में डुब गये। उसी समय चाचा जी के दो बच्चों की मृत्यु भी हो गई। बच्चों की इस मृत्यु से हताश होकर वे अम्मा को डाइन कहने लगे। इसलिए मैं माँ को लेकर नेपाल चला गया। इसके बाद मुजफ्फरपुर गया।  फिर अम्मा बाँस बरेली इसलिए ले गई कि वहाँ नाचेगा तो इनाम मिलेगा।

ऐसी हालत में आर्यानगर में 50 रुपये के दो ट्यूशन की। इस प्रकार 50 रुपये में काम करके किसी तरह पढ़ता रहा। सीताराम नामक लड़के को डांस सिखाता और वह उन्हें पढ़ा देता था। अर्थाभाव में ठीक ढंग से पढ़ाई नहीं हो पाई। नौकरी भी नहीं मिलती थी। पिताजी के समय से ही चाचाजी अलग रहते थे। दादी के साथ उनका अच्छा व्यवहार नहीं था।

चौदह साल की उम्र में पुनः लखनऊ आ गया और कपिला जी के सहयोग से संगीत भारती में काम करना आरंभ कर दिया। वहाँ निर्मला जी से मुलाकात हुई। उन्होनें कथक डांस करने की सलाह दी। मैंने नौकरी छोड़कर भारतीय कला मंदिर में क्लास करने लगा। वहाँ पूरे मन से तालीम सिखी। मेरी तालीम देखकर महाराज की तरफ वहाँ की लड़कीयाँ आकर्षित होने लगी।

ऑल बंगाल म्यूजिक कांफ्रेंस, कलकत्ता के नाच मेरे भाग्योदय की। वहाँ काफी प्रसंशा मिली। तमाम अखबारों ने मेरे कार्यक्रम की प्रसंशा की। ईश्वर की कृपा से कलकत्ता, बम्बई, मद्रास सभी जगह मेरी इज्जत होने लगी।

27 साल की उम्र में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड मिला। मैं जर्मनी, जापान, हांगकांग, लाओस, बर्मा की यात्रा की, लेकिन एक बार अमेरिका में दो-चार जगह कार्यक्रम प्रस्तुत किया तो एक जगह वहाँ हाँफते हुए एक आदमी ने मेरे पास आया। मैंने कहा- मेरे साथ फोटो खिंचाना है क्या तुम्हें ? यस-यस अब लड़का बेहाल हो गया। इस प्रकार पाकिस्तान में कोई खातून थीं पूरे हॉल में उनकी आवाज आई सुब्हान अल्लाह। मतलब मेरे नाच के आशिक बहुत हैं। मेरे आशिक भी हैं।

बिरजू महाराज कहते हैं कि मुझे ऊँचाई तक ले जाने में अम्मा का बहुत बड़ा हाथ है। वहीं बुजुर्गों की तारीफ करके मुझे उत्साहित करती थीं। वहीं वाकई में गुरु और माँ थी।

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हिंदी कक्षा 10 परम्परा का मूल्यांकन – Parampara Ka Mulyankan Class 10 Hindi

parampara ka mulyankan

इस पोस्ट में हम बिहार बोर्ड के वर्ग 10 के पाठ 7 (Parampara Ka Mulyankan) “परंपरा के मूल्यांकन” के व्याख्या को पढ़ेंगे, जिसके लेखक रामबिलास शर्मा है | इस पाठ में साहित्य के परंपरा के बारे में बताया गया है |

parampara ka mulyankan

7.परंपरा का मूल्यांकन
(Parampara Ka Mulyankan)
लेखक परिचय
लेखक का नाम- रामविलास शर्मा
जन्म- 10 अक्टूबर 1912 ई०, उन्नाव जिला के ऊँचा गाँव सानी में
मृत्यु- 30 मई 2000 ई०

इन्होनें अंग्रजी विषय में लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में एम० ए० तथा पी० एच० डी० की उपाधि प्राप्त की।
इन्होनें कुछ समय तक कन्हैया लाल, माणिकलाल मुंशी हिंदी विद्यापीठ, आगरा में निदेशक पद को सुशोभित किया।

रचनाएँ- निराला की साहित्यसाधना, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद और उनका युग, भाषा और समाज, भारत में अंग्रेजी और मार्क्सवाद, इतिहास दर्शन, घर की बात आदि।

पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ ‘परम्परा का मूल्यांकन’ इसी नाम की पुस्तक से संकलित है। इसमें लेखक ने समाज, साहित्य तथा परंपरा से संबंधों की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक मीमांसा पर विचार किया है। यह निबंध परंपरा के ज्ञान, समझ और मूल्यांकन का विवेक जगाता साहित्य की सामाजिक विकास में क्रांतिकारी भूमिका को भी स्पष्ट करता चलता है। अतः यह निबंध नई पीढ़ी में परंपरा और आधुनिकता को युग के अनुकूल नई समझ विकसित करने में सराहनीय सहयोग करता है।

पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘परम्परा का मूल्यांकन’ ख्यातिप्राप्त आलोचक रामविलास शर्मा द्वारा लिखित है। इसमें लेखक ने प्रगतिशील रचनाकारों के विषय में अपना विचार प्रकट किया है।

लेखक का मानना है कि क्रांतिकारी साहित्य-रचना करनेवालों के लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान होना अति आवश्यक है क्योंकि साहित्यिक-परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है और साहित्य की धारा बदली जा सकती है। तथा नए प्रगतिशील साहित्य का निर्माण किया जा सकता है।

मनुष्य आर्थिक जीवन के अलावा एक प्राणि के रूप में भी जीवन व्यतीत करता है। साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है।
साहित्य में विकास प्रक्रिया चलती रहती है। जैसे-जैसे समाज का विकास होता है वैसे-वैसे साहित्य का भी। व्यवहार में देखा जाता है कि 19 वीं तथा 20 वीं सदी के कवि क्या भारत के, क्या यूरोप के, ये तमाम कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं, उनसे सिखते हैं और नई परम्पराओं को जन्म देते हैं।

दूसरों को नकल करके लिखा गया साहित्य अधम कोटि का होता है और सांस्कृतिक असमर्थता का सूचक होता है। लेकिन उतम कोटि का साहित्य दूसरी भाषा में अनुवाद किए जाने पर अपना कलात्मक-सौन्दर्य खो देता है। तात्पर्य यह कि ऐसे साहित्य से कला की आवृति नहीं हो सकती। जैसे- अमेरिका अथवा रूस ने एटम बम बनाए, लेकिन शेक्सपियर के नाटकों जैसी चीज दुबारा लेखन इंगलैड में भी नहीं हुआ।
19वीं सदी में शेली तथा वायरन ने अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले यूनानीयों को एकात्मकता की पहचान करने में सहयोग किया था।

भारतीयों ने भी अपनी स्वाधीनता संग्राम के दौरान इस एकात्मकता को पहचाना।
मानव समाज बदलता है और अपनी अस्मिता कायम रखता है, क्योंकि जो तत्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करता है। साहित्य पंरपरा के ज्ञान के कारण ही पूर्वी एवं पश्चिमी बंगाल के लोग सांस्कृतिक रूप से एक हैं। कोई भी देश बहुजातिय तथा बहुभाषी होने के बावजूद जब उस देश पर कोई मुसीबत आती है तो उस समय वह राष्ट्रीय अस्मिता समर्थ प्रेरक बनकर लोगों को मुसीबत से लड़ने में सहयोग करती है।

जैसे- हिटलर के आक्रमण के समय रूसी जाति ने बार-बार अपने साहित्य परंपरा का स्मरण किया। टॉल्स्टाय सोवियत समाज में पढ़े जाने वाले साहित्य के महान साहित्यकार हैं तो रूसी जाति के अस्मिता को सुदृढ़ एवं पुष्ट करने वाले साहित्यकार भी हैं।

1917 ई0 के रूसी क्रांति के पहले वहाँ रूसी तथा गैर-रूसी थे, किन्तु इस क्रांति के बाद रूसी तथा गैर रूसी जातियों के संबंधों में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। सभी जातियाँ एक हो गई। फिर भी जातियों का मिला-जुला इतिहास जैसा भारत का है, वैसा सोवियत संघ का नहीं है।
यूरोप के लोग यूरोपियन संस्कृति की बात करते हैं, लेकिन यूरोप कभी राष्ट्र नहीं बना।

राष्ट्रीयता की दृष्टी से भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ राष्ट्रीय एक जाति द्वारा दूसरी जाति पर थोपी नहीं गई, बल्कि वह संस्कृति तथा इतिहास की देन है।
इस संस्कृति के निर्माण में देश के कवियों का महान योगदान है। रामायण एवं महाभारत इस देश की संस्कृति की एक कड़ी है। जिसके बिना भारतीय साहित्य की एकता भंग हो जाएगी।

लेखक का तर्क है कि यदि जारशाही रूस समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर नवीन राष्ट्र के रूप में पुनर्गठित हो सकता है तो भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर यहाँ की राष्ट्रीय अस्मिता पहले से कितना पुष्ट होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। अतः समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है।

पूँजीवादी व्यवस्था में शक्ति का अपवाह होता है। देश के साधनों का समुचित उपयोग समाजवादी व्यवस्था में ही होता है।
देश की निरक्षर निर्धन जनता जब साक्षर होगी तो वह रामायण तथा महाभारत का ही अध्ययन नहीं करेगी, अपितु उत्तर भारत के लोग दक्षिण

भारत की कविताएँ तथा दक्षिण भारत के लोग उत्तर भारत की कविताएँ बड़े चाव से पढ़ेंगे। दोनों में बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान होगा। तब अंग्रेजी भाषा प्रभुत्व जमाने की भाषा न होकर ज्ञानार्जन की भाषा होगी।

हम अंग्रेजी ही नहीं, यूरोप की अनेक भाषाओं का अध्ययन करेंगे। एशिया के भाषाओं के साहित्य से हमारा गहरा परिचय होगा, तब मानव संस्कृति की विशाल धारा में भारतीय साहित्य की गौरवशाली परम्परा का नवीन योगदान होगा।

हिंदी कक्षा 10 बहादुर – Bahadur class 10 Hindi

bahadur

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड वर्ग 10 के हिन्‍दी के पाठ 6 (Bahadur class 10 Hindi) “बहादुर” के व्याख्या को पढेंगे, जिसके लेखक अमरकांत हैं।

Bahadur class 10 Hindi

 

6. बहादुर (Bahadur class 10 Hindi)

लेखक परिचय
लेखक का नाम- अमरकान्त
जन्म- 1 जुलाई 1925 ई0, बलिया जिले के नगरा गाँव में
मृत्यु- 17 फरवरी 2014 ई0 (उम्र 89 वर्ष), इलाहाबाद

इन्होनें हाई स्कुल की शिक्षा बलिया में पाई। स्वाधीनता संग्राम में हाथ बटाने के कारण 1946 ई० में सतीशचन्द्र कॉलेज बलिया से इंटरमीडिएट किया। इसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी० ए० की परीक्षा पास करने के बाद आगरा के दैनिक पत्र ’सैनिक’ के संपादकीय विभागों से संबंध रहे।

रचनाएँ- जिन्दगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र-मिलन, कुहासा, सूखा पत्ता, आकाशपक्षी, कोले उजले दिन, सुखजीवी, बीच की दीवार, ग्राम सेविका। इन्होनं ’वानरसेना’ नामक एक बाल उपन्यास भी लिखा है।

पाठ परिचय- प्रस्तुत कहानी ’बहादुर’ में शहर के एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार में काम करने वाले एक नेपाली गँवई गोरखे बहादुर की कहानी वर्णित है। बहादुर एक नौकरी पेशा परिवार में आत्मीयता के साथ सेवाएँ देने के बाद परिवार के सदस्यों के दुर्व्यवहार के कारण अपने स्वच्छंद निश्छल स्वभाववश स्वच्छंदता के साथ नौकरी छोड़ देता है। उसकी आत्मीयता तथा त्याग परिवार के हर सदस्य में एक कसकती अन्तर्व्यथा पैदा कर देती है, क्योंकि घर के मुखिया के झूठी सान तथा क्रूर व्यवहार का पोल खुल जाता है।

पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ’बहादुर’ अमरकान्त के द्वारा लिखा है। इसमें लेखक ने बहादुर नामक एक नेपाली लड़का के रूप-रंग, स्वभाव कर्मनिष्ठा, त्याग तथा स्वाभिमान का मार्मिक वर्णन किया है।

एक दिन लेखक ने बारह-तेरह वर्ष की उम्र के ठिगना चकइठ शरीर, गोरे रंग तथा चपटा मुँह वाले लड़के को देखा। वह सफेद नेकर, आधी बाँह की सफेद कमीज और भूरे रंग का पुराना जूता पहने था। उसके गले में स्काउटों की तरह एक रूमाल बँधा था। परिवार के सभी सदस्य उसे पैनी दृष्टि से देख रहे थे। लेखक को नौकर रखना अति आवश्यक हो गया था। क्योंकि उनके भाई तथा रिश्तेदारों के घर नौकर थे।

उनकी भाभियाँ रानी की तरह चारपाइयाँ तोड़ती थी, जबकि उनकी पत्नी निर्मला दिन से लेकर रात तक परेशान रहती थी। इसलिए लेखक के साले ने उनके घर नौकर के लिए लाया था। वह नेपाल तथा बिहार की सीमा पर रहता था। उसका बाप युद्ध में मारा गया था। माँ ही सारे परिवार का भरण-पोषण करती थी। वह गुस्सैल स्वभाव की थी। वह चाहती थी कि उसका बेटा घर के काम में हाथ बटाए, किंतु काम करने के नाम पर वह जंगलों में भाग जाता था, जिस कारण माँ उसे मारती थी।

एक दिन चराने ले गये पशुओं में से उस भैंस को उसने बहुत मारा, जिसको उसकी माँ उसे बहुत प्यार करती थी। मार खाकर भैंस भागीदृभागी उसकी माँ के पास पहुंच गई। भैंस के मार का काल्पनिक अनुमान करके माँ ने उसकी निर्दयता से पिटाई कर दी।

लड़के का मन माँ से फट गया। उसने माँ के रखे रूपयों में से दो रूपये निकाल लिये और वहाँ से भाग गया तथा छः मील दूर बस-स्टेशन पहुँच गया। वहाँ उसकी भेंट लेखक से होती है। लेखक ने उसका नाम पूछा। उसने अपना नाम दिलबहादुर बताया। लेखक तथा उसकी पत्नी ने उसे काम के ढंग के बारे में बताया, साथ ही, मीठे वचनों से उसका दिल भर दिया। निर्मला ने उसके नाम से ’दिल’ हटा दिया। वह अब दिल बहादुर से बहादुर बन गया।

बहादुर अति हँसमुख तथा मेहनती लड़का था। वह हर काम हँसते हुए कर लेता था। लेखक की पत्नी निर्मला भी उसका पूरा ख्याल रखती थी। उसकी वजह से घर का उत्साहपूर्ण वातावरण था।

निर्मला ऐसे नौकर पाकर अपने-आप के धन्य समझती थी। इसलिए वह आँगन में खड़ी होकर पड़ोसियों को सुनाते हुए कहती थी, बहादुर आकर नास्ता क्यों नहीं कर लेते ? मैं दूसरी औरतों की भाँति नहीं हुँ। मैं तो नौकर-चाकर को अपने बच्चों की तरह रखती हूँ।

बहादुर भी घर का सारा काम करने लगा, जैसे- सवेरे उठ कर नीम के पेड़ से दातुन तोड़ना, घर की सफाई करना, कमरों में पोंछा लगाना, चाय बनाना तथा पिलाना, दोपहर में कपड़े धोना, बर्तन मलना आदि।

 बहादुर सिधा-साधा तथा रहमदिल बालक था। अपनी मालकिन की तबीयत ठीक नहीं रहने पर काम न करने का आग्रह करता था और दवा खाने का समय होने पर वह भालू की तरह दौड़ता हुआ कमरे में जाता और दवाई का डिब्बा निर्मला के सामने लाकर रख देता था।

वह कृतज्ञ बालक था। निर्मला के पूछने पर उसने कहा कि माँ बहुत मारती थी, इसलिए माँ की याद नहीं आती है, परन्तु माँ के पास पैसा भेजने के संबंध में उसका उत्तर था- माँ-बाप का कर्जा तो जन्म भर भरा जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि वह मस्त और नेक इन्सान था।

उसकी मस्ती का पता तब चलता था जब रात का काम समाप्त करने के बाद एक टूटी खाट पर बैठ जाता तथा नेपाली टोपी पहनकर आइना में बंदर की तरह मुँह देखता और कुछ देर तक खेलने के बाद वह धीमे स्वर में गुनगुनाने लगता था। उसके पहाड़ी गाने से घर में मीठी उदासी फैल जाती थी। उसकी गीत को सुनकर लेखक को लगता कि जैसे कोई पहाड़ की निर्जनता में अपने किसी बिछड़े हुए साथी को बुला रहा हो।

लेखक अपने को ऊँचा तथा मोहल्ले के लोगों को तुच्छ मानने लगे, क्योंकि उनके यहाँ नौकर था। बहादुर की वजह से घर के सभी लोग आलसी हो गए। मामूली काम के लिए बहादुर की पुकार होने लगी। जिससे बहादुर को घर में हमेशा नाचना पड़ता था। बड़ा लड़का किशोर ने अपना सारा काम बहादुर को सौंप दिए। वह नौकर को बड़े अनुशासन में रखना चाहता था। इसलिए काम में कोई गड़बड़ी होती तो उसको बुरी-बुरी गालियाँ देता और मारता भी था।

समय बीतने के साथ ही लेखक के मनोस्थिति भी बदल जाती है। अब बहादुर को नौकर की दृष्टि से देखा जाता है। उसे अपना भोजन स्वयं बनाने के लिए मजबूर किया जाता है। रोटी बनाने से इंकार करने पर निर्मला से मार खाता है।

इतना हि नहीं, कभी-कभी एक गलती के लिए निर्मला तथा किशोर दोनों मारते थे, जिस कारण बहादुर से अधिक गलतियाँ होने लगी। लेखक यह सोचकर चुप रहने लगे कि नौकर-चाकर के साथ मारपीट होना स्वभाविक है।

 इसी बीच एक दूसरी घटना घट जाती है। लेखक के घर कोई रिश्तेदार आता है। उनके भोजन के लिए रोहु मछली और देहरादूनी चावल मंगाया जाता है। नास्ता- पानी के बाद बातों की जलेबी छनने लगती है। अचानक उस रिश्तेदार की पत्नी रूपये गुम होने की बात कहकर घर में भूचाल उत्पन्न कर देती है। बहादुर के सिर दोष मढ़ा जाता है।

लेखक को विश्वास नहीं होता, क्योंकी बहादुर ने जब इधर-उधर पैसे पड़ा देखता तो उठाकर निर्मला के हाथ में दे दिया करता था।

किंतु रिश्तेदार के यह कहने पर की नौकर-चाकर चोर होते हैं, लेखक ने उससे कड़े स्वर में पुछा- तुमने यहाँ से रूपये उठाये थे ? उसने निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया, ’नहीं बाबुजी’। बहादुर का मुँह काला पड़ गया, लेखक ने उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया कि ऐसा करने से बता देगा। उसकी आँखों से आँसु गिरने लगे। इसी समय रिश्तेदार साहब ने बहादुर का हाथ पकड़कर दरवाजे की ओर घसीट कर ले गए, जैसे पुलिस को देने जा रहे हों। फिर भी उसने पैसे लेने की बात स्वीकार नहीं की तो निर्मला भी अपना रोब जमाने के लिए दो-चार तमाचे जड़ दिए।

इस घटना के बाद बहादुर काफी डाँट-मार खाने लगा। किशोर उसकी जान के पिछे पड़ गया था। एक दिन बहादुर वहाँ से भाग निकला।

लेखक जब दफ्तर से लौटा तो घर में उदासी छाई हुई थी। निर्मला चुपचाप आँगन में सिर पर हाथ रख कर बैठी थी। आँगन गंदा पड़ा था। बर्तन बिना मले रखे हुए थे। सारा घर अस्त-व्यस्त था। बहादुर के जाते ही सबके होश उड़ गये थे। निर्मला अपने बदकिस्मती का रोना रो रही थी।

लेखक बहादुर का त्याग देखकर भौंचक्का रह जाता है, क्योंकि उसने अपना तनख्वाह, वस्त्र, विस्तर तथा जुते सब कुछ वहीं छोड़ गया था, जिससे बहादुर के अंदर के दर्द का पता चलता है। वह गरीब होते हुए भी आत्म अभिमानी था। मार तथा गाली-गलौज के कारण ही वह माँ से दुखी था तथा उसने घर का त्याग किया था।

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हिंदी कक्षा 10 नागरी लिपि – Nagri Lipi class 10 Hindi

Nagri Lipi

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड वर्ग 10 के हिन्‍दी के पाठ पांच (Nagri Lipi) “नागरी लिपि” के व्याख्या को पढेंगे, जिसके लेखक गुणाकर मुले हैं।

Nagri Lipi

लेखक परिचय
लेखक का नाम- गुणाकर मुले
जन्म- 3 जनवरी, 1935 ई0, महाराष्ट्र के अमरावती जिला में
मृत्यु- 16 अक्टूबर, 2009 ई0

इन्होनें अपनी शिक्षा-दीक्षा ग्रामीण परिवेश और माराठी भाषा में पाई। मिडिल स्तर तक मराठी में पढ़ाई करने के बाद ये वर्धा चले गये और वहाँ उन्होनें दो वर्षों तक नौकरी की तथा हिन्दी और अंग्रेजी का अध्ययन किया। इसके बाद इलाहाबाद में गणित विषय से एम0 ए0 किया।

रचनाएँ- अक्षरों की कहानी, भारतः इतिहास और संस्कृति, प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक, सौर मंडल, सूर्य, नक्षत्र लोक, भारतीय लिपियों की कहानी, भारतीय विज्ञान की कहानी आदि।

पाठ परिचय- प्रस्तुत पाठ गुणाकर मुले की पुस्तक ’भारतीय लिपियों की कहानी’ से लिया गया है। इसमें हिन्दी की लिपि नागरी या देवनागरी के ऐतिहासिक रूपरेखा के बारे में बताया गया है।

पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ’नागरी लिपि’ गुणाकर मुले के द्वारा लिखित है। इसमें लेखक ने देवनागरी लिपि की उत्पति, विकास एवं व्यवहार पर अपना विचार व्यक्त किया गया है। लेखक का कहना है कि जिस लिपि में यह पुस्तक छपी है, उसे नागरी या देवनागरी लिपि कहते हैं। इस लिपि की टाइप लगभग 250 वर्ष पहले बनी। इसके विकास से अक्षरों में स्थिरता आ गई।

हिन्दी तथा इसकी विविध बोलियाँ, संस्कृत एवं नेपाली आदि इसी लिपि में लिखी जाती है। देवनागरी के संबंध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व में संस्कृत एवं प्राकृत की पुस्तकें प्रायः इसी लिपि में छपती है।

देश में बोली जाने वाली भिन्न-भिन्न भाषाएँ तथा बोलियाँ भी इसी लिपि में लिखी जाती है। तमिल, मलयालम, तेलुगु एवं कन्नड़ की लिपियों में भिन्नता दिखाई पड़ती है, लेकिन ये लिपियाँ भी नागरी की तरह ही प्राचीन ब्राह्मी लिपि से विकसित हुई है।

लेखक का कहना है कि नागरी लिपि के आरंभिक लेख हमें दक्षिण भारत से ही मिले हैं। यह लिपि नंदिनागरी लिपि कहलाती थी। दक्षिण भारत में तमिल-मलयालम और तेलुगु-कन्नड़ लिपियों का स्वतंत्र विकास हो रहा है, फिर भी कई शासकों ने नागरी लिपि का प्रयोग किया है। जैसे- ग्यारहवीं सदी में राजराज और राजेन्द्र जैसे प्रतापी चोल राजाओं के सिक्कों पर नागरी अक्षर अंकित है तो बारहवीं सदी में केरल के शासकों के सिक्कों पर “विर केरलस्य’।

इसी प्रकार नौवीं सदी के वरगुण का पलियम ताम्रपत्र नागरी लिपि में है तो ग्यारहवीं सदी में इस्लामी शासन की नींव डालने वाले महमूद गजनवी के चाँदी के सिक्कों पर भी नागरी लिपि के शब्द मिलते हैं।

गजनवी के बाद मुहम्मद गोरी, अलाउदीन खिलजी, शेरशाह आदि शासकों ने भी सिक्कों पर नागरी शब्द खुदवाए। अकबर के सिक्कों पर तो नागरी लिपि में ’रामसीय’ शब्द अंकित है। तात्पर्य है कि नागरी लिपि का प्रचलन ईसा की आठवीं-नौवीं सदी से आरंभ हो गया था।

 लेखक ने लिपि के पहचान में कहा है कि ब्राह्मी तथा सिद्धम् लिपि अक्षर तिकोन है जबकि नागरी लिपि के अक्षरों के सिरों पर लकिर की लम्बाई और चौड़ाई एक समान है।

प्राचीन नागरी लिपि के अक्षर आधुनिक नागरी लिपि से मिलते-जुलते हैं। इस प्रकार दक्षिण भारत में नागरी लिपि के लेख आठवीं सदी से तथा उत्तर भारत में नौवीं सदी से मिलने लग जाते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि इस नई लिपि को नागरी, देवनागरी तथा नंदिनागरी क्यों कहते हैं ? —नागरी शब्द के उत्पति के संबंध में विद्वानों का मत एक नहीं है। कुछ विद्वानों का मत है कि गुजरात के नागर ब्राह्मण ने इस लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग किया था, इसलिए इसका नाम नागरी पड़ा, किंतु कुछ विद्वानों के मत के अनुसार अन्य नगर तो मात्र नगर है, परन्तु काशी को देवनगरी माना जाता है, इसलिए इसका नाम देवनागरी पड़ा।

अल्बेरूनी के अनुसार 1000 ई0 के आसपास नागरी शब्द अस्तित्व में आया। इतना निश्चित है कि नागरी शब्द किसी नगर अथवा शहर से संबंधित है। दूसरी बात यह है कि उत्तर भारत की स्थापत्य-कला की विशेष शैली को ’नागर शैली’ कहा जाता था। यह नागर या नागरी उत्तर भारत के किसी बड़े नगर से संबंध रखता था। उस समय    उत्तर भारत में प्राचीन पटना सबसे बड़ा नगर था। साथ ही गुप्त शासक चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ’विक्रमादित्य’ का व्यक्तिगत नाम ’देव’ था, संभव है कि गुप्तों की राजधानी पटना को ’देवनगर कहा गया हो और देवनगर की लिपि होने के कारण देवनागरी नाम दिया गया हो।

अन्ततः लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ईसा के आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक यह लिपि सार्वदेशिक हो गई थी, इसलिए इसके नामकरण के विषय में कुछ कहना संभव नहीं लगता।

मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति नागरी लिपि में है। धारा नगरी का परमार शासक भोज अपने विद्यानुराग के लिए इतिहास प्रसिद्ध है। 12 वीं सदी के बाद भारत के सभी हिंदू शासक तथा कुछ इस्लामी शासकों ने अपने सिक्कों पर नागरी लिपि अंकित किए हैं।

हिंदी कक्षा 10 नाख़ून क्यों बढ़ते हैं – Nakhun Kyon Badhte Hain

Nakhun Kyon Badhte Hain

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड वर्ग 10 के हिन्‍दी के पाठ 4 (Nakhun Kyon Badhte Hain) ‘ नाखून क्‍यों बढ़ते हैंके सारांश को पढेंगे, जिसके लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।

Nakhun Kyon Badhte Hain

4. नाखून क्यां बढ़ते हैं
लेखक परिचय
लेखक का नाम- हजारी प्रसाद द्विवेदी
जन्म- 19 अगस्त 1907 ई0, उत्तर प्रदेश के
बलिया जिले के ‘आरत दूबे का छपरा‘
नामक गाँव
मृत्यु- 19 मई 1979 ई0
पिता- श्री अनमोल द्विवेदी
माता- श्रीमति ज्योतिष्मती

इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही संस्कृत के माध्यम से हुई। उच्च शिक्षा के लिए ये काशी हिन्दु विश्वविद्यालय गए। वहाँ से इन्होनें ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की। कबीर पर गहन अध्ययन करने करने के कारण 1949 ई0 में लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें पी० एच० डी० की मानक उपाधि से सम्मानित किया। 1957 ई0 में भारत सरकार के द्वारा इन्हें पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया।

साहित्यिक रचनाएँ- अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता, वाणभट्ट की आत्म कथा, पुर्ननवा, चारुचन्द्रलेख, अनामदास का पोथा, हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकाश, हिन्दी साहित्य की भूमिका आदि।

पाठ परिचय- प्रस्तुत निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं‘ में मनुष्य की मनुष्यता का साक्षात्कार कराया गया है। लेखक के अनुसार नाखुनों का बढ़ना मनुष्य की पाशवी वृति का प्रतिक है और उन्हें काटना या न बढ़ने देना उसमें निहित मानवता का। आज से कुछ ही लाख वर्ष पहले मनुष्य जब वनमानुष की तरह जंगली था, उस समय नख ही उसके अस्त्र थे। आधुनिक मनुष्य ने अनेक विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों का निमार्ण कर लिया है। अतः नाखून बढ़ते हैं तो कोई बात नहीं, पर उन्हें काटना मनुष्यता की निशानी है। हमें चाहिए कि हम अपने भीतर रह गए पशुता के चिन्हों को त्याग दें और उसके स्थान पर मनुष्यता को अपनाएँ।

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पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं‘ हजारी प्रसाद द्विवेदी के द्वारा लिखा गया है। इसमें लेखक ने नाखूनों के माध्यम से मनुष्य के आदिम बर्बर प्रवृति का वर्णन करते हुए उसे बर्बरता त्यागकर मानवीय गुणों को अपनाने का संदेश दिया है। एक दिन लेखक की पुत्री ने प्रश्न पूछा कि नाखून क्यों बढ़ते हैं ? बालिका के इस प्रश्न से लेखक हतप्रभ हो गए। प्रतिक्रिया स्वरूप लेखक ने इस विषय पर मानव-सभ्यता के विकास पर अपना विचार प्रकट करते हुए आज से लाखों वर्ष पूर्व जब मनुष्य जंगली अवस्था में था, तब उसे अपनी रक्षा के लिए हथियारों की आवश्यकता थी। इसके लिए मनुष्य ने अपनी नाखूनों को हथियार स्वरूप प्रयोग करने के लिए बढ़ाना शुरू किया, क्योंकि अपने प्रतिद्वन्द्वियों से जूझने के लिए नाखून ही उसके अस्त्र थे। इसके बाद पत्थर, पेड़ की डाल आदि का व्यवहार होने लगा। इस प्रकार जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया, मनुष्य अपने हथियारों में भी विकास करने लगा।

उसे इस बात पर हैरानी होती है कि आज मनुष्य नाखून न काटने पर अपने बच्चों को डाँटता है, किन्तु प्रकृति उसे फिर भी नाखून बढ़ाने को विवश करती है। मनुष्य को अब इससे कई गुना शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र मिल चूके हैं, इसी कारण मनुष्य अब नाखून नहीं चाहता है।
लेखक सोचता है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है ? मनुष्यता की ओर अथवा पशुता की ओर। अस्त्र-शस्त्र बढ़ाने की ओर अथवा अस्त्र-शस्त्र घटाने की ओर। आज के युग में नाखून पशुता के अवशेष हैं तथा अस्त्र-शस्त्र पशुता के निशानी है।

इसी प्रकार भाषा में विभिन्न शब्द विभिन्न रूपों के प्रतिक हैं। जैसे- इंडिपेंडेंस शब्द का अर्थ होता है अन-धीनता या किसी की अधीनता की अभाव, किंतु इसका अर्थ हमने स्वाधीनता, स्वतंत्रता तथा स्वराज ग्रहण किया है।

यह सच है कि आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। उपकरण नए हो गए हैं, उलझनों की मात्रा भी बढ़ गई है, परंतु मूल समस्याएँ बहुत अधिक नहीं बदली है। लेकिन पुराने के मोह के बंधन में रहना भी सब समय जरूरी नहीं होता। इसलिए हमें भी नएपन को अपनाना चाहिए। लेकिन इसके साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नये की खोज में हम अपना सर्वस्व न खो दें। क्योंकि कालिदास ने कहा है कि ‘सब पुराने अच्छे नहीं होते और सब नए खराब नहीं होते।‘ अतएव दोनों को जाँचकर जो हितकर हो उसे ही स्वीकार करना चाहिए।

मनुष्य किस बात में पशु से भिन्न है और किस बात में एक ? आहार-निद्रा आदि की दृष्टि से मनुष्य तथा पशु में समानता है, फिर भी मनुष्य पशु से भिन्न है। मनुष्य में संयम, श्रद्धा, त्याग, तपस्या तथा दूसरे के सुख-दुःख के प्रति संवेदना का भाव है जो पशु में नहीं है। मनुष्य लड़ाई-झगड़ा को अपना आर्दश नहीं मानता है। वह क्रोधी एवं अविवेकी को बुरा समझता है।

लेखक सोचता है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य को कैसे सुख मिलेगा, क्योंकि देश के नेता वस्तुओं के कमी के कारण उत्पादन बढ़ाने की सलाह देता है लेकिन बूढे़ आत्मावलोकन की ओर ध्यान दिलातें है। उनका कहना है कि प्रेम बड़ी चीझ है, जो हमारे भीतर है।
इस निबंध में लेखक ने मानवीता पर बल दिया है। महाविनाश से मुक्ति की ओर ध्यान खींचा है।

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हिंदी कक्षा 10 भारत से हम क्या सीखें – Bharat Se Hum Kya Sikhe Class 10

bharat se hum kya sikhe

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड वर्ग 10 के हिन्‍दी के पाठ 3 (bharat se hum kya sikhe) ‘भारत से हम क्या सिखें’ को पढेंगे, जिसके लेखक फ्रेड्रिक मैक्समूलर है।

bharat se hum kya sikhe

लेखक परिचय
लेखक का नाम- फ्रेड्रिक मैक्समूलर
जन्म- 6 दिसम्बर, 1823 ई0, आधुनिक जर्मनी
के डेसाउ नामक नगर में
मृत्यु- 28 अक्टूबर, 1900 ई0
पिता- विल्हेम मूलर
माता- एडेल्हेड मूलर

मैक्समूलर जब चार वर्ष के हुए, तो इनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता के निधन के बाद उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई, फिर भी मैक्समूलर की शिक्षा-दीक्षा बाधित नहीं हुई। बचपन से ही वे संगीत के अतिरिक्त ग्रीक और लैटिन भाषा में निपुण हो गये थे तथा लैटिन में कविताएँ भी लिखने लगे थे। 18 वर्ष की उम्र में लिपजिंग विश्वविद्यालय में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन आरंभ कर दिया।

साहित्यिक रचनाएँ– 1841 ई0 में उन्होंने ‘हितोपदेश‘ का जर्मन भाषा में अनुवाद प्रकाशित करवाया। ‘कठ‘ और ‘केन‘ आदि उपन्यासों का भी जर्मन भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया। ‘मेघदूत‘ महाकाव्य का भी जर्मन पद्य में अनुवाद कर यश का भी काम किया।
पाठ परिचय

प्रस्तुत पाठ ‘भारत से हम क्या सिखें ‘भारतीय सेवा हेतु चयनित युवा अंग्रेज अधिकारियों के आगमन के अवसर पर संबोधित भाषणों की श्रृंखला की एक कड़ी है। प्रथम भाषण का यह संक्षिप्त एवं संपादित अंश है। इसका भाषांतरण डॉ0 भावानी शंकर त्रिवेदी ने किया है। इसमें लेखक ने भारतीय सभ्यता की प्राचीनता एवं विलक्षणता के विषय में नवागंतुक अधिकारियों को बताया है कि विश्व भारत की सभ्यता से बहुत कुछ सीखती तथा ग्रहण करती आई है। यह एक विलक्षण देश है। इसकी सभ्यता और संस्कृति से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, नई पीढ़ी अपने देश तथा इसकी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति, ज्ञान-साधना, प्राकृतिक वैभव आदि की महता का प्रामाणिक ज्ञान प्रस्तुत भाषण से प्राप्त कर सकेगी।

पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ ‘भारत से हम क्या सिखें‘ महान चिन्तक एवं साहित्यकार मैक्समूलर द्वारा लिखित है। इसमें लेखक ने भारत की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है।

लेखक का मानना है कि संसार में भारत एक ऐसा देश है जो सर्वविध संपदा प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। भूतल पर स्वर्ग की छटा यहीं देखने को मिलती है। प्लेटो तथा काण्ट जैसे दार्शनिकों ने भी भारत के महत्व को सहर्ष स्वीकार किया है। यूनानी, रोमन तथा सेमेटिक जाति के यहूदियों की विचारधारा में ही सदा अवगाहन करते रहने वाले यूरोपीयनों के विश्वव्यापी एवं सम्पूर्ण मानवता के विकास का ज्ञान भारतीय साहित्य में ही मिला। लेखक के अनुसार, सच्चे भारत के दर्शन गाँवों में ही संभव है न कि कलकत्ता, मुम्बई जैसे शहरों में। यहाँ प्राकृतिक सुषमा है। खनिज भंडार है। कृषि की महत्ता है। यह तपस्वियों की साधना भूमि, जन्मभूमि, कर्मभूमि रही है।
भारत में अनेक विदेशी सिक्कों का विपूल भंडार था- ईरानी, केरियन, थ्रेसियन, पार्थियन, यूनानी, मेकेडेलियन, शकों, रोमन और मुस्लिम शासकों के सिक्के यहाँ प्रचुर मात्रा में मिले थे।
दैवत विज्ञान, कहावतों, कथाओं का महासागर रूप भारत में देखने को मिलता है। शब्द निर्माण और वृहद् शब्द भंडार भी भारत के पास चिरकाल से व्यवहृत है।

विधिशास्त्र, धर्मशास्त्र और राजनितिशास्त्र की जड़े भी भारत में ही हैं। भारतीय वाङ्मय और संस्कृत की महŸा को सभी विदेशी स्वीकार करते हैं।

संस्कृत का संबंध लैटिन से भी है। इस प्रकार संस्कृत, लैटिन, ग्रीक तीनों भाषाएँ एक ही उद्गम स्थल की है। हिन्दू, ग्रीक आदि जातियों में भी अनेकता के बावजूद एकता के बीज छिपे हुए हैं।

भारत विद्या, योग, धर्म-दर्शन का उद्गम स्थल है। पूरे विश्व को बुद्ध ने अपने विचारों से आलोकित किया था।
इस प्रकार भारतीय सभ्यता, संस्कृति ज्ञान-विज्ञान, प्राकृतिक सुन्दरता, भाषा और साहित्य में विशेष अभिरुचि रखने वालों के लिए भारत भ्रमण आवश्यक है।

वारेन हेस्टिंग्स जब भारत का गवर्नर जनरल था तो उसे वाराणसी के पास 172 दारिस नामक सोने के सिक्कों से भरा एक घड़ा मिला था। वारेन हेस्टिंग्स ने अपने मालिक ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक मंडल की सेवा में भेजवा दिया। कंपनी के निदेशक ने उन सोने के सिक्कों के महत्व को नहीं समझ पाये और उन्होनें उन मुद्राओं को गला डाला। जब वारेन हेस्टिंग्स इंगलैंड लौटा तो वे मुद्राएँ नष्ट हो चूकी थीं। वारेन हेस्टिंग्स को इस दुर्घटना से बहुत अफसोस हुआ।

कंपनी के निदेशक ने उन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व को समझ हीं नहीं पाये और अनायास यह दुर्घटना घट गई।
वारेन हेस्टिंग्स उन सिक्कों के महत्ता ऐतिहासिकता को समझते थे। कंपनी के निदेशक की नासमझी पर वारेन हेस्टिंग्स दुखित थे।
अंत में, लेखक अपने हार्दिक उद्गार प्रकट करते हुए कहता है कि भारत की प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक सौन्दर्यसम्पन्नता को जानने के लिए अभी न जाने कितने स्वप्नदर्शियों की आवश्यकता है। सर जोन्स ने जब सूर्य को अरब सागर में डुबते देखा तो उनके पिछे इंगलैंड की मधुर स्मृतियाँ तथा उनके सामने भारत की आशा जगमगा रही थी तथा अरब सागर के शातल मंद हवा के झोंखें उन्हें झुला रहे थे। इस प्रकार सर विलियम ने कलकत्ता पहुँचने के बाद पूर्वी देश के इतिहास और साहित्य के क्षेत्र में एक-से-बढ़कर एक शान्दार कार्य किए। फिर भी यह सोचकर निराश नहीं होना चाहिए कि गंगा और सिंधु के मैदानों में अब उनकी खोज के लिए कुछ भी शेष नहीं है।

हिंदी कक्षा 10 विष के दाँत – Vish ke Dant Class 10th Hindi

bish ke dant

इस पोस्‍ट में हम बिहार बोर्ड वर्ग 10 के हिन्‍दी के पाठ 2 (Bish ke Dant) विष के दाँत को पढेंगे, जिसके लेखक नलिन विलोचन शर्मा है।

Bish ke Dant

हिंदी कक्षा 10 पाठ 2 विष के दाँत

लेखक परिचय

लेखक- नलिन विचोलन शर्मा
जन्म- 18 फरवरी 1916 ई0 (पटना के बदरघाट)
निधन- 12 सितम्बर 1961 ई0

वे विख्यात विद्वान पं0 रामावतार शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र थे। माता का नाम रत्नावती शर्मा था। उन्होनें स्कुल की पढ़ाई पटना कॉलेजिएट से पूरी की तथा संस्कृत और हिन्दी में एम0 ए0 पटना विश्वविद्यालय से किया।
प्रमुख रचनाएँ- दृष्टिकोण, साहित्य का इतिहास दर्शन, मानदंड, साहित्य तत्व और आलोचना, विष के दाँत तथा संत परम्परा और साहित्य
पाठ परिचय- प्रस्तुत कहानी ‘विष के दाँत’ में मध्यमवर्गीय अन्तर्विरोधों को उजागर किया गया है। आर्थिक कारणों से मध्यवर्ग के भीतर ही एक ओर सेन साहब जैसे महत्वाकांक्षी तथा सफेदपोशी अपने भीतर लिंग-भेद जैसे कुसंस्कार छिपाए हुए हैं तो दूसरी ओर गिरधर जैसे नौकरी पेशा निम्न मध्यवर्गीय है जो अनेक तरह के थोपी गई बंदिशों के बीच भी अपने अस्तित्व को बहादुरी एवं साहस के साथ बचाए रखने के लिए संघर्षरत है।
यह कहानी समाजिक भेदभाव, लिंग-भेद, आक्रामक स्वार्थ की छाया में पलते हुए प्यार दुलार के कुपरिणामों को उभरती हुई सामाजिक समानता एवं मानवाधिकार की महत्वपूर्ण नमूना पेश करती है।

Vish ke Dant पाठ का सारांश

सेन साहब एक अमीर आदमी थे। उनकी पाँच लड़कियाँ थी, एक लड़का था। लड़कियाँ क्या थी कठपुतलियाँ। वे किसी चीझ को ताड़ती-फोड़ती न थी। दौड़ती और खेलती भी थी, तो केवल शाम के वक्त। सेन साहब नयी मोटरकार ली थी- स्ट्रीमलैण्ड। काली चमकती हुई, खुबसूरत गाड़ी थी। सेन साहब को उस पर नाज था। एक धब्बा भी न लगने पाये- क्लिनर और शोफर को सेन साहब की सख्त ताकीद थी। चूँकि खोखा सबसे छोटा और सेन साहब के नाउम्मीद बुढ़ापे की आँखों का तारा था इसलिए मोटर को कोई खतरा था तो खोखा से ही।

एक दिन की बात है कि सेन साहब का शोफर एक औरत से उलझ पड़ा बात यह थी कि उसका पाँच-छः साल का बच्चा मदन गाड़ी को छुकर गंदा कर रहा था और शोफर ने जब मना किया तो वह उल्टे शोफर से ही उलझ पड़ी।

वह मामला अभी सिमटा ही था कि इस बीच खोखे ने मोटर की पिछली बती का लाल शीशा चकनाचुर कर दिया। लकिन सेन साहब ने इसका बुरा नहीं माना और अपने मित्राें से कहा- ‘देखा, आपलोगों ने ? बड़ा शरारती हो गया है काशु। मोटर के पिछे हरदम पड़ा रहता है। काशु ने मिस्टर सिंह साहब के अगले तथा पिछले पहीयां के हवा निकाल दी थी। जब मिस्टर सिंह विदा हो गये तो सेन साहब ने मदन के पिता गिरधर लाल को जो उनके फैक्ट्री में किरानी था। उसे सेन साहब ने खुब खरी-खोटी सुनाई और कहा कि बच्चों को सम्भाल कर रखो। उस रात गिरधारी लाल ने अपने बेटे मदन की खुब पिटाई की।

दूसरे दिन शाम को मदन, कुछ लड़कों के साथ लट्टू नचा रहा था। खोखा ने भी लट्टू नचाने के लिए, माँगा लेकिन मदन ने उसे फटकार दिया- ‘अबे, भाग जा यहाँ से ! बड़ा आया है लट्टू नचाने, जा अपने बाबा की मोटर पर बैठ।’

काशु को गुस्सा आ गया, वह इसी उम्र में अपनी बहनों पर, नौकरों पर हाथ चला देता था और क्या मजाल उसे कोई कुछ कह दे। उसने न आव देखा न ताव, मदन को एक घुस्सा कस दिया। मदन ने काशु पर टूट पड़ा। उसकी मरम्मत जमकर कर दी। काशु रोता हुआ घर चला गया।

लेकिन मदन घर नहीं लौटा। आठ-नौ बजे रात को मदन इधर-उधर घूमते हुए गली के दरवाजे से घर में घुसा। डर तो यही है कि आज अन्य दिनों की अपेक्षा मार अधिक लगेगी। रसोई घर में घुसा। भरपेट खाना खाया। फिर बगल वाले कमरे के दरवाजे पर जाकर अन्दर की बात सुनने लगा।
उसे इस बात का ताज्जुब हो रहा था कि उसके पिता क्यों गरज-तरज नहीं रहे हैं, जबकि उसने काशु के दो-दो दाँत तोड़ डाले थे। इसका कारण यह था कि उसके पिता को नौकरी से हटा दिया गया था और मकान खाली करने का आदेश दिया जा चूका था। वह दबे पाँव बरामदे पर रखी चरपाई की तरफ सोने के लिए चला कि अँधेरे में उसका पैर लोटे पर लग गया, ठन्-ठन् की आवाज सुनकर गिरधर बाहर निकला और मदन की ओर बढ़ा, उसके चेहरे से नाराजगी के बादल छँट गए। उसने मदन को अपनी गोद में उठाकर बेपरवाही, उल्लास और गर्व के साथ बोल उठा, जो किसी के लिए भी नौकरी से निकाले जाने पर ही मुमकिन हो सकता है, शाबाश बेटा ! एक तेरा बाप है, और तु ने तो, खोखा के दो-दो दाँत तोड़ डाले। लेखक के कहने का तात्पर्य है कि कोई व्यक्ति स्वार्थवश ही किसी का अपमान सहन करता है, स्वार्थरहित ईंट का जवाब पत्थर से देता है। इसी मजबुरी के कारण गिरधर अपने पुत्र को निर्दोष होते हुए भी पीटता था, क्योंकि विष के दाँत लगे हुए थे, इसे टूटते ही दुत्कार प्यार में बदल जाता है।

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