अध्‍याय 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव | Bhartiya rajniti naye badlav chapter 9 political science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12th राजनितिक विज्ञान के पाठ 9 भारतीय राजनीति : नए बदलाव  (Bhartiya rajniti naye badlav chapter 9 political science 12th Class Notes) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

Bhartiya rajniti naye badlav chapter 9 political science

अध्‍याय 9
भारतीय राजनीति : नए बदलाव

1990 का दशक

1980 के दशक के आखिर के सालों में देश में ऐसे पाँच बड़े बदलाव आए, जिनका हमारी आगे की राजनीति पर गहरा असर पड़ा।

पहला, इस दौर की एक महत्त्‍वपूर्ण घटना 1989 के चुनाव में कांग्रेस की हार है। जिस पार्टी ने 1984 में लोकसभा की 415 सीटें जीती थीं वह इस चुनाव में महज 197 सीटें ही जीत सकी। 1991 में एक बार फिर मध्‍यावधि चुनाव हुए और कांग्रेस इस बार अपना आँकड़ा सुधारते हुए सत्ता में आयी।

दूसरा बड़ा बदलाव राष्‍ट्रीय राजनीति में ‘मंडल मुद्दे’ का उदय था। 1990 में राष्‍ट्रीय मोर्चा की नयी सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। इन सिफारिशों के अंतर्गत प्रावधान किया गया कि केंद्र सरकार की नौकरियों में ‘अन्‍य पिछड़ा वर्ग’ को आरक्षण दिया जाएगा। सरकार के इस फैसले से देश के विभि‍न्‍न भागों में मंडल-विरोधी हिंसक प्रदर्शन हुए। अन्‍य पिछड़ा वर्ग को मिले आरक्षण के समर्थक और विरोधियों के बीच चले विवाद को ‘मंडल मुद्दा’ कहा जाता है।

तीसरा, विभिन्‍न सरकारों ने इस दौर में जो आर्थिक नीतियाँ अपनायीं, वे बुनियादी तौर पर बदल चुकी थीं। इसे ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम अथवा नए आर्थिक सुधार के नाम से जाना गया। इनकी शुरूआत राजीव गाँधी की सरकार के समय हुई और 1991 तक ये बदलाव बड़े पैमाने पर प्रकट हुए।

चौथे, घटनाओं के एक सिलसिले की परिणति अयोध्‍या स्थित एक विवादित ढाँचे (बाबरी मस्जिद के रूप में प्रसिद्ध) के विध्‍वंस के रूप में हुई। यह घटना 1992 के दिसंबर महीने में घटी। इस घटना ने देश की राजनीति में कई परिवर्तनों को जन्‍म दिया और उनका प्रतीक बनी। इस घटना से भारतीय राष्‍ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता पर बहस तेज हो गई। इस सिलसिले की आखिरी बात यह है कि मई 1991 में राजीव गाँधी की हत्या कर दी गई और इसके परिणामस्‍वरूप कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में परिवर्तन हुआ। राजीव गाँधी चुनाव अभियान के सिलसिले में तमिलनाडु के दौर पर थे। तभी लिट्टे से जुड़े श्रीलंकाई तमिलों ने उनकी हत्‍या कर दी। राजीव गाँधी की मृत्‍यु के बाद कांग्रेस पार्टी ने नरसिम्‍हा राव को प्रधानमंत्री चुना।

गठबंधन का युग

1989 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार हुई थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि किसी दूसरी पार्टी को इस चुनाव में बहुमत मिल गया था। कांग्रेस अब भी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन बहुमत में न होने के कारण उसने विपक्ष में बैठने का फैसला किया। राष्‍ट‍्रीय मोर्चे को (यह मोर्चा जनता दल और कुछ अन्‍य क्षेत्रीय दलों को मिलाकर बना था) परस्‍पर विरूद्ध दो राजनीतिक समूहों –भाजपा और वाम मोर्चे – ने समर्थन दिया। इस समर्थन के आधार पर राष्‍ट्रीय मोर्चा ने एक गठबंधन सरकार बनायी, लेकिन इसमें भाजपा और वाम मोर्चे ने शिरकत नहीं की।

कांग्रेस का पतन

कांग्रेस की हार के साथ भारत की दलीय व्‍यवस्‍था से उसका दबदबा खत्‍म हो गया। 1960 के दशक के अंतिम सालों में कांग्रेस के एकछत्र राज को चुनौ‍ती मिली थी, लेकिन इंदिरा गाँधी के नेतृत्‍व में कांग्रेस ने भारतीय राजनीति पर अपना प्रभुत्‍व फिर से कायम किया। नब्‍बे के दशक में कांग्रेस की अग्रणी हैसियत को एक बार फिर चुनौती मिली।

इस दौर में कांग्रेस के दबदबे के खात्मे के साथ बहुदलीय शासन-प्रणाली का युग शुरू हुआ। 1989 के बाद से लोकसभा के चुनावों में कभी भी किसी एक पार्टी को 2014 तक पूर्ण बहुमत नहीं मिला। इस बदलाव के साथ केंद्र में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ और क्षेत्रीय पार्टियों ने गठबंधन सरकार बनाने में महत्त्‍वपूर्ण भूमिका निभायी।

Bhartiya rajniti naye badlav 12th Class Notes in  political science

गठबंधन की राजनीति 

नब्‍बे का दशक कुछ ताकतवर पार्टियों और आंदोलनों के उभार का साक्षी रहा। और आंदोलनों ने दलित तथा पिछड़े वर्ग (अन्‍य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी) की नुमाइंदगी की। 1996 में बनी संयुक्‍त मार्चे की सरकार में इन पार्टियों ने अहम किरदार निभाया। संयुक्‍त मार्चा 1989 के राष्‍ट्रीय मोर्चे के ही समान था। क्‍योंकि इसमें भी जनता दल और कई क्षेत्रीय पार्टियाँ शामिल थीं। इस बार भाजपा ने सरकार को समर्थन नहीं दिया। संयुक्‍त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था।

1989 में भाजपा और वाम मोर्चा दोनों ने राष्‍ट्रीय मोर्चा की सरकार को समर्थन दिया था। क्‍योंकि ये दोनों कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखना चाहते थे। इस बाद वाममोर्चा ने गैर-कांग्रेस सरकार को अपना समर्थन जारी रखा, लेकिन संयुक्‍त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस पार्टी ने भी समर्थन दिया। दरअसल, कांग्रेस और वाममोर्चा दोनों इस बार भाजपा को सत्ता से बाहर रखना चाहते थे।

भाजपा ने 1991 तथा 1996 के चुनावों में अपनी स्थिति लगातार मजबूत की। 1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्‍यौता मिला। लेकिन अधिकांश दल, भाजपा की नीतियों के खिलाफ थे और इस वजह से भाजपा की सरकार लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं कर सकी। आखिकार भाजपा एक गठबंधन (राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन-राजग) के अगुआ के रूप में सत्ता में आयी और 1998 के मई से 1999 के जून तक सत्ता में रही। फिर 1999 के अक्‍टूबर में इस गठबंधन ने दोबारा सत्ता हासिल की। राजग की इन दोनों सरकारों में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 1999 की राजग सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किया।

इस तरह 1989 के चुनावों से भारत में गठबंधन की राजनीति के एक लंबे दौर की शुरूआत हुई। इसके बाद से केंद्र में 11 सरकारें बनी। ये सभी या तो गठबंधन की सरकारें थीं अथवा दूसरे दलों के समर्थन पर टिकी अल्‍पमत की सरकारें थीं जो इन सरकारों में शामिल नहीं हुए।

अन्‍य पिछड़ा वर्ग का राजनीतिक उदय  

इस अ‍वधि का एक दूरगामी बदलाव था-अन्‍य पिछड़ा वर्ग का उदय। यह अनूसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति से अलग एक कोटि है, जिसमें शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों की गणना की जाती है। इन समुदोयों को ‘पिछड़ा वर्ग’ भी कहा जाता है।

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‘मंडल’ का लागू होना

1980 के दशक में अन्‍य पिछड़ा वर्गों के बीच लोकप्रिय ऐसे ही राजनीतिक समूहों को जनता दल ने एकजूट किया। राष्ट्रीय मार्चा की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया। नौकरी में आरक्षण के सवाल पर तीखे वाद-विवाद हुए और इन विवादों से ‘अन्‍य पिछड़ा वर्ग’ अपनी पहचान को लेकर ज्‍यादा सजग हुआ।

राजनीतिक परिणाम

1978 में ‘बामसेफ’ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्‍युनिटीज एम्‍पलाइज फेडरेशन) का गठन हुआ। यह सरकारी कर्मचारियों का कोई साधाण-सा ट्रेड यूनियन नहीं थी। इस संगठन ने ‘बहुजन’ यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्‍पसंख्‍यकों की राजनीतिक सत्ता की जबरदस्‍त तरफदारी की। इसी का परवर्ती विकास ‘दलित-शोषित समाज संघर्ष समिति’ है, जिससे बाद के समय में बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ। इस पार्टी की अगुवाई कांशीराम ने की।

1989 और 1991 के चुनावों में इस पार्टी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली। बहुजन (यानी अनुसूचित जाति, अनु‍सूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्‍पसंख्‍यक) देश की आबादी में सबसे ज्‍यादा हैं इस पार्टी का सबसे ज्‍यादा समर्थन दलित मतदाता करते हैं,

सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र

आपातकाल के बाद भारतीय जनसंघ, जनता पार्टी में शामिल हो गया था। जनता पार्टी के पतन और बिखराव के बाद भूतपूर्व जनसंघ के समर्थकों ने 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बनाई। इसने ‘गाँधीवादी समाजवाद’ को अपनी विचारधारा के रूप में स्‍वीकार किया। भाजपा को 1980 और 1984 के चुनावों में खास सफलता नहीं मिला। 1986 के बाद इस पार्टी ने अपनी विचारधारा में हिंदु राष्‍ट्रवाद के तत्त्‍वों पर जोर देना शुरू किया। भाजपा ने ‘हिंदुत्‍व’ की राजनीति का रास्‍ता चुना और हिंदुओं को लामबंद करने की रणनीति अपनायी।

‘हिंदुत्‍व’ अथवा ‘हिंदुपन’ शबद को वी.डी. सावरकर ने गढ़ा था और इसको परिभाषित करते हुए उन्‍होंने इसे भारतीय (और शब्‍दों में हिंदू) राष्‍ट्र की बुनियाद बताया।

1986 में ऐसी दो बातें हुईं, जो एक हिंदूवादी पार्टी के रूप में भाजपा की राजनीति के लिहाज से प्रधान हो गईं । इसमें पहली बात 1985 के शाहबानो मामले से जुड़ी है। यह मामला एक 62 वर्षीया तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो का था। उसने अपने भूतपूर्व पति से गुजारा भत्ता हासिल करने के लिए अदालत में अर्जी दायर की थी। सर्वोच्‍च अदालत ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया। पुरातनपंथी मुसलमानों ने अदालत के इस फैसले को अपने ‘पर्सनल लॉ’ में हस्‍तक्षेप माना। कुछ मुस्लिम नेताओं की माँग पर सरकार ने मुस्लिम महिला अधिनियम (1986) (तलाक से जुड़े अधिकरों) पास किया। इस कदम का कई महिला संगठनों, मुस्लिम महिलाओं की जमात तथा अधिकांश बुद्धिजीवियों ने विरोध किया। भाजपा ने कांग्रेस सरकार के अस कदम की आलोचना की और इसे अल्‍पसंख्‍यक समुदाय को दी गई अनावश्‍यक रियायत तथा ‘तुष्टिकरण’ करार दिया।

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अयोध्‍या विवाद

दसरी बात का संबंध फैजाबाद जिला न्यायालय द्वारा फरवरी 1986 में सुनाए गए फैसले से है। इस अदालत ने फैसला सुनाया था कि बाबरी मस्जिद के अहाते का ताला खोल दिया जाना चाहिए, ताकि हिंदू यहाँ पूजा पाट कर सकें, क्‍योंकि वे इस जगह को पवित्र मानते हैं। अयोध्‍या स्थित बाबरी मस्जिद को लेकर दशकों से विवाद चला आ रहा था। बाबरी मस्जिद का निर्माण अयोध्या में मीर बाकी ने करवाया था। यह मस्जिद 16वीं सदी में बनी थी। मीर बाकी मुगल शासक बाबर का सिपहसलार था।

जैसे ही बाबरी मस्जिद के अहाते का ताला खुला, वैसे ही दोनों पक्षों में लामबंदी होने लगी। अनेक हिंदू और मुस्लिम संगठन इस मसले पर अपने-अपने समुदाय को लामबंद करने की कोशिश में जुट गए। भाजपा ने इसे अपना बहुत बड़ा चुनावी और राजनीतिक मुद्दा बनाया। राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्‍व हिंदू परिषद् जैसे कुछ संगठनों के साथ भाजपा ने लगातार प्रतीकात्‍मक और लामबंदी के कार्यक्रम चलाए। उसने जनसमर्थन जुटाने के लिए गुजरात स्थित सोमनाथ से उत्तर प्रदेश स्थित अयोध्‍या तक बड़ी ‘रथयात्रा’ निकाली।

विध्‍वंस और उसके बाद

जो संगठन राम मंदिर के निर्माण का समर्थन कर रहे थे, उन्‍होंने 1992 के दिसंबर में एक ‘कारसेवा’ का आयोजन किया। इसके अंतर्गत ‘रामभक्‍तों’ से आह्वान किया गया कि वे ‘राम मंदिर’ के निर्माण में श्रमदान करें। पूरे देश में माहौल तनावपूर्ण हो गया। अयोध्‍या में यह तनाव अपने चरम पर था। सर्वोच्च न्‍यायालय ने राज्‍य सरकार को आदेश दिया कि वह ‘विवादित स्‍थल’ की सुरक्षा का पूरा इंतजाम करे। बहरहाल 6 दिसंबर 1992 को देश के विभिन्‍न भागों से लोग आ जुटे और इन लोगों ने मस्जिद को गिरा दिया। मस्जिद के विध्‍वंस की खबर से देश के कई भागों में हिंदू और मुसलमानों के बीच झड़प हुई। 1993 के जनवरी में एक बार फिर मुंबई में हिंसा भड़की और अगले दो हफ्तों तक जारी रही।

अयोध्‍या की घटना से कई बदलाव आए। उत्तर प्रदेश में सत्तासीन भाजपा की राज्‍य सरकार को केंद्र ने बर्खास्‍त कर दिया। इसके साथ ही दूसरे राज्‍यों में भी, जहाँ भाजपा की सरकार थी, राष्‍ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। चूँकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस बात का हलफनामा दिया था कि ‘विवादित ढाँचे’ की रक्षा की जाएगी। इसलिए सर्वोच्‍च न्‍यायालय में उनके खिलाफ अदालत की अवमानना  का मुकदमा दायर हुआ। भाजपा ने आधिकारिक तौर पर अयोध्‍या की घटना पर अफसोस जताया।

अधिकतर राजनीतिक दलों ने मस्जिद के  विध्‍वंस की निंदा की और इसे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के विरूद्ध बताया। लोकतांत्रिक राजनीति इस वायदे पर आधारित है कि सभी धार्मिक समुदाय किसी भी पार्टी में शामिल होने के लिए स्‍वतंत्र हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल धार्मिक समुदाय पर आधारित दल नहीं होगा।

गुजरात के दंगे

2002 के फरवरी-मार्च में गुजरात में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। गोधरा स्‍टेशन पर घटी एक घटना इस हिंसा का तात्‍कालिक उकसावा साबित हुई। अयोध्‍या की ओर से आ रही एक ट्रेन की बोगी कारसेवकों से भरी हुई थी और इसमें आग लग गई। सत्तावन व्‍यक्ति इस आग में मर गए। यह संदेह करके कि बोगी में आग मु‍सलमानों ने लगायी होगी। अगले दिन गुजरात के कई भागों में मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। हिंसा का यह तांडव लगभग एक महीने तक जारी रहा। लगभग 1100 व्‍यक्ति, जिनमें ज्‍यादातर मुसलामन थे, इस हिंसा में मारे गए। 1984 के सिख-विरोधी दंगों के समान गुजरात के दंगों से भी यह जाहिर हुआ कि सरकारी मशीनरी सांप्रदायिक भावनाओं के आवेग में आ सकती है। गुजरात में घटी ये घटनाएँ हमें आगाह करती हैं कि राजनीतिक उद्देश्‍यों के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना खतरनाक हो सक‍ता है। इससे हमारी लोकतांत्रिक राजनीति को खतरा पैदा हो सकता है।

एक नयी स‍हमति का उदय

1989 के बाद की अवधि को कभी-कभार कांग्रेस के पतन और भाजपा के अभ्युदय की भी अ‍वधि कहा जाता है

2004 के लोकसभा चुनाव

2004 के चुनावों में कांग्रेस भी पूरे जोर के साथ गठबंधन में शामिल हुई। राजग की हार हुई और संयुक्‍त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार बनी। इस गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस ने किया। संप्रग को वाम मोर्चा ने समर्थन दिया। 2004 के चुनावों में एक हद तक कांग्रेस का पुनरूत्‍थान भी हुआ। 1991 के बाद इस दफा पार्टी की सीटों की संख्‍या एक बार फिर बढ़ी।

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क्रांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्‍थापना | congress pranali chunotiya aur punarsthapna 12th class Notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 5 क्रांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्‍थापना( congress pranali chunotiya aur punarsthapna Class 12th polticial Science in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

5. क्रांग्रेस प्रणाली : चुनौतियाँ और पुनर्स्‍थापना

राजनीतिक उत्तरा‍धिकार की चुनौती

1964 के मई में नेहरू की मृत्‍यु हो गई। इससे नेहरू के राजनीतिक उत्तराधिकरी को लेकर बड़े अंदेशे लगाए गए कि नेहरू के बाद कौन? भारत से बाहर के बहुत से लोगों को संदेह था कि यहाँ नेहरू  के बाद लोकतंत्र कायम भी रह पाएगा या नहीं। 1960 के दशक को ‘खतरनाक दशक’ कहा जाता है क्‍योंकि गरीबी, गैर-बराबरी, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय विभाजन आदि के सवाल अभी अनसुलझे थे।

नेहरू के बाद शास्‍त्री

नेहरू की मृत्‍यु के बाद कांग्रेस पार्टी के अध्‍यक्ष के, कामराज ने अपनी पार्टी के नेताओं और सांसदों से सलाह-मशविरा किया। उन्‍होंने पाया कि सभी लालबहादुर शास्‍त्री के पक्ष में हैं। शास्‍त्री, कांग्रेस दल के निर्विरोध नेता चुने गए और इस तरह वे देश के प्रधानमंत्री बने। शास्‍त्री, उत्तर प्रदेश के थे और नेहरू के मंत्रिमंडल में कई सालों तक मंत्री रहे थे। शास्त्री अपनी सादगी और सिद्धांत निष्‍ठा के लिए प्रसिद्ध थे।

शास्‍त्री 1964 से 1966 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। इस पद पर वे बड़े कम दिनों तक रहे लेकिन इसी छोटी अ‍वधि में देश ने दो बड़ी चुनौतियों का सामना किया। भारत, चीन युद्ध के कारण पैदा हुई आर्थिक कठिनाईयों से उबरने की कोशिश कर रहा था। कई जगहों पर खाद्यान्‍न का गंभीर संकट आ पड़ा था। शास्‍त्री ने ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया, जिससे इन दोनों चुनौतियों से निपटने के उनके दृढ़ संकल्‍प का पता चलता है।

शास्‍त्री के बाद इंदिरा गाँधी

शास्‍त्री की मृत्‍यु से कांग्रेस के सामने दुबारा राजनीतिक उत्तराधिकारी का सवाल उठ खड़ा हुआ। इस के बाद मोरारजी देसाई और इंदिरा गाँधी के बीच कड़ा मुकाबला था। इंदिरा गाँधी ने मोरारजी देसाई को हरा दिया। उन्‍हें कांग्रेस पार्टी के दो-तिहाई से अधिक सांसदों ने अपना मत दिया था। प्रधानमंत्री बनने के एक साल के अंदर इंदिरा गाँधी को लोकसभा के चुनौ‍वों में पार्टी की अगुवाई करनी पड़ी। इस वक्‍त तक देश की आर्थिक स्थिति और भी खराब हो गई थी। इससे इंदिरा की कठिनाइयाँ ज्‍यादा बढ़ गईं।

चौथा आम चुनाव, 1967

भारत के राजनीतिक और चुनावी इतिहास में 1967 के साल को अत्‍यन्‍त महत्त्‍वपूर्ण पड़ाव माना जाता है।

चुनावों का संदर्भ

इस अरसे में देश गंभीर आर्थिक संक‍ट में था। मानसून की असफलता, व्‍यापक सूख, खेती की पैदावार में गिरावट, गंभीर खाद्य संकट, विदेशी मुद्रा-भंडार में कमी, औद्योगिक उत्‍पादन और निर्यात में गिरावट के साथ ही साथ सैन्‍य खर्चे में भारी बढ़ोतरी हुई थी। इंदिरा गाँधी की सरकार के शुरूआती फैसलों में एक था- रूपये का अवमूल्‍यन करना। माना गया कि रूपये का अवमूल्‍यन अमरीका के दबाव में किया गया। पहले के वक्‍त में 1 अमरीका डॉलर की कीमत 5 रूपये थी, जो अब बढ़कर 7 रूपये हो गई।

आर्थिक स्थिति की विकटता के कारण कीमतों में तेजी से इजाफा हुआ। लोग आवश्‍यक वस्‍तुओं की कीमतों में वृद्धि, खाद्यान्‍न की कमी, बढ़ती हुई बेरोजगारी और देश की दयनीय आर्थिक स्थिति को लेकर विरोध पर उत्तर आए। देश में अकसर ‘बंद’ और ‘हड़ताल’ की स्थिति रहने लगी।

साम्‍यवादी और समाजवादी पार्टी ने व्‍यापक समानता के लिए संघर्ष छेड़ दिया। मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी से अलग हुआ  साम्‍यवादीयों के एक समूह ने मार्क्‍सवादी-ले‍निनवादी भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी बनायी और सशस्‍त्र कृषक-विद्रोह का नेतृत्‍व किया। इस अ‍वधि में गंभीर किस्‍म के हिन्‍दू-मुस्लिम दंगे भी हुए। आजादी के बाद से अब तक इतने गंभीर सांप्रदायिक दंगे हुए थे।

गैर-कांग्रेसवाद  

विपक्षी दल जनविरोध की अगुवाई कर रहे थे और सरकार पर दबाव डाल रहे थे। कांग्रेस की विरोधी पार्टियों ने महसूस किया कि उसके वोट बँट जाने के कारण ही कांग्रेस सत्तासीन है। जो दल अपने कार्यक्रम अथवा विचारधाराओं के धरातल पर एक-दूसरे से एकदम से अलग थे वे सभी दल एकजुट हुए और उन्‍होंने कुछ राज्‍यों में एक कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाया समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने इस रणनीति को ‘गैर-कांग्रेसवाद’ का नाम दिया।

चुनाव का जनादेश

व्‍यापक जन-असंतोष और राजनीतिक दलों के ध्रुवीकरण के इसी माहौल में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए 1967 के फरवरी माह में चौथे आम चुनाव हुए। कांग्रेस को जैसे-तैसे लोकसभा में बहुमत तो मिल गया था, लेकिन उसको प्राप्‍त मतों के प्रतिशत तथा सीटों की संख्‍या में भारी गिरावट आई थी। इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडल के आधे मंत्री चुनाव हार गए थे। तमिलनाडु से कामराज, महाराष्‍ट्र से एस.के.पाटिल, पश्चिम बंगाल से अतुल्‍य घोष और बिहार से के.बी.सहाय जैसे राजनीतिक दिग्‍गजों को मुँह की खानी पड़ी थी।

कांग्रेस को सात राज्‍यों में बहुमत नहीं मिला। दो अन्‍य राज्‍यों में दलबदल के कारण यह पार्टी सरकार नहीं बना सकी। मद्रास प्रांत (अब इसे तमिलनाडु कहा जाता है) में एक क्षेत्रीय पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पाने में आई थी। यहाँ के छात्र हिंदी को राजभाषा के रूप में केंद्र द्वारा अपने ऊपर थोपने का विरोध कर रहे थे और डीएमके ने उनके इस विरोध को नेतृत्‍व प्रदान किया था। चुनावी इतिहास में यह पहली घटना थी जब किसी गैर-कांग्रेसी दी को किसी राज्‍य में पूर्ण बहुमत मिला। अन्‍य आठ राज्‍यों में विभिन्‍न गैर-कांग्रेसी दलों की गठबंधन सरकार बनी।

गठबंधन  

1967 के चुनावों से गठबंधन की परिघटना सामने आयी। चूँकि किसी पार्टि को बहुमत नहीं मिला था, इसलिए अनेक गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने एकजुट होकर संयुक्‍त विधायक दल बनाया और गैर-कांग्रेसी सरकारों को समर्थन दिया। इसी कारण इन सरकारों को संयुक्‍त विधायक दल की सरकार कहा गया। मिसाल के लिए बिहार में बनी संयुक्‍त विधायक दल की सरकार में दो समाजवादी पार्टियाँ-सीपीआई और पीएसपी-शामिल थीं। इनके साथ इस सरकार में वामपंथी-सीपीआई और दक्षिणपंथी जनसंघ-भी शामिल थे। पंजाब में बनी संयुक्‍त विधायक दल की सरकार को ‘पॉपुलर युनाइटेड फ्रंट’ की सरकार कहा गया। इसमें उस वक्‍त के दो परस्‍पर प्रतिस्‍पर्धी अकाली दल-संत ग्रुप और मास्‍टर ग्रुप शामिल थे।

दल-बदल

1967 के चुनावों की एक खास बात दल-बदल भी है। कोई जनप्रतिनिधि किसी खास दल के चुनाव चिन्‍ह को लेकर चुनाव लड़े और जीत जाए और चुनाव जीतने के बाद इस दल को छोड़कर किसी दूसरे दल में शामिल हो जाए, तो इसे दल-बदल कहते हैं। 1967 के आम चुनावों के बाद कांग्रेस को छोड़ने वाले विधायकों ने तीन राज्‍यों-हारियाणा, मध्‍य प्रदेश और उत्तर प्रदेश-में गैर-कांग्रेसी सरकारों को बहाल करने में अहम भूमिका निभायी।

कांग्रेस में विभाजन

1967 के चुनावों के बाद केंद्र में कांग्रेस की सत्ता कायम रही, लेकिन उसे जितना बहुमत हासिल नहीं था। साथ महत्त्वपूर्ण बात यह कि चुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया था कि कांग्रेस को चुनवों में हराया जा सकता है।

इंदिरा गाँधी बनाम सिंडिकेट

इंदिरा गाँधी को असली चुनौती विपक्ष से नहीं बल्कि खुद अपनी पार्टी के भीतर से मिली। उन्हें ‘सिंडिकेट’ से निपटना पड़ा। ‘सिंडिकेट’ कांग्रेस के भीतर ताकतवर और प्रभावशाली नेताओं का एक समूह था। ‘सिंडिकेट’ ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने में महत्त्वपूर्ण भमिका निभायी थी। सिंडिकेट के नेताओं को उम्‍मीद थी कि इंदिरा गाँधी उन‍की सलाहों पर अमल करेंगी।

इस तरह इंदिरा गाँधी ने दो चुनौतियों का सामना किया। उन्‍हें ‘सिंडिकेट’ के प्रभाव से स्‍वतंत्र अपना मुकाम बनाने की जरूरत थी कांग्रेस ने 1967 के चुनाव में जो जमीन खोयी थी उसे भी उन्‍हें हासिल करना था।

राष्‍ट्रपति पद का चुनाव, 1969   

सिंडिकेट और इंदिरा गाँधी के बीच की गुटबाजी 1969 में राष्‍ट्रपति पद के चुनाव के समय खुलकर सामने आ गई। तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्‍यु के कारण उस साल राष्ट्रपति का पद खाली था। इंदिरा गाँधी की असहमति के बावजूद उस साल सिंडिकेट ने तत्‍कालीन लोकसभा अध्‍यक्ष एन. संजीव रेड्डी को कांग्रेस पार्टी की तरफ से राष्‍ट्रिपति पद के उम्‍मीदवार के रूप में खड़ा करवाने में सफलता पाई। एन. संजीव रेड्डी से इंदिरा गाँधी की बहुत दिनों से राजनीतिक अनबन चली आ रही थी। ऐसे में इंदिरा गाँधी ने भी हार मानी। उन्होंने तत्‍कालीन उपराष्‍ट्रपति वी.वी. गिरी को बढ़ावा दिया कि वे एक स्‍वतंत्र उम्‍मीदवार के रूप में राष्‍ट्रपति पद के लिए अपना नामांकन भरें। इंदिरा गाँधी ने चौदह अग्रणी बैंकों के राष्‍ट्रीयकरण और भूतपूर्व राजा-महाराजाओं को प्राप्‍त विशेषाधिकार यानी ‘प्रिवी पर्स’ को समाप्‍त करने जैसी कुछ बड़ी और जनप्रिय नीतियों की घोषणा भी की । दोनों गुट चाहते थे कि राष्‍ट्रपति पद के चुनाव में ताकत को आजमा ही लिया जाए। तत्‍कालीन कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्‍पा ने ‘व्हिप’ जारी किया कि सभी ‘कांग्रेस सांसद और विधायक पार्टी के  आधिकारिक उम्‍मीदवार संजीव रेड्डी को वोट डालें। वी.वी.गिरि का छुप तौर पर समर्थन करते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने खुलेआम अंतरात्‍मा की आवाज पर वोट डालने को कहा। इसका मतलब यह था कि कांग्रेस के सांसद और विधायक अपनी मनमर्जी से किसी भी उम्‍मीदवार को वोट डाल स‍कते हैं। आखिरकार राष्‍ट्पति पद के चुनाव में वी.वी. गिरि ही विजयी हुए। वे स्‍वतंत्र उम्मीदवार थे, जबकि एन.संजीव रेड्डी कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्‍मीदवार थे।

कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक उम्‍मीदवार की हार से पार्टी का टूटना तय हो गया। कांग्रेस अध्‍यक्ष ने प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी से निष्‍कासित कर दिया। पार्टी से निष्‍क‍ासित प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने कहा कि उनकी पार्टी ही असली कांग्रेस है। 1969 के नवंबर तक सिंडिकेट की अगुवाई वाले कांग्रेसी खेमे को कांग्रेस (आर्गनाइजेशन) और इंदिरा गाँधी की अगुवाई वाले कांग्रेसी खेमे को कांग्रेस (रिक्विजिनिस्‍ट) कहा जाने लगा था। इन दोनों दलों को क्रमश: ‘पुरानी कांग्रेस’ और ‘नयी कांग्रेस’ भी कहा जाता था।

1971 का चुनाव और कांग्रेस का पुनर्स्‍थापन   

कांग्रेस की टूट से इंदिरा गाँधी की सरकार अल्‍पमत में आ गई। बहरहाल, डीएमके और भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी समेत कुछ अन्‍य दलों से प्राप्‍त मुदा आधारित समर्थन के बल पर इंदिरा गाँधी की सरकार सत्ता में बनी रही। इसी दौर में इंदिरा गाँधी ने भूमि सुधार के मौजूदा कानूनों के क्रियान्‍वयन के लिए जबरदस्‍त दलों पर अपनी निर्भरता समाप्‍त करने, संसद में अपनी पार्टी की स्थिति मजबूत करने और अपने कार्यक्रमों के पक्ष में जनादेश हासिल करने की गरज से इंदिरा गाँधी की सरकार ने 1970 के दिसंबर में लोकसभा भंग करने की सिफारिश की। लोकसभा के लिए पाँचवें आम चुनाव 1971 के फरवरी माह में हुए।

मुकाबला

चुनावी मुकाबला कांग्रेस (आर) के विपरीत जान पड़ रहा था। सभी बड़ी गैर-साम्‍यवादी और गैर-कांग्रेस विपक्षी पार्टियों ने एक चुनावी गठबंधन बना लिया था। इसे ‘ग्रैंड अलायंस’ कहा गया। नयी कांग्रेस के पास एक मुदा था; एक अजेंडा और कार्यक्रम था। ‘ग्रैंड अलायंस’ के पास कोई सुसंगत राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था। इंदिरा गाँधी ने देश भर में घूम-घूम कर कहा कि विपक्षी गठबंधन के पास बस एक ही क्रार्यक्रम है : इंदिरा हटाओ। इसके विपरीत उन्‍होंने लोगों के सामने एक सकारात्‍मक कार्यक्रम रखा और इसे अपने मशहूर नारे ‘गरीबी हटाओ’ के जरिए एक शक्‍ल प्रदान किया। ‘गरीबी हटाओ’ के नारे से इंदिरा गाँधी ने वंचित तबकों खासकर भूमिहीन किसान, दलित और आदिवासी, अल्‍पसंख्‍यक, महिला और बेरोजगार नौजवानों के बीच अपने समर्थन का आधार तैयार करने की कोशिश की । ‘गरीबी हटाओ’ का नारा और इससे जुड़ा हुआ क्रार्यक्रम इंदिरा गाँधी की राजनीतिक रणनीति थी।

परिणाम और उसके बाद….

1971 के लोकसभा चुनावों के नतीजे उतने ही नाटकीय थे, जितना इन चुनावों को करवाने का फैसला। कांग्रेस (आर) और सीपीआई के गठबंधन को इस बार जितने वोट या सीटें मिलीं, उतनी कांग्रेस पिछले चार आम चुनावों में कभी हासिल न कर स‍की थी। इस गठबंधन को लोकसभा की 375 सीटें मिलीं और इसने कुल 48.4 प्रतिशत वोट हासिल किए। अकेले इंदिरा गाँधी की कांग्रेस (आर) ने 352 सीटें और 44 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। अब जरा इस तसवीर की तुलना कांग्रेस (ओ) के उजाड़ से करें: इस पार्टी में बड़े-बड़े महारथी थे, लेकिन इंदिरा गाँधी की पार्टी को जितने वोट मिले थे, इसके ए‍क चौथाई वोट ही इसकी झोली में आए। इस पार्टी को महज 16 सीटें मिलीं। अपनी भारी-भरकम जीत के साथ इंदिरा गाँधी की अगुवाई वाली कांग्रेस ने अपने दावे को साबित कर दिया कि वही ‘असली कांग्रेस’ है विपक्षी ‘ग्रैंड अलायंस’ धराशायी हो गया था। इस ‘महाजोट’ को 40 से भी कम सीटें मिली थीं।

1971 के लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद पूर्वी पाकिस्‍तान (अब बांग्‍लादेश) में एक बड़ राजनीतिक और सैन्‍य संकट उठ खड़ा हुआ। 1971 के चुनावों के बाद पूर्वी पाकिस्‍तान में संकट पैदा हुआ और भारत-पाक के बीच युद्ध छिड़ गया। इसके परिणामस्‍वरूप बांग्‍लादेश बना। इन घटनाओं से इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता में चार चाँद लग गए।

कांग्रेस लोकसभा के चुनावों में जीती थी और राज्‍य स्‍तर के चुनावों में भी। इन दो लगातार जीतों के साथ कांग्रेस का दबदबा एक बार फिर कायम हुआ।

कांग्रेस प्रणाली का पुनर्स्‍थापन?

बहरहाल कांग्रेस प्रणाली के पुनर्स्‍थापन का क्या मतलब निकलता है ? इंदिरा गाँधी ने जो कुछ किया, वह पुरानी कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का काम नहीं था। कई मामलों में यह पार्टी इंदिरा गाँधी के हाथों नयी तर्ज पर बनी थी। इस पार्टी को लोकप्रियता के लिहाज से वही स्‍थान प्राप्‍त था, जो उसे शुरूआती दौर में हासिल था, लेकिन यह अलग किस्‍म की पार्टी थी। इस कांग्रेस पार्टी के भीतर कई गुट नहीं थे, यानी अब वह विभिन्‍न मतों और हितों को एक साथ लेकर चलने वाली पार्टी नहीं थी। पार्टी कुछ सामाजिक वर्गों जैसे गरीब, महिला, दलित, आदिवासी और अल्‍पसंख्‍यकों पर ज्‍यादा निर्भर थी। जो कांग्रेस उभरकर सामने आई, वह एकदम नयी कांग्रेस थी। इंदिरा गाँधी ने कांग्रेस प्रणाली को पुनर्स्‍थापित जरूर किया, लेकिन कांग्रेस-प्रणाली की प्रकृति को बद‍लकर।

कांग्रेस प्रणाली के भीतर हर तनाव और संघर्ष को पचा लेने की क्षमता थी। कांग्रेस प्रणाली को इसी खासियत के कारण जाना जाता था, लेकिन नयी कांग्रेस ज्‍यादा लोकप्रिय होने के बावजूद इस क्षमता से हीन थी।

भारत के विदेश संबंध | Bharat ka vishesh sambandh 12th class Notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 4 भारत के विदेश संबंध ( Bharat ka vishesh sambandh Class 12th polticial Science in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

भारत के विदेश संबंध

अंतर्राष्‍ट्रीय संदर्भ

भारत बड़ी विकट और चुनौतीपूर्ण अंतर्राष्‍ट्रीय परिस्थियों में आजाद हुआ था। दुनिया महायुद्ध तबाही से अभी बाहर निकली थी और उसके सामने पुननिर्माण का सवाल प्रमुख था। दुनिया के नक्‍शे पर नए देश नमूदार हो रहे थे। नए देशों के सामने लोकतंत्र कायम करने और अपनी जनता की भलाई करने की दोहरी चुनौती थी। एक राष्‍ट्र के रूप में भारत का जन्‍म विश्‍वयुद्ध की पृष्‍ठभूमि में हुआ था। ऐसे में भारत ने अपनी विदेश नीति में अन्‍य सभी देशों की संप्रभूता का सम्मान करने और शांति कायम करके अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्‍य सामने रखा। इस लक्ष्‍य की प्रतिध्‍वनि संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में सुनाई देती है। दूसरे विश्‍वयुद्ध के तुरंत बाद के दौर में अनेक विकासशील देशों ने ताकतवर देशों की मर्जी को ध्‍यान में रखकर अपनी विदेश नीति अपनाई क्‍योंकि इन देशों से इन्‍हें अनुदान अथवा कर्ज मिल रहा था। इस वजह से दुनिया के विभिन्‍न देश  दो खेमों में बँट गए। एक खेमा संयुक्‍त राज्‍य अमरीका और उसके समर्थक देशों के प्रभाव में रहा तो दूसरा खेमा सोवियत संघ के प्रभाव में। जब भारत आजाद हुआ था और अपनी विदेश नीति तैयार कर रहा था तब शीतयुद्ध शुरू ही हुआ था और दुनिया बड़ी तेजी से दो खेमों में बँटती जा रही थी।

गुटनिरपेक्षता की नीति

भारत को जिस वक्‍त आजादी हासिल हुई उस समय शीतयुद्ध का दौर भी शुरू हो चुका था। शीतयुद्ध के दौर में दुनिया के देश दो खेमों में बँट रहे थे। एक खेमे का अगुआ संयुक्‍त राज्‍य अमरीका था और दूसरे का सोवियत संघ। दोनों खेमों के बीच विश्‍वस्‍तर पर आर्थिक, राजनितिक और सैन्‍य टकराव जारी था। इसी दौर में संयुक्त राष्‍ट्र संघ भी अस्तित्‍व में आया; परमाणु हथियारों का निर्माण शुरू हुआ; ची में कम्‍युनिस्‍ट शासन की स्‍थापना हुई। अनौपनिवेशीकरण की प्रक्रिया भी इसी दौर में आरंभ हुई थी।

नेहरू की भूमिका

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्‍ट्री एजेंडा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई। वे प्रधानमंत्री के साथ-साथ विदेश मंत्री भी थे। प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में 1946 से 1964 तक उन्‍होंने भारत की विदेश नीति की रचना और क्रियान्‍वयन पर गहरा प्रभाव डाला। नेहरू की विदेश नीति के तीन बड़े उदेश्‍य थे- कठिन संघर्ष से प्राप्‍त संप्रभुता को बचाए रखना, क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखना और तेज रफ्तार से आर्थिक विकास करना। नेहरू इन उदेश्यों को गुटनिरपेक्षता की नीति अपना‍कर हासिल करना चाहते थे।

दो खेमों से दूरी

आजाद भारत की विदेश नीति में शांतिपूर्ण विश्‍व का सपना था और इसके लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया। भारत ने इसके लिए शीतयुद्ध से उपजे तनाव को कम करने की कोशिश की और संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के शांति-अभियानों में अपनी सेना भेजी। शीतयुद्ध के दौरान भारत किसी खेमे में क्‍यों शामिल नहीं हुआ?

भारत, अमरीका और सोवियत संघ की अगुवाई वाले सैन्‍य गठबंधनों से अपने को दूर रखना चाहता था। शीतयुद्ध के समय अमरीका ने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) और सोवियत संघ ने इसके जवाब में ‘वारसा पैक्‍ट’ नामक संधि संगठन बनाया था। भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति को आदर्श माना।

1956 में जब ब्रिटेन ने स्‍वेज नहर के मामले को लेकर मिस्र पर की अगुवाई की । भारत ने अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों पर स्वतंत्र रवैया अपनाया। भारत अभी बाकी विकासशील देशों को गुटनिरपेक्षता की नीति के बारे में आश्‍वस्‍त करने में लगा था कि पाकिस्‍तान अमरीकी नेतृत्‍व वाले सैन्‍य-गठबंधन में शामिल हो गया। इस वजह से 1950 के दशक में भारत-अ‍मरीकी संबंधों में खटास पैदा हो गई। अमरीका, सोवियत संघ से भारत की बढ़ती हुई दोस्‍ती को लेकर भी नाराज था।

एफ्रो-एशियाई एकता

नेहरू के अगुवाई में भारत ने 1947 के मार्च में ही एशियाई संबंध सम्‍मेलन मिलने में पाँच महीने शेष थे। भारत ने इंडोनेशिया की आजादी के लिए भरपूर प्रयास किए। भारत चाहता था कि इंडोनेशिया डच औपनिवेशिक शासन से यथासंभव शीघ्र मुक्‍त हो जाए। इसके लिए भारत ने 1949 में इंडोनेशिया के स्वतंत्रता-संग्राम के समर्थन में एक अंतर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन किया। इंडोनेशिया के एक शहर बांडुंग में एफ्रो-एशियाई सम्‍मेलन 1955 में हुआ। आमतौर पर हम इसे बांडुंग-सम्‍मेलन के नाम से जानते हैं। बांडुंग-सम्‍मेलन में ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव पड़ी। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्‍मेलन 1961 के सितंबर में बेलग्रेड में हुआ। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना में नेहरू की महती भूमिका रही थी।

चीन के साथ शांति और संघर्ष

चीनी क्रांति 1949 में हुई थी। इस क्रांति के बाद भारत, चीन की कम्‍युनिस्‍ट सरकार को मान्‍यता देने वाले पहले देशों में एक था। पश्चिमी प्रभूत्‍व के चंगुल से निकलने वाले इस देश को लेकर नेहरू के हृदय में गहरे भाव थे और उन्होंने अंतर्राष्‍ट्रीय फलक पर इस सरकार की मदद की।

शांतिपूर्ण सहस्तित्‍व के पाँच सिद्धांतों यानी पंचशील की घेषणा भारत के प्रधानमंत्री नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एन लाई ने संयुक्‍त रूप से 29 अप्रैल 1954 में की। भारत और चीन के नता एक-दूसरे के देश का दौरा करते थे और उनके स्‍वागत में बड़ी भीड़ जुटती थी।

चीन का आक्रमण, 1962

चीन के साथ भारत के इस दोस्‍ताना रिश्‍ते में दो कारणों से खटास आई। चीन ने 1950 में तिब्‍बत पर कब्‍जा कर लिया। शुरू-शुरू में भारत सरकार ने चीन के इस कदम का खुले तौर पर विरोध नहीं किया। तिब्‍बत के धार्मिक नेता दलाई लामा ने भारत से राजनीतिक शरण माँगी और 1959 में भारत ने उन्‍हें शरण दे दी। चीन ने आरोप लगाया कि भारत सरकार अंदरूनी तौर पर चीन विरोध गतिविधियों को हवा दे रही है। इससे कुछ दिनों पहले भारत और चीन के बीच एक सीमा-विवाद भी उठ खड़ा हुआ था। भारत का दावा था कि चीन के साथ सीमा-रेखा का मामला अंग्रेजी शासन के समय का फैसला नहीं माना जा सकता। चीन ने भारतीय भू-क्षेत्र में पड़ने वाले दो इलाकों-जम्‍मू-कश्‍मीर के लदाख वाले हिस्‍से के अक्‍साई-चीन और अरूणाचल प्रदेश-के अधिकांश हिस्सों पर अपना अधिकार जताया। अरूणाचल प्रदेश को उस समय नेफा या उत्तर-पूर्वी सीमांत कहा जाता था। 1957 से 1959 के बीच चीन ने अक्‍साई-चीन इलाके पर कब्‍जा कर लिया और इस इलके में उसने रणनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए एक सड़क बनाई। क्‍यूबा के मिसाइल-संकट जिस समय पूरे विश्‍व का ध्‍यान दो महाशक्तियों की तनातनी से पैदा उस संकट की तरफ लगा हुआ था, ठीक उसी समय चीन ने 1962 के अक्‍तूबर में दोनों विवादित क्षेत्रों पर बड़ी तेजी तथा व्‍यापक स्‍तर पर हमला किया। पहला हमला एक हफ्ते तक चला और इस दौरान चीन सेना ने अरूणचल प्रदेश के कुछ महत्त्‍वपूर्ण इलाकों पर कब्‍जा कर लिया। हमले का अगला दौर नवंबर महीने में शुरू हुआ। लदाख से लगे पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना ने चीन की बढ़त रोकी लेकिन पूर्व में चीनी सेना आगे बढ़ते हुए असम के मैदानी हिस्‍से के प्रवेशद्वार तक पहुँच गई। आखिरकार, चीन ने एकतारफा युद्धविराम घोषित किया और चीन की सेनाएँ उस मुकाम पर लौट गईं जहाँ वे हमले से पहले के वक्‍त में तैनात थीं।

चीन-युद्ध से भारत की छवि को देश और विदेश दोनों ही जगह धक्‍का लगा। नेहरू की छवि भी थोड़ी धूमिल हुई। चीन के इरादों को समय रहते न भाँप सकने और सैन्‍य तैयारी न कर पाने को लेकर नेहरू की बड़ी आलोचना हुई। पहली बार, उनकी सरकार के खिलाफ अविश्‍वास प्रस्‍ताव लाया गया और लोकसभा में इस पर बहस हुई। इसके तुरंत बाद, क्रांग्रेस ने कुछ महत्त्वपूर्ण उप-चुनावों में पटखनी खाई। देश का राजनीतिक मानस बदलने लगा था।

कुछ आगे की ….

1962 के बाद भारत-चीन संबंध

भारत और चीन के बीच संबंधों को सामान्‍य होने में करीब दस साल लग गए। 1976 में दोनों के बीच पूर्ण राजनीतिक संबंध बहाल हो सके। शीर्ष नेता के तौर पर पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी (वे तब विदेश मंत्री थे) 1979 में चीन के दौरे पर गए। बाद में, नेहरू के बाद राजीव गाँधी बतौर प्रधानमंत्री चीन के दौरे पर गए। भारत चीन संघर्ष का असर विपक्षी दलों पर भी हुआ। इस युद्ध और चीन-सोवियत संघ के बीच बढ़ते मतभेद से भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (भाकपा) के अंदर बड़ी उठा-प‍टक मची। भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी 1964 में टूट गई। इस पार्टी के भीतर जो खेमा चीन का पक्षधर था उसने मार्क्‍सवादी भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (सी.पी.आई.एम.-माकपा) बनाई। चीन-युद्ध के तुरंत बाद इस इलाके को नयी तरतीब में ढालने की कोशिशें शुरू की गईं। नगालैंड को प्रांत का दर्जा दिया गया। मणिपुर और त्रिपुरा हालाँकि केंद्र-शासित प्रदेश थे लेकिन उन्‍हें अपनी विधानसभा के निर्वाचन का अधिकार मिला।

पाकिस्‍तान के साथ युद्ध और शांति

कश्‍मीर मसले को लेकर पाकिस्‍तान के साथ बँटवारे के तुरंत बाद ही संघर्ष छिड़ गया था। 1947 में ही कश्‍मीर में भारत और पाकिस्‍तान की सेनाओं के बीच एक छाया-युद्ध छिड़ गया था। कश्‍मीर के सवाल पर हुए संघर्ष के बावजूद भारत और पाकिस्‍तान की सरकारों के बीच सहयोग-संबंध कायम हुए। विश्‍व बैंक विश्‍व की मध्‍यस्‍थाता से नदी जल में हिस्‍सेदारी को लेकर चला आ रहा एक लंबा विवाद सुलझा लिया गया। नेहरू और जनरल अयुब खान ने सिंधु नदी जल संधि पर 1960 में हस्‍ताक्षर किए।

दोनों देशों के बीच 1965 में कहीं ज्‍यादा गंभीर किस्‍म के सैन्‍य-संघर्ष की शुरूआत हुई। 1965 के अप्रैल में पाकिस्‍तान ने गुजरात के कच्‍छ इलाके के रन में सैनिक हमला बोला। इसके बाद जम्‍मू-कश्‍मीर में उसने अगस्‍त-सितंबर के महीने में बड़े पैमाने पर हमला किया। कश्‍मीर के मोर्चे पर पाकिस्‍तानी सेना की बढ़त को रोकने के लिए प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्‍त्री ने पंजाब की सीमा की तरफ से जवाबी हमला करने के आदेश दिए। दोनों देशों की सेनाओं के बीच घनघोर लड़ाई हुई और भारत की सेना आगे बढ़ते हुए लाहौर के नजदीक तक पहुँच गई।

संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के हस्‍तक्षेप से इस लड़ाई का अंत हुआ। बाद में, भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और पाकिस्‍तान के जनरल अयूब खान के बीच 1966 में ताशकंद-समझौता हुआ। सोवियत संघ ने इसमें मध्‍यस्‍थ की भूमिका निभाई।

बांग्‍लादेश  युद्ध, 1971

1970 में पाकिस्‍तान के सामने एक गहरा अंदरूनी संकट आ खड़ा हुआ। पाकिस्‍तान के पहले आम चुनाव में खंडित जनादेश आया। जुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी पश्चिमी पाकिस्‍तान में विजयी रही जबकि मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्‍तान में जोरिदार कामयाबी हासिल की। पाकिस्‍तान के शास‍क इस जनादेश को स्‍वीकार नहीं कर पा रहे थे। आवामी लीग एक परिसंघ बनाने की माँग कर रही थी लेकिन इस माँग को भी स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।

इसकी जगह पाकिस्‍तान सेना ने 1971 में शेख मुजीब को गिरफ्तार कर लिया और पूर्वी पाकिस्‍तान के लोगों पर जुल्‍म ढाने शुरू किए। जवाब में पूर्वी पाकिस्‍तान की जनता ने अपनी इलाके यानी मौजूदा बांग्‍लादेश को पाकिस्तान से मुक्‍त कराने के लिए संघर्ष छेड़ दिया। 1971 में पूरे साल भारत को 80 लाख शरणार्थियों का बोझ वहन करना पड़ा। भारत ने बांग्‍लादेश के ‘मुक्ति संग्राम’ को नैतिक समर्थन और भौतिक सहायता दी। पाकिस्‍तान ने आरोप लगाया कि भारत उसे तोड़ने की साजिश कर रहा है।

पाकिस्‍तान को अमरीका और चीन ने मदद की। 1960 के दशक में अमरीका और चीन के बीच संबंधों को लेकर सामान्‍य करने की कोशिश की कोशिश चल रही थी। अमरीकी राष्‍ट्रपति रिचर्ड निक्‍सन के सलाहकार हेनरी किसिंजर ने 1971 के जुलाई में पाकिस्‍तान होते हुए गुपचुप चीन का दौरा किया। अमरीका-पाकिस्‍तान-चीन की धुरी बनती देख भारत ने इसके जवाब में सोवियत संघ के साथ 1971 में शांति और मित्रता की एक 20 वर्षीय संधि पर दस्‍तखत किए। संधि से भारत को इस बात की आश्‍वासन मिला कि हमला होने की सूरत में सोवियत संघ भारत की मदद करेगा।

महीनों राजनीतिक तनाव और सैन्‍य तैनाती के बाद 1971 के दिसंबर में भारत और पाकिस्‍तान के बीच एक पूर्णव्‍यापी युद्ध छिड़ गया। दस दिनों के अंदर भारतीय सेना ने ढाका को तीन तरफ से घेर लिया और अपने 90,000 सैनिकों के साथ पाकिस्‍तान सेना को आत्‍म-समर्पण करना पड़ा। बांग्‍लादेश के रूप में एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र के उदय के साथ भारतीय सेना ने अपनी तरफ से एकतरफा युद्ध-विराम घोषित कर दिया। बाद में, 3 जुलाई 1972 को इंदिरा गाँधी और जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला-समझौते पर दस्‍तखत हुए और इससे अमन की बहाली हुई। 1971 की जंग के बाद इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता को चार चाँद लग गए। इस युद्ध के बाद अधिकतर राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए और अनेक राज्‍यों में क्रांग्रेस पार्टी बड़े बहुमत से जीती।

भारत की परमाणु नीति

भारत ने 1974 के मई में परमाणु परीक्षण किया। इसकी शुरूआत 1940 के दशक के अंतिम सालों में होमी जहाँगीर भाभा के निर्देशन में हो चुकी थी। साम्‍यवादी शासन वाले चीन ने 1964 के अक्‍तूबर में परमाणु परीक्षण किया। अणुशक्ति-संपन्‍न बिरादरी यानी संयुक्‍त राज्‍य अमरीका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस, और चीन ने, जो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के स्‍थायी सदस्‍य भी थे, दुनिया के अन्‍य देशों पर 1968 की परमाणु अप्रसार संधि को थोपना चाहा। भारत ने इस पर दस्‍तखत करने से इनकार कर दिया था।

जिस वक्‍त परमाणु परीक्षण किया गया था वह दौर घरेलू राजनीति के लिहाज से बड़ा कठिन था। 1973 में अरब-इजरायल युद्ध हुआ था। भारत में मुद्रास्‍फीति बहुत ज्‍यादा बढ़ गई। इस वक्‍त देश में कई आंदोलन चल रहे थे और इसी समय देशव्‍यापी रेल-हड़ताल भी हुई थी।

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नियोजित विकास की राजनीति | Niyojit vikas ki rajniti 12th class Notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 3नियोजित विकास की राजनीति (Niyojit vikas ki rajniti Class 12th polticial Science in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

नियोजित विकास की राजनीति

राजनीतिक फैसले और विकास

इस्‍पात की विश्‍वव्‍यापी माँग बढ़ी तो निवेश के लिहाज से उड़ीसा एक महत्त्‍वपूर्ण जगह के रूप में उभरा। उड़ीसा में लौह-अयस्‍क का विशाल भंडार था और अभी इसका दोहन बाकी था। आदिवासियों को डर है कि अगर यहाँ उद्योग लग गए तो उन्‍हें अपने घर-बार से विस्‍थापित होना पड़ेगा और आजीविका भी छिन जाएगी। पर्यावरणविदों को इस बात का भय है कि खनन और उद्योग लगने से पर्यावरण प्र‍दूषित होगा। केंद्र सरकार को लगता है कि अगर उद्योग लगाने की अनुमति नहीं दी गई, तो इससे एक बुरी मिसाल कायम होगी और देश में पूँजी निवेश को बाधा पहुँचगी। आजादी के बाद अपने देश में ऐसे कई फैसले लिए गए। सारे के सारे फैसले आपस में आर्थिक विकास के एक मॉडल या यों कहें कि एक ‘विजन’ से बँधे हुए थे। लगभग सभी इस बात पर स‍हमत थे कि भारत के विकास का अर्थ आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक-सामाजिक न्‍याय दोनों ही हैं। इस बात पर भी सहमति थी कि इस मामले को व्‍यवसायी, उद्योगपति और किसानों के भरोसे नहीं छोड़ा जा स‍कता। सरकार को इस मसले में प्रमुख भूमिका निभानी थी। बहरहाल, आर्थिक-संवृद्धि हो और सामाजिक न्‍याय भी मिले-इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन-सी भूमिका निभाए?

इस सवाल पर मतभेद थे। क्‍या कोई ऐसा केंद्रीय संगठन जरूरी है जो पूरे देश के लिए योजना बनाए?

विकास की धारणाएँ

आजादी के बाद के पहले दशक में लोग-बाग ‘विकास’ की बात आते ही ‘पश्चिम’ का हवाला देते थे कि ‘विकास’ का पैमाना ‘पश्चिमी’ मुल्‍क हैं। ‘विकास’ का अर्थ था ज्‍यादा-से-ज्‍यादा औद्योगिक देशों की तरह होना। जिस तर‍ह पश्चिमी मुल्‍कों में आधुनिकीकरण के कारण पुरानी सामाजिक संरचना टूटी और पूँजीवाद तथा उदारवाद का उदय हुआ, उसी तरह दुनिया के बाकी देशों में भी होगा।

आजादी के वक्‍व हिंदुस्‍तान के सामने विकास के दो मॉडल थे। पहला उदारवादी-पूंजीवादी मॉडल था। यूरोप के अधिकतर हिस्‍सों और संयुक्‍त राज्य अमरीका में यही मॉडल अपनाया गया था। दूसरा समाजवादी मॉडल था। इसे सोवियत संघ ने अपनाया था। राष्‍ट्रवादी नेताओं के मन में यह बात बिलकुल साफ थी कि आजाद भारत की सरकार के आर्थिक सरोकार अंग्रेजी हुकूमत के आर्थिक सरोकारों से एकदम अलग होंगे। आजादी के आंदोलन के दौरान ही यह बात भी साफ हो गई थी कि गरीबी मिटाने और सामाजिक-आर्थिक पुनर्वितरण के काम का मुख्‍य जिम्‍मा सरकार का होगा।

स्‍वतंत्र भारत में राजनीति

अर्थव्‍यवस्‍था के पुनर्निर्माण के लिए नियोजन के विचार को 1940 और 1950 के दशक में पूरे विश्‍व में जनसमर्थन मिला था। निजी निवेशक मसलन उद्योगपति और बड़े व्‍यापारिक उद्यमि नियोजन के पक्ष में नहीं होते; वे एक खुली अर्थव्‍यवस्‍था चाहते हैं जहाँ पूँजी के बहाव पर सरकार का कोई अंकुश न हो। लेकिन, भारत में ऐसा नहीं हुआ। 1944 में उद्योगपतियों का तबका एकजुट हुआ। इस समूह ने देश में नियोजित अर्थव्‍यवस्था चलाने का एक संयुक्‍त प्रस्‍ताव तैयार किया। इसे ‘बॉम्‍बे प्‍लान’ कहा जाता है। भारत के आजाद होते ही योजना आयोग अस्तित्त्‍व में आया। प्रधानमंत्री इसके अध्‍यक्ष बने।

शुरूआती कदम  

सोवियत संघ की तरह भारत के योजना आयोग ने भी पंचवर्षीय योजनाओं का विकल्‍प चुना। इसके पीछे एक सीधा-सादा विचार था कि भारत सरकार अपनी तरफ से एक दस्‍तावेज तैयार करेगी, जिसमें अगले पाँच सालों के लिए उसकी आमदनी और खर्च की योजना होगी। योजना के अनुसार केंद्र सरकार और सभी राज्‍य-सरकारों के बजट को दो हिस्‍सों में बाँटा गया। एक हिस्‍सा गैरयोजना-व्‍यय का था। इसके अंतर्गत सालाना आधार पर दैनंदिन मदों पर खर्च करना था। दूसरा हिस्‍सा योजना-व्‍यय का था। योजना में तय की गई प्राथमिकताओं को ध्‍यान में रखते हुए इसे पाँच साल की अवधि में खर्च करना था।

1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारूप जारी हुआ इससे देश में गहमागहमी का  माहौल पैदा हुआ। नियोजन को लेकर देश में जो गहमागहमी पैदा हुई थी वह 1956 से चालू दूसरी पंचवर्षीय योजना के साथ अपने पर पहुँच गई। 1961 की तीसरी पंचवर्षीय योजना के समय तक यह महौल जारी रहा। चौथी पंचवर्षीय योजना 1966 से चालू होनी थी। लेकिन, इस वक्‍त तक नियोजन का नयापन एक हद तक मंद पड़ गया था और भारत गहन आर्थिक संकट की चपेट में आ चुका था। सरकार ने पंचवर्षीय योजना को थोड़ी देर का विराम देने का फैसला किया।

प्रथम पंचवर्षीय योजना

प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-1956) की कोशिश देश को गरीबी के मकड़जाल से निकालने की थी। पहली पंचवर्षीय योजना में ज्‍यादा जोर कृषि-क्षेत्र पर था। इसी योजना के अंतर्गत बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। भाखड़ा-नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आबंटित की गई।

औद्योगीकरण की तेज रफ्तार

दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया। पी.सी. महालनोबिस के नेतृत्‍व में अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों की एक टोली ने यह योजना तैयार की थी। सरकार ने देसी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात पर भारी शुल्‍क लगाया।

भारत प्रौद्योगिकी के लिहाज से पिछड़ा हुआ था और विश्‍व बाजार से प्रौद्योगिकी खरीदने में उसे अपनी बहुमूल्‍य विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ी। भारत के योजनाकारों को उद्योग और कृषि के बीच संतुलन साधने में भारी कठिनाई आई। तीसरी पंचवर्षीय योजना दूसरी योजना से कुछ खास अलग नहीं थी।

मुख्‍य विवाद

शुरूआती दौर में विकास की जा रणनीतियाँ अपनाई गईं उन पर बड़े सवाल उठे। यहाँ हम ऐसे दो सवालों की चर्चा करेंगे जो आज भी प्रासंगिक हैं।

कुषि बनाम उद्योग  

यह सवाल है कि भारत जैसी पिछड़ी अर्थव्‍यवस्‍था में कुषि और उद्योग के बीच किसमें ज्‍यादा संसाधन लगाए जाने चाहिए। कइयों का मानना था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुँची। कई अन्‍य लोगों का सोचना था कि औद्योगिक उत्‍पादन की वृद्धि दर को तेज किए बगैर गरीबी के मकड़जाल से छुटकारा नहीं मिल सकता। राज्‍य ने भूमि-सुधार और ग्रामीण निर्धनों के बीच संसाधन के बँटवारे के लिए कानून बनाए। नियोजना में सामुदायिक विकास के कार्यक्रम तथा सिंचाई परियोजनाओं पर बड़ी रकम खर्च करने की बात मानी गई थी। नियोजन की नीतियाँ असफल नहीं हुईं। दरअसल, इनका कार्यान्‍वयन ठीक नहीं हुआ क्‍योंकि भूमि-संपन्‍न तबके के पास सामाजिक और राजनीतिक ता‍कत ज्‍यादा थी। इसके अतिरिक्‍त, ऐसे लोगों की एक दलील यह भी थी कि यदि सरकार कृषि पर ज्‍यादा धनराशि खर्च करती तब भी ग्रामीण गरीबी की विकराल समस्‍या का समाधान न कर पाती।

निजी क्षेत्र बनाम सार्वजनिक क्षेत्र

विकास के जो दो जाने-माने मॉडल थे, भारत ने उनमें से किसी को नहीं अपनाया। पूँजीवादी मॉडल में विकास का काम पूर्णतया निजी क्षेत्र के भरोसे होता है। भारत ने यह रास्‍ता नहीं अपनाया। भारत ने विकास का समाजवादी मॉडल भी नहीं अपनाया जिसमें निजी संपत्ति को खत्‍म कर दिया जाता है और हर तरह के उत्‍पादन पर राज्‍य का नियंत्रण होता है। इन दोनों ही मॉडल की कुछ एक बातों को ले लिया गया और अपने देश में इन्‍हें मिले-जुले रूप में लागू किया गया। इसी कारण भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को ‘मिश्रित-अैर्थव्‍यवस्‍था’ कहा जाता है। खेती-किासन, व्‍यापार और उद्योगों का एक बड़ा भाग निजी क्षेत्र के हाथों में रहा। राज्‍य ने अपने हाथ में उद्योगों को रखा और उसने आधारभूत ढ़ाँचा प्रदान किया।

मुख्‍य परिणाम

नियोजित विकास की शुरूआती कोशिशों को देश के आर्थिक विकास और सभी नागरिकों की भलाई के लक्ष्‍य में आंशिक सफलता मिली। असमान विकास से जिनको फायदा पहुँच था वे जल्‍दी ही राजनीतिक रूप से ताकतवर हो उठे और इन के कारण सबकी भलाई को ध्‍यान में रखकर विकास की दिशा में कदम उठाना और मुश्किल हो गया।

बुनियाद

भारत के इतिहास की कुछ सबसे बड़ी विकास-परियोजनाएँ इसी अवधि में शुरू हुईं। इसमें सिंचाई और बिजली-उत्‍पादन के लिए शुरू की गई भाखड़ा-नांगल और हीराकुंड जैसी विशाल बाँध परियोजनाएँ शामिल हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ भारी उद्योग जैसे-इस्‍पात-संयंत्र, तेल-शोधक कारखाने, विनिर्माता इकाइयाँ, रक्षा-उत्‍पादन आदि-इसी अ‍वधि में शुरू हुए। इस दौर में परिवहन और संचार के आधारभूत ढ़ाँचे में भी काफी इजाफा हुआ।

भूमि सुधार

इस अवधि में भूमि सुधार के गंभीर प्रयास हुए। इनमें सबसे महत्त्‍वपूर्ण और सफल प्रयास जमींदारी प्रथा को समाप्‍त करने का था। इस साहसिक कदम को उठाने से जमीन उस वर्ग के हाथ से मुक्‍त हुई जिसे कृषि में कोई दिलचस्‍पी नहीं थी। इससे राजनीति पर दबदबा कायम रखने की जमींदारों की क्षमता भी घटी। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ करने के प्रयास किए गए ताकि खेती का काम सुविधजनक हो सके। यह प्रयास भी सफल रहा।

हरित क्रांति

खाद्यान्न संकट की इस हालत में देश पर बाहरी दबाव पड़ने की आशंका बढ़ गई थी। भारत विदेशी खाद्य-सहायता पर निर्भर हो चला था, खासकर संयुक्‍त राज्‍य अमरीका के। संयुक्‍त राज्‍य अमरीका ने इसकी एवज में भारत पर अपनी आर्थिक नीतियों को बदलने के लिए जोर डाला। सरकार ने खाद्य सुरक्षा के मामले में पिछड़े हुए थे, शुरू-शुरू में सरकार ने उनको ज्‍यादा सहायता देने की नीति आपनाई थी। स‍रकार ने उच्‍च गुणवत्ता के बीज, उर्वक, कीटनाशक और बेहतर सिंचाई सुविधा बड़े अनुदानित मूल्‍य पर मुहैया कराना शुरू किया। सरकार ने इस बात की भी गारंटी दी कि उपज को एक निर्धारित मूल्‍य पर खरीद लिया जाएगा। यही उस परिघटना की शुरूआत थी जिसे ‘हरित क्रांति’ कहा जाता है। हरति क्रांति से खेतिहर पैदावार में सामान्‍य किस्‍म का इजफा हुआ। (ज्‍यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्‍न की उपलब्‍धता में बढ़ोतरी हुई।

बाद के बदलाव

1960 के दशक के अंत में भारत के आर्थिक विकास की कथा में एक नया मोड़ आता है। इंदिरा गाँधी जननेता बनकर उभरीं। फैसला किया कि अर्थव्यवस्‍था के नियंत्रण और निर्देशन में राज्‍य और बड़ी भूमिका निभाएगा। 1967 के बाद की अ‍वधि में निजी क्षेत्र के उद्योगों पर और बाधाएँ आयद हुईं। 14 निजी बैंकों का राष्‍ट्रीयकरण कर दिया गया। सरकार ने गरीबों की भलाई के लिए अनेक कार्यक्रमों की घोषणा की।

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एक दल के प्रभुत्‍व का दौर | Ek dal ke prabhutv ka daur 12th class Notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 2 एक दल के प्रभुत्‍व का दौर (Ek dal ke prabhutv ka daur Class 12th polticial Science in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

2. एक दल के प्रभुत्‍व का दौर

लोकतंत्र स्‍थापित करने की चुनौती

हमारा संविधान 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृ‍त किया गया और 24 जनवरी 1950 को इस पर हस्‍ताक्षर हुए। यह संविधान 26 जनवरी 1950 से अमल में आया। उस वक्‍त देश का शासन अंतरिम सरकार चला रही थी। वक्‍त का तकाजा था कि देश का शासन लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार द्वारा चलाया जाए। भारत के चुनाव आयोग का गठन 1950 के जनवरी में हुआ। सुकुमार सेन पहले चुनाव आयुक्त बने उस वक्‍त देश में 17 करोड़ मतदाता थे। इन्‍हें 3200 विधायक और लोकसभा के लिए 489 सांसद चुनने थें। इन मतदाताओं में महज 15 फीसदी साक्षर थे। चुनाव आयोग ने चुनाव कराने के लिए 3 लाख से ज्‍यादा अधिकारियों और चुनावकर्मियों को प्र‍शिक्षित किया।

मतदाताओं की एक बड़ी तादाद गरीब और अनपढ़ लोगों की थी और ऐसे माहौल में यह चुनाव लोकतंत्र के लिए परीक्षा की कठिन घड़ी था। इस वक्‍त तक लोकतंत्र सिर्फ धनी देशों में ही कायम था। ऐसे में हिंदुस्‍तान में सार्वभौम मताधिकार पर अमल हुआ और यह अपने आप में बड़ा जोखिम भरा प्रयोग था। एक हिंदुस्‍तानी संपादक ने इसे ”इतिहास का सबसे बड़ा जुआ” करार दिया। ‘आर्गनाइजर’ नाम की पत्रिका ने लिखा कि सार्वभौम मताधिकार असफल रहा।”

1951 के अक्‍टूबर से 1952 के फरवरी तक चुनाव हुए। बहरहाल, इस चुनाव को अमूमन 1952 का चुनाव ही जाता है क्‍योंकि देश के अधिकांश हिस्सों में मतदान 1952 में ही हुए। चुनाव अभियान, मतदान और मतगणना में कुल छह महीने लगे। चुनावों में चुनाव के मैदान में थे। कुल मतदाताओं में आधे से अधिक ने मतदान के दिन अपने वोट डाला। चुनावों के परिणाम घोषित हुआ तो हारने वाले उम्‍मीदवारों ने भी इन परिणामों को निष्‍पक्ष बताया। सार्वर्भाम मताधिकार के इस प्रयोग ने आलोचकों का मुँह बंद कर दिया।

1952 का आम चुनाव पूरी दुनिया में लोकतंत्र के इतिहास के लिए मील का पत्‍थर साबित हुआ।

पहले तीन चुनावों में कांग्रेस का प्रभुत्‍व

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लोकप्रचलित नाम कांग्रेस पार्टी था और इस पार्टी को स्‍वाधीनता संग्राम की विरासत हासिल थी तब के दिनों में यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन पूरे देश में था। फिर, इस पार्टी में खुद जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्‍माई और लोकप्रिय नेता थे। जब चुनाव परिणाम घोषित हुए तो कांग्रेस पार्टी की भारी-भरकम जीत से बहुतों को आश्‍चर्य हुआ। इस पार्टी ने लोकसभा के पहले चुनाव में कुल 489 सीटों में 364 सीटें जीतीं। पहले आम चुनाव में भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी दूसरे नंबर पर रही। उसे कुल 16 सीट हासिल हुईं। लोकसभा के चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के भी चुनाव कराए गए थे। कांग्रे‍स पार्टी को विधानसभा के चुनावों में भी बड़ी जीत हासिल हुई। दूसरा आम चुनाव 1957 में और तीसरा 1962 में हुआ। कांग्रेस पार्टी ने तीन-चौथाई सीटें मिली। कांग्रेस पार्टी ने जितनी सीटें जीती थीं उस‍का दशांश भी कोई विपक्षी पार्टी नहीं जीत स‍की। विधानसभा के चुनावों में कहीं-कहीं कांग्रेस को ब‍हुमत नहीं मिला। 1957 में केरल में भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की अगुआई में एक गठबंधन सरकारी बनी।

1952 में कांग्रेस पार्टी को कुल वोटों में से मात्र 45 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे लेकिन कांग्रेस को 74 प्रतिशत फीसदी सीटें हासिल हुईं।

सोशलिस्‍ट पार्टी  

कांग्रेस सोशलिस्‍ट पार्टी का गठन खुद के भीतर 1934 में युवा नेताओं की एक टोली ने किया था। ये नेता कांग्रेस को ज्यादा-से-ज्‍यादा परिवर्तनकामी और समतावादी बनाना चाहते थे। 1948 में कांग्रेस ने अपने संविधान में बदलाव किया। यह बदलाव इसलिए किया गया था ताकि कांग्रेस के सदस्‍य दोहरी सदस्‍य दोहरी सदस्‍यता न धारण कर सकें। इस वजह से कांग्रेस के समाजवादियों को मजबूरन 1948 में अलग होकर सोशलिस्‍ट पार्टी बनानी पड़ी। समाजवादी लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा में विश्‍वास करते थे और इस आधार पर वे कांग्रेस तथा साम्‍यवादी (कम्‍युनिस्‍ट) दोनों से अलग थे। वे कांग्रेस की आलोचना करते थे कि वह पूँजीपतियों और मजदूरों-किसानों की उपेक्षा कर रही है। सोशलिस्‍ट पार्टी के कई टुकड़े हुए इस प्रक्रिया में कई समाजवादी दल बने। इन दलों में, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, प्रजा सोशलिस्‍ट पार्टी और संयुक्‍त सोशलिस्‍ट पार्टी का नाम लिया जा सकता है। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, राममनोहर लोहिया और एस.एम. जोशी  समाजवादी दलों के नेताओं में प्रमुख थे।

कांग्रेस के प्रभुत्‍व की प्रकृति

भारत ही एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो एक पार्टी के प्रभुत्‍व के दौर से गुजरा हो। अगर हम दुनिया के बाकी मुल्‍कों पर नजर दौड़ाएँ तो हमें एक पार्टी के प्रभुत्‍व के बहुत-से उदाहरण मिलेंगे। बहरहाल, बाकी मुल्‍कों में एक पार्टी के प्रभुत्‍व और भारत में एक पार्टी के प्रभुत्‍व के बीच एक बड़ा भारी फर्क है। बाकी मुल्‍कों में एक पार्टी के प्रभुत्‍व के बहुत-से उदाहरण मिलेंगे। बहरहाल, बाकी मुल्‍कों में एक पार्टी के प्रभुत्‍व और भारत में एक पार्टी के प्रभुत्‍व के बीच एक बड़ा भारी फर्क है। बाकी मुल्‍कों में एक पार्टी का प्रभुत्‍व लोकतंत्र की कीमत पर कायम हुआ। कुछ देशों मसलन चीन, क्‍यूबा और सीरिया के संविधान में सिर्फ एक ही पार्टी को देश के शासन की अनुमति दी गई है।

कांग्रेस पार्टी की इस असाधारण सफलता की जड़ें स्‍वा‍धीनता-संग्राम की विरासत में हैं। कांग्रेस पार्टी को राष्‍ट्रीय आंदोलन के वारिस के रूप में देखा गया।

अनेक पार्टियों का गठन स्‍वतंत्रता के समय के आस-पास अथवा उसके बाद में हुआ। कांग्रेस को ‘अव्‍वल और एकलौता’ होने का फायदा मिला। इस पार्टी संगठन का नेटवर्क स्‍थानीय स्‍तर तक पहुँच चुका था।

कांग्रेस एक सामाजिक और विचारधारात्‍मक गठबंधन के रूप में

कांग्रेस का जन्‍म 1985 में हुआ था। कांग्रेस में किसान और उद्योगपति, शहर के बाशिंदे और गाँव के निवासी, मजदूर और मालिक एवं मध्‍य, निम्‍न और उच्‍च वर्ग तथा जाति सबको जगह मिली। इसमें खेती-किसानी की बुनियादी वाले तथा गाँव-गिरान की तरफ रूझाव रखने वाले नेता भी उभरे।

कई बार यह भी हुआ कि किसी समूह ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ एकसार नहीं किया और अपने-अपने विश्‍वासों को मानते हुए बतौर एक व्‍यक्ति या समूह के कांग्रेस के भीतर बने रहे। कांग्रेस एक विचारधारात्‍मक गठबंधन भी थी। कांग्रेस ने अपने अंदर क्रांतिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर धारा के मध्‍यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह, हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्‍ट्रीय आंदोलन में भाग लेते थे।

गुटों में तालमेल और सहनशीलता 

कांग्रेस के गठबंधनी स्‍वभाव ने उसे एक असाधारण ताकत दी। पहली बात तो यही कि जो भी आए, गठबंधन उसे अपने में शामिल कर लेता है।

सुहल-समझौते के रास्‍ते पर चलना और सर्व-समावेशी होना गठबंधन की विशेषता होती है। इस रणनीति की वजह से विपक्ष कठिनाई में पड़ा। विपक्ष कोई बात कहना चाहे तो कांग्रेस की विचारधारा और कार्यक्रम में उसे तुरंत जगह मिल जाती थी। दूसरे, अगर किसी पार्टी का स्‍वभाव गठबंधनी हो तो अंदरूनी मतभेदों को लेकर उसमें सहनशीलता भी ज्‍यादा होती है। विभिन्‍न समूह और नेताओं की महत्त्‍वकांक्षाओं की भी उसमें समाई हो जाती है। कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई के दौरान इन दोनों ही बातों पर अमल किया था और आजादी मिलने के बाद भी इस पर अमल जारी रखा। इसी कारण, अगर कोई समूह पार्टी के रूख से अथवा सत्ता में प्राप्‍त अपने हिस्‍से से नाखुश हो तब भी वह पार्टी में ही बना रहता था। पार्टी को छोड़कर विपक्षी की भूमिका अपनाने की जगह पार्टी में मौजूद किसी दूसरे समूह से लड़ने को बेहतर समझता था।

पार्टी के अंदर मौजूद विभिन्‍न समूह गुट कहे जाते हैं। अकसर गुटों के बनने के पीछे व्‍यक्तिगत महत्त्‍वकांक्षा तथा प्रतिस्‍पर्धा की भावना भी काम करती थी। ऐसे में अंदरूनी गुटबाजी कांग्रेस की कमजोरी बनने की बजाय उसकी ताकत साबित हुई।

कांग्रेस की अधिकतर प्र‍ांतीय इकाइयों विभिन्‍न गुटों को मिलाकर बनी थी। ये गुट अलग-अलग विचारधारात्‍मक रूख अपनाते थे और कांग्रेस एक भारी-भरकम मध्‍यमार्गी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आती थी। गुटों की मौजूदगी की यह प्रणाल शासक-दल के भीतर संतुलन साधने के एक औजार की तरह काम करती थी। इस तरह राजनीतिक होड़ कांग्रेस के भीतर ही चलती थी। इस अर्थ में देखें तो चुनावी प्रतिस्‍पर्ध के पहले दशक में कांग्रेस ने शासक-दल की भूमिका निभायी और विपक्ष की भी। इसी कारण भारतीय राजनीति के इस कालखंड को ‘कांग्रेस-प्रणाली’ कहा जाता है।

विपक्षी पार्टियों का उद्भव

बहुदलीय लोकतंत्र वाले अन्य अनेक देशों की तुलना में उस वक्‍त भी भारत में बहुविध और जीवन्‍त विपक्षी पार्टीयाँ थीं। इनमें से कई पार्टियाँ 1952 के आम चुनावों से कहीं पहले बन चुकी थीं। इनमें से कुछ ने ‘साठ’ और ‘सत्तर’ के दशक में देश की राजनीति में महत्त्‍वपूर्ण भूमिका निभायी। इन दलों की मौजूदगी ने हमारी शासन-व्‍यवस्‍था के लोकतांत्रिक चरित्र को बनाए रखने में निर्णायक भूमिका निभायी विपक्षी दलों ने शासक-दल पर अंकुश रखा।

स्‍वतंत्र पार्टी

शुरूआती सालों में कांग्रेस और विपक्षी दलों के नेताओं के बीच पारस्‍परिक सम्‍मान का गहरा भाव था। स्वतंत्रता की उद्घोणा के बाद अंतरिम सरकार ने देश का शासन सँभाला था। इसके मंत्रिमंडल में डॉ. अंबेडकर और श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे विपक्षी नेता शामिल थे। जवाहरलाल नेहरू अकसर सोशलिस्‍ट पार्टी के प्रति अपने प्‍यार का इजहार करते थे। उन्‍होंने जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी नेताओं को सरकार में  शामिल होने का न्‍यौता दिया।

इस तरह अपने देश में लोकतांत्रिक राजनीति का पहला दौर एकदम अनूठा था। राष्‍ट्रीय आंदोलन का चरित्र समावेशी था। इसकी अगुआई कांग्रेस ने की थी। राष्‍ट्रीय आंदोलन के इस चरित्र के कारण कांग्रेस की तरफ विभिन्‍न समूह, वर्ग और हितों के लोग आकर्षित हुए। सामाजिक और विचारधारात्‍मक रूप से कांग्रेस एक व्‍यापक गठबंधन के रूप में उभरी। आजादी की लड़ाई में कांग्रेस ने मुख्‍य भूमिका निभायी थी और इस कारण कांग्रेस को दूसरी पार्टियों की अपेक्षा बढ़त प्राप्‍त थी। इस तरह कांग्रेस का प्रभुत्‍व देश की राजनीति के सिर्फ एक दौर में रहा।

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राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ | Rashtra Nirman ki Chunauti 12th Class Notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 polticial Science के पाठ 1 राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ (Rashtra Nirman ki Chunauti 12th Class Notes in Hindi) के सभी टॉपिकों के बारे में अध्‍ययन करेंगे।

National Capitol Building in Havana

 

1. राष्ट्र-निर्माण की चुनौतियाँ

नए राष्ट्र की चुनौतियाँ

सन् 1947 के 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि को हिंदुस्तान आजाद हुआ। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्रि जवाहरलाल नेहरू ने इस रात संविधान सभा के एक विशेष सत्र को संबोधित किया था। उनका यह प्रसिद्ध भाषण ‘भाग्यवधू से चिर-प्रतीक्षित भेंट’ या ‘ट्रिस्ट विद् डेस्टिन’ के नाम से जाना गया।

अजाद हिंदुस्तान का जन्म कठिन परिस्थितियों में हुआ। हिंदुस्तान सन् 1947 में जिन हालात के बिच आजाद हुआ, शायद उस वक्त तक कोई भी मुल्क वैसे हालात में आजाद नहीं हुआ था। आजादी मिली लेकिन देश के बँटवारे के साथ।

आजादी के उन उथल-पुथल भरे दिनों में हमारे नेताओं का ध्यान इस बात से नहीं भटका कि यह नया राष्ट्र चुनौतियों की चपेट में है।

तीन चुनौतियाँ

मुख्य तौर पर भारत के सामने तीन तरह की चुनौतियाँ थीं।  

पहली और तात्कालिन चुनौती एकता के सुत्र में बँधे एक ऐसे भारत को गढ़ने की थी जिसमें भारतीय समाज की सारी विविधताओं के लिए जगह हो।

यहाँ अलग-अलग बोली बोलने वाले लोग थे, उनकी संस्कृति अलग थी और वे अलग-अलग धर्मो के अनुयायी थे। उस वक्त आमतौर पर यही माना जा रहा था कि इतनी विविधताओं से भरा कोई देश ज्यादा दिनों तक एक जुट नहीं रह सकता।

दूसरी चुनौती लोकतंत्र को कायम करने की थी। भारत ने संसदीय शासन पर आधारित प्रतिनिधित्वमूलक लोकतंत्र को अपनाया।

लोकतंत्र को कायम करने के लिए लोकतांत्रिक संविधान जरूरी होता है।

तीसरी चुनौती थी ऐसे विकास की जिसमें समूचे समाज का भला होता हो न कि कुछ एक तबकों का।

आजादी के तुरंत बाद राष्ट्र-निर्माण की चुनौती सबसे प्रमुख थी।

विभाजनः विस्थापन और पुनर्वास

14-15 अगस्त 1947 को एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र-भारत और पाकिस्तान-अस्तित्व में आए ऐसा विभाजन के कारण हुआ। ब्रिटिश इण्डिया को भारत और पाकिस्तान के रूप में बाँटा।

मुस्लिम लीग में द्वि-राष्ट्र सि़द्धांत कि बात की थी। इस सि़द्धांत के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि हिन्दु और मुसलमान नाम की दो कौमो का देश था और इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश यानी पाकिस्तान के मांग की कांग्रेस ने द्वी-राष्ट्र सिद्धांत तथा पाकिस्तान की मांग का विरोध किया।

कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बिच राजनीतिक प्रतिसप्रर्धा तथा ब्रिटिश शासन की भुमिका जैसी कई बातो का जोड़ रहा। नतीजतन पाकिस्तान के मांग मान ली गई।

विभाजन की प्रक्रिया

फैसला हुआ की अबतक जिस भू-भाग को इण्डिया के नाम से जाना जाता था उसे भारत और पाकिस्तान नाम के दो देशो के बिच बाँट दिया जाएगा।

धार्मिक बहु संख्या को विभाजन का आधार बनाया जाएगा। जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे वे इलाके पाकिस्तान के भू-भाग होंगे। और शेष हिस्से भारत कहलाएँगे।

ब्रिटिश इण्डिया में कोई एक भी इलाका ऐसा नहीं था जाहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हो। ऐसे दो इलाके थे जहाँ मुसलमान की आबादी ज्यादा थी। एक इलाका पश्चिम में था तो दुसरा इलाका पूर्व में।

इसे देखते हुए फैसला हुआ की पाकिस्तान में दो इलाके शामिल होंगे। यानी पश्चिम पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान तथा इनके बीच में भारतीया भू-भाग का एक बड़ा विस्तार रहेगा। मुस्लिम बहुल हर इलाका पाकिस्तान में जाने को राजी हो। ऐसा भी नहीं था। खान अब्दुल गफार खान पश्चिमोत्तर सिमाप्रांत के निर्विवाद नेता थे। उनकी प्रसिद्धी सिमांत गाँधी के रूप में थी और वे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के एकदम खिलाफ थे। संयोग से उनकी आवाज की अंदेखी की गई और ‘पश्चिमोत्तर सिमाप्रांत’ को पाकिस्तान में शामिल मान लिया गया।

‘ब्रिटिश इण्डिया’ के मुस्लिम-बहुल प्रांत पंजाब और बंगाल में अनेक हिस्से बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। ऐसे में फैसला हुआ की इन दोनो प्रांतो में भी बँटवारा धार्मिक बहुसंख्यको के आधार पर होगा और इसमें जिले अथवा उससे निचले स्तर के प्रशासनिक हल्के को आधार माना जाएगा। 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्री तक यह फैसला नहीं हो पाया था इसका मतलब यह हुआ की आजादी के दीन तक अनेक लोगों को यह पता नहीं था कि वे भारत में है या पाकिस्तान में। पंजाब और बंगाल का बँटवारा विभाजन के सबसे बड़ी त्रासदी साबित हुआ।

सीमा के दोनों तरफ अल्प संख्यक थे। जो इलाके अब पाकिस्तान में है वहाँ लाखों की संख्या में हिन्दु और सिख आबादी थी। ठीक इसी तरह पंजाब और बंगाल के भारतीय भू-भाग में भी लाखो की संख्या में मुस्लिम आबादी थी।

जैसे हीं यह बात साफ हुई की देश का बँटवारा होने वाला है वैसे हीं दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे।

शुरू-शुरू में लोग-बाग और नेता यही मान कर चल रहे थे की हिंसा की घटनाएँ अस्थाई हैं। और जल्दी हीं इनको काबु में कर लिया जाएगा लेकिन बड़ी जल्दी हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई दोनों तरफ के अल्प संख्यकों के पास एक मात्र रास्ता यहीं बचा था की वे अपने-अपने घरों को छोड़ दें।

विभाजन की परिणाम

सन् 1947 में बड़े पैमाने पर एक जगह की आबादी दूसरी जगह जाने को मजबुर हुई थी। आबादी का यह स्थानांतरण आकस्मिक अनियोजित और त्रासदी से भरा था। मानव-इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानांतरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय के लोगों ने दुसरे समुदाय के लोगों को बेरहमी से मारा लाहौर अमृतसर और कलकत्ता जैसे शहर संप्रदायिक अखाड़े में तबदिल हो गए।

लोग अपना घर-बार छोड़ने के लिए मजबुर हुए। वे सीमा के एक तरफ से दुसरे तरफ गए।

दोनों हीं तरफ के अल्पसंख्यक अपने घरो में भाग खड़े हुए और अक्सर अस्थायी तौर पर उन्हें सरणार्थी सिविरो में पनाह लेनी पड़ी।

लोगों को सिमा के दुसरे तरफ जाना पड़ा। अक्सर लोगों ने पैदल चलकर यह दूरी तय की सिमा के दोनों ओर हजारों की तादाद में औरतों को अगवा कर लिया गया। उन्हें जबरन शादी करनी पड़ी और अगवा करने वाले का धर्म भी अपनाना पड़ा। कई  मामलों में यह भी हुआ की खुद परिवार के लोगों ने अपने कुल की इज्जत बचाने के नाम पर घर की बहु-बेटियों को मार डाला। बहुत से बच्चे अपने माँ-बाप से बिछड़ गए।

भारत और पाकिस्तान के लेखक-कवि तथा फिल्म- निर्माताओं ने अपने उपन्यास, लघु कथा कविता और फिल्मों में इस मार-काट की नृशंसता का जिक्र किया। विस्थापन और हिंसा से पैदा दुःखों को अभी व्यक्ति दी।

इन सबों के लिए बँटवारे का मतलब ‘था दिल के दो टुकड़े हो जाना’।

वित्तीय संपदा के साथ-साथ टेबुल, कुर्सी टाइपराइटर और पुलिस के वाद्ययंत्रों तक का बँटवारा हुआ था। सरकारी और रेलवे के कर्मचारियों का भी बँटवारा हुआ।

अनुमान किया जाता है कि विभाजन के कारण 80 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़कर सिमा-पार जाना पड़ा। विभाजन की हिंसा में तकरिबन 5-10 लाख लोगों ने अपनी जान गँवाई।

विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी पाकिस्तान चली गई। इसके बावजूद 1951 के वक्त भारत के कुल आबादी में 12 फिसदी मुसलमान थे।

भारत की कौमी सरकार के अधिकतर नेता सभी नागरिकों को समान दर्जा देने के हामी थे। चाहे नागरिक किसी धर्म का हो वे भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में नहीं देखना चाहते थे जहाँ किसी एक धर्म के अनुयायियों को दुसरे धर्मावालंबियों के ऊपर वरीयता दी जाए

वे मानते थे कि ना‍गरिक चाहे जिस धर्म को माने, उसका दर्जा बाकी नागरिकों के बराबर ही होना चाहिए।  

महात्‍मा गाँधी की शहादत

महात्‍मा गाँधी ने 15 अगस्‍त,1947 के दिन आजादी के किसी भी जश्‍न में भाग नहीं लिया। वे कोलकात्ता के उन इलाकों में डेरा डाले हुए थे जहाँ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भयंकर दंगे हुए थे। सांप्रदायिक हिंसा से उनके मन पर गहरा चोट लगी थी। यह देखकर उनका दिल टूट चुका था कि ‘अहिंसा’ और ‘सत्‍याग्रह’ के जिन सिद्धांतों के लिए वे आजीवन समर्पित भाव से काम करत रहे वे ही सिद्धांत इस कठिन घड़ी में लोगों को एकसूत्र में पिरो सकने में नाकामयाब हो गए थे। गाँधीजी ने हिंदुओं और मुसलमानों से जोर देकर कहा कि वे हिंसा का रास्‍ता छोड़ दें। कोलकत्ता में गाँधी की माजूदगी से हालात बड़ी हद तक सुधर चले थे और आजादी का जश्‍न लोगों ने सांप्रदायिक सद्भाव के जज्‍बे से मनाया। लोग सड़कों पर पूरे हर्षोल्‍लास के साथ नाच रहे थे। गाँधी की प्रार्थना-सभा में बड़ी संख्‍या में लोग जुटते थे। बहरहाल, यह स्थिति ज्‍यादा दिनों तक कायम नहीं रही। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगे एक बार फिर से भड़क उठे और गाँधीजी अमन कायम करने के लिए ‘उपवास’ पर बैठ गए।

अगले महीने गाँधीजी दिल्‍ली पहुँचे। दिल्‍ली में भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। गाँधीजी दिल से चाहते थे कि मुसलमानों को भारत में गरिमापूर्ण जीवन मिले और उन्‍हें बराबर का नागरिक माना जाए। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए वे बड़े चिंतित थे। भारत और पाकिस्‍तान के आपसी संबंधों को लेकर भी उनके मन में गहरी चिंताएँ थीं। उन्‍हें लग रहा था कि भारत की सरकार पाकिस्‍तान के प्रति अपनी वित्तीय वचनबद्धताओं को पूरा नहीं कर रही है। इन सारी बातों को सोचकर उन्‍होंने 1948 की जनवरी में एक बार फिर ‘ उपवास’ रखना शुरू किया। यह उनका अंतिम ‘उपवास’ साबित हुआ। कोलकात्ता की ही तरह दिल्‍ली में भी उनके ‘उपवास’ का जादुई असर हुआ। सांप्रदायिक तनाव और‍ हिंसा में कमी हुई। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाके के मुसलमान सुरक्षित अपने घरों में लौटे। भारत की सरकार पाकिस्‍तान को उसका देय चुकाने पर राजी हो गई।

बहरहाल, गाँधीजी के कामों से हर कोई खुश हो, ऐसी बात नहीं थी। हिंदु और मुसलमान दोनों ही समुदायों के अतिवादी अपनी स्थिति के लिए गाँधीजी पर दोष मुढ़ रहे थे। जो लोग चाहते थे कि हिंदु बदला लें अथवा भारत भी उसी तरह सिर्फ हिंदुओं का राष्‍ट्र बने जैसे पाकिस्‍तान मुसलमानों का राष्‍ट्र बना था-वे गाँधीजी को खासतौर पर नापसंद करते थे। उन लोगों ने आरोप लगाया कि गाँधीजी मुसलमानों और पाकिस्‍तान के हित में काम कर रहे हैं। गाँधीजी मानते थे कि ये लोग गुमराह हैं। उन्‍हें उस बात का पक्‍का विश्‍वास था कि भारत को सिर्फ हिंदुओं का देश बनाने की कोशिश की गई तो भारत बर्बाद हो जाएगा। हिंदु-मुस्लिम एकता के उनके अडिग प्रयासों से अतिवादी हिंदु इतने नाराज थे कि उन्‍होंने कई दफे गाँधीजी को जान से मारने की कोशि‍श की। इसके बावजूद गाँधीजी ने सशस्‍त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना-सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा। आखिरकार, 30 जनवरी 1948 के दिन ऐसा ही एक हिंदु अतिवादी नाथूराम विनायक गोडसे, गाँधीजी की संध्‍याकालीन प्रार्थना के समय उनकी तरफ चलता हुआ नजदीक पहुँच गया। उसने गाँधीजी पर तीन गोलियाँ चलाईं और गाँधीजी को तत्‍क्षण मार दिया। उस तरह न्‍याय और सहिष्‍णुता को आजीवन समर्पित एक आत्‍मा का देहावसान हुआ।

गाँधीजी की मौत का देश के सांप्रायिक माहौल पर मानो जादुई असर हुआ। विभाजन से जुड़ा क्रोध और हिंसा अचानक ही मंद जड़ गए। राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को कुछ दिनों तक प्रतिबंधित कर दिया गया। सांप्र‍दायिक राजनीति का जोर लोगों में घटने लगा।  

रजवाड़ों का विलय

ब्रिटिश इंडिया दो हिस्‍सों में था। एक हिस्‍से में ब्रिटिश प्रभुत्‍व वाले भारतीय प्रांत थे तो दूसरे हिस्‍से में देसी रजवाड़े। ब्रिटिश प्रभुत्‍व वाले भारतीय प्रांतो पर अंग्रजी सरकार का सीधा नियंत्रण था। दूसरी तरफ छोटे-बड़े आकार के कुछ और राज्‍य थे। इन्‍हें रजवाड़ा कहा जाता था। रजवाड़ों पर राजाओं का शासन था। राजाओं ने ब्रिटिश-राज की अधीनता या कहें कि सर्वोच्‍य सत्ता स्‍वीकार कर रखी थी और उसके अंतर्गत वे अपने राज्‍य के घरेलू मामलों का शासन चलाते थे।

समस्‍या

आजादी के तुरंत पहले अंग्रजी-शासन ने घोषणा की कि भारत पर ब्रिटिश-प्रभुत्‍व के साथ ही रजवाड़े भी ब्रिटिश-अ‍धीनता आजाद हो जाएँगे। इसका मतलब यह था कि सभी रजवाड़े (रावाड़ों की संख्‍या 565 थी) ब्रिटिश-राज की समाप्ति के साथ ही कानूनी तौर पर आजाद हो जाएँगे। अंग्रेजी-राज का नजरिया यह था कि रजवाड़े अपनी मर्जी से चाहें तो भारत या पाकिस्‍तान में शामिल हो जाएँ या फिर अपना स्‍वतंत्र अस्तित्‍व बनाएँ रखें। यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया था।

सबसे पहले त्रावणकोर के राजा ने अपने राज्‍य को आजाद रखने की घोषण की। अगले दिन हैदराबाद के निजाम ने ऐसी ही घोषणा की। कुछ शासक मसलन भोपाल के नवाब संविधान-सभा में शामिल नहीं होना चाहते थे। राजवाड़ों के शासकों के रवैये से यह बात साफ हो गई कि आजादी के बाद हिंदुस्तान कई छोटे-छोटे देशों की शक्‍ल में बँट जाने वाला है।

सरकार का नजरिया

छोटे-छोटे विभिन्‍न आकार के देशों में बँट जाने की इस संभावना के विरूद्ध अंतरिम सरकार ने कड़ा रूख अपनाया। मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्‍ट्रीय क्रांग्रेस के इस कदम का विरोध किया। लीग का मानना था कि रजवाड़ों को अपनी मनमर्जी का रास्‍ता चुनने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। रजवाड़ों के शासकों को मनाने-समझाने में सरदार पटेल ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई और अधिकतर रजवाड़ों को उन्होंने भार‍तीय संघ में शामिल होने के लिए राजी कर लिया।

शांतिपूर्ण बातचीत के जरिए लगभग सभी रजवाड़े जिन‍की सीमाएँ आजाद हिंदुस्‍तान की नयी सीमाओं से मिलती थीं, 15 अगस्‍त 1947 से पहले ही भारतीय संघ में शामिल हो गए। अधि‍कतर रजवाड़ों के शासकों ने भारतीय संघ में अपने विलय के एक स‍हमति-पत्र पर हस्‍ताक्षर किए। इस सहमति-पत्र को ‘इंस्‍टूमेंट ऑफ एक्‍सेशन’ कहा जाता है। इस पर हस्‍ताक्षर का अर्थ था कि रजवाड़े भारतीय संघ का अंग बनने के लिए सहमत हैं। जूनागढ़, हैदराबाद, कश्‍मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय बाकियों की तुलना में थोड़ा कठिन साबित हुआ।

हैदराबाद

हैदराबाद की रियासत बहुत बड़ी थी। यह रियासत चारों तरफ से हिंदुस्‍तानी इलाके से घिरी थी। हैदराबाद के शासक को ‘निजाम’ कहा जाता था और वह दुनिया के सबसे दौलतमंद लोगों में शुमार किया जाता था। निजाम चाहता था कि हैदराबाद की रियासत को आजाद रियासत का दर्जा दिया जाए। निजाम ने सन् 1947 के नवबर में भारत के साथ यथास्थिति बहाल रखने का एक समझौता किया। यह समझौता एक साल के लिए था। इसी दौरान हैदराबाद की रियासत के लोगों के बीच निजाम के शासन के खिलाफ एक आंदोलन ने जोर पकड़ा तेलांगाना इलाके के किसान निजाम के दमनकारी शासन से खासतौर पर दुखी थे। वे निजाम के खिलाफ उठ खड़े हुए। महिलाएँ भी बड़ी संख्‍या में इस आंदोलन से आ जुड़ी। हैदराबाद शहर इस आंदोनल का गढ़ बन गया। आंदोलन को देख निजाम ने लोगों के खिलाफ एक अर्द्ध-सैनिक बल रवाना किया। इसे रजाकारों कहा जाता था। रजाकार अव्‍वल दर्जे के सांप्रदायिक और अत्‍याचारी थे। रजाकारों ने गैर-मुसलमानों को खासतौर पर अपना निशाना बनाया। रजाकारों ने लूटपाट मचायी और हत्‍या तथा बलात्‍कार पर उतारू हो गए। 1948 के सितम्‍बर में भारतीय सेना, निजाम के सैनिकों पर काबू पाने के लिए हैदराबाद आ पहुँची। कुछ रोज तक रूक-रू‍क कर लड़ाई चली और इसके बाद निजाम ने आत्‍मसमर्पण कर दिया। निजाम के आत्‍मसमर्पण के साथ ही हैदराबाद का भारत में विलय हो गया।

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मणिपुर

आजादी के चंद रोज पहले मणिपुर के महाराजा बाधचंद्र सिंह ने भारत सरकार के साथ भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसकी एवज में उन्‍हें यह आश्‍वासन दिया गया था कि मणिपुर की आं‍तरिक स्‍वायत्तता बरकरार रहेगी। 

मणिपुर की विधानसभा में भारत में विलय के सवाल पर गहरे मतभेद थे। मणिपुर की क्रांग्रेस चाहती थी कि रियासत को भारत में मिला दिया जाए जबकि दूसरी राज‍नीतिक पार्टियाँ इसके खिलाफ थीं। मणिपुर की निर्वाचित विधानसभा से परामर्श किए बगैर भारत सरकार ने महाराजा पर दबाव डाला कि वे भारतीय संघमें शामिल होने के समझौते पर हस्‍ताक्षर कर दें। भारत सरकार को इसमें सफलता मिली। मणिपुर में इस कदम को लेकर लोगों में क्रोध और नाराजगी के भाव पैदा हुए। इसका असर आज तक देखा जा सकता है।

राज्‍यों का पुनर्गठन 

बँटवारे और देसी रियासतों के विलय के साथ ही राष्‍ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का अंत नहीं हुआ। भारतीय प्रांतों की आंतरिक सीमाओं तय करने की चुनौती अभी सामने थी। औपनिवेशिक शासन के समय प्रांतों की सीमाएँ प्रशा‍सनिक सुविधा के लिहाज से तय की गई थीं या ब्रिटिश सरकार ने जितने क्षेत्र को जीत लिया हो उतना क्षेत्र एक अलग प्रांत मान लिया जाता था। प्रांतों की सीमा इस बात से भी तय होती थी कि किसी रजवाड़े के अंतर्गत कितना इलाका शामिल है। हमारी राष्‍ट्रीय सरकार ने ऐसी सीमाएँ को बनावटी मानकर खारिज कर दिया। उसने भाषा के आधार पर राज्‍यों के पुनर्गठन का वायदा किया।

आजादी और बँटवारे के बाद स्थितियाँ बदलीं। हमारे नेताओं को चिंता हुई कि अगर भाषा के आधार पर प्रांत बनाए गए तो इससे अव्‍यवस्‍था फैल सकती है तथा देश के टूटने का खतरा पैदा हो स‍कता है।

केंद्रीय नेतृत्‍व के इस फैसले को स्‍थानिय नेताओं और लोगों ने चुनौती दी। पुराने मद्रास प्रांत के तेलगु-भाषी क्षेत्रों में विरोध भड़क उठा। पुराने मद्रास प्रांत में आज के तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश शामिल थे। आंध्र आंदोलन (आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्‍य बनाने के लिए चलया गया आंदोलन) ने माँग की कि मद्रास प्रांत के तेलुगुभाषी इलाकों को अलग करके एक नया राज्‍य आंध्र प्रदेश बनया जाए।

क्रांस के नेता और दिग्‍ज गाँधीवादी, पोट्टी श्रीरामुलु, अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल पर बैठ गए। 56 दिनों की भूख हड़ताल के बाद उनकी मृत्‍यु हो गई। इससे बड़ी अव्‍यवस्था फैली और आंध्र प्रदेश में जगह-जगह हिंसक घटनाएँ हुईं। लोग बड़ी संख्‍या में सड़कों पर निकल आए। पुलिस फायरिंग में अनेक लोग घायल हुए या मारे गए। आखिरकार 1952 के दिसंबर में प्रधानमंत्री ने आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्‍य बनाने की घोषणा की। आंध्र के गठन के साथ ही देश के दूसरे हिस्‍सों में भी भाषाई आधार पर राज्‍यों को गठित करने का संघर्ष चल पड़ा। इन संघर्षों से बाध्‍य होकर केंद्र सरकार ने 1953 में राज्‍य पुनर्गठन आयोग बनाया। इसने अपनी रिपोर्ट में स्‍वीकर किया कि राज्‍यों की सीमाओं का निर्धारण वहाँ बोली जाने वाली भाषा के आधार पर होना चाहिए। इस आयोग की रिपार्ट के आधार पर 1956 में राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ। इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केंद्र-शासित प्रदेश बनाए गए।

‘पोट्टी श्रीरामुलु’ (1901-1952) गाँधीवादी कार्यकर्ता; नमक सत्‍याग्रह में भाग लेने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ी; वैयक्तिक सत्‍याग्रह में भागीदारी; 1946 में इस माँग को लेकर उपवास पर बैठे कि मद्रास प्रांत के म‍ंदिर दलितों के लिए खोल दिए जाएँ; आंध्र नाम से अलग राज्‍य बनाने की माँग को लेकर 19 अक्‍टूबर 1952 से आरण अनशन; 15 दिसम्‍बर 1952 को अनशन के दौरान मृत्‍यु।

नए राज्‍यों का निर्माण

भाषावार राज्‍यों को पुनर्गठिन करने के सिद्धांत को मान लेने का अर्थ यह नहीं था कि सभी राज्‍य तत्‍काल भाषाई राज्‍य में तब्दील हो गए। एक प्रयोग द्विभाषी राज्‍य बंबई के रूप में किया गया जिसमें गुजराती और मराठी भाषी बोलने वाले लोग थे। एक जन-आं‍दोलन के बाद सन् 1960 में महाराष्‍ट्र में गुजरात राज्‍य बनाए गए।

1960 में पंजाबी-भाषी इलाके को पंजाब राज्‍य का दर्जा दिया गया और वृ‍हत्तर पंजाब से अलग करके हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नाम के राज्‍य बनाए गए। असम से अलग करके 1972 में मेघालय बनाया गया। इसी साल मणिपुर और त्रिपुरा भी अलग राज्‍य के रूप में अस्तित्‍व में आए। मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश 1987 में वजूद में आए जब‍कि नगालैंड इससे कहीं पहले यानी 1963 में ही राज्‍य बन गया था।

छत्तीसगढ़, उत्तराखण्‍ड, और झारखंड-सन् 2000 में बने।  देश के अनेक इलाकों में छोटे-छोटे अलग राज्‍य बनाने की माँग को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। महाराष्‍ट्र में विदर्भ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में राज्‍य बनाने के ऐसे आंदोलन चल रहे हैं।

नए राष्ट्र की चुनौतियाँ

सन् 1947 के 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि को हिंदुस्तान आजाद हुआ। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्रि जवाहरलाल नेहरू ने इस रात संविधान सभा के एक विशेष सत्र को संबोधित किया था। उनका यह प्रसिद्ध भाषण ‘भाग्यवधू से चिर-प्रतीक्षित भेंट’ या ‘ट्रिस्ट विद् डेस्टिन’ के नाम से जाना गया।

अजाद हिंदुस्तान का जन्म कठिन परिस्थितियों में हुआ। हिंदुस्तान सन् 1947 में जिन हालात के बिच आजाद हुआ, शायद उस वक्त तक कोई भी मुल्क वैसे हालात में आजाद नहीं हुआ था। आजादी मिली लेकिन देश के बँटवारे के साथ।

आजादी के उन उथल-पुथल भरे दिनों में हमारे नेताओं का ध्यान इस बात से नहीं भटका कि यह नया राष्ट्र चुनौतियों की चपेट में है।

तीन चुनौतियाँ

मुख्य तौर पर भारत के सामने तीन तरह की चुनौतियाँ थीं।  

पहली और तात्कालिन चुनौती एकता के सुत्र में बँधे एक ऐसे भारत को गढ़ने की थी जिसमें भारतीय समाज की सारी विविधताओं के लिए जगह हो।

यहाँ अलग-अलग बोली बोलने वाले लोग थे, उनकी संस्कृति अलग थी और वे अलग-अलग धर्मो के अनुयायी थे। उस वक्त आमतौर पर यही माना जा रहा था कि इतनी विविधताओं से भरा कोई देश ज्यादा दिनों तक एक जुट नहीं रह सकता।

दूसरी चुनौती लोकतंत्र को कायम करने की थी। भारत ने संसदीय शासन पर आधारित प्रतिनिधित्वमूलक लोकतंत्र को अपनाया।

लोकतंत्र को कायम करने के लिए लोकतांत्रिक संविधान जरूरी होता है।

तीसरी चुनौती थी ऐसे विकास की जिसमें समूचे समाज का भला होता हो न कि कुछ एक तबकों का।

आजादी के तुरंत बाद राष्ट्र-निर्माण की चुनौती सबसे प्रमुख थी।

विभाजनः विस्थापन और पुनर्वास

14-15 अगस्त 1947 को एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र-भारत और पाकिस्तान-अस्तित्व में आए ऐसा विभाजन के कारण हुआ। ब्रिटिश इण्डिया को भारत और पाकिस्तान के रूप में बाँटा।

मुस्लिम लीग में द्वि-राष्ट्र सि़द्धांत कि बात की थी। इस सि़द्धांत के अनुसार भारत किसी एक कौम का नहीं बल्कि हिन्दु और मुसलमान नाम की दो कौमो का देश था और इसी कारण मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक अलग देश यानी पाकिस्तान के मांग की कांग्रेस ने द्वी-राष्ट्र सिद्धांत तथा पाकिस्तान की मांग का विरोध किया।

कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बिच राजनीतिक प्रतिसप्रर्धा तथा ब्रिटिश शासन की भुमिका जैसी कई बातो का जोड़ रहा। नतीजतन पाकिस्तान के मांग मान ली गई।

विभाजन की प्रक्रिया

फैसला हुआ की अबतक जिस भू-भाग को इण्डिया के नाम से जाना जाता था उसे भारत और पाकिस्तान नाम के दो देशो के बिच बाँट दिया जाएगा।

धार्मिक बहु संख्या को विभाजन का आधार बनाया जाएगा। जिन इलाकों में मुसलमान बहुसंख्यक थे वे इलाके पाकिस्तान के भू-भाग होंगे। और शेष हिस्से भारत कहलाएँगे।

ब्रिटिश इण्डिया में कोई एक भी इलाका ऐसा नहीं था जाहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हो। ऐसे दो इलाके थे जहाँ मुसलमान की आबादी ज्यादा थी। एक इलाका पश्चिम में था तो दुसरा इलाका पूर्व में।

इसे देखते हुए फैसला हुआ की पाकिस्तान में दो इलाके शामिल होंगे। यानी पश्चिम पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान तथा इनके बीच में भारतीया भू-भाग का एक बड़ा विस्तार रहेगा। मुस्लिम बहुल हर इलाका पाकिस्तान में जाने को राजी हो। ऐसा भी नहीं था। खान अब्दुल गफार खान पश्चिमोत्तर सिमाप्रांत के निर्विवाद नेता थे। उनकी प्रसिद्धी सिमांत गाँधी के रूप में थी और वे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के एकदम खिलाफ थे। संयोग से उनकी आवाज की अंदेखी की गई और ‘पश्चिमोत्तर सिमाप्रांत’ को पाकिस्तान में शामिल मान लिया गया।

‘ब्रिटिश इण्डिया’ के मुस्लिम-बहुल प्रांत पंजाब और बंगाल में अनेक हिस्से बहुसंख्यक गैर-मुस्लिम आबादी वाले थे। ऐसे में फैसला हुआ की इन दोनो प्रांतो में भी बँटवारा धार्मिक बहुसंख्यको के आधार पर होगा और इसमें जिले अथवा उससे निचले स्तर के प्रशासनिक हल्के को आधार माना जाएगा। 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्री तक यह फैसला नहीं हो पाया था इसका मतलब यह हुआ की आजादी के दीन तक अनेक लोगों को यह पता नहीं था कि वे भारत में है या पाकिस्तान में। पंजाब और बंगाल का बँटवारा विभाजन के सबसे बड़ी त्रासदी साबित हुआ।

सीमा के दोनों तरफ अल्प संख्यक थे। जो इलाके अब पाकिस्तान में है वहाँ लाखों की संख्या में हिन्दु और सिख आबादी थी। ठीक इसी तरह पंजाब और बंगाल के भारतीय भू-भाग में भी लाखो की संख्या में मुस्लिम आबादी थी।

जैसे हीं यह बात साफ हुई की देश का बँटवारा होने वाला है वैसे हीं दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे।

शुरू-शुरू में लोग-बाग और नेता यही मान कर चल रहे थे की हिंसा की घटनाएँ अस्थाई हैं। और जल्दी हीं इनको काबु में कर लिया जाएगा लेकिन बड़ी जल्दी हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई दोनों तरफ के अल्प संख्यकों के पास एक मात्र रास्ता यहीं बचा था की वे अपने-अपने घरों को छोड़ दें।

विभाजन की परिणाम

सन् 1947 में बड़े पैमाने पर एक जगह की आबादी दूसरी जगह जाने को मजबुर हुई थी। आबादी का यह स्थानांतरण आकस्मिक अनियोजित और त्रासदी से भरा था। मानव-इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानांतरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय के लोगों ने दुसरे समुदाय के लोगों को बेरहमी से मारा लाहौर अमृतसर और कलकत्ता जैसे शहर संप्रदायिक अखाड़े में तबदिल हो गए।

लोग अपना घर-बार छोड़ने के लिए मजबुर हुए। वे सीमा के एक तरफ से दुसरे तरफ गए।

दोनों हीं तरफ के अल्पसंख्यक अपने घरो में भाग खड़े हुए और अक्सर अस्थायी तौर पर उन्हें सरणार्थी सिविरो में पनाह लेनी पड़ी।

लोगों को सिमा के दुसरे तरफ जाना पड़ा। अक्सर लोगों ने पैदल चलकर यह दूरी तय की सिमा के दोनों ओर हजारों की तादाद में औरतों को अगवा कर लिया गया। उन्हें जबरन शादी करनी पड़ी और अगवा करने वाले का धर्म भी अपनाना पड़ा। कई  मामलों में यह भी हुआ की खुद परिवार के लोगों ने अपने कुल की इज्जत बचाने के नाम पर घर की बहु-बेटियों को मार डाला। बहुत से बच्चे अपने माँ-बाप से बिछड़ गए।

भारत और पाकिस्तान के लेखक-कवि तथा फिल्म- निर्माताओं ने अपने उपन्यास, लघु कथा कविता और फिल्मों में इस मार-काट की नृशंसता का जिक्र किया। विस्थापन और हिंसा से पैदा दुःखों को अभी व्यक्ति दी।

इन सबों के लिए बँटवारे का मतलब ‘था दिल के दो टुकड़े हो जाना’।

वित्तीय संपदा के साथ-साथ टेबुल, कुर्सी टाइपराइटर और पुलिस के वाद्ययंत्रों तक का बँटवारा हुआ था। सरकारी और रेलवे के कर्मचारियों का भी बँटवारा हुआ।

अनुमान किया जाता है कि विभाजन के कारण 80 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़कर सिमा-पार जाना पड़ा। विभाजन की हिंसा में तकरिबन 5-10 लाख लोगों ने अपनी जान गँवाई।

विभाजन के दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी पाकिस्तान चली गई। इसके बावजूद 1951 के वक्त भारत के कुल आबादी में 12 फिसदी मुसलमान थे।

भारत की कौमी सरकार के अधिकतर नेता सभी नागरिकों को समान दर्जा देने के हामी थे। चाहे नागरिक किसी धर्म का हो वे भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में नहीं देखना चाहते थे जहाँ किसी एक धर्म के अनुयायियों को दुसरे धर्मावालंबियों के ऊपर वरीयता दी जाए

वे मानते थे कि ना‍गरिक चाहे जिस धर्म को माने, उसका दर्जा बाकी नागरिकों के बराबर ही होना चाहिए।  

Rashtra Nirman ki Chunauti 12th Class Notes

महात्‍मा गाँधी की शहादत

महात्‍मा गाँधी ने 15 अगस्‍त,1947 के दिन आजादी के किसी भी जश्‍न में भाग नहीं लिया। वे कोलकात्ता के उन इलाकों में डेरा डाले हुए थे जहाँ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भयंकर दंगे हुए थे। सांप्रदायिक हिंसा से उनके मन पर गहरा चोट लगी थी। यह देखकर उनका दिल टूट चुका था कि ‘अहिंसा’ और ‘सत्‍याग्रह’ के जिन सिद्धांतों के लिए वे आजीवन समर्पित भाव से काम करत रहे वे ही सिद्धांत इस कठिन घड़ी में लोगों को एकसूत्र में पिरो सकने में नाकामयाब हो गए थे। गाँधीजी ने हिंदुओं और मुसलमानों से जोर देकर कहा कि वे हिंसा का रास्‍ता छोड़ दें। कोलकत्ता में गाँधी की माजूदगी से हालात बड़ी हद तक सुधर चले थे और आजादी का जश्‍न लोगों ने सांप्रदायिक सद्भाव के जज्‍बे से मनाया। लोग सड़कों पर पूरे हर्षोल्‍लास के साथ नाच रहे थे। गाँधी की प्रार्थना-सभा में बड़ी संख्‍या में लोग जुटते थे। बहरहाल, यह स्थिति ज्‍यादा दिनों तक कायम नहीं रही। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगे एक बार फिर से भड़क उठे और गाँधीजी अमन कायम करने के लिए ‘उपवास’ पर बैठ गए।

अगले महीने गाँधीजी दिल्‍ली पहुँचे। दिल्‍ली में भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। गाँधीजी दिल से चाहते थे कि मुसलमानों को भारत में गरिमापूर्ण जीवन मिले और उन्‍हें बराबर का नागरिक माना जाए। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए वे बड़े चिंतित थे। भारत और पाकिस्‍तान के आपसी संबंधों को लेकर भी उनके मन में गहरी चिंताएँ थीं। उन्‍हें लग रहा था कि भारत की सरकार पाकिस्‍तान के प्रति अपनी वित्तीय वचनबद्धताओं को पूरा नहीं कर रही है। इन सारी बातों को सोचकर उन्‍होंने 1948 की जनवरी में एक बार फिर ‘ उपवास’ रखना शुरू किया। यह उनका अंतिम ‘उपवास’ साबित हुआ। कोलकात्ता की ही तरह दिल्‍ली में भी उनके ‘उपवास’ का जादुई असर हुआ। सांप्रदायिक तनाव और‍ हिंसा में कमी हुई। दिल्ली और उसके आस-पास के इलाके के मुसलमान सुरक्षित अपने घरों में लौटे। भारत की सरकार पाकिस्‍तान को उसका देय चुकाने पर राजी हो गई।

बहरहाल, गाँधीजी के कामों से हर कोई खुश हो, ऐसी बात नहीं थी। हिंदु और मुसलमान दोनों ही समुदायों के अतिवादी अपनी स्थिति के लिए गाँधीजी पर दोष मुढ़ रहे थे। जो लोग चाहते थे कि हिंदु बदला लें अथवा भारत भी उसी तरह सिर्फ हिंदुओं का राष्‍ट्र बने जैसे पाकिस्‍तान मुसलमानों का राष्‍ट्र बना था-वे गाँधीजी को खासतौर पर नापसंद करते थे। उन लोगों ने आरोप लगाया कि गाँधीजी मुसलमानों और पाकिस्‍तान के हित में काम कर रहे हैं। गाँधीजी मानते थे कि ये लोग गुमराह हैं। उन्‍हें उस बात का पक्‍का विश्‍वास था कि भारत को सिर्फ हिंदुओं का देश बनाने की कोशिश की गई तो भारत बर्बाद हो जाएगा। हिंदु-मुस्लिम एकता के उनके अडिग प्रयासों से अतिवादी हिंदु इतने नाराज थे कि उन्‍होंने कई दफे गाँधीजी को जान से मारने की कोशि‍श की। इसके बावजूद गाँधीजी ने सशस्‍त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना-सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा। आखिरकार, 30 जनवरी 1948 के दिन ऐसा ही एक हिंदु अतिवादी नाथूराम विनायक गोडसे, गाँधीजी की संध्‍याकालीन प्रार्थना के समय उनकी तरफ चलता हुआ नजदीक पहुँच गया। उसने गाँधीजी पर तीन गोलियाँ चलाईं और गाँधीजी को तत्‍क्षण मार दिया। उस तरह न्‍याय और सहिष्‍णुता को आजीवन समर्पित एक आत्‍मा का देहावसान हुआ।

गाँधीजी की मौत का देश के सांप्रायिक माहौल पर मानो जादुई असर हुआ। विभाजन से जुड़ा क्रोध और हिंसा अचानक ही मंद जड़ गए। राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को कुछ दिनों तक प्रतिबंधित कर दिया गया। सांप्र‍दायिक राजनीति का जोर लोगों में घटने लगा।  

रजवाड़ों का विलय

ब्रिटिश इंडिया दो हिस्‍सों में था। एक हिस्‍से में ब्रिटिश प्रभुत्‍व वाले भारतीय प्रांत थे तो दूसरे हिस्‍से में देसी रजवाड़े। ब्रिटिश प्रभुत्‍व वाले भारतीय प्रांतो पर अंग्रजी सरकार का सीधा नियंत्रण था। दूसरी तरफ छोटे-बड़े आकार के कुछ और राज्‍य थे। इन्‍हें रजवाड़ा कहा जाता था। रजवाड़ों पर राजाओं का शासन था। राजाओं ने ब्रिटिश-राज की अधीनता या कहें कि सर्वोच्‍य सत्ता स्‍वीकार कर रखी थी और उसके अंतर्गत वे अपने राज्‍य के घरेलू मामलों का शासन चलाते थे।

समस्‍या

आजादी के तुरंत पहले अंग्रजी-शासन ने घोषणा की कि भारत पर ब्रिटिश-प्रभुत्‍व के साथ ही रजवाड़े भी ब्रिटिश-अ‍धीनता आजाद हो जाएँगे। इसका मतलब यह था कि सभी रजवाड़े (रावाड़ों की संख्‍या 565 थी) ब्रिटिश-राज की समाप्ति के साथ ही कानूनी तौर पर आजाद हो जाएँगे। अंग्रेजी-राज का नजरिया यह था कि रजवाड़े अपनी मर्जी से चाहें तो भारत या पाकिस्‍तान में शामिल हो जाएँ या फिर अपना स्‍वतंत्र अस्तित्‍व बनाएँ रखें। यह फैसला लेने का अधिकार राजाओं को दिया गया था।

सबसे पहले त्रावणकोर के राजा ने अपने राज्‍य को आजाद रखने की घोषण की। अगले दिन हैदराबाद के निजाम ने ऐसी ही घोषणा की। कुछ शासक मसलन भोपाल के नवाब संविधान-सभा में शामिल नहीं होना चाहते थे। राजवाड़ों के शासकों के रवैये से यह बात साफ हो गई कि आजादी के बाद हिंदुस्तान कई छोटे-छोटे देशों की शक्‍ल में बँट जाने वाला है।

सरकार का नजरिया

छोटे-छोटे विभिन्‍न आकार के देशों में बँट जाने की इस संभावना के विरूद्ध अंतरिम सरकार ने कड़ा रूख अपनाया। मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्‍ट्रीय क्रांग्रेस के इस कदम का विरोध किया। लीग का मानना था कि रजवाड़ों को अपनी मनमर्जी का रास्‍ता चुनने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। रजवाड़ों के शासकों को मनाने-समझाने में सरदार पटेल ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई और अधिकतर रजवाड़ों को उन्होंने भार‍तीय संघ में शामिल होने के लिए राजी कर लिया।

शांतिपूर्ण बातचीत के जरिए लगभग सभी रजवाड़े जिन‍की सीमाएँ आजाद हिंदुस्‍तान की नयी सीमाओं से मिलती थीं, 15 अगस्‍त 1947 से पहले ही भारतीय संघ में शामिल हो गए। अधि‍कतर रजवाड़ों के शासकों ने भारतीय संघ में अपने विलय के एक स‍हमति-पत्र पर हस्‍ताक्षर किए। इस सहमति-पत्र को ‘इंस्‍टूमेंट ऑफ एक्‍सेशन’ कहा जाता है। इस पर हस्‍ताक्षर का अर्थ था कि रजवाड़े भारतीय संघ का अंग बनने के लिए सहमत हैं। जूनागढ़, हैदराबाद, कश्‍मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय बाकियों की तुलना में थोड़ा कठिन साबित हुआ।

हैदराबाद

हैदराबाद की रियासत बहुत बड़ी थी। यह रियासत चारों तरफ से हिंदुस्‍तानी इलाके से घिरी थी। हैदराबाद के शासक को ‘निजाम’ कहा जाता था और वह दुनिया के सबसे दौलतमंद लोगों में शुमार किया जाता था। निजाम चाहता था कि हैदराबाद की रियासत को आजाद रियासत का दर्जा दिया जाए। निजाम ने सन् 1947 के नवबर में भारत के साथ यथास्थिति बहाल रखने का एक समझौता किया। यह समझौता एक साल के लिए था। इसी दौरान हैदराबाद की रियासत के लोगों के बीच निजाम के शासन के खिलाफ एक आंदोलन ने जोर पकड़ा तेलांगाना इलाके के किसान निजाम के दमनकारी शासन से खासतौर पर दुखी थे। वे निजाम के खिलाफ उठ खड़े हुए। महिलाएँ भी बड़ी संख्‍या में इस आंदोलन से आ जुड़ी। हैदराबाद शहर इस आंदोनल का गढ़ बन गया। आंदोलन को देख निजाम ने लोगों के खिलाफ एक अर्द्ध-सैनिक बल रवाना किया। इसे रजाकारों कहा जाता था। रजाकार अव्‍वल दर्जे के सांप्रदायिक और अत्‍याचारी थे। रजाकारों ने गैर-मुसलमानों को खासतौर पर अपना निशाना बनाया। रजाकारों ने लूटपाट मचायी और हत्‍या तथा बलात्‍कार पर उतारू हो गए। 1948 के सितम्‍बर में भारतीय सेना, निजाम के सैनिकों पर काबू पाने के लिए हैदराबाद आ पहुँची। कुछ रोज तक रूक-रू‍क कर लड़ाई चली और इसके बाद निजाम ने आत्‍मसमर्पण कर दिया। निजाम के आत्‍मसमर्पण के साथ ही हैदराबाद का भारत में विलय हो गया।

मणिपुर

आजादी के चंद रोज पहले मणिपुर के महाराजा बाधचंद्र सिंह ने भारत सरकार के साथ भारतीय संघ में अपनी रियासत के विलय के एक सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इसकी एवज में उन्‍हें यह आश्‍वासन दिया गया था कि मणिपुर की आं‍तरिक स्‍वायत्तता बरकरार रहेगी। 

मणिपुर की विधानसभा में भारत में विलय के सवाल पर गहरे मतभेद थे। मणिपुर की क्रांग्रेस चाहती थी कि रियासत को भारत में मिला दिया जाए जबकि दूसरी राज‍नीतिक पार्टियाँ इसके खिलाफ थीं। मणिपुर की निर्वाचित विधानसभा से परामर्श किए बगैर भारत सरकार ने महाराजा पर दबाव डाला कि वे भारतीय संघमें शामिल होने के समझौते पर हस्‍ताक्षर कर दें। भारत सरकार को इसमें सफलता मिली। मणिपुर में इस कदम को लेकर लोगों में क्रोध और नाराजगी के भाव पैदा हुए। इसका असर आज तक देखा जा सकता है।

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राज्‍यों का पुनर्गठन 

बँटवारे और देसी रियासतों के विलय के साथ ही राष्‍ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का अंत नहीं हुआ। भारतीय प्रांतों की आंतरिक सीमाओं तय करने की चुनौती अभी सामने थी। औपनिवेशिक शासन के समय प्रांतों की सीमाएँ प्रशा‍सनिक सुविधा के लिहाज से तय की गई थीं या ब्रिटिश सरकार ने जितने क्षेत्र को जीत लिया हो उतना क्षेत्र एक अलग प्रांत मान लिया जाता था। प्रांतों की सीमा इस बात से भी तय होती थी कि किसी रजवाड़े के अंतर्गत कितना इलाका शामिल है। हमारी राष्‍ट्रीय सरकार ने ऐसी सीमाएँ को बनावटी मानकर खारिज कर दिया। उसने भाषा के आधार पर राज्‍यों के पुनर्गठन का वायदा किया।

आजादी और बँटवारे के बाद स्थितियाँ बदलीं। हमारे नेताओं को चिंता हुई कि अगर भाषा के आधार पर प्रांत बनाए गए तो इससे अव्‍यवस्‍था फैल सकती है तथा देश के टूटने का खतरा पैदा हो स‍कता है।

केंद्रीय नेतृत्‍व के इस फैसले को स्‍थानिय नेताओं और लोगों ने चुनौती दी। पुराने मद्रास प्रांत के तेलगु-भाषी क्षेत्रों में विरोध भड़क उठा। पुराने मद्रास प्रांत में आज के तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश शामिल थे। आंध्र आंदोलन (आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्‍य बनाने के लिए चलया गया आंदोलन) ने माँग की कि मद्रास प्रांत के तेलुगुभाषी इलाकों को अलग करके एक नया राज्‍य आंध्र प्रदेश बनया जाए।

क्रांस के नेता और दिग्‍ज गाँधीवादी, पोट्टी श्रीरामुलु, अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल पर बैठ गए। 56 दिनों की भूख हड़ताल के बाद उनकी मृत्‍यु हो गई। इससे बड़ी अव्‍यवस्था फैली और आंध्र प्रदेश में जगह-जगह हिंसक घटनाएँ हुईं। लोग बड़ी संख्‍या में सड़कों पर निकल आए। पुलिस फायरिंग में अनेक लोग घायल हुए या मारे गए। आखिरकार 1952 के दिसंबर में प्रधानमंत्री ने आंध्र प्रदेश नाम से अलग राज्‍य बनाने की घोषणा की। आंध्र के गठन के साथ ही देश के दूसरे हिस्‍सों में भी भाषाई आधार पर राज्‍यों को गठित करने का संघर्ष चल पड़ा। इन संघर्षों से बाध्‍य होकर केंद्र सरकार ने 1953 में राज्‍य पुनर्गठन आयोग बनाया। इसने अपनी रिपोर्ट में स्‍वीकर किया कि राज्‍यों की सीमाओं का निर्धारण वहाँ बोली जाने वाली भाषा के आधार पर होना चाहिए। इस आयोग की रिपार्ट के आधार पर 1956 में राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ। इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केंद्र-शासित प्रदेश बनाए गए।

‘पोट्टी श्रीरामुलु’ (1901-1952) गाँधीवादी कार्यकर्ता; नमक सत्‍याग्रह में भाग लेने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ी; वैयक्तिक सत्‍याग्रह में भागीदारी; 1946 में इस माँग को लेकर उपवास पर बैठे कि मद्रास प्रांत के म‍ंदिर दलितों के लिए खोल दिए जाएँ; आंध्र नाम से अलग राज्‍य बनाने की माँग को लेकर 19 अक्‍टूबर 1952 से आरण अनशन; 15 दिसम्‍बर 1952 को अनशन के दौरान मृत्‍यु।

नए राज्‍यों का निर्माण

भाषावार राज्‍यों को पुनर्गठिन करने के सिद्धांत को मान लेने का अर्थ यह नहीं था कि सभी राज्‍य तत्‍काल भाषाई राज्‍य में तब्दील हो गए। एक प्रयोग द्विभाषी राज्‍य बंबई के रूप में किया गया जिसमें गुजराती और मराठी भाषी बोलने वाले लोग थे। एक जन-आं‍दोलन के बाद सन् 1960 में महाराष्‍ट्र में गुजरात राज्‍य बनाए गए।

1960 में पंजाबी-भाषी इलाके को पंजाब राज्‍य का दर्जा दिया गया और वृ‍हत्तर पंजाब से अलग करके हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नाम के राज्‍य बनाए गए। असम से अलग करके 1972 में मेघालय बनाया गया। इसी साल मणिपुर और त्रिपुरा भी अलग राज्‍य के रूप में अस्तित्‍व में आए। मिजोरम और अरूणाचल प्रदेश 1987 में वजूद में आए जब‍कि नगालैंड इससे कहीं पहले यानी 1963 में ही राज्‍य बन गया था।

छत्तीसगढ़, उत्तराखण्‍ड, और झारखंड-सन् 2000 में बने।  देश के अनेक इलाकों में छोटे-छोटे अलग राज्‍य बनाने की माँग को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। महाराष्‍ट्र में विदर्भ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में राज्‍य बनाने के ऐसे आंदोलन चल रहे हैं।

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BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 9 वैश्‍वीकरण

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्‍याय 9
वैश्‍वीकरण

BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 9

परिचय : 

पुस्तक के इस अंतिम अध्याय में हम वैश्वीकरण पर बात करेंगे। हम वैश्वीकरण के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिणामों की बात करेंगे। वैश्वीकरण का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा है और भारत वैश्वीकरण को कैसे प्रभावित कर रहा है।

वैश्‍वीकरण की अवधारणा

यदि हम वास्तविक जीवन में ‘वैश्वीकरण‘ शब्द के इस्तेमाल को परखें तो पता चलेगा कि इसका इस्तेमाल कई तरह के संदर्भो में होता है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।

फसल के मारे जाने से कुछ किसानों ने आत्महत्या कर ली। इन किसानों ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से बड़े महंगे बीज खरीदे थे।

यूरोप स्थित एक बड़ी और अपनी प्रतियागी कंपनी को एक भारतीय कंपनी ने खरीद लिया जबकि खरीदी गई कंपनी के मालिक इस खरीददारी का विराध कर रहे थे। अनेक खुदरा दुकानदारों को भय है कि अगर कुछ बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां ने देश में खुदरा दुकानों की अपनी श्रृंखला खोल ली तो उनकी रोजी-रोटी जाती रहेगी।

ये उदाहरण हमें बताते हैं कि वैश्वीकरण हर अर्थ में सकारात्मक ही नहीं होता; लोगों पर इसके दुष्प्रभाव भी पड़ सकते हैं।

एक अवधारणा के रूप में वैश्वीकरण की बुनियादी बात है – प्रवाह। विश्व के एक हिस्से के विचारों का दूसरे हिस्सों में पहुँच; पूँजी का एक से ज़्यादा जगहों पर जाना; वस्तुओं का कई-कई देशों में पहुँचना और उनका व्यापार तथा बेहतर आजीविका की तलाश में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों की आवाजाही।

वैश्‍वीकरण के कारण  

वैश्वीकरण विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की आपाजाही से जुड़ी परिघटना है तो एक मजबूत ऐतिहासिक आधार है

टेलीग्राफ्र, टेलीफोन और माइक्रोचिप के नवीनतम आविष्कारों ने विश्व के विभिन्न भागों के बीच संचार की क्रांति कर दिखायी है।

विचार, पूँजी, वस्तु और लोगों की विश्व के विभिन्न भागों में आवाजाही की आसानी प्रौद्योगिकी में हुई तरक्की के कारण संभव हुई है।

संचार-साधनों की तरक्की और उनकी उपलब्धता मात्र से वैश्वीकरण अस्तित्व में आया हो-ऐसी बात नहीं। यहाँ ज़रूरी बात यह कि विश्व के विभिन्न भागों के लोग अब समझ रहे हैं कि वे आपस में जुड़े हुए हैं। आज हम इस बात को लेकर सजग हैं कि विश्व के एक हिस्से में घटने वाली घटना का प्रभाव विश्व के दूसरे हिस्से में भी पड़ेगा।

जब बड़ी आर्थिक घटनाएँ होती हैं तो उनका प्रभाव उनके मौजूदा स्थान अथवा क्षेत्रीय परिवेश् तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि विश्व भर में महसूस किया जाता है।

 राजनीतिक प्रभाव

वैश्वीकरण के कारण राज्य की क्षमता यानी सरकारों को जो करना है उसे करने की ताकत में कमी आती है। पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य की धारण अब पुरानी पड़ गई है और इसकी जगह न्यूनतम हस्तक्षेपकारी राज्य ने ले ली है।

लोक कल्याणकारी राज्य की जगह अब बाज़ार आर्थिक और सामाजिक प्राथमिकताओं का प्रमुख निर्धारक है। पूरे विश्व में बहुराष्ट्रीय निगम अपने पैर पसार चुके हैं और उनकी भूमिका बढ़ी है। इससे सरकारों के अपने दम पर फ़ैसला करने की क्षमता में कमी आती है।

वैश्वीकरण से हमेशा राज्य की ताकत में कमी आती हो- ऐसी बात नहीं।

राज्य कानून और व्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अपने अनिवार्य कार्यों को पूरा कर रहे हैं और बहुत सोच-समझकर अपने कदम उन्हीं दायरों से खींच रहे हैं जहाँ उनकी मर्जी हो। राज्य अभी भी महत्त्वपूर्ण बने हुए हैं।

कुछ मायनों में वैश्वीकरण के फलस्वरूप राज्य की ताकत में इजाफा हुआ है। अब राज्यों के हाथ में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी मौजूद है जिसके बूते राज्य अपने नागरिकों के बारे में सूचनाएँ जुटा सकते हैं। इस सूचना के दम पर राज्य ज़्यादा कारगर ढंग से काम कर सकते हैं। इस प्रकार नई प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप राज्य अब पहले से ज़्यादा ताकतवर हैं।

आर्थिक प्रभाव

जिस प्रक्रिया को आर्थिक वैश्वीकरण कहा जाता है उसमें दुनिया के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक प्रवाह तेज हो जाता है।

वैश्वीकरण के चलते पूरी दुनिया में वस्वुओं के व्यापार में इजाफा हुआ है; वैश्वीकरण के चलते अब विचारों के सामने राष्ट्र की सीमाओं की बाधा नहीं, उनका प्रवाह अबाध हो उठा है। इंटरनेट और कंप्यूटर से जुड़ी सेवाओं का विस्तार इसका एक उदाहरण है। लेकिन वैश्वीकरण के कारण जिस सीमा तक वस्तुओं और पूंजी का प्रवाह बढ़ा है उस सीमा तक लोगों की आवाजाही नहीं बढ़ सकी है। विकसित देश अपनी वीजा-नीति के जरिए अपनी राष्ट्रीय सीमाओं को बड़ी सतर्कता से अभेद्य बनाए रखते हैं ताकि दूसरे देशों के नागरिक विकसित देशों में आकर कहीं उनके नागरिकों के नौकरी-धंधे न हथिया लें। आर्थिक वैश्वीकरण के कारण सरकारों कुछ जिम्मदारियों से अपने हाथ खींच रही हैं और इससे सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले लोग चिंतित हैं। इनका कहना है कि आर्थिक वैश्वीकरण से आबादी के एक बड़े छोटे तबके को फायदा होगा जबकि नौकरी और जन-कल्याण (शिक्ष, स्वास्थ्य, साफ-सफाई की सुविधा आदि) के लिए सरकार पर आश्रित रहने वाले लोग बदहाल हो जाएँगे।

अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक वैश्वीकरण को विश्व का पुनःउपनिवेशीकरण कहा है।

आर्थिक वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं के समर्थकों का तर्क है कि इससे समृद्धि बढ़ती है और ‘खुलेपन‘ के कारण ज़्यादा से ज़्यादा आबादी की खुशहाली बढ़ती है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप विश्व के विभिन्न भागों में सरकार, व्यवसाय तथा लोगों के बीच जुड़ाव बढ़ रहा है।

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सांस्कृतिक प्रभाव

वैश्वीकरण के परिणाम सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक दायरों में ही नज़र नहीं आते;

 हम जो कुछ खाते-पीते-जहनते हैं अथवा सोचते हैं- सब पर इसका असर नज़र आता है।

वैश्वीकरण के सांस्कृतिक प्रभावों को देखते हुए इस भय को बल मिला है कि यह प्रक्रिया विश्व की संस्कृतियों को खतरा पहुँचाएगी। वैश्वीकरण सांस्कृतिक समरूपता ले आता है। सांकृतिक समरूपता का यह अर्थ नहीं कि किसी विश्व-संस्कृति का उदय हो रहा है। विश्व-संस्कृति के नाम पर दरअसल शेष विश्व पर पश्चिमी संस्कृति लादी जा रही है।

बर्गर अथवा नीली जीन्स की लोकप्रियता का नजदीकी रिश्ता अमरीकी जीवनशैली के गहरे प्रभाव से है क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली संस्कृति कम ताकतवर समाजों पर अपनी छाप छोड़ती है और संसार वैसा ही दीखता है जैसा ताकतवर संस्कृति इसे बनाना चाहती है।

विभिन्न संस्कृतियाँ अब अपने को प्रभुत्वशाली अमरीकी ढर्रे पर ढालने लगी हैं। चूँकि इससे पूरे विश्व की समृद्धि सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे खत्म होती है इसलिए यह केवल गरीब देशों के लिए ही नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए खतरनाक है।

यह मान लेना एक भूल है कि वैश्वीकरण के सांस्कृसतिक प्रभाव सिर्फ नकारात्मक हैं। हर संस्कृति हर समय बाहरी प्रभावों को स्वीकार करते रहती हैं।

कभी-कभी बाहरी प्रभावों से हमारी पसंद-नापसंद का दायरा बढ़ता है तो कभी इनसे परंरागत सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़ बिना संस्कृति का परिष्कार होता है।

बर्गर से वस्तुतः कोई खतरा नहीं है। इससे हुआ मात्र इतना है कि हमारे भोजन की पसंउ में एक चीज़ और शामिल हो गई है। दूसरी तरफ, नीली जीन्स भी हथकरघा पर बुने खादी के कुर्ते के साथ खूब चलती है।

नीलि जीन्स के ऊपर खादी का कुर्ता पहना जा रहा है। मज़ेदार बात तो यह कि इस अनुठे पहरावे को अब उसी देश को निर्यात किया जा रहा है जिसने हमें नीली जीन्स दी है।

वैश्वीकरण से हर संस्कृति कहीं ज़्यादा अलग और विशिष्ट होते जा रही है। इस प्रक्रिया को सांस्कृतिक वैभिन्नीकरण कहते हैं।

इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि सांस्कृतिक प्रभाव एकतरफा नहीं होता।

भारत और वैश्वीकरण

पूँजी, वस्तु, विचार और लोगों की आवाजाही का भारतीय इतिहास कई सदियों का है।

औपनिवेशिक दौर में ब्रिटेन के साम्राज्वादी मंसूबों के परिणामस्वरूप भारत आधारभूत वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यातक तथा बने-बनाये सामानों का आयात देश था। आज़ादी हासिल करने के बाद, ब्रिटेन के साथ अपने इन अनुभवों से सबक लेते हुए हमने फ़ैसला किया कि दूसरे पर निर्भर रहने के बजाय खुद सामान बनाया जाए। हमने यह भी फ़ैसला किया कि दूसरों देशों को निर्यात की अनुमति नहीं होगी ताकि हमारे अपने उत्पादक चीजों को बनाना सीख सकें। इस‘ संरक्षणवाद‘ से कुछ नयी दिक्कतें पैदा हुईं। कुछ क्षेत्रों में तरक्की हुई तो कुछ ज़रूरी क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, आवास और प्राथमिक शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया। भारत में आर्थिक -वृद्धि की दर धीमी रही।

1991 में, वित्तीय संकट से उबरने और आर्थिक वृद्धि की ऊँची दर हासिल करने की इच्छा से भारत में आर्थिक-सुधारों की योजना शुरू हुई। इसके अंतर्गत विभिन्न क्षेत्रों पर आयद बाधाएँ इटायी गई।

यह कहना जल्दबाजी होगी कि भारत के लिए यह कितना अच्छा साबित हुआ है क्योंकि अंतिम कसौटी ऊँची वृद्धि-दर नहीं बल्कि इस बात को सुनिश्चित करना है कि आर्थिक बढ़वार के फायदों में सबका साझा हो ताकि हर कोई खुशहाल बने।

वैश्वीकरण का प्रतिराध

वैश्वीकरण बड़ा बहसतलब मुदा है और पूरी दुनिया में इसकी आलोचना हो रही है। वामपंथी राजनीतिक रूझा रखने वालों का तर्क है कि मौजूदा वैश्वीकरण विश्वव्यापी पूंजीवाद और ज़्यादा धनी (तथा इनकी संख्या में कमी) और गरीब को और ज़्यादा ग़रीब बनाती है।

राजनीतिक अर्थों में उन्हें राज्य के कमजोर होने की चिंता है। सांस्कृतिक संदर्भ में उनकी चिंता है कि परंरागत संस्कृति हानि होगी और लोग अपने सदियों पराने जीवन-मूल्य तथा तौर-तरीकों से हाथ धों देंगे। 

1999 में, सिएट्ल में विश्व व्यापार संगठन की मंत्री-प्रदर्शन हुए। आर्थिक रूप से ताकतवर देशों द्वारा व्यापार के अनुचित तौर-तरीकों के अपनाने के विरोध में ये प्रदर्शन हुए थे। विरोधियों समुचित महत्त्व नहीं दिया गया है।

 नव-उदारवादी वैश्वीकरण के विरोध का एक विश्व-व्यापी मंच ‘वर्ल्ड सोशल फोरम‘ (WSF) है। इस मंच के तहत मानवधिकार- कार्यकर्त्ता, पर्यावरणवादी, मजदूर, युवा और महिला कार्यकर्त्ता एकजुट होकर नव-उदारवादी वैश्वीकरण का विरोध करते हैं।

भारत में वैश्वीकरण का विराध कई हलकों से हो रहा है। आर्थिक वैश्वीकरण के खि़लाफ वामपंथी तेवर की आवाजें राजनीतिक दलों की तरफ से उठी हैं तो इंडियन सोशल फोरम जैसे मंचों से भी। औद्योगिक श्रमिक और किसानों के संगठनों ने बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रवेश का विराध किया है।

वैश्वीकरण का विरोध राजनीति के दक्षिणपंथी खेमों से भी हुआ है। यह खेमा विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों का विरोध कर रहा है जिसमें केबल नेटवर्क के जरिए उपलब्ध कराए जा रहे विदेशी टी.वी. चैनलों से लेकर वैलेन्टाईन-डे मनाने तथा स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं की पश्चिमी पोशाकों के लिए बढ़ती अभिरूचि तक का विरोध शामिल है।

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BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

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अध्याय 8
पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन

परिचय :

इस अध्याय में कुछ महत्त्वपूर्ण पर्यावरण-आंदोनों की तुलनात्मक चर्चा की गई है। हम साझी संपदा और ‘विश्व की साझी विरासत‘ जैसी धारणाओं के बारे में भी पढ़ेंगे।

संसाधनों की होड़ से जुड़ी वैश्विक राजनीति की एक संक्षिप्त चर्चा की गई है। दुनिया भर में कृषि-योग्य भूमि में अब कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो रही जबकि मौजूदा उपजाऊ जमीन के एक बड़े हिस्से की उर्वरता कम हो रही है। चारागहों के चारे खत्म होने को हैं और मत्स्य-भंडार घट रहा है। जलाशयों की जलराशि बड़ी तेजी से कम हुई है उसमें प्रदूषण बढ़ा है। इससे खाद्य- उत्पादन में कमी आ रही है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की मानव विकास रिपोर्ट (2016) के अनुसार विकासशील देशों की 66.3 करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता और यहाँ की दो अरब चालीस करोड़ आबादी साफ-सफाई की सुविधा से वंचित हैं। इस वजह से 30 लाख से ज़्यादा बच्चे हर साल मौत के शिकार होते हैं।

प्राकृतिक वन जलवायु को संतुलित रखने में मदद करते हैं, इनसे जलचक्र भी संतुलित बना रहता है लेकिन ऐसे वनों की कटाई हो रही है

धरती के ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही हैं। इससे पारिस्थितिकी तंत्र और मनुष्य के स्वास्थ्य पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है।

पुरे विश्व में समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण भी बढ़ रहा है। इन मसलों में अधिकांश ऐसे हैं कि किसी एक देश की सरकार इनका पूरा समाधान अकेले दम पर नहीं कर सकती। इस वजह से ये मसले विश्व-राजनीति का हिस्सा बन जाते हैं।

वैश्विक मामलों से सरोकार रखने वाले एक विद्वत् समूह ‘क्लब ऑव रोम‘ ने 1972 में ‘लिमिट्स टू ग्रोथ‘ शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की। यह पुस्तक दुनिया की बढ़ती जनसंख्या के  आलोक में प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के अंदेशे को बड़ी खूबी से बताती है। संयुक्त राष्ट्रसंघ पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) सहित अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं पर सम्मेलन कराये और इस विषय पर अध्ययन को बढ़ावा देना शुरू किया। तभी से पर्यावरण वैशिक राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण मसला बन गया।

1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केंद्रित एक सम्मेलन, ब्राजील के रिया डी जनेरियो में हुआ। पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) कहा जाता है। इस सम्मेलन में 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया। यानी उत्तरी गोलार्द्ध तथा गरीब और विकासशील देश यानी दक्षिणी गोलार्द्ध पर्यावरण के अलग-अलग अजेंडे के पैरोकार हैं। उत्तरी देशों की मुख्य चिंता ओज़ोन परत की छेद और वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वर्मिग) को लेकर थी। दक्षिण देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज़्यादा चिंतित थे।

रियो-सम्मेलन में जलवायु-परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के संबंध में कुछ नियमाचार निर्धारित हुए। इसमें ‘अजेंडा-21‘ के रूप में विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाए गए। सम्मलेन में इस बात पर सहमति बनी कि आर्थिक वृद्धि की तरीका ऐसा होना चाहिए कि इससे पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे। इसे ‘टिकाऊ विकास‘ का तरीका कहा गया।

विश्व की साझी संपदा की सुरक्षा

साझी संपदा उन संसाधनों को कहते हैं जिन पर किसी एक का नहीं बल्कि पुरे समुदाय का अधिकार होता है। संयुक्त परिवार का चूल्हा, चारागाह, मैदान, कुआँ या नदी साझी संपदा के उदाहरण हैं। इसी तरह विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभू क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं। इसीलिए उनका प्रबंधन साझे तौर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इन्हें ‘वैश्विक संपदा’ या मानवता की साझा विरासत‘ कहा जाता है। इसमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री तसह और बाहरी अंतरिक्ष शामिल हैं।

‘वैश्विक संपदा‘ की सुरक्षा के सवाल पर महत्त्वपूर्ण समझौते जैसे अंटार्कटिका संधि (1959), मांट्रियल न्यायाचार (प्रोटोकॉल 1987) और अंटार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचार (1991) हो चुके हैं।

एक सर्व-सामान्य पर्यावरणीय अजेंडा पर सहमति कायम करना मुश्मिल होता है। इस अर्थ में 1980 के दशक के मध्य में अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद की खोज एक आँख खोल देने वाली घटना है।

अंटार्कटिका पर किसका स्वामित्व है ?

अंटार्कटिका महादेशीय इलाका 1 करोड़ 40 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। विश्व के निर्जन क्षेत्र का 26 प्रतिशत हिस्सा इसी महादेश के अंतर्गत आता है। स्थलीय हिम का 90 प्रतिशत हिस्सा और धरती पर मौजूद स्वच्छ जल का 70 प्रतिशत हिस्सा इस महादेश में मौजूद है।

सीमित स्थलीय जीवन वाले इस महादेश का समुद्री पारिस्थितिकी-तंत्र अत्यंत उर्वर है जिसमें कुछ पादप (सुक्ष्म शैवाल, कवक और लाइकेन), समुद्री स्तनधारी जीव, मत्स्य तथा कठिन वातावरण में जीवनयापन के लिए अनुकूलित विभिन्न पक्षी शामिल हैं।

अंटार्कटिक प्रदेश विश्व की जलवायु को संतुलित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस महादेश की अंदरूनी हिमानी परत ग्रीन हाऊस गैस के जामव का महत्त्वपूर्ण सूचना-स्रोत है। साथ ही, इससे लाखां बरस जहले के वायुमंडलीय तापमान का पता किया जा सकता है।

विश्‍व के सबसे सुदूर ठंढ़े और झंझावाती महादेश अंटर्कटिका पर किसका स्वामित्व है? इसके बारे में दो दावे किये जाते हैं। कुछ देश जैसे – ब्रिटेन, अर्जेन्टीना, चिले, नार्वे, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ने अंटार्कटिक क्षेत्र पर अपने संप्रभु अधिकार का वैधानिक दावा किया। अन्य अधिकांश देशों ने इससे उलटा रूख अपनाया कि अंटार्कटिक प्रदेश विश्व की साझी संपदा है और यह किसी भी देश के क्षेत्राधिकार में शामिल नहीं है।

1959 के बाद इस इलाके में गतिविधियाँ वैज्ञानिक अनुसंधान, मत्स्य आखेट और पर्यटन तक सीमित रही हैं।

साझी परंतु अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ

उत्तर के विकसित देश पर्यावरण के मसले पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस दशा में पर्यावरण आज मौजूद है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो। दक्षिण के विकासशील देशां का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को नुकसान अधिकांशतया विकसित देशां के औद्योगिक विकास से पहुँचा है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को ज़्यादा नुकसान पहुँचाया है तो उन्हें इस नुकसान की भरपाई की जिम्मेदारी भी ज़्यादा उठानी चाहिए। इसके अलावा, विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और ज़रूरी है कि उन पर वे प्रतिबंध न लगें जो विकसित देशों पर लगाये जाने हैं।

1992 में हुए पृथ्वी सम्मेलन में इस तर्क को मान लिया गया और इसे‘ साझी परंतु अलग-अलग जिम्मेदारियाँ का सिद्धांत कहा गया।

जलवायु के परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्रसंघ के नियमाचार यानी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC-1992) में भी कहा गया है कि इस संधि को स्वीकार करने वाले देश अपनी क्षमता के, अनुरून, पर्यावरण के अपक्षय में अपनी हिस्सेदारी के आधार पर साझी परंतु अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए पर्यावरण की सुरक्षा के प्रयास करेंगे।

ग्रीन हाऊस गेसों के उत्सर्जन में सबसे ज़्यादा हिस्सा विकसित देशों का है। विकासशील देशों का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम है। इस कारण चीन, भारत और अन्य बाध्यताओं से अलग रखा गया है। क्योटो-प्रोटोकॉल एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसके अतंर्गत औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और हाइड्रो-फ्लोरो कार्बन जैसी कुछ गैसों के बारे में माना जाता है कि वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में इनकी कोई-न-कोई भूमिका ज़रूर है। ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना में विश्व का तापमान बढ़ता है और धरती के जीवन के लिए यह बात बड़ी प्रलयंकारी साबित होगी। जापान के क्योटो में 1997 में इस प्रोटोकॉल पर सहमति बनी।

साझी संपदा

साझी संपदा का अर्थ होता है ऐसी संपदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का स्वामित्व हो। इसके पीछे मूल तर्क यह है कि ऐसी संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के संदर्भ में समुह के हर सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होंगे और समान उत्तरदायित्व निभाने होंगे। उदाहरण के लिए, राजकीय स्वामित्व वाली वन्यभूमि में पावन मानें जाने वाले वन-प्रांतर के वास्तविक प्रबंधन की पूरानी व्यवस्था साझी संपदा के रख-रखाव और उपभोग का ठीक-ठीक उदाहरण है। दक्षिण भारत के वन-प्रदेशों में विद्यमान पावन वन-प्रांतरों का प्रबंधन परंपरानुसार ग्रामीण समुदाय करता आ रहा हैं

पर्यावरण के मसले पर भारत का पक्ष

भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकॉल (1997) पर हस्ताक्षर किए और इसका अनुमोदन किया। भारत, चीन और अन्य विकासशील देशां को क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से छूट दी गई है क्योंकि औद्योगीकरण के दौर में ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के मामले में इनका कुछ ख़ास योगदान नहीं था। औद्योगीकरण को मौजूदा वैश्विक तापवृद्धि और जलवायु-परिवर्तन का जिम्मेदार माना जाता है। 2005 के जून में ग्रुप-8 के देशों की बैठक हुई। इसमें भारत ने ध्यान दिलाया कि विकासशील देशों में ग्रीन हाऊस गैसों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में नाममात्र है।

ग्रीनहाऊस गैसों के रिसाव की ऐतिहासिक और मौजूदा जवाबदेही ज़्यादातर विकसित देशों की है। ‘हाल में संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस (UNFCCC) के अंतर्गत चर्चा चली कि तेजी से औद्योगिक होते देश (जैसे ब्राजील, चीन और भारत) नियमाचार की बाध्यताओं का पालन करते हुए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करें। भारत इस बात के खिलाफ है।

भारत में 2030 तक कार्बन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बढ़ने के बावजूद विश्व के (सन् 2000) के औसत (33.8 टन प्रति व्यक्ति) के आधे से भी कम होगा। अनुमान है कि 2030 तक यह मात्रा बढ़कर 1.6 टन प्रतिव्यक्ति हो जाएगी।

भारत की सरकार विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए पर्यावरण से संबंधित वैश्विक प्रयासों में शिरकत कर रही है। भारत ने अपनी नेशनल ऑटो-फ्यूल पॉलिसी‘ के अंतर्गत वाहनों के लिए स्वच्छतर ईंधन अनिवार्य कर दिया है। 2001 में ऊर्जा-संरक्षण अधिनियम पारित हुआ।

हाल में प्राकृतिक गैस के आयात और स्वच्छ कोयले के उपयोग पर आधारित प्रौद्योगिकी को अपनाने की तरफ रूझान बढ़ा है। इससे पता चलता है कि भारत पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से ठोस कदम उठा रहो है।

पर्यावरण आंदोलन – एक या अनेक

आज पूरे विश्व में पर्यावरण आंदोलन सबसे ज़्यादा जीवंत, विविधतापूर्ण तथा ताकतवर सामाजिक आंदोलनों में शुमार किए जाते हैं।

इन आंदोलनों से नए विचार निकलते हैं। इन आंदोलनों ने हमें दृष्टि दी है कि वैयक्तिक और सामूहिक जीवन के लिए आगे के दिनों में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।

मौजूदा पर्यावरण आंदोलनों की एक मुख्य विशेषता उनकी विविधता है।

दक्षिणी देशों मसलन मैक्सिको, चिले, ब्राज़ील, मलेशिया, इंडोनेशिया, महादेशीय, अफ्रिका और भारत के वन-आंदोलनों पर बहुत दबाव है। तीन दशकों से पर्यावरण को लेकर सक्रियता का दौर जारी है। इसके बावजूद तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में वनों की कटाई खतरनाक गति से जारी है। पिछले दशक के विशालतम वनों का विनाश बढ़ा है।

खनिज उद्योग धरती के भीतर मौजूद संसाधनों को बाहर निकालता है, रसायनों का भरपूर उपयोग करता है; भूमि और जलमार्गे को प्रदूषित करता है और स्थानीय वनस्पतियाँ का विनाश करता है। इसके कारण जन-समुदायां को विस्थापित होना पड़ता है। कई बातों के साथ इन कारणों से विश्व के विभिन्न भागों में खनिज-उद्योग की आलोचना और विरोध हुआ है।

इसका एक अच्छा उदाहरण फिलीपिन्स है जहाँ कई समूहों और संगठनों ने एक साथ मिलकर एक ऑस्ट्रेलियाई बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘वेस्टर्न माइनिंग कारपोरेशन‘ के खिलाफ अभियान कलाचा।

कुछ आंदोलन बड़े बाँधों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। अब बाँध-विरोधी आंदोलन को नदियों को बचाने के आंदालनों के रूप में देखने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है

1980 के दशक के शुरूआती और मध्यवर्ता वर्षां में विश्व का पहला बाँध-विरोधी आंदोलन दक्षिणी गोलार्द्ध में चला। भारत में बाँध-विराधी और नदी हितैषी कुछ अग्रणी आंदोलन चल रहे हैं। इन आंदोलनों में नर्मदा आंदोलन सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध है।

संसाधनों की भू-राजनीति

‘‘किसे, क्या, कब, कहाँ और कैसे हासिल होता है‘‘ – ‘संसाधनों की भू-राजनीति‘ इन्हीं सवालों से जूझती है। यूरोपीय ताकतों के विश्वव्यापी प्रसार का एक मुख्य साधन और मकसद संसाधन रहे हैं।

संसाधनों से जुड़ी भू-राजनीति को पश्चिमी दुनिया ने ज़्यादातर व्यापारिक संबंध, युद्ध तथा ताकत के संदर्भ में सोच।

पूरे शीतयुद्ध के दौरान उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित देशों  ने इन संसाधनों की सतत् आपूर्ति के लिए कई तरह के कदम उठाये। इसके अंतर्गत संसाधन-दोहन के इलाकों तथा समुद्री परिवहन-मार्गों के इर्द-गिर्द सेना की तैनाती, महत्त्वपूर्ण संसाधनों का भंडारण, संसाधनों के उत्पादक देशों में मनपसंद सरकारों की बहाली तथा बहुराष्ट्रीय निगमों और अपने हितसाधक अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को समर्थन देना शामिल है। पश्चिमी देशों के राजनीतिक चिंतन का केंद्रीय सरोकार यह था कि संसाधनों तक पहुँच अबाध रूप से बनी रहे क्योंकि सोवियत संघ इसे खतरे में डाल सकता था।

वैश्विक रणनीति में तेल लगातार सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन बना हुआ है। बीसवीं सदी के अधिकांश समय में विश्व की अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर रही।

पेट्रोलियम का इतिहास युद्ध और संघिर्षों का भी इतिहास है। यह बात पश्चिम एशिया और मध्य एशिया में सबसे स्पष्ट रूप से नज़र आती है। पश्चिम एशिया, ख़ासकर खाड़ी-क्षेत्र विश्व के कुल तेल-उत्पादन का 30 प्रतिशत मुहैया कराता है। इस क्षेत्र में विश्व के ज्ञात तेल-भंडार का 64 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है

सऊदी अरब विश्व में सबसे बड़ा तेल-उत्पादक है। इराक का ज्ञात तेल-भंडार सऊदी अरब के बाद दूसरे नंबर पर है।  

संयुक्त राज्य अमरीका, युरोप, जापान तथा चीन और भारत में इस तेल की खपत होती है लेकिन ये देश इस इलाके से बहुत दूरी पर हैं।

विश्व-राजनीति के लिए पानी एक और विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में मौजूद नहीं है। इसी कारण हमारे जीवन में पेट्रोलियम पर आधारित उत्पादों की कड़ी अंतहीन है। टूथपेस्ट, पेसमेकर, पेंट, स्याही…। दुनिया को परिवहन के लिए जितनी ऊर्जा की ज़रूरत पड़ती है उसका 95 फीसदी पेट्रोलियम से ही पूरा होता है।

इसी जीवनदायी संसाधन को लेकर हिंसक संघर्ष होने की संभावना है और इसी को इंगित करने के लिए विश्व-राजनीति के कुछ विद्वानों ने ‘जलयुद्ध‘ शब्द गढ़ा है।

जलधारा के उद्गम से दूर बसा हुआ देश उद्गम के नजदीक बसे हुए देश द्वारा इस पर बाँध बनाने, इसके माध्यम से अत्यधिक सिंचाई करने या इसे प्रदूषित करने पर आपत्ति जताता है देशों के बीच स्वच्छ जल-संसाधनों को हथियाने या उनकी सुरक्षा करने के लिए हिंसक झड़पें हुई हैं। इसका एक उदाहरण है – 1950 और 1960 के दशक में इज़रायल, सीरिया तथा जार्डन के बीच हुआ संघर्ष।

फिलहाल तुर्की, सीरिय और इराक के बीच फरात नदी पर बाँध के निर्माण को लेकर एक-दूसरे से ठनी हुई है।

मूलवासी (Indigenous People) और उनके अधिकार

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 1982 में इनकी एक शुरूआती परिभाषा दी। इन्हें ऐसे लोगों का वंशज बताया गया जो किसी मौजूदा देश में बहुत दिनों से रहते चले आ रहे थे। फिर किसी दूसरी संस्कृति या जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश में आये और इन लोगों को अधीन बना लिया। किसी देश के ‘मूलवासी‘ आज भी उस देश की संस्थाओं के अनुरूप आचरण करने से ज़्यादा अपनी परंपरा, सांस्कृतिक रिवाज़ तथा अपने ख़ास सामाजिक, आर्थिक ढर्रे पर जीवन-यापन करना पसंद करते हैं।

भारत सहित विश्व के विभिन्न हिस्सों में मौजूद लगभग 30 करोड़ मूलवासियों फिलीपिन्स के कोरडिलेरा क्षेत्र में 20 लाख मूलवासी लोग रहते हैं। चिले में मापुशे नामक मूलवासियों की संख्या 10 लाख है।

बांग्लादेश के चटगांव पर्वतीय क्षेत्र में 6 लाख आदिवासी बसे हैं। उत्तर अमरीकी मूलवासियों की संख्या 3 लाख 50 हजार है। पनामा नहर के पूरब में कुना नामक मूलवासी 50 हज़ार की तादाद में हैं और उत्तरी सोवियत में ऐसे लोगों की आबादी 10 लाख है। दूसरे सामाजिक आंदोलनों की तरह मूलवासी भी अपने संघर्ष, अजेंडा और अधिकारों की आवाज़ उठाते हैं।

मूलवासियों के निवास वाले स्थान मध्य और दक्षिण अमरीका, अफ्रिका, दक्षिणपूर्व एशिया तथा भारत में है जहाँ इन्हें आदिवासी या जनजाति कहा जाता है। 

सरकारों से इनकी माँग है कि इन्हें मूलवासी कौम के रूप में अपनी स्वतंत्र जहचान रखने वाला समुदाय माना जाए।

भारत में ‘मूलवासी‘ के लिए अनुसूचित जनजाति या आदिवासी शब्द प्रयोग किया जाता है। ये कुल जनसंख्या का आठ प्रतिशत हैं। कुछेक घुमन्तू जनजातियों को छोड़ दें तो भारत की अधिकांश आदिवासी जनता अपने जीवन-यापन के लिए खेती पर निर्भर हैं।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिहाज से इनको संवैधानिक सुरक्षा हासिल है लेकिन देश के विकास का इन्हें ज़्यादा लाभ नहीं मिल सका है। आजादी के बाद से विकास की बहुत सी परियाजनाएँ चलीं और परियाजनाओं से विस्थापित होने वालों में यह समुदाय सबसे बड़ा है।

1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के मूलवासियों के नेताओं के बीच संपर्क बढ़ा। 1975 में ‘वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इंडिजिनस पीपल‘ का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्रसंघ में सबसे पहले इस परिषद् को परामर्शदायी परिषद् का दर्जा दिया गया।

BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 7 समकालीन विश्व में सुरक्षा

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्याय 7
समकालीन विश्व में सुरक्षा

सुरक्षा क्या है, भारत के सुरक्षा सरोकार क्या-क्या हैं? यह अध्याय इन सवालों पर बहस करता है। इसमें सुरक्षा को समझने के दो नज़रियों की चर्चा की गई है।

सुरक्षा क्या है?

सुरक्षा का बुनियादी अर्थ है खतरे से आज़ादी।

जो लोग सुरक्षा विषयक अध्ययन करते हैं उनका कहना है कि केवल उन चीजों को ‘सुरक्षा‘ से जुड़ी चीजों का विषय बनाया जाय जिनसे जीवन के ‘केंद्रीय मूल्यों‘ को खतरा हो। तो फिर सवाल बनता है कि किसके केंद्रीय मूल्य? क्या पूरे देश के ‘केंद्रीय मूल्य‘? आम स्त्री-पुरूषों के केंद्रीय मूल्य? क्या नागरिकों की नुमाइंदगी करने वाली सरकार हमेशा ‘केंद्रीय मूल्यों‘ का वही अर्थ ग्रहण करती है जो कोई साधारण नागरिक?

जो मूल्य हमें प्यारे हैं कमोबेश उन सभी को बड़े या छोटे ख़तरे होते हैं। जब भी कोई राष्ट्र कुछ करता है अथवा कुछ करने में असफल होता है तो संभव है इससे किसी अन्य देश के केंद्रीय मूल्यों को हानि चहुँचती हो। जब भी राहगीर अपनी राह में लूटा जाता है तो आम आदमी के रोजमर्रा के जीवन को क्षति पहुँचती है। फिर भी, अगर हम सुरक्षा का इतना व्यापक अर्थ करें तो हाथ-पांव हिलाना भी मुश्किल हो जाएगा; हर जगह हमें ख़तरे नज़र आएँगे।

सुरक्षा का रिश्ता फिर बड़े गंभीर खतरों से है; ऐसे खतरे जिनको रोकने के उपाय न किए गए तो हमारे केंद्रीय मूल्यां को अपूरणीय क्षति पहुँचेगी।

सुरक्षा की विभित्र धारणाओं को दो कोटियों में रखकर समझने की कोशिश करते हैं यानी सुरक्षा की पारंपरिक और अपारंपरिक धारणा।

पारंपरिक धारणा – बाहरी सुरक्षा

सुरक्षा की पारंपरिक अवधारणा में सैन्य ख़तरे को किसी देश के लिए सबसे ज़्यादा ख़तरनाक माना जाता है। इस ख़तरे का स्रोत कोई दूसरा मूल्क होता है जो सैन्य हमले की धमकी देकर सुंप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता जैसे किसी देश के केंद्रीय मूल्यों के लिए ख़तरा पैदा करता है। सैन्य कार्रवाई से आम नागरिकों के जीवन को भी ख़तरा होता है।

बुनियादी तौर पर किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में तीन विकल्प होते है – आत्मसमर्पण करना तथा दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किए मान लेना अथवा युद्ध से होने वाले नाश को इस हद तक बढ़ाने के संकेत देना कि दूसरा पक्ष सहमकर हमला करने से बाज आये या युद्ध ठन जाय तो अपनी रक्षा करना ताकि हमलावर देश अपने मकसद में कामयाब न हो सके और पीछे हट जाए अथवा हमलावार को पराजित कर देना।

परंपरागत सुरक्षा-नीति का एक तत्त्व और है। इसे शक्ति-संतुन कहते हैं। पारंपरिक सुरक्षा-नीति का चौथा तत्त्व है गठबंधन बनाना। गठबंधन में कई देश शामिल होते हैं और सैन्य हमले को रोकने अथवा उससे रक्षा करने के लिए समवेत कदम उठाते हैं।

राष्ट्रीय हितों पर आधारित होते हैं और राष्ट्रीय हितों के बदलने पर गठबंधन भी बदल जाते हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमरीका ने सन् 1980 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ इस्लामी उग्रवादियों को समर्थन दिया लेकिन ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में अल-कायदा नामक समूह के आतंकवादियों ने जब 11 सितंबर 2001 के दिन उस पर हमला किया तो उसने इस्लामी उग्रवादियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

किसी देश की सुरक्षा को ज़्यादातर ख़तरा उसकी सीमा के बाहर से होता है। इसकी वज़ह है अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था।

किसी देश के भीतर हिंसा के ख़तरों से निपटने के लिए एक जानी-पहचानी व्यवस्था होती है – इसे सरकार कहते हैं। लेकिन, विश्व-राजनीति में ऐसी कोई केंद्रीय सत्ता नहीं जो सबके ऊपर हो।

बनावट के अनुरूप संयुक्त राष्ट्रसंघ अपने सदस्य देशों का दास है और इसके सदस्य देश जितनी सत्ता इसे हासिल होती है। अतः विश्व-राजनीति में हर देश को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद उठानी होती है।

पारंपरिक धारण- आंतरिक सुरक्षा

सुरक्षा की परंपरागत धारणा का ज़रूरी रिश्ता अंदरूनी सुरक्षा से भी है। आंतरिक सुरक्षा ऐतिहासिक रूप से सरकारों का सरोकार बनी चली आ रही थी लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ऐसे हालात और संदर्भ सामने आये कि आंतरिक सुरक्षा पहले की तुलना में कहीं कम महत्त्व की चीज बन गई। सन् 1945 के बाद ऐसा जान पड़ा कि संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ अपनी सीमा के अंदर एकीकृत और शांति संपन्न हैं। अधिकांश यूरोपीय देशों, खासकर ताकतवर पश्चिमी मुल्कों के सामने अपनी सीमा के भीतर बसे समुदायों अथवा वर्गो से कोई गंभीर खतरा नहीं था। इस कारण इन देशों ने अपना ध्यान सीमापार के खतरों पर केंद्रित किया।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध का दौर चला और इस दौर में संयुक्त राष्ट्र अमरीका के नेतृत्व वाला पश्चिमी गुट तथा सोवियत संघ की अगुआई वाला साम्यवादी गुट एक-दूसरे के आमने-सामने थे। सबसे बड़ी बात यह कि दोनों गुटों को अपने ऊपर एक-दूसरे से सैन्य हमले का भय था। इसके अतिरिक्त, कुछ यूरापीय देशों को अपने उपनिवेशों में उपनिवेशीकृत जनता से खून-खराबे की चिंता सता रही थी। अब ये लोग आज़ादी चाहते थे। इस सिलसिले में हम याद करें कि 1950 के दशक में फ्रांस को वियतनाम अथवा सन् 1950 और 1960 के दशक में ब्रिटेन को केन्या में जूझना पड़ा।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जितने युद्ध हुए उसमें एक तिहाई अलग राष्ट्र बनाने पर तुले अंदर के अलगाववादी आंदोलनों से भी इन देशां को खतरा था। सन् 1946 से 1991 के बीच गृह युद्धों की संख्या में दोगुनी वृद्धि हुई है जो पिछले 200 वर्षो में सबसे लंबी छलांग है। पड़ोसी देशों से युद्ध और आंतरिक संघर्ष नव-स्वतंत्र देशों के सामने सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती थे।

सुरक्षा के पारंपरिक तरीके

सुरक्षा की परंपरागत धारणा में स्वीकार किया जाता है कि हिंसा का इस्ताल यथासंभव सीमित होना चाहिए। आज लगभग पूरा विश्व मानता है कि किसी देश को युद्ध उचित कारणों यानी आत्म-रक्षा अथवा दूसरों को जनसंहार से बचाने के लिए ही करना चाहिए। किसी युद्ध में युद्ध-साधनों का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए। युद्धरत् सेना को चाहिए कि वह संघर्षविमुख शत्रु, निहत्थे व्यक्ति अथवा आत्मसपर्मण करने लिए ज़रूरी हो और उसे एक सीमा तक ही हिंसा का सहारा लेना चाहिए।

सुरक्षा की परंपरागत धारणा इस संभावना से इन्कार नहीं करती कि देशों के बीच एक न एक रूप में सहयोग हो। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है – निरस्त्रीकरण, अस्त्र, नियंत्रण तथा विश्वास की बहाली। निरस्त्रीकरण की माँग होती है कि सभी राज्य चाहें उनका आकार, ताकत और प्रभाव कुछ भी हो, कुछ खास किस्म के हथियारों से बाज आयें। उदाहरण के लिए, 1972 की जैविक हथियार संधि (बॉयोलॉजिकल वीपन्स कंवेंशन-इूब) तथा 1992 की रासायनिक हथियार संधि (केमिल वीपन्स कंवेंशन- बूब ) में ऐसे हथियार को बनाना और रखना प्रतिबंधित कर दिया गया है। 155 से ज्यादा देशों ने BWC संधि पर और 181 देशों ने CWC  संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। इन दोनों संधियों पर दस्तख़्त करने वालों में सभी महाशक्तियाँ शामिल हैं। लेकिन महाशक्तियाँ – अमरीका तथा सोवियत संघ सामूहिक संहार के अस्त्र यानी परमाण्विक हथियार का विकल्प नहीं छोड़ना चाहती थीं इसलिए दोनों ने अस्त्र-नियंत्रण का सहारा लिया। सन् 1972 की एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) ने अमरीका और सोवियत संघ को बैलेस्टिक मिसाइलों को रक्षा-कवच के रूप में इस्तेमाल करने से रोका।

संधि में दोनों देशों को सीमित संख्या में ऐसी रक्षा-प्रणाली तैनात करने की अनुमति थी लेकिन इस संधि ने दोनों देशों को ऐसी रक्षा-प्रणाली के व्यापक उत्पादक से रोक दिया। अमरीका और सोवियत संघ ने अस्त्र-नियंत्रण की कई अन्य संधियों पर हस्ताक्षर किए जिसमें परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी-NPT (1968) भी एक अर्थ। में अस्त्र नियंत्रण संधि ही थी क्योंकि इसने परमाण्विक हथियारों के उपार्जन को कायदे-कानून के दायरे में ला खड़ा किया। जिन देशों ने सन् 1967 से पहले परमाणु हथियार बना लिये थे या उनका परीक्षण कर लिया था उन्हें इस संधि के अंतर्गत इन हथियारों को रखने की अनुमति दी गई। जो देश सन् 1967 तक ऐसा नहीं कर पाये थे उन्हें ऐसे हथियारों को हासिल करने के अधिकार से वंचित किया गया। परमाणु अप्रसार संधि ने परमाण्विक आयुधों को समाप्त तो नहीं किया लेकिन इन्हें हासिल कर सकने वाले देशों की संख्या ज़रूर कम की।

सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में यह बात भी मानी गई कि विश्वास बहाली के उपायों से देशों के बीच हिंसाचार कम किया जा सकता है।

सुरक्षा की पारंपरिक धारणा में माना जाता है कि सैन्य बल से सुरक्षा को खतरा पहुँचता है और सैन्य बल ही सुरक्षा को कायम रखा जा सकता है।

सुरक्षा की अपारंपकि धारणा

सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा सिर्फ सैन्य खतरों से संबंद्ध नहीं। इसमें मानवीय अस्तित्व पर चोट करने वाले व्यापक खतरों और आशंकाओं को शामिल किया जाता है।

सुरक्षा की आपरंपरिक धारणा में संदर्भी का दायरा बड़ा होता है। जब हम पूछते हैं कि ‘सुरक्षा किसको‘? तो सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा के प्रतिपादकों का जवाब होता है – ‘‘सिर्फ राज्य ही नहीं व्यक्तियों और समुदायों या कहें कि समूची मानवता को सुरक्षा की ज़रूरत है।‘‘ इसी कारण सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा को ‘मानवता की सुरक्षा‘ अथवा ‘विश्व-रक्षा‘ कहा जाता है।

मानवता की रक्षा का विचार जनता-जनार्दन की सुरक्षा को राज्यां की सुरक्षा से बढ़कर मानता है।

नागरिकों की विदेशी हमले से बचाना भले ही उनकी सुरक्षा की जरूरी शर्त्त हो लेकिन इतने भर को पर्याप्त नहीं माना जा सकता। सच्चाई यह है कि पिछले 100 वर्षो में जितने लोग विदशी सेना के हाथों मारे गए उससे कहीं ज़्यादा लोग खुद अपनी ही सरकारों के हाथों खेत रहे।

मानवता की सुरक्षा के सभी पैरोकार मानते हैं कि इसका प्राथमिक लक्ष्य व्यक्तियों की संरक्षा है। मानवता की सुरक्षा का व्यापक अर्थ लेने वाले पैरोकारों का तर्क है कि खतरों की सूची में अकाल, महामारी और आपदाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि युद्ध, जन-संहार और आतंकवाद साथ मिलकर जितने लोगों को मारते हैं उससे कहीं ज़्यादा लोग अकाल, महामारी और प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ जाते हैं।

मानवता की रक्षा के व्यापकतम नज़रिए में जोर ‘अभाव से मुक्ति‘ और ‘भय से मुक्ति‘ पर दिया जाता है। विश्वव्यापी खतरे जैसे वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग), अंतर्राष्ट्रीय आंतकवाद तथा एड्स और बर्ड फ्लू जैसी महामारियों के मद्देनज़र 1990 के दशक में विश्व-सुरक्षा की धारणा उभरी। कोई भी देश इन समस्याओं का समाधान अकेले नहीं कर सकता।

उदाहरण के लिए, वैश्विक तापवृद्धि से अगर समुद्रतल दो मीटर ऊँचा उठता है तो बांग्लादेश का 20 प्रतिशत हिस्सा डूब जाएगा; कमोबेश पूरा मालदीव सागर में समा जाएगा और थाइलैंड की 50 प्रतिशत फीसदी आबादी को खतरा पहुँचेगा। चूँकि इन समस्याओं की प्रकृति वैश्विक है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, भले ही इसे हासिल करना मुश्किल हो।

खतरे के नये स्रोत

सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा के दो पक्ष हैं-मानवता की सुरक्षा और विश्व सुरक्षा।

आतंकवाद का आशय राजनीतिक खून-खराबे से है जो जान-बूझकर और बिना किसी मुरौव्वत के नागरिकों को अपना निशाना बनाता है।

आतंकवाद के चिर-परिचित उदाहरण हैं विमान-अपहरण अथवा भीड़ भरी जगहों जैसे रेलगाड़ी, होटल, बाज़ार या ऐसी ही अन्य जगहों पर बम लगाना। सन् 2001 के 11 सितंबर को आतंकवादीयों ने अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला बोला। 

आतंकवाद की अधिकांश घटनाएँ मध्यपूर्व, यूरोप, लातिनी अमरीका और दक्षिण एशिया में हुईं।

मानवाधिकार – मानवाधिकार को तीन कोटियों में रखा गया है। पहली कोटि राजनीतिक अधिकारों की है जैसे अभिव्यक्ति और सभा करने की आज़ादी। दूसरी कोटि आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की है। अधिकारों की तीसरी कोटि में उपनिवेशीकृत जनता अथवा जातीय और मूलवासी अल्पसंख्यकों के अधिकार आते हैं।

1990 के दशक से कुछ घटनाओं मसलन रवांडा में जनसंहार, कुवैत पर इराक का हमला और पूर्वी तिमूर में इंडोनिशियाई सेना के रक्तपात के कारण बहस चल पड़ी है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ को मानवधिकारों के हनन की स्थिति में हस्तक्षेप करना चाहिए या नहीं। कुछ का तर्क है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ का घोषणापत्र अंतर्राष्ट्रीय बिमारी को अधिकार देता है कि वह मानवाधिकारों की रक्षा के लिए हथियार उठाये। दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जिनका तर्क है कि संभव है, ताकतवर देशों के हितों से यह निर्धारित होता हो कि संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवाधिकार-उल्लंघन के किस मामले में कार्रवाई करेगा और किसमें नहीं।

खतरे का एक और स्रोत वैश्विक निर्धनता है। विश्व की जनसंख्या फिलहाल 760 करोड़ है और यह आँकड़ा 21वीं सदी के मध्य तक 1000 करोड़ हो जाएगा फिलहाल विश्व की कुल जनसंख्या-वृद्धि का 50 फीसदी सिर्फ 6 देशों – भारत, चीन, पाकिस्तान, नाइजीरिया, बांग्लादेश और इंडोनेशिया में घटित हो रहा है। अनुमान है कि अगले 50 सालों में दुनिया के सबसे गरीब देशों में जनसंख्या तीन गुनी बढ़ेगी जबकि इसी अवधि में अनेक धनी देशों की जनसंख्या घटेगी। प्रति व्यक्ति उच्च आय और जनसंख्या की कम वृद्धि के कारण धनी देश अथवा सामाजिक समूहों को और धनी बनने में मदद मिलती है जबकि प्रति व्यक्ति निम्न आय और जनसंख्या की तीव्र वृद्धि एक साथ मिलकर गरीब देशों और सामाजिक समूहों को और ग़रीब बनाते हैं।

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में असमानता अच्छी-खासी बढ़ी है। दुनिया में सबसे ज़्यादा सशस्त्र संघर्ष अफ्रीका के सहारा मरूस्थल के दक्षिणवर्ती देशों में होते हैं। यह इलाका दूनिया का सबसे गरीब इलाका है। 21 वीं सदी के शुरूआती समय में इस इलाके के युद्ध में शेष दुनिया की तुलना में कहीं ज़्यादा लोग मारे गए।

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में मौजूद गरीबी के कारण अधिकाधिक लोग बेहतर जीवन खासकर आर्थिक अवसरों की तलाश में उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में प्रवास कर रहे हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मतभेद उठ खड़ा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय कायदे कानून आप्रवासी (जो अपनी मर्जी से स्वेदेश छोड़ते हैं) और शरणार्थी (जो युद्ध, प्राकृतिक आपदा अथवा राजनीतिक उत्पीड़न के कारण स्वदेश छोड़ने पर मज़बूर होते हैं) में भेद करते हैं।

शरणार्थी अपनी जन्मभूमि को छोड़ते हैं जबकि जो लोग अपना घर-बार छोड़ चुके हैं। परंतु राष्ट्रीय सीमा के भीतर ही हैं उन्हें ‘‘आंतरिक रूप से विस्थापित जन‘‘ कहा जाता है। 1990 के दशक के शुरूआती सालों में हिंसा से बचने के लिए कश्मीर घाटी छोड़ने वाले कश्मीरी पंडित ‘‘आंतरिक रूप से विस्थापित जन‘‘ के उदाहरण हैं।    

दक्षिण गोलार्द्ध के देशों में सशस्त्र संघर्ष और युद्ध के कारण लाखों लोग शरणार्थी बने और सुरक्षित जगह की तलाश में निकले हैं। 1990 से 1995 के बीच सत्तर देशों के मध्य कुल 93 युद्ध हुए और इसमें लगभग साढ़े 55 लाख लोग मारे गये। 1990 के दशक में कुल 60 जगहों से शरणार्थी प्रवास करने को मजबूर हूए और इसमें तीन को छोड़कर शेष सभी के मूल में सशस्त्र संघर्ष था।

एचआईवी-एड्स, बर्ड फ्लू और सार्स (सिवियर एक्यूट रेसपिरेटॅरी सिंड्रोम-SARS) जैसी महामारियाँ आप्रवास, व्यवसाय, पर्यटन और सैन्य-अभियानों के जरिए बड़ी तेजी से विभिन्न देशों में फैली हैं।

2003 तक पूरी दुनिया में 4 करोड़ लोग एचआईवी-एड्स से संक्रमित हो चुके थे। इसमें दो-तिहाई लोग अफ्रीका में रहते हैं जबकि शेष के 50 फीसदी दक्षिण एशिया में।

एबोला वायरस, हैन्टावायरस और हेपेटाइटिस-सी जैसी कुछ नयी महामारियाँ उभरी हैं जिनके बारे में जानकारी भी कुछ खास नहीं है। टीबी, मलेरिया, डेंगी, बुखार और हैजा जैसी पूरानी महामारियों ने औषिधि-प्रतिरोधक रूप धारण कर लिया है 

1990 के दशक के उत्तरार्द्ध के सालों से ब्रिटेन ने ‘मैड-काऊ‘ कहामारी के भड़क उठने के कारण अरबों डॉलर का नूकसान उठाया है और बर्ड फ्लू के कारण कई दक्षिण एशियाई देशों को मुर्ग-निर्यात बंद करना पड़ा।

इन महामारियों का संकेत है कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ाने की जरूरत है।

सहायोगमूलक सुरक्षा

सुरक्षा पर मंडराते इन अनेक अपारंपरिक ख़तरों से निपटने के लिए सैन्य संघर्ष की नहीं बल्कि आपसी सहयाग की ज़रूरत है। आतंकवाद से लड़ने अथवा मानवाधिकारों को बहाल करने में भले ही सैन्य-बल की कोई भूमिका हो (और यहाँ भी सैन्य-बल एक सीमा तक ही कारगर हो सकता है) लेकिन गरीबी मिटाने, तेल तथा बहुमूल्य धातुओं की आपूर्ति बढ़ाने, आप्रवासियों और शरणार्थियों की आवाजाही के प्रबंधन तथा महामारी के नियंत्रण में सैन्य-बल से क्या मदद मिलेगी यह कहना मुश्किल है। ऐसे अधिकांश मसलों में सैन्य-बल के प्रयोग से मामला और बिगड़ेगा।

सहयोग द्विपक्षीय (दो देशों के बीच), क्षेत्रीय, महादेशीय अथवा वैश्विक स्तर का हो सकता है। सहयोगमूलक सुरक्षा में विभिन्न देशों के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर की अन्य संस्थाएँ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन (संयुक्त राष्ट्रसंघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि) स्वयंसेवी संगठन (एमनेस्टी इंटरनेशनल, रेड क्रॉस, निजी संगठन, तथा दानदाता संस्थाएँ, चर्च और धार्मिक संगठन, मज़दूर संगठन, सामाजिक और विकास संगठन) व्यवसायिक संगठन और निगम तथा जानी-मानी हस्तियाँ (जैसे नेल्सन मंडेला, मदर टेरेसा) शामिल हो सकती हैं।

सहयोग मूलक सुरक्षा में भी अंतिम उपाय के रूप में बल-प्रयोग किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी उन सरकारों से निबटने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे सकती है जो अपनी ही जनता को मार रही हों अथवा गरीबी, महामारी और प्रलयंकारी घटनाओं की मार झेल रही जनता के दुख-दर्द की उपेक्षा कर रही हो।

भारत – सुरक्षा की रणनीतियाँ

भारत को पारंपरिक (सैन्य) और अपारंपरिक खतरों का सामना करना पड़ा है।

सुरक्षा-नीति का पहला घटक रहा सैन्य-क्षमता को मज़बूत करना क्योंकि भारत पर पड़ोसी देशों से हमले होते हैं। पाकिस्तान ने 1947-48, 1965, 1971 तथा 1999 में और चीन ने सन् 1962 में भारत पर हमला किया। दक्षिण एशियाई इलाके में भारत के चारों तरफ परमाणु परीक्षण करने के फ़सले (1998) को उचित ठहराते हुए भारतीय सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का तर्क दिया था। भारत ने सन् 1974 में पहला परमाणु परीक्षण किया था।

भारत की सुरक्षा नीति का दूसरा घटक है अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कायदों और संस्थाओं को मज़बूत करना। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एशियाई एकता, अनौपनिवेशीकरण (Decolonisation) और निरस्त्रीकरण के प्रयासों की हिमायत की।

भारत ने हथियारों के अप्रसार के संबंध में एकता सार्वभौम और बिना भेदभाव नीति चलाने की पहलकदमी की जिसमें हर देश को सामूहिक संहार के हथियार (परमाणु, जैविक, रासायनिक) से संबद्ध बराबर के अधिकार और दायित्व हों।

भारत उन 160 देशों में शामिल है जिन्हेंने 1970 के क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए हैं। क्योटो प्रोटोकॉल में वैश्विक तापवृद्धि पर काबू रखने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के संबंध में दिशा निर्देश बताए गए हैं। सहयोगमूलक सुरक्षा की पहलकदमियों के समर्थन में भारत ने अपनी सेना संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांतिबहाली के मिशनों में भेजी है।

भारत की सुरक्षा रणनीति का तीसरा घटक है देश की अंदरूनी सुरक्षा-समस्याओं से निबटने की तैयारी। नागालैंड, मिजोरम, पंजाब और कश्मीर जैसे क्षेत्रों से कई उग्रवादी समूहों ने समय-समय पर इन प्रांतों को भारत से अलगाने की कोशिश की। भारत ने राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का पालन किया है। यह व्यवस्था विभिन्न समुदाय और जन-समूहों को अपनी शिकायतो को खुलकर रखने और सत्ता में भागीदारी करने का मौका देती है।

भारत में अर्थव्यवस्था को इस तरह विकसित करने के प्रयास किए गए हैं कि बहुसंख्यक नागरिकों को गरीबी और अभाव से निज़ात मिले तथा नागरिकों के बीच आर्थिक असमानता ज़्यादा न हो। ये हमारा देश अब भी गरीब है और असामानताएँ मौजूद हैं। फिर भी, लोकतांत्रिक राजनीति से ऐसे अवसर उपलब्ध हैं कि गरीब और वंचित नागरिक अपनी आवाज़ उठा सकें। लोकतांत्रिक रीति से निर्वाचित सरकार के ऊपर दबाव होता है कि वह आर्थिक संवृद्धि को मानवीय विकास का सहगामी बनाए। इस प्रकार, लोकतंत्र सिर्फ राजनीतिक आदर्श नहीं है; लोकतांत्रिक शासन जनता को ज़्यादा सुरक्षा मुहैया कराने का साधन भी है।

BSEB Class 12th political science Solutions Chapter 6 अंतर्राट्रीय संगठन

Class 12th political science Text Book Solutions

अध्याय 6
अंतर्राट्रीय संगठन

परिचय :

इस अध्याय में हम सोवियत संघ के बिखरने के बाद अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका के बारे में पढ़ेंगे। सुधार की प्रक्रियाओं और उनकी कठिनाइयों की एक मिसाल संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा-परिषद् में होने वाला बदलाव है। इस अध्याय का अंत इस सवाल से किया गया है कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ ऐसे विश्व में कोई भूमिका निभा सकता है जिसमें किसी एक महाशक्ति का दबदबा हो। इस अध्याय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कुछ अन्य अंतराष्ट्रीय  संगठनों की भी चर्चा की गई है।

हमें अंतर्राष्ट्रीय संगठन क्यों चाहिए ?

संयुक्त राष्ट्रसंघ को आज की दूनिया का सबसे महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संगठन माना जाता है। अमूमन ‘यू एन‘ कहे जाने वाले इस संगठन को विश्व भर के बहुत-से लोग एक अनिवार्य संगठन मानते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन युद्ध और शांति के मामलों में मदद करते हैं। यह देशों की सहायता करते हैं। ताकि हम सब की बेहतर जीवन-स्थितियाँ कायम हों। अंतर्राष्ट्रीय संगठन का निर्माण विभिन्न राज्य ही करते हैं। और यह अनेक मामलों के लिए जवाबदेह होते हैं। एक बार इनका निर्माण हो जाए तो ये समस्याओं को शांतिपूर्ण समाधान में सदस्य देशों की मदद करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन एक और तरिके से मददगार होते हैं। राष्ट्रों के सामने अक्सर कुछ काम ऐसे आ जाते हैं जिन्हें साथ मिलकर ही करना होता है। इसकी एक मिसाल तो बीमारी ही है। कुछ रोगों को तब ही खत्म किया जा सकता है जब वातारण में ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ने से तापमान बढ़ रहा है। इससे समुद्रतल की ऊँचाई बढ़ने का ख़तरा है। अंततः सबसे प्रभावकारी समाधान तो यही है कि वैश्विक तापवृद्धि को रोका जाए। सहयोग की जरूरत को पहचानना और सचमुच में सहयोग करना दो अलग-अलग बातें हैं। सहयोग में आने वाली लागत का भार कौन कितना उठाए, सहयोग से होने वाले लाभ का आपसी बँटवारा न्यायोचित ढंग से कैसे हो, इन बिंदुओं पर सभी देश हमेशा सहमत नहीं हैं।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना

24 अक्टूबर 1945 : संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना। 24 अक्टूबर संयुक्त राष्ट्रसंघ दिवस।

30 अक्टूबर 1945 : भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल। होते एक अंतराष्ट्रीय संगठन सहयोग करने के उपाय और सूचनाएँ जुटाने में मदद कर सकता है। ऐसा संगठन नियमों और नौकरशाही की एक रूपरेखा दे सकता है ताकि सदस्यों को यह विश्वास हो कि आने वाली लागत में सबकी समुचित साझेदारी होगी, लाभ का बँटवारा न्यायोचित होगा और कोई सदस्य एक बार समझौते में शामिल हो जाता है तो वह इस समझौते नियम और शर्तें का पालन करेगा।

संयुक्त राष्ट्रसंघ का विकास

पहले विश्वयुद्ध परिणामस्वरूप ‘लीग ऑव नेशंस‘ का जन्म हुआ। शुरूआती सफलताओं के बावजूद यह संगठन दूसरा विश्वयुद्ध (1939-45) न रोक सका। ‘लीग ऑव नेशंस‘ के उत्तरराधिकारी के रूप में संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद सन् 1945 में इसे स्थापित किया गया। 51 देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र पर दस्तख़त करने के साथ इस संगठन की स्थापना हो गई। संयुक्त राष्ट्रसंघ का उद्देश्य है अंतर्राष्ट्रीय झागड़ों को रोकना और राष्ट्रों के बीच सहयोग की राह दिखाना। 2011 तक संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देशों की संख्या 193 थी। इसमें लगभग सभी स्वतंत्र देश शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में हरेक सदस्य को एक वोट हासिल है। इसकी सुरक्षा परिषद में पाँच स्थायी सदस्य हैं। इनके नाम हैं – अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन। संयुक्त राष्ट्रसंघ का सबसे अधिक दिखने वाला सार्वजनिक चेहरा और उसका प्रधान प्रतिनिधि महासचिव होता है। वर्तमान महासचिव एंटोनियो गुटेरेस। वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के नौवें महासचिव हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की कई शाखाएँ और एजेंसियाँ हैं। सदस्य देशों के बीच युद्ध और शांति तथा वैर-विरोध पर आम सभा में भी चर्चा होती है और सुरक्षा परिषद् में भी। सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से निबटने के लिए कई एजेंसियाँ हैं जिनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन-WHO), संयुक्त राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम (यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम-UNDP), संयुक्त राष्ट्रसंघ मानवधिकार आयोग (यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन  राइट्स कमिशन -UNHRC), संयुक्त राष्ट्रसंघ शरणार्थी उच्चायोग (यूनाइटेड नेशंस हाई कमिशन फॉर रिफ्यूजीज –UNHCR), संयक्त राष्ट्रसंघ बाल कोष (यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स फंड- UNICEF) और संयुक्त राष्ट्रसंघ शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, सोशल फंड कल्चरल आर्गनाइजेशन-UNESCO) शामिल हैं।

शीतयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार

संयुक्त राष्ट्रसंघ के सामने दो तरह के बुनियादी सुधारों का मसला है। एक तो यह कि इस संगठन की बनावट और इसकी प्रक्रियाओं में सुधार किया जाए। दूसरे, इस संगठन के न्यायाधिकार में आने वाले मुद्दों की समीक्षा की जाए। लगभग सभी देश सहमत हैं कि दोनों ही तरह के ये सुधार ज़रूरी हैं। बनावट और प्रक्रियाओं में सुधार के अंतर्गत सबसे बड़ी बहस सुरक्षा परिसद् के कामकाज को लेकर है। इससे जुड़ी हुई एक माँग यह है कि सुरक्षा परिषद् में स्थायी और अस्थायी सदस्यां की संख्या बढ़यी जाए ताकि समकालीन विश्व राजनीति की वास्तविकताओं की इस संगठन में बेहतर नुमाइंद्गी हो सके। ख़ास तौर से एशिया, अफ्रिका और दक्षिण अमरीका के ज्यादा देशां को सुरक्षा-परिषद् में सदस्यता देने की बात उठ रही है। इसके अतिरिक्त, अमरीका और पश्चिमी देश संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट से जुड़ी प्रक्रियाओं और इसके प्रशासन में सुधार चाहते हैं। कुछ देश और विशेषज्ञ चाहते हैं कि यह संगठ शांति और सुरक्षा से जुड़े मिशनों में ज़्यादा प्रभावकारी अथवा बड़ी भूमिका निभाए जबकि औरों की इच्छा है कि यह संगठन अपने को विकास तथा मानवीय भलाई के कामों (स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, जनसंख्या नियंत्रण, मानवाधिकार, लिंगगत न्याय और सामाजिक न्याय) तक सीमित रखे। संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना दूसरे विश्वयुद्ध के तत्काल बाद सन् 1945 में हुई थी।

1991 से आए बदलावों में से कुछ निम्नलिखित हैं-

सोवियत संघ बिखर गया।

अमरीका सबसे ज़्यादा ताकतवर है।

सोवियत संघ के उत्तराधिकारी राज्य रूस और अमरीका के बीच अब संबंध कहीं ज़्यादा सहयोगात्मक हैं।

चीन बड़ी तेजी से एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है भारत भी तेजी से इस दिशा में अग्रसर है। एशिया की अर्थव्यवस्था अप्रत्याशित दर से तरक्की कर रही है। अनेक नए देश संयुक्त राष्ट्रसंघ में शामिल हुए हैं

विश्व के सामने चुनौतियों की एक पूरी नयी कड़ी (जनसंहार, गृहयुद्ध, जातीय संघर्ष, आतंकवाद, परमाण्विक प्रसार, जलवायु में बदलाव, पर्यावरण की हानि, कहामारी) मौजूइ है।

प्रक्रियाओं और ढाँचे में सुधार

सुधार होने चाहिए – इस सवाल पर व्यापक सहमति है लेकिन सुधार कैसे किया जाए का मसला कठिन है। इस पर सहमति कायम करना मुश्किल है।

सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में एक प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। प्रस्ताव में तीन मुख्य शिकायतों का जिक्र था-

सुरक्षा परिषद् अब राजनीतिक वास्ततिकताओं की नुमाइंदगी नहीं करती।

इसके फ़ैसलों पर पश्चिमी मूल्यों और हितों की छाप होती है और इन फै़सलों पर चंद देशों का दबदबा होता है।

सुरक्षा परिषद् में बराबर का प्रतिनिधित्व नहीं है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के ढाँचे में बदलाव की इन बढ़ती हुई माँगों के मद्देनज़र एक जनवरी 1997 को संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचित कोफी अन्नान ने जाँच शुरू करवाई कि सुधार कैसे कराए जाएँ।

इसके बाद के सालों में सुरक्षा परिषद् की स्थायी और अस्थायी सदस्यता के लिए मानदंड सुझाए गए। इनमें से कुछ निम्न्लिखित हैं। सुझाव आए कि एक नए सदस्य को –

बड़ी आर्थिक ताकत होना चाहिए।

बड़ी सैन्य ताकत होना चाहिए।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में ऐसे देश का योगदान ज़्यादा हो।

आबादी के लिहाज से बड़ा से बड़ा राष्ट्र हो।

ऐसा देश जो लोकतंत्र और मानवाधिकारों का सम्मान करता हो।

यह देश ऐसा हो कि अपने भूगोल, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के लिहाज से विश्व की विविधता की नुमाइंदगी करता हो।

विश्व बैंक

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सन् 1944 में विश्व बैंक की औपचारिक स्थापना हुई। इस बैंक की गतितिधियाँ प्रमुख रूप से विकासशील देशों से संबंधित हैं। यह बैंक मानवीय विकास (शिक्षा, स्वास्थ्य), कृषि और ग्रामीण विकास (सिंचाई, ग्रामीण संवाएँ), आधारभूत ढाँचा (सड़क, शहरी विकास, बिजली) के लिए काम करता है। यह अपने सदस्य-देशों को आसान ऋण ओर अनुदान देता है। ज्यादा गरीब देशों को ये अनुदान वापिस नहीं चुकाने पड़ते।

इन कसौटियों में दिक्कत है। सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के लिए किसी देश की अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी होनी चाहिए अथवा उसके पास कितनी बड़ी सैन्य-ताकत होनी चाहिए? कोई राष्ट्र संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में कितनी योगदान करे कि सुरक्षा परिषद् की सदस्यता हासिल कर सके? कोई देश विश्व में बड़ी भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा हो तो उसकी बड़ी जनसंख्या उसमें बाधक है या सहायक?

सवाल यह भी है कि प्रतिनिधित्व मसले को कैसे हल किया जाए? क्या भौगोलिक दृष्टि से बराबरी के प्रतिनिधित्व का यह अर्थ है कि एशिया, अफ्रिका, लातिनी अमरीका और कैरेबियाई क्षेत्र की एक-एक सीट सुरक्षा परिषद् में होनी चाहिए? एक प्रश्न यह भी है कि क्या महादेशों के बजाए क्षेत्र और उपक्षेत्र को प्रतिनिधित्व का आधार बनाया जाए। प्रतिनिधित्व  का मसला  भूगोल के आधार पर क्यों हल किया जाए?

इसी से जुड़ा एक मसला सदस्यता की प्रकृति को बदलने का था। मिसाल के तौर पर, कुछ का जार था कि पाँच स्थायी सदस्यों को दिया गया निषेधाधिकार (वीटो पावर) खत्म होना चाहिए। अतः यह संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए उचित या प्रासंगिक नहीं है।

सुरक्षा परिषद् में पाँच स्थायी और दस अस्थायी सदस्य हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में स्थिरता कायम करने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र में पाँच स्थायी सदस्यों को विशेष हैसियत दी गई। पाँच स्थायी सदस्यों को मुख्य फायदा था कि सुरक्षा-परिषद् में उनकी सदस्यता स्थायी होगी और उन्हें ‘वीटो‘ अधिक होगा। अस्थायी सदस्य दो वर्षो के लिए चुने जाते हैं

दो साल की अवधि तक अस्थायी सदस्य रहने के तत्काल बाद किसी देश को फिर से इस पद के लिए नहीं चुना जा सकता। अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन इस तरह से होता है कि विश्व के सभी महादेशों का प्रतिनिधित्व हो सके। अस्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार नहीं है। सुरक्षा-परिषद् में फैसला मतदान के जरिए होता है। हर सदस्य को एक वोट का अधिकार होता है। बहरहाल, स्थायी सदस्यों में से कोई एक अपने निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग कर सकता है और इस तरह वह किसी फैसले को रोक सकता है, भले ही अन्य स्थायी सदस्यों और सभी अस्थायी सदस्यों ने उस फैसले के पक्ष में मतदान किया हो।

निषेधाधिकार को समाप्त करने की मुहिम तो चली है लेकिन इस बात की भी समझ बनी है कि स्थायी सदस्य ऐसे सुधार के लिए शायद ही राजी होंगे। इस बात का खतरा है कि ‘वीटो‘ न हो तो सन् 1945  के समान इन ताकतवर देशों की दिलचस्पी संयुक्त राष्ट्रसंघ में न रहे; इससे बाहर रहकर वे अपनी रूचि के अनुसार काम करें और उनके जुड़ाव अथवा समर्थन के अभाव में यह संगठन प्रभावकारी न रह जाए।

संयुक्त राष्ट्रसंघ का न्यायाधिकार

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने जब अपने अस्तित्व के 60 साल पूरे किए तो इसके सभी सदस्य देशों के प्रमुख इस सालगिरह को मनाने के लिए 2005 के सितम्बर में इकट्ठे हुए।

 इस बैठक में शामिल नेताओं ने बदलते हुए परिवेश में संयुक्त राष्ट्रसंघ को ज्यादा प्रासंगिक बनाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने का फैसला किया –

शांति संस्थापक आयोग का गठन

यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को अत्याचारों से बचाने में असफल हो जाए तो विश्व-बिरादरी इसका उत्तरदायित्व ले – इस बात की स्वीकृति।

मानवाधिकार परिषद् की स्थापना (2006 के 19 जून से सक्रिय)।

सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवेलपमेंट गोल्स) को प्राप्त करने पर सहमति।

हर रूप-रीति के आतंकवाद की निंदा

एक लोकतंत्र-कोष का गठन

ट्रस्टीशिप काउंसिल (न्यासिता परिषद्) को समाप्त करने पर सहमति।

दुनिया में बहुत-से झगड़े चल रहे हैं। यह आयोग किसमें दखल दे? हर झगड़े में दखल देना क्या इस आयोग के लिए उचित अथवा संभव होगा?

अत्याचारों से निपटने में विश्व-बिरादरी की जिम्मेदारी क्या होगी? मानवाधिकार क्या है और इस बात को कौन तय करेगा कि किस स्तर का मानवाधिकार-उल्लंघन हो रहा है? मानवाधिकार-उल्लंघन की दशा में क्या कार्रवाई की जाए – इसे कौन तय करेगा? क्या आतंकवाद की कोई सर्वमान्य परिभाषा हो सकती है? संयुक्त राष्ट्रसंघ लोकतंत्र को देने में धन का इस्तमाल कैसे करेगा? ऐसे ही और भी सवाल किए जा सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्रसंघ में सुधार और भारत

भारत का मानना है कि बदले हुए विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ की मज़बूती और दृढ़ता ज़रूरी है। भारत इस बात का भी समर्थन करता है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ विभिन्न देशों के बीच सहयोग बढ़ाने और विकास को बढ़ावा देने में ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाए।

भारत की एक बड़ी चिंता सुरक्षा परिषद् की संरचना को लेकर है। सुरक्षा-परिषद् की सदस्य संख्या स्थिर रही है जबकि संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में सदस्यों की संख्या खूब बढ़ी है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्य संख्या सन् 1965 में 11 से बढ़ाकर 15 कर दी गई थी लेकिन स्थायी सदस्यों की संख्या स्थिर रही।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की आम सभा में ज़्यादातर विकासशील सदस्य-देश हैं। इस कारण, सुरक्षा परिषद् के फैसलों में उनकी भी सुनी जानी चाहिए, क्योंकि इन फैसलों का उन पर प्रभाव पड़ता है।

भारत सुरक्षा परिषद् के अस्थायी और स्थायी, दोनों ही तरह के सदस्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी का समर्थक है।

विश्व व्यापार संगठन 

विश्व व्यापार संगठन (वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन-WTO) – यह अंतर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक व्यापार के नियमों को तय करता है। इस संगठन की स्थापना सन् 1995 में हुई। यह संगठन ‘जेनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ‘ के उत्तराधिकारी के रूप में काम करता है जो दूसरे तिश्वयुद्ध के बाद अस्तित्व में आया था। इनके सदस्यों की संख्या 164 (29 जुलाई 2016 की स्थिति) है। हर फैसला सभी सदस्यों की सहमति से किया जाता है

भारत खुद भी पुनर्गठिन सुरक्षा-परिषद् में एक स्थायी सदस्य बनना चाहता है। भारत विश्व में सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है। भारत में विश्व की कुल-जनसंख्या का 1/5वाँ हिस्सा निवास करता है। इसके अतिरिक्त, भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांति बहाल करने के प्रयासों में भारत लंबे समय से ठोस भूमिका निभाता आ रहा है। सुरक्षा परिषद् में भारत की स्थायी सदस्यता की दावेदारी इसलिए भी उचित है क्योंकि वह तेजी से अंतर्राष्ट्रीय फलक पर आर्थिक-शक्ति बनकर उभर रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में नियमित रूप से अपना योगदान दिया है और यह कभी भी अपने भुगतान से चुका नहीं है। सुरक्षा परिषद् में इन्हीं महादेशों की नुमाइंदगी नहीं है। इन सरोकारों को देखते हुए भारत या किसी और देश के लिए निकअ भविष्य में संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बन पाना मुश्किल लगता है।

एक-ध्रुवीय विश्व में संयुक्त राष्ट्रसंघ

संयुक्त राष्ट्रसंघ एक-ध्रुवीय विश्व में जहाँ अमरीका सबसे ताकतवर देश है और उसका कोई गंभीर प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं – कारगर ढंग से काम कर पाएगा। क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका प्रभुत्व के विरूद्ध संतुलनकारी भूमिका निभा सकता है? क्या यह संगठन शेष विश्व और अमरीका को अपनी मनमानी करने से रोक सकता है?

अमरीका के ताकत पर आसानी से अंकुश नहीं लगाया जा सकता। पहली बात तो यह कि सोवियत संघ की गैर मौजूदगी में अब अमरीका एकमात्र महाशक्ति है। अपनी सैन्य और आर्थिक ताकत के बूते वह संयुक्त राष्ट्रसंघ या किसी अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठन की अनदेखी कर सकता है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ के भीतर अमरीका का खास प्रभाव है। वह संयुक्त राष्ट्रसंघ के बजट में सबसे ज़्यादा योगदान करने वाला देश है। अमरीका की वित्तीय ताकत बेजोड़ है। यह संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका भू-क्षेत्र में स्थित है और इस कारण भी अमरीका का प्रभाव इसमें बढ़ जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के कई नौकरशाह इसके नागरिक हैं। इसके अतिरिक्त, अगर अमरिका को लगे कि कोई प्रस्ताव उसके अथवा उसके साथी राष्ट्रों के हितों के अनुकूल नहीं है अथवा अमरिका को यह प्रस्ताव न जँचे तो अपने ‘वीटो‘ से वह उसे रोक सकता है। अपनी ताकत और निषेधाधिकार के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के चयन में भी अमरीका अपनी इस ताकत के बूते शेष विश्व में फूट डाल सकता है और डालता है, ताकि उसकी नीतियों का विरोध मंद पड़ जाए।

इस तरह संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका की ताकत पर अंकुश लगाने में ख़ास सक्षम नहीं। फिर भी, एकध्रुवीय विश्व में जहाँ अमरीकी ताकत का बोलबाला है – संयुक्त राष्ट्रसंघ अमरीका और शेष विश्व के बीच विभिन्न मसलों पर बातचीत कायम कर सकता है और इस संगठन ने ऐसा किया भी है। अमरीकी नेता अक्सर संयुक्त राष्ट्रसंघ की आलोचना करते हैं लेकिन वे इस बात को समझते हैं कि झगड़ें और सामाजिक-आर्थिक विकास के मसले पर संयुक्त राष्ट्रसंघ के जरिए 190 राष्ट्रों को एक साथ किया जा सकता है। जहाँ तक शेष विश्व की बात है तो उसके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ऐसा मंच है जहाँ अमरीकी रवैये और नीतियों पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। यह बात ठीक है कि वाशिंग्टन के विरूद्ध शेष विश्व शायद ही कभी एकजुट हो पाता है और अमरीका की ताकत पर अंकुश लगाना एक हद तक असंभव है, लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्रसंघ ही वह जगह है जहाँ अमरीका के किसी खास रवैये और नीति की आलोचना की सुनवाई हो और कोई बीच का रास्ता निकालने तथा रियायत देने की बात कही-सोची जा सके।

संयुक्त राष्ट्रसंघ में थोड़ी कमियाँ हैं लेकिन इसके बिना दुनिया और बदहाल होगी।

यह कल्पना करना कठिन है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे संगठन के बिना विश्व के सात अरब से भी ज़्यादा लोग कैसे रहेंगे। प्रौद्योगिक यह

एमनेस्टी इंटरनेशनल

एमनेस्टी इंटरनेशनल एक स्वयंसेवी संगठन है। यह पूरे विश्व में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाता है। यह संगठन मानवाधिकारों से जुड़ी रिपोर्ट तैयार और प्रकाशित करता है। सरकारों को ये अक्सर नागवार लगती हैं क्योंकि एमनेस्टी का ज़्यादा जोर सरकार द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार पर होता है। बहरहाल, ये रिपोर्ट मानवाधिकारों से संबंधित अनुसंधान और तरफदारी में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

हयूमन राइट्स वॉच

यह भी मानवाधिकारों की वकालत और उनसे सवंधित अनुसंधान करने वाला एक अंतर्राष्टीय स्वयंसेवी संगठन है। यह अमरीका का सबसे बड़ा अंतर्राष्टीय मानवाधिकार संगठन है। यह दुनिया भर के मीडिया का खींचता है। इसने बायदी सुरंगों पर रोक लगाने के लिए, बाल सैनिक का प्रयोग रोकने के लिए और अंतर्राष्ट्रीय दंड न्यायलय स्थापित करने के लिए अभियान चलाने में मदद की है।

सिद्ध कर रही है कि आने वाले दिनों में विश्व में पारस्परिक निर्भरता बढ़ती जाएगी। इसलिए, संयुक्त राष्ट्रसंघ का महत्त्व भी निरंतर बढ़ेगा। लोगों को और सरकारों को संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा दूसरे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के समर्थन और उपयोग के तरीके तलाशने होंगे – ऐसे तरीके जो उनके हितों और विश्व बिरादरी के हितों से व्यापक धरातल पर मेल खाते हों।