4. सत्ता के वैकल्पिक केन्‍द्र | Satta ke vaikalpik kendra class 12 notes

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय 4 सत्ता के वैकल्पिक केन्‍द्रके सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। Satta ke vaikalpik kendra class 12 notes

अध्‍याय 4
सत्ता के वैकल्पिक केन्‍द्र 

 परिचय

1990 के दशक के शुरू में विश्‍व राजनीति में दो-ध्रुवीय व्‍यवस्‍था के टूटने के बाद यह स्‍पष्‍ट हो गया कि राजनैतिक और आर्थिक सत्ता के वैकल्पिक केंद्र कुछ हद तक अमरीका के प्रभुत्‍व को सीमित करेंगे। यूरोप में यूरोपीय संघ और एशिया में दक्षिण-पूर्ण एशियाई राष्‍ट्रों के संगठन (आसियान) का उदय दमदार शक्ति के रूप में हुआ।

इन्‍होंने अपने-अपने इलाकों में अधिक शांतिपूर्ण और सहकारी क्षेत्रीय व्‍यवस्‍था विकसित करने तथा इस क्षेत्र के देशों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं का समूह बनाने की दिशा में भी काम किया।

यूरोपीय संघ

1945 के बाद यूरोप के देशों में मेल-मिलाप को शीतयुद्ध से भी मदद मिली। अमरीका ने यूरोप की अर्थव्‍यवस्‍था के पुनर्गठन के लिए जबरदस्‍त मदद की। इसे मार्शल योजना के नाम से जाना जाता है। अमेरिका ने ‘नाटो’ के तहत एक सामूहिक सुरक्षा व्‍यवस्‍था को जन्‍म दिया। मार्शल योजना के तहत 1948 में यूरोपीय आर्थिक सहयोग संगठन की स्‍थापना की गई जिसके माध्‍यम से पश्चिमी यूरोप देशों को आर्थिक मदद दी गई।

1949 में गठित यूरोपीय परिषद् राजनैतिक सहयोग के मामले में एक अगला कदम साबित हुई।

1957 में यूरोपीयन इकॉनामिक कम्‍युनिटी का गठन हुआ। सोवियत गुट के पतन के बाद

1992 में इस प्रक्रिया की परिणति यूरोपीय संघ की स्‍थापना के रूप में हुई। यूरोपीय संघ के रूप में समान विदेश और सुरक्षा नीति, आंतरिक मामलों तथा न्‍याय से जुड़े मुद्दों पर सहयोग और एकसमान मुद्रा के चलन के लिए रास्‍ता तैयार  हो गया।

यूरोपीय संघ स्‍वयं काफी हद तक एक विशाल राष्‍ट्र-राज्‍य की तरह ही काम करने लगा है। हाँलाकि यूरोपीय संघ का एक संविधान बनाने की कोशिश तो असफल हो गई लेकिन इसका अपना झंडा, गान, स्‍थापना-दिवस और अपनी मुद्रा है।

यूरोपीय संघ का आर्थिक, राजनैतिक, कूटनीतिक तथा सैनिक प्रभाव बहुत जबरदस्‍त है। 2016 में यह दुनिया की दुसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था थी

इसकी मुद्रा यूरो अमरीकी डालर के प्रभुत्‍व के लिए खतरा बन सकती है। विश्‍व व्‍यापार में इसकी

हिस्‍सेदारी अमरीका से तीन गुनी ज्‍यादा है इसकी आर्थिक शक्ति का प्रभाव इसके नजदीकी देशों पर ही नहीं, बल्कि एशिया और अफ्रीका के दूर-दराज के मुल्‍कों पर भी है।

यूरोपीय संघ के दो सदस्‍य देश ब्रिटेन और फ्रांस सुरक्षा परिषद् के स्‍थायी सदस्‍य हैं।

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सैनिक ताकत के हिसाब से यूरोपीय संघ के पास दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना है। इसका कुल रक्षा बजट अमरीका के बाद सबसे अधिक है। यूरोपीय संघ के दो देशों-ब्रिटेन और फ्रांस के पास परमाणु हथियार हैं

550 परमाणु हथियार हैं। अं‍तरिक्ष विज्ञान और संचार प्रौद्योगिकी के मामले में भी यूरोपीय संघ का दुनिया में दूसरा स्‍थान है।

यूरोपीय संघ आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक मामलों में दखल देने में सक्षम है।

डेनमार्क और स्‍वीडन ने मास्ट्रिस्‍ट संधि और साझी यूरोपीय मुद्रा यूरो को मानने का प्रतिरोध किया। इससे विदेशी और रक्षा मामलों में काम करने की यूरोपीय संघ की क्षमता सीमित होती है।

दक्षिण पूर्व एशियाई राष्‍ट्रों का संगठन

(आसियान)

बांडुंग सम्‍मेलन और गुटनिरपेक्ष आंदोलन वगैरह के माध्‍यम से एशिया और तीसरी दुनिया के देशों में एकता कायम करने के प्रयास अनौपचारिक स्‍तर पर सहयोग और मेलजोल कराने के मामले में कारगर नहीं रहे थे। इसी के चलते दक्षिण-पूर्व एशियाई संगठन (आसियान) बनाकर एक वैकल्पिक पहल की।

1967 में इस क्षेत्र के पाँच देशों ने बैंकॉक घोषणा पर हस्‍ताक्षर करके ‘आसियान’ की स्‍थापना की। ये देश थे इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपींस, सिंगापुर और थाईलैंड।

विकास को तेज करना और उसके माध्‍यम से सामाजिक और सांस्‍कृति विकास हासिल करना था। कानून के शासन और संयुक्‍त राष्‍ट्र के कायदों पर आधारित क्षेत्रीय शांति और स्‍थायित्‍व को बढ़ावा देना भी इसका उद्देश्‍य था। बाद के वर्षो में ब्रुनेई दारूरसलाम, वियतनाम, लाओस, म्‍यांमार और कंबोडिया भी आसियान में शामिल हो गए तथा इसकी सदस्‍य संख्‍या दस हो गई।

अनौपचारिक, टकरावरहित और सहयोगात्‍मक मेल-मिलाप का नया उदाहरण

पेश करके आसियान ने काफी यश कमाया है और इसको ‘आसियान शैली’ (ASEANay) ही कहा जाने लगा है।

2003 में आसियान ने आसियान सुरक्षा समुदाय, आसियान आर्थिक समुदाय और आसियान सामाजिक-सांस्‍कृतिक समुदाय नामक तीन स्‍तम्‍भों के आधार आसियान समुदाय बनाने की दिशा में कदम एठाए

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आसियान सुरक्षा समुदाय क्षेत्रीय विवादों को सैनिक टकराव तक न ले जाने की सहमति पर आधारित है। 2003 तक आसियान के सदस्‍य देशों ने कई समझौते किए जिनके द्वारा हर सदस्‍य देश ने शांति निश्‍पक्षता, सहयोग, अहस्‍तक्षेप को बढ़ावा देने और राष्‍ट्रों के आपसी अंतर तथा    संप्रभुता अधिकारों का सम्‍मान करने पर अपनी वचनबद्धता जाहिर की।

आसियान क्षेत्र की कुल अर्थव्‍यवस्‍था अमरीका, यूरोपीय संघ और जापान की तुलना में काफी छोटी है पर इसका विकास इन सबसे अधिक तेजी से हो रहा है।

आसियान ने निवेश, श्रम और सेवाओं के मामले में मुक्‍त व्‍यापार क्षेत्र (FTA) बनाने पर भी ध्‍यान दिया है। इस प्रस्‍ताव पर आसियान के साथ बातचीत करने की पहल अमरीका और चीन ने कर भी दी है।

आसियान तेजी से बढ़ता हुआ एक महत्‍पूर्ण क्षेत्रीय संगठन है।

आसियान द्वारा अभी टकराव की जगह बातचीत को बढ़़ावा देने की नीति से ही यह बात निकली है। इसी तरकीब से आसियान ने कंबोडिया के टकराव को समाप्‍त किया, पूर्वी तिमोर के संकट को सम्‍भाला है

भारत ने दो आसियान

सदस्‍यों, मलेशिया, सिंगापुर और थाईलैंड के साथ मुक्‍त व्‍यापार का समझौता किया है। 2010 में आसियान-भातर मुक्‍त व्‍यापार क्षेत्र व्‍यवस्‍था लागू हुई।

यह एशिया का एकमात्र ऐसा क्षेत्रीय संगठन है जो एशियाई देशों और विश्‍व शक्तियों को राजनैतिक और सुरक्षा मामलों पर चर्चा के लिए राजनैतिक मंच उपलब्‍ध कराता है।

चीनी अर्थव्‍यवस्‍था का उत्‍थान 1978 के बाद से चीन की आर्थिक सफलता को एक महाशक्ति के रूप में इसके उभरने के साथ जोड़कर देखा जाता है। आर्थिक सुधारों की शुरूआत करने के बाद से चीन सबसे ज्‍यादा तेजी से आर्थिक वृद्धि कर रहा है और माना जाता है कि इस रफ्तार से चलते, हुए 2040 तक वह दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति, अमरीका से भी आगे निकल जाएगा।

इसकी विशाल आबादी, बड़ा भू-भाग, संसाधन, क्षेत्रीय अवस्थिति और राजनैतिक प्रभाव इस तेज आर्थिक वृद्धि के साथ मिलकर चीन के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देते 1949 में माओ के नेतृत्‍व में हुई साम्‍यवादी क्रांति के बाद चीनी जनवादी गणराज्‍य की स्‍थापना के समय यहाँ की आर्थिकी सोवियत

मॉडल पर आ‍धारित थी।

इसने विकास का जो मॉडल अपनाया उसमें खेती से पूँजी निकाल कर सरकारी नियंत्रण में बड़े उद्योग खड़े करने पर जोर था।

चीन ने आयातित सामानों को धीरे-धीरे घरेलू स्‍तर पर ही तैयार करवाना शुरू किया।

अपने नागरिकों को शिक्षित करने और उन्‍हें स्‍वास्‍थ सुविधाएँ उपलब्‍ध कराने के मामले में चीन सबसे विकसित देशों से भी आगे निकल गया। अर्थव्‍यवस्‍था का विकास भी 5 से 6 फीसदी की दर से हुआ। लेकिन जनसंख्‍या में 2-3 फीसदी की वार्षिक वृद्धि इस विकास दर पर पानी फेर रही थी

इसका औद्योगिक उत्‍पादन पर्याप्‍त तेजी से नहीं बढ़ रहा था। विदेशी व्‍यापार न के बराबर था और प्रति व्‍यक्ति आय बहुत कम थी।

चीन ने 1972 में अमरीका से संबंध बनाकर अपने राजनैतिक

और आर्थिक एकांतवास को खत्‍म किया। 1973 में प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई ने कृषि, उद्योग, सेना और विज्ञान-प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में आधुनिकीकरण के चार प्रस्‍ताव रखे। 1978 में तत्‍कालीन नेता देंग श्‍याओपेंग ने चीन में आर्थिक सुधारों और ‘खुले द्वार की नीति’ की घोषणा की।

चीन नेअर्थव्‍यवस्‍था को चरणबद्ध ढंग से खोला।

1982 में खेती का निजीकरण किया गया और उसके बाद 1998 में उद्योगों का।

नयी आर्थिक नीतियों के कारण चीन की अर्थव्‍यवस्‍था को अपनी जड़ता से उबरने में मदद मिली। कृषि के निजीकणर के कारण कृषि-उत्‍पादों तथा ग्रामीण आय में उल्‍लेखनीय बढोत्तरी हुई।

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उद्योग और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में चीन की अर्थव्‍यवस्‍था की वृद्धी-दर तेज रही। व्‍यापार के नये कानून तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों (स्‍पेशल इकॉनामिक जोन SEZ) के निर्माण से विदेश-व्‍यापार में उल्‍लेखनीय वृद्धि हुई। चीन पूरे विश्‍व में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश के लिए सबसे आ‍कर्षक देश बनकर उभरा। चीन के पास विदेशी मुद्रा का अब विशाल भंडार है

चीन 2001 में विश्‍व व्‍यापार संगठन में शामिल हो गया।

चीन की आर्थिकी में तो नाटकीय सुधार हुआ है लेकिन वहाँ हर किसी को सुधारों का लाभ नहीं मिला है। चीन में बेरोजगारी बढ़ी है और 10 करोड़ लोग रोजगार की तलाश में है। वहाँ महिलाओं के रोजगार और काम करने के हालात उतने ही खराब हैं जितने यूरोप में 18वीं और 19वीं सदी में थे। इसके अलावा पर्यावरण के नुकसान और भ्रष्‍टाचार के बढ़ने जैसे परिणाम भी सामने आए। गाँव

क्षेत्रीय और वैश्विक स्‍तर पर चीन एक ऐसी जबरदस्‍त आर्थिक शक्ति बनकर उभरा है

1997 के वित्तीय संकट के बाद आसियान देशों की अर्थव्‍यवस्‍था को टिकाए रखने में चीन के आर्थिक उभार ने काफी मदद की है। लातिनी अमरीका और अफ्रीका में निवेश और मदद की इसकी नीतियाँ बताती हैं कि विकासशील के रूप में उभरता जा रहा है।

चीन के साथ भारत के संबंध

पश्चिमी साम्राज्‍यवाद के उदय से पहले भारत और चीन एशिया की महाशक्ति थे।

चीनी राजवंशों के लम्‍बे शासन में मंगोलिया, कोरिया, हिन्‍द-चीन के कुछ इलाके और तिब्‍बत इसकी अधीनता मानते रहे थे। भारत के भी अनेक राजवंशों और साम्राज्‍यों का प्रभाव उनके अपने राज्‍य से बाहर भी रहा था।

अंग्रेजी राज से भारत के आजाद होने और चीन द्वारा विदेशी शक्यिों को निकाल बाहर चीन द्वारा विदेशी शक्तियों को निकाल बाहर करने के बाद यह उम्‍मीद जगी थी कि ये दोनों मुल्‍क साथ आकर विकासशील दुनिया और खास तौर से एशिया के भविष्‍य को तय करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। कुछ समय के लिए ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई ‘ का नारा भी लोकप्रिय हुआ।

आजादी के तत्‍काल बाद 1950 में चीन द्वारा तिब्‍बत को हड़पने तथा भारत-चीन सीमा पर

बस्तियाँ बनाने के फैसले से दोनों देशों के बीच संबंध एकदम गड़बड़ हो गए। भारत और चीन दोनों देश अरूणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों और लद्दाख के अक्‍साई-चीन क्षेत्र पर प्रतिस्‍पर्धी दावों के चलते 1962 में लड़ पड़े। 1962 के युद्ध में भारत को सैनिक पराजय झेलनी पड़ी और

1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में चीन का राजनीतिक नेतृत्‍व बदला। चीन की नीति में भी अब वैचारिक मुद्दों की जगह व्‍यावहारिक मुद्दे प्रमुख होते गए इस‍लिए चीन भारत के साथ संबंध

सुधारने के लिए विवादास्‍पद मामलों को छोड़ने को तैयार हो गया। 1981 में सीमा विवादों को दूर करने के लिए वार्ताओं की श्रृखला भी की गई।

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद से भारत-चीन संबंधों में महत्‍वपूर्ण बदलाव आया है।

दोनों ही खुद को विश्‍व-राजनीति की उभरती शक्ति मानते हैं और दोनों ही एशिया की अर्थव्‍यवस्‍था और राजनीति में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाना चाहेंगे।

दोनों देशों ने सांस्‍कृतिक आदान-प्रदान, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में परस्‍पर सहयोग और व्‍यापार के लिए सीमा पर चार पोस्‍ट खोलने के समझौते भी किए हैं। 1999 से भारत और चीन के बीच व्‍यापार 30 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है।

चीन और भारत के बीच 1992 में 33 करोड़ 80 लाख डॉलर का द्विपक्षीय व्‍यापार हुआ था जो 2017 में बढ़कर 84 अरब डॉलर का हो चुका है।

वैश्विक धरातल पर भारत और चीन ने विश्‍व व्‍यापार संगठन जैसे अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक संगठनों

के संबंध में एक जैसी नीतियाँ अपनायी हैं। 1998 में भारत के परमाणु ह‍थियार परीक्षण को कुछ लोगों ने चीन से खतरे के मद्देनजर उचित ठहराया था। लेकिन इससे भी दोनों के बीच संपर्क कम नहीं हुआ।

पाकिस्‍तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में भी चीन को मददगार माना जाता है। बांग्‍लादेश और म्‍यांमार से चीन के सैनिक संबंधों को भी दक्षिण एशिया में भारतीय हितों के खिफाल माना जाता है। पर इसमें से कोई भी मुद्दा दोनों मुल्‍कों में टकराव करवा देने

लायक नहीं माना जाता।

चीन और भारत के नेता तथा अधिकारी अब अक्‍सर नयी दिल्‍ली और बीजिंग का दौरा करते हैं।

परिवहन और संचार मार्गो की बढ़ोत्तरी, समान आर्थिक हित तथा एक जैसे वैश्विक सरोकारों के कारण भारत और के बीच संबंधों को ज्‍यादा सकारात्‍मक तथा मजबूत बनाने में मदद मिली है।

जापान

सोनी,पैनासोनिक, कैनन, सुजुकी, होंडा, ट्योटा और माज्‍दा जैसे प्रसिद्ध  जापानी ब्रांडों उच्‍च प्रौद्योगिकी के उत्‍पाद बनाने के लिए इनके नाम मशहूर हैं। जापान के पास प्राकृतिक संसाधन कम हैं और वह ज्‍यादातर कच्‍चे माल का आयात करता है। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद जापान ने बड़ी तेजी से प्रगति की।

2017 में जापान की अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था है। एशिया के देशों में अकेला जापान ही समूह-7 के देशों में शामिल है। आबादी के लिहाज से विश्‍व में जापान का स्‍थान ग्‍यारहवाँ है। परमाणु बम की विभीषिका झेलने वाला एकमात्र देश जापान है। जापान संयुक्‍त राष्‍ट‍्रसंघ के बजट में 10 प्रतिशत का योगदान करता है। संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ के बजट में अंशदान करने के लिहाज से जापान दूसरा सबसे बड़ा देश है। 1951 से जापान का अमरीका के साथ सुरक्षा-गठबंधन है।

जापान का सैन्‍य व्‍यय उसके सकल घरेलू उत्‍पाद का केवल 1 प्रतिशत है

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दक्षिणय कोरिया 

कोरियाई प्रायद्वीप विश्‍व युद्ध के अंत में दक्षिण कोरिया (रिपब्लिक ऑफ कोरिया) और उत्तरी कोरिया (डेमोक्रेटिक पीपुल्‍स) रिपब्लिक ऑफ कोरिया) में 38 वें समानांतर के साथ-साथ विभाजित किया गया था। 1950-53 के दौरान कोरियाई युद्ध और शीत युद्ध काल की गतिशीलता ने दोनों पक्षों के बीच प्रतिद्वंदिता को तेज कर दिया। अंतत: 17 सितंबर 1991 को दोनों कोरिया संयुक्‍त राष्‍ट्र के सदस्‍य बने। इसी बीच दक्षिण कोरिया एशिया में सत्ता के केंद्र के रूप में उभरा। 1960 के दशक से 1980 के दशक के बीच, इ‍सका आर्थिक शक्ति के रूप में तेजी से विकास हुआ, जिसे ”हान नदी पर चमत्‍कार” कहा जाता है।

2017 में इसकी अर्थव्‍यवस्‍था दुनिया में ग्‍यारहवीं सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था है और सैन्‍य खर्च में इसका दसवां स्‍थान है।

सैमसंग, एलजी और हुंडई जैसे दक्षिण कोरियाई ब्रांड भारत में प्रसिद्ध हो गए हैं। भारत और दक्षिण कोरिया के बीच कई समझौते उनके बढ़ते वाणिज्यिक और सांस्‍कृतिक संबंधो को दर्शाते हैं।

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3. समकालीन विश्‍व में अमरीकी वर्चस्‍व | Samkalin vishv me Amerkee varchasv class 12

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय 3 समकालीन विश्‍व में अमरीकी वर्चस्‍व का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। Samkalin vishv me Amerkee varchasv class 12

Samkalin vishv me Amerkee varchasv class 12

                                                                                     अध्‍याय 3
                                                              समकालीन विश्‍व में अमरीकी वर्चस्‍व

परिचय                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                    

शीतयुद्ध के अंत के बाद संयुक्‍त राज्‍य अमरीका विश्‍व की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा और दुनिया में कोई उसकी टक्‍कर का प्रतिद्वंद्वी न रहा। इस घटना के बाद के दौर को अमरीकी प्रभुत्‍व या एकध्रुवीय विश्‍व का दौर कहा जाता है।

खाड़ी युद्ध से लेकर अमरीकी अगुआई में इराक पर हमले तक घटनाओं का एक सिलसिला है। एक ध्रुवीय विश्‍व के उभार की इस कथाकी शुरूआत हम इस घटनाक्रम के जिक्र से करेंगे।

आयशा, जाबू और आंद्रेई

बगदाद  के छोर पर कायम एक स्‍कूल पढ़ रही आयशा अपनी पढ़ाई-लिखाई अव्‍वल थी। उसने सोचा था कि किसी विश्‍वविद्यालय में डॉक्‍टरी की पढ़ाई करूँगी। सन् 2003 में उसकी एक टाँग जाती रही। वह एक ठिकाने में अपने दोस्‍तों के साथ छुपी हुई थी और तभी हवाई हमले में दागी हुई एक मिसाइली उसके ठिकाने पर आ गिरी।

उसकी योजना डॉक्‍टर बनने की ही है, लेकिन तब ही जब विदेशी सेना उसके देश को छोड़कर चली जाए।

डरबन (दक्षिण अफ्रीका) का रहने वाला जाबू एक प्रतिभाशाली कलाकार है। उस‍की योजना आर्ट स्‍कूल में पढ़ने और इसके बाद अपना स्‍टूडियो खोलने की है। लेकिन उसके पिता चाहते हैं कि जाबू एमबीए की पढ़ई करे और परिवार का व्‍यवसाय संभाले।

जाबू के पिता सोचते हैं कि वह परिवार के व्‍यवसाय को फायदेमंद बनाएगा।

युवा आंद्रेई पर्थ (आस्‍ट्रेलिया) में रहता है। उसके माँ-बाप बतौर आप्रवासी रूस से आये थे।चर्च जाते वक्‍त जब वह नीली जीन्‍स पहन लेता है तो उसकी माँ आपे से बाहर हो जाती हैं। वह चाहती हैं कि आंद्रेई चर्च में सभ्‍य-शालीन दिखाई पड़े।

आंद्रेई की अपनी माँ से बहस हुई। हो सकता है जाबू को वह विषय पढ़ना पड़े जिसमेंउसकी दिलचस्‍पी नहीं। इससे अलग, आयशा की एक टाँग जाती रही और उसका सौभाग्‍य है कि वह जीवित है। हम इन समस्‍याओं के बारे में एक साथ चर्चा कैसे कर सकते हैं?

इस अध्‍याय में देखेंगे कि ये तीनों एक न एक तरीके से अमरीकी वर्चस्‍व का शिकार हैं।

Samkalin vishv me Amerkee varchasv class 12

अमरीकी वर्चस्‍व की शुरूआत कैसे हुई और आज यह विश्‍व में कैसे असरमंद है। ‘संयुक्‍त राज्‍य अमरीका’ की जगह ज्‍यादा लोकप्रिय शब्‍द ‘अमरीका’ का इस्‍तेमाल करेंगे।

नयी विश्‍व-व्‍यवस्‍था की शुरूआत

सोवियत संघ के अचानक विघटन से हर कोई आश्‍चर्यचकित रह गया। दो महाशक्तियों में अब एक का वजूद तक न था जबकि दूसरा अपनी पूरी ताकत या कहें कि बढ़ी हुई ताकत के साथ कायम था।

अमरीका के वर्चस्‍व की शुरूआत 1991 में हुई जब एक ताकत के रूप में सोवियत संघ अंतर्राष्‍ट्रीय परिदृश्‍य से गायब हो गया। 1990 के अगस्‍त में इराक ने कुवैत पर हमला किया और बड़ी तेजी से उस पर कब्‍जा जमा लिया। इराक को समझाने-बुझाने की तमाम राजनयिक कोशिशें जब नाकाम रहीं तो संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ ने कुवैत को मुक्‍त कराने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे दी।

अमरीकी राष्‍ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसे ‘नई विश्‍व व्‍यवस्‍था’ की संज्ञा दी। 36 देशों की मिलीजुली और 660000 सैनिकों की भारी-भरकम फौज ने इराक के विरूद्ध मोर्चा खोला और उसे परास्‍त कर दिया। इसे प्रथम खाड़ी युद्ध कहा जाता है। संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ के इस सैन्‍य अभियान को ‘ऑपरेशन डेजर्ट स्‍टार्म’ कहा जाता है जो एक हद तक अमरीकी सैन्‍य अभियान ही था।

34 देशों की इस मिली जुली सेना में 75 प्रतिशत सैनिक अमरीका के ही थे। इराक के राष्‍ट्रपति सद्दाम हुसैन का ऐलान था कि यह ‘सौ जंगों की एक जंग’ साबित होगा लेकिन इराकी सेना जल्‍दी ही हार गई और उसे कुवैत से हटने पर मजबूत होना पड़ा।

प्रथम खाड़ी-युद्ध से यह बात जाहिर हो गई कि बाकी देश सैन्‍य-क्षमता के मामले अमरीका से बहुत पीछे हैं

अमरीका ने इस युद्ध में मुनाफा कमाया। कई रिपोर्टो में कहा गया कि अमरीका ने जितनी रकम इस जंग पर खर्च की उससे कहीं ज्‍यादा रकम उसे जर्मनी, जापान और सऊदी अरब जैसे देशों से मिली थी।

क्लिंटन का दौर

प्रथम खाड़ी युद्ध जीतने के बावजूद जार्ज बुश 1992 में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्‍मीदवार विलियम जेफर्सन (बिल) क्लिंटन से राष्‍ट्रपति-पद का चुनाव हार गए। क्लिंटन ने विदेश-नीति की जगह घरेलू नीति को अपने चुनाव-प्रचार का निशाना बनाया था। बिल क्लिंटन 1996 में दुबारा चुनाव जीते और इस तरह वे आठ सालों तक राष्‍ट्रपति-पद पर रहे।

क्लिंटप सरकार ने सैन्‍य-शक्ति और सुरक्षा जैसी ‘कठोर राजनीत’ की जगह लोकतंत्र के बढ़ावे, जलवायु-परिवर्तन तथा विश्‍व व्‍यापार जैसे ‘नरम मुद्दों’ पर ध्‍यान केंद्रित किया।

एक बड़ी घटना 1999 में हुई। अपने प्रांत कोसोवो में युगोस्‍लाविया ने अल्‍बानियाई लोगों के आंदोलन को कुचलने के लिए सैन्‍य कार्रवाई की।

इराके जवाब में अमरीकी नेतृत्‍व में नाटो के देशों ने युगोस्‍लावियाई क्षेत्रों पर दो महीने तक बमबारी की। स्‍लोबदान मिलोसेविच की सरकार गिर गयी और कोसोवो पर नाटो की सेना काबिज हो गई। क्लिंटन के दौर में दूसरी बड़ी सैन्‍य कार्रवाई नैरोबी (केन्‍या) और दारे-सलाम (तंजानिया) के अमरीकी दूतावासों पर बमबारी के जवाब में 1998 हुई। अतिवादी इस्‍लामी विचारों से प्रभावित आंतकवादी संगठन ‘अल-कायदा’ को इस बमबारी का जिम्‍मेवार ठहराया गया। इस बमबारी के कुछ दिनों के अंदर राष्‍ट्रपति क्लिंटन ने ‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’ का आदेश दिया।

अमरीका पर आरोप लगा कि उसने अपने इस अभियान में कुछ नागरिक ठिकानों पर भी निशाना साधा

9/11 और ‘आंतकवाद के विरूद्ध विश्‍वव्‍यापी युद्ध’

11 सितंबर 2001 के दिन विभिन्‍न अरब देशों के 19 अपहरणकर्त्ताओं ने उड़ान भरने के चंद मिनटों बाद चार अमरीकी व्‍यावसायिक विमानों पर कब्‍जा कर लिया। अपहराणकर्ता इन विमानों को अमरीका की महत्‍वपूर्ण इमारतों की सीध में उड़ाकर ले गये। दो विमान न्‍यूयार्क स्थित वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी और दक्षिणी टावर से टकराए। तीसरा विमान वर्जिनिया

के अर्लिंगटन स्थित ‘पेंटागन’ से टकराया। ‘पेंटागन’ में अमरीकी रक्षा-विभाग का मुख्‍यालय है। चौथे विमान को अमरीकी कांग्रेस की मुख्‍य इमारत से टकराना था लेकिन वह पेन्सिलवेनिया के एक खेत में गिर गया। इस हमले को ‘नाइन एलेवन’ कहा जाता है

इस हमले में लगभग तीन हजार व्‍यक्ति मारे गये। उन्‍होंने इस घटना की तुलना 1814 और 1941 की घटनाओं से की 1814 में ब्रिटेन ने वाशिंग्‍टन डीसी में आगजनी की थी और 1941 में जापानियों ने पर्ल पर हमला किया था।

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9/11 के जवाब में अमरीका ने फौरन कदम उठाये और भयंकर कार्रवाई की। अब क्लिंटन की जगह रिपब्लिकन पार्टी के जार्ज डब्‍ल्‍यू बुश राष्‍ट्रपति थे। ये पूर्ववर्ती राष्‍ट्रपति एच डब्‍ल्‍यू बुश के पुत्र हैं।

‘आतंकवाद के विरूद्ध विश्‍वव्‍यापी युद्ध’ के अंग के रूप में अमरीका ने ‘ऑपरेशन एन्‍डयूरिंग फ्रीडम’ चलाया। यह अभियान उन सभि के खिलाफ चला जिन पर 9/11 का शक था। इस अभियान में मख्‍य निशान अल-कायदा और अफगानिस्‍तान के तालिबान-शासन को बनाया। गया। तालिबान के शासन के पाँव जल्‍दी ही उखड़ गए लेकिन तालिबान और अल-कायदा के अवशेष अब भी सक्रिय हैं।

अमरीकी सेना ने पूरे विश्‍व में गिरफ्तायाँ कीं। गिरफ्तार लोगों को अलग-अगल देशों में भेजा गया और उन्‍हें खुफिया जेलखानों में बंदी बनाकर रखा गया। क्‍यूबा के निकट अमरीकी नौसेना का एक ठिकाना ग्‍वांतानामो बे में है। कुछ बंदियों को वहाँ रखा गया। इस जगह रखे गए बंदियों को न तो अंतर्राष्‍ट्रीय कानूनों की सुरक्षा प्राप्‍त है और न ही अपने देश या अमरीका के कानूनों की।

इराक आक्रमण

2003 के 19 मार्च को अमरीका ने ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ के कूटनाम से इराक पर सैन्‍य-हमला किया।

संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ ने इराक पर इस हमले की अनुमति नहीं दी थी।

हमले के मकसद इराक के तेल-भंडार पर नियंत्रण और इराक में अमरीका की मनपसंद सरकार कायम करना1

सद्दाम हुसैन की सरकार तो चंद रोज में ही जाती रही, लेकिन इराक को ‘शांत’ कर पाने में अमरीका सफल नहीं हो सका है। इराक में अमरीका के खिलाफ एक पूर्णव्‍यापी विद्रोह भड़क उठा। अमरीका के 3000 सैनिक इस युद्ध में मरे

एक अनुमान के अनुसार अमरीकी हमले के बाद से लगभग 50000 नागरिक मारे गये हैं।

इराक पर अमरीकी हमला सैन्‍य और राजनीतिक धरातल पर असफल सिद्ध हुआ है।

‘वर्चस्‍व’ ‘दादगिरी’

सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया में एकमात्र महाशक्ति अमरीका बचा। जब अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था किसी एक महाशक्ति या कहें कि उद्धत महाशक्ति के दबदबे में हो तो

इसे’ एकध्रु‍वीय’ व्‍यवस्‍था भी कहा जाता है।

अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था में ताकत का एक ही केंद्र हो तो इसे ‘वर्चस्‍व’ (Hegemony) शब्‍द के इस्‍तेमाल से वर्णित करना ज्‍यादा उचित होगा।

वर्चस्‍व – सैन्‍य शक्ति के अर्थ में

‘हेगेमनी’ शब्‍द की जड़ें प्रा‍चीन यूनान में हैं। इस शब्‍द से किसी एक राज्‍य के नेतृत्‍व या प्रभुत्‍व का बोध होता है।

‘हेगेमनी’

अर्थ आज विश्‍व –राजनीतिक में अमरीका की हैसियत को बताने में इस्‍तेमाल होता है। क्‍या आपको आयशा की याद है जिसकी एक ढाँग अमरीकी हमले में जाती रही? यही है वह सैन्‍य वर्चस्‍व जिसने उसकी आत्‍मा को तो नहीं लेकिन उसके शरीर को जरूर पंगु बना दिया।

अमरीका की मौजूदा ताकत की रीढ़ उसकी बढ़ी-चढ़ी सैन्‍य है। आज अमरीका अपनी सैन्‍य क्षमता के बूते पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता है।

अपनी सेना को युद्धभूमि से अधिकतम दूरी पर सुरक्षि‍त रखकर वह अपने दुश्‍मन को उसके घर में ही पंगु बना सकता है।

अमरीका से नीचे के कुल 12 ताकतवर देश एक साथ मिलकर अपनी सैन्‍य क्षामता के लिए जितना खर्च करते हैं उससे कहीं ज्‍यादा अपनी सैन्‍य क्षमता के लिए के अकेले अमरीका करता है।

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पेंटागन अपनी बजट का एक ब‍ड़ा हिस्‍सा रक्षा अनुसंधान और विकास के मद में अर्थात् प्रौधोगिकी पर खर्च करता

अमरीका आज सैन्‍य प्रौद्योगिकी के मामले में इतना आगे है कि किसी और देश के लिए इस मामले में उ‍सकी बराबरी कर पाना संभव नहीं है।

इराक पर अमरीकी हमले से अमरीका की कुछ कमजोरियाँ उजागर हुई हैं। अमरीका इराक की जनता को अपने नेतृत्‍व वाली गठबंधन सेना के आगे झुका पाने में सफल नहीं हुआ है।

वर्चस्‍व – ढाचागत ताकत के अर्थ में

वर्चस्‍व का दूसरा अर्थ पहले अर्थ बहुत अलग है। इसका रिश्‍ता वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था की एक खास समझ से

वर्चस्‍व के इस दूसरे अर्थ को ग्रहण करें तो इसकी झलक हमें विश्‍वव्‍यापी ‘सार्वजनिक वस्‍तुओं’ को मुहैया कराने की अमरीकी भूमिका में मिलती है। ‘सार्वजनिक वस्‍तुओं’ से आशय

ऐसी चीजों से है जिसका उपभोग कोई एक व्‍यक्ति करे तो दूसरे को उपलब्‍ध इसी वस्‍तु की मात्रा में कोई कमी नहीं आए। स्‍वच्‍छ वायु और सड़क सार्वजनिक वस्‍तु के उदाहरण हैं। वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था के संदर्भ में सार्वजनिक वस्‍तु का सबसे बढि़या उदाहरण समुद्री व्‍यापार-मार्ग (सी लेन ऑव कम्‍युनिकेशन्‍स – SLOCs) हैं जिनका इस्‍तेमाल व्‍यापारिक जहाज करते हैं। वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था में मुक्‍त-व्‍यापार समुद्री व्‍यापार-मार्गो के खुलेपन के बिना संभव नहीं। दबदबे वाला देश अपनी नौसेना की ताकत से समुद्री व्‍यापार-मार्गो पर आवाजाही के नियम तय करता है और अंतर्राष्‍ट्रीय समुद्र में अबाध आवाजाही को सुनिश्चित करता है। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ब्रिटिश नौसेना का जोर घट गया। अब यह भूमिका अमरीकी नौसेना निभाती है जिसकी उपस्थिति दुनिया के लगभग सभी महासागरों में है।

वैश्कि सार्वजनिक वस्‍तु का एक और उदाहरण है – इंटरनेट। आज इंटरनेट के जरिए वर्ल्‍ड वाइड वेव (जगत-जोड़ता-जाल) का आभासी संसार साकार हो गया दीखता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंटरनेट अमरीकी सैन्‍य अनुसंधान परियोजना का परिणाम है।

विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था में अमरीका की 21 प्रतिशत की हिस्‍सेदारी है। विश्‍व के कुल व्‍यापार में अमरीका की लगभग 14 प्रतिशत की ‍‍हिस्‍सेदारी है1 विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था का

अमरीका की अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व की सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था है।

एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें कोई अमरीकी कंपनी अग्रणी तीन कंपनियों में से एक नहीं हो। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ब्रेटनवुड प्रणाली कायम हुई थी। अमरीका द्वारा कायम यह प्रणाली आज भी विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था की बुनियादी संरचना का काम कर रही है। इस तरह हम विश्‍व बैंक, अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष और विश्‍व व्‍यापार संगठन को अमरीकी वर्चस्‍व का परिणाम मान सकते हैं।

अमरीका की ढाँचागत ताकत का एक मानक उदाहरण एमबीए (मास्‍टर ऑव बिजनेस एडमिनिस्‍ट्रेशन) की अकादमिक डिग्री है। अमरीकी धारण है कि व्‍यवसाय अपने आप में एक पेशा है जो कौशल पर निर्भर करता है और इस कौशल को विश्‍वविद्यालय में अर्जित किया जा सकता है। यूनिवर्सिटी ऑव पेन्सिलवेनिया में वार्ह्टन स्‍कूल के नाम से विश्‍व का पहला ‘बिजनेस स्‍कूल’ खुला। इसकी स्‍थापना सन् 1881 में हुई। एमबीए के शुरूआती पाठ्यक्रम 1900 से आरंभ हुए। अमरीका से बाहर एमबीए के किसी पाठ्यक्रम की शुरूआत पाठ्क्रम सन् 1950 में ही जाकर हो सकी। आज दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं जिसमें एमबीए को एक प्रतिष्‍ठत अकादमिक डिग्री का दर्जा हासिल न हो। इस बात से हमें अपने दक्षिण अफ्रीकी दोस्‍त जाबू की याद आती है। ढाँचागत

वर्चस्‍व को ध्‍यान में रखें तो यह बात स्‍पष्‍ट हो जाती है कि जाबू के पिता क्‍यों जोर दे रहे थे कि वह पेंटिगं की पढ़ाई छोड़कर एमबीए की डिग्री ले।

वर्चस्‍व – सांस्‍कृतिक अर्थ में

वर्चस्‍व के इस तीसरे अर्थ का रिश्‍ता ‘सहमति गढ़ने’ की ताकत से है। यहाँ वर्चस्‍व का आशय है सामाजिक, राजनीतिक और खासकर विचारधारा के धरातल पर किसी वर्ग की बढ़त या दबदबा।

प्रभुत्‍वशाली देश सिर्फ सैन्‍य शक्ति से काम नहीं लेता: वह अपने प्रतिद्वंद्वी और अपने से कमजोर देशों के व्‍यवहार-बरताव को अपने मनमाफिक बनाने के लिए विचारधारा से जुड़े साधनों का भी इस्‍तेमाल करता है।

प्रभुत्‍शाली देश जोर-जबर्दस्‍ती और रजामंदी दोनों ही तरीकों से काम लेता है।

आज विश्‍व में अमरीका का दबदबा सिर्फ सैन्‍य शक्ति और आर्थिक बढ़त के बूते ही नहीं बल्कि अमरीका की सांस्‍कृतिक मौजूगी भी इसका एक कारण है।

अमरीकी संस्‍कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्‍यादा ताकतवर है। वर्चस्‍व का यह सांस्‍कृति पहलू है जहाँ जोर-जबर्दस्‍ती से नहीं बल्कि रजामंदी से बात मनवायी जाती है।

आपको आन्‍द्रेई और उसकी ‘कुल’ जीन्‍स की याद होगी। आन्‍द्रेई के माता-पिता जब सोवियत संघ में युवा थे तो उनकी पीढ़ी के लिए नीली जीन्‍स ‘आजादी’ का परम प्रतीक हुआ करती थी। युवक-युवती अक्‍सर अपनी साल-साल भर की तनख्‍वाह किसी ‘चोरबाजार’ में विदेशी पर्यटकों से नीली जीन्‍स खरीदने पर खर्च कर देते थे। ऐसा चाहे जैसे भी हुआ हो

लेकिन सोवियत संघ की एक पूरी पीढ़ी के लिए नीली जीन्‍स ‘अच्‍छे जीवन’ की आकांक्षओं का प्रतीक बन गई थी-एक ऐसा’ अच्‍छा जीवन’ जो सोवियत संघ में उपलब्‍ध नहीं था। शीतयुद्ध के दौरान अमरीका को लगा कि सैन्‍य शक्ति के दायरे में सोवियत संघ को मात दे पाना मुश्किल है।

पूरे शीतयुद्ध के दौरान विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था पूँजीवादी  तर्ज पर चली। अमरीका ने सबसे बड़ी जीत सांस्‍कृतिक प्रभुत्‍व के दायरे में हासिल की। सोवियत संघ में नीली जीन्‍स के लिए दीवानगी इस बात को साफ-साफ जाहिर करती है कि अमरीका एक सांस्‍कृतिक उत्‍पाद के दम पर सोवियत संघ में दो पीढि़यों के बीच दूरिँयाँ पैदा करने में कामयाब रहा।

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अमरीकी शक्ति के रास्‍ते में अवरोध

अमरीकी शक्ति की राह में तीन अवरोध हैं। 11 सितंबर 2001 की घटना के बाद के सालों में ये व्‍यवधान एक तरह से निष्क्रिय जान पड़ने लगे थे लेकिन धीरे-धीरे फिर प्रकट होने लगे हैं।

पहला व्‍यवधान स्‍वयं अमरीका की संस्‍थागत बुनावट है। यहाँ शासन के तीन अंगों के बीच शक्ति का बँटवारा है और यही बुनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्‍य शक्ति के बेलगाम इस्‍तेमाल पर अंकुश लगाने का काम करती है।

अमरीका की ताकत के आड़े आने वाली दूसरी अड़चन भी अंदरूनी है। इस अड़चन के मूल है अमरीकी समाज जो अपनी प्रकृति में उन्‍मुक्‍त है। अमरीका में जन-संचार के साधन समय—समय पर वहाँ के जनमत को एक खास दिशा में मोड़ने की भले कोशिश करें लेकिन अमरीकी राजनीतिक संस्‍कृति में शासन के उद्देश्‍य और तरीके को लेकर गहरे संदेह का भाव भरा है। अमरीका के

विदेशी सैन्‍य-अभियानों पर अंकुश रखने में यह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है।

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अमरीकी ताकत की राह में मौजूद तीसरा व्‍यवधान सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है। अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था में आज सिर्फ एक संगठन है जो संभवतया अमरीकी ताकत पर लगाम कम सकता है और इस संगठन का नाम है ‘नाटो’ अर्थात् उत्तर अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन। अमरीका का बहुत बड़ा हित लोकतांत्रिक देशों के इस संगठन को कायम रखने से जुड़ा है क्‍योंकि इन देशों में बाजारमूलक अ‍र्थव्‍यवस्‍था चलती है। इसी कारण इस बात की संभावना बनती है कि ‘नाटो’ में शामिल अमरीका के साथी देश उसके वर्चस्‍व पर कुछ अंकुश लगा सकें।
अमरीका से भारत के संबंध

शीतयुद्ध के वर्षो में भारत अमरीकी गुट के विरूद्ध खड़ा था। इन सालों में भारत की करीबी दोस्‍ती सोवियत संघ से थी। सोवियत संघ के बिखरने के बाद भारत ने पाया कि लगातार कटुतापूर्ण होते अंतर्राष्‍ट्रीय माहौल में वह मित्रविहीन हो गया है। इसी अवधि में भारत ने अपनी अर्थव्‍यवस्‍था का उदारीकरण करने तथा उसे वैश्कि अर्थव्‍यवस्‍था से जोड़ने का भी फैसला किया। इस नीति और हाल के सालों में

प्रभावशाली आर्थिक वृद्धि-दर के कारण भारत अब अमरीका समेत कई देशों के लिए आकर्षक आर्थिक सहयोगी बन गया है।

सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत के कुल निर्यात का 65 प्रतिशत अमरीका को जाता है। बोईग के 35 प्रतिशत तकनीकी कर्मचारी भारतीय मूल हैं।

3 लाख भारतीय ‘सिलिकन वैली’ में काम करते हैं।

उच्‍च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की 15 प्रतिशत कंपनियों की शुरूआत अमरीका में बसे भारतीयों ने की है।

यह अमरीका के विश्‍वव्‍यापी वर्चस्‍व का दौर है और बाकी देशों की तरह भारत को भी फैसला करना है कि अमरीका के साथ वह किस तरह के संबंध रखना चाहता है।

भारत में तीन संभावित रणनीतियों पर बहस चल रही है-

भारत के जो विद्धान अंतर्राष्‍ट्रीय राजनीति को सैन्‍य शक्ति क संदर्भ में देखते-समझते हैं, वे भारत और अमरीका की बढ़ती हुई नजदीकी से भयभीत हैं। ऐसे विद्धान यही चाहेंगे कि भारत वाशिंग्‍टन से अपना अलगाव बनाए रखे और अपना ध्‍यान अपनी राष्‍ट्रीय शक्ति को बढ़ाने पर लगाये। कुछ विद्धान मानते हैं कि भारत और अमरीका के हितों में हेलमेल लगातार बढ़ रहा है और यह भारत के लिए ऐतिहासिक अवसर है। ये विद्धान एक ऐसी रणनीति अपनाने की तरफदारी करते हैं जिससे भारत अमरीकी वर्चस्‍व का फायदा उठाए। वे चाहते हैं कि दोनों

के आपसी हितों का मेल हो इन विद्धानों की राय है कि अमरीका के विरोध की रणनीति व्‍यर्थ साबित होगी और आगे चलकर इससे भारत को नुकसान होगा।

कुछ विद्धानों की राय है कि भार‍त अपनी अगुआई में विकासशील देशों का गठबंधन बनाए। कुछ सालों में यह गठबंधन ज्‍यादा ताकतवर हो जाएगा और अमरीकी वर्चस्‍व के प्रतिकार में सक्षम हो जाएगा।

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वर्चस्‍व से कैसे निपटें?

कब तक चलेगा अमरीकी वर्चस्‍व? इस वर्चस्‍व से कैसे बचा जा सकता है?

अंतर्राष्‍ट्रीय राजनीति में ऐसी चीजें गिनी-चुनी ही हैं जो किसी देश की सैन्‍यशक्ति पर लगाम कस सकें। हर देश में सरकार होती है लेकिन विश्‍व-सरकारा जैसी कोई चीज नहीं होती।

अंतर्राष्‍ट्रीय राजनीति दरअसल ‘सरकार विहीन राजनीति’ है। कुछ कायदे-कानून जरूर हैं जो युद्ध पर कुछ अंकुश रखते हैं लेकिन ये कायदे-कानून युद्ध को रोक नहीं सकते। शायद ही कोई देश होगा

जो अपनी सुरक्षा को अंतर्राष्‍ट्रीय कानूनों के हवाले कर दे। तो क्‍या इन बातों से यह समझा जाए कि न तो वर्चस्‍व से कोई छुटकारा है और न ही युद्ध से?

भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अमरीकी वर्चस्‍व को चुनौती दे पाने की संभावना है लेकिन इन देशों के बीच आपसी विभेद हैं और इन विभेदों के रहते अमरीका के विरूद्ध इनका कोई गठबंधन नहीं हो सकता।

कुछ लोगों का तर्क है कि वर्चस्‍वजनित अवसरों के लाभ उठाने की रणनीति ज्‍यादा संगत है1

सबसे ताकतवर देश के विरूद्ध जाने के बजाय उसके वर्चस्‍व-तंत्र में रहते हुए अवसरों का फायदा उठाना कहीं उचित रणनीति है। इसे ‘बैंडवैगन’ अथवा ‘जैसी बहे बयार पीठ तैसी कीजै’ की रणनीति कहते हैं।

देशों के सामने एक विकल्‍प यह है कि वे अपने को ‘छुपा’ लें। इसका अर्थ होता है दबदबे वाले देश से यथासंभव दूर-दूर रहना। इस व्‍यवहार के कई उदाहरण हैं। चीन, रूस और यूरोपीय संघ सभी एक न एक तरीके से अपने को अमरीकी निगाह में चढ़ने से बचा

रहे हैं। इस तरह से अमरीका के किसी बेवजह या बेपनाह क्रोध की चपेट में आने ये देश अपने को बचाते हैं।

कुछ लोग मानते हैं कि अमरीकी वर्चस्‍व का प्रतिकार कोई देश अथवा देशों का समूह नहीं कर पाएगा क्‍योंकि आज सभी देश अमरीकी ताकत के आागे बेबस हैं। ये लोग मानते हैं कि राज्‍येतर संस्‍था

अमरीकी वर्चस्‍व को आर्थिक और सांस्‍कृति धरातल पर चुनौती मिलेगी। यह चुनौती स्‍वयंसेवी संगठन, सामाजिक आंदोलन और जनमत के आपसी मेल से प्रस्‍तुत होगी: मीडीया का एक तबका, बुद्धिजीवी, कलाकार और लेखक आदि अमरीकी वर्चस्‍व के प्रतिरोध के लिए आगे आएंगे। ये राज्‍येतर संस्‍थाएँ विश्‍वव्‍यापी नेटवर्क बना सकती हैं जिसमें अमरीकी नागरिक भी शामिल होंगे और साथ मिलकर अमरीकी नीतियों की आलोचना तथा प्रतिरोध किया जा सकेगा। प्रतिरोध ही एकमात्र विकल्‍प बचता है।Samkalin vishv me Amerkee varchasv class 12

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2. ध्रुवीयता का अंत कक्षा 12 | Dhruviyata ka ant class 12th

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय 2 दो ध्रुवीयता का अंत के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। Dhruviyata ka ant class 12th

अध्‍याय 2 दो ध्रुवीयता का अंत

परिचय

शीतयुद्ध के सबसे सरगर्म दौर में बर्लिन-दीवार खड़ी की गई थी और यह दीवार शीतयुद्ध का सबसे बड़ा प्रतीक थी। 1989 में पूर्वी जर्मनी की आम जनता ने इस दीवार को गिरा दिया । दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद विभाजित हो चुके जर्मनी का अब एकीकरण हो गया । सोवियत संघ के खेमे में शामिल पूर्वी यूरोप के आठ देशों ने एक-एक करके जनता के प्रदर्शनों को देखकर अपने साम्‍यवादी शासन को बदल डाला । अंत में स्‍वयं सोवियत संघ का विघटन हो गया। इस अध्‍याय में हम दूसरी दुनिया के विघटन के आशय, कारण और परिणामों के बारे में चर्चा करेंगे। बर्लिन की दीवार पूँजीवादी दुनिया और साम्‍यवादी दुनिया के बीच विभाजन का प्रतीक थी। 1961 में बनी यह दीवार पश्चिमी बर्लिन को पूर्वी बर्लिन से अलगाती थी। 150 किलोमीटर से भी ज्‍यादा लंबी यह दीवार 28 वर्षो तक खड़ी रही और आखिरकार जनता ने इसे 9 नवंबर, 1989 को तोड़ दिया। यह दोनों जर्मनी के एकीकरण और साम्‍यवादी खेमे की समाप्ति की शुरूआत थी।

सोवियत संघ के नेता    

व्‍लादिमीर लेनिन (1870-1924)

बोल्‍शेविक कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के संस्‍थापक: 1917 की रूसी क्रांति के नायक और क्रांति के बाद के सबसे मुश्किल दौर (1917-1924) में सोवियत समाजवादी गणराज्‍य के संस्‍थापक-अध्‍यक्ष: पूरी दुनिया में साम्‍यवाद के प्रेरणास्‍त्रोत।

सोवियत संघ के नेता

जोजेफ स्‍टालिन (1879-1953) लेनिन के उत्तराधिकारी: सोवियत संघ के मजबूत बनने के दौर में (1924-1953) नेतृत्‍व किया: औद्योगीकरण को तेजी से बढ़ावा और खेती का बलपूर्वक सामूहिकीकरण: दूसरे विश्‍व युद्ध में जीत का श्रेय: पार्टी के अंदर अपने विरोधयों को कुचलने और तानाशाही रवैये के लिए जिम्‍मेदार ठहराए गए।

निकिता ख्रुश्‍चेव  (1894-1971)

सोवियत संघ के राष्‍ट्रपति (1953-1964): स्‍टालिन की नेतृत्‍व-शैली के आलोचक: 1956 में कुछ सुधार लागू किए: पश्चिम के साथ ‘शांतिपूर्ण सहअ‍स्तित्‍व’ का सुझाव रखा: हंगरी के जन-विद्रोह के दमन और क्‍यूबा के मिसाइल संकट में शामिल।

सोवियत प्रणाली क्‍या थी?

समाजवादी सोवियत गणराज्‍य (यू.एस.एस.आर.) रूस में हुई 1917 की समाजवादी क्रांति के बाद अस्तित्‍व में आया। यह क्रांति पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के विरोध में हुई थी और समाजवाद के आदर्शो और समतामूलक समाज की जरूरत से प्रेरित थी। यह मानव इतिहास में निजी संपत्ति की संस्‍था को समाप्‍त करने और समाज को समानता के सिद्धांत पर सचेव रूप से रचने की सबसे बड़ी कोशिश थी। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप के देश सोवियत संघ के अंकुश में आ गये। सोवियत सेना ने इन्‍हें फासीवादी ताकतों के चंगुल से मुक्‍त कराया था। इन सभी देशों की राजनीतिक और सामाजिक व्‍यवस्‍था को सोवियत संघ की समाजवादी प्रणाली की तर्ज पर ढाला गया। इन्‍हें ही समाजवादी खेमे के देश या ‘दूसरी दुनिया’ कहा जाता है। इस खेमे का नेता समाजवादी सोवियत गणराज्‍य था। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद सोवियत संघ महाशक्ति के रूप में उभरा। सोवियत संघ की अर्थव्‍यस्‍था शेष विश्‍व की तुलना में कहीं ज्‍यादा विकसित थी। सोवियत संघ की संचार प्रणाली बहुत उन्‍नत थी। उसके पास विशाल ऊर्जा-संसाधन था जिसमें खनिज-तेल, लोहा और इस्‍पात तथा मशीनरी उत्‍पाद शामिल हैं। सरकार बुनियादी जरूरत की चीजें मसलन स्‍वास्‍थ्‍य-सुविधा, शिक्षा, बच्‍चों की देखभाल तथा लोक-कल्‍याण की अन्‍य चीजें रियायती दर पर मुहैया कराती थी। बेरोजगारी नहीं थी।

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मिल्कियत का प्रमुख रूप राज्‍य का स्‍वामित्‍व था तथा भूमि और अन्‍य उत्‍पादक संपदाओं पर स्‍वामित्‍व होने के अलावा नियंत्रण भी राज्‍य का ही था।

बहरहाल, सोवियत प्रणाली पर नौकरशाही का शिकंजा कसता चला गया। यह प्रणाली सत्तावादी हो‍ती गई और नागरिकों का जीवन कठिन होता चला गया। लोकतंत्र और अभिव्‍यक्ति की आजादी नहीं होने के कारण लोग अपनी असहमति अक्‍सर चुटकुलों और कार्टूनों में व्‍यक्‍त करते थे। सोवियत संघ की अधिकांश संस्‍थाओं में सुधार की जरूरत थी। सोवियत संघ में एक दल यानी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का शासन था और इस दल का सभी संस्‍थाओं पर गहरा अंकुश था। यह दल जनता के प्रति जवाबदेह नहीं था। जनता ने अपनी संस्‍कृति और बाकी मामलों की साज-संभाल अपने आप करने के लिए 15 गणराज्‍यों को आपस में मिलाकर सोवियत संघ बनाया था। लेकिन पार्टी ने जनता की इस इच्‍छा को पहचानने से इंकार कर दिया। सोवियत संघ के नक्‍शे में रूस, संघ के पन्‍द्रह गणराज्‍यों में से एक था लेकिन वास्‍तव में रूस का हर मामले में प्रभुत्‍व था। अन्‍य क्षेत्रों की जनता अक्‍सर उपेक्षित और दमित महसूस करती थी।

हथियारों की होड़ में सोवियत संघ ने समय-समय पर अमरीका को बराबर टक्‍कर दी लेकिन उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। सोवियत संघ प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढाँचे (मसलन-परिवहन,ऊर्जा) के मामले में पश्चिमी देशों की तुलना में पीछे रह गया। सोवियत संघ ने 1979 में अफगानिस्‍तान में हस्‍तक्षेप किया। इससे सोवियत संघ की व्‍यवस्‍था और भी कमजोर हुई उत्‍पादकता और प्रौद्योगिकी के मामले में वह पश्चिमके देशों से बहुत पीछे छूट गया। 1970 के दशक के अंतिम वर्षो में यह व्‍यवास्‍था लड़खड़ा रही थी

गोर्बाचेव और सोवियत संघ का विघटन

मिखाइल गोर्बाचेव ने इस व्‍यवास्‍था को सुधारना चाहा। वे 1980 के दशक के मध्‍य में सोवियत संघ की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के महासचिव बने। पश्चिम के देशों में सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति हो रही थी और सोवियत संघ को इसकी बराबरी में लाने के लिए सुधार जरूरी हो गए थे। गोर्बाचेव ने पश्चिम के देशों के साथ संबंधो को सामान्‍य बनाने, सोवियत संघ को लोकतांत्रिक रूप देने और वहाँ सुधार करने फैसला किया। पूर्वी यूरोप के देश सोवियत खेमे के हिस्‍से थे। इन देशों की जनता ने अपनी सरकारों और सोवियत नियंत्रण का विरोध करना शुरू कर दिया। पूर्वी यूरोप की साम्‍यवादी सरकारें एक के बाद एक गिर गई।

सोवियत संघ के बाहर हो रहे इन परिवर्तनों के साथ-साथ अंदर भी संकट गहराता जा रहा था और इससे सोवियत संघ के विघटन की गति और तेज हुई। गोर्बाचेव ने देश के अंदर आर्थिक-राजनीतिक सुधारों और लोकतंत्रीकरण की नीति चलायी। इन सुधार नीतियों का कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के नेताओं द्वारा विरोध किया गया।

1991 में एक तख्‍तापलट भी हुआ। कम्‍युनिस्‍ट पार्टी से जुड़े गरमपंथियों ने इसे बढ़ावा दिया था। तब तक जनता को स्‍वतंत्रता का स्‍वाद मिल चुका था और वे कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के पुरानी रंगत वाले शासन में नहीं जाना चाहते थे। येल्‍तसिन ने इस तख्‍तापलट के विरोध में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई और वे नायक की तरह उभरे। रूसी गणराज्‍य ने, जहाँ बोरिस येल्‍तसिन ने आम चुनाव जीता था, केंद्रीकृत नियंत्रण को मानने से इंकार कर दिया। सत्ता मास्‍को से गणराज्‍यों की तरफ खिसकने लगी।

मध्‍य-एशियाई गणराज्‍यों ने अपने लिए स्‍वतंत्रता की माँग नहीं की। वे ‘सोवियत संघ’ के साथ ही रहना चाहते थे। सन् 1991 के दिसम्‍बर में येल्‍तसिन के नेतृत्‍व में सोवियत संघ के तीन बड़े गणराज्‍य रूस, यूक्रेन और बेलारूस ने सोवियत संघ की समाप्ति की घोषण की। कम्‍युनिस्‍ट पार्टी प्रतिबंधित हो गई।

साम्‍यवादी सोवियत गणराज्‍य के विघटन की घोषण और स्‍वतंत्र राज्‍यों के राष्‍टकुल साम्‍यवादी सोवियत गणराज्‍य के विघटन की घोषणा और स्‍वतंत्र राज्‍यों के राष्‍ट्रकुल (कॉमनवेल्‍थ ऑव इंडिपेंडेंट स्‍टेट्स) का गठन बाकी गणराज्‍यों, खासकर मध्‍य एशियाई गणराज्‍यों के लिए बहुत आश्‍चर्यचकित करने वाला था। ये गणराज्‍य अभी ‘स्‍वतंत्र राज्‍यों के राष्‍ट्रकुल’ से बाहर थे। इस मुद्दे को तुरंत हल कर लिया गया। इन्‍हें ‘राष्‍ट्रकुल’ का संस्‍थापक सदस्‍य बनाया गया। रूस को सोवियत संघ का उत्तराधिकारी राज्‍य स्‍वीकार किया गया। रूस को सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ की सीट मिली। सोवियत संघ ने जो अंतर्राष्‍ट्रीय करार और संधियाँ की थीं उन  सब को निभाने का जिम्‍मा अब रूस का था। सोवियत संघ के विघटन के बाद के समय में पूर्ववर्ती गणराज्‍यों के बीच एकमात्र परमाणु शक्ति संपन्‍न देश का दर्जा रूस को मिला। सोवियत संघ अब नहीं रहा: वह दफन हो चुका था।

सोवियत संघ का विघटन क्‍यों हुआ?

विश्‍व की दुसरी सबसे बड़ी महाशक्ति अचानक कैसे बिखर गई? सोवियत संघ की राजनीतिक-आर्थिक संस्‍थाएँ अंदरूनी कमजोर के कारण लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकीं। य‍ही सोवियत संघ के पतन का कारण रहा। कई सालों तक अर्थव्‍यवस्‍था गतिरूद्ध रही।

यह व्‍यवस्‍था इतनी कमजोर कैसे हुई और अर्थव्‍यवस्‍था में गतिरोध क्‍यों आया? इसका उत्तर काफी हद तक साफ है। कि सोवियत संघ ने अपने संसाधनों का अधिकांश परमाणु हथियार और सैन्‍य साजो-सामान पर लगाया। उसने अपने संसाधन पूर्वी यूरोप के अपने पिछलग्‍गू देशों के विकास पर भी खर्च किए ताकि वे सोवियत नियंत्रण में बने रहें। इससे सोवियत संघ पर गहरा आर्थिक दबाब बना और सोवियत व्‍यवस्‍था इसका सामना नहीं कर सकी।

सोवियत संघ पर कम्‍युनिस्‍ट पार्टी ने 70 सालों तक शासन किया और यह पार्टी अब जनता के प्रति जवाबदेह नहीं रह गई थी।

भारी भ्रष्‍टाचार और अपनी गलतियों को सुधारने में व्‍यवस्‍था की अक्षमता, शासन में ज्‍यादा खुलापन लाने के प्रति अनिच्‍छा और देश की विशालता के बावजूद सत्ता का केंद्रीयकृत होना-इस सारी बातों के कारण आम जनता अलग-थलग पड़ गई। ‘पार्टी’ के अधिकारियों को आम नागरिक से ज्‍यादा विशेषाधिकार मिले हुए थे।

मिखाइल गोर्बाचेव के सुधारों में इन दोनों समस्‍याओं के समाधान का वायदा था। गोर्बाचेव ने अर्थव्‍यवस्‍था को सुधारने, पश्चिम की बराबरी पर लाने और प्रशासनिक ढाँचे में ढील देने का वायदा किया।

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फिर सोवियत संघ टूटा क्‍यों? जब गोर्बाचेव ने सुधारों को लागू किया और व्‍यवस्‍था में ढील दी तो लोगों की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं का ऐसा ज्‍वार उमड़ा जिसका अनुमान शायद ही कोई लगा सकता था। इस पर काबू  पाना एक अर्थ में असंभव हो गया। सोवियत संघ में जनता के एक तबके की सोच यह थी कि गोर्बाचेव को ज्‍यादा तेज गति से कदम उठाने चाहिए। ये लोग उनकी कार्यपद्धति से धीरज खो बैठे और निराश हो गए। इन लोगों ने जैसा सोचा था वैसा फायदा उन्‍हें नहीं हुआ या संभव है उन्‍हें बहुत धीमी गति से फायदा हो रहा हो। जनता के एक हिस्‍से खासकर, कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सदस्‍य और वे लोग जो सोवियत व्‍यवस्‍था से फायदे में थे, के विचार ठीक इसके विपरीत थे। इनका कहना था कि हमारी सत्ता और विशेषाधिकार अब कम हो रहे हैं और गोर्बाचेव बहुत जल्‍दबाजी दिखा रहे हैं। इस खींचतान में गोर्बाचेव का समर्थन हर तरफ से जाता रहा और जनमत आपस में बँट गया। जो लोग उनके साथ थे उनका भी मोहभंग हुआ। ऐसे लोगों ने सोचा कि गोर्बाचेव खुद अपनी ही नीतियों का ठीक तरह से बचाव नहीं कर रहे हैं।

राष्‍ट्रीयता और संप्रभुता के भावों का उभार सोवियत संघ के विघटन का अंतिम और सर्वाधिक तात्‍कालिक कारण सिद्ध हुआ। राष्‍ट्रीयता की भावना और तड़प सोवियत संघ के समूचे इतिहास में कहीं-न-कहीं जारी थी और चाहे सुधार होते या न होते, सोवियत संघ में अंदरूनी संघर्ष होना ही था।

कुछ अन्‍य लोग सोचते हैं कि गोर्बाचेव के सुधारों ने राष्‍ट्रवादियों के असंतोष को इस सीमा तक भड़काया कि उस पर शासकों का नियंत्रण नहीं रहा।

सोवियत संघ के प्रति राष्‍ट्रवादी असंतोष यूरोपीय और अपेक्षाकृत समृद्ध गणराज्‍यों- रूस, उक्रेन, जार्जिया और बाल्टिक क्षेत्र में सबसे प्रबल नजर आया।

विघटन की परिणतियाँ

अव्‍वल तो ‘दूसरी दुनिया’ के पतन का एक परिणाम शीतयुद्ध के दौर के संघर्ष की समाप्ति में हुआ। शीतयुद्ध के इस विवाद ने दोनों गुटों की सेनाओं को उलझाया था, हथियारों की तेज होड़ शुरू की थी, परमाणु हथियारों के संचय को बढ़ावा दिया था तथा विश्‍व को सैन्‍य गुटों में बाँटा था। शीतयुद्ध के समाप्‍त होने से हथियारों कीहोड़ भी समाप्‍त हो गई और एक नई शांति की संभावना का जन्‍म हुआ। दूसरा यह कि विश्‍व राजनीति में शक्ति-संबंध बदल गए।

शीतयुद्ध के अंत के समय केवल दो संभावनाएँ थीं- या तो बची हुई महाशक्ति का दबदबा रहेगा और एक ध्रुवीय  विश्‍व बनेगा या फिर कई देश अथवा देशों के अलग-अलग समूह अंतर्राष्‍ट्रीय व्‍यवस्‍था में महत्‍वपूर्ण मोहरे बनकर उभरेंगे और इस तरह बहुध्रुवीय विश्‍व बनेगा जहाँ किसी एक देश का बोलबाला नहीं होगा। हुआ यह कि अमरीका अकेली महाशक्ति बन बैठा। अमरीका की ताकत और प्रतिष्‍ठा की शह पाने से अब पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था है। विश्‍व बैंक और अंतर्राष्‍ट्री मुद्रा कोष जैसी संस्‍थाएँ विभिन्‍न देशों की ताकतवर सलाहकार बन गई कयोंकि इन देशों को पूँजीवाद की ओर कदम बढ़ाने के लिए इन संस्‍थाओं ने कर्ज दिया है।

तीसरी बात यह कि सोवियत खेमे के अंत का एक अर्थ नए देशों का उदय।

साम्‍यवादी शासन के बाद ‘शॉक थेरेपी’

रूस, मध्‍य एशिया के गणराज्‍य और पूर्वी यूरोप के देशों में पूँजीवाद की ओर संक्रमण का एक खास मॉडल अपनाया गया। विश्‍व बैंक और अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित इस मॉडल को ‘शॉक थेरेपी’ (आघात पहुँचाकर उपचार करना) कहा गया।

हर देश को पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था की ओर पूरी तरह मुड़ना था। इसका मतलब था सोवियत संघ के दौर की हर संरचना से पूरी तरह निजात पाना। ‘शॉक थेरेपी’ की सर्वोपरि मान्‍यता था कि मिल्कियत का सबसे प्रभावी रूप निजी स्‍वामित्‍व होगा। इसके अंतर्गत राज्‍य की संपदा के निजीकरण और व्‍यावसायिक स्‍वामित्‍व के ढ़ाँचे को तुरंत अपनाने की बात शामिल थी। सामूहिक ‘फार्म’ को निजी ‘फार्म’ में बदल गया और पूँजीवादी पद्धति से खेती शुरू हुई।

‘शॉक थेरेपी’ से इन अर्थव्‍यवस्‍थाओं के बाहरी व्‍यवस्‍थाओं के प्रति रूझान बुनियादी तौर पर बदल गए। अब माना जाने लगा कि ज्‍यादा से ज्‍यादा व्‍यापार करके ही विकास किया जा सकता है।

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पूँजीवादी व्‍यवस्‍था को अपनाने के लिए वित्तीय खुलापन, मुद्राओं की आपसी परिवर्तनीयता और मुक्‍त व्‍यापार की नीति महत्‍वपूर्ण मानी गई। अंतत: इस संक्रमण में सोवियत खेमे के देशों के बीच मौजूद व्‍यापारिक गठबंधनों को समाप्‍त कर दिया गया। खेमे के प्रत्‍येक देश को एक-दूसरे से जोड़ने की जगह सीधे पश्चिमी मुल्‍कों से जोड़ा गया। पश्चिमी दुनिया के पूँजीवादी देश अब नेता की भूमिका निभाते हुए अपनी विभिन्‍न एजेंसियों और संगठनों के सहारे इस खेमे के देशों के विकास का मार्गदर्शन और नियंत्रण करेंगें।

‘शॉक थेरेपी‘ का परिणाम

1990 के अपनायी गई ‘शॉक थेरेपी‘ जनता का उपभोग के उस ‘आनंदलोक‘ तक नहीं ले गई जिसका उसने वादा किया था। अमूमन ‘शॉक थेरेपी‘ से पूरे क्षेत्र की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गई और इस क्षेत्र की जनता को बर्बादी की मार झेलनी पड़ी। रूस में, पूरा का पूरा राज्य-नियंत्रित औद्योगिक ढाँचा चरमरा उठा। लगभग 90 प्रतिशत उद्योगों को निजी हाथों या कंपनीयों को बेचा गया। आर्थिक ढाँचे का यह पुनर्निमाण चूँकि सरकार द्वारा निर्देशित औद्योगिक नीति के बजाय बाजार की ताकतें कर रहीं थीं, इसलिए यह कदम सभी उद्योगों को मटियामेट करने वाला साबित हुआ। इसे ‘इतिहास की सबसे बड़ी गराज-सेल‘ के नाम से जाना जाता है क्योंकि महŸवपूर्ण उद्योगों की कीमत कम से कम करके आंकी गई और उन्हें औने-पौने दामों में बेच दिया गया।

रूसी मुद्रा रूबल के मूल्य में नाटकीय ढंग से गिरावट आई। मुद्रास्फीति इतनी ज्यादा बढ़ी कि लोगों की जमापूँजी जाती रही।

सामूहिक खेती की प्रणाली समाप्त हो चुकी थी और लोगों को अब खाद्यान्न की सुरक्षा मौजूद नहीं रही। रूस ने खाद्यान्न का आयात करना शुरू किया।

समाज कल्याण की पुरानी व्यवस्था को क्रम से नष्ट किया गया। सरकारी रियायतों के खात्मे के कारण ज्यादातर लोग गरीबी में पड़ गए। निजीकरण ने नई विषमताओं को जन्म दिया। रूस में अमीर और गरीब लोगों के बीच तीखा विभाजन हो गया। धनी और निर्धन लोगों के बीच बहुत गहरी आर्थिक असमानता थी।

लोकतांत्रिक संस्थाओं के निर्माण का कार्य ऐसी प्राथमिकता के साथ नहीं हो सका। इन सभी देशों के संविधान हड़बड़ी में तैयार किए गए। रूस सहित अधिकांश देशों में राष्ट्रपति को कार्यपालिका प्रमुख बनाया गया और उसके हाथ में लगभग हरसंभव शक्ति थमा दी गई। फलस्वरूप संसद अपेक्षाकृत कमजोर संस्था रह गई।

राष्ट्रपतियों ने अपने फैसलों से असहमति या विरोध की अनुमति नहीं दी। अधिकतर देशों में न्यायिक संस्कृति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को स्थापित करने का काम करना अभी बाकि है।

रूस सहित अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था ने सन् 2000 में यानी अपने आजादी के 10 साल बाद खड़ा होना शुरू किया। इन अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था के पुनर्जीवन का कारण था खनिज-तेज, प्राकृतिक गैस और धातु जैसे प्राकृतिक संसाधनों का निर्यात। रूस, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और अजरबैजान तेल और गैस के बड़े उत्पादक देश हैं। बाकि देशों को अपने क्षेत्र से तेल की पाईप-लानन गुजरने के कारण फायदा हुआ। इसके बदले उन्हें किराया मिलता है। जिससे उन्हें लाभ होता है।

संघर्ष और तनाव

पूर्व सोवियत संघ के अधिकांश गणराज्‍य संघर्ष की आंशका वाले क्षेत्र हैं। अनेक गणराज्‍यों ने गृहयुद्ध और बगावत को झेला है।

रूस के दो गणराज्‍यों चेचन्‍या और दागिस्‍तान में हिंसक अलगाववादी आंदोलन चले। मास्‍को ने चेचन विद्रोहियों से निपटने के जो तरीके अपनाये और गैर-जिम्‍मेदार तरीके से सैन्‍य बमबारी की उसमें मानवाधिकार का व्‍यापक उल्‍लंघन हुआ लेकिन इससे आजादी की आवाज दबायी नहीं जा सकी।

मध्‍य एशिया में, तजिकिस्‍तान दस वर्षो यानी 2001 तक गृहयुद्ध की चपेट में रहा। अजरबैजान का एक प्रांत नगरनों कराबाख है। यहाँ के कुछ स्‍थानीय अर्मेनियाई अलग होकर अर्मेनिया से मिलना चाहते हैं। जार्जिया में दो प्रांत स्‍वतंत्रता चाहते हैं और गृहयुद्ध लड़ रहे हैं। यूक्रेन, किरगिझस्‍तान तथा जार्जिया में मौजूदा शासन को उखाड़ फेकने के लिए आंदोलन चल रहे

मध्‍य एशियाई गणराज्‍यों में हाइड्रोकार्बनिक (पेट्रोलियम) संसाधनों का विशाल भंडार है।

11 सितंबर 2001 की घटना के बाद अमरीका इस क्षेत्र में सैनिक ठिकाना बनाना चाहता था। उसने किराए पर ठिकाने हासिल करने के लिए मध्‍य एशिया के सभी राज्‍यों को भुगतान किया और अफगानिस्‍तान तथा इराक में युद्ध के दौरान इन क्षेत्रों से अपने विमानों को उड़ाने की अनुमति ली।

पूर्वी यूरोप में चेकोस्‍लोवाकिया शां‍तिपूर्वक दो भागों में बँट गया। चेक तथा स्‍लोवाकिया नाम के दो देश बने। लेकिन सबसे गहन संघर्ष बाल्‍कन क्षेत्र के गणराज्‍य युगोस्‍लाविया में हुआ। सन् 1991 में बाद युगोस्‍लाविया कई प्रांतों में टूट गया और इसमें शामिल बोस्निया-हर्जेगोविना, स्‍लो‍वेनिया तथा क्रोएशिया ने अपने को स्‍वतंत्र घोषित कर दिया।

भारत और सोवियत संघ  

शीतयुद्ध के दौरान भारत और सोवियत संघ के संबंध बहुत गहरे थे।

आर्थिक – सोवियत संघ ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की ऐसे वक्‍त में मदद की जब ऐसी मदद पाना मुश्किल था। सोवियत संघ ने भिलाई, बोकारो और विशाखापट्टनम के इस्‍पात कारखानों तथा भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्‍स जैसे मशीनरी संयंत्रो के लिए आर्थिक और तकनीकी सहायता दी। भारत में जब विदेशी मुद्रा की कमी थी तब सोवियत संघ ने रूपये को माध्‍यम बनाकर भारत के साथ व्‍यापार किया।

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राजनीतिक – सोवियत संघ ने कश्‍मीर मामले पर संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ में भारत के रूख को समर्थन दिया।              सन् 1971 में पाकिस्‍तान से युद्ध के दौरान मदद की। भारत ने भी सोवियत संघ की विदेश नीति का अप्रत्‍यक्ष, लेकिन महत्‍वपूर्ण तरीके से समर्थन किया।

सैन्‍य – भारत को सोवियत संघ ने ऐसे वक्‍त में सैनिक साजो-सामान दिए जब शायद ही कोई अन्‍य देश अपनी सैन्‍य टेक्‍नालॉजी भारत को देने के लिए तैयार था।

संस्‍कृति – हिंदी फिल्‍म और भारतीय संस्‍कृति सोवियत संघ में लोकप्रिय थे। बड़ी संख्‍या में भारतीय संघ में लोकप्रिय थे। बड़ी संख्‍या में भारतीय लेखक और कलाकारों ने सोवियत संघ की यात्रा की।

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पूर्व-सामयावादी देश और भारत

भारत ने साम्‍यवादी रह चुके सभी देशों के साथ अच्‍छे संबंध कायम किए हैं लेकिन भारत के संबंध रूस के साथ सबसे ज्‍यादा गहरे

भारतीय हिन्‍दी फिल्‍मों के नायकों में राजकपूर से लेकर अमिताभ बच्‍चन तक रूस और पूर्व सोवियत संघ के बाकी गणराज्‍यों में घर-घर जाने जाते हैं।

भारत को रूस के साथ अपने संबधों के कारण कश्‍मीर, ऊर्जा-आपूर्ति, अंतर्राष्‍ट्रीय आंतकवाद से संबंधित सूचनाओं के आदान-प्रदान, पश्चिम एशिया में पहुँच बनाने तथा चीन के

साथ अपने संबंधों में संतुलन लाने जैसे मसलों में फायदे हुए हैं। रूस को इस संबंध से सबसे बड़ा फायदा यह है कि भारत रूस के लिए हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा खरीददार देश है। भारतीय सेना को अधिकांश सैनिक साजो-सामान रूस से प्राप्‍त होते हैं। चूँकि भारत तेल के आयातक देशों में से एक है इसलिए भी भारत रूस के लिए महत्‍वपूर्ण है। उसने तेल के संकट की घड़ी में हमेशा भारत की मदद की है। Dhruviyata ka ant class 12th

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अध्‍याय 1 शीतयुद्ध का दौर | Sheet yudh ka daur class 12 notes Political Science

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 12 राजनीतिज्ञ विज्ञान अध्‍याय एक शीतयुद्ध का दौर के सभी टॉपिकों के बारे में जानेंगे। अर्थात इस पाठ का शॉर्ट नोट्स पढ़ेंगे। जो परीक्षा की दृष्टि से काफी महत्‍वपूर्ण है। sheet yudh ka daur class 12

Sheet yudh ka daur class 12 notes Political Science

अध्‍याय 1
शीतयुद्ध का दौर

परिचय

इस अध्‍याय से यह साफ होगा कि किस तरह दो महाशक्तियों संयुक्‍त राज्‍य अमरीका और सोवियत संघ का वर्चस्‍व शीतयुद्ध के केंन्‍द्र में था। इस अध्‍याय में गुटनिरपेक्ष आंदोलन पर इस दृष्टि से विचार किया गया है कि किस तरह इसने दोनों राष्‍ट्रों के दबदबे को चुनौती दी। गुटनिरपेक्ष देशों द्वारा ‘नई अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक व्‍यवस्‍था’ स्‍थापित करने के प्रयास की चर्चा इस अध्‍याय में यह बताते हुए की गई है कि किस तरह इन देशों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अपने आर्थिक विकास और राजनितिक स्‍वतंत्रता का साधन बनाया ।

क्‍यूबा का मिसाइल संकट

सोवियत संघ के नेता नीकिता ख्रुश्‍चेव ने क्‍यूबा को रूस के ‘सैनिक अड्डे’ के रूप में बदलने का फैसला किया। 1962 में ख्रुश्‍चेव ने क्‍यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात कर दीं। इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमरीका न‍जदीकी निशाने की सीमा में आ गया। हथियारों की इस तैनाती के बाद सोवियत संघ पहले की तुलना में अब अमरीका के मुख्‍य भू-भाग के लगभग दोगुने ठिकानों या शहरों पर हमला बोल सकता था। अमरीकी राष्‍ट्रपति जॉन एफ कैनेडी और उनके सलाहकार ऐसा कुछ भी करने से हिचकिचा रहे थे जिससे दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध शुरू हो जाए । लेकिन वे इस बात को लेकर दृढ़ थे कि ख्रुश्‍चेव क्‍यूबा से मिसाइलों और परमाणु हथियारों को हटा लें। कैनेडी ने आदेश दिया कि अमरीकी जंगी बेड़ों को आगे करके क्‍यूबा की तरफ जाने वाले सोवियत जहाजों को रोका जाए । इस तरह अमरीका सोवियत संघ को मामले के प्रति अपनी गंभीरता की चेतावनी देना चाहता था । ऐसी स्थिति में यह लगा कि युद्ध होकर रहेगा । इसी को’ क्‍यूबा मिसाइल संकट’ के रूप में जाना गया । यह टकराव कोई आम युद्ध नहीं होता । अंतत: दोनों पक्षों ने युद्ध टालने का फैसला किया और दुनिया ने चैन की साँस ली । ‘क्‍यूबा मिसाइल संकट’ शीतयुद्ध का चरम बिंदु था । शीतयुद्ध सिर्फ जोर-आजमाइश, सैनिक गठबंधन अथवा शक्ति-संतुलन का मामला भर नहीं था बल्कि इसके साथ-साथ विचारधारा के स्‍तर पर भी एक वास्‍तविक संघर्ष जारी था । विचारधारा की लड़ाई इस बात को लेकर थी कि पूरे विश्‍व में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन को सूत्रबद्ध करने का सबसे बेहतर सिद्धांत कौन-सा है। पश्चिमी गठबंधन का अगुवा अमरीका था और यह गुट उदारवादी लोकतंत्र तथा पूँजीवाद का समर्थक था। पूर्वी गठबंधन का अगुवा सोवियत संघ था और इस गुट की प्रतिबद्धता समाजवाद तथा साम्‍यवाद के लिए थी। आप इन

शीतयुद्ध क्‍या है?  

अमरीका और सोवियत संघ विश्‍व की सबसे बड़ी शक्ति थे । इनके पास इतनी क्षमता थी कि विश्‍व की किसी भी घटना को प्रभावित कर सकें। अमरीका और सोवियत संघ का महाशक्ति बनने की होड़ में एक-दुसरे के मुकाबले खड़ा होना शीतयुद्ध का कारण बना।

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दो-ध्रुवीय विश्‍व का आरंभ

दुनिया दो गुटों के बीच बहुत स्‍पष्‍ट रूप से बँट गई थी। ऐसे में किसी मुल्‍क के लिए एक रास्‍ता यह था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए किसी एक महाशक्ति के साथ जुड़ा रहे और दुसरी महाशक्ति तथा उसके गुट के देशों के प्रभाव से बच सके। महाशक्तियों के नेतृत्‍व में गठबंधन की व्‍यवस्‍था से पूरी दुनिया के दो खेमों में बंट जाने का खतरा पैदा हो गया । यह विभाजन सबसे पहले यूरोप में हुआ । पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देशों ने अमरीका का पक्ष लिया जबकि पूर्वी यूरोप सोवियत खेमे में शामिल हो गया इसीलिए ये खेमे पश्चिमी और पूर्वी गठबंधन भी कहलाते हैं। पश्चिमी गठबंधन ने स्‍वयं को एक संगठन का रूप दिया। अप्रैल 1949 में उत्तर अटलांटिका संधि संगठन (नाटो) की स्‍थापना हुई जिसमें 12 देश शामिल थे । इस संगठन ने घोषणा की कि उत्तरी अमरीका अथवा यूरोप के इन देशों में से किसी एक पर भी हमला होता है तो उसे ‘संगठन’ में शामिल सभी देश अपने ऊपर हमला मानेंगे । ‘नाटो’ में शामिल हर देश एक-दुसरे की मदद करेगा । इसी प्रकार के पूर्वी गठबंधन को ‘वारसा संधि’ के नाम से जाना जाता है। इसकी अगुआई सोवियत संघ ने की । इसकी स्‍थापना सन् 1955 में हुई थी और इसका मुख्‍य काम था ‘नाटो’ में शामिल देशों का यूरोप में मुकाबला करना । शीतयुद्ध के कारण विश्‍व के सामने दो गुटों के बीच बँट जाने का खतरा पैदा हो गया था । साम्‍यवादी चीन की 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध में सोवियत संघ से अनबन हो गई । सन् 1969 में इन दोनों के बीच एक भू-भाग पर आधिपत्‍य को लेकर छोटा-सा युद्ध भी हुआ । इस दौर की एक महत्‍वपूर्ण घटना ‘गुटनिरपेक्ष आंदोलन’ का विकास है। इस आंदोलन ने नव-स्‍वतंत्र राष्‍ट्रों को दो-ध्रुवीय विश्‍व की गुटबाजी से अलग रहने का मौका दिया ।

शीतयुद्ध के दायरे

शीतयुद्ध के दौरान खूनी लड़ाइयाँ भी हुई, लेकिन यहाँ ध्‍यान देने की बात यह भी है कि इन संकटों और लड़ाइयों की परिणति तीसरे विश्‍वयुद्ध के रूप में नहीं हुई। शीतयुद्ध के दायरों की बात करते हैं तो हमारा आशय ऐसे क्षेत्रों से होता है जहाँ विरोधी खेमों में बँटे देशों के बीच संकट के अवसर आये, युद्ध हुए या इनके होने की संभावना बनी, लेकिन बातें एक हद से ज्‍यादा नहीं ब‍ढ़ी। कोरिया, वियतनाम और अफगानिस्‍तान जैसे कुछ क्षेत्रों में व्‍यापक जनहानि हुई, लेकिन विश्‍व परमाणु युद्ध से बचा रहा और वैमनस्‍य विश्‍वव्‍यापी नहीं हो पाया। शीतयुद्ध के संघर्षो और कुछ गहन संकटों को टालने में दोनों गुटों से बाहर के देशों ने कारगर भूमिका निभायी। गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका को नहीं भुलाया जा सकता। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्रमुख नेताओं में एक जवाहरलाल नेहरू थे। नेहरू ने उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के बीच मध्‍यस्‍थता में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई। कांगो संकट में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के महासचिव ने प्रमुख मध्‍यस्‍थ की भूमिका निभाई।

महाशक्तियों ने समझ लिया था कि युद्ध को हर हालत में टालना जरूरी है। इसी समझ के कारण दोनों महाशक्तियों ने संयम बरता और अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों में जिम्‍मेवारी भरा बरताव किया।

हालाँकि शीतयुद्ध के दौरान दोनों ही गठबंधनों के बीच प्रतिद्वंदिता समाप्‍त नहीं हुई थी। इसी कारण ए‍क-दूसरे के प्रति शंका की हालत में दोनों गुटों ने भरपूर हथियार जमा किए और लगातार युद्ध के लिए तैयारी करते रहे। हथियारों के बड़े जखीरे को युद्ध से बचे रहने के लिए जरूरी माना गया।

दोनों देश लगातार इस बात को समझ रहे थे कि संयम के बावजूद युद्ध हो सकता है।

इसके अतिरिक्‍त सवाल यह भी था कि कोई परमाणु दुर्घटना हो गई तो क्‍या होगा? अगर परमाणु हथियार चला दे तो कया होगा? अगर गलती से कोई परमाणु हथियार चल जाए या कोई सैनिक शरारतन युद्ध शुरू करने के इरादे से कोई हथियार चला दे तो क्‍या होगा? अगर परमाणु हथियार के कारण कोई दुर्घटना हो जाए तो क्‍या होगा?

इस कारण, समय रहते अमरीका और सोवियत संघ ने कुछेक परमाण्विक और अन्‍य हथियारों को सीमित या समाप्‍त करने के लिए आपस में सहयोग करने का फैसला किया। दोनों महाशक्तियों ने फैसला किया कि ‘अस्‍त्र-नियंत्रण’ द्वारा हथियारों की होड़ पर लगाम कसी जा सकती है और उसमें स्‍थायी संतुलन लाया जा सकता है। ऐसे प्रयास की शुरूआत सन् 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में हुई और एक दशक के भीतर दोनों पक्षों ने तीन अहम समझौतों पर दस्‍तखत किए। ये संधियाँ थीं परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि, परमाणु अप्रसार संधि (एंटी बैलेस्टिक मिसाइल ट्रीटी)। इसके बाद हथियारों पर अंकुश रखने के लिए अनेक संधियाँ कीं।

1954 वियतनामियों के हाथों दायन बीयन फू में फ्रांस की हार: जेनेवा समझौते पर हस्‍ताक्षर: 17वीं समानांतर रेखा द्वारा वियतनाम का विभाजन: सिएटो(SEATO) का गठन।

1955 बगदाद समझौते पर हस्‍ताक्षर: बाद में इसे सेन्‍टो (CENTO) के नाम से जाना गया।

1961 बर्लिन-दीवार खड़ी की गई

1962 क्‍यूबा का मिसाइल संकट।

1985 गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्‍ट्रपति बने: सुधार की प्रक्रिया आरंभ की।

1989 बर्लिन-दीवार गिरी: पूर्वी यूरोप की सरकारों के विरूद्ध लोगों का प्रदर्शन।

1990 जर्मनी का एकीकरण।

1991 सोवियत संघ का विघटन: शीतयुद्ध की समाप्ति। 

दो-ध्रुवीयता को चुनौती –गुटनिरपेक्षता

गुटनिरपेक्षता ने एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरी‍का के नव-स्‍वतंत्र देशों को एक तीसरा विकल्‍प दिया। यह विकल्‍प था दोनों महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने का।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन की जड़ में युगोस्‍लाविया के जोसेफ ब्रॉज टीटो, भारत के जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के गमाल अब्‍दुल नासिर की दोस्‍ती थी। इन तीनों ने सन् 1956 में एक सफल बैठक की। इंडोनेशिया के सुकर्णो और घाना के वामे एनक्रूमा ने इनका जोरदार समर्थन किया। ये पाँच नेता गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्‍थापक कहलाए। पहला गुटनिरपेक्ष सम्‍मेलन सन् 1961 में बेलग्रेड में हुआ। यह सम्‍मेलन कम से कम तीन बातों की परिणति था-

  • इन पाँच देशों के बीच सहयोग,
  • शीतयुद्ध का प्रसार और इसके बढ़ते हुए दायरे, और
  • अंतर्राष्‍ट्रीय फलक पर बहुत से नव-स्‍वतंत्र अफ्रीकी देशों का नाटकीय उदय। 1960 तक संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ में 16 नये अफ्रीकी देश बतौर सदस्‍य शामिल हो चुके थे।

जैसे-जैसे गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक लोकप्रिय अंतर्राष्‍ट्रीय आंदोलन के रूप में बढ़ता गया वैसे-वैसे इसमें विभिन्‍न राजनितिक प्रणाली और अगल-अलग हितों के देश शामिल होते गए। इसी कारण गुटनिरपेक्ष आंदोलन की सटीक परिेभाषा कर पाना कुछ मुश्किल है। वास्‍तव में यह आंदोलन है क्‍या? दरअसल यह आंदोलन क्‍या नहीं है-यह बताकर इसकी परिभाषा करना ज्‍यादा सरल है। यह महाशक्तियों के गुटों में शामिल न होने का आंदोलन है।

गुटनिरपेक्षता का मतलब पृथकतावाद नहीं। पृथकतावाद का अर्थ होता है अपने को अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों से काटकर रखना। 1787 में अमरीका में स्‍वतंत्रता की लड़ाई हुई थी। इसके बाद से पहले विश्‍वयुद्ध की शुरूआत तक अमरीका ने अपने को अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों से अलग रखा। उसने पृथकतावाद की विदेश-नीति अपनाई थी। इसके विपरीत गुटनिरपेक्ष देशों ने, जिसमें भारत भी शामिल है, शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए प्रतिद्वंद्वी गुटों के बीच मध्‍यस्‍थता में सक्रिय भूमिका निभाई।

गुटनिरपेक्ष का अर्थ तटस्‍थता का धर्म निभाना भी नहीं है। तटस्‍थता का अर्थ होता है मुख्‍यत: युद्ध में शामिल न होने की नीति का पालन करना। तटस्‍थता की नीति का पालन करने वाले देश के लिए यह जरूरी नहीं कि वह युद्ध को समाप्‍त करने में मदद करे। ऐसे देश युद्ध में संलग्‍न नहीं होते और न ही युद्ध के सही-गलत होने के बारे में उनका कोई पक्ष होता है। दरअसल कई कारणों से गुटनिरपेक्ष देश, जिसमें भारत भी शामिल है, युद्ध में शामिल हुए हैं। इन देशों ने दूसरे देशों के बीच युद्ध को होने से टालने के लिए काम किया है और हो रहे युद्ध के अंत के लिए प्रयास किए हैं।

नव अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक व्‍यवस्‍था

गुटनिरपेक्ष देश शीतयुद्ध के दौरान महज मध्‍यस्‍थता करने वाले देश भर नहीं थे।  गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल अधिकांश

देशों को ‘अल्‍प विकसित देश’ का दर्जा मिला था। इन देशों के सामने मुख्‍य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्‍यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी।

इसी समझ से नव अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक व्‍यवस्‍था की धारणा का जन्‍म हुआ। 1972 में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के व्‍यापार और विकास से संबंधित सम्‍मेलन (यूनाइट‍ेड नेशंस कॉनफ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमंट-अंकटाड) में ‘टुवार्ड्स अ न्‍यू ट्रेड पॉलिसी फॉर डेवलपमेंट शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रस्‍तुत की गई। इस रिपोर्ट में वैश्विक व्‍यापार-प्रणाली में सुधार का प्रस्‍ताव किया गया था। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि सुधारों से-

  • अल्‍प विकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्‍त होगा जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं:
  • अल्‍प विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजार तक होगी: वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस तरह गरीब देशों के लिए यह व्‍यापार फायदेमंद होगा:
  • पश्चिमी देशों से मंगायी जा रही  प्रौद्योगिकी की लागत कम होगी और
  • अल्‍प विकसित देशों की अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक संस्‍थानों में भूमिक बढ़ेगी।  

गुटनिरपेक्षता की प्रकृति धीरे-धीरे बदली और इसमें आर्थिक मुद्दों को अधिक महत्‍व दिया जाने

परिणामस्‍वरूप गुटनिरपेक्ष आंदोलन आर्थिक दबाव-समूह बन गया।

भारत और शीतयुद्ध

गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में शीतयुद्ध के दौर में भारत ने दो स्‍तरों पर अपनी भूमिका निभाई। एक स्‍तर पर भारत ने सजग और सचेत रूप से अपने को दोनों महाशक्तियों की खेमेबंदी से अलग रखा। दूसरे, भारत ने उपनिवेशों के चुंगल से मुक्‍त हुए नव-स्‍वतंत्र देशों के महाशक्तियों के खेमे में जाने को पुरजोर विरोध किया।

भारत की नीति न तो नकारात्‍मक थी और न ही निष्क्रियता की। नेहरू ने विश्‍व को याद दिलाया कि गुटनिरपेक्ष कोई ‘पलायन’ की नीति नहीं है। भारत ने दोनों गुटों के बीच मौजूद मतभेदों को कम करने को कोशिश की और इस तरह उसने इन मतभेदों का पूर्णव्‍यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।

शीतयुद्ध के दौरान भारत ने लगातार उन क्षेत्रीय और अंतर्राष्‍ट्रीय संगठनों को सक्रिय बनाये रखने की कोशिश की जो अमरीका अथवा सोवियत संघ के खेमे से नहीं जुड़े थे। नेहरू ने ‘स्‍वतंत्र और परस्‍पर सहयोगी राष्‍ट्रों के एक सच्‍चे राष्‍ट्रकुल’ के ऊपर गहरा विश्‍वास जताया जो शीतयुद्ध को खत्‍म करने में न सही, पर उसकी जकड़ ढीली करने में ही सकारात्‍मक भूमिका निभाये।

भारत की गुटनिरपेक्ष की नीति की कई कारणों से आलोचना की गई।

आलोचना का एक तर्क यह है कि भारत की गुटनिरपेक्ष ‘सिद्धां‍तविहीन’ है। कहा जाता है कि भारत अपने राष्‍ट्रीय हितों को साधने के नाम पर अक्‍सर महत्‍वपूर्ण अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों पर को‍ई सुनिश्चित पक्ष लेने से बचता रहा। आलोचकों का दूसरा तर्क है कि भारत के व्‍यवहार में स्थिरता नहीं रही और कोई बार भारत की स्थिती विरोधाभासी रही। महाशक्तियों के खेमों में शामिल होने पर दूसरे देशों की आलोचना करने वाले भारत ने स्‍वयं सन् 1971 के अगस्‍त में सोवियत संघ के साथ आपसी मित्रता की संधि पर हस्‍ताक्षर किए। विदेशी पर्यवेक्षकों ने इसे भारत का सोवियत खेमे में शामिल होना माना।

Sheet yudh ka daur class 12 notes Political Science

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Bihar Board Class 12th Political Science Solutions & Notes (राजनीति शास्त्र)

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Class 12th Political Science Solutions Notes राजनीति शास्‍त्र के सम्‍पूर्ण पाठ का व्‍याख्‍या

Bihar Board Class 12th Political Science Solutions Notes

BSEB Bihar Board Class 12th Political Science Book Solutions Notes राजनीति शास्त्र

भाग-1: समकालीन विश्व राजनीति

भाग-2: स्वतंत्रता भारत में राजनीति

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आशा करता हुँ कि आप को Class 12 Political Science (समकालीन विश्‍व राजनीति और स्‍वतंत्र भारत में राजनीति) के सभी पाठ को पढ़कर अच्‍छा लगेगा। इन सभी पाठ को पढ़कर आप निश्चित ही परीक्षा में काफी अच्‍छा स्‍कोर करेंगें। इन सभी पाठ को बहुत ही अच्‍छा तरीका से आसान भाषा में तैयार किया गया है ताकि आप सभी को आसानी से समझ में आए। इसमें कक्षा 12 राजनीति शास्‍त्र के भाग 1 समकालीन विश्‍व राजनीति और भाग 2 स्‍वतंत्र भारत में राजनीति Class 12 Political Science के सभी पाठ को समझाया गया है। यदि आप बिहार बोर्ड कक्षा 12 से संबंधित किसी भी पाठ के बारे में जानना चाहते हैं, तो नीचे कमेन्‍ट बॉक्‍स में क्लिक कर पूछ सकते हैं। यदि आप और विषय के बारे में पढ़ना चाहते हैं तो भी हमें कमेंट बॉक्‍स में बता सकते हैं। आपका बहुत-बहुत धन्‍यवाद.

कक्षा 10 पाठ पाँच लोकतंत्र की चुनौतियाँ – Loktantra Ki Chunautiya

Loktantra Ki Chunautiya

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के लोकतांत्रिक राजनीति के पाठ पाँच ‘लोकतंत्र की चुनौतियाँ (Loktantra Ki Chunautiya)’ के सभी महत्‍वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।

Loktantra Ki Chunautiya
Loktantra Ki Chunautiya

Bihar Board Class 10 Political Science पाठ पाँच लोकतंत्र की चुनौतियाँ

लोकतंत्र सिद्धांत एवं व्यवहार में ‘लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा तथा जनता के लिए शासन है।‘ भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। नये विश्व सर्वेक्षण के आधार पर भारतवर्ष में 71 करोड़ मतदाता है।

लोकतंत्र मे कुछ चुनौतियाँ भी है। जिनपर हमें गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा। अलग-अलग देशों के सामने अलग-अलग चुनौतियाँ होती हैं।

उदाहरण के लिए अपने पड़ोसी देश नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति के बाद शुरू हुआ लोकतांत्रिक प्रयोग सफलता एवं असफलता के बीच फँस गया है।

प्रचंड सहीत सभी माओवादी नेताओं को यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र में और वह भी मिली जुली सरकार में अपनी इच्छा लादना संभव नही हैं।

स्थानीय सरकारों को अधिक अधिकार सम्यक बनाना, संघ की सभी इकाइयों कें लिए संघ के सिद्धांतो का व्यवहारी स्तर पर लागू करना, महिलाओं और अल्पसंख्यक समूहों की उचित भागीदारी सुनिश्चित करना आदि ऐसा ही चुनौतियाँ हैं।

वर्तमान समय में भारत में भी लोकतंत्र की चुनौतियाँ विकट रूप में विद्यमान हैं। भारतीय जलोकतंत्र प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र है। इसमें शासन का संचालन जन प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। भारतीय लोकतंत्र के तीन अंग हैं- कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका।

किसी भी लोकतंत्र की सफलता में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की भूमिका एक सर्वमान्य सत्य है। अमेरिका का और ब्रिटेन की लोकतांत्रिक सफलता बहुत हद तक उनकी न्यायपालिका की सफलता है।

आतंकवादी गतिविधियों, पूर्वोŸार के अलगाववादी या नक्सली गतिविधियों एवं अवैध शरणार्थियों, विदेशी मुद्रा का अवैध आगमन, विदेशी बैंको में भारतीयों द्वारा जमा की गई बड़ी धनराशि, उच्च एवं न्यायिक पदों पर व्यप्त भ्रष्टाचार, असमानता और असंतुलन भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियाँ ही हैं।

केन्द्र और राज्यों के बिच आपसी टकराव से आतंकवाद से लड़ने और जनकल्याणकारी योजनाओं जैसे शिक्षा, जाति, भेदभाव, लिंग भेद, नारी शोषण, बाल मजदूरी एवं सामाजिक कुरूतियों इत्यादी के सुचारू क्रियान्वयन मे बाधा पहुँचती हैं,

लोकतंत्र की बड़ी चुनौतियों में लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव में होनेवाले अन्धाधुन्ध चुनावी खर्च उम्मीदवारों के टिकट वितरण और चुनावों की पारदर्शीता भी सम्मिलित हैं। वंश और जाति, क्षेत्रीय पार्टियाँ तथा गठबंधन की राजनीति भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। स्पष्ट बहुमत नहीं आने पर सरकार बनने के लिए छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों का आपस में गठबंधन करना, वैसे उम्मीदवारों को भी चुन लिया जाना जो दागी प्रवृत्ति या आपराधिक पृष्ठभूमि के होते हैं, लोकतंत्र के लिए एक अलग ही चुनौती है।

सभी पार्टियों में आपराधिक छवी वाले सांसदों की संख्या में इजाफा लोकतंत्र के लिए चुनौती है।

लोकतंत्र एक प्रमुख चुनौती है काला धन। काला धन वह धन है जो गैर विधिक सम्मत तरीके से अर्जित किया जाता है और जिसका रिकार्ड में उल्लेख न करके गुप्त रखा जाता हैं।

काला धन जमा करने के स्रोत को दो वर्गो मे बाँटा जा सकता हैः-

  1. अवैधानिक तरीके से कमाया गया धन। जैसे- रिश्वत, काला बाजारी, तस्करी, जुआ, कमिशन आदि से कमाया गया धन।
  2. वैधानिक तरिके से धन तो कमाया जाता है परन्तु धन कमाने वाला व्यक्ति धन पर कर (Tax) न देकर उसे छुपा लेता है। जैसे- व्यापार, होटल, व्यवसाय, डॉक्टर, फिल्म कलाकार की आय आदि।

कर (Tax) क्या और क्यों?

सरकार को लोगों के विभिन्न तरह की जरूरतों की पूर्ति करनी पड़ती है। इन जरूरतों को पुरा करने के लिए सरकार को धन की आवश्यकता होती है जिसे सरकार लोगों से वसूल करती है। उसे ही कर (Tax) कहते हैं। कर से सरकार के खजाने में राजस्व (धन) की वृद्धि होती है। जिसके द्वारा सरकार का खर्च चलता हैं।

कर एवं शुल्‍क में अंतर-

कर से एक अनिवार्य धन की वसुली होती है जो लोगों के जरूरतों की पूर्ति के लिए उपयोग में लाया जाता है। इससे करदाता के साथ-साथ सभी लोगों को लाभ होता है।

शुल्‍क सार्वजनिक प्रयोजन के लिए किया जाता है किन्‍तु उससे लाभ केवल उसी व्‍यक्ति को होता है जिससे शुल्‍क लिया जाता है।

कैशमेमो (मूल्‍य रसीद)

जब कोई व्‍यक्ति किसी वस्‍तु को खरिदता है या सेवा प्राप्‍त करता है तब उसके बदले उसे कुछ रूपये या धन चुकाना पड़ता है जिसके बाद दुकानदार या सेवा देनेवाला व्‍यक्ति रसीद देता है जिसे कैशमेमो कहा जाता है।

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