सप्तमः पाठः ज्ञानं भारः क्रियां विना | Gyan Bhar Kriya Bina

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 7 ज्ञानं भारः क्रियां विना (Gyan Bhar Kriya Bina) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

सप्तमः पाठः

ज्ञानं भारः क्रियां विना

पाठ-परिचय प्रस्तुत पाठ “ज्ञान भारः क्रिया दिना'” पंचतंत्र नामक नीतिपंथ के अन्तिम तन्त्र से संकलित है जिसमें व्यावहारिकता के अभाव में कोरे ज्ञान को व्यर्थ बताया गया है। नीतिकार का मानना है कि जीवन की सफलता के लिए व्यक्ति में लौकिक व्यवहार का होना अति आवश्यक है। व्यक्ति में परिपक्वता व्यवहार से ही आती है न कि शुष्क ज्ञान से आती है। इसीलिए बुद्धिमान् व्यक्ति विद्वान की अपेक्षा श्रेष्ठ माने जाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि क्रिया अथवा व्यवहार से ही व्यक्ति के आचरण का पता चलता है। शुष्क ज्ञान मात्र से व्यक्ति के चाल-चलन का पता चलता है।

वरं बु(र्न सा विद्या विद्याया बु(रुत्तमा ।
बु(हीना विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ।।

अर्थ-बुद्धिमान् व्यक्ति विद्वान से श्रेष्ठ होते हैं, क्योंकि विद्या से बुद्धि (चतुराई) उत्तम मानी जाती है। जिस प्रकार बुद्धिहीन होने के कारण अपनी विद्या के बल पर मृत सिंह को जीवित करने वाले उसी सिंह के द्वारा मार डाले गये। तात्पर्य कि बुद्धिमान् व्यक्ति में होनेवाले परिणाम की सूझ-बूझ होती है, जबकि विद्वान में इसका सर्वथा अभाव होता है।
एकस्मिन् नगरे चत्वारः युवानः परस्परं मित्राभावेन निवसन्ति स्म। तेषां त्रायः शास्त्रापारंगताः, परन्तु बु(रहिताः। एकस्तु बु(मान् केवलं शास्त्रापराघ्मुखः। अथ तैः कदाचिन्मित्रौर्मन्त्रितम्µ ‘को गुणो विद्यायाः येन देशान्तरं गत्वा भूपतीन् परितोष्य अर्थोपार्जना न क्रियते? तत्पूर्वदेशं गच्छामः।’ तथानुष्ठिते कि×चन्मार्गं  गत्वा तेषां ज्येष्ठतरः प्राहµ ‘अहो! अस्माकमेकश्चतुर्थो मूढः केवलं बु(मान्। न च राजप्रतिग्रहो बुद्या  लभ्यते विद्यां विना। तन्नास्मै स्वोपार्जितं दास्यामः। तद्गच्छतु गृहम्।’ ततो द्वितीयेनाभिहितम्µ ‘भोः सुबुद्धे!  गच्छ त्वं स्वगृहम्, यतस्ते विद्या नास्ति।’
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ततस्तृतीयेनाभिहितम्µ ‘अहो, न युज्यते एवं कर्तुम्। यतो वयं बाल्यात्प्रभृत्येकत्रा क्रीडिताः।  तदागच्छतु महानुभावो{स्मदुपर्जितवित्तस्य समभागी भविष्यतीति। उक्तंच-
अर्थ-किसी नगर में चार युवक आपस में मिल-जुलकर (मित्रवत्) रहते थे। उनमें से तीन विद्वान परन्तु बुद्धिहीन थे। (किन्तु उनमें रो) एक मूर्ख होते हुए बुद्धिमान् था।। इसके बाद उनके द्वारा कभी विचारा गया कि विद्या का नया महत्त्व (याद) जिसके द्वारा दूसरे देश जाकर राजा को प्रसन्न करके धन का उपार्जन नहीं किया जाता है। इसलिए पूर्व देश को जाते हैं। ऐसा कहते हुए कुछ दूर जाने पर उनमें से बड़े ने कहा-‘अर! हमम से एक चौथा मूर्ख है किन्तु) बुद्धिगान है। बिना विद्या के बुद्धि से राजा से धन । आदि नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए अपने द्वारा अर्जित धन उसको नहीं देंगे। वह घर लौट जाए । तब दूसरे ने कहा-अरे सुबुद्धे । तुग अपने घर चले जाओ वयोकि तुमम विद्वता (विद्या) नहीं है। तब तीसरे (युवक) ने कहा-अरे! ऐसा करना उचित नहीं है। इसलिए कि हमलोग बचपन से ही एक साथ खेलते कूदते रहे हैं। अतएव वह हमसबो से अर्जित धन का समान रूप से हकदार होगा। और कहा (भी) गया है

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानान्तु वसुध्ैव कुटुम्बकम्।।

अर्थ-यह अपना है और वह पराया क्षुद्र विचार वाले अर्थात् नीच सोचते है जबकि उत्तम विचार वाले (महापुरुष) के लिए सारा संसार ही अपने परिवार जैसा होता है।
व्याख्या प्रस्तुत श्लोक “जान भारः क्रियां विना’ पाठ से उद्धृत है, जिसे ‘पंचतंत्र’ से लिया गया है। इसमें उदार तथा क्षुद्र विचार वाले व्यक्ति के बारे में कहा गया है।
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नौतिकार का कहना है कि महान् अर्थात् उदार विचार वाले व्यक्ति स्वभावतः त्यागो, उदार, परोपकारी तथा मानवता के पुजारी होते हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए सारा संसार ही अपने परिवार जैसा होता है। वे किसी से कोई भेदभात नहीं रखते । अपना-पराया का भाव नीच विनार वालों का होता है। ऐसे व्यक्ति में ही भेदभाव को भावना होती है। ऐसे व्यक्ति स्वार्थी एवं मानवीय गुणों से रहित होते है।तदागच्छतु एषो{पि इति। तथानुष्ठिते तैः मार्गाश्रितैरटव्यां कतिचिदस्थीनि दृष्टानि। ततश्चैकेनाभिहित्तम्µ ‘अहो! अद्य विद्यापरीक्षा क्रियते। कतिचिदेतानि मृतसत्त्वस्यास्थीनि तिष्ठन्ति। तद्विद्याप्रभावेण जीवनसहितानि कुर्मः। अहमस्थिस×चयं करोमि। ततश्च तेनौत्सुक्यात् अस्थिसंचयः  कृतः। द्वितीयेन चर्ममांसरुध्रिं संयोजितम्। तृतीयो{पि यावज्जीवनं स×चारयति तावत्सुबु(ना वारितःµ ‘भोः  तिष्ठतु भवान्, एष सिंहो निष्पाद्यते। यद्येनं सजीवं करिष्यसि ततः सर्वानपि व्यापादयिष्यति, इति तेनाभिहितः स  आहµ ‘ध्घि मूर्ख! नाहं विद्याया विपफलतां करोमि।’ ततस्तेनाभिहितम्µ ‘तर्हि प्रतीक्षस्व क्षणं यावदहं  वृक्षमारोहामि।’ तथानुष्ठिते यावत् सजीवः कृतस्तावत्ते त्रायो{पि सिंहेनोत्थाय व्यापादिताः। स च पुनर्वृक्षादवतीर्य  गृहं गतः। अतः उच्यतेµ
अर्थ यह भी साथ चले। इस प्रकार जाते हुए उनके द्वारा वनमार्ग में कोई रडिली देखी गई। और तब एक ने कहा अरे! आज विद्या (ज्ञान) की परीक्षा की जाती है। ये सब किसी जीव की हड्डियाँ हैं । उस विद्या (ज्ञान) के प्रभाव से जीवन युक्त अर्थात् राजीव करते हैं। मैं हड्डियों को एकत्र करता हूँ। और तब उनके द्वारा पूर्ण उत्सुकता से हड्डियों को एकत्र किया गया। दूसरे युवक) द्वारा चमड़ा, मांस तथा खून से युक्त किया गग। तीसरा (युवक) भी अब उसमें प्राण का संचार करना चाहता है कि तभी सुबुद्धि नामक मूर्ख रोकते हुए कहता है अरे, आप रुक जाएँ, यह एक सिंह बन जाता है। जैसे ही इसको सजीव (सप्राण) करोगे, वैसे सबको खा जाएगा। उसके द्वारा ऐसा कहने पर वह बोला—धिक् मूर्ख ! मैं अपनी विद्या (ज्ञान) का अपमान (निष्फल) नहीं करता हूँ। तब उसने कहा तो जब तक मैं पेड़ पर चढ़ता हूँ तब तक कुछ देर तक प्रतीक्षा करो। ऐसा करते हुए जैसे ही सिंह को जीवित किया कि सिंह उठकर तीनों को खा जाता है। और वह (सुबुद्धि) फिर पेड़ से उतरकर घर चला गया। इसीलिए कहा जाता है
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अवशेन्द्रियचित्तानां हस्तिस्नानमिव क्रिया ।
दुर्भगाभरणप्रायो ज्ञानं भारः क्रियां विना ।।

अर्थ-जिस प्रकार कुरूपों को अलंकारों (आभूषणों) से सुसज्जित करना हाथियो के सान की भाँति होता है, उसी प्रकार जिनके इन्द्रिय तथा मन अपने वश में नहीं होते उनका ज्ञान लौकिक व्यवहार के अभाव में भारस्वरूप अर्थात् प्राणघातक होता है।
व्याख्या प्रस्तुत श्लोक विष्णुशर्मा लिखित ‘पंचतंत्र’ ग्रंथ से संकलित ‘ज्ञानं भारः । कियां विना’ पाठ से उद्धृत है। इसमें नीतिकार ने बुद्धि के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
नीतिकार का कहना है कि लोकिक व्यवहार की जानकारी के बिना कोरा ज्ञान प्राणघातक होता है। जिस प्रकार अनेक प्रकार के आभूषणों से सुज्जित व्यक्ति रूपहीनता के कारण शोभा नहीं पाता, उसी प्रकार जिनके इन्द्रिय तथा मन अपने वश में नहीं होते, उनका ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान के अभाव में निष्फल चला जाता है। ऐसा ज्ञान हाथियों के सान के समान होता है। जैसे हाथी स्नान करने के बाद पुनः अपने ऊपर कीचड़ या धूल डालकर गंदा कर लेता है, वैसे ही ज्ञान प्राप्ति के बावजूद यदि व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता है तो वह व्यर्थ चला जाता है। इसलिए मानव जीवन की सफलता के लिए व्यावहारिक ज्ञान का होना आवश्यक होता है। लौकिक ज्ञान से ही व्यक्ति में समझदारी आती है। इसी समझदारी की कमी के कारण तीनों ब्राह्मण कुमार बाघ द्वारा मारे जाते हैं किन्तु बुद्धिमानी के कारण मूर्ख बच जाता है।

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षष्ठः पाठः संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम् | Sanskritsahitya Paryawaranm

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 6 संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम् (Sanskritsahitya Paryawaranm) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

षष्ठः पाठः
संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम्

पाठ-परिचय-पृष्ठों पर रहने वाले प्राणियों के जीवन के अनुकरर परिस्थितियों का संतुलन पर्यावरण कहलाता है। पर्यावरण-परि’ तथा ‘आवरण’दो श्वदों के योग से बना है। गरि का अर्थ ‘नरो तरफ’ तथा ‘आवरण’ का अर्थ-वतावरण होता है। अर्थात् अपने चारों तरफ के गाताना को पयांवरण कहा जाता है। सरका साहित्य केया में भी की चर्चा मिलती है कि पविष को शुद्धता परीपरितकाजीवर रिता है। अतएव हवा, पानी, ‘मही को शुद्धता आवश्यक है। प्रस्तुत पठ में इसी विषय पर प्रकाश डाला गया है कि प्रकृति का सौन्दर्य तथा गाण-जगत् का सनाखत जोवर पर्यावरण पर हो पबित है।

भूमिर्जलं नभो वायुरन्तरिक्षं पशुस्तृणम् ।
साम्यं स्वस्थत्वमेतेषां पर्यावरणसंज्ञकम् ।।
अर्थ-मिट्टी, जल, आकाश, वायु, अन्तरिक्ष, पशु, पास इन सबा की साम्यता तथा शुद्धता को पर्यावरण के नाम से पुकारा जाता है। –
व्याख्याप्रस्तुत श्लोक संस्कृत साहित्ये पर्यावरणम्’ पाठ से उद्भत है। इसमें पर्यावरण की स्वच्छता एवं शुद्धता के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। लेखक का कहना है कि प्राणियों का जीवन पर्यावरण पर ही अवलम्बित है। इसलिए यह आवश्यक है कि इसे सन्तुलित एवं स्वच्छ रखा जाए । इसमें किसी भी प्रकार असंतुलन तथा दोष आने पर पर्यावरण दूषित हो जाता है तथा जीवों का जीवन संकट में पड़ जाता है।
संस्कृतसाहित्यस्य महती परम्परा संसारस्य सर्वान् विषयानूरीकृत्य प्रचलिता। प्रकृतिसंरक्षणं पर्यावरणस्य संतुलनं वा तत्रा स्वभावतः उपस्थापितमस्ति। वैदिककाले प्रकृतेरुपकरणानि देवरूपाणि प्रकल्पितान्यभवन्। पर्जन्यो वेदे इत्थं स्तूयतेµ
अर्थ-संस्कृत साहित्य की ऐसी श्रेष्ठ परम्परा रही है कि संसार के सारे विषयों को। स्वीकार करके आगे बढ़ा। प्रकृति की सुरक्षा तथा पर्यावरण के संतुलन के विषय उसमें स्वाभाविक रूप से वर्णित हैं। वैदिक युग में प्रकृति के उपकरणों को देवतातुल्य माना। जाता था । वेद में मेघ की इस प्रकार स्तुति की गई है
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इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते
यत्पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति ।
अर्थ-मेघ जल द्वारा पृथ्वों की रक्षा करता है तथा संसार के कल्याण के लिए धरती पर अन्न उपजते है।भाव-भाव यह है कि जल एवं भूमि ही प्राणियों के जीवन के आधार है, इसलिए इन्हें रादा प्रदूषणरहित रखना आवश्यक है। इनके प्रदूषित रहने पर प्राणी ही नहीं, पेड़ पौधे भी दूषित हो जाएँगे, जो अति सोचनीय विषय है।
मेघः पृथिवीं जलेन रक्षति तदा सर्वेभ्यः अन्नं भवति। एवमेव ये वनस्पतयः पफलयुक्ता अपफला वापुष्पवन्तः अपुष्पा वा सर्वे{पि ते मानवान् रक्षन्तु, पापानि अर्थात् मलानि दूरीकुर्वन्तुµ
अर्थ-मेघ जल से पृथ्वी की रक्षा करता है (और) तब उस जल से सारे प्राणियों के लिए अन्न उपजता है । इसी प्रकार ही ये वनस्पतियों फलों से युक्त है या जिनमें फल नहीं हैं, वे भी फल से युक्त हों। जो फूलों से लदे हुए हैं या जिनमें फूल नहीं खिलो, ‘ उनमें भी फूल खिलें। वे सारे मानवों की रक्षा कर तथा उनके दोषों को दूर करें
याः फलिनी या अफलाः अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः ।
बृहस्पति-प्रसूतास्ता नो मु×चन्त्वंहसः ।।
अर्थ-जो फलों से परिपूर्ण है अशवा जो फलों एवं पुष्पों से रहित है और जो फूलों . से परिपूर्ण है, बृहस्पति द्वारा विकसित वे फल-फूल हमें पापों से रक्षा कर अथवा मुक्त करे।
भाव-भाव यह है कि पेड़-पौधे फल-फूलों से लदे रहें। जिनमें फल नहीं हैं, वे भी फलों से परिपूर्ण हो जाएँ। जिनमें फूल नहीं हैं, वे भी फूलों से लद जायँ तथा अपने । सौरभ से वातावरण को सुगंधमय बना दें। गुरु बृहस्पति द्वारा विकसित ये फल-फूल पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखें तथा हमें पापों से अर्थात् विभिन्न प्रकार के रोगों से । मुक्त रखें। तात्पर्य यह कि स्वच्छ पर्यावरण में ही पेड़-पौधों में स्वादिष्ट फल तथा
सुगंधित फूल उग सकगे । अतएप हमें पर्यावरण के सदा प्रदूषणरहित रखने के प्रयास करना चाहिए।
अत्रा ओषध्यो देव्यः स्तूयन्ते।
संस्कृतकाव्येषु प्रकृतिवर्णनम् आवश्यकं विद्यते। कथ्यते यत् ट्टतुः, सागरः, नदी, सूर्योदयः, सन्ध्याचन्द्रोदयः, सरोवरः, उद्यानम्, वनम्- इत्यादीनि उपादानानि अवश्यं वर्णनीयानि भवन्ति महाकाव्ये। वाल्मीकिः  सरोवरश्रेष्ठां पम्पां वर्णयतिµ
अर्थ-यहाँ देवों द्वारा औषधियों का गुणगान किया जाता (गया) है। संस्कृत काव्या . में प्रकृति वर्णन निश्चित रूप में विद्यामान है। कहा जाता है कि ऋतुएँ, सागर, नदा, सूर्योदय, संध्या, चन्द्रोदय, सरोवर, बगीचा-फूलवारी तथा वन आदि उपादानों का महाकाव्यों में निश्चित रूप में वर्णन होता है। महर्षि वाल्मीकि ने पम्पा सरोवर के सौदर्य । का वर्णन इस प्रकार किया है
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नाना-द्रुमलताकीर्णां शीतवारिनिधि्ं शुभाम् ।
पद्मसौगन्ध्किस्ताम्रां शुक्लां कुमुदमण्डलैः ।।
अर्थ-महर्षि बालगीकि पंपा सरोवर को सुन्दरता तथा विशेषता का वर्णन करते हुए। कहते हैं कि पंपा सरोवर पौधों तथा लताओं से परिपूर्ण है। उसका जल शीतल तथा स्वच्छ है। उसमें खिले कमल के फूलों की सुगंध से वातावरण सुगंधगय है तथा उजले रंग के खिले कुमुदिनी फूला से अति रमणीय प्रतीत हो रहा है। ।
भाव-यहाँ पंपा सरोवर के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि प्रकृति अपना स्वाभाविक दिर्य तभी बिखेर सकती है जब पर्यंतरण शुद्ध अर्थात प्रदूषणरहित हो । क्योंकि प्रदूषण के कारण प्रकृति का स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाता है, जिरा कारण फल स्वादहीन, फूल गंधहीन तथा जल रोगकरक हो जाते है। हमें पर्यावरण को सदा स्वच्छ रखने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि प्रकृति पर्यावरण के अनुसार ही कार्य करती है।
संस्कृतकाव्येषु स्वस्थपर्यावरणस्य कल्पनया स्वाभाविकरूपेण प्रवहन्तीनां नदीनां वर्णनं बाहुल्येन लभ्यते, जलप्लावनस्य वर्णनं तु विरलमेव। सूर्यतापितः ज्येष्ठमासस्य मध्याह्न बाणभट्टेन वर्णितः। स च स्वाभाविकः। वस्तुतः स्वाभाविकरूपेण प्रवर्तमानानाम् ट्टतूनां वर्णनेन पर्यावरणं प्रति कवीनामास्था दृश्यते।  ग्रीष्मातपेन सन्तप्तस्य रक्षां वृक्षाः कुर्वन्ति इति प्रकृतिवरदानम्। अतएव मार्गेषु वृक्षारोपणं पुण्यमिति  प्रतिपादितम्। पफलवन्तो वृक्षास्तु परोपकारिणः इति कथयति नीतिकारःµ
अर्थ- संस्कृत ग्रंथों में स्वस्थ पर्यावरण त्था रवाभाविक रूप से बहती हुई नदियों का वर्णन पर्याप्त रूप में मिलते हैं (परन्तु) बाढ़ का वर्णन तो बहुत कम ही है । बाणभट्ट ने जेठ मास के दोपहर की प्रचंड गर्मी का वर्णन किया है जो अति स्वाभाविक है। वास्तव में, विद्यमान ऋतुओं के वर्णन से पर्यावरण के प्रति कवियों की आस्था का पता चलता है तक्ष प्रचंड धूप से व्याकुल जीवा की रक्षा करते हैं। वे प्रकृति के लिए वरदानस्वर इसलिए सड़क या रास्ते के किनारे पेड़ लगाने से पुण्य होता है, ऐसा लोगों का : है। नीतिकार का कहना है कि फल वाले पेड़ महान उपकारी होते है।
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स्वयं न खादन्ति पफलानि वृक्षाः
स्वयं न वारीणि पिबन्ति नद्यः ।
अर्थ-वृक्ष अपना फल स्वयं नहीं खाते और न नदियों अपना जल स्वयं पीती हैं। तात्पर्य कि वृक्ष दूसरों को छाया एवं फल से उपकार करते हैं। उसी प्रकार नदियों अपने जल से तृषित प्राणियों की प्यास बुझाती है।
भाव-प्रस्तुत श्लोक के माध्यम से कवि यह बताना चाहता है कि परोपकारी जन दूसरों के कल्याण के लिए शरीर धारण करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष दूसरों के लिए फलते है तथा नदियों दूसरों के लिए बहती हैं। इसी प्रकार हर मानव को वृक्ष एवं नदियों की भाति दूसरों के कल्याण के लिए तत्पर रहना चाहिए, तभी देह धारण करना सफल होगा।
नरा कन्याश्च वृक्षान् प्रति ममताशीला इति शाकुन्तले नाटके वर्ण्यते। शकुन्तला वृक्षान् जलेन  तर्पयित्वैव स्वयं जलं पिबतिµ
अर्थ— लोग लड़कियों और वृक्षों के प्रति ममताशील होते है ऐसा शकुन्तला नाटक में वर्णन किया गया है। शकुन्तला वृक्षों को जल से तृप्त करने के (अर्थात् उन्हें सिंचने के) बाद ही स्वयं जल पीती थी।
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या ।
अर्थ-जो उन अतृप्तों में पहले जल देने का प्रयास करता है। अर्थात् जो स्वदं । प्यासा रहकर दूसरो को जल पिलाने के लिए प्रयत्नशील रहता है, वह निश्चय ही महान
होता है।
किं च भट्टिः शरत्काले जलाशयेषु कमलानां तद्वर्तिनां भ्रमराणां च वर्णनं करोतिµ
अर्थ— और क्या, भट्टिः शरदकाल में जलाशयों में खिले हुए कमलों का तथा उ
नके आस-पास मँडराते भौंरों का वर्णन करते हैं
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न तज्जलं यन्न सुचारुपघ्कजं
न पघ्कजं नयदलीनषट्पदम् ।
अर्थ— जिस जल में कमल के फूल नही होते है, वह जल शोभा नही पाता है। उसी प्रकार वह जल शोभयनीय नही होते है, जिसके आस पास मडराते भौरे नही होते। तात्‍पर्य कि जल की शोभा तभी बढ़ती है जब उसमें खिले हुए कमल के फूल होते हैं। ठीक उसी प्रकार कमल कि शोभा तभी बढ़ती है जब उसके आसय-पास भौरें अपना गुज्‍जार करते हैं। भाव यह है कि प्रकृति की शुद्धता निर्भर करती है।

वसन्ते तु सर्वां प्रकृतिः शोभनतरा भवति इति कालिदासः कथयतिµ
द्रुमाः सुपुष्पाः सलिलं सपप्रं
सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते ।

अर्थ-वसन्त ऋतु में सारी प्रकृति सुन्दर दीखती है ऐसा कवि कालिदास कहते हैं
वसन्तकाल में पेड़-पौधे फूलों से युक्त हो जाते हैं। सरोवरों में कमल फूल खिल जाते हैं। सारी प्रकृति मधुमय अथवा मनोहारी दिखाई पड़ती हैं।
कालिदास ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि इस समय न तो अधिक गर्मी पड़ती है और न ही आधक ठंढक ही। इसी समय पेड़-पौधे नये पत्तों तथा फल फूलों से लद जाते है। फलतः वातावरण मधुमय हो जाता है।।

कालिदासः पशूनां स्वाभाविकस्थितेः निरूपणमेव करोतिµ
गाहन्तां महिषा निपानसलिलं शृघ्गैर्मुहुस्ताडितं
छाया-ब(कदम्बकं मृगकुलं रोमन्थमभ्यस्यतु ।

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अर्थ-कालिदास पशुओं की स्वाभाविकता का वर्णन करते हुए कहते है
भस समूह तालाब के जल में डूबकी लगाएँ तथा सींगों से बार-बार मारते अर्थात् जल में चलाते रहे । मृग समूह कदम्ब की घनी छाया में बैठकर प्रसन्नतापूर्वक पागुर करें।
भाव-कवि कालिदास ने ग्रीष्म ऋतु का वर्णन करते हुए अपनी अभिलाषा प्रकट की है कि प्रकृति इतनी सुसंपन्न रहे कि हर प्राणी अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार प्राकृतिक सम्पदाओं का इच्छानुकूल आनंद ले। यह तभी संभव है जब पर्यावरण का संतुलन सही रहे। हमारा कर्तव्य है कि हा पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाएँ।।
एवं प्राचीनभारते साहित्यकाराः सर्वस्यापि पर्यावरणस्य स्वस्थतां प्रति जागरूका अभवन्। कुत्रापि प्रकृतेः असन्तुलनं न भवेत् इति प्रयासशीलाः आसन्।
अर्थइस प्रकार प्राचीन भारत में साहित्यकार लोग सम्पूर्ण पर्यावरण की शुद्धता के प्रति सतर्क रहते थे। कहीं भी प्रकृति में किसी प्रकार का असन्तुलन न हो, इसके लिए वे प्रयत्नशील (रहते) थे।

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पंचमः पाठः संस्कृतस्य महिमा | Sanskritasya Mahima Class 9th Sanskrit

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 5 संस्कृतस्य महिमा (Sanskritasya Mahima Class 9th Sanskrit) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

पंचमः पाठः

संस्कृतस्य महिमा

पाठ-परिचय प्रस्तुत संवादात्मक पाठ ‘संस्कृतस्य महिमा’ में संस्कृत भाषा तथा साहित्य की व्यापकता को लेकर एक संवाद की परिकल्पना की गई है तथा इसके माध्यम से छात्रों में संस्कृत विषय के प्रति रुचि जगाने का प्रयास किया गया है। संस्कृत विश्व की सारी भाषाओं की जननी है। भारतीय संस्कृति का आधार संस्कृत ही है। इसका व्याकरण तथा साहित्य अन्य भाषाओं की अपेक्षा अधिक संतुलित, सुसम्पन्न एवं सुदृढ है। इसी महत्त्व को इस पाठ में उद्घाटित किया गया है।

Sanskritasya Mahima Class 9th Sanskrit
(संस्कृतशिक्षकः कक्षां प्रविशति। छात्राः स्वस्थानादुत्थाय अभिवादनं कुर्वन्ति।)
अर्थ—(संस्कृत शिक्षक वर्ग में प्रवेश करते है। छात्रगण अपनी जगह से उठकर । नमस्कार करते हैं।)
शिक्षकः – उपविशन्तु सर्वे। अद्य संस्कृतस्य महत्त्वं कथयामि।
शिक्षक – सभी बैठ जाएँ। आज संस्कृत का महत्त्व बताता हूँ।
रमेशः – गुरुदेव! अपि संस्कृतस्य अध्ययनं लाभकरम्?
रमेश.- गुरुदेव । (क्या) संस्कृत पढ़ना लाभदायक है?
शिक्षकः – न जानासि वत्स?संस्कृतं विना न संस्कृतिः।
शिक्षक- (क्या) नहीं जानते हो बच्चे? संस्कृत के बिना संस्कृति का कोई महत्त्व नहीं है।
राजीवः – का नाम संस्कृतिः?
राजीव – संस्कृति क्या है?
शिक्षकः – संस्कृते एव आचाराः विचाराः भावनाश्च सन्ति। यत्रोमे भवन्ति, तत्रौव संस्कृतिः।
शिक्षक – संस्कृति से ही आचार-विचार तथा भावना का पता चलता है। जिनमें ये होते हैं, उन्हें ही सुसंस्कृत अर्थात् सभ्य माना जाता है।
पुष्करः – कथयन्ति जनाःयत् इयं मृता भाषा।
पुष्कर -लोग कहते हैं कि यह मृत भाषा है।

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शिक्षकः – वत्स! ज्ञानहीनास्ते। अस्यामेव भारतीयभाषाणां जीवनम्। अस्या एव भारतीयाः भाषाः निर्गताः।  एतदर्थं सा भाषाणां जननी कथ्यते। नेयं मृता भाषा, अपितु अजरा अमरा चेति। अद्यापि सा  जीवति।
शिक्षक – बच्चो! वे अज्ञानी है। इसमें ही भारतीय भाषाओं का जीवन है। इससे ही भारतीय भाषाएँ उत्पन्न हुई हैं। इसीलिए यह भाषाआ की जननी कही जाती है। यह मृत भाषा नहीं है अपितु अजर-अमर है और आज भी जीवित है।
रमेशः – अस्यामेव भारतीयभाषाणां जीवनम्?
रमेश – (क्या) यही भारतीय भाषाओं की जननी है?
शिक्षकः – अथ किम्? सर्वाः भारतीयभाषाःसंस्कृतभाषायाः ट्टणं धरयन्ति। अत्रौव प्राचीनं वेदादिशास्त्रां  रचितम्।
शिक्षक – हाँ, अवश्य। सारी भारतीय भाषाएँ इसकी ऋणी हैं। इसी भाषा में प्राचीन वेद आदि शास्त्र लिखे गए।
कमालः – शब्दज्ञानाय संस्कृतकोशो{पि वर्तते किम् ?
कमाल – क्या शब्द ज्ञान के लिए संस्कृत शब्दकोश भी है?
शिक्षकः – आम् आम्। प्राचीनाः नवीनाश्च अनेके संस्कृतकोशाः सन्ति। शब्दरचनाविध्रिपि व्याकरणे  वर्तते। तेन लक्षशः शब्दाः निर्मीयन्ते, अन्यासु भाषासु प्रदीयन्ते।

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शिक्षक-हाँ, हाँ । पुराने-नये अनेक संस्कृत शब्दकोश हैं। शब्द रचना विधि के ज्ञान के लिए व्याकरण भी है। उससे लाखों की संख्या में शब्द बनाए जाते हैं तथा अन्य भाषाओं में प्रयोग किये जाते हैं।
पुष्करः – अस्याः व्याकरणम् अपूर्वं तर्हि।
पुष्कर – इसका व्याकरण तो अपूर्व है।
शिक्षकः – अत्रा पाणिनिः श्रेष्ठः वैयाकरणः आसीत्। तत्सदृशः न कुत्रापि वैयाकरणो जातः।
शिक्षक – यहाँ पाणिनि नामक वैयाकरण (व्याकरण शास्त्र का ज्ञाता) थे। उनके समान कोई दूसरा वैयाकरण नहीं हुआ।
लतिकाः – किं पाणिनिसमानः कुत्रापि वैयाकरणो नास्ति?
लतिका – क्या पाणिनि के समान कोई भी वैयाकरण नहीं है?
शिक्षकः – आम्, अस्योत्तरं सर्वत्रा मौनमस्ति।
शिक्षक – हाँ, उनके बाद सभी चुप हैं।
रमाः – गुरुदेव! मम पिता कथयति यत् संगणके ;कंप्यूटरयन्त्रोद्ध अपि संस्कृतं सहायकं भवति।
रमा – गुरुदेव! मेरे पिताजी कहते हैं कि कम्प्यूटरयन्त्र में भी संस्कृत का योगदान है।
शिकक्षः – सत्यं वदति ते पिता। अपि चµ योगशास्त्रो पतंजलिकृतं योगदर्शनमपि अपूर्वम्।
शिक्षक – तुम्हारे पिताजी का कहना बिल्कुल सत्य है। योगशास्त्र में भी पतंजलि द्वारा लिखा गया योगदर्शन अपूर्व है।
कमालः – पूज्यवर। श्रूयते यत् संस्कृते क्रियारूपाणि असंख्यानि सन्ति।
कमाल – पूज्यवर, सुना जाता है कि संस्कृत में असंख्य क्रिया रूप हैं।

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शिक्षकः – सत्यमेतत्। धतवः एव द्विसहस्राध्किः। तेषां दशलकारेषु नाना रूपाणि भवन्ति। सर्वेषु लकारेषु  नव-नव रूपाणि सन्ति।
शिक्षक – यह सत्य है। धातु ही दो हजार से अधिक हैं। उनके दस लकारों में भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। सभी लकारों में नौ-नौ रूप हैं।
पुष्करः – धतवो{पि त्रिध भवन्ति इति भवान् उक्तवान्।
पुष्कर – धातु भी तीन प्रकार की होती हैं, ऐसा आपने कहा।
शिक्षकः – आम्। केचिद् आत्मनेपदिनः, केचित् परस्मैपदिनः, केचिद् उभयपदिनः। एवं त्रिध ते भवन्ति।
शिक्षक – हाँ, कुछ आत्मनेपद, कुछ परस्मैपदेन तथा कुछ उभयपदी होती हैं। इस प्रकार ये तीन प्रकार की होती है।
रहीमः – तदा तु भाषेयम् अतीव जटिला।
रहीम-तब तो यह भाषा अति कठिन है।
शिक्षकः – न न। सरलापि सा, कठिनापि सा। सामान्यप्रयोगे सरला, गूढविषयनिरूपणे जटिला। यथेच्छं  प्रयोगः क्रियते।
शिक्षक – नहीं, नहीं। यह आसान भी है तथा कठिन भी। सामान्य प्रयोग में आसान (किंतु) गूढ़ विषय के निरूपण में कठिन है। इसे इच्छा के अनुसार प्रयोग किया जाता है।
रमाः – गुरुदेव! किं विज्ञानानि अपि संस्कृते सन्ति?
रमा – गुरुदेव! क्या संस्कृत में विज्ञान संबंधी विषय भी हैं ?
शिक्षकः – किं कथयसि?भूगोल-खगोलविषये आर्यभटीयम्, बृहत्संहिता इत्यादयः ग्रन्थाः प्रसिद्ध ।
शिक्षक – क्या कहती हो? भूगोल तथा खगोल (आकाशीय) के विषय में आर्यभटीयम् का बृहत्संहिता प्रसिद्ध ग्रंथ है।
राजीवः – अतः परं नास्ति किमपि?
राजीव – अतः महान् कुछ भी नहीं है।
शिक्षकः – कथं नास्ति?बीजगणितं चिकित्साशास्त्रां भौतिकविज्ञानं रसायनशास्त्रां वनस्पतिविज्ञानं वास्तुविज्ञानं  विध्शिस्त्रां संगीतशास्त्राम् इत्यादीनि नानाग्रन्थेषु प्रकाशितानि सन्ति। प्राचीनं भारतीयं विज्ञानं  पठितव्यम्।
शिक्षक – क्या नहीं है। अर्थात् सब कुछ है। बीजगणित, चिकित्साशास्त्र, भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, वनस्पति विज्ञान, वास्तु विज्ञान, विधिशास्त्र, संगीतशास्त्र आदि-आदि अनेक प्रकार के ग्रन्थ प्रकाशित हैं। प्राचीन भारतीय विज्ञान पढ़ना चाहिए।
रमाः – किं प्रतियोगिपरीक्षासु संस्कृतम् उपयोगि वर्तते?

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रमा- क्‍या प्रतियोगी परीक्षाओं में संस्‍कृत उपयोगी है ?
शिक्षकः – प्रायः सर्वत्रा प्रशासनिकपरीक्षासु संस्कृतमपि ऐच्छिको विषयः।
शिक्षक- प्राय: सभी जगह प्रशासनिक परीक्षाओं में संस्‍कृत भी ऐच्छिक विषय के रूप होते हैं।
रहीमः – तदा तु इयमतीव उपयोगिनी भाषा।
रहीम- तब तो यह अति उपयोगी भाषा है।
शिक्षकः- अथ किम्।
शिक्षक- अवश्‍य ही।
पुष्करः – तर्हि नूनमेव सर्वैरस्माभिः मनोयोगेन संस्कृतं पठनीयम्। ध्न्येयं भाषा।
पुष्‍कर- तो निश्‍चय ही हम सबों को मन लगाकर संस्‍कृत पढ़ना चाहिए। धन्‍य है यह भाषा।

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चतुर्थः पाठः चत्वारो वेदाः | Chatwaro Vedah Class 9th Sanskrit

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 4 चत्वारो वेदाः (Chatwaro Vedah Class 9th Sanskrit) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

चतुर्थः पाठः

चत्वारो वेदाः

पाठ-परिचय- प्रस्तुत पाठ ‘चत्वारो वेदाः’ में प्राचीन भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का वर्णन है। विश्व के सारे उपलब्ध ग्रंथों में वेद ही सबसे प्राचीनतम हैं। वेदों को ज्ञान का पर्याय माना जाता है। इनमें भारतीय संस्कृति की उच्चता प्रतिपादित है। इसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति के आधारग्रंथों के रूप में चारों वेदों की संरचना और स्वरूप का परिचय दिया गया है तथा वैदिक साहित्य की व्यापकता निरूपित है।

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अस्माकं प्राचीना संस्कृतिर्वेदेषु सुरक्षिता वर्तते। संसारस्य च प्राचीनतमं साहित्यं वेदेषूपलभ्यते।  सप्तसिन्ध्ुप्रदेशे निवसन्तः ट्टषयस्तात्कालिकं सर्वं ज्ञानं वेदरूपमधरयन्। विशेषतो यज्ञसंचालनाय एकस्यापि  वेदस्य चत्वारि रूपाणि कृतान्यासन्। अतएव चत्वारो वेदाः इति परम्परा प्रवृत्ता। ते च वेदाः ट्टग्वेदः यजुर्वेदः  सामवेदः अथर्ववेदश्चेति सन्ति।
ट्टग्वेदः प्राचीनतमान् मन्त्रान् धरयति। अतएव इतिहासस्य विद्वांसस्तस्य महत्त्वमतितरां मन्यन्ते। अयं  वेदो दशसु मण्डलेषु विभक्तः। प्रतिमण्डलं च ट्टक्समूहरूपाणि सूक्तानि बहूनि विद्यन्ते। सूत्तफानां देवताः  ट्टषयः छन्दांसि च पृथक् सन्ति। सम्पूर्णे ट्टग्वेदे 1028 सूत्तफानि, 10552 ट्टचः वर्तन्ते। ट्टचः एव मन्त्राः अपि  कथ्यन्ते। ट्टग्वेदे देवानामावाहनार्थं मन्त्रा इति कर्मकाण्डोपयोगः।

अर्थ: हमारी प्राचीन संस्कृति वेदों में सुरक्षित है और संसार का सबसे प्राचीन साहित्य वेदों में पाया जाता है। सप्तसिंधु प्रदेश में रहने वाले तत्कालीन ऋषियों का सारा ज्ञान वेदों में वर्णित है। खासकर यज्ञादिकार्य के लिए भी एक वेद को चार रूपों में विभक्त किया गया। इसलिए चारों वेदों की ऐसी परम्परा प्रचलित हुई और वे सब ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं।

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ऋग्वेद में प्राचीनतम मन्त्रों को निरूपित किया गया है। इसलिए इतिहास के विद्वान (इतिहासज्ञ) उसके महत्त्व को दूसरी तरह से मानते हैं। यह वेद दस समूहों (मंडलों) में बँटा हुआ है। प्रत्येक मण्डल में ऋक् समूह रूप के बहुत सारी सूक्तियाँ पाई जाती हैं। सूक्तियों के देवता, ऋषि तथा छंद अलग-अलग हैं। सम्पूर्ण ऋग्वेद में 1028 सूक्तियाँ, 10552 ऋचा (भजन, प्रार्थना) हैं। ऋचा (भजन, प्रार्थना) ही मंत्र भी कहे जाते हैं। ऋग्वेद में देवताओं के आह्वान (बुलाने) के लिए मंत्र यज्ञ कार्य में गाए जाते हैं।

यजुर्वेदः शुक्ल-कृष्णरूपेण द्विविध्ः। प्रायेण शुक्लयजुर्वेदः एव उत्तरभारते प्रचलितः। तस्मिन्  चत्वारिंशदध्यायाः सन्ति। अध्यायेष्वनेके गद्य-पद्यात्मका मन्त्राः सन्ति। तेषु मुख्यतो विविध्कर्मसम्पादनाय  विध्यो दर्शिताः। यजुर्वेदस्य अर्थ एव वर्तते यज्ञवेदः। प्रचलिते शुक्लयजुर्वेदे 1975 मन्त्राः संकलिताः। यज्ञेष्वस्य  वेदस्य व्यापकः प्रयोगः।

अर्थ- यजुर्वेद दो प्रकार के हैं-शुक्ल यजुर्वेद तथा कृष्ण यजुर्वेद । उत्तर भारत में प्रायः शुक्ल यजुर्वेद ही प्रचलित है। उसमें चालीस अध्याय हैं। अध्यायों में अनेक गद्य एवं पद्य में मन्त्र हैं। उनमें मुख्य रूप से कर्मसपादन के नियम बताए गए हैं। यजुर्वेद का अर्थ ही यज्ञवेद होता है। प्रचलित यजुर्वेद में 1975 मंत्र संकलित है। यज्ञ में इस वेद का व्यापक रूप में उपयोग होता है।

सामवेदः प्रायेण ट्टग्वेदस्य गेयात्मकैर्मन्त्रौः संकलितः। तत्रा यज्ञे समाहूतानां देवानां प्रसादनं लक्ष्यमस्ति।  प्रसादनं च गानेन भवति। अतएव सामवेदस्य गायकाः उद्गातारः कथ्यन्ते। भारतीयं संगीतं सामवेदादेव प्रारभते।  सामवेदे 1875 मन्त्राः सन्ति। सामवेदश्च पूर्वार्चिक-उत्तरार्चिकभागयोः विभत्तफः।

सामवेद में प्रायः ऋग्वेद के गाने योग्य मंत्र संकलित हैं। उस यज्ञ में आवाहित (बुलाए गए) देवताओं को प्रसन्न करना लक्ष्य होता है। गायन के द्वारा ही प्रसन्न करना संभव होता है। अतएव सामवेद के मंत्र गानेवालों को वेदपाठी कहा जाता है। भारतीय संगीत सामवेद से ही उत्‍पन्‍न हुए। सामवेद में 1875 मन्‍त्र हैं। और सामवेद पूर्व आर्थिक तथा उत्तर आर्थिक दो भागों में विभक्‍त है।

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अथर्ववेदो लौकिकं वैज्ञानिकं च विषयं विशेषेण ध्त्ते। अयं विंशतिकाण्डेषु विभत्तफः। प्रतिकाण्डं च  सूत्तफानि वर्तन्ते, सूत्तफेषु च ट्टग्वेदवत् मन्त्राः सन्ति। सम्पूर्णे{थर्ववेदे 730 सूत्तफानि, 5987 मन्त्राश्च विद्यन्ते। अत्रा  द्वादशे काण्डे भूमिसूत्तफं वर्तते यत्रा मातृभूमेः स्तुतिर्विस्तरेण कृता।
एते सर्वे वेदाः मन्त्राणां संकलनत्वेन संहिताः अपि कथ्यन्ते। तदनन्तरं तद्व्याख्यारूपाणि ब्राह्मणानि
बहूनि वर्तन्ते कर्मकाण्डपराणि। दार्शनिकचिन्तनपराणि आरण्यकानि, शु(दर्शनपराः उपनिषदश्च विकसिताः।  सर्वे{प्येते वेदसंहितानां कृते पृथक्-पृथक् सन्ति। अपि च वेदानार्म्यैं.रूपेण शिक्षा, कल्पः, व्याकरणंविनरुत्तफं, छन्दः, ज्योतिषं चेति षड्वेदाग्‍डनि विपुलं साहित्यं प्रस्तुवन्ति। सर्वमिदं मिलित्वा विशालं वैदिकं  साहित्यमिति वर्तते।

अर्थ: अथर्ववेद लौकिक और वैज्ञानिक विषय को विशेष रूप में धारण करता है। यह बीस काण्डों में विभक्त है और प्रत्येक काण्ड में सूक्तियाँ हैं। सूक्तियों में ऋग्वेद के समान मंत्र हैं। सम्पूर्ण अथर्ववेद में 730 सूक्तियाँ एवं 5987 मंत्र हैं। बारहवें काण्ड में भूमिसूक्ति है जिसमें मातृभूमि की विस्तार से प्रार्थना की गई है।

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इन सारे वेद मंत्रों का संग्रह होने के कारण इसे संहिता भी कहते हैं। इसके बाद वह व्याख्या शास्त्र, ब्राह्मण ग्रंथ, कर्मकाण्ड आदि अनेक रूपों में पाए जाते हैं। यथा दार्शनिक चिन्तन, आरण्यक, शुद्ध दर्शनशास्त्र और उपनिषद आदि विकसित हुए हैं। ये सभी वेद संहिता के अलग-अलग रूप हैं। फिर भी वेदांग के रूप में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष छः वेदांग के विशाल साहित्य को प्रस्तुत करते हैं। ये सब मिलकर विशाल वैदिक साहित्य के रूप में विद्यमान है।

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तृतीयः पाठः यक्षयुध्ष्ठिरसंवादः | Yudhishthir Samvad Class 9th Sanskrit

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 3 यक्षयुध्ष्ठिरसंवादः (Yudhishthir Samvad Class 9th Sanskrit) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

 

तृतीयः पाठः
यक्षयुध्ष्ठिरसंवादः
पाठ-परिचय- प्रस्तुत’ पाठ ‘यक्षयुधिष्ठिर संवाद’ महाभारत के वनपर्व से संकलित है। वनवास की अवधि में पाण्डव वन-वन भ्रमण करते हैं। एकदिन वे एक सरोवर के पास गए, जहाँ युधिष्ठिर ने सरोवर के रक्षक एक अदृश्य यक्ष की दार्शनिक जिज्ञासाओं को अपने उत्तरों द्वारा शांत करते हैं। कथा के अनुसार अन्य भाई बिना उत्तर दिए ही सरोवर का जल पीना चाहते थे, जिस कारण यक्ष ने उन्हें अचेत कर दिया था। युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देकर न केवल यक्ष को प्रसन्न किया बल्कि अपने अचेत भाइयों का चैतन्य भी वापस माँगा। फलतः वे सब जीवित हो उठे। यक्ष एवं युधिष्ठिर के बीच हुए संवाद को यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

यक्षः- केन स्विदावृतो लोकः केनस्विन्न प्रकाशते ।
केन त्यजति मित्राणि केन स्वर्गं न गच्छति ।।1।।

अर्थ- यक्ष ने कहा— संसार किस वस्‍तु से ढ़का हुआ है ? किस कारण प्रकाश नहीं पाता है ? किस कारण से आदमी मित्रों को छोड़ देता है ? और स्‍वर्ग किस लिए नहीं जा पाता है ?

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युध्ष्ठिरः- अज्ञानेनावृतो लोकस्तमसा न प्रकाशते ।
लोभात् त्यजति मित्राणि सग्‍डात् स्वर्गं न गच्छति ।।2।।

अर्थ- युधिष्ठिर ने कहा—संसार अज्ञान से ढका हुआ है। अँधेरे के कारण प्रकाश नहीं पाता है। लोभ के चलते आदमी मित्रों को छोड़ देता है और सांसारिक आसक्ति के कारण स्वर्ग नहीं जा पाता है। |
व्याख्या–प्रस्तुत श्लोक महाभारत के वनपर्व से संकलित तथा यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ पाठ से उद्धृत है। इसमें युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया है कि यह संसार अज्ञान से ढका हुआ है। अज्ञानता के कारण ज्ञानरूपी प्रकाश नहीं फैलता है। तात्पर्य कि अज्ञानीजन ज्ञान के महत्त्व को नहीं समझते हैं जिस कारण वे स्वार्थ में डूबे होते हैं और सांसारिक माया-मोह में फंसे रह जाते हैं, स्वर्ग नहीं जाते हैं। अर्थात् अज्ञानी व्यक्ति को शांति की प्राप्ति कभी नहीं होती है।

यक्षः- किं ज्ञानं प्रोच्यते राजन् कः शमश्च प्रकीर्तितः ।
दया च का परा प्रोक्ता किं चार्जवमुदाहृतम् ।।3।।

अर्थ —  हे राजन् ! ज्ञान किसे कहा जाता है? मुक्ति क्‍या है? उत्‍कृष्‍ट दया क्‍या है और सरलता किसे कहते हैं?

युध्ष्ठिरः- ज्ञानं तत्त्वार्थसम्बोध्ः शमश्चित्तप्रशान्तता ।
दया सर्वसुखैषित्वमार्जवं समचित्तता ।।4।।

अर्थ-युधिष्ठिर ने कहा-परब्रह्मपरमात्मा के सम्बध का बोध ज्ञान है। चित्त की शान्ति मुक्ति है। सबके लिए सुख की इच्छा दया है और समचित्तता सरलता है।
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक “यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ से उद्धृत है। युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देते हुए स्पष्ट किया है कि परमब्रह्म का बोध ही ज्ञान है। चित्त की शांति मुक्ति है, सबके सुख की कामना दया है तथा समचित्तता ही सरलता है। तात्पर्य यह है कि जिसे ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, वह सरल हृदय, दयावान् तथा शांतचित्त होता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी विषम परिस्थिति में विचलित होता, बल्कि सबकी शुभकामना प्रकट करता है तथा सबके साथ समान व्यवहार करता है।

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यक्षः- कः शत्रार्दुर्जयः पुंसां कश्च व्याध्रिनन्तकः ।
को वा स्यात् पुरुषः साधुरसाधुः पुरुषश्च कः ।।5।।

अर्थ— यक्ष ने कहा— मनुष्‍यों का अजेय शत्रु कौन है? अनंत रोग क्‍या हैᣛ? साधु कौन है? और असाधु कौन है?

युध्ष्ठिरः- क्रोध्ः सुदुर्जयः शत्रार्लोभो व्याध्रिनन्तकः ।
सर्वभूतहितः साधुरसाधुःर्निर्दयः स्मृतः ।।6।।

अर्थ- युधिष्ठिर ने कहा-मनुष्यों का अजेय शत्रु क्रोध है। लोभ कभी अन्त न होनेवाला रोग है। सब प्राणियों के हित में तत्पर साधु है और निर्दय व्यक्ति असाधु है।
व्याख्या प्रस्तुत श्लोक महर्षि व्यास रचित महाभारत के वनपर्व से संकलित है। युधिष्ठिर ने यक्ष के पूछने पर क्रोध एवं लोभ के विषय में अपना विचार प्रकट किया है कि क्रोध मनुष्य के अन्दर निवास करने वाले सारे जुल्मों का कारण है। यह मनुष्य का अजेय शत्रु है, क्योंकि क्रोध मनुष्य को विवेकशून्य बना देता है। लोभ सारे पापों का कारण है। लोभ के कारण ही मनुष्य निकृष्ट व्यक्ति के आगे-पीछे करता है तथा
अपमानित जीवन व्यतीत करता है। साधु उसे कहते हैं जो सबके कल्याण के लिए व्यग्र रहते हैं तो असाधु क्रूर स्वभाव के होते हैं तथा सबके साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार करते हैं।

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यक्षः- किं स्थैर्यमृषिभिः प्रोक्तं किं च धैर्यमुदाहृतम् ।
स्नानं च किं परं प्रोक्तं दानं च किमिहोच्यते ।।7।।

अर्थ- यक्ष बोला — ऋषियों ने स्थिरता किसे कहा है? धैर्य किसे कहा गया है? उत्तम स्‍नान किसे कहते हैं? और दान किसे कहा जाता है?

युध्ष्ठिरः- स्वर्ध्मे स्थिरता स्थैर्यं धैर्यमिन्द्रियनिग्रहः ।
स्नानं मनोमलत्यागो दानं वै भूतरक्षणम् ।।8।।

अर्थ-युधिष्ठिर ने कहा-अपने धर्म पर दृढ़ रहना स्थिरता है। इन्द्रियों को वश में रखना धर्म है। मन का मैल धो लेना अर्थात् मन को पवित्र बना लेना सान है और प्रणियों की रक्षा करना दान है।
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ पाठ से लिया गया है। इसमें युधिष्ठिर ने यक्ष द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा है कि अपने धर्म पर दृढ़ रहना स्थिरता है, इन्द्रियों को वश में रखना धैर्य है, मन को कुविचारों से मुक्त रखना स्नान है तथा जीवों की रक्षा करना दान है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जब दृढ़ता के साथ अपने नियमों का पालन करता है, अपने मन पर नियंत्रण रखता है, मन में आए बुरे विचारों का त्याग करता है तथा प्राणियों की रक्षा करता है तो ऐसा व्यक्ति निश्चित रूप में सच्चा मानव कहलाने का अधिकारी होता है, क्योंकि सारी इन्द्रियाँ उसके अधीन होती हैं। वह मानवीय गुणों से युक्त होता है।

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यक्षः- कः पण्डितः पुमाग्‍ज्ञेयो नास्तिकः कश्च उच्यते ।
को मूर्खः कश्च कामः स्यात् को मत्सर इति स्मृतः ।।9।।

अर्थ- यक्ष बोला — किस पुरूष को पंडित मानना चाहिए ? नास्तिक किसे कहा जाता है? मुर्ख कौन है? वासना क्‍या है? और मत्‍सर यानी ईर्ष्‍या-द्वेष या जलन रखने वाला किसे कहते हैं?

युध्ष्ठिरः- र्ध्मज्ञः पण्डितो ज्ञेयो नास्तिको मूर्ख उच्यते ।
कामः संसारहेतुश्च हृत्तापो मत्सरः स्मृतः ।।10।।

अर्थ- युधिष्ठिर ने कहा- धर्म के जानने वाले को पण्डित समझना चाहिए। मूर्ख नास्तिक होता है। सांसारिक जन्म और मरण का कारण वासना है और दूसरे को देखकर हृदय में जो जलन होती है उसे मत्सर कहते हैं।
व्याख्या— प्रस्तुत श्लोक ‘यक्षयुधिष्ठिर संवाद’ पाठ से उद्धृत है। इसमें युधिष्ठिर ने यक्ष द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा है कि पंडित वह जो धर्म के तत्व को जानता है अर्थात् मानवीय गुणों को जाननेवाला पंडित है तथा इन मानवीय गुणों के विरुद्ध चलने वाला नास्तिक कहलाता है। सांसारिक विषय-वासनाओं में लिप्त रहनेवाला अर्थात् संसार को सत्य समझने वाला मूर्ख कहलाता है तथा ईर्ष्या-द्वेष की आग में जलते रहना मत्सर है।

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द्वितीयः पाठः लोभाविष्टः चक्रध्रः | Class 9th Sanskrit Lobhavist Chakradhar

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 2 लोभाविष्टः चक्रध्रः (Class 9th Sanskrit Lobhavist Chakradhar) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

 

द्वितीयः पाठः

लोभाविष्टः चक्रध्रः

पाठ परिचय प्रस्तुत पाठ ‘लोभाविष्टः चक्रधरः’ पंचतंत्र नामक प्राचीन नीतिकथा संग्रह से लिया गया है। इस कथासंग्रह के लेखक विष्णुशर्मा को माना जाता है। पाँच भागों (तंत्रों) में विभक्त होने के कारण इसे पंचतंत्र कहा जाता है। मित्रभेद, मित्रसम्प्राप्ति, काकोलूकीय, लब्धप्रणांश तथा अपरीक्षित कारक। इनकी कथाएँ गद्य में हैं जिनके बीच अनेक पद्य भी नीतिश्लोक के रूप में है। सामान्यतः पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर ये नीति कथाएँ प्रस्तुत है किंतु पाँचवे तन्त्र में मनुष्यों की ही कथाएँ हैं। प्रस्तुत पाठ इसी तन्त्र का संकलित अंश है जिसमें अधिक लोभ का दुष्परिणाम दिखाया गया है।

कस्मिंश्चित् अध्ष्ठिाने चत्वारो ब्राह्मणपुत्राः मित्रातां गता वसन्ति स्म। ते दारिद्र्योपहता मन्त्रां चक्रुः-अहो धिगियं दरिद्रता। उक्तञ्च-

अर्थकिसी नगर में चार ब्राह्मण पुत्र मित्रता पूर्वक रहते थे। दरिद्रता से पीड़ि‍त उन्‍होंने आपस में विचार किया- अरे ऐसा जीवन व्‍यर्थ है। कहा गया है-

वरं वनं व्याघ्रगजादिसेवितं
जनेन हीनं बहुकण्टकावृतम् ।
तृणानि शय्या परिधनवल्कलं
न बन्धुमध्ये धनहीनजीवितम् ।।

अर्थ- (अपनी दरिद्रता से पिड़ि‍त चारों ब्राह्मण विचार करते हैं कि) बाघ-हाथियों से युक्‍त, निर्जन, काँटों से आच्‍छादित, घास पर सोना तथा वल्‍कल वस्‍त्र पहनकर जीवन-निर्वाह करना बेहतर है, परन्‍तु अपने भाई-बन्‍धु के बीच गरीबी का जीवन बिताना अर्थात् धन से हीन रहना अति कष्‍टदायक होता है।

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‘तद्गच्छामः कुत्राचिदर्थाय’ इति संमन्त्रय स्वदेशं परित्यज्य प्रस्थिताः। क्रमेण गच्छन्तः ते अवन्तीं  प्राप्ताः। तत्रा क्षिप्राजले कृतस्नाना महाकालं प्रणम्य यावन्निर्गच्छन्ति, तावद्भैरवानन्दो नाम योगी सम्मुखो बभूव।  तेन ते पृष्टाः- कुतो भवन्तः समायाताः? किं प्रयोजनम्?

ततस्तैरभिहितम्- वयं सिद्धियात्रिकाः। तत्रा यास्यामो यत्रा ध्नाप्तिर्मृत्युर्वा भविष्यतीति। एष निश्चयः।  उक्तञ्च-

अर्थ- ऐसी सलाह करके वे अपना देश (स्थान) छोड़कर कहीं धनार्जन के लिए जाते हैं। इस प्रकार जाते हुए वे अवन्ती (उज्जैन) पहुँच जाते हैं। वहाँ (वे) शिप्रा नदी में स्नान करके महाकालेश्वर महादेव को प्रणाम करके जैसे ही निकलते हैं, तभी भैरवानंद नाम का कौल संन्यासी मिल गए। उन्होंने उनलोगों से पूछा-आप लोग कहाँ से आए हैं और आने का उद्देश्य क्या है ? तब उनके द्वारा कहा गया—हमलोग सिद्धयात्री हैं, जहाँ जाएँगे, वहाँ धन की प्राप्ति होगी या मृत्यु । ऐसा निश्चित है। और कहा गया है

अभिमतसि(रशेषा भवति हि पुरुषस्य पुरुषकारेण ।
दैवमिति यदपि कथयसि पुरुषगुणः सो{प्यदृष्टाख्यः ।।

अर्थ-उद्योगी (परिश्रमी) व्यक्ति की सारी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं, गुणवान् व्यक्ति को भाग्य भी मदद करता है जबकि वह भी अदृष्ट नामधारी कहलाता है।

व्याख्या-प्रस्तुत श्लोक विष्णुशर्मा लिखित पंचतंत्र नामक ग्रंथ के पाँचवे तंत्र ‘अपरीक्षित कारक’ से संकलित है। इसमें उद्योगी (परिश्रमी) व्यक्ति की विशेषता बताई गई है। लेखक का कहना है कि भाग्य भी उसी व्यक्ति की मदद करता है जो स्वयं उद्यमशील होता है। उद्यमशील व्यक्ति अपने परिश्रम के बल पर सारी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य कि दुर्भाग्य के समय व्यक्ति का सारा प्रयास निष्फल हो जाता है। अतएव उद्यम (परिश्रम) के साथ-साथ व्यक्ति को भाग्यवान् भी होना आवश्यक होता है, तभी व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होता है।

तत्कथ्यतामस्माकं कश्चि(नोपायः। वयमप्यतिसाहसिकाः। उक्त×च-

अर्थ-इसलिए हमें धन प्राप्ति का कोई उपाय बताएँ। हमलोग भी अति साहसी हैं। और कहा भी गया है

महान्त एव महतामर्थं साध्यितुं क्षमाः ।
ट्टते समुद्रादन्यः को बिभर्ति वडवानलम् ।।

अर्थ-‘महापुरुष में ही महान कार्य करने की शक्ति होती है, जैसे—समुद्र के सिवा वडवानल को कौन धारण कर सकता है अर्थात् जिस प्रकार समुद्र के अतिरिक्त वडवानल को दूसरा कोई धारण नहीं कर सकता है, उसी प्रकार महापुरुष महान् कार्य सम्पन्न करने के लिए क्षमा को अपनाते हैं।

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व्याख्या- ‘पंचतंत्र’ से संकलित प्रस्तुत पद्य के माध्यम से रचनाकार ने बताना यह चाहा है कि महान बनने के लिए व्यक्ति को महान् कार्य करना पड़ता है। इसके लिए उस व्यक्ति को महान् त्याग अथवा महान् कष्ट सहन करने के लिए तैयार रहना पड़ता है। जिस प्रकार समुद्र अपने अन्दर आग को छिपाए रहता है, उसी प्रकार महापुरुष अपने अन्दर क्षमा धारण किये रहते हैं। तात्पर्य कि संसार में श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति

को कठिन-से-कठिन कार्य करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है। जो समस्याओं को _देखकर भयभीत हो जाता है, उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती। इसी उद्देश्य की पूर्ति

के लिए महापुरुष क्षमाशील हो जाते हैं जैसे समुद्र वडवानल को छिपाए रहता है।

भैरवानन्दो{पि तेषां सिद्ध्यर्थं बहूपायं सि(वर्तिचतुष्टयं कृत्वा आर्पयत्। आह च- गम्यतां हिमालयदिशि, तत्रा  सम्प्राप्तानां यत्रा वर्तिः पतिष्यति तत्रा निधनमसन्दिग्ध्ं प्राप्स्यथ। तत्रा स्थानं खनित्वा निधि्ं गृहीत्वा निवर्त्यताम्। तथानुष्ठिते तेषां गच्छतामेकतमस्य हस्तात् वर्तिः निपपात। अथासौ यावन्तं प्रदेशं खनति तावत्ताम्रमयी  भूमिः। ततस्तेनाभिहितम्- ‘अहो! गृह्यतां स्वेच्छया ताम्रम्।’ अन्ये प्रोचुः- ‘भो मूढ! किमनेन क्रियते?  यत्प्रभूतमपि दारिद्र्यं न नाशयति। तदुत्तिष्ठ, अग्रतो गच्छामः। सो{ब्रवीत्- ‘यान्तु भवन्तः नाहमग्रे यास्यामि।’  एवमभिधय ताम्रं यथेच्छया गृहीत्वा प्रथमो निवृत्तः।

अर्थ- भैरवानन्द ने भी उनकी सफलता (कार्य सिद्धि) के लिए अनेक उपाय करके सिद्धबत्ती को चार भाग करके उन्हें दे दिया और कहा–हिमालय की ओर जाओ, वहाँ जाने पर जहाँ बत्ती गिरेगी, वहाँ निस्संदेह खजाना पाओगे। उस स्थान को खोदकर धन (खजाना) को लेकर लौट जाओ।

वैसा कहने पर जाते हए उनमें से एक के हाथ से बत्ती गिर गई। इसके बाद जैसे ही वह जमीन को खोदता है, वैसे ही ताँबे से पूर्ण भूमि दिखाई दी। तब उसके द्वारा कहा गया—अरे ! अपनी इच्छा भर ताँबे को ग्रहण करो। दूसरों ने कहा-अरे मूर्ख । यह क्या करते हो? इससे अधिक दरिद्रता दूर नहीं होगी। इसलिए, उठो, आगे चलें। वह बोला—आप लोग जाएँ, मैं आगे नहीं जाउँगा। ऐसा कहकर पहला ब्राह्मण कुमार इच्छा भर ताँबे को लेकर चला गया।

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ते त्रायो{प्यग्रे प्रस्थिताः। अथ कि×चन्मात्रां गतस्य अग्रेसरस्य वर्तिः निपपात, सो{पि यावत्  खनितुमारभते तावत् रूप्यमयी क्षितिः। ततः प्रहर्षितः आह- गृह्यतां यथेच्छया रूप्यम्। नाग्रे गन्तव्यम्। किन्तु  अपरौ अकथयताम्- आवामग्रे यास्यावः। एवमुक्त्वा द्वावप्यग्रे प्रस्थितौ। सो{पि स्वशक्त्या रूप्यमादाय निवृत्तः।

अथ तयोरपि गच्छतोरेकस्याग्रे वर्तिः पपात। सो{पि प्रहृष्टो यावत् खनति तावत् सुवर्णभूमिं दृष्ट्वा  प्राह- ‘भोः गृह्यतां स्वेच्छया सुवर्णम्। सुवर्णादन्यन्न कि×चदुत्तमं भविष्यति।’ अन्यस्तु प्राह- ‘मूढ! न  कि×चद् वेत्सि। प्राक्ताम्रम् ततो रूप्यम्, ततः सुवर्णम्। तन्नूनम् अतःपरं रत्नानि भविष्यन्ति। तदुत्तिष्ठ, अग्रे  गच्छावः। किन्तु तृतीयः यथेच्छया स्वर्णं गृहीत्वा निवृत्तः।

अर्थ-वे तीनों आगे की ओर चल पड़े। इसके बाद थोड़ी ही दूर जाने पर आगे-आगे चलनेवाले के आगे बत्ती गिर गई। वह भी जैसे ही जमीन को खोदना आरंभ करता है,

वैसे ही चाँदी से भरी हुई जमीन दिखाई दी। तब प्रसन्नतापूर्वक बोला—इच्छा भर चाँदी ग्रहण करो। आगे नहीं जाना चाहिए। लेकिन अन्य दोनों ने कहा-हम दोनों आगे जाएँगे। ऐसा कहकर वे दोनों भी चल दिए। वह भी अपनी शक्ति भर चाँदी लेकर चला गया।

इसके बाद इन दोनों के जाते हुए में से एक के आगे बत्ती गिर गई। वह भी प्रसन्न होकर जैसे ही जमीन को खोदता है, वैसे ही स्वर्णमय भूमि को देखकर बोला-अरे! इच्छा भर सोना ग्रहण करो। सोने से बढ़कर दूसरा कुछ भी बहुमूल्य नहीं होता। दूसरे ने कहा—मूर्ख ! (तुम) कुछ भी नहीं जानते हो। पहले ताँबा, फिर चाँदी, उसके बाद सोना मिला । तब निश्चय ही (अब) अति मूल्यवान् रत्न होगा। वह उठकर, आगे बढ़ जाता है। लेकिन तीसरा इच्छा भर सोना लेकर लौट जाता है।

अनन्तरं सो{पि गच्छन्नेकाकी ग्रीष्मसन्तप्ततनुः पिपासाकुलितः मार्गच्युतः इतश्चेतश्च बभ्राम। अथ  भ्राम्यन् स्थलोपरि पुरुषमेकं रुध्रिप्लावितगात्रां भ्रमच्चक्रमस्तकमपश्यत्। ततो द्रुततरं गत्वा तमवोचत्- ‘भोः को  भवान्? किमेवं चक्रेण भ्रमता शिरसि तिष्ठसि?

तत् कथय मे यदि कुत्राचिज्जलमस्ति। एवं तस्य प्रवदतस्तच्चक्रं तत्क्षणात्तस्य शिरसो ब्राह्मणमस्तके आगतम्।

सः आह- किमेतत्?स आह-  ममाप्येवमेतच्छिरसि आगतम्। स आह- तत् कथय, कदैतदुत्तरिष्यति? महती मे वेदना वर्तते।

’ स आह- ‘यदा  त्वमिव कश्चिद् धृतसिद्धवर्तिरेवमागत्य त्वामालापयिष्यति तदा तस्य मस्तके गमिष्यति। ’ इत्युक्त्वा स गतः। अतः उच्यते।

अर्थ-इसके बाद वह अकेले जाते हुए गर्मी से व्याकुल, प्यास से पीड़ित रास्ते से भटक कर इधर-उधर घूमने लगा। इसके बाद घूमते हुए किसी जगह एक व्यक्ति को खून से लथपथ सिर पर घूमते हुए चक्र (चक्का) में देखा। तब तेजी से जाकर उसको कहा-अरे! आप कौन हैं ? आप के सिर पर यह घूमता हुआ चक्र क्यों है ? मुझे बताइए कि जल कहाँ है?

इस प्रकार उसके कहने पर वह चक्र अतिशीघ्र उसके सिर से ब्राह्मण के सिर पर आ गया। उसने (ब्राह्मण ने) कहा-यह क्या ? वह बोला-मेरे सिर पर भी चक्र इसी प्रकार आ गया था। उसने कहा–बताओ कि यह कब उतरेगा ? मुझे काफी पीड़ा हो रही है। वह बोला-जब तुम्हारे ही तरह कोई धृतसिद्ध बत्ती के साथ आकर तुमको कहेगा तब उसके सिर पर (चक्र) चला जाएगा।

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अतिलोभो न कर्तव्यो लोभं नैव परित्यजेत् ।
अतिलोभाभिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके ।।

अर्थ- मनुष्य को न तो अधिक लोभ करना चाहिए और न ही (उसका) त्याग करना चाहिए, क्योंकि अतिलोभ के कारण व्यक्ति के मस्तक पर चक्र घूमता है।

व्याख्या–प्रस्तुत श्लोक विष्णु शर्मा द्वारा लिखित ‘पंचतंत्र के पाँचवें तंत्र अपरीक्षित तंत्र से संकलित तथा लोभाविष्टः चक्रधरः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें नीतिकार ने अतिलोभ से होनेवाले दुष्परिणाम पर प्रकाश डाला है।

नीतिकार का कहना है कि जिस प्रकार चक्रधर को अपने अतिशय लोभ के कारण घूमते हुए चक्र का कष्ट सहन करना पड़ा, उसी प्रकार जो व्यक्ति अधिक लोभ करते हैं, उन्हें अनेक प्रकार के कष्टों को सहना पड़ता है। तात्पर्य कि एक निश्चित सीमा तक लोभ करना क्षम्य होता है अन्यथा वह दुःख का कारण बन जाता है। हर क्षण व्यक्ति को इस बात का ख्याल रखना चाहिए।

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प्रथम: पाठ: ईशस्‍तुति: | Class 9th Sanskrit Is stuti

इस पोस्‍ट में हमलोग कक्षा 9 संस्‍कृत के पाठ 1 ईशस्‍तुति: (Class 9th Sanskrit Is stuti) के सभी टॉपिकों के अर्थ का अध्‍ययन करेंगे।

 

प्रथम: पाठ:

ईशस्‍तुति:

पाठ-परिचय प्रस्तुत पाठ ‘ईशस्तुतिः’ में तीन मंत्र विभिन्न उपनिषदों से तथा दो पद्य भगवद्गीता से लिए गए हैं। ये उपनिषदें हैं-तैत्तरीय, वृहदारण्यक तथा श्वेताश्वर । इस पाठ में संकलित मंत्र आनंदरूप परम शक्तिशाली, जगत् के कण-कण में विराजमान परमेश्वर की वंदना करते हुए प्रकाश की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते है। उपनिषद् एवं भगवद्गीता मानव जीवन की सर्वांगीणता के लिए रचित अमूल्य ग्रंथ हैं। उपनिषद् में अनेक ऋषि-मुनियों के विचार निबद्ध हैं तो भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण के महान संदेश। इस पाठ में उसी सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की प्रार्थना की गई है।

यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन ।।(तैत्तिरीय 2.9)

अर्थ-जहाँ वाणी मन के साथ ब्रह्म को न पाकर लौट जाती है अर्थात् जिस ईश्वर को वाणी तथा मन से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उन्हें जानकर अर्थात् उस ब्रह्मानंद को जाननेवाले किसी से भयभीत नहीं होते हैं।

व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक तैत्तरीय उपनिषद् से संकलित ‘ईशस्तुतिः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें ईश्वर की महानता का गुणगान किया गया है।

ईश्वर आनन्द स्वरूप है। वह ईश्वर इतना महान् है कि वाणी तथा मन वहाँ तक नहीं पहुंच पाते हैं। अर्थात् जिसका वर्णन वाणी तथा मन नहीं कर सकते हैं, उस आनंदस्वरूप ब्रह्म को जाननेवाले किसी से भयभीत नहीं होते हैं। इसलिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वह आपको आनन्दस्वरूप ब्रह्म का ध्यान कर सांसारिक भय से मुक्त हो जाए।

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असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।। (बृहदारण्यक 1.3.28)

अर्थ- हे ईश्वर! हमें) कुमार्ग नहीं, सन्मार्ग पर ले जाओ। अंधकार (अज्ञान) नहीं, प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले जाओ तथा मृत्यु नहीं, अमरता की ओर ले जाओ।

व्याख्या प्रस्तुत पद्य बृहदारण्यक उपनिषद् से संकलित ‘ईशस्तुतिः’ पाठ से उन है। इसमें ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु! हमें सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो क्योंकि कुमार्ग मानव को नाश के गर्त में ढकेल देता है जबकि सन्मार्ग हमें मानवीय गुणों से अभिभूत कर देता है। इसी प्रकार हमें अज्ञानरूपी अंधकार से निकाल कर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करो। अंधकार को अज्ञान का प्रतीक माना गया है। व्यक्ति अपनी अज्ञानता के कारण सही-गलत में भेद नहीं कर पाता। फलतः सांसारिक माया-मोह में जकड़ा रह जाता है। इसलिए हे ईश्वर! हमें प्रकाश (ज्ञान) दो, ताकि हम सही-गलत में भेद कर सकें और ज्ञानरूपी प्रकाश के द्वारा जीवन-मूल्य को समझ सकें। पुनः स्तोता ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे ईश्वर! हमें अमरता प्रदान करो। हमारा चित्त अच्छे कर्मों में लगाओ। शुभ कर्म करने पर ही व्यक्ति अमर होता है। बुरा कर्म तो व्यक्ति को नाश की ओर ले जाता है, इसलिए सदैव महान् कार्य करने के लिए हमें प्रेरित करो।

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः। सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताध्विसः। साक्षी चेताः केवलो निर्गुणश्च ।।(श्वेताश्व० 6.11)

अर्थ-एक ईश्वर ही सभी प्राणियों में छिपा हुआ है। वह सर्वत्र व्याप्त तथा सारे प्राणियों के हृदय में निवास करने वाला, कर्मों पर नियंत्रण रखनेवाला, सभी वस्तुओं में रहनेवाला निर्गुण रूप में चैतन्य रूप साक्षी सिर्फ वही है।

व्याख्या–प्रस्तुत श्लोक श्वेताश्वर उपनिषद् से संकलित ईशस्तुतिः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें ईश्वर की सर्वव्यापकता तथा सारे प्राणियों में स्थित बताया गया है। ऋषि-मुनियों का मानना है कि ईश्वर निर्गुण होते हुए भी सभी प्राणियों में प्रच्छन्न रूप में विद्यमान है। तात्पर्य कि यह संसार उसी परमपिता परमेश्वर से संचालित होता है। सृष्टि के कण-कण में वही प्रतिभासित होता है। हर प्राणी अथवा वस्तु में वही निवास करता है, वह सर्वद्रष्टा है। भाव यह है कि ईश्वर जगत् का स्वामी, पालक, संचालक तथा सर्वद्रष्टा है।

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त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः
त्वमस्य विश्वस्य परं निधनम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ।।   (गीता 11.38)

अर्थ-हे अनन्तरूप ! तुम आदिदेव एवं पुरातन पुरुष हो। तुम इस संसार के (जीवों के) सर्वश्रेष्ठ (सबसे बड़ा) सहारा अर्थात् आश्रय हो। तुम सर्वज्ञ हो, तुम्हीं सब कुछ जानने वाले तथा श्रेष्ठ धाम हो। तुम्हारे द्वारा ही यह संसार रचा गया है। – व्याख्या-श्रीमद्भगवद्गीता से उद्धृत इन पंक्तियों में भगवान् कृष्ण (विष्णु) के | सम्बन्ध में कहा गया है कि ईश्वर ही संसार के आदिदेव, सनातन, अनन्तरूप है। संसार | की सारी वस्तुएँ उसी में समाहित हैं। अर्थात् इस जगत् के जानने योग्य सारी बातों को | जानने वाला परम धाम तथा सबका आश्रय (आधार) कृष्ण ही, अर्थात् विष्णु ही है। तात्पर्य कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है।

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ।। (गीता 11.40)

अर्थ-हे अनन्त सामर्थ्यवाले! आपके लिए आगे से तथा पीछे से भी नमस्कार है। हे सर्वात्मन् ! आपके लिए सब ओर से ही नमस्कार हो, क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं।

व्याख्या-प्रस्तुत श्लोक श्रीमद्भागवत से संकलित ‘ईशस्तुतिः’ पाठ से उद्धृत है। इसमें ईश्वर की विशालता का वर्णन किया गया है। स्तोता ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे सर्वात्मन् ! सारा संसार आप में ही व्याप्त है। आप ही सर्वशक्तिमान् पराक्रमी तथा अनंत सामर्थ्य वाले हैं। तात्पर्य कि ईश्वर ही विभिन्न रूपों में प्रतिभासित होता है। सर्वत्र उसी सर्वशक्तिमान् ईश्वर की ज्योति जगमग करती है। अर्थात् ईश्वर के सिवा कुछ भी सत्य नहीं है। ईश्वर ही सत्य है।

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लालपान की बेगम लेखक फणीश्वरनाथ रेणु | Lal pan ki begam

इस पोस्‍ट में हमलोग फणीश्वरनाथ रेणु रचित कहानी ‘लालपान की बेगम(Lal pan ki begam)’ को पढ़ेंगे। यह कहानी समाजिक कुरितियों के बारे में है।

Lal Pan ki Begam

Bihar Board Class 9 Hindi Chapter 4 लालपान की बेगम

लेखक फणीश्वरनाथ रेणु

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पाठ का सारांश

प्रस्तुत कहानी ‘लाल पान की बेगम’ फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा लिखित ग्रामीण जीवन की कहानी है। इसमें कहानीकार ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गाँव में लोग किस तरह एक-दूसरे के साथ ईर्ष्या-द्वेष, राग-विराग, आशा-निराशा तथा हर्ष-विषाद के गहरे आवर्त में बँधे होते हैं। कहानी की नायिका बिरजू की माँ हैं । इसके अतिरिक्त बिरजू, बिरजू के पिता, चंपिया, मखनी फुआ तथा गाँव की कुछ अन्य स्त्रियाँ हैं । कहानी का ताना-बाना ग्रामीण परिवेश के आधार पर बुना जाता है, जिसे कहानीकार ने बड़े ही सहज एवं स्वाभाविक ढंग से प्रस्तुत किया है। बिरजू की माँ के परिवार में महीनों पहले से बैलगाड़ी में बैठकर बलरामपुर का नाच देखने की योजना बन रही है। सुबह से ही परिवार में नाच देखने जाने की चहल-पहल तथा उमंग-तरंग है । बिरजू की माँ शकरकंद की रोटी बनाने की तैयारी कर रही है। इधर किसी पड़ोसिन से कहा-सुनी हो जाती है। जंगी की पतोहू बिरजू की माँ से डरती नहीं है। वह उसे लाल पान का बेगम कहती है तथा कमर पर घड़े को संभाल मटककर बोलती हुई ‘चल दिदिया चल’ कहकर चल देती है। बिरजू की माँ अपनी बेटी चंपिया से कहती है कि “सहुआइन जल्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहुआइन की ही दुकान पर मोती झड़ते हैं, जो जड़ गाड़कर बैठी हुई थी।”

शाम हो गई। दीया-बाती का समय हो चुका है। अभी तक गाड़ी नहीं आई है। बिरजू की माँ के सब्र का बाँध टूट रहा है। आक्रोशवश वह शकरकंद छीलना बंद कर देती है तथा कहती है कि ‘यह मर्द नाच दिखाएगा ? चढ़ चुकी गाड़ी पर, देख चुकी जीभर नाच।’ वह बिरजू एवं चंपिया को ढिबरी बुझा देने का आदेश देती है तथा खप्पची गिराकर चुपचाप सो जाने को कहती है। वह भी सोने का उपक्रम करती है। उसके मन में अपने पति के विरुद्ध क्रोध की ज्वाला धधक रही है। वह मड़ैया के अंदर चटाई पर करवटें ले रही थी कि तभी बिरजू का पिता बैलगाड़ी लेकर आ धमकता है। गाड़ी के आते ही परिवार में खुशी की लहर छा जाती है। शकरकंद की रोटी बनती है। फुआ बुलाई जाती हैं। बैलगाड़ी पर सभी सवार होते हैं । गाड़ी बलरामपुर की ओर चल पड़ती है। गाड़ी पर पड़ोस की कुछ औरतें भी सवार होती हैं। कार्तिक पूर्णिमा की चमचमाती रात में खेतों में पकी धान की बालें देखकर गीत गाने लगती हैं। बिरजू की माँ जंगी की पतोहू के सौन्दर्य में अपना सौन्दर्य देखती है तथा मन-ही-मन स्वीकार करती है कि वह सचमुच लाल पान की बेगम है । उसके मन में अब कोई लालसा नहीं। सभी के साथ वह भी चलती बैलगाड़ी में सो जाती है।

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प्राक् ऐतिहासिक काल | Prak Aitihasik kal kise kahte hain

इस पोस्‍ट में प्राक् ऐतिहासिक काल के बारे में सम्‍पूर्ण जानकारी (Prak Aitihasik kal kise kahate hain) को पढ़ेंगें, जो सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के ल‍िएमहत्‍वपूर्ण है।

Prak Aitihasik kal kise kahte hain

  • अतीत का अध्ययन इतिहास कहलाता है।
  • इतिहस के जनक हेरोडोटस को कहते हैं।

इतिहास को 3 खण्डों में बाँटते हैं-

  1. प्राक् ऐतिहासिक काल
  2. आद्य ऐतिहासिक काल
  3. ऐतिहासिक काल

प्राक् ऐतिहासिक काल को 4 खंडों में बाँटते हैं-
1. पुरा पाषाण काल, 2. मध्य पाषाण काल, 3. नव पाषाण काल और 4. ताम्र पाषाण काल
आद्य ऐतिहासिक काल में सिंधु सभ्यता आता है। इसे कांसा सभ्‍यता या हड़प्‍पा सभ्‍यता के नाम से भी जाना जाता है।
ऐतिहासिक काल में निम्‍नलिखित खण्‍ड आते हैं-
प्राचीन काल, मध्य काल, आधुनिक काल, नेहरू काल और विश्व

(1) प्राक् ऐतिहासिक काल
इतिहास का वह समय जिसमें मानव लिखना पढ़ना नहीं जानता था तथा जिसके जानकारी केवल पुरातात्विक साक्ष्‍य से मिलती है, उसे प्राक् ऐतिहासिक काल कहते हैं। इस काल के अंतर्गत पाषाण काल को रखते हैं। इस काल में पत्‍थर के पत्‍थर का उपयोग अधिक होने के कारण इसे पाषाण काल कहते है।

पाषाण काल
वह समय जब मानव पत्‍थर के औजार एवं हथियार का उपयोग करता था, पाषाण काल कहलाता है।

पाषाण काल को 4 भागों में बाँटा गया है-
(1) पुरा पाषाण काल- यह इतिहास का सबसे प्रारम्भिक समय था। इस समय के मानव को आदि मानव कहा जाता है। इस समय का मानव खानाबदोश (खाद्य संग्राहक) अर्थात् उसके जीवन का मुख्‍य उद्देश्‍य जानवरों की भाँति ही अपना पेट भरना था। इस समय के मानव की सबसे बडी उपलब्धि आग की खोज थी।

(2) मध्‍य पाषाण- यह पूरापाषाण के बाद का काल था। इस समय मानव के हथियार छोटे आकार के थे। इस समय के मानव की सबसे प्रमुख कार्य अंत्‍येष्टि (अंतिम संस्‍कार) कार्यक्रम था।

 (3) नव या उत्तर पाषाण काल- इस काल में मानव ने स्‍थायी आवास बना लिया था। साथ ही मानव कृषि तथा पशुपालन भी प्रारंभ कर दिया। मानव ने इस काल में पहिया तथा मनका (घड़ा) की खोज की।

Note : (क) मानव ने सर्वप्रथम खेती 7000 ईसा पूर्व सुलेमान और किर्थर पहाड़ि‍यों के बीच की थी। पहली कृषि जौ एवं गेहूँ की हुई थी। सर्वप्रथम गेहूँ की खेती का साक्ष्‍य मेहरगढ़ (पाकिस्‍तान) तथा जौ की खेती का साक्ष्‍य इरान में मिला है।
(ख) मानव द्वारा पाला गया पहला पशु कुत्ता था।

(4) ताम्रपाषाण काल- यह पाषाण काल का अंतिम समय था। इस समय तांबे की खोज हुई थी। जिस कारण औद्योगीकरण शुरू हो गया। इसी औद्योगीकरण का विकसित रूप सिंधू सभ्‍यता में देखने को मिलता है।

प्रश्‍न 1.किस काल में मानव शिकारी (आखेटक) था?
उत्तर- पुरा पाषाण काल

प्रश्‍न 2.किस स्‍थान से पहली बार चावल का साक्ष्‍य मिला?
उत्तर- इलाहाबाद के कोल्डिहवा में।
Prak Aitihasik kal kise kahate hain

यूरोप में राष्‍ट्रवाद की सम्‍पूर्ण जानकारी

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Bihar Board Class 12th English Solution Notes Rainbow Part 2

इस पोस्‍ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 12 के अंग्रेजी Rainbow Part 2 Bihar Board Class 12th English Solution Notes All Topics with Lecture के सभी पाठों को अर्थ सहित व्‍याख्‍या को पढ़ेंगें।

इसको पढ़ने से आपके किताब के सभी प्रश्‍न आसानी से हल हो जाऐंगे। इसमें चैप्‍टर वाइज सभी पाठ के नोट्स को उपलब्‍ध कराया गया है। सभी टॉपिक के बारे में आसान भाषा में बताया गया है।

यह नोट्स NCERT तथा SCERT बिहार पाठ्यक्रम पर पूर्ण रूप से आ‍धारित है। इसमें हिन्‍दी के प्रत्‍येक पाठ के बारे में व्‍याख्‍या किया गया है, जो परीक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्‍वपूर्ण है। इस पोस्‍ट को पढ़कर आप बिहार बोर्ड कक्षा 10 के हिन्‍दी गोधूलि भाग 2 और वर्णिका भाग 2 के किसी भी पाठ को आसानी से समझ सकते हैं और उस पाठ के प्रश्‍नों का उत्तर दे सकते हैं। जिस भी पाठ को पढ़ना है उस पर क्लिक कीजिएगा, तो वह पाठ खुल जाऐगा। उस पाठ के बारे में आपको वहाँ सम्‍पूर्ण जानकारी मिल जाऐगी।

Class 12th English Solution Rainbow Part 2 Notes हिन्‍दी के सम्‍पूर्ण पाठ का व्‍याख्‍या

Bihar Board Class 12th English Solution Notes Rainbow Part 2 in Hindi 100 Marks

Class 12 Rainbow Part 2 English Solutions Prose Section Summary

Class 12 English Summary Notes
1   Indian Civilization and Culture
2   Bharat is My Home
3   A Pinch of Snuff
4   I Have a Dream
5   Ideas that have Helped Mankind
6   The Artist
7   A Child Born
8   How Free is the Press
9   The Earth
10   India Through a Traveller’s Eyes
11   A Marriage Proposal

BSEB Class 12th Rainbow Part 2 English Notes Explanation | Bihar Board 12th English Notes in Hindi

Bihar Board Class 12th English Poetry Section Summary in Hindi

Class 12th English Poetry Summary Notes
1   Sweetest Love I do not Goe
2   Song of Myself
3   Now the Leaves are Falling Fast
4   Ode to Autumn
5   An Epitaph
6   The Soldier
7   Macavity : The Mystery Cat
8   Fire-Hymn
9   Snake
10   My Grandmother’s House
11   Class 12th Hindi

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BSEB Class 12th Rainbow Part 2 Line by Line Explanation

Bihar Board Class 12th English in Hindi

Bihar Board Class 12th English Line by Line Explanation in Hindi

Class 12 Rainbow Part 2 English Explanation Prose Section line by line

Chapter 1 Indian Civilization and Culture
Chapter 2 Bharat is My Home
Chapter 3 A Pinch of Snuff
Chapter 4 I Have a Dream
Chapter 5 Ideas that have Helped Mankind
Chapter 6 The Artist
Chapter 7 A Child is Born
Chapter 8 How Free is the Press
Chapter 9 The Earth
Chapter 10 India Through a Traveller’s Eyes
Chapter 11 A Marriage Proposal

Class 12 Rainbow Part 2 English Explanation Poetry Section line by line

Chapter 1 Sweetest Love I do not Goe
Chapter 2 Song of Myself
Chapter 3 Now the Leaves are Falling Fast
Chapter 4 Ode to Autumn
Chapter 5 An Epitaph
Chapter 6 The Soldier
Chapter 7 Macavity : The Mystery Cat
Chapter 8 Fire-Hymn
Chapter 9 Snake
Chapter 10 My Grandmother’s House

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आशा करता हुँ कि आप को Class 12 English (Rainbow Part 2) के सभी पाठ को पढ़कर अच्‍छा लगेगा। इन सभी पाठ को पढ़कर आप निश्चित ही परीक्षा में काफी अच्‍छा स्‍कोर करेंगें। इन सभी पाठ को बहुत ही अच्‍छा तरीका से आसान भाषा में तैयार किया गया है ताकि आप सभी को आसानी से समझ में आए। इसमें Rainbow Part 2 Class 12 English के सभी पाठ को समझाया गया है। यदि आप बिहार बोर्ड कक्षा 12 से संबंधित किसी भी पाठ के बारे में जानना चाहते हैं, तो नीचे कमेन्‍ट बॉक्‍स में क्लिक कर पूछ सकते हैं। यदि आप और विषय के बारे में पढ़ना चाहते हैं तो भी हमें कमेंट बॉक्‍स में बता सकते हैं। आपका बहुत-बहुत धन्‍यवाद.